Saturday, March 09, 2019

हमारी साहित्यिक यात्रा- आत्मकथ्य


"उनके लिए कलम का साथ ख़ुद की आवाज़ सुनना है तो उनके लिए लिखना आस-पास की अच्छी- बुरी तमाम परिस्थितियों पर आवाज़ उठाना भी है. सामाजिक-पारिवारिक और स्वयं पर स्वयं ही लगाई गई उन बंदिशों से बाहर निकलने का माध्यम है जिनमें सदियों की घुटन है.. समाज में सुधार लाने का अपने स्तर पर तठस्थ प्रयास है.निर्भीक हो तमाम मुश्किलों को पार कर स्वयं को देखना ,छूना और महसूस करना है.उनके लिए लिखना स्वयं को प्रेम करना है.
अपनी साहित्यिक यात्रा का वर्णन करते हुए लेखन में रुचि रखने वाली स्त्रियों को निर्भीक होकर लिखने की सलाह दे रहीं हैं साहित्य जगत की कुछ स्थापित लेखिकाएं."



  मेरी यात्रा एक छोटे से शहर बस्ती से शुरू हो कर दिल्ली तक पहुँचती है। बस्ती और बनारस मेरे दिल मे हमेशा बसे रहने वाले शहर हैं। दिल्ली शहर का आकार बड़ा है, संस्थान और सुविधाएं बड़ी हैं, पर उसी के साथ आपका संघर्ष भी बड़ा हो जाता है। छोटे शहरों के मुकाबले में यह संघर्ष बड़ा भी होता है और कई स्तरों पर भी होता है। यहाँ कुछ पाने की जद्दोजहद से ज्यादा अपनी जड़ों को बचाने की कोशिश होती है। जो भी बड़ा रचनाकार अपनी जड़ों से जुड़ा रहा है, वह दिल्ली में हो कर भी बड़ी रचनाशीलता की तरफ गया है। जैसे के
दारनाथ सिंह ताउम्र अपने शहर बलिया को नहीं भूले।
दूसरी बात यह भी है कि दिल्ली हमें बड़ी सोच के साथ जोड़ती है, यह उसका सकारात्मक पक्ष है। वैश्वीकरण का बड़ा नजरिया यहाँ आ कर हमें मिलता है। हालांकि मेरे नए उपन्यास 'अस्थि फूल' में पहली बार दिल्ली उपस्थित हुआ है। अन्ना हज़ारे आंदोलन का प्रसंग उसमें आता है।


बाहरी तौर पर ऐसा लग सकता है कि दिल्ली ने अपने रहने वालों को मज़बूत बना दिया है पर भीतर की टूटन तो वही लोग जानते हैं जो रोज यहाँ जीवन के लिए जूझते हैं, मजदूर, आदिवासी, अल्पसंख्यक भी इसी दिल्ली का हिस्सा हैं, क्या इन्हें देखे बिना बात पूरी हो सकती है? एक बड़ा सवाल यह भी है कि बुजुर्ग और अशक्त लोगों के लिए दिल्ली में कितनी जगह बची रह गई है? महानगर कहीं न कहीं अपने रहने वालों को अकेला भी बनाता है। या फिर हम निर्भया कांड को भूल सकते हैं? जिस दिल्ली में आज भी माता पिता जरा अंधेरा होने पर, अपनी बेटियों के घर लौटने को ले कर चिंतित हो जाते हैं, यह दिल्ली , जो स्त्रियों के लिए आज भी सुरक्षित नहीं है, यह किस तरह स्त्री को सशक्त बनाने में अपनी भूमिका निभाएगी?आज हम देश की एक ऐसी राजधानी की कल्पना जरूर करना चाहेंगे जो लड़कियों, औरतों और नन्हीं बच्चियों के लिए एक महफूज जगह हो।

- अल्पना मिश्र


   
जिस गाँव में मैं पैदा वहाँ वहाँ और आस-पास के सभी गाँवों में लड़कियों की जन्म कुंडली नहीं बनती थी। पंडितजी जन्मतिथि लिखने और कुडली बनाने सिर्फ बेटा पैदा होने पर आते थे । इसलिये मुझे ठीक-ठीक अपना जन्मदिन नहीं मालूम है। उस समय आस-पास के गाँवों में कहावत कही जाती थी कि बड़ी खुशी की बात यह होती है कि ‘बिन ब्याहे बेटी मरे’, यानी जवान लड़की बिन ब्याहे मर जाये। ऐसे पितृसत्तावादी सोच वाले समाज में
लड़कियाँ जिस तरह से अपनी जगह बना रही हैं, वह कमाल की बात है। मेरी पढ़ाई में जितनी मेहनत मैंने की, मेरी माँ ने भी उतनी ही मेहनत की। जिस समय मैं प्लासी की लड़ाई समझ रही होती थी उस समय वह मेरे पिता से लड़ रही होती थी कि मुझे अगली क्लास भी पढ़ लेने दिया जाये। शादी के बाद, मैं नौकरी और घर के काम में हर समय व्यस्त रहती थी। सब कुछ ठीक चल रहा था फिर भी मेरे चेहरे से उदासी जाती नहीं थी । यह देख कर मेरे पति ने मुझे लिखने की सलाह दी। गोपाल दास नीरज और अदम गोंडवी साहब मेरे ससुर के अच्छे परिचितों में से थे । ससुराल में कादंबिनी, नवनीत इत्यादि पत्रिकाएँ नियमित आती थीं।
शुरुआती असफल कविताओं के बाद मैंने एक कहानी लिखी और वह हंस में छप गयी। राजेन्द्र यादव का प्रशंसा का फोन आ गया, फिर क्या पूछना, सिलसिला चल पड़ा। जब मैं घर की चहारीवारी से बाहर लेखन की दुनिया में निकली तो यह देख कर बहुत दुख हुआ कि स्त्रियों को लेकर पढ़े-लिखे लोग भी सहज नहीं हैं। इस पढ़े -लिखे समाज में भी स्त्री को दोयम दर्जे की प्रतिभा समझा जाता है । फिर मेरा एक और संघर्ष शुरू हुआ। स्त्री, जीवन की रचनाकार होती है। उसे जीवन की बेहतर समझ होती है। इस कारण वह द्वेष और ईर्ष्या का अनायास शिकार बनती हैं । अपनी पहचान कायम करने के साथ उसे इन प्रवृतियों से भी बराबर लड़ाई जारी रखनी चाहिए। अकेले पड़ जाने का खतरा उठा कर भी स्त्री को वही कहना और करना चाहिए जो वह ठीक समझती है । आज चुनौतियाँ जरुर हैं किन्तु निराशा नहीं है। समाज विवश होकर हमारी प्रतिभा को जगह दे रहा है |

-किरण सिंह




  दिल्ली का इतिहास इतना सघन है , इतना भिन्न है जैसे एक परत पर दूसरी परत , हिन्दू मुगल अंग्रेज़ सब अपनी छाप और संस्कृति छोड़ते गए , यहाँ निकलिए तो मॉन्यूमेंट्स सब तरफ , आंख बंद करें तो मुगल कालीन दिल्ली , अंग्रेजों की दिल्ली , हेमू की दिल्ली , क्या खूबसूरत गली कूचों के नाम , सराय काले खान , कोटला फ़िरोज़शाह, नेब सराय ....कुतुब के पास से निकलते हमेशा एहसास हुआ कि एक समय घोड़े की टापें गूंजती होगीं । तो ऐसे शहर की हवा में कुछ तो ऐसा हो जो मेरे लेखक को हवा पानी खुराक देता है |
सशक्त होती हूँ तभी लिख पाती हूँ , तमाम भय को दरकिनार करके। लिखना बाज़ादफ़ा खुद से गुफ़्तगू करना है , खुद का सामना करना होता है। आप शनै शनै अपने को और बेहतर समझने लगते हैं , सम्वेदना से भरने लगते हैं , अपने आप को शक्ति देते हैं।
अपने उपन्यास बारिशगर में उन औरतों की कहानी है जो जीवन के कठिन सफर में खुद को तलाशती कोमल और मजबूत साथ साथ होती हैं , मोहब्बत से भरपूर , जीवन से लबरेज़ |
शहर और समय , घर और भूगोल , इन्ही के गिर्द एक दुनिया धड़कती है , स्त्रियों की दुनिया जो इतनी कोमल हैं पर उतनी ही दिलेर भी |
-प्रत्यक्षा



 
बचपन किताबों से या यूँ कहें कहानियों से मेरा परिचय मेरे नाना ने करवाया ,पिता से साहित्यिक रूचि मिली ,पढना मेरे लिये सांस लेने जैसा था ,परंतु पढाई पूरी न कर सकी , पापा को अचानक हार्टअटैक हुआ ,और किताबों की जगह मेरे हाथ में गृहस्थी की डोर थमा दी गई ,नए घर में एकदम विपरीत माहौल , जहाँ उपन्यास और पत्रिका पढने का रिवाज़ ही न था , यहाँ तक कि पत्रिका पास में बरामद होने पर न जाने कितने व्यंग बाण झेलने पड़ते मुझे , अब इधर उधर से हाथ लगी या छुपा कर खरीदी किताबें मेरी आलमारी में तालाबंद रहती ,जिन्हें सब से छुपा कर पढते हुये मेरा दम
घुटता लेकिन उस समय विरोध करने की न उम्र थी न साहस ऐसे में मेरी कलम ही मेरे एकांत की साथी बनी ,पहरों बतियाती अपनी कलम से और डायरी के पन्ने काले होते जाते और वो डायरी भी कैद हो जाती आलमारी के लाकर में ,इन डायरियों में बंद थी कुछ अपनी अपनों की और अपने इर्दगिर्द की आवाज़े जो उनके गले में घुट के रह गई थी , उनकी बेचैनीयां बयान करती और फिर किसी दिन डर कर उन डायरियों का अग्निसंस्कार अपने ही हाथों कर देती ,कहीं कोई पढ़ न ले ,आखिर दबी घुटी आवाज़ एक दिन चीख बन कर निकलती ही है ,इन्ही पाबंदियों ने मुझे लिखने को प्रेरित किया , पर मेरी कलम कभी पक्षपाती नहीं रही संवेदना के स्तर पर स्त्री मन का दर्द स्त्री होने के नाते सहजता से खुद में महसूस करती हूँ तो समाज के दुसरे पहलुओं पर भी कुछ कहने का प्रयास करने भी करती हूँ , कुछ सत्य घटनायें जिसने मुझे झकझोर दिया वो पीड़ा वो दर्द और बेचारगी आज भी जब सोचती हूँ मेरा रोम रोम सिहर उठता है !मै लिखने का प्रयास करती हूँ इन सब पर ,शायेद मेरी कहानियों या लेखों का अंश मात्र भी  प्रभाव कही किसी पर पड़े तो मेरा लेखन सार्थक हो ,औरत होने के नाते दर्द को पीना और दर्द को जीना खुदबखुद मुझमे आ गया है ,इससे मन पढने और कुछ गढ़ने में आसानी होती है , पीड़ा और मन की छटपटाहट से घबरा कर हाथ कलम की ओर बढ़ते है ,अपनी अभिव्यक्ति को उकेर कर सुकून की सांस लेते है , जब अभिव्यक्ति की आज़ादी मिली तो कलम से अच्छा साथी कौन हो सकता है और अपनी इस साथी के माध्यम से मै यदि किसी के भावों को शब्दों में ढाल सकूं किसी की दबी कुचली आवाज़ को पन्नो पर उकेर कर समाज तक पहुंचा सकूँ तो मेरा सौभाग्य होगा ---
मै लिखती नहीं हूँ मै तो खुद से बातें करती हूँ कभी अपनी कभी अपनों की तो कभी अपने आसपास के लोगों की। अग्निगर्भा की प्रेणना भी मेरे इर्दगिर्द ही घूम रही थी जिसे शब्दों में ढाल कर आप सबके सामने रखा ,एक बात और कहना चाहूंगी आज हम स्त्रियों को कहीं गुहार लगाने की जरूरत नहीं ,स्त्री शक्ति यदि एक हो कर एक दूसरे का संबल बने तो कोई खतरा ही नहीं हमारे अस्तित्व को शिशुओं को जन्म देना उन्हें पाल पोसकर बड़ा करना,यह सौभाग्य स्त्री को मिला है । बस जरूरत है उसे स्वयं को पहचानने की ,अपनी माँ की एक बात मुझे हमेशा याद रहती है जो उन्होंने अपनी चौदह ,पन्द्रह साल की बेटी की विदा के समय भरे गले से उसके कान में कहा था बेटा तुम सबका सम्मान करना पर अपने सम्मान से कभी समझौता नहीं करना , ये बात एक माँ ने नहीं एक स्त्री ने दूसरी नासमझ स्त्री को समझाई थी और उसने पल्लू में गाँठ बाँध ली अपनी माँ की यह बात , और सबसे कहती भी है . स्त्री जन्मदात्री है सृष्टि का सृजन करती है वह पूरे मनोयोग से संतान का पालन पोषण कर एक स्वस्थ समाज का निर्माण करती है - जो सम्पूर्ण सृष्टि की जननी हो वह कमजोर कहाँ बस --
हम स्त्रियों को खुद बनाना है अपना बाँध एकजुट हो कर ,
सहेजना है एकदूसरे का सम्मान -
तभी तो स्त्री की उर्जा से जगमगायेगा पूरा समाज -
बस तनिक एकजुट हो जाओ ---
अपना सम्मान करना सीख लो
--------दिव्या शुक्ला ---



  कन्या होना और वह भी दूसरी कन्या का घर में पैदा होने का मतलब होता है,माँ का जीवन तानों से बिंध जाना |मुझे याद आता है माँ का प्रसव पीड़ा से पीला पड़ा चेहरा और मेरे सहमें हुए चेहरे पर ख़ुद को लड़की के रूप में पहचानने पर रंग का साँवला पड़ जाना | कानों को अब भी सुनाई देता है रिश्तेदारों द्वारा बोला गया,पिघलते शीशे सा स्वर "दूसरी लड़की हुई है रिक्शा वापस ले लो"....इन सच्चाइयों से रूबरू होती हुई जब हाथ में कलम आई तो सबसे पहला शब्द लिखा था "दूसरी" दूसरी मतलब ही होता है पहला न होना...दूसरी मतलब ही होता है आप हमेशा प्राथमिकता

में दूसरे नम्बर पर होंगे| यहीं से शुरू हुआ प्रथम बनने की चाह..खुद को स्थापित करने साबित करने की चाह..मन के नन्हें कोने में शब्द लताएँ फैलने लगी|चुपके से सबकी नज़र बचा कर एक कहानी आकाशवाणी को भेज दी|वहाँ से स्वीकृति भी आ गयी| प्रसारण की तिथि नज़दीक आ रही थी और मैं घर में डर के कारण किसी को बता नहीं पाई.सुबह से ही मेरा नाम प्रसारित हो रहा था लेकिन मैं हिम्मत नहीं जुटा पाई| इस तरह पहली रचना मेरे झिझक की भेंट चढ़ गयी| कुछ दिन बाद घर में जब पापा को पता चला तब उन्होंने हौसला दिया|उसके बाद लिखना शुरू तो हो गया पुरस्कार स्वरूप पति भी उसी माध्यम से मिले लेकिन फिर लेखन घर के कामकाज,बच्चों की परवरिश के नीचे कहीं दब गया |
जीवन के उस मोड़ पर जब ज़िम्मेदारियों ने अपनी रूचि के लिए थोड़ी गुंजाइश छोड़ी तब फिर से लेखन की तरफ झुक गयी|अनुभवों का एक संसार तैयार हुआ जो कुछ पत्र पत्रिकाओं में छपा और फिर कविता संग्रह का रूप दे दिया |
साहित्य के संसार में अभी अपना अस्तित्व बूंद के बराबर भी नहीं है लेकिन इसका कोई अफ़सोस नहीं है क्यूंकि मेरा लेखन कहीं पहुँचने के लिए नहीं है| मैं स्वयं की संतुष्टि के लिए ही लिखती हूँ |

- निरुपमा सिंह


  बचपन जिस परिवेश में बीता, वहाँ पढ़ने लिखने की मनाही नहीं थी। मुझे याद है जब पापा ने मुझे दो बाल कथा संग्रह ला कर दिया था और कहा था, "इसमें बहुत अच्छी कहानियां है, पढ़ो ।"
शायद पढ़ने की ललक वहीं से बढ़ी थी। लिखने का बीज भी जाने-अनजाने पापा ने ही मेरे मन के धरातल में कहीं ना कहीं उसी समय बो दिया था। मैंने पढ़ना शुरू किया, वह दोनों किताबें पढ़ी । उसमें ढेर सारी बच्चों की कहानियां थीं। उनमें से कुछ कहानियां तो मुझे आज भी याद हैं । उसके बाद प्रेमचंद, धर्मवीरभारती, प्रेम बाजपेई, रानो और गुलशन नंदा को खूब पढ़ा। पापा का साथ बहुत जल्दी छूट गया और जल्दी ही छोटी उम्र में विवाह भी हो गया। विवाह के बाद मेरे सामने एक नई दुनिया थी, जहां पितृसत्ता की मजबूत बेड़ियाँ थीं।  कई बार ऐसा हुआ कि मन की बातें मैंने कागज पर उतारी और सब से छुपा कर रखा, फिर कुछ दिनों बाद खुद ही फाड़ कर फेंक भी दिया। ऐसा कई बार हुआ |  बच्चों के जन्म के बाद धीरे- धीरे व्यस्तता बढ़ती गई और सारी ऊर्जा बच्चों के लालन-पालन और घर-गृहस्थी में खर्च होने लगी। एक लंबे अंतराल के बाद जब एफबी पर अकाउंट बनाया और दोबारा लिखना शुरू किया और मित्रों की प्रशंसा

मिली, उससे हौसला बढ़ा और मेरे अंतर में दबा लेखन का बीज फ़िर अंकुरित हो गया। पर मेरे लिए सब कुछ इतना आसान नहीं था।
जब तक स्त्री घर-परिवार के लिए अपना जीवन खर्चती रहती है..तब तक तो सब ठीक रहता है..जैसे ही वह अपने बारे में अपनी खुशी से कुछ करने की सोचती है..भूचाल आ जाता है..सैकड़ों प्रश्न खड़े कर दिए जाते हैं..मेरे साथ भी ऐसा हुआ.. न जाने कितने बंधन और व्यवधान सामने आए..परन्तु इन सब से जूझते हुए मेरा लेखन आगे बढ़ता रहा ।
अनेक लेख, कवितायेँ, लघु कथाएं अखबारों, पत्रिकाओं में छपती रहीं |  2015 में मेरी लम्बी कहानी 'घुरिया' लमही में छपी..उसके बाद बहुत सारी साहित्यिक पत्रिकाओं में कहानियाँ प्रकाशित हुईं | उन सभी  कहानियों का   संग्रह "घुरिया" पिछले दिनों पुस्तक मेले में प्रकाशित हुआ |
कुल मिलाकर कोई भी क्षेत्र हो स्त्री को खुद ही अपना रास्ता बनाना होता है..हालांकि समय बहुत बदल रहा है फिर भी स्त्रियों के लिए घर हो या बाहर उन्हें पितृसत्ता के विरुद्ध कुछ करने की पूर्णरूप से आजादी नहीं है..पर वह कर रही हैं..घर और बाहर दोनों जगह अपनी छाप छोड़ रही हैं..लेखन हो या कोई और क्षेत्र..हर जगह वह अपनी उपस्थिति दर्ज़ करवा रहीं हैं। 

- मीना पाठक



प्रस्तुति; शोभा मिश्रा 


Friday, March 08, 2019

स्त्री मुक्ति के नए आयाम -अनामिका




"अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका जी का पठनीय लेख !"



स्त्री मुक्ति के नए आयाम
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स्त्री-मुक्ति के नए आयामों पर बात करते हुए मुझे सबसे पहले याद आती है मीरा की प्रेम बेल-'अंसुअन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गई, आनंद फल होई"।

यह बेल जो फैली है कंटीली चाहरदीवारियों के पार, उसे मैं स्त्री-विमर्श की
प्रेम-बेल की तरह पढ़ना चाहूंगी। स्त्री विमर्श की यह प्रेम-बेल न सिर्फ मध्य
एशियाई, दक्षिण एशियाई, लातिन अमेरिकी, अफ्रीकी खेतों तक फैली है, बल्कि पारिवारिकता, यौनिकता, श्रम, संसाधन -वितरण, विस्थापन, युद्ध, आतंक,नव-उपनिवेशन, धर्मेत्तर  पर गंभीर, विश्लेषणात्मक और  समाधान  मूलक समवेत चिंतन के कई नए शक्तिपीठ इसमें कायम किए हैं। प्रेम-बेल यह इस तरह से है कि इसने हमेशा सबको छांह देने की सोची। कभी अपने 'स्व" का घेरा सीमित नहीं रखा, खासकर पिछली सदी ने सातवें दशक के बाद से जब रैडिकल स्त्रीवादी अश्वेत आंदोलन से जुड़ीं। उसके पहले के वर्षों में भी अब यह उपनिवेशवादी पश्चिम की समृद्ध महिलाओं का अधिकार -सजग आंदोलन था-इसके दोनों संकाय-लिबरल संकाय और मार्क्सवादी संकाय अपने समय में वृहत्तर प्रश्नों से लगातार जुड़े रहे। युद्ध और वर्ग-उन्मूलन के प्रश्न से! भारत तक आते-आते वर्ग-उन्मूलन का प्रश्न जादि, उन्मूलन के वृहत्तर पक्ष से जुड़ा। खासकर उन स्त्रियों ने यहां जो स्वाधीनता आंदोलन से जुड़ी थीं! ध्यान से उस समय का स्त्री लेखन पढ़ने बैठें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि स्वतंत्र देश की कल्पना एक खुशदिल संयुक्त परिवार के रूप में उन्होंने की थी जहां दिल से दिल तक राह जाती
है और ज्यादातर विवाद आपसी बातचीत से सुलझा लिए जाते हैं- कम से कम अपने यूटोपियाई स्वरूप में।
नवें दशक के बाद जब अचानक सभी भाषाओं में स्त्री-लेखन और स्त्री चिंतन का सैलाब-सा उमड़ा या कहिए स्त्री आंदोलन परवान चढ़ा, ज्यादातर देशों में लोग घबरा से गए। स्वाभाविक थी यह घबराहट। आज जिस कुर्सी पर हम धम्म से बैठ जाते हैं या जिसको जब चाहे लात से, हाथ से इधर - उधर धकिया देते हैं, कल वह कुर्सी उठकर हमसे कहे कि भाई मेरा पंखुड़ा उखड़ गया है, प्लीज ऐसे न पेश आओ तो हम भी घबरा जाएंगे। पूरे स्त्री-विमर्श का सार आखिर तो एक पंक्ति में यही बनेगा कि स्त्री-पुरुष में भेड़-भेड़िया, शिकार-शिकारी वाला रिश्ता न रहे-दोस्ताना रिश्ता हो! दोनों की मानवीय गरिमा की रक्षा हो-संसाधन  और अवसर दोनों को बराबर मिलें, स्त्री को ही, मानव मात्र को!
नया स्त्रीवाद यह मानता है कि हर वर्ग, हर वर्ण, हर नस्ल, हर सम्प्रदाय की
स्त्रियों की अपनी विशिष्ट समस्याएं भी हैं, पर कुछ दुख हैं जो अमीर-गरीब,
गोरी-काली, हिन्दू-मुस्लिम, दलित-गैरदलित, शहराती-देाहाती-सब स्त्रियों का साझा हैं! सब तरह की स्त्रियों की देह उनके बहुविध  शोषण की साइज लंबी है स्त्री देह से जुड़े अपराधों  की फेहरिस्त-भावहीन, यांत्रिक संभोग और बलात्कार, भ्रूणहत्या और साफ-सुथरे प्रसव की व्यवस्था का अभाव, पोर्नोग्राफी, एड्समीत देशों में बच्चियों का निर्यात, मार-पीट, या कमोडिफिकेशन, गाली-गलौज, दहेज-दहन, डायन-दहन, सती, वैश्यावृत्ति देह से जुड़े ये दुख और फिर एक और साझा दुख ये कि किए-दिए, लिखे-पढ़े को, उनकी घोर मेहनत के उत्पादों को लगातार खारिज किए जाना या
उसको कमतर करके आंकना सिर्फ इसलिए कि इसका शिल्प अलग है और भाषा भी! जो 'मेरा" या 'मेरे जैसा" नहीं, वह घृणा और हिकारत के लायक है-यह धारणा फासीवाद  का चरम है!
पहले स्त्रियां तन-मन से सेवा करती थीं अपने पूरे घर की, अब की स्त्रियां
तन-मन-धन से घर-बाहर दोनों संवारती हैं। पितृसत्ता से भी स्त्री मुक्ति प्रजातांत्रिक संवाद ही चाहती है, कोई सिरफुडौवल नहीं चाहती! सहज मानवीय विवेक से वह यह समझती है कि प्रतिशोध् किसी भी समस्या का समाधान  एक दमन चक्र का जवाब दूसरा दमनचक्र होता रहा तब तो सभ्यता बैक गियर में चलती-चलती सीधी पाषाण-युग तक पहुंच जाएगी।
स्त्री-आंदोलन दुनिया का एकमात्र आंदोलन है 'इंग्लैंड के ग्लोरियस आंदोलन" के सिवाय जिसने कभी एक बूंद खून नहीं बहाया, पूर्णत: अहिंसात्मक रही, साम-दाम के बाद दण्ड भी आजमाया और दण्ड स्वरूप भी डंडे नहीं भांजे!
पुरुष का मानसिक-आत्मिक-भाषिक परिष्कार ही इसका मुख्य प्रयोजन है और इस दिशा में इसने जो संघर्ष किए हैं-मनोवैज्ञानिक युद्ध के रूप में ही। और अभी भी आस नहीं तोड़ी कि कुल मिलाकर विमर्श जो कहता है, उसका सारांश यह कि नई स्त्री वह है जो प्यार करती है, प्रतिबद्ध रहती है, जिम्मेदारियां उठाती है और सबको मिलाकर चलती है। स्त्री-पुरुष, नाचना-गाना, खाना-पीना, पहनना-ओढ़ना-सबसे प्रेम करती है।
संघर्ष से प्रेम करती है, पशुओं से, पेड़ से, पहाड़ से, दुश्मन से और प्रेम करती है खुद से भी। तब ही तो वह चाहती है कि लज्जा, धीरज, सहिष्णुता, ममता, त्याग आदि सब सद्गुण सिर्फ स्त्री-धन  न रहें, दूसरे संसाधनों की तरह वे भी बराबर बंटें। बेचारे पुरुषों की भी झोली भर जाए सब सद्गुणों से और घृणा की राजनीति से वे बाज आएं।

-अनामिका 

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