Saturday, June 01, 2013

बनना एक शिक्षिका का : अनुपमा तिवाड़ी

बनना एक शिक्षिका का : अनुपमा तिवाड़ी-------------------------------------------------

एम.ए. के बाद काम की शुरुआत बतौर एक शिक्षिका के रुप में की थी। मैंने कभी सोचा नहीं था कि शिक्षिका बनूँगी, बस कोई भी नौकरी कर लेने की इच्छा थी। मेरा बचपन राजस्थान के बांदीकुई कस्बे में बीता। पिता वहाँ रेल्वे में मेलगार्ड थे।  माँ भी एम. ए. पास थीं और लेखन कार्य से भी जुड़ी हुई थीं। मैं ब्राहमण जाति के शिक्षित परिवार में जन्मी थी इसलिए स्वयं को श्रेष्ठ समझने का संस्कार घर से मिला था। घर में घोर अनुशासन के बीच पली-बढ़ी थी। 1988 में परिवार बांदीकुई से जयपुर आ गया।
इसी वर्ष ’बोध शिक्षा समिति’ द्वारा शहर की कच्ची बस्तियों में संचालित वैकल्पिक विद्यालयों में शिक्षक / शिक्षिका पद हेतु समाचार पत्रों में विज्ञप्ति निकाली गई थी। इस विज्ञप्ति की चौंकाने वाली बात यह थी कि शिक्षिका पद के लिए प्रशिक्षित होने की शर्त नहीं थी। मैंने भी आवेदन कर दिया। मेरा साक्षात्कार हुआ। यह साक्षात्कार एकदम अलग था। साक्षात्कार में हम से एक गीत  ’सौ में सत्तर आदमी.....’ सामूहिक रूप से गवाया गया । इस गीत में क्या है ? इस सवाल पर लिखने को कहा गया। मिट्टी से खिलौने बनवाए गए। ‘वर्तमान में शिक्षा की स्थिति’ मुद्दे पर समूह में चर्चा करने को कहा गया। लगभग आधा दिन इस प्रकार की गतिविधियों के बाद व्यक्तिगत साक्षात्कार लिया गया। अन्य आवेदक लड़कियों से पता चला कि कुछ तो स्नातक भी नहीं हैं, तब मुझे लगा कि मेरा तो सलैक्‍शन हो ही जाएगा क्योंकि मैं तो एम.ए. हूँ।  
कुछ दिनों के बाद मुझे चुन लिए जाने का पत्र प्राप्त हुआ। अब मुझे तीन महीने का प्रशिक्षण लेना था। संस्था की कार्यप्रणाली व विस्तृत परिचय हेतु सभी चयनित सदस्यों को आमंत्रित किया गया। 16 सितम्बर 1989 को संस्था में मेरा पहला दिन था।  मेरी माँ मेरे साथ वहाँ के तौर-तरीकों और लोगों को देखने-समझने के लिए मेरे साथ आईं थीं। इस प्रशिक्षण में हम 12 प्रशिक्षु थे। यह संस्था में नए प्रशिक्षणार्थियों का दूसरा प्रशिक्षण था।
शिक्षिका बनाम विद्यार्थी
जयपुर शहर में संस्था का एक छोटा सा आँगन था। यह आँगन ही कार्यालय भी था और प्रशिक्षण केन्द्र भी। प्रशिक्षण में काम के दिन की शुरुआत चेतनागीत, बालगीत और कविताओं को गाने से होती थी। प्रार्थना से नहीं, ऐसा क्यों हैं यहाँ ? यह सवाल बार-बार मन में उठ रहा था पर आयोजकों से पूछने की हिम्मत नहीं थी। तीन-चार दिनों के बाद हम सब इन गीत-कविताओं को अपनी एक अलग डायरी में नोट करते गए और कुछ दिनों के बाद लय पकड़ते हुए एक-एक पंक्ति बोल-बोलकर सभी बालगीतों को गवाने भी लगे थे। सभी का गाने का अभ्यास हो रहा होता था और झिझक भी टूट रही थी। चेतनागीत एक तरह की चेतना का आवाह्न कर हमारे अन्तरतम को जगा रहे होते थे।
डायरी
हर रोज किन्हीं दो जनों की डायरी पढ़ी जाती थी। हम सभी घर जाकर पिछले दिन हुए काम को व्यवस्थित रूप में लिखते थे और फिर उसे सबके सामने अगले दिन सुनाते थे। डायरी में हमने किसी चीज को कैसे समझा ? पिछले दिन कैसा लगा, कोई गतिविधि क्यों करवाई गई, इस प्रकार की बातें लिखते थे। यदि लिखने में कुछ छूट गया तो अन्य साथी उसमें डायरी सुनने के बाद बताते कि यह विचार या काम छूट गया है या उक्त काम क्यों किया गया था यह बातें भी डायरी में लिखते थे। इस तरह सब अपने सुझाव और राय देते हुए डायरी लिखने के काम को बेहतर बनाने व अपने व दूसरों को विचारों को व्यवस्थित करने मे योगदान देते थे। लिखी जाने वाली डायरी, पिछले दिन के काम की झलक देती थी। इस तरह डायरी पर चर्चा करते हुए हमें विभिन्न मुद्दों व काम की कुछ-कुछ स्पष्टता होने लगी थी। किए जा रहे काम या बात पर कोई भी सवाल पूछ सकता था। इस तरह साथियों के सुझावों और स्वयं लिखने के प्रयासों से हम सभी की समझ भी सुदृढ़ होती रही और डायरी लिखने का कौशल भी विकसित होता गया।
खेल ,चित्र और हस्‍तकार्य
हम हर दिन एक खेल खेलते थे। जिनमें अधिकतर खेल सहभागिता आधारित होते थे। इन खेलों में किसी विशेष सामग्री की आवश्‍यकता नहीं होती थी। कुछ खेल इस प्रकार थे - कोड़ा जमालशाही, रुमाल झपट्टा, तोता कहे सो कर, कानाफूसी। ये खेल हमें स्फूर्त और आनन्दित करते थे और हम नए खेल भी सीख रहे होते थे। जिन्हें बाद में हमने बच्चों को भी खिलवाया। हस्तकार्य का काम भी प्रतिदिन किया जाता था जिसमें कागज पर मनचाहा चित्र बनाना, कोलाज बनाना, कागज मोड़कर कुछ खिलौने बनाना जैसे काम किए जाते थे। यह सब करते हुए हम कुछ-कुछ नया सीख रहे थे। इन कामों में एक प्रकार की स्वतंत्रता थी जैसे चित्र बनाना है तो स्वतंत्रता थी कि कोई भी चित्र बनाएँ। किसी खास चीज का चित्र बनाना है ऐसा नहीं था। इसलिए सीखते, काम करते समय बाध्यता या ऊब महसूस नहीं होती थी।
अवलोकन, सवाल, चर्चा  
प्रशिक्षण के दूसरे महीने में हम आधे दिन, उन बस्तियों में जाते जिनमें बोधशालाएँ चल रही थीं। वहाँ जाकर चल रहे शिक्षण कार्य का अवलोकन करते। समुदाय के लोगों से मिलते, बच्चों से बात करते फिर आधे दिन बाद प्रशिक्षण केन्द्र पर आकर अपने अनुभव साझा करते। वहाँ से लौटते समय हमारे साथ बहुत सारे प्रश्‍न और अनुभव होते थे। वहाँ के स्कूलों को बोधशाला कहा जाता था। इन शालाओं में प्रार्थना नहीं होती थीं, कक्षाएँ नहीं थीं, परीक्षाएँ नहीं होती थीं। यह सब हमारे लिए बिलकुल नई बातें थीं। एक दिन हम मालवीय नगर वाल्मिकी समाज की बस्ती में गए वहाँ से आकर अपने अनुभव साझा करते हुए मैंने कहा कि, ’’हमने तो वहाँ  एक राजपूत घर में पानी पिया।’’ इस बात पर हमारे समन्वयक योगेन्द्र जी ने कहा कि, ’’आपको कैसे पता कि वे राजपूत हैं?’’  मैंने कहा ’’उनके घर के बाहर नाम के आगे राजपूत लिखा था।’’ इस पर उन्होंने कहा ’’आप किस जाति की हो ? ’’  मैंने बड़े ही ठसके से कहा, ’’हम तो ब्राह्मण हैं। ’’ उन्होंने कहा ब्राह्मण तो नीचे होते हैं।’’ मैंने कहा, ’’नहीं ब्राह्मण सबसे ऊँचे होते हैं।’’ हम किसी निर्णय पर नहीं पहुँचे परन्तु इस बात ने थोड़ा अन्दर तक झकझोरा। शुरुआती दिनों में हम कुछ चुप-चुप रहे परन्तु जब लगा कि यहाँ आराम से अपनी बात कह सकते हैं। तब चर्चाओं में उलझने-सुलझने और समझने का दौर चल पड़ा।
एक बार सवाल किया कि बोधशाला में प्रार्थना क्यों नहीं करवाई जाती ? तो जवाब सवाल के रूप में मिला, ’’प्रार्थना क्यों होनी चाहिए?’’  हमारे जवाब कुछ इस तरह के थे, ’’वह सभी स्कूलों में होती है। सरस्वती की प्रार्थना तो होनी ही चाहिए। वह तो विद्या की देवी हैं, हम तो शुरु से प्रार्थना कर रहे हैं।’’ आदि-आदि। इस पर बात हुई कि क्या प्रार्थना करने भर से विद्या आ जाएगी ? क्या बच्चों का मन प्रार्थना करने के लिए होता है ? क्या प्रार्थना में बोले जाने वाले शब्दों के अर्थ बच्चे समझ रहे होते हैं ? हम अपने बचपन को याद करें हम प्रार्थना में क्या कर रहे होते थे ?
क्या जो हम काम शुरू से कर रहे हैं वे सब ठीक हैं ? क्या उन पर विचार नहीं कर सकते ? यदि वे ठीक नहीं लगते तो क्या उन्हें बदल नहीं सकते या उनकी जगह कुछ और नहीं कर सकते ?
इस तरह की चर्चाएँ बहुत बार हुआ करती थीं। धर्म पर भी बात हुई कि धर्म क्या है ? ये चर्चाएँ दो-दो, तीन-तीन दिनों तक चलती थीं। मुझे ये बातें नई लगती थीं और सही भी। चर्चाओं में मुझे बहुत ही आनन्द आता था। प्रशिक्षण में चर्चा करने पर बहुत जोर था। सब एक तरह की स्वतंत्रता महसूस करते थे। मुझे कभी-कभी लगता था कि इतनी अच्छी बातें तो मैंने पहले कभी नहीं सुनीं। मैं अपनी माँ को कभी यहाँ ले कर आऊँ तो कितना अच्छा हो। हमें अपनी बात कहने में डर नहीं लगता था। यह जगह एक माहौल देती थी जिससे हम अपनी बात बेझिझक रख सकते थे।
संस्था में कोई सफाई करने वाला नहीं था, न ही कोई चाय बनाने वाला था। सब काम हम बारी-बारी से ही करते थे। शुरुआत में 2-3 दिन हमारे समन्वयक और अकाउंटेंट ने ही चाय बनाई और कप भी उन्होंने ही धोए। तीन-चार दिन बाद समूह में समन्वयक की ओर से बात रखी गई कि क्या यह ठीक होगा कि सब अपने-अपने कप धोकर जाएँ। इस पर सभी ने सहमति जताई। परन्तु फिर भी कुछ झूठे कप घर भागते-भागते छूट ही जाते थे। उन्हें बाद में हमारे समन्वयक और अकाउंटेंट धोते थे। अगले दिन छूट गए कपों पर बात होती तो सब कहते कि ’’मैं तो वहाँ बैठी थी, मैं तो धोकर गई थी।’’ दो-चार दिन इस पर लगातार बात की गई, फिर सब अपने-अपने कप धोने लगे।
शिक्षण का प्रशिक्षण
प्रशिक्षण में मुख्य रूप से दो तरह का था। एक जो हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था, प्रचलित मान्यताओं, शिक्षा व हमारे क्रियाकलापों पर सोचने, समझने की ओर ले जाता था। दूसरा जिनका सम्बन्ध बच्चों के शिक्षण व उन्हें समझने से सम्बन्धित था। सीखने में दण्ड की व्यवस्था उन्हें सिखाने में कितनी कारगर होती है या उनका सीखना रोकती है ? इस प्रकार अनेक मुद्दों पर गहन चर्चाएँ की गई थीं। रोटी क्यों फूलती है ? समझ क्या चीज है ? ऐसे प्रश्‍नों  पर भी विमर्श किया गया था। कभी-कभी लगता कि हमारे आसपास की चीजों को देखने के नजरिए भी कितनी तरह के हो सकते हैं ?
प्रशिक्षण में 8 घंटे का समय तय था। परन्तु कभी-कभी चर्चाएँ चलतीं तो समय और ज्यादा भी हो जाता। तब मैं सोचती कि 5 बजे तक ही चर्चा करनी चाहिए। चर्चा बहुत ठीक लगतीं, परन्तु मुझे घर में देरी से पहुँचने पर डाँट का डर और कई साथियों को बस निकल जाने जैसे डर सताते थे। घर जाने के लिए हम सब लड़कियाँ ऐसे भागतीं कि बस पीछे मुड़कर भी देख लेंगी तो देर हो जाएगी। ऑफिस में सभी, समय पर या समय से पूर्व ही पहुँच जाते थे।
विषयों पर हमारी समझ को समृ़द्ध करने के लिए विश्‍वविद्यालय के कुछ प्रोफेसर भी आए थे। इनसे हमने विभिन्न विषयों के बारे में बात की। जैसे इतिहास के बारे में बात हुई कि इतिहास तो हिन्दी का भी हो सकता है, गणित का भी और किसी गाँव का भी। इस चर्चा से पहले मैं राजा, महाराजाओं और देशों की घटनाओं को ही इतिहास समझती थी। कहानी शिक्षण पर एक सत्र हुआ कि बच्चों को कहानी कैसे सुनाई जाए ? एक प्रशिक्षिका ने हमें कहानी बहुत ही रोचक तरीके और हाव-भाव से सुनाई।
बच्चे दुनिया को कैसे समझते हैं ? कैसे सीखते हैं ? हमें सीखने में, बच्चों की मदद कैसे करनी चाहिए ? बच्चों के बारे में उनका क्या कहना है जिन्होंने बच्चों के साथ लम्बे समय काम किया है ? यह समझने के लिए वसीली सुखोम्लीन्सकी की पुस्तक ’’बालहृदय की गहराईयाँ ’’ सभी ने पढ़ी। इस पुस्तक के एक-एक अध्याय में लेखक ने क्या कहा है इसे पढ़कर सभी ने बारी-बारी से अपने विचार प्रस्तुत किया। यह काम शुरुआत में हम सभी को बहुत कठिन लगा क्योंकि इस तरह की शिक्षा शास्त्रीय पुस्तक हम पहली बार पढ़ रहे थे और उसे सबके बीच प्रस्तुत कर रहे थे। संस्था के ऑफिस में एक छोटा पुस्तकालय भी था परन्तु हम उसमें से पुस्तकें लेकर नहीं देखते थे। एक बार जब हम कक्षा 1 से 5 तक की पुस्तकों का अवलोकन व विश्‍लेषण कर रहे थे तब हमने राजस्थान के शिक्षाक्रम व पाठ्यपुस्तकों को पहली बार देखा। मीना स्वामीनाथन की ’खेल क्रियाएँ’ व ’अरविंद गुप्ता’ की कबाड़ से जुगाड़ पुस्तकें काम में लीं। पुस्तकों को काम में लेने की आवश्‍यकता यहीं से आरम्भ हुई।
हमें अपने समाज, बच्चों को समझने, पाठ्यक्रम को पढ़ने, समझने, पुस्तकों पर काम करने के पर्याप्त अवसर मिले परन्तु यह ऐसा प्रशिक्षण नहीं था कि जिसके बाद हम कह सकें कि अब हम प्रशिक्षित हो गए हैं। हमारा प्रशिक्षण सतत सीखने का एक आरम्भिक हिस्सा था। हम सप्ताह के  शुरुआत में 5 दिन बच्चों के साथ काम करते और छठे दिन ऑफिस में कार्यशाला करते थे। जिसमें हम बच्चों के साथ किए गए काम को रिपोर्ट के रूप में लिखकर लाते थे। हमारे समूह में कितने बच्चे हैं ? इस सप्ताह बच्चों की नियमितता कितनी रही ? क्या-क्या काम किया गया ? नया काम क्या किया ? क्या दिक्कतें आईं ? क्यों आईं ? उन पर क्या प्रयास क्या किए ? यह सब बातें जवाबों के साथ होती थीं। जिससे यह स्पष्ट होता था कि जो कुछ हम कर रहे हैं उसके पीछे हमारी समझ क्या है ? सबके पास अपने तर्क होते थे। तर्क गलत भी हो सकते थे, इसकी पूरी आजादी थी इसलिए सही तक पहुँचने की पूरी सम्भावना थी। पढ़ी गई रिपोटर्स पर बातचीत होती थी।
इस तीन माह के प्रशिक्षण में, पहले महीने में 7 दिन और तीसरे महीने 15 दिन के लिए प्रशिक्षण को आवासीय भी रखा गया था। हम सभी ऑफिस में ही रहे। मिलकर सफाई करते, खाना बनाते, मिलकर उपसमूहों में शैक्षिक काम करते और देर रात तक बातें करते। मैंने अपने ऑफिस के लिए एक वॉल हैंगिंग, स्टेशनरी का सामान रखने के लिए मशीन से सिला और उसे गोटे से सजाया। त्यौहार पर मैं सबके लिए कभी हलवा, सलाद तो कभी अच्छा सा कुछ खाने के लिए बनाकर ले जाती। हम बहुत सी बातें आपस में साझा करते। हमें एक-दूसरे पर विश्‍वास भी होने लगा और हमारे बीच रिश्‍ते और गहरे होते गए। जो कि आज भी बहुत मजबूत हैं। वहाँ बने रिश्‍ते संस्था छोड़ने के बाद भी खत्म नहीं हुए।
जब प्रशिक्षण का अंतिम दिन आया और अगले दिन से हमें बस्ती में पढ़ाने जाना था तो मैंने कहा, ’’योगेन्द्र जी आपने हमारी ट्रेनिंग तो बहुत अच्छी की परन्तु यह तो बताया ही नहीं कि पढ़ाना कैसे है ?’’ इस पर उन्होंने कहा बस यही है ट्रेनिंग। बाद में समझ आया कि यदि वे हमें कोई एक तरीका बता देते तो शायद हम उसे ही अन्तिम मान लेते। स्वयं सोचते, देखते नहीं।
इस प्रशिक्षण ने मेरे दिमाग में हलचल शुरू कर दी थी, सवाल उठाने का साहस भर दिया था, चुनने का अधिकार लेने का संकेत दे दिया था, मैं एक स्वचेता इंसान बनने की ओर जा रही थी।
बच्चों के बीच
प्रशिक्षण के बाद हमने बच्चों के साथ काम करना आरम्भ किया। मैं गुरुतेग बहादुर बस्ती में जाने लगी। इस बस्ती में सिक्ख समुदाय के लोग रहते थे। हमने बच्चों और बस्ती के लोगों से सम्पर्क किया। बच्चों के साथ काम उनकी आयु और स्तर को देखते हुए समूह बनाकर किया। प्रत्येक समूह में लगभग 20 बच्चे थे। सबसे बड़ा समूह 9 से 12 वर्ष तक की आयु के बच्चों का था। मैं इस समूह के साथ काम करने लगी। वहाँ अलग से बोधशाला के लिए कोई स्थान नहीं था। बच्चों को पढ़ाने का काम गुरुद्वारे के बगल में खाली पड़ी जगह और सामने किया जाता था। इस बस्ती में अधिकांश बच्चे स्कूल नहीं जाते थे। हम तीन शिक्षक थे। बच्चों के हमने तीन समूह बनाए। काम के लिए एक समय सारिणी बनाई। जिसमें छह घण्टे बच्चों के साथ काम करना होता था। सबसे पहले हम बोधशाला में आकर सफाई करते। हमें सफाई करते देख बच्चे भी हमारे साथ सफाई करवाते, दरी बिछवाते। सामग्री व्यवस्थित करते। बस्ती की एक महिला पीने का पानी टंकी में भरती थी।
सुबह 9 बजे से दोपहर 3 बजे तक कहानी,अभिनय, पुस्‍तकालय, हिन्‍दी, अँग्रेजी,गणित, पर्यावरण, हस्‍तकार्य और खेल के पीरियड होते थे।  
मैं हर दिन, समूह में किए जाने वाले काम की योजना बोर्ड पर लिख देती थी। बच्चे उसे पढ़ने का प्रयास करते थे ? बच्चों को पता होता था कि आज वे क्या-क्या करेंगे ?  शुरुआत में यह मैं उन्हें पढ़कर भी बताती थी। जो बच्चे नहीं पढ़ना जानते थे उनके लिए चित्रों वाली किताबें थीं। पुस्‍तकालय में कहानियों, कविताओं की लगभग 60-70 पुस्तकें थीं। जब बच्चों ने ये सभी पुस्तकें पढ़ लीं तो दूसरी बोधशाला के बच्चों को ये पुस्तकें देकर उनकी पुस्तकें हमने अपनी बोधशाला के बच्चों के लिए ले लीं। हम बच्चों के स्तर की पुस्तकें लेकर बच्चों के सामने रख देते थे। बच्चे स्वयं अपनी पसंद की पुस्तकें चुनते। पेज पलटते, चित्र देखते।  हम उनमें से कहानियाँ व कविताएँ सुनाते। इससे बच्चों का पुस्तकों से एक रिश्‍ता बनने लगा। बच्चे अनुमान से मोटे अक्षरों की पुस्तकों को चित्र की मदद से पढ़ने का प्रयास करने लगे। पुस्तकालय की इन पुस्तकों पर मैं व बच्चे प्लास्टिक के कवर चढ़ाते, पुस्तकों को जमाते। समूह में बच्चे पुस्तकें एकत्र करने, पेंसिल, हार्डबोर्ड देने-लेने जैसे काम करने में मेरी मदद करते। पुस्तकालय की पुस्तकों को हम कई प्रकार से काम में लेते। जैसे कभी कहानी सुनाने में। जब कहानी सुनाते तो उसके पात्रों और घटनाओं पर भी बात करते, सभी बच्चों को चित्र दिखाते हुए कहानी सुनाते। कभी-कभी बच्चे पसन्दीदा कहानी सुनाने की मांग भी करते।
कहानी पर अभिनय भी करवाया जाता। कक्षा में काम करने की प्रक्रिया में ही आनन्द गुंथा हुआ था। ऐसा नहीं था कि पढ़ते समय तो कक्षा गम्भीर बनी रहे और खेल के समय ही बच्चे खुश महसूस करें। बच्चे धीरे-धीरे समझने लगे कि काम ठीक से करने के लिए कुछ व्यवस्थाओं की जरूरत होती है। वे स्वयं धीरे-धीरे अनुशासित होने लगे और मुझे काम करने में सहयोग करने लगे। बच्चों और मेरे बीच आत्मीय रिश्‍ता बनने लगा था।
भाषा में काम करने के लिए कोई एक ही तरीका काम में नहीं लिया था। मैंने बच्चों से चित्र बनवाए और नाम लिखने को कहा। जब बच्चे अपना नाम नहीं लिख पाते तब मैं कागज पर उनका नाम लिखती। ऐसा तीन-चार बार करने के बाद बच्चे अपना नाम स्वयं लिखने लगे। इसके बाद मैंने बोर्ड पर सभी बच्चों के नाम लिखकर उनसे अपना व अपने 1-2 दोस्तों का नाम ढुँढवाया। बच्चों ने अपने-अपने नाम ढूँढकर बताए। इसके बाद उनके परिवार में जितने सदस्य हैं या जो-जो उनके घर में रहते हैं उनके चित्र बनवाए। चित्रों के नीचे मैंने उनके परिवार के सदस्यों के नाम लिखे। कुछ दिनों के बाद बच्चे हिन्दी के कुछ-कुछ वर्णों को पकड़ने लगे फिर उन वर्णों को जहाँ देखते उन्हें लगता कि यह तो उन्हें आता है तब वे लिखे शब्‍दों को पढ़ने का प्रयास करते। मैंने वर्णमाला चार्ट से वर्ण भी पढ़वाए। कुछ शब्‍द चित्र कार्ड भी बनाए जिनसे बच्चे चित्र की मदद से शब्‍द को पढ़ने लगे। जब बच्चों को अपना नाम हिन्दी में लिखना आ गया तब वे मुझसे कागज या स्लेट पर अँग्रेजी में अपना नाम लिखवाते। बच्चे जल्दी से जल्दी अपना नाम अँग्रेजी में लिखना सीख लेना चाहते थे। जब वे अँग्रेजी में अपना नाम लिख लेते तब उन्हें बहुत खुशी होती थी। इस प्रकार एक से अधिक तरीकों से बच्चों के साथ पढ़ने-लिखने पर काम किया गया। बीच-बीच में बच्चों के साथ श्रुतलेख का भी काम करवाया।
बच्चे जब कुछ लिखने लगे तब उनसे कहा कि जो तुम्हारे मन में आ रहा है वह लिखो। पहले वे सोचते कैसे लिखें ? इस पर मैं उनसे किसी त्यौहार या उनकी बस्ती में घटी किसी घटना के बारे में बात करती तो वे बताते फिर मैं कहती कि अब इसी बात को लिख दो। अब बच्चे अपनी बात लिखने की शुरुआत करने लगे। शुरुआत में उनकी लिखावट में वर्णो की बनावट बहुत ठीक नहीं थी, वे सीधी पंक्ति में भी नहीं लिखते थे। धीरे-धीरे, उनके वर्णों की बनावट में सुधार आता गया। बच्चों को श्रुतलेख लिखवाकर मैं बोर्ड पर लिख देती तब बच्चे स्वयं उसमें से देख-देखकर अपने शब्दों को ठीक करते। वे ईमानदारी से कहते कि मेरे पाँच शब्द गलत हैं, मेरे नौ शब्द गलत हैं। बच्चों के साथ काम करने के नए-पुराने तरीके काम में लेने की हमें पूरी आजादी थी परन्तु वह क्यों करवाया ? इसके पीछे क्या आधार था ? उसे हमें ध्यान में रखना होता था। कभी-कभी गलत भी कर बैठते थे परन्तु उसे गलती की तरह नहीं लिया गया। उसे एक सीखने की प्रक्रिया के रूप में ही लिया गया। साप्ताहिक बैठक में जब हम रिपोर्ट लिखकर ले जाते तब उस पर बात होती तो लगता कि इसमें यहाँ यह चूक हुई या इसको ऐसे भी किया जा सकता था।
अँग्रेजी विषय में हम कुछ अँग्रेजी की राइम्स हाव-भाव से करवाते। छोटी-छोटी कहानियाँ सुनाते। निर्देश देते हुए गो-कम, इन- आउट, थैंक्यू जैसे शब्द काम में लेते। कभी-कभी ए बी सी डी भी सिखाते। बच्चे अँग्रेजी भाषा तो नहीं सीख पाए क्योंकि हमारी कक्षा का यह माहौल नहीं था और न ही अँग्रेजी मुझे बोलनी आती थी परन्तु बच्चों में आत्मविश्‍वास पैदा हुआ कि वे अँग्रेजी के कुछ शब्द जानते हैं।
गणित में गिनने का काम हम ठोस चीजों, जैसे कंकर, माचिस की तीलियों से करवाते थे। लगभग आधे बच्चे 100 तक गिनना जानते थे। लिखना भी कुछ बच्चों को 40 - 50 तक आता था। वे 11 की लाइन में पहले 1-1 उन्नीस तक लिखते फिर उसके सामने 1-2-3 लिखते थे। वे कभी - कभी 69 को 96 भी लिखते थे। कुछ बच्चे 59, 69, 79 और 89 में भी अन्तर नहीं कर पाते थे। इन बच्चों के साथ ठोस से गिनते हुए और 11 को दस एक ग्यारह बोला जिससे उन्हें बोलने में ही पता चले कि इसमें एक दस यानि एक दहाई है और 1 इकाई है इसमें। बच्चे मेरे साथ - साथ 1 से 9 तक 1-1 कंकर उठाते जाते। इसके बाद बोर्ड पर चित्र बनाकर बताया गया। एक फूल, दो पेड़, तीन गिलास फिर उन चित्रों के सामने 1-2 -3 लिखा। लिखने में 1 से 9 तक की अंकाकृति को लिखकर बताया। 10 में 10 तीलियों का एक बण्डल है इसलिए 1 बण्डल के लिए लिखा है और उसके सामने 0 खुली तीली कोई नहीं है इसलिए 0 लिखा है। इस प्रकार 10 लिखना उसके मान के साथ बताया गया, 11 में 10 तीलियों का एक बण्डल और 1 तीली खुली है और 12 में 10 का एक बण्डल और 2 तीलियाँ खुली हैं इस प्रकार गिनते हुए 100 तक बच्चों को गिनती गिनने और लिखने का काम करवाया। बच्चों ने बड़ी ही जल्दी गिनती और फिर जोड़-बाकी, गुणा-भाग सीख लिए।
पर्यावरण अध्ययन में, मैं त्यौहारों पर बात करती। साफ-सफाई पर बात करती। छोटे-छोटे प्रयोग करती और बच्चों को पहाड़ पर घुमाने लेकर जाती। वहाँ हम पेड़ों के बारे में बात करते। बच्चे भी मुझे वहाँ के पेड़ों के बारे में बताते तो कुछ के बारे में मैं उन्हें बताती। हम खूब सारी अनौपचारिक बातचीत भी करते। कभी-कभी पार्क में जाते। वहाँ बच्चे बहुत सारे खेल खेलते।
हस्तकार्य में हम बच्चों के साथ बहुत तरह का काम करते थे कभी कोलाज बनाना, कभी चित्र बनाना तो कभी कागज मोड़कर पटाखे, नाव, फूल आदि बनाना। बच्चों को मनचाहे चित्र बनाने की छूट थी। इस प्रकार का काम वे 4-5 उपसमूहों में बैठकर करते। वे हार्डबोर्ड पर कागज रखकर पैंसिल से चित्र बनाकर रंग भरते। मैं मोम के रंग प्लास्टिक की प्यालियों में बीच में रख देती। बच्चे रंग भरकर, रंगों को प्यालियों में रखते जाते थे। जब मैंने बच्चों के साथ काम करना आरम्भ नहीं किया था तब सोचती और डरती थी कि कच्ची बस्ती के लोग चोर होते हैं। वहाँ के बच्चे पैंसिल और रंग वगैरह नहीं चुरा लें। परन्तु जब बच्चों के साथ काम किया तो जाना कि कच्ची बस्ती के लोग या बच्‍चे चोर नहीं होते हैं। बच्चों को विश्‍वास होता था कि पैंसिल, रंग सबके लिए हैं, सबको मिलेंगे। आज रखकर जाएँगे और जब कल आएँगे तो दीदी कल भी हमें काम करने के लिए पैंसिल और रंग दे देंगी। बच्चों के साथ काम करते हुए मैंने बच्चों और अभावों में जीने वाले लोगों पर भरोसा करना सीखा।
हम बहुत तरह के खेल खेलते। बच्चों के साथ काम करते हुए ही बहुत सारी छोटी-छोटी चीजों ने मेरे अन्दर बदलाव किए जैसे मैंने कभी यह नहीं कहा कि चलो तुम रुमाल झपट्टा खेल खेलो। हमेशा मुँह से यही निकला, ’’चलो अपन रुमाल झपट्टा खेल खेलते हैं।’’ बच्चों के साथ किए जाने वाले हर काम में मैं शामिल थी। जो कि मेरी बातचीत में भी मुझे महसूस होता था। खेल खेलते समय बच्चे नियमों का ध्यान रखते थे। यह मेरा ही काम नहीं था कि मैं किसी को आउट कहूँ। बच्चे और मैं अलग-अलग धुरी नहीं थे। जहाँ तक मुझे याद है किसी बच्चे ने कभी यह नहीं कहा कि मैं इसके साथ नहीं खेलूँगा।(यह फोटो बोध शिक्षण समिति,जयपुर के सौजन्‍य से)
आकलन,अनुशासन
हर रोज तीन बजे के बाद हम बच्चों द्वारा किए गए काम को जाँचते, अगले दिन किए जाने वाले काम की योजना बनाते और आवश्यक सामग्री का निर्माण करते। जो बच्चे नियमित नहीं आ रहे हैं या उस दिन शाला नहीं आए हैं उन बच्चों व उनके माता-पिता से सम्पर्क करने जाते। हर तीसरे महीने मूल्यांकन प्रपत्र में लिखते कि बच्चों ने सभी विषयों में क्या-क्या सीखा है। प्रपत्र के पहले कॉलम में बच्चे के स्तर को लिखते दूसरे कॉलम में उसके साथ जो काम किया उसमें वह कितना कर लेता है उसे लिखते और तीसरे कॉलम में आगे उसके लिए क्या योजना है।  बच्चा क्या नहीं कर पाया है यह नहीं लिखते थे। न ही बच्चों के माता-पिता से यह कहते कि उनका बच्चा क्‍या नहीं कर पाता है। हाँ,उनसे ही पूछते कि उनके बच्चे के बारे में उनका क्या कहना है? हम यह बताते कि आपका बच्चा क्‍या काम कर लेता है या सीख चुका है। अधिकतर बच्चों के माता-पिता पढ़े-लिखे नहीं थे परन्तु वे इतना तो समझते ही थे कि अब उनका बच्चा किताब पढ़ लेता है या रुपये-पैसे गिन लेता है। विषयों के अतिरिक्त यह भी लिखते कि उसके व्यवहार, नियमितता, रुचियों, अनुशासन में भी क्या स्थिति है ? किसी बच्चे ने कोई शैतानी की या वह पढ़ने में ध्यान नहीं लगाता तो भी उसके माता-पिता से कभी शिकायत नहीं करते थे। उस बच्चे से ही बात करते। उसे ही अधिक समझने की कोशिश करते। गुरुद्वारे में महिलाएँ और पुरुष हमसे कभी-कभी शिकायत करने आ जाते। उनका कहना था कि हम बच्चों को मारते-पीटते क्यों नहीं हैं ? बच्चे हमसे डरते क्यों नहीं हैं? कभी-कभी तो वे हमें अनुशासित शिक्षक भी नहीं समझते थे। उनका मानना था कि शिक्षकों को तो बच्चों को कैसे भी कंट्रोल करना ही चाहिए।
बच्चों और हमारे बीच बहुत ही अच्छे सम्बन्ध हो गए। शुरुआती दिनों में हम खूब गीत-कविताएँ गाते, अनौपचारिक बातचीत करते तो बच्चों को खूब अच्छा लगता। हमसे कोई बच्चा डरता नहीं था। बच्चों की छुट्टी होने के बाद भी वो हमें छोड़कर नहीं जाते और वहीं धमाचौकड़ी करते रहते। हम बस्ती में पहुँचते तब हमसे पहले ही बहुत से बच्चे वहाँ होते। बच्चों के साथ गीत-कविताएँ गाने का काम, सभी समूहों को एकसाथ बिठाकर करते थे। पहले एक पंक्ति हममें से कोई एक साथी गाता फिर बच्चे और शिक्षक उसे दोहराते। धीरे-धीरे बच्चों को कुछ बालगीत व कविताएँ याद हो गए। वे मजे से इधर-उधर खेलते हुए भी गाने लगे। कहानी सुनाने और अभिनय करने का काम हम बच्चों के साथ अपने-अपने समूह में ही करते थे क्योंकि बच्चों के स्तर अलग-अलग थे। शाला में घण्टी बस शालारम्भ के समय ही लगाई जाती थी। एक शिक्षक के पास एक समूह में काम करने की जिम्मेदारी थी। योजना में सभी विषय शामिल किए जाते थे। यदि किसी विषय में काम दूसरे विषय के चलते नहीं हो पाया या कम हुआ उसे दूसरे दिन करने का प्रयास किया जाता था। परन्तु ऐसा क्यों हुआ इसे हम साप्ताहिक रिपोर्ट में अवश्‍य लिखते थे। जिससे स्थितियाँ समझने में मदद मिलती थी।
शिक्षिका नहीं, दोस्‍त  
शुरुआती दिनों में बच्चों के साथ अनौपचारिक बातचीत बहुत होती थी। सुचारु रुप से काम करने के लिए आवश्‍यक नियम भी बच्चों के साथ मिलकर ही बनाए जाते थे। समूह में बच्चे व हम सभी दरी पर नीचे घेरा बना कर बैठते थे। शुरुआत में बच्चे बहुत शोर भी करते थे। काम करते समय वे बीच-बीच में बोलते या आपस में झगड़ा करते तब मैं कहती कि, ’’अच्छा अब तुम बोलो मैं चुप होकर बैठ जाती हूँ ।’’ तो कुछ बच्चे शोर मचाने वाले बच्चों को चुप करते हुए कहते कि, ’’ओए तू चुप हो जा,दीदी को कहने दे।’’ बच्चे हमें ’दीदी’ और ’पुरुष’ शिक्षकों को सर बोलते थे, परन्तु बातचीत में तू ही कहते थे। धीरे-धीरे बच्चे हमें ’आप’ कहकर भी सम्बोधित करने लगे। हम शिक्षक सदस्य आपस में आप कहकर ही बात करते थे और शायद उन्होंने किसी और को भी आप कहकर बात करते हुए भी सुना हो।
जब कभी उनमें आपस में लड़ाई हो जाती तब वे कभी-कभी एक-दूसरे को गाली भी दे देते थे। जब बच्चों से मैं बात करती तो उन्हें लगता कि दीदी क्या सोचेंगी या सबके सामने बात करेंगी तो बच्चे कागज के छोटे टुकड़े पर गाली लिखकर उस बच्चे के पास डाल देते। इस पर जब बात होती कि यह किसने लिखा ? तो बच्चे ही कहते, ’’दीदी राइटिंग मिला लो।’’ जब इस पर बात होती कि यह लिखने से क्या होगा ? जिसने लिखा उसे कैसा लगा ? जिसके लिए लिखा उसे कैसा लगा बताओ ? तो बच्चे कहते बुरा लगा। कुछ बच्चे गाली बोलते हुए शर्माते भी थे। उन्हें लगता था कि यह गन्दी बात है। धीरे-धीरे बच्चों का गाली लिखना व बोलना बन्द हो गया। बच्चों के बीच ऐसा विश्‍वास था कि दीदी किसी की तरफदारी नहीं करेंगी। दोनों से बात करेंगी और जिसकी गलती है, उससे पूछेंगी कि उसने ऐसा क्यों किया ?
एक बार मेरे पैर में फ्रैक्चर हो गया तब मैं 40 दिन अवकाश पर रही। मेरे समूह के 15-20 बच्चे मेरे घर 3 किलोमीटर पैदल चलकर मुझसे मिलने आए। वे बच्चे मेरे लिए चिट्ठी भी लिखकर लाए। एक बच्चे ने अपनी चिट्ठी में लिखा, ’’दीदी आप रोना मत, आप ठीक हो जाओगी।’’ वह पढ़कर सचमुच मुझे रोना आया था। उस समय मेरे मन में बात आई  कि, ’’शिक्षक बच्चों को जितना प्यार करते हैं, बच्चे उससे कहीं ज्यादा अपने शिक्षक को प्यार करते हैं।’’
मेरे विवाह के समय मैंने चार दिन की छुट्टियाँ लीं। इन चार दिनों की मैंने बच्चों के साथ मिलकर योजना बनाई। जब मैं वापिस लौटी तो शायद ही कोर्इ काम था जो बच्चों ने नहीं किया। बच्चे धीरे- धीरे स्वअनुशासित होते गए। कोई अनुशासन उन पर थोपा हुआ नहीं था। बच्चे नियम बनाने में भागीदारी निभाते थे। हर काम में भागीदार बनते थे। इसलिए उनको स्कूल से और मुझसे, दोनों से लगाव था। समुदाय में एक बार एक लड़के ने जब मुझे कुछ अपशब्द कहे तो उसकी माँ ने उसे बहुत मारा और कहा कि, ’’ये हमारी बेटियाँ हैं, हमारे बच्चों को पढ़ाने आती हैं।’’
स्वयं में बदलाव
बच्चों के साथ काम करते हुए मैंने स्वयं बहुत सीखा। समुदाय में अभिभावकों को लगा कि उनके बच्चे तेजी से सीख रहे हैं तो उन्होंने यह भी कहना बन्द कर दिया कि इनको मारा करो, इनको कंट्रोल में रखो। समुदाय में सभी महिलाएँ पंजाबी भाषा बोलती थीं परन्तु गुरुमुखी लिखना नहीं जानती थीं। उन्होंने गुरुमुखी लिखना सीखने की इच्छा जताई। इसलिए मैंने गुरुमुखी लिपि लिखना सीखा और फिर महिलाओं को गुरुमुखी लिखना सिखाया।
मैं जब बस्ती में पहली बार आई थी तो मैंने देखा कि महिलाएँ सलवार घुटने तक चढ़ाकर हैंडपम्प पर पानी भर रही थीं। यह देखकर मुझे लगा था कि, ’’बस्ती की औरतों को शर्म नहीं होती है।’’ हमारे घर तो पानी के लिए नल लगे थे। उस समय मैंने यह नहीं सोचा कि यदि सलवार नीची रहेगी तो पानी में नहीं भीग जाएगी क्या ? यहाँ काम करने में शर्म से ज्यादा सहूलियत का मामला था परन्तु इतनी संवेदनशीलता मुझमें नहीं थी। अब ऐसी बातों को इस नजरिए से भी देखती हूँ।
पिछले 24 वर्षों से मैं सामाजिक कार्य करने वाली संस्थाओं से जुड़ी रही हूँ। समय पालन मुझमें इस कदर आ गया है कि अब कार्यस्थल पर ही नहीं विभिन्न समारोहों में भी समय पर पहुँच जाती हूँ। बचपन में सजा या पिटाई के डर से स्कूल में समय पर जाती थी। ’बोध’ में काम करते हुए कार्यस्थल पर समय पर पहुँचना व्यवहार में आया। स्वयं ही इस बात को महसूस किया कि समय पर क्यों नहीं पहुँचना चाहिए।
बच्चों के साथ काम करते हुए यह विश्‍वास बना कि यदि स्वतंत्रता मिले तो सब अपनी पूर्ण क्षमताओं का प्रयोग करते हुए स्वअनुशासित होते हैं। इसलिए अपने बच्चों को भी पढ़ने, विषय चुनने की आजादी दी। यह समझ में आया कि बच्चे, बच्चे ही नहीं एक व्यक्ति भी हैं। बच्चों को पढ़ाते समय या अपने घर के बच्चों को कभी किसी तरह का दण्ड नहीं दिया। अपने बच्चों से कभी अपेक्षाएँ नहीं कीं, कि उन्हें यही विषय पढ़ना है या बड़े होकर यह बनना है। मुझे लगता है कि कोई भी व्यक्ति अपनी रुचि के काम या विषयों में बेहतर प्रदर्शन कर सकता है। सबकी क्षमताएँ अलग-अलग होती हैं। मेरे घर के बच्चे स्वः अनुशासित और संवेदनशील बने हैं।
आसपास की दुनिया में कितने ही सारे अंधविश्‍वासों और रुढ़ियों पर सवाल मेरी जेहन में उठने लगे। इन पर सवाल उठाते हुए मैंने अपने जीवन को स्वयं अपने तौर तरीकों से जीने के लिए चुना। विरासत में मिली परम्पराओं में विवाहित होने के प्रतीक चिह्न नहीं रखना और विवाहित होने के बाद स्वयं का उपनाम नहीं बदलना जैसी चीजें मेरे व्यवहार में आईं। विभिन्न धार्मिक आडम्बर, जातिगत भेदभाव, रुढ़िगत परम्पराओं को मैंने पूरी तरह से नकारा। मैं वंचितों की स्थितियों और पर्यावरण के प्रति अधिक संवेदनशील बनी और कविताएँ लिखने लगी। मेरी कविताएँ विभिन्न भेदभावों पर सवाल उठाती हैं, वे वंचितों की आवाज हैं। (फोटो 'बोध शिक्षा समिति' जयपुर के सौजन्‍य से)
आज मैं अपने को एक मजबूत शख्सियत के रूप में देखती हूँ और यह कहती हूँ कि ’’यदि मैंने बोध में काम नहीं किया होता, तो मैं आज जैसी हूँ वैसी नहीं होती।’’ आज भी मूलतः मैं अपने को एक शिक्षिका के रूप में ही स्वीकार करती हूँ।

अनुपमा तिवाड़ी, सन्दर्भ व्यक्ति, हिन्दी, अजीम प्रेमजी फाउण्‍डेशन, टोंक, राजस्थान 

1 comments:


  1. जीवन के मर्म की गहन अनुभूति
    वाकई संघर्षों के बाद ही उजाला आता है
    सार्थक प्रस्तुति
    सादर


    आग्रह है पढें,ब्लॉग का अनुसरण करें
    तपती गरमी जेठ मास में---
    http://jyoti-khare.blogspot.in

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