Tuesday, June 26, 2012

"एक शाम - फर्गुदिया के नाम" कार्यक्रम में मेरी (शोभा मिश्रा) कविता

शोभा मिश्रा _______________ 


"मौन हुई पवित्रता "
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वो खुद एक गुड़िया सी
अपनी गुड़िया सजाती हुई
बहुत खुश होती थी
कंघी,रिब्बन,लाली,बिंदी
सभी कुछ था उसके पास
अपनी गुड़िया को सजाने के लिए
रंगीन कपड़ों में सजी
अपनी गुड़िया में देखती थी अपनी छवि
खेल-खेल में उसकी गुड़िया की बरात आती,डोली सजती
लाल कपडे की कतरन से साड़ी पहना
विदा कर देती अपनी गुड़िया को एक गुड्डे संग
कल्पना चावला,सानिया मिर्ज़ा को अपना आदर्श मान
कभी किताबों के आसमान में खोयी रहती
कभी अहाते के पास ..
खेल के मैदान में पसीना बहाती रहती

सोलह बसंत देख चुकी वो
पूरे आत्मविश्वाश और लगन के साथ
अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए आगे बढ़ी जा रही थी
तभी उसे समझाया जाता है
एक गठबंधन के बारे में
एक ऐसा गठबंधन ...
जिसमें उसका वर कोई साधारण पुरुष नहीं होगा
वो ईश का प्रतिनिधित्व करने वाला
सभी के लिए ईशतुल्य है
वो ईश उसका स्वामी होगा

स्वीकार नहीं था उसे ये गठबंधन
अपनों ही द्वारा उसके मन-मस्तिष्क में ..
गठबंधन का जो बीज बोया गया था
उस बीज को उन्हीं के द्वारा रोज सींचा जाने लगा
और अंततः उस बीज का एक अंकुर
उसे अपने भीतर नज़र आया
वो अनमने मन से तैयार हो गयी उस गठबंधन के लिए
न उसकी बरात आई न डोली सजी
वो ले जाई गयी अपने ईश के घर

वहाँ उसे दिखी सफ़ेद लिबास में कुछ स्त्रियाँ
एक असीम शान्ति थी उन स्त्रियों के चेहरे पर
आँखों में करुणा और कोई रहस्य भी था
उसे स्नान करवाया गया ,सफ़ेद वस्त्र पहनाये गए
उसने सुना कुछ मन्त्रों का उच्चारण
उसके भीगे लम्बे केशों को पहले एक एककर
फिर गुच्छों में हाथों से खींचकर
उसके सर से अलग किया जाने लगा
कराह उठी वो एक असह पीड़ा से
अपनी गुड़िया के नाजुक केशों को वो कैसे संवारती थी
याद करती रही .. और सिसकती रही

न विरोध ..न चीखी
क्योकि इसी तरह होगा उसका श्रृंगार
उसे पहले से ही बताया गया था
चोटी,जूड़ा ना गजरा
केश रहित उसके सर से कहीं कहीं खून की बूँदें रिस रहीं थीं
जो डर और वेदना से आये पसीने के साथ मिलकर
उसके पूरे चहरे को बदरंग कर रही थी
नहीं था उसकी आँखों में काजल
डबडबाई और भयभीत आँखें
होंठों की पपड़ियों की लाल दरारें साफ़ दिख रही थी
उसने आईने में अपना श्रृंगार नहीं देखा
लेकिन कल्पना कर सकती थी अपने विकृत रूप का

सजा धजाकर उसे ईश के सन्मुख ले जाया गया
वो गंगाजली बनी , फूल बनी , भोग बनी
इस पूजा से अनजान
समर्पित हो गयी अपने ईश के चरणों में
ईश को पूज वो अपनी देह की पीड़ा से
और उसकी आत्मा 'उसकी ' पीड़ा से कराह उठी
उसकी देह और आत्मा
पूरी रात एक दूसरे का आलिंगन कर सिसकती रही

वो सुबह उठी
आज की सुबह एक अजीब सा सन्नाटा ओढ़े हुए थी
चिड़िया अपना चहचहाना भूलकर
सहमी सी उसे निहार रही थी
ये नयी सुबह रोज की तरह सबके लिए
रंगीन प्राकृतिक छटाओं से रंगी हुई थी
लेकिन उसे सिर्फ एक रंग याद करने को कहा गया है
वो है सफ़ेद रंग ........!!!




(शोभा)


Tuesday, June 19, 2012

डॉ सविता सिंह जी के विचार


Went to a poetry reading event organised by friends of Fargudiya, a fourteen year old girl, who sadly died after being raped. Her childhood sakhi, Shobha Mishra, could not forget her pain and her subsequent realization that violence against women needs to be addressed differently, led her to organize this event. We It was good to meet fellow poets like Suman Kesri, Leena Malhotra, Vipin Chaudhary, Anju Sharama and others. Prof Purushottam Aggrawal, Dr Nand Bhardwaj and Dr.Nawal along with Syed Ayub and Sanjay Mishra were there to stand witness to this noble effort. The temperature outside the hall was well above 42 degrees and people kept streaming in till the last moment.
 ·  · 

Monday, June 18, 2012

"एक शाम - फ़रगुदिया के नाम " कार्यक्रम में डॉ सविता सिंह जी द्वारा प्रस्तुत कविताएं

डॉ सविता सिंह 
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१- आघात 
_______

इस पहर एक आवाज़ आती है

अपनी ही साँस चलने की
इस पहर मेरे ही प्राणों के स्पंदन से
चलती है यह सृष्टि
इस पहर चीज़ों के यूँ होने का
मैं ही हूँ सुखद उदगम

इस पहर एक चिड़िया अपने घोंसले में
स्वप्न देख रही है
की यह दुनिया सुन्दर हो रही है
एक स्त्री अपनी व्यथा को उतारकर
रख रही है एक तरफ ____
चिरपरिचित अपने परिधान को
अपने लम्बे बालों को खोलकर दोबारा बाँध रही है
जैसे किसी तैयारी में हो
कहीं जाने की आतुरता हो उसमें
एक सादगी में जैसे वह उतरना चाहती हो
पार करना चाहती हो जैसे कोई नदी

वह पार उतर भी जाती है
जाती हुई दिखती है फिर उधर
जिधर प्रकृति है और हरीतिमा
नए परिधान उसके
जिसमें प्रसन्नचित्त वह प्रतीक्षा करती है
नए आघात की


२- नया एकांत
_____________

आखिरकार अपनी भाषा में हूँ सुकून से

मुझे खोजने आ सकतें हैं मेरे प्रेमी
मैं मिलूंगी भी अब शायद उन्हें सजी-धजी
उनका स्वागत करती
अब मुझमें कोई संशय नहीं
न भीरुता पहले वाली
जरा भी रहस्यमय नहीं रहूंगी अब मैं
जैसे मैं थी जब नहीं समझती थी भाषा के तिलिस्म को
उसके विस्तार को

इस समय कितनी सहज हूँ मैं
साधारण कितनी साधारण
सचमुच जैसी मैं हूँ
अपनी कविता में जीवन की समझ की तरह
व्यथित-आनंदित एक राग की तरह खुद को गाती
बेफिक्र जैसे कोई नदी
चुपचाप बहती किसी जंगल में

अपनी भाषा में फिर भी कितनी सबके साथ हूँ
बिना किसी द्वेष और स्पर्धा के
जो झिझक है थोड़ी बहुत दूसरों को लेकर
वह कविता की ही है
वह खुद उसे झाड़ लेगी जब वह नया समाज बना लेगी
इसका यकीन है भाषा को ही

मैं हूँ सुकून से जैसे पहले कभी न थी
आश्वस्त भी कि प्रेम पहचान लेगा इस नए एकांत को

३-सपनें और तितलियाँ
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एक लंबे सपने का यह छोटा सा हिस्सा है

इसमें मैं बेदम भाग रहीं हूँ
देखतीं हूँ एक घने जंगल में हूँ
पेड़ों पत्तों के बीच उन्हीं की  तरह आश्वस्त
जंगल के जीवों के बीच निर्भय
उनके प्रलापों से अवगत
इधर-उधर घूमती पास की  नदी तक जाती
बैठती किसी पुराने पत्थर पर

तभी आता है कोई घोड़े पर सवार
पास उतरता है मेरे
फिर कहता है ढूँढ़ता रहा है वह कई जन्मों से मुझे
कि मेरे पास उसके कुछ फल और नदियाँ हैं
कि वह भूखा और प्यासा है
पीने आया है अपने हिस्से का जल मुझमें ....... कवितांश

Thursday, June 07, 2012

"फर्गुदिया के नाम- एक शाम " कार्यक्रम में स्नेह सुधा नवल जी द्वारा सुनाई गयी तीन कविताएँ


1 - सीमा

जितना तप यशोधरा के
व्यक्तित्व में हैं
शायद ही किसी
बुद्ध में हो

जितना संघर्ष
इस मुट्ठी भर हृदय में हैं
शायद ही किसी
विश्व युद्ध में हो |

2 - गौतम

अच्छा हुआ गौतम !
की तुम
इस युग में
नहीं हुए
अगर होते
तो __
मेरे साथ
अस्पताल की
बैंच पर बैठ
दुसाध्य रोगी,
असमय वृद्ध
और कई शव
देखने के बावजूद भी
शायद तुम्हें
कुछ  नहीं व्यापता
और तुम
बुद्ध बनने से
वंचित रह जाते |





3 - स्त्री-पुरुष



मुझे कहा जाता रहा _

स्त्री बूंद है, पुरुष सागर
प्रकृति का नियम
बताता रहा मुझे बार-बार ज़माना
नदी की नियति सागर में समाना
पर सच कहूँ _
मैंने तो विपरीत पाया
जब ज्ञान आया
नदी तो पुरुष है चंचल मदमाता
हिलोरे डुलाता भागता सीमा रहित
और स्त्री लगी सागर
सीमित,शांत और गंभीर
पर
प्रकृति का सच
सच है आज भी
की नदी की नियति अंततः
सागर ही है
अतः
पुरुष बूंद है, स्त्री गागर
पुरुष नदी है, स्त्री सागर | 

Sunday, June 03, 2012

सुमन केसरी जी की दो कवितायें


1-मोनालिसा
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क्या था उस दृष्टि में
उस मुस्कान में कि मन बंध कर रह गया

वह जो बूंद छिपी थी
आंख की कोर में
उसी में तिर कर
जा पहुंची थी
मन की अतल गहराइयों में
जहाँ एक आत्मा हतप्रभ थी
प्रलोभन से
पीड़ा से
ईर्ष्या से
द्वन्द्व से...

वह जो नामालूम सी
जरा सी तिर्यक
मुस्कान देखते हो न
मोनालिसा के चेहरे पर
वह एक कहानी है
औरत को मिथक में बदले जाने की
कहानी...




2-राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल
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गाँव के बीचोंबीच


सरपंच के दरवाज़े के ऐन सामने गाँव के सभी जवान और बूढ़े आदमियों की मौज़ूदगी में
बिरादरी के मुखियों ने वह फ़ैसला सुनाया था...

जाने कब से गुपचुप बातें होती रही थीं
लगभग फुसफुसाहट में
जिनमें दरवाज़ों के पीछे खड़ी औरतों की फुसफसाहटें
भी शामिल थीं
धीमे-धीमे सिर हिलते थे
पर गुस्‍से या झल्‍लाहट में भी आवाज़ ऊँची न होती थी
मानो कोई साज़िश रची जा रही हो
हाँ, दो-एक आँखों से आँसू ढलके ज़रूर थे
जो तुरन्‍त ही किसी अनजान भय से पोंछ लिए गए थे
और रोने और सुननेवाले दोनों
दोहत्‍थी माथे पर ठोंकते थे
खुद को बरी कर
किस्‍मत को कोसते थे
फिर सिर हिलाते थे सुर में

उस शाम बच्‍चे
छोड़ दिए गए थे अपनी दुनिया में
देर रात खेलते रहे
छुआ-छुई, आँख-मिचौली, ऊँच-नीच और जाने क्‍या-क्‍या
क्‍या मज़ा था
आज कोई टोका-टोकी नहीं थी
यहॉं तक कि बछड़ो ने पूरा दूध पी लिया
पर बच्‍चे खेलते रहे अपनी ही धुन में
कोई बुलाता न था न खाने को न पढ़ने को
पर जब-जब खेलते बच्‍चे गए घर के भीतर
वह फुसफुसाहट एकदम गायब हो गई
और वे तुरन्‍त भेज दिए गए फिर से बाहर
जाने क्‍या बात थी
क्‍या कभी ऐसा होता है भला
कईयों ने दरवाजे के पीछे कान चिपकाए
या फिर भूख और नींद के बहाने घर में बैठ रहे
पर बेहया, इज्‍जत, भाग्‍य, मर्यादा जैसे
कुछ बेतुके शब्‍द सुनाई पड़े
जो कोई पूरी कहानी नहीं गढ़ते थे

उस रात शायद ही किसी घर में पूरी रसोई बनी
कइयों के पेट तो निन्दा-रस से भरे थे
तो कोई जीत की ख़ुशी में मगन थे
कुछ छोड़ जाना चाहते थे क़दमों के निशान
तो कुछ बन जाना चाहते थे धर्म, मर्यादा, संस्कृति की पहचान

कोई सो नहीं पाया उस रात
यहाँ तक कि देर रात उछल-कूद मचाते
बच्‍चे तक चौंक-चौंक उठे थे
कितनों ने बिस्‍तर तर किए
कितने झगड़े नींद में ही
कई सिसकियाँ भरते रहे रात भर
(कोई डरावना सपना देखते थे शायद)

उस रात गर्भस्थ शिशु भी हिलते-डुलते रहे बौखलाए से
और कुछ खामोश हो रहे
माँओं की आशंकाओं को बढ़ाते हुए

उस रात कुछ नौजवान दम साधे पड़े रहे
मानो उन पर कोई तलवार आ लटकी हो
उस रात किसी लड़की को पेशाब न लगी
उस रात कोई गाय रंभाई नहीं
बड़ी अजीब थी गर्मी की वह रात
सर्द एकदम सर्द…

उस दिन बड़ी देर तक सूरज नहीं उगा
भोर का तारा जाने कहाँ दुबक रहा
बस हवा चलती थी निरंकुश बादशाह-सी
हरहराती सब पर झपटने को तैयार

पर आख़िरकार वह समय आ ही गया
जिसे सुधीजन दिन कहते हैं
सभा जुटी सभी जन आए
कुछ सर उठाए तो कुछ कन्‍धे झुकाए

औरतों ने भी माँओं को घेर सरपंच की दालान में कब्‍जा जमाया
वैसे वो जगह कभी उनकी न थी और न रहेगी आइन्‍दा
पर उस दिन बात ही कुछ ऐसी थी
कि कोई यह न कहे कि उसे बताया न गया था

हाँ बच्‍चे भेज दिए गए चरवाहों के संग
आज कोई स्‍कूल न था
क्‍योंकि स्‍कूल तो घर होता है, मुहल्‍ला होता है, बिरादरी होती है
और गाथाएँ होती हैं
जिन्‍हें कुछ नादान बच्‍चे अपने शब्‍दों में पढ़ लेते हैं
और जाने कैसी अपनी गाथाएँ रचते हैं
बावजूद इसके कि सभी शब्‍दों पर हमने पहरेदार बिठा दिए हैं...


सो उस दिन पहरेदारों का जमावड़ा था
और उनके बीच बँधा खड़ा था एक नौजवान
जाने कहाँ खोया
जाने क्‍या सोचता
क्‍योंकि कभी उसके चेहरे पर एक सपनीली मुस्‍कान तैरती
जो उसकी आँखों में उगते सूरज का-सा प्रकाश भर जाती
चेहरा दीप्‍त हो उठता तृप्‍त शिशु-सा
होंठ सिकुड़ते मानो चूम रहे हों
सिर मस्‍ती में हिलने लगता
अनहद नाद सुनता हो मगन
पर तुरन्‍त ही
कुछ भी कर गुज़रने को तैयार
बाँहों की माँसपेशियाँ फड़कने लगतीं
गले की नसें तन जातीं
और वह हड़बड़ाकर देखने लगता इधर-उधर दीवाना-सा

"अब हड़बड़ा रहा है, दीवाना-सा"
यह पहरेदारों ने कहा था
पर इन शब्‍दों में न कोई करुणा थी
न प्रशंसा
और न ही दीवानगी को समझने का कोई बोध
सभा ने तो गरियाया ही था जी खोल
कवियों, शायरों, क़िताबों, मास्‍टरों, पीरों-फकीरों, रेडियो,
टी०वी० और सिनेमा को
माँ भी नहीं बख़्शी गई थी उस दिन
उसके दूध के खोट भी गिनाए गए थे उसी दिन

दालान के कोने में लड़की खौफ़ज़दा थी
छिटकी सहेलियाँ थीं
और माँ मानो पाप की गठरी
सिर झुकाए खड़ी थी
बीच-बीच में घायल शेरनी-सी झपटने को तैयार
आँखों से ज्वाला बिखेरती
दाँत पीसती, दोहत्थी छाती पर मारती

सब कुछ बड़ा अजीब था
न तो लड़के ने कोई डाका डाला था
न किया था किसी का बलात्कार
और न लड़की ने किया था कोई झगड़ा
या फिर किसी बड़े का अपमान
बस किया था तो बस प्यार
उस बाहर खड़े लड़के से
जो सबसे जुदा था
सपनों की दुनिया रचनेवाला
मस्‍त और बेपरवाह
जिसके सामने पड़ते ही—
बोली कोयल-सी, आँखें हिरणी-सी,
चाल हंसिनी-सी हो जाती थी
खेतों पर बरसती धूप चाँदनी-सी लगती थी
और गोबर की डलिया फूलों से भर जाती थी
जिसके सामने पड़ते ही सब जग उजास हो उठता था
कोई पराया न लगता था और सभी का दुख अपना हो जाता था

कौन था वह, जो उसे इतना अपना लगता था
कि वह सभी के लिए इतना पराया हो गया
इतना पराया हो गया कि आज वह
दुश्‍मन-सा बँधा खड़ा था अपनी ही सभा में
अपने ही लोगों के बीच
वह इतना पराया हो गया कि उसके संग होने की
इच्‍छा भर से
वह भी उतनी ही पराई हो गई
माँ-बाप, माँ जाए भाई-बहन सभी से!

हॉं लड़की पराया धन ही होती है
पर साहूकार के घर के लिए सुरक्षित धन
प्रेम रचाने के लिए उत्‍सुक मन नहीं
पर यहाँ तो देह का आकर्षण खड़ा था साक्षात
सभा को तो देव का आकर्षण भी मंजूर न था
क्‍योंकि सभा जानती है
कि प्रेम देह से हो, या देव से
मनुष्‍य से हो या ईश्‍वर से संशयों से घिरा रहता है
साधना तलाशता है
समाज के बन्‍धनों को तोड़ता है
मर्यादाओं को लाँघता है...

पर माँ क्‍यों सुनाए थे तूने मीरा के भजन
कथा कही कई बार राधा-कृष्‍ण की
मास्‍टर जी क्‍यों पढ़ने को दी थी पोथी शीरीं-फरहाद की
और दीदी तू भी तो रोई थी लैला-मजनू का सिनेमा देखते-देखते

और आज तुम सब दूर खड़े हो
जकड़ दिया है तुमने मुझे रस्सियों से
यह सोचते-सोचते लड़की को
प्रियतम की पकड़ याद आई
वह कलाई पे पकड़
और आलिंगन की जकड़
जिसे छुड़ा कर वह भाग जाना चाहती थी
और उसमें बँधी भी रहना चाहती थी
ज़िन्‍दगी-भर

चाहत की कैसी दुनिया
आह! वह जी लेना चाहती है, वे क्षण एक बार फिर
एक बार फिर सहलाना चाहती है उस सुन्‍दर मुख को
सँवरे बालों को खेल-खेल में बिखेर देना चाहती है
लज्‍जा से बचने के लिए भी उन आँखों को चूम लेना चाहती है
जो उसे देखते हुए झपकना भी भूल जाती हैं
एक बार वह दौड़कर उन बाहों में समा जाना चाहती है
बाँध लेना चाहती है उस गठीली देह को आलिंगन में...

ओह ! कितना दर्द है पीठ पीछे बँधी कलाइयों और पैरों में
ऐसे तो जिबह करने वाले जानवर भी नहीं बाँधे जाते, माँ
और तुमने बाँध दिया ख़ुद अपनी जाई को अपने हाथों
मानो कोख ही को बाँध दिया हो मर्यादा की रस्सी से
ऐसा क्या तो कर दिया मैंने
बस मन ही तो लग जाने दिया
जहाँ उसने चाहा
कभी जाति की चौहद्दी से बाहर
तो कभी रुतबे की खाई को लाँघ
तो कभी धर्म की दीवार के पार ।

पर क्‍या मन का लग जाना ही
सबसे बड़ा अपराध नहीं क्‍या, कभी भी कहीं भी
लैला-मजनूँ से लेकर
रोमियों जुलियट तक
और इन तमाम जन्‍मों में
कभी मैं रोशनी कहलाई, तो कभी पिपरी गाँव में जन्‍मी
पर सभी जन्‍मों में

हमने प्रेम…बस प्रेम को जीया
केवल प्रेम किया
और छोड़ प्रेम को कोई नहीं जानता
कि प्रेम की अपनी ही मर्यादा है
अपने ही नियम हैं
और अपना ही संसार…

लटका दो इन्हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्कारों के ह्रास का

पर इन नियमों से समाज तो नहीं चलता

तो समाज के हित में
फैसला सुनाया मुखियों ने:

ऐसी मजाल जो व्‍यक्ति करे मनमानी
लटका दो इन्‍हें फाँसी पर
ताकि समझ लें अंजाम सभी
वे भी
जो आएँगे कल इस धरा पर
प्रेम का, मनमानी का
मर्यादा के नाश का
संस्‍कारों के ह्रास का !

तो सदल-बल सभी लटका आए उन मासूमों को गाँव के पार
पीपल की डार पर
सभी साथ थे कोलाहल करते
ताकि आत्मा की आवाज़ सुनाई न पड़े
घेर न ले वह किसी को अकेला पा कर
आखिर संस्कार और मर्यादाएं
बचाए रखती हैं जीव को
अनसुलझे प्रश्नों के दंशों से
दुरुह अकेलेपन से…

तो जयजयकार करता
समूह लौट चला उल्लसित कि
बच गयीं प्रथाएँ
रह गया मान
रक्षित हुई मर्यादा
फिर से खड़ा है धर्म बलपूर्वक
हमारे ही दम पे

जयजयकार, तुमुल निनाद, दमकता दर्प
सब ओर अद्भुत हलचल
लौटता है विजेताओं का दल
राक्षस पदतल पृथ्वी टलमल ।



सुमन केसरी

"फर्गुदिया के नाम - एक शाम " कार्यक्रम में विपिन चौधरी द्वारा सुनाई गयी दो कविताएँ


१ . पीड़ा का फलसफा
 दर्द को मुठ्ठी में कैद कर उसके फलसफे का पाठ

फिर चार- पांच दिन अपने हाल पर जीना
अपने तरीके से जूझना
अभ्यास  करना
सहजता से चाक-चौबंद रहने के लिए
और  सजगता भी ऐसी जो
धूनी की तरह सिर से पाँव तक अपना पसारा जमा ले


पीड़ा को अपनी गोदी में सुलाने के ये दिन
पीड़ा जो पीठ की तरफ से आती
या कभी तलवे से उठान भरती


हर बार दर्द का चेहरा बहुत अलग होता है
हर बार उससे जूझने का तरीका वही


हर दिलासा का दूत एक तरफ से आया
नज़दीक आये बिना पल में हवा हो गया


मानीखेज़ चीजें  गोल दिशा में डूब कर आयी
दुःख, प्रेम, ख़ुशी
फिर ख़ुशी, प्रेम, दुःख
सात राग बारी बारी से जीवन में आये
पर चार दिन वाली  इस सनातन पीड़ा
ने चारों दिशाओं से अपनी बर्छियां  चलायी


महीनें के इन चार दिनों वाली अबूझ पहेली से पहले पहल
परिचय विज्ञान की कक्षा ने करवाया  
जब सर झुकाए
मिस लीला को सुनाते और
सोचते,
 ‘क्या ही अच्छा होता
कि आज  कक्षा में बैठे ये सारे के सारे लडके लोप हो जाते’


फिर एक दिन स्वयं साक्षात्कार हुआ
कई हिदायतों से बचते बचाते
सिर छुपाते
कहर के पंजों के लडते रहने वाले इन दिनों से


खुदा, खुद
औरत की जुर्रत से भय खाता था
सो औरत को औरत ही बनाए रखने की यह जुगत उसकी थी


हम औरतों  के ये चार दिन अपनी देह की प्रकृति से लडते बीतते
तभी जाकर एक जंगली खुनी समुंदर को अपने भीतर जगह देने का साहस
इस आधी आबादी के नाम पर लिखा जा सका


इन चार दिनों में औरत का चेहरा भी
हव्वा का चेहरा के बिलकुल  करीब आ जाता है
हालाँकि  हव्वा भी अब बूढ़ी हो गयी है
इस चार दिनों वाली परेशानी से जूझने वालेउसके दिन अब लद गए हैं


इन्हीं भावज दिनों में अपनी भावनाओं को खोलने के लिए
किसी चाबी का सहारा लेना पड़ता है
कभी ना कभी हर औरत कह उठती है  
’माहिलाओं  के साथ  इस व्यवाहरिक  मजाक  को क्यों अंजाम दिया गया’
फिर एक मुस्कुराते बच्चे की तस्वीर को देख कर
खुद ही वह अपनी सोच वापिस ले लेती है


हर महीने जब  प्रकृति का यह तोहफा  द्वार खटखाता है
तब योनी गुपचुप एक आतंरिक योग में व्यस्त हो जाती है
अपरिहार्य कारणों से
पीड़ा की इस स्तिथी  में भी महिलाओं की उँगलियाँ  मिली  हुई (crossed ) रहती   हैं
जिनकी बीच कस कर एक उम्मीद बेपनाह ठाठे मारती है

यो प्रक्रति का पीड़ादायक रुदन
सहज तरीके से सुरक्षित बना रहता है
संसार की हर औरत  के पास
जब एक स्त्री पांचवे दिन नहा धो कर
आँगन में चमेली की महक के बराबर खड़ी होती हैं तो
प्रकृति  उसका  हाथ और भी मजबूती  थाम  लेती है


२ .चन्द्रो
  (स्तन कैंसर से जूझती महिलाओं को समर्पित) 
चन्द्रो,
यानी फलाने की बहु 
धिम्काने की पत्नी 
पहली बार तुम्हें चाचा के हाथ में पकड़ी एक तस्वीर में देखा 
अमरबेल सी गर्दन पर चमेली के फूल सी तुम्हारी सूरत 
फिर देखी 
श्रम के मजबूत सांचे में ढली तुम्हारी आकृति 
कुए से पानी लाती 
खड़ी दोपहर में खेतों से बाड़ी चुगती 
तीस किलों की भरोटी को सिर पर धरे लौटती अपनी चौखट    
ढोर-डंगरों के लिए सुबह-शाम हारे में चाट रांधने में जुटी  
किसी भी लोच से तत्काल इंकार करती तुम्हारी देह 
इसी खूबसूरती ने तुम्हें अकारण ही गांव की दिलफेंक बहु बनाया 
फाग में अपने जवान देवरों को उचक-उचक कोडे मारती तुम 
तो गाँव की सूख चली बूढ़ी चौपाल 
हरी हो लहलहा उठती 
गांव के पुरुष स्वांग सा मीठा आनंद लेते 
स्त्रियाँ पल्लू मुहँ में दबा भौचक हो तुम्हारी चपलता को एकटक देखती 
                                                                        
अफवाओं के पंख कुछ ज्यादा  ही चोडे हुआ करते हैं 
अफवाहें तुम्हे देख 
आहें भर बार- बार दोहराती 
फलाने की दिलफेंक बहु 
धिम्काने की दिलफेंक स्त्री 
इस बार युवा अफवाह ने सच का चेहरा चिपका 
एक  बुरी खबर दी 
लौटी हो तुम अपना एक स्तन 
कैंसर की चपेट में गँवा कर
शहर से गाँव   
डॉक्टर की हजारों सलाहों के साथ 
  
अपने उसी पहले से रूप में 
उसी सूरजमुखी ताप में 
इस काली खबर से गाँव के पुरूषों पर क्या बीती 
यह तो ठीक-ठीक मालुम नहीं 
उनके भीतर एक सुखा पोखर तो अपना आकार ले ही गया होगा 
महिलाओं पर हमेशा के तरह इस खबर का असर भी 
फुसफुसाहट के रूप में ही बहार निकला 
चन्द्रो हारी-बीमारी में भी 
अपने कामचोर पति के हिस्से की मेहनत कर 
डटी रही हर चौमासे की सीली रातों में 
अपने दोनो बच्चों को छाती से सटाए
निकल आती है 
आज भी   बुढी चन्द्रो 
रात को टोर्च ले कर 
खेतों की रखवाली के लिए  
अमावस्या के जंगली लकडबग्घे  अँधेरे में 

Saturday, June 02, 2012

स्वाति ठाकुर की कविताएँ




1-लड़ना,
जरूरी हो चला है अब,

एक अर्थ में अनिवार्य

लड़ना,

अपने होने को पाने के लिए,

अपनी जिंदगी जी पाने के लिए!

लड़ना,

सच को साबित करने के लिए,

अँधेरी राहों में ग़ुम न होने के लिए!

लड़ना,

अपने लिए रस्ते तैयार करने के लिए

सपनों को जिंदा रखने के लिए!

लड़ना,

जरूरी हो चला है वाकई

आज के वक़्त में,

क्यूंकि

जरूरी हो चला है बेहद

जिंदगी को जिंदगी बनाये रखना!!



2- सजा
किस बात की मिली है उसे

जवाब की जगह है,

एक गहरा मौन...

बस्स!!

क्या सिर्फ लड़की होने की सजा है यह?

लड़की,

क्या शरीर से इतर भी,

कुछ है हमारे सभ्य समाज में?

किसी के वहशीपन की सजा,

क्यूँ भोगे एक लड़की?

सामाजिक विरूपताओं की सजा,

क्यूँ भोगे एक लड़की?

क्यूँ गहरा सन्नाटा है पसरा...

तोडना ही होगा,

इस मौन को,

क्यूंकि लड़की,

महज एक शरीर नहीं,

एक पूरी इन्सान है,

जिसकी आँखों में चमक है

सपनों की,

जिसके हौसलों में ताकत है

उन्हें सच करने की,

पर सभ्य कहने वाले समाज ने,

क्यूँ देखा उसे,

सदा भोग की नजर से?

आज भी देखो,

इठला रहा है,

वहशी समाज

और वह मासूम

खो चुकी है,

सपनों से भरा अपना जीवन!!


Friday, June 01, 2012

मै यूँ ही प्रवाहित हो गई जल में - निरुपमा सिंह


............ निरुपमा सिंह .......
कवित्री , लेखिका
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित 




मैं फरगुदिया

भ्रूण बन रोप दी गई अनचाही धरा में

निरीह (बाप )और गरीब (माँ )द्वारा ..

नियति अपने अंश को आकार देता

जीवन बन चुका था ...

ठीक नौ माह बाद ...

पता नहीं माँ के खेत में काम करने की मज़बूरी ?

या प्रसवपीड़ा ?

मै आ चुकी थी बिना किसी झंझट का

..वस्त्र पहने !

रंग -रूप भी भगवान ने

अमीरों की चाहत की तरह  भर दिया था

'माँ' के थप्पड़ से सहेजती अपने को

पिता की क्रूर आँखों का पहरा

आईना देखने से डरती मै !

सखी -सहेलियों को विदा करते

कब मैंने बचपन को छोड़ दिया ..सुध ही नही

अलहडपन को समेट लौट रही थी .......

.......................रास्ते में बालिग़ करार ..............

.............देते हुए ........मुझसे मेरे जीने का हक छीन लिया गया .

पत्थर मेरी आँखे ...........बर्फ मेरी साँसे .....

घर लौटने का मकसद ...धुंधलाने लगा ...

..........समय की रेत सी (भभकती )सड़क ....

जिन पर से ज़बरन खीचती माँ ...........

ले गई मुझे सीलन भरी कोठारी में ......

पीले दांतों वाली ...काली छाया ने

अनुभवों के मापदंड पर

मृत घोषित कर दिया ..........

........मरने के बाद ..कोई सार्वजनिक जगह नही थी

जहाँ मेरा दाह-संस्कार हो सके ?

कंधे तो चार चाहिए थे .

..पर ...मै तो बिना कंधे वाले समाज की उत्पति थी ....

खैर !!!!!!!!!!

अपने ही भाई बहनों द्वारा ....घसीटती.. पहुंचाई ..गई ..श्मशान तक

संस्कारगत ..कुछ विधियाँ बाक़ी /संवेदनावो के फूल सरीखी ...

सफ़ेद फूल ..मेरी अपवित्रता के लिए ठीक न थे ...

और लाल ...मुझ पर चढ़ाया नही जा सकता था !!

उहापोह में ...

जलाये जाने की विधि किनारे आ गई ..

लड़की और विपन्नता दोनों ...एक दूसरे को पछाड़ने की होड़ में..

...जितनी लकड़ी मुझें जलाने के लिए चाहिए थी .....

उतने में मेरे परिवार का कई दिन चूल्हा जलता !

संकोच ...निःसंकोच को दबोचता ....

मै यूँ ही प्रवाहित हो गई जल में..

............मेरा वज़ूद ...पीपल की पेड़ पर

............".अपवित्र चुड़ैल "बना टांगा जा चुका है(रहस्यमयी मृत्यु )

.....दूर कहीं से शंख ध्वानि ....किसी और किशोरी को ..

अपवित्र करने का शंख नाद कर रहा था ...........!!


............ निरुपमा सिंह .........कवयित्री , लेखिका 

वीडियो


"एक शाम - फर्गुदिया के नाम " कार्यक्रम में डॉ सोनरूपा द्वारा प्रस्तुत कविता



















तुमने ले ही लिया था

जन्म

कि तुम्हे लेना था

लोरियाँ ,थपकियाँ नहीं थीं तुम्हरे लिए

मगर तुम थी तो छोटी सी बच्ची ही ना

सो ही जाती थीं पैरों ,हाथों ,को पेट से लगा के

बढ़ने लगी थीं तुम

कि तुम्हे बढ़ना ही था

रोटियां बस खाने को नहीं थीं तुम्हारे लिए

दिन भर के काम का मेहनताना था तुम्हारा

जो ईधन देता रहे तुम्हारी अंतडियों को

तुम रजस्वला हो गयी थीं

कि तुम्हे होना ही था

अब तुम कुम्हार की चाकी पर चढ़ ही गयी थीं

पकने कि लिए

तुम्हारे उभरते बदलाव चमकने लगे थे निगाहों में बहुतों के

अचानक तुम तोड़ दी गयीं

लेकिन तुम्हे टूटना नहीं था

कच्चे गीले बर्तन से भी कोई पानी पी गया

और चाक से गिर कर तुम बिखर गयीं ऐसे चक्रव्यूह में

जिसे भेदना तुमने भी सीखा ना था .....

तुम्हे बहुत कुछ होना था

मगर तुम हो ना पायीं

तुम पवित्र थीं गिरजे के घंटे की मुंदरी की तरह

हैवानियत ने छुआ तुम्हे

तुम बजीं भी मगर एक चीख की तरह,

महकना था तुम्हे सुगंध की तरह

तुम बिखर गयीं भस्म की तरह,

खेलना था तुम्हे बच्चों की तरह

मगर तुम खेली गयीं खिलौनों की तरह,

तुम्हे कहना था बहुत कुछ

मगर तुम कह ना पायीं

‘बच्ची’ से ‘स्त्री’ बनने तक

तुम हो ही जातीं

तीखी ,कसैली ,पैनी

इस समाज की बदौलत

आक्रोश का लावा धधकता रहा होगा तुम्हारे अंदर तब तक


जब तक तुम्हारी चिता की सुलगती लकड़ियों ने उसे ठंडा ना कर दिया होगा

क्या अग्नि ही काट थी तुम्हारी

































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