Thursday, October 24, 2013

'किताबें होती लड़की' - ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस

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"कई लेख और समीक्षा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. कविताएँ लिखना मेरे लिए नितांत निजी अनुभवों को दोबारा जीने सरीखा है. घर के रोज़मर्रा के काम करते हुए किन क्षणों में कविता ज़हन में उतरती है, चाहूँ भी तो रेखांकित नहीं कर सकती. स्त्री-मन की स्वाभाविक सी इच्छाओं, सपनों और चाहना से बुनी ये कविताएँ स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर हैं"
                                                         - ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस  
                                                  - 


1-
अपना आसमान खुद चुना है मैंने
आकांक्षाओं की पतंग का रंग भी
मेरी पसंद का है
डोर में बंधी चाहना की कलम से लिखी
इबारत में करीने से
'निजता' और 'खुदमुख्तारी' बुना है.
बुर्जुआ चश्मे पहन जिसे
'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
और घोषित करते हो सरेआम
कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
और रुग्ण सोच का
अमलगम
क्यों मेरी मनःस्विता पर गोदते हो?
बताओ तो!


2.
'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'
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औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों
अंतरिक्ष  के दायरे से बाहर फैले
अपने व्यक्तित्व के हिज्जे
कविताओं की स्लेट पर उड़ेलती हैं
कलम की नोंक पर
आसमान सिकुड़ आता है.

शब्दों की दहकती आंच में
मक्का के दानों सी भूंजती हैं  अनुभव
फूटते दानों की आवाज़
स्त्री-विमर्श के आंगन में
गौरय्या सी फुदकती है.

पृथ्वी के केंद्र में
दरकती चट्टानों सी विस्फोटक है
औरतों के ह्रदय की उथल-पुथल
उनकी कविताओं की इबारतों में
यह लावा बनकर बहती है.

3.
'मौला मेरी इतनी अरज सुन लीजो'
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अपनी सालगिरह का दिन इस बार
निज़ामुद्दीन में बिताना चाहती हूँ
भीड़-भरी उन गलियों से गुज़रते हुए
जहां तबर्रुक बेचती औरतें
बार-बार आवाज़ लगाकर मुझसे
दोना भर फूल और बताशे
खरीदने पर जोर देती होंगी
मैं चुपचाप
ग़ालिब की मज़ार
के सामने जा खड़ी होऊँगी
संगमरमर की सफेदी को और ज्यादा
शफ्फाक बनाती
दिसम्बर की हल्की धूप में
बेलौस बतियाऊंगी उस अज़ीम शायर से

इधर-उधर की बातों के दरम्यान
बिंदास उन्हें बताऊंगी -
'धरती पर आने के लिए हम दोनों ने
साझा दिन पसंद किया,
जाते साल के आखिरी दिनों में से यही एक दिन
उन्हें सलाम-ए-अक़ीदत पेश करने के लिए
मैंने चुना है.

तभी तनिक दूर विराजे अमीर ख़ुसरो दिख जायेंगे,
ग़रीबनवाज़ की मजार के सामने बैठे
अपनी रौ में गुनगुनाते हुए,
'गोरी सोवत सेज पर,
मुख पर डाले केस,
चल ख़ुसरो घर आपने
रैन भई चहुँ देस'
कहकर ग़ालिब को ख़ुदा हाफिज़
मिलूंगी बाबा ख़ुसरो से

कहूँगी उनसे कि
आज भी उनके इस मुल्क़ में
हिंदी-उर्दू सियासत का दौर जारी है
लेकिन मेरी कविताओं में
उर्दू के तमाम शब्द
बहुत शाइस्तगी और सहजता से आ बैठते हैं
उन लफ्जों को बदलना चाहूं भी तो
हिंदी के पर्यायवाची ज़रा नहीं फबते उनकी जगह.

अंतर्मन भले ही लाख बरजे मुझे
लेकिन पूछूंगी ज़रूर उनसे
'मुझे मेरी जुबान देने वाले,
तुम्हारी मादर-ए-जुबान में रखती हूँ अपने बच्चों के नाम
तो लोगों के माथे पर शिकन क्यों होती है?
क्यूँ उनके चेहरे पर अनलिखे से कई
प्रश्न सिकुड़ आते हैं?'
मेरे सवालों के जवाब ढूँढने में व्यस्त
बाबा चुपचाप आँखे मूँद लेंगे
उन्हें गहरी सोच में डूबा देख
रुखसत लूंगी उनसे
और आ निकलूंगी
हज़रत निज़ामुद्दीन की तरफ

खुदाया, क्या निराला मंज़र होगा वह भी!
क्या हिन्दू, क्या मुसलमान
सभी के सिर रूहानी अक़ीदे से झुके होंगे
आपकी सल्तनत में साहेब
आदमी-आदमी के बीच का फ़र्क गुरूब हो जाता है
सभी तो एक नज़र आते हैं
श्रद्धा और रुहानियत से लबरेज़
दिलों में बिला-फर्क हरेक की सलामती की दुआ
हिन्दू या मुसलमान होने का चश्मा उतार कर
सिर्फ बन्दे के तौर पर खुद को देखने की सलाहियत
यहीं, निज़ामुद्दीन में दिखती है

'मौला, मेरी इतनी अरज सुन लीजो'
दरगाह के कोने में बैठे क़व्वाल की आवाज़
ऊँची और ऊँची होती आहंग की तरह
मुझे छू रही होगी
आप तो जानते ही हैं, ख्वाज़ा साहेब
उस वक़्त मेरे होंठों पर भी एक दुआ होगी
'मेरे हिंदुस्तान को गुजरात की रात नहीं,
दिल्ली के निज़ामुद्दीन सरीखे गुनगुने दिन बख्श, मौला'


4.
'किताबें होती लड़की'
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किताबों से अटी 
घर की कार्निस, मेजें और अलमारियां                                                      
पिता के किताबों से गहरे लगाव की
मौन पुष्टि करती थीं. 
घर के कमरे
किताबों के अभाव में रूखे दिखते हैं
पड़ोसियों और दोस्तों के घर जाकर                 
जाना लड़की ने
महंगे सजावटी सामान से सजे
वे कमरे                                                                                   
लड़की को थके और निष्प्रभ लगते.

पढ़ने  की लत,  लड़की को पिता से मिली थी
खाने की मेज़ पर,  माँ की डांट भी
उसे किताबों से दूर नहीं रख पाती
खाना खाते वक़्त, आज भी
लड़की जब कुछ पढ़ती है
माँ की अदृश्य आवाज़ में उलाहना सुन ही लेती है.

इतिहास की पुस्तकें पढ़ना
लड़की को पसंद आता
लेकिन दर्शन
सिर के ऊपर से निकल जाता
और साहित्य में,
कविता, कहानी, उपन्यास सभी कुछ भाता.

घर में पत्रिकाएँ भी खूब आतीं
'धर्मयुग' और 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' से
दोस्ती उन वक्तों से थी
जबसे लड़की ने
अक्षर-अक्षर मिलकर शब्द पढ़ना सीखे
लड़की को याद है,
चार-पांच बरस की रही होगी वह
आबिद सुरती घर आये थे तब 
पिता से मिलने
ढब्बू जी ने
'धर्मयुग' के पृष्ठों से बाहर निकल
थोड़ी जगह लड़की की कॉपी में
तलाश ली थी
और लड़की ने 'कॉपी के ढब्बू जी' को
अपने सभी दोस्तों से मिलवाया था

उम्र बढ़ी, सोच का दायरा बढ़ा
किताबों के सान्निध्य  ने
लड़की को  शफ्फाक शीशे की मानिंद
पारदर्शी तार्किकता दी.

समय की सीढ़ियाँ चढ़ते-चढ़ते 
वह दिन भी आया
जब लड़की ने अपना अलग घरौंदा बनाया 
किताबों से दोस्ती
टूटी नहीं तब भी
पिता जब भी नई किताब खरीदकर लाते
लड़की प्रफुल्लित हो जाती.
किताब पढने के बाद,
पिता-बेटी तन्मयता से
सविस्तार चर्चा करते उसपर
लड़की की समझ पर
पिता गर्वित हो उठते
और अक्सर ऐसे मौकों पर
भावुक हो लड़की को
अपना बौद्धिक वारिस बताते 
उनके जाने के बाद, उनकी किताबें
लड़की की धरोहर हैं,
पिता लड़की से कहा करते
लड़की सुनती और मुस्कुरा देती.

माँ गईं, फिर अनंत शून्य
पिता को भी लील गया.
लड़की ने महसूस किया
पिता के अवसान पर,
उसके रुदन में
पिता की किताबों का स्वर
सम्मिलित था.

माँ-पिता की गृहस्थी
मकान, घरेलू सामान,
रुपए-पैसे और गहनों में
तब्दील हो गई थी
जिसे तकसीम होना ही था
लड़की और उसके सहोदरों के मध्य
उस दिन, लड़की ने क्षण-भर सोचा
और अपने हिस्से में  धूप की तरह 
पिता की कुछ किताबें मांग ली.
इसे लड़की की नासमझी
और गैर -दुनियादाराना रवैये
की नज़र से देखा गया
लेकिन लड़की जानती थी
पिता अपना बौद्धिक उत्तराधिकारी
उसे ही मानते थे
उनकी बौद्धिक संपत्ति पर
हक़ उसी का था.

पिता की वे किताबें
लड़की ने
शादी में मिली माँ की साड़ियों सी
सहेज-संभालकर रखी हैं
पिता याद आते हैं  जब भी
उनकी किताबें
लड़की को पास बुला लेती हैं 
किताबें
जिनके पहले पन्ने पर                                                          
पिता के हस्ताक्षर में निहित
उनकी अशेष स्मृतियाँ
दोहराती हैं - 
शब्द ही शाश्वत हैं,
अक्षुण्ण हैं,  उम्र की जद से परे.
लाल फूलों से खिलते हैं
सृजन और विचार
शब्दों में ही!

5.
'मैं...तुमसे प्रेम करता हूँ'
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मैं
तुमसे प्रेम करता हूँ इसलिए 
तुम मेरा घर संभालो 
मद्धिम आंच में सिंझी तरकारी और
भाप उगलती, नर्म चपातियाँ पकाओ मेरे लिए
--- पुरुष ने कहा, स्त्री ने सुना.

मैं
तुमसे प्रेम करता हूँ इसलिए 
तुम मेरे बच्चे संभालो 
सही संस्कार और गुण बोओं उनमें 
उन्हें दुनिया का सामना करना सिखाओ 
मैं फख्र से कह सकूँ -- मेरी संतति हैं ये 
--- पुरुष ने कहा , स्त्री ने सुना.

पुरुष ने कहा,
'सुनो, मैं तुमसे प्रेम करता हूँ  इसीलिए कहता हूँ 
तुम महफूज़ हो मेरे बनाये दायरों में 
मत झांको , इस दहलीज़ के बाहर
बाहर की दुनिया में
अन्याय है , असमानता है , शोषण है'
स्त्री ने सुना यह भी
लेकिन इस बार, एक तिर्यक लकीर 
स्त्री के अधरों पर खिंची थी. 


6.
'कुछ कहना चाहेंगे आप ?'
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स्त्री को बतलाने का शौक है
धूप का टुकड़ा मचलता है जैसे
देखकर अपनी परछाईं पानी में
स्त्री के ज़हन में कुलबुलाते हैं शब्द
बाहर आने को हमेशा बेचैन,

बतरस के उत्प्रेरक ने
स्त्री को कई उम्दा दोस्त बख्शे
औरतें भी, आदमी भी,
उम्र की जद से दूर,
सोच और विचारों की एकरूपता ही
-स्त्री के मुतल्लिक,
दोस्त बनाने की इकलौती शर्त होती
स्त्री के जीवन का विस्तीर्ण अंश रहे
इन दोस्तों में कुछ तो, शब्दों के पुल पर
चलकर ही स्त्री तक पहुँचते.
'रु-ब-रु एक दूसरे को जानना,
प्रेमियों के लिए ज़रूरी है, दोस्तों के लिए नहीं.'
स्त्री कहा करती.

दोस्तों की इस फेहरिस्त में
उसका नाम भी था
हालाँकि, निजी तौर पर स्त्री उसे नहीं जानती थी
फ़ोन पर भी महज़
दो ,या शायद तीन मर्तबा बात हुई थी
चेहरा, यकीनन अजनबी ही था
लेकिन, स्वर में बेलौस अपनापन
बौद्धिकता की गरिमा से भरे शब्द
स्त्री को आह्लादित कर जाते
इस आह्लाद में प्रेम-व्रेम का तत्व नहीं
दोस्ती की ऊष्मा पसरी रहती
- या कि  स्त्री को ऐसा प्रतीत होता
क्योंकि उवाचित शब्दों की चौहद्दी से परे झांकना
स्त्री को अतार्किक और अनर्थक लगता.

फिर एक दिन, अलसुबह, फ़ोन घनघनाया,
स्क्रीन पर उसका नाम चमक रहा था
अचरज और खीझ की मिली-जुली लकीरें
स्त्री के चेहरे पर खिंच आईं
फ़ोन उठाने पर, दूसरे छोर से आती आवाज़ में
जानी-पहचानी गरमाहट नहीं है
बस, नश्तर की तरह चीरता हुआ ठंडापन
कानों को सुन्न करता जा रहा है
खुदाया, यह क्या? वही आदिम सोच,
उसके साथ अन्तरंग होने आमन्त्रण है
बेहद सपाट अंदाज़ में
गोया, कह रहा हो
चलो, साथ कॉफ़ी पिएँ!
शीराज़ा बिखर रहा है किरच-दर-किरच
मज्जा तक फैलती पीड़ा चुभ रही है 

फ़ोन पटकने के बाद, स्त्री देर तक सिर धुनती है
पुरुष और स्त्री के संबंधों का अंतिम आयाम
बिस्तर ही क्यूँ ?
इस अनुत्तरित प्रश्न पर कुछ कहना चाहेंगे आप ?


7.
'अपूर्ण अभिलाषाएं सपनों की रेत पर ही नई 
इबारतें लिखती हैं'--------------------------------------------------------------------
आजकल अक्सर होता है यह मेरे साथ
रात में, जब बिस्तर पर लेटती हूँ
आँखें बंद करते ही तुम आ जाते हो
मुझसे मिलने
शरारत-भरी मुस्कराहट बिखेरते,
धीमी आवाज़ में बातें करते हो इधर-उधर की
चाहते हुए भी कभी कह  नहीं पाए 
अनबोला सा ऐसा ही बहुत कुछ
तुम्हारी आँखें बतियाती हैं मुझसे
  
तमाम रात मेरे साथ रहते हो तुम
तलाशते हैं कभी वह मकान जिसे घर बना सकें
कभी किसी शादी के समारोह में शरीक हो जाते हैं
ना जाने क्यों  ...?
-और कभी कॉफ़ी का मग थामे
खिड़की के पास बैठकर बारिशें देखते बस यूँ ही वक़्त बिताते हैं हम.
रोज़मर्रा की आम सी जिंदगी अब हर रात
तुम्हारे साथ खुलकर जीती हूँ मैं
अभी उस दिन तुमने फरमाइश की थी
कोई अच्छी सी ड्रेस पहनने की
सारी रात तुम्हारी मनपसंद पोशाक ढूँढने की उधेड़बुन में ही कट गई
और...कल जब घर आये थे
बाबा ने दरवाज़ा खोला था
उन्हें देखकर अचकचा गए थे तुम
फिर थोड़ा संभलकर मेरे बारे में दरियाफ्त किया
बैठक में मुझसे बातें तो की
लेकिन दरम्यान कहीं औपचारिकता पसर गई थी
नज़दीक होते हुए भी दूर रहने की खलिश
परेशान करती रही मुझे रात भर
सुबह आँख खुलने तक यह कसमसाहट तारी रही.

एक बात कहूँ...
ज़िन्दगी की किताब को तुम्हारे साथ पढना अच्छा लगता है मुझे
सपनों में ही सही
मेरी रातों में तुम्हारी मौजूदगी
दिन-भर नए कपड़े की खुशबू सी मुझसे लिपटी रहती है

मेरा ख्याल है, सपने ज़िन्दगी से ज्यादा सुन्दर और खुशगवार होते हैं
क्योंकि अपूर्ण और अतृप्त अभिलाषाएं
सपनों की रेत पर ही नई इबारत लिखती हैं...!!!

8.
'एक दुआ: अप्पू, तेरे लिए'
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अप्पू!
तुझे शब्दों का उपहार देना चाहती हूँ...
तेरी अध्यापिकाएं, नाते- रिश्तेदार और जान- पहचान वाले
जब तेरी तारीफ के कसीदे पढते हैं
मैं गर्व से दोहरी हो जाती हूँ
शायद इसलिए कि
नौ माह गर्भ में रखकर
जो संस्कार मैंने तुझे देने चाहे
उनकी प्रतिभूति मुझे तुझमें नज़र आती है


मेरी नन्ही सी जान...
दुनिया में लाने के बाद,
जब तुझे पहली बार देखा था
सिंदूरी दूध सा रंग लिए...
आँखों की नमी बूँद बनकर
मेरे चेहरे पर बिखर गई थी
शब्दों की पहुँच से कहीं आगे था वह अहसास
*        *         *         *          *          *         *
समय रपटता गया घडी की फिसलपट्टी पर
तेरी नन्हीं- नन्हीं शरारतों में
मैंने अपना बचपन फिर जिया
अब आपस में कभी-कभार
अपनी भूमिकाएं बदल लेते हम
 मैं नन्ही सी बच्ची बन जाती
और... तू मुझे दुनिया का दस्तूर समझाता


अप्पू... मेरे बच्चे!
कभी-कभी सोचती हूँ
तेज़ रफ़्तार ज़िन्दगी की भागदौड़ में
अपनी प्रत्याशाओं के चलते मैंने
उम्र के बरसों को खींचकर तुझे वक़्त से पहले बड़ा
या  कहूँ कि दुनियावी अर्थों में समझदार तो नहीं बना दिया...
लेकिन फिर कभी छोटी-छोटी बातों पर
तेरा मचलना, जिद करना
मेरे इस डर को उड़नछू कर देता है
उम्र की सीढियां फर्लांगने की ज़ल्दबाज़ी तुझे नहीं है
तेरी सोंधी मुस्कान मुझे यह आश्वस्ति देती है


तू ऐसे ही रहना अप्पू...
संवेदनाओं से भरा और दिलखुश
कच्ची धूप सी तेरी मासूमियत
वक्त की आरी से छीजे नहीं
यही दुआ है मेरी
अप्पू...तेरे लिए

9.
तुम्हारा साथ मेरी सबसे कीमती , सबसे सुन्दर धरोहर है
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तुम्हारे साथ पहाड़ी जगहें देखी है मैंने
और रेतीला समुद्र भी 
इन जगहों पर तुम्हारा साथ 
मुझे पृथ्वी सा विस्तार देता है
मन की भीतरी परतों में नया सूरज उग आता है
मैं बार- बार कहती हूँ, खुद से,
'तुम्हारा साथ मेरी सबसे कीमती , सबसे सुन्दर धरोहर है...'

आसमान की नीली चादर पर टंके तारों से बतियाया है
तुम्हारे साथ ,
और रात ने मुझमें से गुजरकर 
नए  नक्श गढ़े हैं
ऐसी ही रातें होती है जब मैं 
हथेलियों में मुलायम ऊष्मा समेटती हूँ
नम रेत पर युगों तक वह रात नदी बनकर बहती है .

10.

एक और उम्र चाहिए मुझे...----------------------------------

एक और उम्र चाहिए मुझे
फिर से यह कहानी दोहरा सकूँ
इन बैचैन से ख्यालों को बोने के लिए
नए चाँद के उगने तक परती ज़मीन तलाश सकूँ

धीमी आवाज़ में ये सिकुड़न , ये सिलवटें न हों 
जो वक़्त जिया है तुम्हारे साथ 
उसे शब्दों का बेबाक़ लिबास ओढ़ा सकूँ
खिड़की  के कांच पर जमी स्मृतियों को 
अपनी उँगलियों की छुअन से चौका दूँ 
और बारिश जब भी छूना चाहे क्षितिज की लालिमा
मेरे मन की दीवारें तुम्हारे अहसास की नमी से भीगी हों 

शब्दों की पगडंडियों से एक और उम्र नापने की चाहना
रूखी रेत सी मेरे भीतर ठहर जाती है
उस सुनसान रात 
पहाड़ों पर बिखरी बर्फ की मानिंद
तुम चुपचाप अपनी उपस्थिति दर्ज करा जाते हो.
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नाम: ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस
जन्म: २७ दिसम्बर, १९७३
शिक्षा: बी.एस.सी., एम.ए., बी.एड., पत्रकारिता में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा
अपने बारे में: कई लेख और समीक्षा स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित. कविताएँ लिखना मेरे लिए नितांत निजी अनुभवों को दोबारा जीने सरीखा है. घर के रोज़मर्रा के काम करते हुए किन क्षणों में कविता ज़हन में उतरती है, चाहूँ भी तो रेखांकित नहीं कर सकती. स्त्री-मन की स्वाभाविक सी इच्छाओं, सपनों और चाहना से बुनी ये कविताएँ स्वयं को अभिव्यक्त करने का माध्यम भर हैं.

संपर्क: ऋतुपर्णा मुद्राराक्षस
2106, सॉलिटेयर टावर,
पैरामाउंट सिम्फनी,
क्रासिंग रिपब्लिक,
एन. एच. - 24,
गाज़ियाबाद.

Sunday, October 20, 2013

पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैना की कुहुक- सुधा अरोड़ा

चन्‍द्रकिरण सौनरेक्‍सा
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पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैना की कुहुक
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"आज गुजरे जमाने की लेखिका चन्‍द्रकिरण सौनरेक्‍सा के 93 वें जन्‍मदिवस पर उन्‍हें याद करने का मन है" - 

‘‘ मैं देश के निम्नमध्यवर्गीय समाज की उपज हूं । मैंने देश के बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों से जूझते कुम्हलाते और समाप्त होते देखा है । वह पीड़ा और सामाजिक आर्तनाद ही मेरे लेखन का आधार रहा है । उन सामाजिक कुरीतियों विषमताओं तथा बंधनों को मैंने अपने पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास किया है जिससे वह भी उनके प्रति सजग हों उन बुराइयों के प्रति सचेत हों जो समाज को पिछड़ापन देती हैं । ७५ साल का लेखन पिंजरे की मैना के साथ संपूर्ण होता है और यह मेरी छियासी साल की जीवनयात्रा का वास्तविक दस्तावेज है । ’’  
                                                                                     - चन्द्रकिरण सौनरेक्सा के आत्मकथ्य से

   हिन्दी कथा साहित्य में महिला रचनाकारों की आत्मकथाएं उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं । पुरुषवर्ग यह सवाल पूछता है कि लेखिकाएं अपनी आत्मकथाएं क्यों नहीं लिखतीं पर लिखी गयी आत्मकथाओं को इस या उस कारण से स्वीकृति नहीं देता । स्त्री रचनाकारों और पाठकों-प्राध्यापिकाओं का भी एक बड़ा वर्ग इस विधा में लेखन को अपने घर का कूड़ा’ या  ‘महज अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा’ मानकर गंभीरता से नहीं लेता बल्कि एक सिरे से इसे खारिज करते हुए कहता है कि साहित्य कूड़ा फेंकने का मैदान नहीं है ।                    

साहित्य समाज का दर्पण है ’’ उक्ति घिस- घिस कर पुरानी हो गई पर साहित्य का समाजशास्त्रीय विष्लेशण आज भी साहित्य का एक अनिवार्य हिस्सा नहीं बन पाया । साहित्य और समाजविज्ञान के बीच की इस खाई ने साहित्य को शुद्ध कलावादी बना दिया और समाजविज्ञान के मुद्दों को एक अलग शोध का विषय जिसका साहित्य से कोई वास्ता नहीं ।

सुभद्राकुमारी चैहान सुमित्राकुमारी सिन्हा के कालखंड की एक बेहद महत्वपूर्ण लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी ने अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में अपनी लंबी चुप्पी को तोड़ा । अपनी आत्मकथा ‘पिंजरे की मैना’ में अपने जीवन के ऐसे बेहद निजी अनुभवों और त्रासदियों को उड़ेल दिया जिसे घर और बाहर एक साथ जूझती , उस समय के मध्यवर्गीय समाज की , एक औसत स्त्री की त्रासदी से जोड़कर देखा जा सकता है । वे उम्र के उस पड़ाव पर पहुंच चुकी थीं जब व्यक्ति अपनी भरपूर जिन्दगी जी चुकता है । जिया जा रहा समय उसे बोनस लगता है और उसे लगता है अब उसके पास खोने के लिए कुछ नहीं बचा । उसकी कलम बेबाक हो जाती है और सच बोलने से उसे न खौफ होता है न परहेज ।


चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी का जन्म 1920 में हुआ जब अधिकांश औरतें पढ़ने लिखने के बावजूद अमूमन गिरस्तिनें ही हुआ करती थीं । 1940 में उनका विवाह लेखक पत्रकार और सुप्रसिद्ध छायाकार कांतिचंद्र सौनरेक्सा से हुआ । शादी के बाद बच्चों की तमाम जिम्मेदारियां निभाते हुए भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी हमेशा एक सफल कामकाजी महिला रहीं । उन दिनों मनोरंजन के एक प्रमुख साधन के रूप में रेडियो काफी लोकप्रिय था । रेडियो पर लता मंगेशकर के गाने जितने लोकप्रिय थे लखनउ के पुराने वाशिंदे बताते हैं कि उतनी ही लोकप्रिय चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी की ‘‘गृहलक्ष्मी ’’ की वार्ताएं और ‘‘ घर चौबारा ’’ की कहानियां हुआ करती थीं ।

आकाशवाणी में बेहद लोकप्रिय और नये से नये कार्यक्रम देने वाली यह उस समय की युवा लेखिका भी एक मां और पत्नी के रूप में एक सामान्य औसत गृहिणी के त्याग और सहनशीलता के गुणों से लैस जीवन जीती हैं । उनकी एक कहानी अमृत राय संपादित ‘‘ हंस ’’ में स्वीकृत होती है तो पति संपादक का पत्र देखकर फाहश शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं । पत्नी की कहानी की स्वीकृति पर ऐसी प्रतिक्रिया उस पति की है जो तीन बेटियों का बाप होने के बावजूद सरकारी नौकरी के प्रोबेशन पीरियड में ही एक प्रेम में पड़ जाता है । पत्नी अपने लेखन और ट्यूशन के बूते अपने बाबूजी के पास अलीगढ़ जाना चाहती है पर पत्नी के चले जाने से सामाजिक प्रतिष्‍ठा और नौकरी जाने की संभावना है इसलिए पति को यह स्वीकार नहीं । चन्द्रकिरण सौनरेक्सा लिखती हैं - ‘‘ रोमांस और शादी - यथार्थ की धरती पर चूर चूर हो गए । किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं हो सकते । यह खोने और पाने का सिलसिला न होता तो दुनिया कब की जंगल राज्य में बदल चुकी होती । ’’

प्रोबेशन पीरियड खत्म होने के बाद डिप्टी कलेक्टर की स्थायी सरकारी नौकरी पाने के बाद फिर एक दिन लेखक पत्रकार छायाकार रात को नौ बजे अपनी एक बीस वर्षीय महिला मित्र को हॉस्टल से घर ले आते हैं और सारे क्रोध अपमान आत्मग्लानि के बावजूद पत्नी उन्हें परिवार के सदस्यों की नजर से बचाने के लिए कमरे में भेज देती है और सारी रात गैलरी में अखबार बिछाकर दरवाजे से टेक लगाकर बैठ जाती है । लेकिन बात छिपती नहीं - डिप्टी डायरेक्टर साहब को सस्पेंड किया जाता है और समाचार पत्रों में इस रंगीन अफसाने की खबर छप जाती है । फिर रोटी रोजी का सवाल । किसी तरह सुमित्रानंदन पंत जी और जगदीशचंद्र माथुर के सहयोग से चन्द्रकिरण सौनरेक्सा जी लखनउ आकाषवाणी की नौकरी पर नियुक्त हो जाती हैं । 
घर और बाहर का मैनेजमेंट - पिछली पीढ़ी की औरतों ने कैसे बखूबी निभाया है यह कोई श्रीमती सौनरेक्सा से समझ सकता है । पिछली पीढ़ी में तमाम पौरुषीय कारनामों के बावजूद कैसे और क्यों शादियां टिकी रहती थीं और किस कीमत पर ....... यह ‘‘ पिंजरे की मैना ’’ किताब पढ़कर बखूबी जाना जा सकता है ।

1985 में प्रभात प्रकाशन से उनकी किताब का प्रकाशन कांति जी के लिए प्रतिशोध का कारण बन गया । उसके बाद हर वर्ग का पुरुष कांति जी को अपनी पत्नी का प्रेमी लगने लगा - चाहे वह कोई संभ्रांत परिचित हो या अखबार देने वाला । कांति जी को यह समझ नहीं आया कि लेखिका चन्द्रकिरण सौनरेक्सा से प्रतिशोध लेने में बदनामी सौनरेक्सा खानदान की बहू की उनके बच्चों की मां की हो रही थी ।      ‘‘ अपमान आत्मग्लानि और घोर मानसिक पीड़ा के दौर से गुजरते हुए उम्र के इस पड़ाव पर मैं किंकर्तव्यविमूढ़ थी कि किस तरह झूठ के इस बवंडर का सामना करूं ? ’’

उन्होंने एक लंबे अरसे तक साहित्यिक जगत से अपने को काट लिया साहित्यिक समारोहों में जाना बंद कर दिया था पर इसकी टीस लगातार बनी रही - ‘‘ मैं आज भी निम्नमध्यवर्ग का अंश हूं तब भी थी । सोचा एक मुक्केबाज की चोट से अगर बचना चाहते हो तो उसके रास्ते से हट जाओ । तब उसके मुक्के हवा में चलेंगे चलानेवाला भी जब उसकी व्यर्थता जान लेगा तो हवा में मुक्केबाजी बंद कर देगा । .......मैं तो स्वनिर्मित गुमनामी के अंधेरे में खो गई । वृंदावन से एक बंदर चला जाए तो वृंदावन सूना नहीं हो जाता । चन्द्रकिरण के साहित्य जगत से हटने से वह सूना नहीं हो गया । ’’

इस आत्मकथा की तुलना अगर किसी से की जा सकती है तो वह है मन्नू भंडारी की ‘‘ एक कहानी यह भी ’’ जो आत्मकथा नहीं मन्नू जी की संक्षिप्त लेखकीय यात्रा है पर दोनों किताबों में गजब की ईमानदारी साफगोई और पारदर्शिता है । शब्द झूठ नहीं बोलते - दोनों आत्मकथाओं के ब्‍यौरे इस बात के गवाह हैं ।

इस कामकाजी महिला ने जिस खूबी से अपने घर और कार्यक्षेत्र की मांग को अपनी दिनचर्या में जिस तरह सुव्यवस्थ्ति किया उसे देखकर हम नहीं कह सकते कि स्त्री सशक्तिकरण आज के आधुनिक समय की अवधारणा है । इस सशक्तिकरण के बदलते हुए चेहरे को समय के साथ बदलता हम देख पा रहे हैं पर इस अवधारणा का शुरुआती दौर देखने के लिए चन्द्रकिरण सौनरेक्सा की आत्मकथा ‘‘ पिंजरे की मैना ’’ एक बेहद महत्वपूर्ण पुस्तक साबित होती है । हिन्दी साहित्य के हर अध्येता को इसे पढ़ना चाहिए ।

जब मैंने 2008 में किताब पढी , सोचा - पिंजरे की मैना से मिलकर उन्हें बधाई दूंगी कि अन्ततः उन्होंने कलम को हथियार बनाने का भरपूर साहस दिखाया । पर इससे पहले कि मैं उनसे मिलती मैना पिंजरा खोलकर उड़ गई । बेशक आज समय बदल चुका है पर हिन्दी प्रदेश के उन पिंजरों में जहां आज भी चन्द्रकिरण सौनरेक्सा  जैसी औरतें हैं और वही सब कुछ झेल रही हैं जो पचास साल पहले की कामकाजी औरत ने झेला अपने समय की एक महत्वपूर्ण लेखिका का बेबाक और पारदर्शी बयान बहुतों के लिए ताकत का सबब बनेगा । 

चन्‍द्रकिरण सौनरेक्‍सा की 93 वीं जयंती पर उन्‍हें नमन ।



सुधा अरोडा -- 097574 94505

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