Wednesday, September 17, 2014

वर्चस्व की राजनीति और हाशिये की परम्परा - हेमा दीक्षित

हेमा दीक्षित

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कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. हाल ही में ‘कथादेश’ के जनवरी २०१३ के अंक में और ‘समकालीन सरोकार’ अगस्त-अक्टूबर २०१३ में 'जनसंदेश' टाइम्स में कवितायें प्रकाशित. २०१४ में 'उम्मीद' में एक लम्बी कविता एवं 'यात्रा' में कवितायें प्रकाशित बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित स्त्री विषयक कविताओं के संग्रह स्त्री हो कर सवाल करती है में भी कविताओं का प्रकाशन. विधिनय प्रकाशन, कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’ एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. जनसंदेश टाइम्स, नव्या ई पत्रिका, खरी न्यूज ई पत्रिका, अनुनाद, पहली बार ब्लॉग, आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल ब्लॉग, कुछ मेरी नज़र से ब्लॉग एवं’फर्गुदिया’ ब्लॉग, शब्दांकन ब्लॉग पर कवितायें प्रकाशित .






वर्चस्व की राजनीति और हाशिये की परम्परा
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औरतें धार्मिक स्थलों की सर्वेसर्वा के रूप में इतनी कम और यदा-कदा ही क्यों दिखाई देती है ... ??


सवालों के लिए उनके हलों की उत्कंठा ही हमें दौड़ाती है आखिर इस सवाल की उत्पत्ति के कारक कहाँ है ... आखिर धार्मिक स्थल है क्या ... और क्यों इतना महत्वपूर्ण है उनका सर्वेसर्वा होना ... उनके सर्वेसर्वा होने के मायने और हासिल क्या है ... और वो आखिर करते क्या है ...


धार्मिक स्थल आखिर है क्या ...

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बेहद मोटे तौर पर कहने की कोशिश करने पर कहा जा सकता है कि समस्त जीवित मृत प्राणियों के ऊपर भी एक सर्वशक्तिमान सत्ता की परिकल्पना अथवा एक सर्वोच्च शक्ति की ऐसी अवधारणा को, जिससे ऊपर इस सृष्टि में कुछ भी नहीं है एक धूल का कण भी नहीं, जो परम सत्ता है जो अपनी विद्यमानता में सार्वभौम है सम्पूर्ण सृष्टि का नियंत्रण जिसमें निहित है ... उसे भिन्न-भिन्न नाम रूपों में गढ़ा गया ...

इस स्थूल प्राणहीन गढ़न को अपने फलने-फूलने और संचालन हेतु मानवीय शक्ति की सहायता से ही संचालित होना था आखिर यह ईश्वरीय संकल्पना उनके ही भयों एवं निराकरणों को दृष्टिगत रखते हुए की गई उपज जो थी ...

उस संकल्पना के इर्द-गिर्द रची-गढ़ी गई प्रक्रियाओं एवं व्यवस्था को सतत रूप से चलाने और स्थायित्व प्रदान करने वाली कार्यप्रणाली को ही कालांतर में धर्म कहा गया और उनके संचालित होने के स्थलों को धार्मिक स्थल ...

सारे तर्कों से परे जो सर्वशक्तिमान जनक और संहारक होगा अविवादित रूप से उसके पास ही सारे सर्वोच्च वर्चस्व निहित एवं केंद्रीभूत होने थे और हुए ...

धार्मिक स्थल क्यों महत्वपूर्ण हैं और वह क्या करते है ...

किसी भी विस्तार में न जाते हुए अपनी बात अपने शब्दों में कही जाए तो “धर्म और ईश्वर का प्रतिनिधि होना इस दुनियाँ के किसी भी कोने में सबसे बड़े वर्चस्व का स्वामी होना है “...

धार्मिक स्थल सदैव से ही अपने मूल उद्गम से ही शक्ति, सत्ता, सम्पदा एवं सर्वोच्च वर्चस्व का एकीकृत केंद्र रहे है | बड़ी से बड़ी मानवीय ताकतें भी धर्म एवं ईश्वर के समक्ष नतमस्तक होती है |

मुद्दे का सवाल है कि ऐसा वर्चस्व क्या खायेगा जो उसकी क्षुधापूर्ति के साथ-साथ, उसके स्वामित्व की संतुष्टि के नीचे पददलित होने के लिए एक वृहद् दुनियाँ सतत निर्मित रख सके |

जवाब की खोज मुझे कमजोर एवं निरीह इयत्ताओं की एक बेहद बिखरी एवं विक्षिप्त दुनियाँ के विस्तार में ले जाती है |

किसी भी स्वामित्व के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न अपने अस्तित्व की सतत रक्षा का होता है | कोई भी छोटी बड़ी सत्ता सिर्फ तभी तक अस्तित्वमयी होती है जब तक उसके पास कमजोरों की मौजूदगी बनी रहे | सत्ता के स्वामित्व हेतु सबसे अहम् कार्य होता है अपने को शक्तिवान बनाए रखना |

शक्ति सिर्फ और सिर्फ अन्यों की उपस्थितियों पर शासन नियंत्रण एवं उसके अबाध व्यवस्थापन द्वारा ही प्राप्त होती है | इसके लिए सत्ताएं अपने लिए एक विशेष प्रकार का चरित्र गढ़ती है ... और वह है ऐसे उपायों की सतत खोज की योग्यता जिसके द्वारा लोगों को तोडा जा सके कमजोर किया जा सके |संक्षेप में ऐसे अस्त्रों का निर्माण जिनसे एक व्यक्ति की सबसे बड़ी ताकत उसके सोचने-समझने की क्षमता को कुंद किया जा सके |

सत्ताओं को हांकी जा सकने भीड़ का निर्माण करना होता है | सत्ताएँ लोगो की रीढ़ को तोड़ती है | स्वयं हर तरह की शक्ति और सम्पदा हासिल करती है | सत्ताएँ येन-केन-प्रकारेण लोगों को शारीरिक,मानसिक एवं सामजिक दासत्व के चक्र में एक अदद उपनिवेश में परिवर्तित कर उनका दोहन करती हैं | अपने वर्चस्व का राज-पाट चलाती है |

स्त्रियाँ अर्थात आधी दुनियाँ अनादि काल से इस जगत की सबसे बड़ी मूक कामगार शक्ति है | स्त्रियाँ समाज एवं सृष्टि चक्र की रीढ़ है |


आधी दुनियाँ का अर्थ क्या है ...

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आधी दुनियाँ शब्द मेरे लिए एक ऐसी शक्तिशाली मध्यमान रेखा है जो बाकी आधी दुनियाँ से हर मायने में सम पर हो उत्पत्ति,वृद्धि,क्षमता एवं योगदान सभी क्षेत्रों में ...
स्वामित्व की कामना रखने वाली सत्ता इच्छाएं ऐसी वृहद् शक्ति की उपस्थिति को स्वतंत्र,शक्तिमयी, अस्तित्वमयी एवं रचनाधर्मी कैसे छोड़ सकती थी /है |
जो भी स्वतंत्र है ,शक्तिमय है ,अस्तित्वमय एवं रचनाधर्मी है उसकी अपनी निजी सत्ता होगी |
वह सहभागी धर्म में तो जी सकता है परन्तु सर झुकाए पीठ के पीछे हाथ बांधे दासत्व में कदापि नहीं जियेगा | उसकी ग्रीवा सधी और तनी होगी | वह उठी हुई तर्जनी का जवाब उठी हुई तर्जनी से ही आँखों में आँखें डाल कर ही देगा |
घुटनों के बल रेंग कर सत्ताओं के कोड़े खाने को स्वतंत्र अस्तित्व कभी भी किसी भी परिस्थिति में स्वीकार नहीं करेंगे |
सत्ताओं ने तय किया कि स्वतंत्र अस्तित्व की अवधारणा को ही स्त्रियों के लिए सिरे से कुचल दो | एक स्त्री को स्त्री ही न रहने दो बाकी वह जो कुछ भी कहलाएगी हम बताएँगे | उसके होने की परिधियाँ हम तय करेंगे |
सत्ताएं स्वामी हुई | पुरुष रूप हुई | बाक़ी आधी दुनियाँ उनके दासत्व की प्रजा रूप | इस प्रजा को अलग-अलग नाम-रूपों में बेहद षडयंत्रकारी तौर पर दिखावटी स्वरूपों में महिमामंडित किया गया | बेटी, बहन, माँ, पत्नी, प्रेयसी, कुलवधू, नगरवधू इत्यादि-इत्यादि | खाकें और साँचें तमाम उद्देश्य एक कि इन सभी खाकों का कोई न कोई स्वामी होगा | यह स्वतंत्र स्वस्वामित्व में नहीं जियेंगी | स्त्रियों की स्वतंत्र सत्ता में कोई भी अधिकार नहीं छोड़े गए | मातृत्व का नैसर्गिक अधिकार तक भी नहीं | जो दिखावटी तौर पर छोड़े भी गए उन तक स्त्रियों की पहुँच के रास्ते और दृष्टि बाधित कर दी गई | जन्म से मृत्यु तक उन पर सिर्फ और सिर्फ किरदारों और कर्तव्यों के अंधत्व लाद दिए गए | कोल्हू के आँखों पर पट्टी बंधे बैल की तरह किरदार और दायित्व जीवन-मरण प्रश्न बना कर बांधे गए | सत्ताओं के कोल्हू ने अपने वर्चस्व की भूख में किसी और को नहीं स्त्रियों को पेरा और अपने लिए परम स्वतंत्रता और संतुष्टियाँ हासिल की |
वंचितों के वर्गों का बने रहना ही सत्ताओं के हाड-माँस एव रक्त-मज्जा को पुष्ट एवं पोषित करता है |
स्त्रियों से भूख, प्यास, सोना, जागना, प्रेम, साथी, नित्यक्रिया आदि जैसे मामूली से मामूली और नैसर्गिक हकूक भी बड़े सलीके और अहद से तमाम नियमों एवं आवरणों के तहत छीन लिए गए | शिक्षा, संपत्ति, स्वतंत्रता, समानता, एवं धर्म तो बहुत ही बड़ी चीज़े थी | ऐसी जिनके बल पर सत्ताएँ टिकती और मिटती है |
धर्म और उससे शासित समाज ने लज्जा और चरित्र (यौन-शुचिता) दो ऐसे रोग स्त्री के सम्पूर्ण जीवन पर आरोपित किये जिन्होंने स्त्री की रीढ़ तोड़ डाली | यह रोग इतने शक्तिशाली थे / है कि इन्होने स्त्री को हर स्तर पर तोड़-मरोड़ डाला |
इस हद तक कि स्त्रियाँ अपने जन्मगत कर्म मल-मूत्र त्याग को भी नियंत्रित करना सीखने हेतु बाध्य हुई | गाँव जवार में आज तक वह सुबह मुँह अँधेरे ही किसी छिपे कोने में सामूहिक मल-त्याग के लिए निकलती है | अपनी तथाकथित ‘इज्जत’ की सुरक्षा के लिए कई स्त्रियों के समूह में ही निकलती है | लम्बे समय तक मूत्र-त्याग न करने से अधिकाँश महिलायें तमाम रोगों की शिकार बनती है | सिर्फ गाँव-देहात ही क्यों आधुनिक शहरों में घरों से बाहर निकलने वाली काम-काजी स्त्रियाँ भी इस आरोपित लज्जाधर्म की अनचाहे अनजाने ही शिकार है |
इसी लज्जाधर्म के तहत एक छोटी बच्ची को उसके समस्त शारीरिक अंगों के नामों से परिचित कराया जाता है पर उसे योनि (vagina ) के लिए कोई शब्द ही नहीं दिया जाता है उस अंगविशेष के प्रति उसके चैतन्य होते ही बस लज्जा बोध दे दिए जाते है बहुत खोजने पर भी मुझे कोई शब्द योनि के लिए नहीं मिलता है | उसके विपरीत पुरुषों के लिंग के लिए तमाम शब्द है जो छुटपन से ही प्रयुक्त होते सुने गए है और आम भाषा एवं जीवन के चलन में है |(यहाँ भाषा में मौजूद अश्लील भाषायी शब्दों को विचार में नहीं लिया गया है ) एक जैविक संरचना का अस्तित्वमूलक शब्द ही भाषा एवं चलन की याददाश्त में लिखा ही नहीं गया ... आखिर क्यों ...
एक बच्ची की योनि भी ढँक कर रखो उसका दिख जाना समस्त स्त्रीजाति के लिए लज्जा का विषय हो जाता है आस-पास उपस्थित स्त्री समूह अपने को नग्न महसूस करने लग जाते है और कपडा ले कर दौड़ पड़ते है ढंकने-मूंदने को ...
योनि क्यों इतनी लज्जास्पद बना दी गई ... उत्तर एक है ... सिर्फ अस्तित्त्व के नकारात्मक बोध के साथ एक जीवन की वृद्धि को प्रारंभ से ही निस्तेज कर डालने के लिए ...
योनि के लिए कोई शब्द नहीं सिर्फ एक नकारात्मक भाव बोध और वह है असुरक्षा ...
उसका अर्थ है सतत लूटी जा सकने वाली किसी चीज़ की मौजूदगी ...
एक ऐसी कीमती बोझ ‘वस्तु’ जिससे कोई छुटकारा इस जीवन में संभव ही नहीं है | जिसका संरक्षण और छिपाव ही सबसे बड़ा स्त्री धर्म है |
लज्जाधर्म और यौन शुचिता की सिल को अपनी छाती पर दुपट्टा और आँचल बना कर टाँगे स्त्रियाँ अनजाने ही जन्मांध सी , शासकों द्वारा बेहद बारीक महीन पीसा और लहू में घोला गया शोषण धर्म, ख़ुशी-ख़ुशी मुस्कुराते हुए खा-पी और ढो रही है |
उनकी मुक्ति और सत्तावान होने की स्वप्नित अवधारणा एक ऐसे विद्रोह का बबूल है जो अनादिकाल से चली आ रही पितृसत्ता को क्षत-विक्षत कर देगा | शोषण धर्म को चिंदी-चिंदी कर फूंक देगा |
धार्मिक स्थलों की सत्ता से वंचित रखने के लिए सत्ताओं ने माहवारी होने के कारण स्त्री की अपवित्रता के कुचक्र का ऐसा मकड़-जाल बुना जिसमें वह स्त्री के होने के प्राथमिक एवं मूलभूत पायदान को ही खा चबा जाता है | अपने अस्तित्व को दिए गए इस अपवित्रता मूलक धक्के से स्त्री आजीवन नहीं उबर पाती है |
किसी स्त्री का रजस्वला होना सृष्टि का,जीवनचक्र का सबसे बड़ा उत्सव है | उत्सव उसके होने का, उसके सृष्टा होने का , सृष्टा अर्थात ईश्वर के समकक्ष होने का , उसके स्वतंत्र अस्तित्व होने का | सत्ताएं ठीक इसी जगह , इसी बिंदु , इसी चरण पर उसके हाथ-पाँव ,सोच-समझ बाँध देती है , बाधित कर देती है |
यह पवित्रता और अपवित्रता के मध्य खेला जाने वाला ऐसा दुष्चक्र है जिसमें स्त्री एक लतगौंजी-हथगौंजी गेंद के सिवाय कुछ नहीं है | इस खेल को खेलने वाले उसे हर स्तर पर कमजोर कर देते है तोड़ देते है | शारीरिक शुचिता इतनी बड़ी जिम्मेदारी और भय बना दी जाती है ठीक इसी उत्सवधर्मी मोड़ पर कि वह आजीवन इस जिम्मेदारी और भय के साये से बाहर नहीं आ पाती है | जाने-अनजाने अभिशप्त है स्वयं इसका हिस्सा बने रहने को और इस दुष्चक्र के सतत प्रवाहमान बने रहने के लिए अपनी संततियों को भी इसमें झोंकने के लिए |
यदि स्त्रियाँ इस दुष्चक्र इस होमयज्ञ से बाहर निकल आएँगी इस लज्जाधर्म से बाहर निकल आएँगी और धार्मिक सत्ताएं हासिल करेंगी तो वह वर्चस्व के सबसे प्रधान मुकाम पर बैठेगी | पितृसत्ता के ठाठ, मक्कारी, अय्याशी और अकड़ के बेहद फूले उड़ते हुए गुब्बारे की हवा को निकाल कर उसे जमीन पर पटक देंगी | वह धर्म की आड़ में चलते इस दुष्चक्र के समस्त खोखलेपन को जान लेंगी |
यही हो भी रहा है पढ़ी-लिखी जागरूक स्त्रियाँ, प्रश्न करती, तर्जनी उठाती, आँख मिलाती स्त्रियाँ सत्ता वर्ग की तिलमिलाहट का बायस है |
अब तक शासक वर्ग के रूप में चली आ रही पितृसत्ता को उकडूँ बैठने की मुद्रा में होने का स्वप्न भी गंवारा नहीं है | यह एक अलग बात है कि स्त्रियों के स्वभाव में दमन और प्रतिशोध के बीज नहीं बोये गए है | वह एक साथ खड़ी होना और मुस्कुराना चाहती है | स्वतंत्रता और समानता से प्रेम करना चाहती है, सोना-जागना, हगना-मूतना चाहती है , खुल कर कर मुक्त कंठ से हँसना चाहती है | एक इंसान की तरह से चुनने और होने की आजादी चाहती है | एक व्यक्ति होने के चयन की आज़ादी जिसमे उसके गलतियाँ करने और चूक जाने का और उन्हें सुधारने का अधिकार मूलभूत रूप से सम्मिलित है |
पितृसत्ताएं स्त्री की अस्मिता में एक ऐसी आततायी घुसपैंठ है जो उनकी साँसों पर चौबीसों घंटे पाँव धरे ही रहती है |
इन चौबीस घंटे सोते-जागते, मरते-जीते, चलने वाले दबावों ने स्त्रियों के जीवन को नरक के गर्त में झोंक रखा है | वह घायल है पर घाव देख पाने की सामर्थ्य से हीन है यदि सामर्थ्य पा भी लेती है अपने को देख भी लेती है तो उन्हें मरहम लगाने एवं बंद दरवाजे खोलने की सतत् जंग में अपने को होम करना पड़ता है | सतत् विरोध, पथभ्रष्ट और बागी होने के आहारों का अनवरत विषपान करना पड़ता है |
योनि-चरित्र उन्हें सब कुछ दिखता है सिवाय उनके स्वयं के |
स्त्रियाँ, स्त्रियाँ नहीं रह जाती है बागियों में परावर्तित कर दी जाती है और सत्ताएं बागियों का रूपांतरण सब कुछ विध्वंश और विनाश के गर्त में ले जाने वाली भयावह आग उगलती तोपों के रूप में कर देती
है |
सत्ताओं की इस नृसंश, बेहद क्रूर वर्चस्ववादी दुनियाँ में बहुतेरी खाप सल्तनतें है और खाप सल्तनतों की

सबसे बड़ी तौहीन है उनकी ‘प्रजा’ अर्थात स्त्रियों के मुँह में जबान होना |
असहिष्णु सत्ताएं मुँह में जबान रखने वाली, विरोध में तिलमिला उठने वाली, आँख में आँख डाल कर सीधी खड़ी और चुप रहो, अपनी औकात मत भूलों सुनने पर कदापि पीछे न हटने वाली स्त्रियों के झोंटे उखाड़ डालना चाहती है |


उन्हें शारीरिक, मानसिक और सामाजिक पटल पर बड़ी सिद्धहस्तता से अनवरत चलते रहने वाले सार्वजनिक बलात्कार का शिकार बनाया जाता है |
ऐसी शक्तियों से कुछ भी पाने के लिए इन दुष्चक्रों को समझना और इनके पालित दृढ संस्कारों को काट कर फेंकना होगा तभी वर्चस्व के इस चक्र में कोई पैठ संभव होगी |

अपने जीवन को इस अतार्किक जेलर समाज और इस देह धरे की जेल में जबरन कैद किये जाने के निराधार दंड से मुक्त करने के लिए स्त्री को चौतरफा श्रम और जद्दोजहद करनी होगी |
इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर अपने ऐसे सार्वजनिक बलात्कार के लिए अपनी पूर्ण क्षमता से सामर्थ्यवान होना पड़ेगा |
यौन-शुचिता एवं लज्जाधर्म की अर्थी को कंधा देने के लिए इनके प्रमाणपत्र बांटने वालों के साथ अपनी ऊर्जा बिना गवाएं अपनी राह स्वयं निर्मित करनी होगी |

----- हेमा दीक्षित -----

लेखिका, कवयित्री

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साभार उत्पल पत्रिका

Sunday, September 14, 2014

हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी - स्वाती ठाकुर

हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी -  स्वाती ठाकुर 


14 सितंबर को हम देश भर में प्रतिवर्ष हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं
एक तरह का उत्सव का सा माहौल सभी सरकारी संस्थाओं में दिखाई देता है। इस दौरान कभी एक हफ्तेकहीं एक पखवाड़े या फिर एक महीने तक ये उत्सव चलता रहता है। इस दौरान हिंदी को लगभग पूजा-अर्चना या फिर एक तरह की श्रद्धा के भाव से देखा जाता है। इस तरह की उत्सवधर्मिता का विरोध इस आलेख का उद्देश्य कतई नहीं है। पर इन सबके पीछे वस्तुस्थिति को यथार्थपरक रूप से समझना अधिक उपयुक्त होगा। उत्सव मना लेने से कर्तव्यों की इतिश्री नहीं हो जाती। साथ ही यह भी कि भाषा का विकास इन उत्सवों का मोहताज़ नहीं। किसी भाषा के लिए एक दिन मुकर्रर कर देने से कुछ नहीं होने वालाहर दिन व्यवहार के स्तर पर भाषा के प्रयोग में ही उसका सम्मान हैउसका विकास है। इस तरह के उत्सव भाषा की वास्तविक स्थिति दिखाते हैंजिस दिन हमें याद करना पड़ता है अपनी भाषा की उस समृद्ध परंपरा कोजो आज खोती जा रही है। इस दिन हम अमूमन अपनी भाषा के प्रति अपने कर्तव्यों को याद करतेकराते हैं। पर भाषा के प्रति अपना दायित्व हमारे ज़ेहन में हमेशा होना चाहिए। किसी भी भाषा का विकास अतीतजीवी होकर परंपरा के गौरवगान कर देने भर से संभव नहीं है और न एक दिन विशेष को हिंदी की वस्तुस्थिति पर चिंता ज़ाहिर कर के। समस्याओं पर चिंता ज़रूरी हैयह चिंता पहला कदम है किंतु उनके निवारण की दिशा में किए जाने वाले निरंतर प्रयास ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसे हम उत्सव समापन कर भुला देते हैं। और इस तरह से हम अपनी भाषाओं का दिवसपखवाड़ा और माह और अब तो शपथ समारोह मनाकर एक ऐसा संसार बना रहें हैंजो मुझे तो डरावना ही लग रहा है।
हिंदी राजभाषा के रूप में स्वीकृत हो चुकी है बावज़ूद इसके हिंदी अपने ही देश में सम्मानजनक स्थिति में नहीं है। यह सच है कि भारत विविधताओं वाला देश हैजिसके बारे में कहा भी गया है:
चार कोस पर पानी बदले
आठ कोस पर बानी

यहाँ कई भाषाएँ है। संविधान की आठवीं अनुसूची के ही अंतर्गत 22 भाषाओं को स्थान प्राप्त है। फिर सभी भाषाओं के तहत ढेर सारी बोलियाँ। पर हम सब यह भली भाँति जानते हैं कि हिंदी पर वरीयता या हिंदी की वर्तमान स्थिति की वजह भारत की अन्य भाषाएँ नहीं हैं वरन् उस अंग्रेज़ी भाषा को मिली है जो गैर भारतीय है और जिस भाषा के ज़रिए हम पर शासन किया गया था।
हिंदी के राजभाषा होने की वजह से एक तरह की संवैधानिक बाध्यता अवश्य दीखती हैसरकारी कार्यालयों व संस्थाओं मेंपर यदि हम थोड़ी तह में जाकर इसकी पड़ताल करेंतो पाएँगे कि अधिकांश कार्य मूलत: अंग्रेज़ी में हो रहा हैहिंदी में कार्य करने की बाध्यता यहाँ अनुवाद के माध्यम से पूरी की जा रही है।

विधा के साथ साथ विषय के रूप में विकसित होते अनुवाद की भूमिका निश्चय ही महत्वपूर्ण हैजो कि व्यक्ति के भाषाई ज्ञान की सीमा को ज्ञान की सीमा नहीं बनने देता और इस तरह से हमारी भाषा से इतर भाषा में व्यक्त ज्ञानसाहित्य तक हमारी पहुँच को संभव बनाता हैपर यह सोचने की बात तो ज़रूर है कि हमारे अपने देश में हमारी भारतीय भाषाएँ  अनुवाद की भाषा बन के रह गयी हैंसरकारी परीक्षाओं से लेकर सरकारी दफ्तरों तक में  हम अपनी भाषाओं को अनुवाद की भाषा बनते देख ही रहें हैंजहाँ यह साफ़ लिख दिया जाता हैकि किसी भी तरह की विसंगति होने पर अंग्रेज़ी मान्य होगी।
अभी हाल ही में आंदोलन का रूप ले चुके यूपीएससी के भाषा संबंधी विवाद को भी इस परिप्रेक्ष्य में समझे जाने की ज़रूरत है। यूपीएससी भारत की सर्वोच्च प्रशासनिक संस्था है। जिसमें जाने का ख्वाब लगभग हर तबके के लोग देखते हैं। एक छोटे तबके की होने के नाते मैं इतना तो कह सकती हूँ कि वहाँ इस सेवा का कुछ अधिक ही क्रेज़ हैजिसे लोग 'लाल बत्ती वाली गाड़ी' से जोड़ते हैं। ऐसे तबके जहाँ के लोगों का अंग्रेज़ी ज्ञान अपेक्षाकृत कमज़ोर हो सकता हैक्योंकि जिस परिवेश में वे रहे हैं और जिसमें उन्होंने शिक्षा पाई हैवहाँ न उन्हें व्यवहार में अंग्रेज़ियत मिली और न शिक्षा मेंइस वजह से वे बहुतों की नज़र में गँवई बने रहे और उस भद्रता से वंचित रहेजो तथाकथित अंग्रेज़ी शिक्षा और परिवेश से आती है। किसी एक भाषा की जानकारी न होना या उस भाषा में प्रवीणता प्राप्त न हो पाने का अभिप्राय किसी सेवा के लिए अपात्र हो जाना कतई नहीं होता खासकर तब तो बिलकुल नहीं जब वह भाषा उस देश की न हो। देश की शीर्षस्थ प्रशासनिक संस्था मानी जाने वाली यूपीएससी में यही हुआ। बहसों के उस दौर में बहुत सारे प्रबुद्ध पूर्व प्रशासनिक सेवकों ने स्पष्ट रूप से अपनी राय ज़ाहिर की जिसका अभिप्राय स्पष्ट रूप से अंग्रेज़ी को वरीयता देना था। भारत में भारत की ही भाषाओं के माध्यम से परीक्षा न दे पाना और यदि ऐसा हो भी पाता हैतो जाँच करने के लिए सिर्फ अंग्रेज़ी के मॉडल पेपरों का प्रयोग काफी दुखद है और यह कहीं न कहीं अवसरों की समानता को बाधित करता है।
किसी भी भाषा का कोई दोष नहीं होता है और न ही कोई भाषा ऊपर-नीचे हुआ करती है। ऐसी सोच जो भारत में बुरी तरह से व्याप्त हैउसके पीछे एक खास तरह की मानसिकता कार्य करती है। अपनी भाषा के प्रयोग को लेकर कुंठा या असम्मान का भाव स्वाभाविक कतई नहीं है। यह कहना कि हिंदी भाषा में रोज़गार के अवसर नहीं हैं या कि अंग्रेज़ी ऐसे कई अवसर प्रदान करता है कतई सही नहीं जान पड़ता। ये ज़रूरतें तैयार की गई हैं नहीं तो क्या वज़ह हो सकती है कि सरकारी संस्थाओं में लिपिकों के लिए ली जाने वाली परीक्षाओं में अंग्रेज़ी की ही जाँच की जाती है। जहाँ तक रोज़गार की संभावनाओं की बात है उसे हिंदी माध्यम में सृजित किया जा सकता है यदि व्यवस्था चाहे तो। पर समस्या यह है कि हिंदी पर अंग्रेज़ी को वरीयता देने की प्रवृत्ति भी वहीं से तैयार की गई है। और इसी प्रवृत्ति की वज़ह से हिंदी का न्यूनतम प्रयोग दीखता है और जो दीखता है वह भी या तो बनावटी या फिर ढेरों त्रुटियों से युक्त। अंग्रेज़ी बोलते या लिखते वक़्त हमारे यहाँ जो सचेतता दिखाई देती हैहिंदी के प्रयोग के प्रति उसका नितांत अभाव है।
कभी हिंदी के प्रख्यात कथाकार प्रेमचंद ने कहा था भाषिक गुलामी से मुक्त हुए बिना वास्तविक आज़ादी संभव नहीं है। इस लिहाज़ से हम आज़ादी के वास्तविक मायने तभी हासिल कर पाएँगे जब कि हम इस भाषिक गुलामी से आज़ाद न हो जाएँ।
भारत की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा जिसमें बड़ी बड़ी संस्थाओं में कार्यरत लोग भी शामिल हैंइस बात से अनभिज्ञ हैं कि हिन्दी भारत की राजभाषा है। एक अनुभव मेरा यह भी रहा है जब हिन्दी के प्रयोग सम्बन्धी मेरे आग्रह के ज़वाब में मुझे यह कहा गया कि द्विभाषिक रूप से काम करने में बिना वजह समय और संसाधन की बर्बादी हैसाथ ही यह भी कि हिन्दी भी हमारी भाषा नहीं है। दक्षिण भारत में यह स्थिति बहुत आम है और वस्तुस्थिति यह है कि वे हिन्दी को अपनी भाषा नहीं मान पाए हैं। इसे बहुत अस्वाभाविक भी नहीं कहा जा सकता और ऐसी स्थिति में उनपर हिन्दी थोपा जाना सही नहीं होगा।पर मैं उस मानसिकता से हैरान अवश्य हूँजो अंग्रेज़ी के प्रयोग को सहर्ष स्वीकार रहा है और उसे विकास से जोड़ रहा है।ऐसा करके वह अपनी भाषा को भी दरकिनार ही कर रहा है।
कभी कभी मुझे लगता है कि हमारा समाज एक ओढी हुईजिसे हम आयातित भी कह सकते हैंमानसिकता से संचालित हो रहा है। तभी तो हमें अपनी भाषा में विकास के तत्व नज़र नहीं आते और हम खुद अपनी भाषाओं को मरने दे रहे हैं और हमें इस बात का तनिक भी अफसोस नहीं क्योंकि हम विकसित (?) हो गए हैंक्या हम अपनी भाषाओं के विकास के साथ अपना विकास नहीं कर सकते..??
मैं यहाँ राजेश जोशी की लंबी कविता भाषा की आवाज़’ को उद्धृत करना चाहती हूँ:
बोलते बोलते एकाएक
मुझे अपनी आवाज़ पुराने दासों की तरह लगी
मुझे एकाएक लगा कि यह अधीनों की भाषा है
जिसमें मैं सोच रहा हूँ और बोल रहा हूँ
लेकिन यह कब हुआ और कैसे हुआ?हमें तो लगता था कि यह हमारी आज़ादी की लड़ाई की भाषा है
स्वतंत्रता और नए नगरों के बनने की प्रक्रिया के बीच
लाखों लोगों ने अपने पुराने डेरों के उजड़ने और नए डेरों के बसने
के साथ-साथ बनाया है हमारी इस भाषा को
कि इसमें उनके आपस में बतियाने और गाने-बजाने की आवाजें हैं
कि उनके काम -धंधों की दिक्कतोंउनकी खुशियों और दुःख से बनी है यह भाषा
कि रोटी बेटी के सम्बन्धों के साथ बनाए हैं उसने नए कुटुंब
पर शायद हमीं से हुई थी चूक हम ही नहीं देख पाए थे
कि हमारी आज़ादी की लडाई की भाषा फैसलों की भाषा नहीं थी
आधी रात के अँधेरे में
फैसले तो उसी शासक की भाषा में लिखे गए थे
जिसके खिलाफ हम लड़े थे
बाज़ार पहले ही चुरा चुका था हमारी जेब में रखे सिक्कों को
और अब वह सौदा कर रहा था हमारी भाषा का
और हमारे सपनों का
पुराने अनुभव की कमीज़ पहन कर
नए विमर्श की शब्दावली के सामने खड़ा था मैं अकबकाया हुआ
और नए बाज़ार में सौदा-सुलुफ करता एक विदूषक की तरह लग रहा था
महत्वाकांक्षाओं के मायालोक में कहीं नहीं थी हमारी भाषा
कहीं दूर कोने-कुचालों से कभी-कभी सुनाई पड़ती थी
उसकी बहुत धीमी और पराजित आवाज़
बिना लड़े ही हम हार रहे थे अपनी लडाई!

यहाँ बस यही कहना चाहूंगी की बिना लड़े हमें अपनी यह लड़ाई नहीं हारनी है। और इस लड़ाई को हम अपनी भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग से निश्चय ही जीत सकते हैं और इस बात को झुठला भी सकते हैं कि विकास के अवसर का हमारी भाषा में अभाव है।
हिंदी भाषा एवं क्षेत्रीय भाषाओं के अधिकाधिक प्रयोग से अंग्रेज़ी का प्रभाव स्वत: ही कम हो जाएगा जो कि राजभाषा कार्यान्वयन नीति एवं दिशानिर्देश का निहितार्थ है। हम सभी जानते हैं कि भाषा का प्रसार व विकास एक सामूहिक कार्य होता है। आइए हम यह संकल्प लेते हैं कि आज के दिन से हम सभी पहले से और अधिक प्रतिबद्ध होते हुए एकजुट होकर पूरी सकारात्मकता व उत्साह के साथ अपने अपने स्तर पर राजभाषा के प्रयोग को और अधिक बढ़ाएँगे। अपने अपने स्तर पर हम सभी सभी क्षेत्रों से संबंधित ज्ञान को अपनी भाषा में सृजित करने का प्रयास करेंगे। ताकि आने वाले समय में हमें अपनी भाषा के लिए एक दिन तय न करना पड़ेऔर मेरे लिहाज़ से हमारी ज़िम्मेदारी किसी एक भाषा के प्रति न होकर अपने देश की हर भाषाओं को लेकर होनी चाहिए।


स्वाती ठाकुर
शोधार्थी-हिंदी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय

Thursday, September 11, 2014

अन्हियारे तलछट में चमका

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी थी .
 यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.




अल्पना मिश्र के उपन्यास -   ‘अन्हियारे तलछट में चमका ’ का अंश -
     
स्वर्णमृग और झील मन की हलचल

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 आत्मकथा - 4  

शचीन्द्र! हर दिन तुम लौटते हो। तुम नहीं लौटते! तुम्हारा साया लौटता है। तुम्हारा हमशक्ल कोई! तुम्हारी तरह मुस्काराने की कोशिश करता। तुम्हारी तरह बहस करने का मूड बनाता। पर तुम्हारी तरह नहीं, कुछ छूटा हुआ, कुछ रूका हुआ, कुछ बीता हुआ सा.... उस साये से कुछ छूटा हुआ ......! मैं इंतजार में रूकी, इंतजार में ही रह जाती हॅू। मेरा इंतजार नहीं टूटता, खत्म ही नहीं होता!
तुम लौटते हो। थके हुए से! लौटते ही मुझ पर टूट पड़ते हो। अपने को अजमाते, अपने से संघर्ष करते। अपने से निराश होते। अपने से खीजते। अशक्त और कमजोर। पहले से ज्यादा। किसी भी तर्क से अलग। अपना तर्क गढ़ते। अपने बचाव का तर्क गढ़ते।
‘‘कमजोर हो गया हॅू। शायद इसी से। अब से फल फूल, दूध दही नियम से खाउंगा तो देखना सब ठीक हो जाएगा।’’
तुम्हारा ध्यान अपने पुरूषार्थ पर केन्द्रित हो कर रह गया है! तुम कुछ और सोच ही नहीं पाते। जब मन करता है, रहते हो, जब मन करता है, कहीं के लिए निकल पड़ते हो। कहाॅ के लिए? कोई बता नहीं सकता। ठीक ठीक दोस्त मित्र भी नहीं बता पाते!
मैं ‘‘हाॅ। ठीक है।‘‘ कहती हॅू और फल फूल के इंतजाम के लिए बैंक से पैसे निकालने लगती हॅू।
‘‘फिर भी एक बार डाॅक्टर के पास चले जाते। मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ।‘‘ मैं सोचती हॅूू कि तुम झिझक रहे होगे। मुझे भी साथ चलना चाहिए।
‘‘अच्छा, चला जाउंगा।’’ तुम टालते हुए कहते हो।
‘‘कब? क्यों टाल रहे हो?’’ मैं सचमुच पीछे पड़ती हॅू।
‘‘क्यों मेरी जान खा रही हो! खा तो रहा हूॅ फल, सब्जियाॅ। थोड़ी कमजोरी है, कह तो दिया। थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती। ’’ तुमने झल्ला कर कहा है। और भी बहुत कुछ कहा है। मुझे सेक्स के लिए तड़पती औरत की तरह व्याख्यायित कर दिया है। मुझे किस हद तक हर्ट करना चाहते हो? समझ में नहीं आता। जानती हॅू, तुम नाराज हो। मुझसे नाराज हो। अपने आप से नाराज हो।
हाॅ, मुझमें भी अतृप्ति की सागरिकाएं हिलोरे लेती हैं। देह जगती है मेरी भी। तुम्हारा छूना, सहलाना, चूमना बेचैन बनाता है मुझे भी। हाड़ मांस की बनी हॅू मैं भी। प्रेम के नाम पर कुर्बान होती हॅू। सहती हॅू। तुम्हें भी सहती हॅू। तुम यह जानते ही कहाॅ हो! त्ुाम इसे जानना चाहते ही कहाॅ हो?
एक दिन और लौटते हो तुम। हाथ में थैला लिए। इससे पहले कभी कुछ लाए नहीं। कुछ तुम अपने लिए ही लाए होगे। थैला मेरी ओर फेंक कर मुॅह हाथ धोने चले गए हो। थैला मेरी ओर आया है तो मैं उसे खोल देती हॅू। बीयर कैन! नमकीन!
हैरानी मेरी आॅखों में उतर आती है! हो सकता है दोस्तों के लिए हो।
‘‘क्या पार्टी का इरादा है?’’ हैरानी मेरे शब्दों से झर रही है।
‘‘कुछ बना सकोगी? पकौड़े या और कुछ तल लेती, जो आसानी से बन जाए।’’ मेरी बात पर तुम्हारा ध्यान नहीं है। तुम मॅुह हाथ धो कर निकल आए हो।
‘‘कोई आएगा? मतलब कुछ मित्रगण?’’
‘‘नहीं बाबा, ये मेरे और तुम्हारे लिए। आज हमारा दिन होगा।’’ तुम दुलरा कर कहते हो। खुश दिखने की कोशिश कर रहे हो। जल्दी जल्दी बिस्तर की चादर ठीक कर रहे हो।
‘‘तुम्हारी यह कंचन काया! किसी जादूगरनी की तरह बाॅधती है! उफ! मैं इसे पूरा.....’’
‘‘बहुत रोमांटिक हो रहे हो। इस सबसे कुछ नहीं होता। यह ठीक तरीका नहीं है। अपने को भूल कर अपने को पाने का यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है।’’
‘‘तुम भी! हर समय बहस करती हो। लेकिन बहस करती हो तो भी कितनी अच्छी लगती हो। छोटी सी फुदकती, चंचल सी, हिरनी सी। कौन इस मर न मिटेगा मेरी जान!’’ तुम्हारा ध्यान मेरी बातों पर नहीं है।
‘‘लेकिन मैं तो नहीं पीती हॅू। तुम जानते हो।’’ मैं अब तक हैरान हॅू। अब तक परेशान हॅू। अब तक समझ में ठीक ठीक नहीं आ रहा कि क्या होने होने को है?
‘‘तो आज पी लेना। मेरे साथ।’’ तुम हतोत्साहित नहीं हो रहे हो।
‘‘आज क्यो? जब मैंने कहा कि....’’
‘‘हर बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है? अपने तर्क बाद में देना। अभी तो इधर आओ। आज तुम्हें सजा कर यहाॅ बैठाउंगा। मैं करूंगा सब कुछ आज। समझी मेरी सोने की हिरनी।’’
तुमने तकिए किनारे रख दिए हैं। एक अखबार बीच में रखा है। अपने हाथ से दो स्टील की गिलास उठा लाए हो। शीशे की होती तो शीशे की लाते। जो है, उससे काम चला रहे हो।
‘‘तुम अकेले ही करो यह सब। प्लीज मुझे छोड़ दो।’’ मैं डर गयी हॅू। डर गयी हॅू कि अब आगे न जाने क्या झेलना पड़े?
‘‘तुम्हारे नखरे से मैं तंग आ गया हॅू। हर बात में तमाशा करती हो।’’ तुम गुस्सा गए हो।
‘‘किसी ने बताया है कि ड्रिंक  करने से एकदम असर पड़ता है। आज देखना तुम।’’ तुम मेरे पास आ कर खड़े हो। तुम नहीं कहते यह, शैतान की आवाज आती है! कहीं और से! दूर से! मुझसे कोसों दूर!
‘‘नहीं।’’ मैं डर जाती हॅू। कितने हिंसक होते जा रहे हो तुम! और अब यह ड््िरंक कर के तो न जाने कितने पाशविक हो उठोगे? मैं यह नहीं झेल सकती। मेरी देह पर उभरी नीली चित्रकारी मुझे भय से हिला रही है।
‘‘चलो आओ।’’ तुम मुझे बाॅहों से घेर कर ले जाना चाहते हो। उधर, जिधर तुमने अपना कामना महल सजाया है।
तुम्हारा बाॅहों से घेरना अच्छा लगता है। हर बार इसी भूल में चली जाती हॅू तुम्हारे लाक्षा गृह में। वहाॅ से जली हुई मेरी लाश निकलती है। न जाने कितने दिन तक काॅपती मैं काम धाम कर पाने में असमर्थ अपने आप पर रोती हॅू और तुम अपने आप में त्रस्त- पस्त। मुझसे नजरें बचाते, छिपते, जाने कहाॅ के लिए निकल पड़ते हो।
‘नहीं, मृगतृष्णा है। मैं इससे अधिक में नहीं जा सकती। प्रयोगों के लिए मेरी देह नहीं बनी है। मैं अपने आप में कितनी छोटी होती जा रही हॅू।’
‘‘क्या सोचने लगी? आज तुम्हें निराश नहीं करूंगा।’’ तुम खींच रहे हो। मैं हिल भी नहीं रही।
‘‘नहीं। रहने दो। मेरा मन नहीं है। इतना तो समझो।’’ मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश करती हॅू।
‘‘नहीं क्या? एक मौका इसके लिए भी सही। तुम सपोर्ट नहीं करती, यही दिक्कत है।’’
तुम बहुत दयनीय हो उठे हो। इस दयनीयता के बावजूद मुझे कह रहे हो कि मैं सपोर्ट नहीं करती। मरती हॅू हर रात एक अलग मौत, जीने की किसी उम्मीद में ही तो।
‘‘तुम्हारे अनुभवों का लाभ नहीं ले पा रहा हॅू। आज बताओ? कैसा था पहलेवाला? बोलो? ’’ तुमने मुझे धक्का दे कर गिरा दिया है।
‘‘तुम बैठोगी यहाॅ तब तक, जब तक कि मैं पीउंगा। समझी।’’
तुम किसी पाषाण से भी ज्यादा मिर्मम हो उठे हो। इस क्षण, तुम वो हो ही नहीं, जिसे मैंने चाहा था। तुम कुछ और हो। मेरे पिछले अनुभवों को जानने की भयानक इच्छा रखने वाले। यह तुम्हारा मनोरंजन हो सकता है! यह तुम्हें उकसा सकता है! पर क्या सचमुच ही तुम जानना चाहते हो कि कैसा था मेरा पति? कब से मैं तुम्हें बताना चाहती थी, पर अब इसलिए, बिल्कुल नहीं। मेरा दुख इस काम आए, मैं मर ही न जाउं, इससे पहले। मेरा प्रिय यह कह दे कि...... तो जीते जी मर जाउं मैं! हे प्रभु! मैं यह दिन देखने के लिए बची ही क्यों रह गयी? इसीलिए इतना जोखिम उठा कर भाग आई थी? इसीलिए एक नई जिंदगी जीने का साहस कर रही थी?
नहीं, मेरी आॅखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा! नहीं रोउंगी मैं! नहीं। जीउंगी मैं। नहीं करूंगी, जो मैं नहीं चाहती। मैं उठ कर बैठ गयी हॅू।
 ‘‘मुझसे नहीं हो सकेगा।’’ मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है। आखिरी प्रार्थना की तरह।
‘‘मैं तुम्हें जिबह तो करने जा नहीं रहा। ऐसे कह रही हो।’’ तुम मुझे खींच कर अपनी जाॅघों पर लिटाना चाहते हो।
तुम्हारी गोद, जिसमें चैन से सोने का सपना मेरा, बस, सपना ही है। इसे अब मैं पूरा नहीं करना चाहती।
‘‘उठो, गुड गर्ल। लो, नमकीन लो। मूड ठीक करो।’’
नमकीन की प्लेट उठा कर तुम मेरी तरफ करते हो। तुम्हारा इस तरह बीयर पीना मुझे बड़ा बेशर्म सा लगता है। इससे पहले कभी जब तुम्हें दोस्तों के साथ पीते देखा तो ऐसा खराब नहीं लगा था।
‘‘अच्छा, छोड़ो तो। लाती हॅू।’’ बचने का कोई उपाय सोचते हुए मैं कहती हॅू।
मैं छूटती हॅू तुमसे। कुछ लाने के लिए रसोई तक जाती हॅू। कोई डिब्बा उठा कर खोलती रखती हॅू।  कुछ सोचती हॅू पल भर। फिर एकाएक अपना पर्स उठाती हॅू और निकल जाती हॅू घर से, पता नहीं कहाॅ के लिए!
तुम मुझे ढूंढ लोगे, मुझे पता था। लेने आ जाओगे, मुझे पता था। वही हुआ। वही किया तुमने। मेरी सहेली सुरभि के घर चले आए। रात के दो बजे, बदहवास से  जैसे तुम्हारा कोई जिगर का टुकड़ा खो गया हो। आॅखों से गंगा जमुना उमड़ी चली आ रही हैं। सुरभि की आॅखों में तुम नहीं, मैं दोषी बन गयी हॅू। निष्ठुर, निर्मम। तुम भावुक प्रेमी के प्रतीक हो! तुम  हो ही ऐसे! सारे सिक्के अपने हक में भुनाने की कला वाले।
‘‘तुम शचीन्द्र को समझने की कोशिश करो बिट्टो। भागने से समस्या हल नहीं होती।’’ सुरभि मुझे समझा रही है। मैंने सोचा था वह शचीन्द्र को समझायेगी!
‘‘तुम उसके साथ जाओ, उसे प्यार दो। मेरा पति अगर भूल कर भी मेरे लिए एक आॅसू टपका देता तो समझो मैं तो बिना मोल बिक जाती। मगर कमबख्त, उसने आज तक प्यार का इजहार तक न किया। तुम तो भाग्य शाली हो। ऐसा प्यार करने वाला मिला है।’’ सुरभि मुझ पर नाराज हो रही है। मुझे शचीन्द्र के साथ जाने के लिए समझा रही है।
‘‘अगर मुझसे परेशान हो तो मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।’’ मैं दुखी हो कर कहती हॅू।
तुम तड़प उठे हो। तुम्हारी आॅखें कह रही हैं। मैं इसके आगे हारती हॅू हर बार। तुम्हें मनाती हूॅ। सोचती थी कि तुम मनाओगे। पर अब सोचती हॅू कि यह मनाना भी एक कोशिश ही थी। जीवन के मरम्मत की। मनाती हॅू और जैसे तैसे प्रयत्नपूर्वक डाॅक्टर के पास ले जाती हॅू। देखो, मैंने खुद को ही कैसे एक और खर्चे में झोंक दिया है! प्रेम के नाम पर। जीने की इच्छा के नाम पर।
मैं तुम्हें वापस जीवन में देखना चाहती हॅू। इसीलिए बार बार कोशिश करती हॅू। प्यार से तुम्हारे कंधे पर टिक कर कहती हॅू कि ‘‘ जीवन भर भागते रहे हो, दौड़ते रहे हो, लड़ते की कोशिश में लगे रहे हो, पर लड़ाई वैसी नहीं बनी, जैसा कि तुम चाहते थे। है न!’’
तुम आकाश को देख रहे हो। मुझसे इतने अलग होते हुए। दूर होते हुए। देखो कि मैं फिर कोशिश करती हूॅ। कहना जहाॅ छोड़ा था, वहीं से पकड़ती हॅू-‘‘ तुम सोचते हो कि आज तक जो भी कोशिश तुमने किया, उसका कुछ भी हासिल नहीं। छात्र राजनीति के साथ जुड़े तो वहाॅ भी बहुत कुछ कर पाना संभव आज नहीं रह गया। लेकिन जीवन को ऐसे देखना ठीक तो नहीं है। जो सही काम होते हैं, उनका असर कहीं न कहीं तक जाता है। वह एकदम खत्म नहीं होता। आज जरूर देश में ऐसे हालात बन गए हैं कि बड़ी लड़ाइयाॅ नहीं बन पा रही हैं पर लगातार चलती छोटी लड़ाइयाॅ भी बड़ी लड़ाई की संभावना को बचाए रखती हैं। और तुम, सुनो, उस अपने छात्र हित वाले काम से क्यों विरत हो रहे हो? वहीं तो तुम हो! कुछ बदलने, कुछ ठीक ठाक कर पाने की कोशिश के साथ हो! त्ुाम उससे अलग नहीं हो सकते। तुम फिर जाओ! फिर से ठीक करो। फिर से शुरू करो। फिर से संगठित करो। यही एक तरीका है हमारे पास, तुम्हारे पास.....’’
मेरी आवाज, मेरी सब ध्वनियाॅ किसी बंद दरवाजे से टकरा कर लौट रही हैं।
‘‘हो गया उपदेश! परेशान कर के रख दिया है। चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता!’’
तुमने मुझे जोर का धक्का दिया। मैं गिरते गिरते बची।
‘‘क्या समझ रही हो अपने को? हाॅ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाॅ! मैं कुछ नहीं हॅू न! यही साबित करना चाहती हो!’’ तुम तैश में खुद को भूल गए हो। एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़, घूसे, लात जमा रहे हो। मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई......
तुम गुस्से में चले गए हो। कहीं, उस जगह की तलाश में शायद, जहाॅ सुकून हो!
मुझे इसका भरोसा नहीे है। सुकून का भरोसा!
सचमुच मैं यह कहाॅ आ पॅहुची हॅू! नरक क्या यही है?
नरक! जिसके लिए मेरी माॅ हर वक्त चेताती रहती थी! जिसका एक हिस्सा झेल कर मैं भाग आई थी। जिसका दूसरा हिस्सा झेलती मैं यहाॅ बैठी हॅू! जिसका कोई तीसरा, चैथा हिस्सा भी होगा!
मैं भय से काॅप रही हॅू।
मैं चोट से काॅप रही हॅू।
धीरे धीरे उठती हॅू और कभी एक हाथ से अपना बाल ठीक करते, कभी एक हाथ से अपना पेट, बाॅह, छाती सहलाते, डाॅक्टर के पास चली गयी हॅू।
डाॅक्टर से कहूंगी कि सीढि़यों से फिर आज गिर गयी हॅू।
......................
शचीन्द्र! तुम लौटते हो। फल खाते हो। अपनी दवा समयानुसार लेते हो। तमाम चेकअप कराते हो। फिर प्रयोग करते हो।
डाॅक्टर, दवा, प्रयोग.... यही रह गया है तुम्हारे जीवन का केन्द्र!
मित्रता का हल्का सा तंतु भी नहीं बचा!
यह क्या, मशीन बनते जा रहे हो तुम!
यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता। तुम्हें समझा नहीं पाती हॅू।
ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए। पर यही इतना भर छूट जाए तो ..... देह के पार भी चाह लेती तुम्हें। पर तुम! तुम हो कि इस देह से पार जाना ही नहीं चाहते! यहीं अटक गए हो! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को!
मैं सुखी हॅू कि दुखी हूूॅ? बीमार हॅू कि आराम में हॅू? मेरे पास पैसा है कि नहीें है? एक छोटी सी स्टेनो की नौकरी में पैसा होता ही कितना है? मैं अपने लिए कपड़े, किताबें खरीद पाती हॅू कि नहीं? मैं फल फूल, दूध, दही खाती हॅू कि नहीं?
मैं तुम्हारे मायने के किसी दायरे में हॅू भी ?
एक बार फिर मेरी लड़ाई मेरी माॅ से ठन गई है। उनसे कहूंगी तो हॅसेंगी, मजाक उड़ायेंगी।
‘‘गई थी न मनमानी करने, अब भोगो।’’ ऐसा कुछ कह सकती थीं। पर भीतर से कहीं कराह उठेंगी। आखिर जो वे नहीं चाहती थीं, वही हुआ। उन्होंने ही कहा था कि औरत कमाए तो क्या? पैसा तो उसी के अधिकार में चला जाता है, जिसके कब्जे में औरत होती है। तो क्या मैं....?
नहीं, कब्जा नहीं, मैं वश में नहीं हूॅ किसी के।
अरे, मैं मान क्यों नहीं रही कि मैं वश में हो गयी हॅू।
शचीन्द्र के वश में ! - ?
? ? ? ? ?
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