Tuesday, December 16, 2014

ऐसे असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें -डॉ कविता वाचक्नवी





 "भारतीय स्टेट बैंक की त्रैमासिक पत्रिका हेतु बैंक की राजभाषा अधिकारी अर्पिता शर्मा द्वारा 28 मार्च 2014 को लिए गए साक्षात्कार में उन्होंने 16 दिसंबर ( दामिनी, निर्भया प्रकरण ) की घटना के सन्दर्भ में महिलाओं-लड़कियों के प्रति समाज के नजरिये पर सार्थक प्रतिक्रिया दी है ! आदरणीय लेखिका का बहुत आभार अपने सार्थक विचारों को फरगुदिया पाठकों से साझा करने के लिए !

हाल ही में साहित्यकार डॉ कविता वाचक्नवी  को  विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित तथा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "हिंदी विदेश प्रसार सम्मान" (2013 ) तथा  इंडियन हाईकमीशन,ब्रिटेन द्वारा समग्र एवं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अवदान हेतु हरिवंश राय बच्चन के शताब्दी वर्ष पर स्थापित "हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार" (2014) से सम्मानित किया गया ! "







 

अर्पिता शर्मा - सबसे पहला प्रश्न सिर्फ एक महिला से, ( न माँ, न बेटी, न पत्नी, न साहित्यकार, सिर्फ एक महिला), कैसा महसूस होता है महिला होकर। क्या कोई पछतावा है?



कविता वाचक्नवी – महिला होने के अपने सुख दु:ख हैं । कुछ इतने भीषण दु:ख कि उनका उल्लेख भी संसार से नहीं किया जा सकता। इसलिए नहीं कि छिपाना है, बल्कि इसलिए कि संसार के पास उस संवेदनशीलता का अभाव है कि वह उन दुखों के मर्म तक पहुँच सके।


कुछ ऐसे सुख भी हैं जो बहुत बड़े हैं.... !

परन्तु कई बार मुझे लगता है कि पुरुष होने के भी अपने सुख-दु:ख हैं। मनुष्य-मात्र और प्राणिमात्र के अपने दु:ख हैं । अतः जब सुख दु:ख सभी के साथ हैं तो फिर अपने ही दु:खों पर पछताना-रोना कैसा ?

अर्पिता : स्त्री होने के ?




कविता वाचक्नवी : जिन्हें हम स्त्री होने के दु:ख समझते हैं, वस्तुतः वे स्त्री होने के दु:ख न होकर समाज की स्त्रियों के प्रति दृष्टि और व्यवहार के दु:ख हैं, समाज की स्त्री के प्रति सोच और बर्ताव के दु:ख हैं । इसलिए मुझे अपने स्त्री होने पर कोई पछतावा नहीं अपितु समाज के निर्मम और क्रूर होने पर क्षोभ है।




अर्पिता : तो स्त्री होना कैसा अनुभव लगता है ?




कविता वाचक्नवी : ऐसे हजारों क्षण क्या, हजारों घंटे व हजारों अवसर हैं, जब मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ है। जब-जब मैंने पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति बरती गई बर्बरता व दूसरों के प्रति फूहड़ता, असभ्यता, अशालीनता, अभद्रता, लोलुपता, भाषिकपतन, सार्वजनिक व्यभिचार के दृश्य, मूर्खतापूर्ण अहं, नशे में गंदगी पर गिरे हुए दृश्य और गलत निर्णयों के लट्ठमार हठ आदि को देखा-सुना-समझा​-​झेला, तब-तब गर्व हुआ कि आह, स्त्री-रूप में मेरा जन्म लेना कितना सुखद है।

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रही इसके विपरीत अनुभव की बात, तो गर्व का विपरीत तो लज्जा ही होती है। आप इसे मेरा मनोबल समझ सकती हैं कि मुझे अपने स्त्री होने पर कभी लज्जा नहीं आई। बहुधा भीड़ में या सार्वजनिक स्थलों आदि पर बचपन से लेकर प्रौढ़ होने तक भारतीय परिवेश में महिलाओं को जाने कैसी-कैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, मैं कोई अपवाद नहीं हूँ; किन्तु ऐसे प्रत्येक भयावह अनुभव के समय भी /बावजूद मुझे अपने स्त्री होने के चलते लज्जा कभी नहीं आई या कमतरी का अनुभव नहीं हुआ, सिवाय इस भावना के कि कई बार यह अवश्य लगा कि अमुक-अमुक मौके पर, मैं स्त्री न होती तो, धुन देती अलाने-फलाने को।



यदि मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होता है, तो निस्संदेह मैं स्त्री होना ही चुनूँगी / चाहूँगी। कामना है यह संसार तब तक कुछ अधिक सुसभ्य व मानवीय हो चुका हो।






अर्पिता शर्मा - आज के दिन में महिलाओं को किस स्थिति में पाती हैं, विशेषकर भारत में महिलाओं को, सामाजिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ?




कविता वाचक्नवी – महिलाओं की स्थिति में यद्यपि दृश्यरूप में कुछ सुधार हुआ है। स्वतन्त्रता आंदोलन के काल या उससे पूर्व के साथ तुलना करें तो कई अर्थों में सुधार हुआ है, बालविवाह, सतीप्रथा आदि अब लुके-छिपे घटते हैं या न के बराबर हैं, स्त्रीशिक्षा का प्रचलन बढ़ा है, पर्दा काफी कम हुआ है, स्त्रियाँ लगभग प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं। वे अपनी बात कह सकती हैं, जो स्त्री 'विवाह के कारण सार्वजनिक जीवन से निर्वासित' (महादेवी वर्मा के शब्द) जैसी हो जाती है, सोशल नेटवर्किंग ने उस स्त्री को भी घर बैठे ही समाज से जुडने का अवसर दे दिया है, नगर की स्त्री के जीवन में परिवर्तन अधिक हुए हैं। आश्चर्य यह है कि इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों के चलते भी समाज का रवैया स्त्रियों के प्रति बहुत नहीं सुधरा, अधिक भयावह ही हुआ है। इन सब सुधारों का प्रतिशत भी बहुत कम है, उन भयावहताओं की तुलना में जिन्होंने स्त्री को घेर लिया है। पितृसत्तात्मक ढाँचा कमजोर नहीं हुआ। बस उसके रूप बदल गए हैं। बलात्कार, भ्रूण-हत्याएँ, छेड़छाड़ और जाने क्या-क्या ! अब तो स्त्री अपनी माँ के गर्भ तक में सुरक्षित नहीं है, जो प्राणिमात्र के लिए संसार का सबसे सुरक्षित स्थान होता है। पितृसत्ता के हाथ माँ के गर्भ तक से उसे खींच बाहर निकाल ला मारते हैं। ऐसे समाज को आप व हम कैसे मानवीय व उदार कह-मान सकते हैं ? भ्रूण की हत्या इसलिए नहीं होतीं कि लड़कियाँ नापसंद हैं, अपितु इसलिए होती हैं क्योंकि यह समाज लड़कियों के लिए मानवीय नहीं है। उस अमानवीयता से बचने / बचाने के लिए उन्हें धरती पर साँस लेने से पहले ही समाप्त कर दिया जाता है। ऐसे भारतीय समाज को कैसे मैं मान लूँ कि स्त्रियों के लिए बेहतर हुआ है ? बलात्कारों का अनुपात और बलात्कार से जुड़ी भयावहताएँ इतनी कारुणिक हैं कि वे सुधार के सब आँकड़ों को अंगूठा दिखाती हैं।




अर्पिता : और आर्थिक सुधारों व स्त्री की आर्थिक निर्भरता ?




कविता वाचक्नवी : रही आर्थिक स्थिति की बात, तो महिलाओं की आर्थिक स्थिति/ निर्भरता में सुधार यद्यपि हुआ है और वह इन मायनों में कि स्त्रियाँ अब कमाने लगी हैं, किन्तु इस से उनकी अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने का प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि वे जो कमाती हैं उस पर उनके अधिकार का प्रतिशत बहुत न्यून है। वे अपने घरों/परिवारों के लिए कमाती हैं और जिन परिवारों का वे अंग होती हैं, उन घरों का स्वामित्व व अधिकार उनके हाथ में लगभग न के बराबर है। समाज में जब तक स्त्री को कर्तव्यों का हिस्सा और पुरुष को अधिकार का हिस्सा मान बँट​वारे की मानसिकता बनी रहेगी,​ तब तक यह विभाजन बना रहेगा। स्त्री के भी परिवार में समान अधिकार व समान कर्तव्य हों, यह निर्धारित किए/अपनाए बिना कोई भी समाज, अर्थोपार्जन में स्त्री की सक्षमता-मात्र से उसके प्रति अपनी संकीर्णता नहीं त्याग सकता। स्त्री की शारीरिक बनावट में आक्रामकशक्ति पुरुष की तुलना में न के बराबर होना, उसे अशक्त मानने का कारण बन जाता है। तीसरी बात यह, कि महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक निर्णयों में भूमिका हमारे पारम्परिक परिवारों में नहीं होती है और यदि शिक्षित स्त्रियाँ अपनी वैचारिक सहमति असहमति व्यक्त करती भी हैं तो इसे हस्तक्षेप के रूप में समाज ग्रहण करता है, जिसकी समाजस्वीकार्यता न के बराबर है। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए मात्र उनकी आर्थिक सक्षमता ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्य भी कई कारक हैं।




अर्पिता शर्मा – फिर थोड़ा लौटते हैं; महिला होने की क्या चुनौतियाँ​, उपलब्धियाँ​ रही हैं, या भविष्य में किन-किन की संभावना / आशंका देखती हैं ?


कविता वाचक्नवी – सामाजिक, शैक्षिक या पारिवारिक जीवन में महिला होने के नाते सदा ही असंख्य भीषण चुनौतियाँ रहीं। संयुक्त परिवार में पलते हुए, कुलीन उच्चकुल की बेटी होने के कारण​ एक ऐसा समय भी था जब हमें चारदीवारी के भीतर रहने की कड़ी हिदायतें थीं। आवश्यकता के समय बाहर जाने पर अकेले जाना हमारे कार्यों व हमें संदिग्ध बनाने को पर्याप्त था। किसी का साथ होना अनिवार्य होता था; भले ही डेढ़, दो, चार वर्ष के चचेरे भाई की उंगली पकड़ कर उसे साथ लिया जाए। मैं बरसों तक अपनी एक अध्यापिका के घर उनसे मिलने जाते समय हाई स्कूल के बाद अपने चलना सीखे चचेरे भाई को साथ ले कर जाती रही। लड़कियों के साथ ही खेली। यह उल्लेख अनिवार्य है कि मेरे पिताजी ने यह भेदभाव कदापि नहीं किया। जब-जब मैं उनके साथ रही, तब-तब उन्होने सहशिक्षा वाले विद्यालयों में पढ़ाया, लड़कों के साथ खूब खेलने भेजा, उनसे कुश्ती तक करवाया करते थे, आर्यसमाज के मंचों पर ले जाते थे, वक्तृता, अध्ययन, लेखन, सामाजिक कुरीतियों व गलत का जी-जान से खुला विरोध आदि करने का कौशल उन्होने ही विकसित किया, किन्तु पिताजी के स्थानांतरण की स्थिति में जैसे ही कक्षा 8वीं के बाद संयुक्त परिवार में आई, तैसे ही रहन-रहन बिलकुल उलटा हो गया। इसीलिए मैं आवश्यकता से अधिक दुस्साहसी बनी क्योंकि पिताजी के स्वतन्त्रचेता होने के संस्कार भीतर थे, उन्हीं का अभ्यास भी था, किन्तु जब उन से अलग वातावरण में रहना पड़ा तो मस्तिष्क और मन को यह स्वीकार्य नहीं हुआ। माँ-पिताजी के यहाँ दूध-दही आदि सब श्रेष्ठ वस्तुओं पर पहला अधिकार मेरा रहता था और संयुक्त परिवार में मक्खन आदि केवल घर के कमाऊ पुत्रों को मिलता था, जबकि घर में गाय थीं और घर में बिलोया जाता था, कोई किसी प्रकार की कमी न थी। ये तो वे अनुभव हैं जो इतने सामान्य हैं कि इन्होंने मन पर कोई खरोंच तक नहीं छोड़ी, किन्तु कुछ दृश्य, अवसर और संस्मरण बड़े कसैले हैं ..... हजारों अनुभव हैं, उन्हें स्मरण तक करने की इच्छा नहीं है क्योंकि उनकी पीड़ा सहन करने का सामर्थ्य आज भी नहीं है, उनके विवरण देने का औचित्य भी नहीं, वे सारे क्लेद हृदय की अतल गहराइयों में हैं, टीसते हैं, रुलाते और तड़पाते हैं, उन्हें कभी किसी कागज पर लिखा-कहा नहीं जाएगा, नहीं जा सकता, आवश्यकता भी नहीं। कह-लिख दूँगी तो शायद चुक जाऊँगी, क्योंकि वे ही तो आग भरते हैं स्त्रियों के लिए लड़ने की।

अर्पिता : और विवाह के बाद ?

कविता वाचक्नवी : विवाह जब हुआ उस समय जो कुछ पढ़ रही थी, वह पढ़ाई बीच ही में छोड़ देनी पड़ी। उस समय (लगभग तीस बरस पहले)​ संस्कृत लेक्चररशिप / नियुक्ति लगभग पुष्ट​ (क​न्फ़र्म​) हो चुकी थी किन्तु सब कुछ को तुरन्त अलविदा कहना पड़ा। पर किसी ने दबाव नहीं डाला; यह तो स्वेच्छा से ही तय की गई वरीयता थी। मेरी सन्तान को मेरी आवश्यकता थी। कई ​बरस बाद​ अपने से भी छोटी आयु की लड़कियों / लोगों को प्रोफेसर या रीडर होने के दम्भ में इतराते देखती तो कभी-कभी वे दिन याद आते कि यदि वह न होता तो क्या होता। वर्ष ​ 82’ की छोड़ी पढ़ाई वर्ष 98’ के अन्त में पुनः शुरू की और परिवार चलाते हुए गृहस्थी के साथ ​हिन्दी में एम ए किया, एम फिल (स्वर्णपदक) किया और पीएच डी की। जो कुछ पुस्तक-लेखन, अध्ययन, प्रकाशन, सम्पादन, अध्यापन, संगोष्ठियाँ या उपलब्धियाँ मेरे बायोडेटा या खाते में दर्ज़ हैं वे सब 1998 के बाद की हैं। तो जीवन के लगभग 16 वर्ष केवल गृहिणी, माँ व पत्नी हो कर रही। इन सोलह वर्ष में कुछ न करने का मलाल भी होता है किन्तु स्वयं पर गर्व भी कि अपने बूते, बिना किसी के कन्धों का सहारा लिए, बिना किसी रिश्तेदार, सम्बन्धी के हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाए, बिना रत्तीभर भी समझौता किए, बिना किसी गॉडफादर के, बिना महत्वाकांक्षाओं या उनकी पूर्ति के लिए रत्तीभर भी समझौते किए, अपनी शर्तों पर, अपने बूते, कर्तव्य अकर्तव्य के पिताजी के दिए विवेक के बूते यहाँ पहुँची हूँ, जहाँ आज हूँ।



अर्पिता : आज तो आपके मायके व ससुराल को आप पर गर्व होता होगा... इतनी योग्यता व उपलब्धियाँ आपके नाम हैं !


कविता वाचक्नवी : मैं जिस संयुक्त परिवार से हूँ, वहाँ बेटियाँ नहीं होतीं, पिताजी सात भाई और दो बहन। इन सात भाइयों के घर केवल तीन बेटियाँ, बुआओं के सात पुत्र। तब भी बेटी होने का कोई विशेषाधिकार किसी के पास नहीं। अपने पूरे मायका-कुल में (ददिहाल व नहिहाल में) मैं सर्वाधिक पढ़ी हूँ, सर्वाधिक एकेदेमिक छवि व कार्यक्षेत्र है। मुझसे बाद की पीढ़ी में भी मास्टर्ज़ डिग्री से आगे अब तक कोई नहीं गया। यों यह कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु जब अपने को वहाँ ले जाकर देखती हूँ या कभी-कभार आयोजनों में समूचे परिवार के साथ मिलती-जुलती हूँ तो चुभने वाले कई बीते प्रसंग याद आते हैं और तब दूसरों को भले हो न हो किन्तु अपने पर गर्व होता है। कई बार लगता है कि पिताजी की व उनके माध्यम से आर्यसमाज की रोपी स्वातंत्र्यचेतना और परिस्थितियों द्वारा उस पर लगा अंकुश ही चैलेंज के रूप में रहा हो कि उसने मुझे जुझारु बना दिया।



अर्पिता : स्त्री होने के नाते बहुत कुछ खोना भी पड़ता ही है भारतीय समाज में, अधिकांश महिलाएँ उस व्यूह में टूट जाती हैं। कोई विशेष अनुभव ?




कविता वाचक्नवी : स्त्री होने के नाते ​बहुत कुछ खोया भी है। सामाजिक जीवन के कई अनुभव भी बड़े कुरूप हैं। भारतीय समाज में स्त्री का स्त्री होना उसका बड़ा अपराध है। जिसकी सजा हर राह चलता व्यक्ति उसे देने का अधिकार रखता है। मैं सोचती हूँ यदि मुझ जैसी निडर, साहसी और दो टूक स्त्री के प्रति समाज निर्मम हो सकता है तो चुपचाप सब कुछ सहन करने वाली स्त्रियों की क्या दशा होती होगी। जीवन के कुछ अनुभव तो एकदम कभी न मिटने वाली पत्थर पर खोद कर बनाई लकीरों की तरह मन में खुद-खुभ गए हैं। परन्तु विकट से विकट अनुभव ने मुझे और-और साहसी ही बनाया, और-और जुझारु ही बनाया, थकना, टूटना या हार मानना तो कभी सीखा ही नहीं। एक तरह से आप यों कल्पना कर सकती हैं कि जो भारतीय समाज आज्ञाकारी और सहनशील स्त्री तक को सुख से जीने नहीं देता उस भारतीय समाज ने एक विद्रोही, न झुकने वाली और जुझारु स्त्री को भला कैसे सहन किया होगा ? अपने इस विद्रोही, साहसी आदि होने के कई मीठे-कड़वे प्रसंग हैं। अधिकांश तो कड़वे ही हैं । कुछ को मैंने संस्मरणबद्ध भी किया है, जिनमें से एक अत्यन्त लोकप्रिय भी हुआ था "जब मैं छुरा लेकर परीक्षा देने गई" शीर्षक से। शायद आपने देखा-पढ़ा हो |




अर्पिता : और भविष्य की चुनौतियों का प्रसंग तो छूट ही गया ...




कविता वाचक्नवी : रहा भ​विष्य की चुनौतियों की आशंका का आपका प्रश्न, तो उसके बारे में अभी से क्या कहा जा सकता है। हाँ इतना अवश्य कहूँगी कि भारत में रहते हुए जिन साधारण से साधारण इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता था, आज ब्रिटेन में रहते हुए मैं उन सब को पूरा करने में लगी रहती हूँ। जैसे, स्कूल-कॉलेज के समय से मेरी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि मैं चारों ओर से खुले में धरती पर आकाश के नीचे लेट जाऊँ और घण्टों आकाश को देखूँ सब ओर से बेपरवाह होकर..... । वहाँ वह इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई क्योंकि भारत में खुले में सार्वजनिक रूप से एक स्त्री के लेटे होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। किन्तु अब लन्दन में मैं इसे पूरा कर पाती हूँ। जब-जब धूप निकलती है, तो मैं झील के किनारे वाले बहुत बड़े मैदान में अकेली जाकर धरती पर घण्टों लेटी रहती हूँ, कई बार सो भी जाती हूँ । यहाँ कोई इसे अन्यथा नहीं लेता व न इसे मेरी अनधिकार चेष्टा समझता है। कुछ पुरुषों की टीम थोड़ी दूरी पर सदा ही वहाँ फुटबाल खेल रही होती हैं। वे भी मुझे लेटा जानकर थोड़ा आदर करते हुए कुछ दूर चले जाते हैं। यहाँ मुझे कोई अनुभव ही नहीं करवाता कि मैं स्त्री हूँ तो कुछ दोयम हूँ, कुछ दर्शनीय वस्तु हूँ, कुछ कमतर हूँ, कुछ खाद्य हूँ, कुछ छू कर देखने की वस्तु हूँ, कुछ छेड़छाड़ की छूट मेरे प्रति ली जा सकती है, कुछ मुझे धकेला, बरगलाया जा सकता है, मेरे वस्त्रों के पार देखने की चेष्टा की जा सकती है, मेरी देह कोई लज्जा की वस्तु है कि उसे लेकर मुझे सदा अपराधबोध से ग्रस्त रहना चाहिए और उसे संसार की नजरों से बचाए-छिपाए रखना चाहिए, या मैंने स्त्री होकर कोई अपराध कर दिया है, या मेरा बौद्धिक स्तर स्त्री होने के नाते निस्सन्देह कमतर होगा, या मुझे स्वयं को शक्तिहीन समझना चाहिए और पुरुष के पशुबल से आक्रान्त रहना चाहिए। अर्थात् स्त्री होने के नाते मुझे अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। ऐसी निश्चिंतता मैंने भारत में कभी नहीं पाई। हाँ, स्त्री होने के नाते जो बुरा अनुभव मुझे यहाँ होता है वह यह कि अधिकांश लोग भारतीय समाज की स्त्री होने के कारण बलात्कार वाले वातावरण से जोड़ कर देखते हैं कि इनके देश में तो स्त्री से जब चाहे, जो चाहे, जहाँ, जैसे चाहे बलात्कार कर सकता है।




अर्पिता : और वहाँ पुरुषों का आपसे व्यवहार कैसा है ?


कविता वाचक्नवी : इस देश में लोग (पुरुष भी) हमें छूते हैं, गले लगाते हैं, सार्वजनिक रूप से चूमते हैं (वह अभिवादन का तरीका है) किन्तु उनके स्पर्श में कभी रत्ती भर भी लैंगिक आकर्षण का अंश नहीं होता। यह अनुभव आत्मविश्वास और सुरक्षा लौटाता है। पुरुष डॉक्टर तक मनोबल बढ़ाने के लिए आकर गाल सहलाते हैं, कई बार दोनों हाथों में चेहरा लेकर सहला देते हैं, ये अनुभव मुझे विशेष राहत और सुख देते हैं। यहाँ की स्त्री के लिए भले विशेष न हों किन्तु हम भारतीय परिवेश की पली-बढ़ी स्त्रियों के लिए ये स्वस्थ स्पर्श पुराने घावों पर मरहम-से प्रतीत होते हैं, जो कई घाव भर देते हैं। हमने अपरिचित पुरुष का यह रूप नहीं देखा हुआ होता, इस वातावरण व सहज सम्पर्क से हमारा परिचय हमें अकुण्ठ करता जाता है मानो।



अर्पिता शर्मा - बहुचर्चित दामिनी प्रकरण (16 दिसम्बर, दिल्ली में बस में हुए जघन्य बलात्कार) के भारतीय समाज में क्या मायने पाती हैं? क्या परिवर्तन होगा या फिर शांति?




कविता वाचक्नवी – दामिनी के साथ हुए जघन्य काण्ड से देशभर में एक लहर-सी आ गई थी। किन्तु वह आक्रोश का बुलबुला जिस तेजी से फूला था, उसी तरह फूट भी गया। भारतीय समाज के साथ विडम्बना यह है कि वहाँ सब के सब ओर की परिस्थितियाँ बहुत आक्रोशपूर्ण हैं। व्यक्ति किस-किस के विरुद्ध आक्रोशित हुआ रहे और कब तक ? व्यक्ति की मानसिकता कितने दिन इसे सहन और वहन किए रख सकती है ? ऊपर से जीवन जीने की विवशताएँ और दबाव भी हैं जिनमें उन्हें जुटना है, उनके पास इतनी सुविधा नहीं कि वे हर एक बात और घटना पर अपने आक्रोश को सिरे तक पहुँचाएँ और कोई हल निकालें। उन्हें उन्हीं के साथ जीना मरना है। इसलिए दामिनी प्रकरण हो या गोहाटी का प्रकरण, ये तो वे प्रकरण हैं जो प्रकाश में आ गए किन्तु इनके समानान्तर ठीक उसी दिन, उसी नगर में अन्य कई लड़कियों के साथ निरन्तर अमानवीय क्रूरताएँ होती रहीं किन्तु उनका देश ने नोटिस ही नहीं लिया। प्रति २० मिनट पर एक स्त्री बलात्कार की शिकार होती है भारत में। ​यह केवल दर्ज अपराधों का आंकड़ा है। अतः वास्तव में यह दर क्या होगी, इसकी कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाएँगे ३, ५ व ८ वर्ष की बच्ची से तो आगामी दिन ही बलात्कार की सूचना समाचारपत्रों में थी​। ​ इसी बीच इम्फाल में १८ दिसम्बर २०१३ को ही एक २२ वर्ष की अभिनेत्री व मॉडल Momoko को भरी भीड़ में से खींच कर उसके साथ यौनिक व्यभिचार के लिए ले जाया गया। इसके विरुद्ध सड़कों पर विरोध के लिए उतरी भीड़ पर पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली से दूरदर्शन के एक पत्रकार मारे गए। इस प्रकार स्त्री के प्रति जघन्यतम अमानवीयताएँ वहाँ दैनन्दिन जीवन का हिस्सा हैं।


भविष्य में दामिनी प्रकरण का क्या परिणाम होगा उसके अनुमान के लिए थोड़ा पीछे जाएँ। वर्ष 78’ में गीता और संजय चोपड़ा भाई-बहन के साथ हुई क्रूरता भी तत्कालीन समाज में बड़ी घटना थी, पर फिर धीरे-धीरे समाज उसका अभ्यस्त होता चला गया। कुछ भी नहीं बदला, अपराध उल्टा तब से अब अधिक बढ़े ही हैं। इसलिए शान्ति का तो निकट भविष्य में प्रश्न ही नहीं। कोई सरकार इस पर पूर्ण अंकुश नहीं लगा सकती क्योंकि जब तक जन-जन में स्वानुशासन और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था नहीं, संस्कार नहीं, तब तक डण्डे के ज़ोर पर समाज को बदलना सम्भव नहीं। हम भारत के लिए पिछड़े देशों जैसी न्याय-व्यवस्था की कामना नहीं कर सकते ।



अर्पिता : लोगों ने दण्ड कड़े करने, स्त्रियों को नियन्त्रण में रहने और वस्त्रों आदि की हिदायतें दी हैं। क्या वे ठीक हैं ?


कविता वाचक्नवी : हैवानियत से बचाव का उपाय सुझाना, संस्कारों के नाम पर पर्दे की वकालत, दण्ड-व्यवस्था के रूप में अरब आदि देशों के उदाहरण, कोई न कोई हल सुझाने की हड़बड़ी व अदूरदर्शिता आदि की बातें भारत को नष्ट करने के लिए बहुत काफी हैं । कोई हल न निकाल पाने की मजबूरी के चलते भारत को भी लीबिया या सीरिया जैसा देश नहीं ​बना दिया जा सकता । सब लोग मानो एक साजिश के तहत भारत को और हजार साल पीछे धकेलने वाले अमानवीय तरीकों को सुझावों और हल के रूप में देख रहे हैं। ​ऐ​से लोगों की ​आँखें ही नहीं खुलतीं कि यही सब जारी रहा और यही सब हल व तरीके ​यदि स्त्री-सुरक्षा के​ समाधान रहे तो भारत जल्दी ही बुर्के और घूँघटों ​वालियों का ऐसा देश बन जाएगा जहाँ ​पिछड़े​ देशों की तरह ​की दण्डप्रणाली लागू की जाए। समाधान के तरीकों पर बात करते समय इन खतरों से वाकिफ रहना बेहद जरूरी है। कोई समाधान या उदाहरण हजार साल पीछे व पिछड़े हुए देशों का नहीं अपनाया जा सकता....​। दूसरी ओर देश में बलात्कारों ​के लिए लड़कियों के रहन-सहन और वस्त्रों को लेकर हर बार की तरह बहस करने वाले लोग लड़कियों को ही दोष देने लग गए, मानो वे स्वयं बलात्कारियों को आमन्त्रित करती हैं।

जिन लोगों को स्त्री के वस्त्र और उसका खुले में घूमना या साँस लेना स्वीकार्य नहीं, वे वही लोग हैं जिन्हें अपने पर संयम नहीं। ऐसे असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें और ऐसे समय बाहर निकला करें जब संसार की हर औरत सो चुकी हो। या फिर बाहर निकला ही न करें। ऐसे असंयमी पशुओं को अपने असंयम के चलते मनुष्यों को दड़बे में बंद करने का कोई अधिकार नहीं। जंगली पशु को दड़बे/पिंजरे/सलाखों में बंद किया जाता है, न कि जंगली पशुओं से बचाए जाने वालों को।

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लड़कियों के वस्त्रों और शाम के बाद बाहर घूमने या पुरुष मित्र के साथ फिल्म देखने की आड़ में स्त्री को दोषी ठहराने व बंदी बनाने वाले कुतर्क करते हुए यह याद रखना अनिवार्य है कि दुनिया के सारे सभ्य देशों में महिलाएँ कई-कई बार पूरी रात भी बाहर रहती हैं, घूमती हैं, पार्टी करती हैं.... और तो और योरोपीय देशों में तो पुरुष मित्रों के साथ प्रगाढ़ चुम्बन लेती हैं, सार्वजनिक स्थलों पर लेटी भी मिलती हैं, कपड़े भी अत्याधुनिक व कई बार तो न्यूनतम पहनती हैं; अर्थात वह सब करती हैं, जो पुरुष या पूरा समाज सार्वजनिक रूप से करता / कर सकता है। परन्तु क्या उन सबके साथ इन कारणों और इन कुतर्कों का बहाना बना कर हरदम बलात्कार हुआ करते हैं ?

वस्तुतः यह स्त्रियों पर शासन करने की प्रवृत्ति ही तो बलात्कारी मानसिकता की जनक है। जो ऐसे दुष्कर्म करते हैं वे भी किसी के भाई और बेटे तो होते ही हैं, भले ही वे अपनी सगी बहनों से शारीरिक बलात्कार न करते हों, पर मानसिक, वैचारिक व भावनात्मक बलात्कार (बलपूर्वक किया गया कार्य)​ तो घरों में अपनी बहनों, पत्नी व माँ के साथ भी होते हैं। अपने घर की स्त्रियों से शुरू हुई इसी शासन की आदत से दूसरों की बेटियाँ इन्हीं भाइयों और बापों द्वारा मारी गई हैं... इन्हीं भाइयों और बापों की आधिपत्य लिप्सा और स्त्री को अपने सुख की वस्तु और लिप्सापूर्ति का साधन समझने की आदत के कारण स्त्रियों की दुर्दशा है।



और जब तक स्त्री पर शासन करने का संस्कार और मानसिकता आमूलचूल समाज से नहीं जाती तब तक स्त्री की सुरक्षा या बलात्कारों पर अंकुश या शान्ति जैसी कल्पनाएँ केवल कल्पनाएँ हैं, यथार्थ नहीं।


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अर्पिता शर्मा – आपकी आभारी हूँ कि साधारण से प्रश्नों में निहित भावों को भाँप कर आपने उनका समाधान करते हुए मुझे इतना समय दिया। अपनी ओर से व पत्रिका की ओर से आपका आभार व्यक्त करती हूँ।




डॉ कविता वाचक्नवी

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शिक्षा : एम.ए. हिंदी ( भाषा साहित्य )

प्रभाकर : हिंदी साहित्य एवं भाषा
शास्त्री- संस्कृत साहित्य
एम. फिल. - Sociolinguistics ( स्वर्णपदक) किसी भी भारतीयभाषा में उक्त सैद्धांतिकी पर पहला शोध

पी. एच. डी. - आधुनिक हिंदी कविता और आलोचना

भाषाज्ञान : पंजाबी ( मातृभाषा ), हिंदी,संस्कृत, मराठी, अंग्रेजी
प्रवास :  नार्वे, जर्मनी , थाईलैंड, यू. के., स्पेन

सम्मान
विदेश में हिंदी के उन्नयन एवं प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित तथा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "हिंदी विदेश प्रसार सम्मान" (2013 )
इंडियन हाईकमीशन द्वारा समग्र एवं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अवदान हेतु हरिवंश राय बच्चन के शताब्दी वर्ष पर स्थापित "हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार" (2014)

भारतीय उच्चायोग द्वारा हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ अवदान (2011 हेतु)   "आचार्य महावीर प्रसाद पत्रकारिता सम्मान"

http://vaagartha.blogspot.in/2008/07/blog-post_26.html


Friday, December 05, 2014

जीवित रहूंगी मैं - निर्मला ठाकुर की कविताएँ



निर्मला ठाकुर की कविताएँ    

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    जब फेसबुक पर सभी वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी निर्मला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे, स्त्रीवादी रचनाकार सुधा अरोड़ा ने निर्मला ठाकुर के बारे में यह लिखा था --
 सब उन्हें कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी के रूप में ही जानते हैं! बहुत कम लोग जानते हैं कि वे बहुत अच्छी कवयित्री और एक बेबाक समीक्षक भी थीं!  मेरी पहली किताब ''बगैर तराशे हुए'' की पहली समीक्षा उन्होंने ही लिखी थी -- श्रीपत राय सम्पादित ''कहानी'' पत्रिका में -- तब मुझे नहीं मालूम था कि वे दूधनाथ सिंह की पत्नी हैं ! 
बहुत स्नेही माँ और समर्पित पत्नी तो थीं ही! अक्सर अपने नामचीन पतियों के प्रभामंडल से तृप्त पत्नियां, अपने आप को गुमनामी के घेरे में आसानी से सरका देती हैं। निर्मला भाभी ने भी यही किया पर इधर उनका कवि मन बाहर आने को आकुल था। एक बार उन्होंने बताया कि एक हफ्ते में उन्होंने दस बारह कवितायेँ लिखीं। सन 2001 में कथादेश में जब मैंने मन्नू जी के बारे में एक टिप्पणी लिखी थी  ''कलाकार की पत्नी होना अंगारों भरी डगर पर नंगे पाँव चलना है !'' तो उन्होंने कहा - यह हम सब जानते हैं। 
फोन पर उनकी ममतामयी मीठी आवाज़ को भुला पाना मुश्किल है ! 

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    आज जब मध्यवर्ग के परिवारों की हम एक ऐसी पीढ़ी को देख रहे हैं जो घर से बगावत करके वहां की चहारदीवारी से बाहर निकल आई है और बाहर की दुनिया में अपने लिए जगह बना रही है , हम उस पिछली पीढ़ी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते जिसने नई पीढ़ी के लिए यह ज़मीन तैयार की ! वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी निर्मला ठाकुर अपने एकांत में अपनी व्यथा ऐसी कविताओं में रचती रहीं और किताब में छपवा कर चुप हो रहीं ! फेसबुक का एक बड़ा पाठकवर्ग इन रचनाओं से अनजान ही रहा ! फरगुदिया के पाठक पाठिकाएं पढ़ें और देखें कि सीधी सहज शब्दावली के भीतर छिपी परतों में आम औरत की कितनी गाथाएं छिपी हैं ! वरिष्ठ कवयित्री निर्मला ठाकुर को उन्हीं की पंक्तियों के पत्र- पुष्प समर्पित करते हुए यह श्रद्धांजलि !













मध्यमवर्गीय 
परिवार की औरत

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मैं कभी जी नहीं सकी

अपना जीना

बचपन में माँ ने सिखाया

ऐसे जियो

जैसे मैं कहती हूँ

पिता ने

जैसा मैं चाहता हूँ

भाई-

तुझे सबकी सुननी है

मैं सुनती रही सबका कहना

भाग-भागकर पूरी करना

सबकी मांग

पिता को चाय

तो भाई को कॉफ़ी

बहन को दूध की बोतल

तो माँ को पेट का चूरन

सब मर्ज़ की जैसे

मैं ही थी दवा

इन सबके बीच

चूल्हा - चक्की

माँ के बार -बार माँ बनने की त्रासदी में

अपने भाई-बहनों को

सहेजती 


होती गई मैं बड़ी

बीच-बीच

छत के नीरभ्र एकांत में

उड़ान भरते युवा सपने

मामूली थे वे

सपने

नौकरी की इक्षा

आत्मनिर्भरता की चाहत

ऐसा कुछ कर गुजरने की ख़्वाहिश

जो देता संतोष मुझे

और जीना की सार्थकता

देखते ही देखते

पीले हुए हाथ

भर मांग सिंदूर ले

मैं अब पूरी तरह अधिकार में थी

अपने पति - परमेश्वर के

गुलाम

बिन खरीदी

कौड़ियों के मोल ...

उसने कहा

भूल जाओ अपना वह घर बार

अब सब कुछ तुम्हारा

यहीं है

यही है असली घर- ठिकाना

जैसा मैं चाहूँ

उसी तरह जियो ...

देखते-देखते

भूल गई सपने

भूलने की कोशिश की तमाम बरस

जो थे मेरे अपने

भूल गई अपने लिए

जीना

धीरे -धीरे

उतर आई झुर्रियां

शरीर था

थकता गया

बेटा साधिकार बोला एक दिन

माँ, अब मैं हूँ

मेरी ही सुननी होगी बात

जैसा मैं कहूँ -

आह, किस-किस की सुनूँ मैं

जीवन भर सुना ही सूना तो

थक गई हूँ | बेहद

थकान - अथाह

आह, अब तो मांगती हूँ - दुआ

कि मेरे साथ जो हुआ

सो हुआ

पर अगली पीढ़ी की

कोई भी लड़की

कोई भी औरत

अपना जीवन जिए

और अगली सदी में

मेरी तरह

किसी की शर्तों पर
ना जिए |

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जीवित रहूंगी मैं
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जीवित रहूंगी मैं

अपने बच्चों में

बेटी बताएगी अपने बचपन की बातें

जब भी अपने बेटे से

जब

वहीं कहीं मैं भी हूंगी

उन चर्चाओं में

उन यादों में।


बेटियां कभी नहीं भूलतीं

अपनी मांओं को

उनके सुख-दुख को

क्योंकि बेटियां बनती हैं एक दिन

मेरी तरह एक

मां

और मांएं

नानी बन

सजीव हो जाती हैं

किस्से-कहानियों में

जीवित रहूंगी मैं।


संगम की धारा को जब भी देखेगा बेटा

मुझे क्या भूल पाएगा ?

जानती हूं


उसकी स्मृतियों में

मैं

संगम बन रहूंगी

जिसे समय-असमय

उम्र की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते

वह दुहराएगा जरूर।


कल मैं न रहूं

पर रहूंगी जीवित तब भी

उनकी धमनियों में

घुलमिलकर।






वक्त की धार

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कहां से कहां पहुंचा देती है

वक्त की यह धार

एक फूल की तरह खामोश

प्यार!

हवाएं के बीच सहेजने की कोशिश

बार-बार

टूटता जाता है मन का यह

तार

सांझ गिरती है

और उदास

रात चुपके से आती है

और-और

पास।




दाम्पत्य

 
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वे झगड़ते हैं


आपस में लगाते हैं

आरोप-प्रत्यारोप चीखते चिल्लाते हैं

अन्त में बदहवास

थककर

36 की संख्या में

सो जाते हैं(शायद)

लेकिन एक तस्वीर है

ड्राइंग रूम में

जहां वे अभी भी

एक दूसरे को तकते

मुस्कराते विभोर

63 की संख्या में मुखातिब है

कौन सी संख्या सच है

बताएंगे आप!



कोई भी चीज़
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कोई भी चीज़

बेअसर हो ही जाती है।

आख़िरकार

तुम भी।


दुखी होना न तुम्हारे वश में

था

न मेरे।

जीने के लिए

मरना तो पड़ता ही है।

एक न एक दिन

हर किसी को

राह निकालनी ही होती है

एक रोटी

एक घर।


प्रेम

या अविश्वास

कभी न कभी

हर चीज़ बदल जाती है।

तुम भी।

तुम तगड़े हो रहे हो

भविष्योन्मुख।

मैं घरेलू

आत्मोन्मुख।

क्योकि दुखी होना न तुम्हारे वश में था

न मेरे।




बिटिया
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फूलों-भरे पेड़ की डाली सी

मेरी बिटिया

हँसती है

होठों से

आँखों से

कपोलों के गहवर से

दूर दिगन्त तक उसकी हँसी फैलती है

और

मीठी खुशबू बिखेरती चली जाती है

इस कमरे, उस खिड़की

इस बिस्तर, उस कुर्सी

किताबें, फूलदान, मोमबत्ती

सब महक- महक उठतें हैं

आलोकित हो जातें हैं

वह हँसी

वह आँखें

कपोलों के नन्हे गहवर

मुझमें भरतें हैं जीवन

पुनर्जन्म इसी तरह होता है।







बेटे के लिए
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(1)

कहीं फूल के खिलने की एक मुद्रा

मुझे मुग्ध करती है

वह नन्हा- सा मुखड़ा

गुलाब है

जूही है

कुंदकली है

झर-झर झरता निर्झर है

मुझे आप्लावित करता

खिलखिल रोशनी है

अपनी नन्ही बाहों को फैलाता हुआ

यह एक जाड़े की मीठी धूप है

यह मेरी कविता है

मुझे ही रचती है

अनेको बार।

(2)

वह जो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में

संजोये हुए हैं- ढेर सारे सपने

अपने

माँ के, पिता के, भाई- बहन के

शुभ आशीर्वाद- सा

छाया रहता है घर के हर कोने में

वह उत्सव है

वह वसंत है

यह मौसम है

वह आकाश- यहां से वहाँ अनंत विस्तार में

सागर- तरंगित होता हुआ

दुनिया को हिला देने की ऊर्जा लिए

एक सार्थक लड़ाई के लिए सन्नद्ध

वह जागृति है

वह मशाल है

वह वर्तमान है।


जिन्दगी
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(1)

धीमे धीमे

सरकती जा रही यह

जिन्दगी

जाड़ों की धूप सी

प्यारी और प्यारी

लगती जा रही

यह जिन्दगी

लेकिन अजब है यह

कि बस

बन्द मुट्ठी में बंधी ज्यों रेत-सी

खिसकती जा रही

यह जिन्दगी।

(2)

जिन्दगी

स्वीट पी की खुशबू है

फैलती है यहां से वहां

आदिम चाह-सी

जिन्दगी जो खुला प्रांगण है

जिन्दगी जो

धूल, धूप, हवा

और पानी

गृहस्थी का उत्सव

और आंगन है

मात्र यही तो हर क्षण

धड़कनों का साक्षी

साथी है

फिर भी

अब, कहां

साथ छोड़ जाए

भरोसा नहीं

यह जिन्दगी।

(3)




बीतते जा रहे हैं

बरस पर बरस

रीतते जा रहे हैं

मौसम दर-मौसम

चुक जाएगा यह जीवन भी

एक दिन

एकाएक।


......यूं ही सोचते रह जाएंगे

अब करेंगे ऐसा कुछ

जाने कब से अपेक्षित था जो

ऐसा कुछ.........।




एक मनःस्थिति

 
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देखो तो


अब निहार सकती हूं

मैं आकाश का विस्तार

धरती का रूप

अकेली सड़क का मधुर एकान्त

सुन सकती हूं

झरते हुए पत्तों का

उदास, आत्मीय संगीत

नए पत्तों की लय

यह दुनिया कितनी खूबसूरत हो गई है

देखो तो

क्या से क्या हो गई हूं

मैं!


तुम्हारे जाने पर
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(1)
अच्छा हुआ तुम चले गए

अब कुछ सोच समझ सकती हूं

उन संवादहीन दिनों को

एक नाम दे सकती हूं

रिक्तता की खाई

मौन से भर सकती हूं।


चलो, तुम छोड़ गए

गहरे पानी में

(कोई बात नहीं)


(2)
कहीं कुछ नहीं होता

और बहुत कुछ घटता

काटता चलता है

अंधकार में

लहरों के उत्थान-पतन में

अरारों का गिरना

किसने जाना ?

-जिसने बांधा

वही

फिर-फिर उसी का टूटना

किसने तब जाना

घहरा कर

दम तोड़ना

एक नाटक

बिना मंच, बिना संयोजन के

होता है

मैं पात्र हूं (पर कहां हूं)

मेरे इर्द-गिर्द जो है

जो कुछ हो रहा है

वहां तो नहीं हूं

किन-किन व्यथाओं में

अभिभूत

उदास और रिक्त

और-

नामहीन हूं।

(3)

हंसी आती है अब प्रेम-प्रदर्शन पर

और विश्वास की बात

उदास कर जाती है

खुशियां हर बार

आहत हो

मौन के द्वार

टूट गिरती हैं।


राग जो अपना है

धुंध में डूबा है

वसन्त का अन्त

समझ में आता है।










Wednesday, October 01, 2014

उधड़ा हुआ स्वेटर -सुधा अरोड़ा



कहानी

उधड़ा हुआ स्वेटर


 - सुधा अरोड़ा

कहानी
उधड़ा हुआ स्वेटर                                
                                                                                                                                                            0 सुधा अरोड़ा 
  
यों तो उस पार्क को लवर्स पार्क कहा जाता था पर उसमें टहलने वाले ज्यादातर लोगों की गिनती वरिष्ठ नागरिकों में की जा सकती थी. युवाओं में अलस्सुबह उठने, जूते के तस्मे बाँधने और दौड़ लगाने का न धीरज था, न जरूरत. वे शाम के वक्त इस अभिजात इलाके के पंचसितारा जिम में पाए जाते थे- ट्रेडमिल पर हाँफ-हाँफ कर पसीना बहाते हुए और बाद में बेशकीमती तौलियों से रगड़-रगड़ कर चेहरे को चमकाते और खूबसूरत लंबे गिलासों में गाजर-चुकन्दर का महँगा जूस पीते हुए. लवर्स पार्क इनके दादा-दादियों से आबाद रहता था.
सुबह-सबेरे जब सूरज अपनी ललाई छोड़कर गुलाबी चमक ले रहा होता, छरहरी-सी दिखती एक अधेड़ औरत अपनी बिल्डिंग के गेट से इस पार्क में दाखिल होती, चार-पाँच चक्कर लगाती और बैठ जाती. अकेली. बेंच पर. वह बेंच जैसे खास उसके लिए रिज़र्व थी. तीन ओर छोटे पेड़ों का झुरमुट और सामने बच्चों का स्लाइड और झूला, जिसके इर्द-गिर्द जापानी मिट्टी के रंगबिरंगे सैंड पिट खाँचे बने थे; जहाँ बच्चे अगर स्लाइड से गिर भी जाएँ तो उनकी कुहनियाँ और घुटने न छिलें. यह बेंच उसने अपने लिए क्यों चुनी थी, वह खुद भी नहीं जानती थी. शायद इसलिए कि यह बेंच सैर करने आने वाले बाशिंदों के रास्ते में नहीं पड़ती थी और वह इत्मीनान से सैर पूरी करने के बाद घुटने मोड़कर प्राणायाम की मुद्रा पर आ सकती थी और भ्रामरी प्राणायाम का ओssम् करते वक्त भी सैर करते लोगों की बातचीत उसकी एकाग्रता में खलल नहीं डालती.
तीन महीनों से लगभग रोज़ ही वह इस वक्त तक बेंच पर अपना आसन जमा चुकती थी. उस दिन आँखें मूँदे हुए लंबी साँस भीतर खींचते अचानक जब उसने हाथ बदला तो पाया कि दाहिनी हथेली की मध्यमा उँगली लॉक हो गई है. अक्सर ऐसा हो जाता था. उसने आँखें खोलीं और बाईं उँगलियों से उस उँगली को थोड़ा नरमाई से घुमाया तो देखा उसके सामने की रोशनी को एक सफेद आकार ने ढक लिया था. झक सफेद कुरता-पायजामा पहने वह बूढ़ा किसी साबुन कम्पनी की सफेदी का इश्तहार मालूम होता था. दोनों कनपटियों पर बस नाम भर को थोड़े से सफेद बाल. आर.के.लक्ष्मण के कार्टून के काले बालों पर सफेदी फिरा दी हो जैसे.   
‘‘सॉरी, लेकिन इट्स नॉट द राइट वे टु डू प्राणायाम.’’ बूढ़े ने अंग्रेजी में कहा तो औरत की तंद्रा टूटी. उसने समझा कि बूढ़ा उससे कुछ कहना चाहता है.
‘‘प्लीज़ कम दिस साइड!’’ औरत ने अपनी उँगलियों को बाएँ कान की ओर ले जाकर इशारे से बताया कि सुनाई नहीं दे रहा, वे दाहिनी ओर आकर बताएँ.
थोड़ा खिसक कर बेंच पर खाली जगह पर बूढ़ा दाहिनी ओर बैठते ही बोला- ‘‘मैं रोज तुम्हें देखता हूँ, आज अपने को रोक नहीं पाया! उँगलियों की मुद्रा ऐसी होनी चाहिए...’’ बूढ़े ने तर्जनी और अँगूठे का कोण मिलाकर बताया.
‘‘ओह अच्छा! शुक्रिया!’’ औरत ने तर्जनी और अँगूठे का कोण मिलाया- ‘‘अब ठीक है?’’
‘‘यस! गुड गर्ल!’’ बूढ़े ने उसकी पीठ थपथपाई, जैसे किसी बच्चे को शाबाशी दे रहा हो. फिर उठने को हुआ कि तब तक फिर औरत की उँगली ने ऐंठ कर दोबारा अपने को बंद कर लिया- ‘‘ओह! यह फिर लॉक हो गई... डबल लॉक!’’
‘‘मेरी भी हो जाती थी.’’ उठते-उठते बूढ़ा फिर बैठ गया- ‘‘....कम्प्यूटर पर हर दस-बीस मिनट बाद उँगलियों को हिलाते-डुलाते रहना चाहिए. यह मॉडर्न टेक्नोलॉजी की दी हुई बीमारियाँ हैं.’’ बूढ़ा हँसा- ‘‘आर यू वर्किंग?’’
‘‘नहीं, ऐसे ही घर पर थोड़ा काम करती हूँ. लैपटॉप पर!’’ औरत ने दोबारा उँगली को आहिस्ता से खोला.
‘‘टेक केयर! ....सॉरी, तुम्हें डिस्टर्ब किया! ....चलूँ, मैंने राउंड नहीं लगाए अभी. आर यू ऑलराइट नाउ? सी यू.....!’’ बूढ़ा अपनी उम्र से ज़्यादा तेज़ चाल में सैर वाले रास्ते पर निकल गया.

अगले दिन फिर प्राणायाम करते-करते औरत की आँख खुली तो बूढ़ा सामने था. ओफ, यह पता नहीं कब से खड़ा है! औरत झेंपी, फिर सरक कर दाहिनी ओर जगह बनाई.  
‘‘और....पीठ ऐसे सीधी रखो.’’ बूढ़े ने जैसे ही उसके कंधों को अपने हाथों के दबाव से पीछे किया पीठ पर दर्द की चिलक-सी उठी.
‘‘ssह!’’ उसके मुँह से आवाज़ निकली. बूढ़ा जबरदस्ती उसके योग शिक्षक की भूमिका में आ रहा है, वह खीझी.
‘‘ओह सॉरी, सॉरी! स्पॉन्डिलॉसिस है या....? बूढ़ा हँसा, जैसे उसके पीठदर्द का मखौल उड़ा रहा हो- ‘‘क्या क्या है तुम्हें इतनी सी उम्र में?’’
‘‘कुछ खास नहीं, कभी-कभी दर्द उठ जाता है!’’ औरत ने काँपते होंठों से कहा.
‘‘व्हेन ब्रेन कांट होल्ड एनी मोर स्ट्रेस इट रिलीजे़ज़ स्पाज़्म टु द बैक (जब दिमाग़ अतिरिक्त तनाव को झेल नहीं पाता तो उस जकड़न को नीचे पीठ की तरफ सरका देता है)... तब आपकी गर्दन और आपके कंधे अकड़ जाते हैं और दुखने लगते हैं. आप कंधे का इलाज करते चले जाते हैं, जबकि इलाज कंधे की जकड़न का नहीं दिमाग़ में जमकर बैठे तनाव का होना चाहिए.’’ बूढ़ा रुक-रुक कर बोला.
‘‘हूँ.’’ औरत भौंचक-सी उसे देखने लगी. यह सब इसने कैसे जाना. क्या मेरे चेहरे पर तनाव लिखा है?
औरत ने एक चौड़ी-सी मुस्कान चेहरे पर जबरन सजाकर कहा- ‘‘चेखव कहते थे....चेखव...नाम सुना है?’’
‘‘हाँ-हाँ, द ग्रेट रशियन राइटर!... क्या कहते थे?’’
‘‘डॉक्टर थे न, डायरिया के लिए कहते थे- योर स्टमक वीप्स फॉर यू..... मन उदास और बेचैन होता है तो पेट सिम्पथी में रोने लगता है.’’
‘‘ग्रेट! सच है! ...पता है, अगर बहुत नेगेटिव फीलिंग्स एक-दूसरे को ओवरटेक कर रही हों और आप उन्हें हैंडल न कर पाएँ तो एग्ज़ीमा हो जाता है....आपका स्किन बता देता है कि रुको, इतना काम-क्रोध ज़रूरी नहीं. ....और अंदर ही अंदर गुस्सा-नफरत दबाए चलो तो पाइल्स, अल्सर, ब्रेनस्ट्रोक न जाने क्या-क्या हो जाता है. सप्रेशन इज़ द रूट कॉज़ ऑफ़ ऑल सिकनेस. एंग्री पाइल्स . एग्रेसिव अल्सर . तो इलाज की ज़रूरत तो इसको है …. इसको.’’ बूढ़े ने चलते-चलते दिमाग़ को दो उँगलियों से ठकठकाया. 
औरत ने बताने की एक फ़िज़ूल-सी कोशिश की कि वह तो ठीक है, और ऐसा कुछ नहीं... पीठ और कंधों पर तो अक्सर दर्द उठ ही जाया करता है.
‘‘सॉरी, मैं बिना माँगे ज्ञान दे रहा हूँ!’’ बूढ़े ने कहा और झेंप गया.
‘‘ठीक है,’’ औरत ने अपनी मुस्कान समेटकर हाथ उठा दिया- ‘‘बाय!’’
‘‘सॉरी अगेन- कंधा दुखाने के लिए!’’
‘‘नहीं, कोई बात नहीं. नत्थिंग सीरियस.’’

अगले दिन वह औरत जब पार्क के अपने पाँच चक्कर पूरे कर बेंच पर पहुँची तो बूढ़ा पहले से बेंच पर बैठा था. उसको देखकर उसने सरककर जगह बना दी. औरत ने कहा- ‘‘नहीं आप बैठें, मैं दूसरी जगह बैठ जाती हूँ.’’
‘‘अरे, मैं तुम्हें प्राणायाम के सही पोस्चर सिखाने के लिए बैठा हूँ, और तुम... नहीं सीखना चाहतीं तो कोई बात नहीं.’’
‘‘अच्छा तो आप इस तरफ बैठ जाएँ, मुझे बाएँ कान से सुनाई नहीं देता, इसलिए...’’
‘‘अच्छा...? ओह!’’ बूढ़े ने सरक कर अपने बाईं ओर जगह बना दी.
उसके बैठते ही बूढ़े ने कहा- ‘‘उँगलियों में, कंधे में, अब कान में भी कुछ प्रॉब्लम है? इतनी कम उम्र में .....क्या उम्र है तुम्हारी? आय नो, औरतों से उम्र नहीं पूछते, फिर भी....’’
‘‘पैंसठ!’’
‘‘कितनी...?’’ बूढ़ा चौंक कर बोला, जैसे उसने ठीक से सुना नहीं.
‘‘सिक्स्टी फाइव!’’ औरत ने दोहराया और कान की ओर इशारा किया- ‘‘क्या आपको भी...? ’’                वाक्य पूरा करते-करते उसने बीच में ही रोक लिया.
‘‘नहीं-नहीं, आय ऐम परफेक्ट. मुझे दोनों कानों से सुनाई देता है. तुम....आप....आप तो लगती ही नहीं...’’
‘‘नहीं, तुम ही कहिए, तुम ठीक है! आप मुझसे बड़े हैं.’’
‘‘हाँ, सिर्फ चार साल!....लेकिन आप पचास से ऊपर की नहीं लगतीं, बिलीव मी!’’
‘‘उससे क्या फर्क पड़ता है!’’
बूढ़े ने बात बदल दी- ‘‘अच्छा आप रहती कहाँ हैं?’’
‘‘यहीं सामने..’’ उसने अपनी बिल्डिंग की ओर इशारा किया.
‘‘मैं इसमें, बगल वाली बिल्डिंग में.... आप कौन से माले पर....?’’
‘‘इक्कीसवें.’’
‘‘अरे स्ट्रेंज! मैं भी वहाँ इक्कीसवें पर.... फ्लैट नं?’’
‘‘इक्कीस सौ दो!’’
‘‘डोंट टेल मी. मेरे बेटे का भी फ्लैट नंबर- इक्कीस सौ दो... और इंटरकॉम?’’
‘‘स्टार नाइन सेवन टू वन टू!’’ औरत ने मुस्कुराकर कहा- ‘‘अब ये मत कहिएगा कि फोन नंबर भी वही है!’’
‘‘अनबिलीवेबल! बस एक डिजिट का फर्क है- थ्री वन टू! ....याद रखना कितना आसान है न!’’
‘‘आपका नाम जान सकता हूँ?’’
‘‘शिवा!’’ औरत ने ऐसे कहा जैसे नाम बताने को तैयार ही बैठी थी.
‘‘शिवा मीडियम?’’ बूढ़ा हँसा. 
‘‘वो क्या है?’’
‘‘नहीं, स्मॉल-मीडियम-लार्ज वाला नहीं... शिवा मीडियम फॉन्ट. मेरी पोती हिंदी सीरियल्स में स्क्रिप्टराइटर है. हिंदी में संवाद लिखने के लिए यह फॉन्ट इस्तेमाल करती है.’’
‘‘ अच्छा, हिंदी के बारे में मेरी इतनी जानकारी नहीं!’’ औरत फीकी हँसी हँसकर बोली- ‘‘आपका नाम...?’’
‘‘ मैं आशीष कुमार. शॉर्ट फॉर्म- ए.के ! सब ए.के. ही बुलाते हैं. मेरा बेटा अनिरुद्ध कुमार. उसे भी उसके दफ्तर में ए.के. ही कहा जाता है. मेरे बंगाली दोस्त मज़ाक में कहते हैं- एई के? मतलब कौन है यह? मेरे दो पोते एक पोती हैं. इक्कीसवें फ्लोर के दो फ्लैट्स को एक कर बड़ा कर लिया है. फिर भी बच्चों को छोटा लगता है. हरेक को अपने लिए अलग कमरा चाहिए. यहाँ तक कि कामवाली को भी. क्या खूब मुंबई के नक्शे हैं....! अच्छा, आपके घर में कौन-कौन हैं?’’
यह बातूनी बूढ़ा उसके बारे में इतना क्यों जानना चाह रहा है? इसके घर में इतने सदस्य कम हैं क्या?
‘‘नहीं बताना चाहें तो कोई बात नहीं.... मैंने तो ऐसे ही पूछ लिया.’’
‘‘मेरी दो बेटियां हैं ! बड़ी यू.एस.- न्यू जर्सी में है . छोटी मेरे साथ है यहां . दोनों जॉब करती हैं.’’
 ‘‘और आपके पति?’’
‘‘हैं...’’ वह कुछ अटकी, फिर बोली- ‘‘पर नहीं हैं.’’
‘‘मतलब?’’
‘‘वह मेरे साथ नहीं....’’
‘‘ओह!’’ बूढ़े ने अकबकाकर सिर हिलाया- हैरानी में और उससे ज्यादा घबराहट में. यह औरत झूठ भी तो बोल सकती थी. लेकिन सच है, उसने सोचा, ऐसे खुलासे अजनबियों के सामने यकायक हो उठते हैं.
आप जो प्राणायाम करती हैं न उसमें एक एडीशन करता हूँ.’’ बूढ़े ने ऐसे इत्मीनान से कहा जैसे औरत के अपनी ज़िंदगी के खुलासे को उसने तवज्जो दी ही नहीं. ‘‘देखिये, ssम् तो आप करती ही हैं, उसके पहले का हरी ई ई ई ..... खींचकर उसी अंदाज़ में करिए! इससे वायब्रेशंस यहाँ ब्रह्मतालू पर होते हैं जहाँ छोटे बच्चों के सिर पर टप-टप होती देखी होगी, वहाँ! ओssम् से तो कनपटियों के पास-  दिमाग़ के दाईं बाईं ओर की नसें रिलैक्स होती हैं, पर इन दोनों से तो पूरा दिमाग़- आपका ब्रह्मांडरिफ्रेश हो जाता है बिल्कुल !’’
‘‘आप योग प्रशिक्षक हैं या यह आपका इन्वेंशन है?’’ शिवा उसके बयान का अंदाज़ देखकर हल्की हो आई, जैसे किसी साथ चलते ने रास्ते के उस पत्थर को, जिससे टकराकर वह गिरने ही वाली थी, हटाकर रास्ते को साफ और सुरक्षित कर दिया हो.
‘‘थैंक्यू सो मच. कल से इसे भी करूँगी.’’
‘‘ओके. चलूँ मैं अब?’’
बूढ़े ने ऐसे पूछा जैसे उसके नहीं कहने से वह कुछ और प्राणायाम विधियाँ बताने के लिए रुक जाएगा.
शिवा ने हाथ जोड़ कर एक बार और थैंक्यू कहा. उसके थैंक्यू में आप चलें अब का सौजन्य संकेत भले ही शामिल था, पर उसने पाया कि वह काफी देर तक उसे जाता हुआ देखती रही --  जब तक बूढ़े की  आकृति घुमावदार रास्ते का मोड़ लेकर आँख से ओझल नहीं हो गई.
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घर लौटकर आज शिवा ने व्हाइट सॉस में ब्रोकोली बनाई और बनाते हुए सोचती रही कि शायद साल भर हो गया इसे बनाए. वही हुआ . छोटी बिटिया काम से लौटी और जैसे ही खाना मेज़ पर देखा, बोली- ‘‘वाऊ! आज क्या है मॉम, किसी का बर्थ डे है?’’ फिर सिर खुजाते हुए याद करने लगी– ‘‘मुझे तो याद नहीं आ रहा.’’ 
‘‘नहीं रे. ऐसे ही मन हुआ बनाने का!’’ शिवा ने झेंपते हुए कहा. बेटी ने फुर्सत से उँगलियाँ चाटने की आवाज़ को भी नहीं रोका, एटीकेट्स के चलते खाने की मेज़ पर जिसकी मनाही थी. खिली हुई मुस्कान के साथ बोली- ‘‘तो मन से कहो कभी-कभी ऐसा हो जाया करे.’’
शिवा मंद-मंद मुस्कराती रही. बेटी कितना खयाल रखती है उसका. ऑफ़िस के टेंशन कभी उससे शेअर नहीं करती. अपनी दोस्तों से जब फोन पर बात करती है तभी उसके जॉब के तनाव उस तक पहुँचते हैं. जब-तब छुट्टी के दिन किसी अच्छी फ़िल्म की दो टिकटें ले आती है और अपनी दोस्तों के साथ न जाकर अपनी माँ के साथ एक वीकएंड बिताती है. और वह है कि बरसों इस इंतज़ार में रही कि बेटी का किसी से अफेयर हो जाए तो कम से कम इसकी शादी तो वह भर आँख देख ले. एक लड़का उसे पसंद आया भी, पर जब तक शिवा उसे पसंद कर अपने घर का हिस्सा बनाने को तैयार हुई वह लड़का बेटी की ही एक दोस्त पर रीझ बैठा और बेटी को पैरों के एग्ज़ीमा का महीनों इलाज करवाना पड़ा. शिवा ने बेटी की शादी के सुनहरे सपनों से तौबा कर ली और खाली वक्त में दोनों माँ-बेटी स्क्रैबल खेल कर या सुडोकू के खाने भर कर संतुष्ट होती रहीं. तब से जिंदगी एक व्यवस्थित पटरी पर चल रही थी.
सुबह बेटी के टिफिन में गाजर के पराँठे के साथ लहसुन का अचार रखना शिवा नहीं भूली और बेटी ने रात की ब्रोकोली के एवज में गले में बाँहें डालकर विदा ली- ‘‘आज भी कल की तरह कुछ डैशिंग बना लेना मॉम! मूड न हो तो मैं चायनीज़ लेती आऊँगी. जस्ट गिव मी अ टिंकल!’’ शिवा की मुस्कान आँखों की कोरों तक खिंच गई.
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बेटी को भेजकर उसने पार्क का रुख किया. अपनी उसी बेंच पर सैर के चक्कर पूरे करने के बाद वह बैठी थी. पाँच-दस मिनट वह राह तकती रही, फिर दूर से बूढ़ा आता हुआ दिखा. झक सफेद कुरता-पाजामा पास आकर ठिठक गया. उसने मुस्कुराकर देखा तो वह बेंच की एक ओर बैठ गया, लेकिन बैठते ही उठ कर दूसरी ओर जाते बोला- ‘‘ओह, मैं भूल गया था कि आपको इस कान से सुनाई नहीं देता.... मेरी वाइफ़ भी एक कान से थोड़ा कम सुनती...’’
शिवा सकते में आ गई- क्या?  उसे झटका लगा- जैसे कोई उसके दिमाग़ की सारी शिराओं को अस्तव्यस्त कर रहा था- ‘‘क्या आप....?’’
बूढ़ा अटका- ‘‘अरे नहीं-नहीं, आप गलत सोच रही हैं, मैंने उस पर कभी हाथ नहीं.... मैं तो....’’
शिवा ने सूखी आवाज़ में अटपटाकर पूछा- ‘‘तो फिर आपको कैसे मालूम कि हाथ उठाने से कान का पर्दा फट जाता है?’’
बूढ़े ने गला खँखारा- ‘‘मेरी वाइफ़ एक एनजीओ में मदद करने जाती थी. बताती थी कि डोमेस्टिक वायलेंस की शिकार अस्सी प्रतिशत औरतों के कान के पर्दे फटे होते हैं. लेकिन उसे हियरिंग की प्रॉब्लम थी. उसने हियरिंग एड लगा रखा था.’’
शिवा ने सशंकित निगाहों से बूढ़े को आर-पार देखा. वह जैसे आश्वस्त नहीं थी- ‘‘यहाँ...? किस एनजीओ में?’’
‘‘नहीं नहीं, हम मुंबई में नहीं रहते.’’
शिवा की आवाज़ में थकन थी- ‘‘नए आए हैं इस इलाके में?’’ 
‘‘नहीं, पहले भी आ चुके हैं कई बार. बेटा यहाँ रहता है. हम तो आसनसोल रहते हैं.....रहते थे. माय वाइफ पास्ड अवे....छह महीने पहले.’’ बूढ़ा बोलते-बोलते रुका और उसने आँखें झुका लीं. झुकाने से ज़्यादा फेर लीं कि आँखों की नमी कोई देख न ले.
‘‘ओह सॉरी!... सॉरी!’’  
‘‘.....तो बेटा जिद करके अपने साथ ले आया- पापा अकेले कैसे रहेंगे. यहाँ पोते-पोतियाँ, नौकर-चाकर, ड्राइवर-माली सब हैं. चहल-पहल है. पर....’’
‘‘आपकी वाइफ....बीमार थीं?’’
‘‘बस दस दिन. ....कभी बताया ही नहीं उसने कि तकलीफ है उसे कहीं. डॉक्टर के पास जाने को तैयार ही नहीं थी. अपनी डॉक्टर खुद थी वो. खुद ही आयुर्वेदिक-होमियोपैथिक खाती रहती थी. चूरन चाटती रहती थी. जिस दिन उल्टी में खून के थक्के निकले उस दिन बताया. लास्ट स्टेज में बीमारी डिटेक्ट हुई. उसने कभी शिकायत ही नहीं की. पता ही नहीं चला कि कैंसर पूरे पेट से होता हुआ लंग्स तक पहुँच गया है. उसके माँ-बाबा दोनों कैंसर से गुज़र गए थे. जब कैंसर डिटेक्ट हो गया तो कहती थी- आशी, मुझे ज्यादा याद मत करना, नहीं तो वहाँ भी चैन से रह नहीं पाऊँगी. बिंदा मुझे आशी कहती थी.’’
‘‘आशी!’’ बूढ़े ने बिंदा की आवाज़ को याद करते अपने को पुकारा. पुकार के साथ ही चेहरे पर गहराते बादलों की धूसर छाया पसर गई- ‘‘हमेशा कहती थी कि मैं धीरे-धीरे मरना नहीं चाहती, बस चलती-फिरती उठ जाऊँ आपके कंधों पर.... वही हुआ. मेरे साथ वॉक करते-करते अचानक लड़खड़ा गई. मैंने बाँहों का सहारा दिया तो मेरी ओर ताकते एक हिचकी ली और बस. सब कहते हैं ऐसी मौत संतों को आती है.... पर जाने वाला चला जाता है, पीछे छूट जाने वालों के लिए ऐसी विदाई को झेलना आसान होता है क्या?’’  कहते हुए बूढ़े के चेहरे पर स्मृतियों में डूब जाने की जो रेखाएँ उभरीं संवाद वहाँ से आगे नहीं जा सकता था. चुप्पी में ही बग़ैर हाथ हिलाए विदा की मुद्रा में बूढ़ा उठा और चल दिया.
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शिवा घर पहुँची तो साढ़े दस बज चुके थे. बातों-बातों में वह भूल ही गई थी कि शनिवार की सुबह बड़ी बिटिया न्यू जर्सी से फोन मिलाती है. शुक्रवार रात को वह फुर्सत से बात करती है क्योंकि शनिवार उसे काम पर जाना नहीं होता. जब फोन की लंबी-सी घंटी बजी तो उसे वार याद आ गया. फोन उसने लपक कर उठाया. उधर से खीझी हुई आवाज़ थी- ‘‘क्या माँ, फोन क्यों नहीं उठा रही हो?’’ शिवा ने अटकते हुए कहा- ‘‘आज ज़रा पार्क में देर हो गई.’’ उधर से सुरीले सुर में डाँट-डपट थी- ‘‘कितनी बार कहा है माँ, मोबाइल लेकर जाया करो.’’ मॉम से माँ बनी शिवा ने इतराकर कहा- ‘‘अपना वज़न उठा लूँ वही बहुत है.’’                                                                                               ‘‘शरीर का तो नहीं पर दिमाग में ज़रूर वज़न ज़रूरत से ज़्यादा है ! उसका ख्याल रखो ! ’’ उसके बाद आदतन उसने सारी दवाइयों के लिए पूछा- ‘‘कैल्शियम ले रही हो रेगुलर, या भूल जाती हो?’’ यह बेटी अब उसकी माँ के रोल में आ गई है. जैसे स्कूल से लौटे हुए बच्चे का कान पकड़ कर माँ पूरे दिन का ब्यौरा पूछती है कुछ-कुछ उसी अंदाज़ में यह उसकी खुराक, दवाइयों, मालिश और व्यायाम के बारे में दरियाफ्त करती है. खासियत यह कि फोन पर उसकी आवाज़ भर से वह पहचान जाती है कि माँ झूठ बोल रही है और दवा अक्सर भूल जाती है. उससे झूठ बोला ही नहीं जा सकता.
बेटी ने हाल में एक हिंदी फिल्म देखी थी जिसके बारे में बताती रही. बात के बीच में एकाएक उसने टोका- ‘‘अँ अँ..... कहाँ हो आप? डिस्ट्रैक्टेड क्यों हो? ध्यान कहाँ है?’’ फोन पर जैसे आईना लगा हो. सही वक्त पर माँ के हुंकारा न भरने पर दो सेकेंड मे बेटी पहचान जाती थी कि माँ कुछ और सोच रही है. देर तक दोनों फिल्म के बारे में बात करते रहे. फोन रखते हुए उसने पूछा- ‘‘और मैक कहाँ है?’’
‘‘कहाँ होगा भला- अपने रिहर्सल पर गया है.’’
‘‘आए तो उसे मेरा प्यार देना.’’ शिवा ने कहा.
बेटी एकाएक चहकी- ‘‘ओह, आप सुधर गई हो माँ. एकदम सेन वॉयस. नॉट सिनिकल एनी मोर.’’
शिवा मुस्कुराई. बहुत डाँट खाई है उसने मैक को लेकर. माँ, आप ऐसे नाम लेती हो उसका जैसे आपका बड़ा लाड़ला दामाद है. और हो भी तो लाड़ को अपने तक रखो. ही इज़ नॉट माय हस्बैंड. और होने का कोई चांस भी नहीं है. ही इज़ अ गुड फ्रेंड. वो हमेशा रहेगा. लेकिन शिवा तो शिवा. कोंचती रही- इतने सालों से साथ हो, कितना आजमाओगे एक-दूसरे को, अब तो शादी कर लो. एकबार तो बेटी ने तल्खी से कह दिया था- शादी करके अपना हाल देख-देख कर जी नहीं भरा अभी जो अपनी बेटी को शादी की सलाह दे रही हो.  आज वही बेटी चहक कर बोल रही थी- ‘‘लव यू माँ. जाओ नाश्ता करो. मुझे भी बहुत नींद आ रही है. अब सोऊँगी. यू हैव अ नाइस डे.’’ 
शाम को छोटी बेटी चाइनीज़ खाने का पार्सल लेती हुए आई. शिवा की पसंद के मोमोज़ और उसकी अपनी पसंद का वेज हक्का और पनीर मंच्यूरिअन.
एक बेटी माँ कहती है दूसरी मॉम, और दोनों उस पर जान छिड़कती हैं. फिर भी शिवा बादलों के साये से बाहर नहीं आ पाती. बीता हुआ वक्त सामने अड़कर खड़ा हो जाता है. शिवा ने चाहा आज वह खुलकर मुस्कुरा ले. थैंक्यू - उसने बेटी का माथा चूमा और कमरे में सोने चली गई.
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अगले रोज वह पार्क में गई तो बूढ़ा नियत जगह पर पहले से ही बैठा था. शिवा पास गई तो वह एक ओर सरक कर उसके बैठने की जगह बनाने लगा. शिवा ने कहा- ‘‘पहले चक्कर लगा आऊँ.’’
‘‘आज रिवर्स कर लो. पहले बेंच, फिर सैर!’’
शिवा कुछ अनमनी-सी जैसे उसके इंगित से परिचालित हो बैठ गई. बूढ़े ने अपनी जेब में हाथ डाला, अपना वॉलेट निकाला और उसे ऐसे खोला जैसे बंद फूलों की पंखुड़ियाँ खोल रहा हो- ‘‘देखो, यह है मेरी वाइफ़- बिंदा!’’
शिवा ने देखा, सफेद-सलेटी बालों में एक खूबसूरत-सी औरत की तस्वीर. उसके चेहरे के पीछे के बैकग्राउंड से जितने फूल झाँक रहे थे उससे कहीं ज़्यादा उसके चेहरे पर खिले थे. बूढ़े ने सफ़ेद प्लास्टिक पर चढ़ी धूल की महीन-सी परत को उँगलियों से ऐसे पोंछा जैसे अपनी बिंदा के माथे पर आए बालों को लाड़ से पीछे सरका रहा हो.
‘‘बहुत खूबसूरत है!’’ शिवा ने कहा और अपने भीतर एक टीस को महसूस किया. फिर तस्वीर धुँधली हो गई और जाने कैसे उस साफ़ चौकोर प्लास्टिक शीट के नीचे उसने अपना अक्स देखा जो नीचे से झाँकने की कोशिश कर रहा था. पर आँखों की नमी जैसे ही छँटी- वहां बिंदा थी, अपने भरे-पुरे अहसास के साथ! मटमैली-सी शिवा उसके सामने खड़ी थी.
‘‘सुंदर है न?’’ बूढ़े ने फिर पूछा और इस बार धूल-पुँछी तस्वीर को निहारता रहा. 
‘‘बहुत!’’ शिवा होंठों को खींचकर मुस्कुराई और अपने में सिमट गई.
शुरू जनवरी की ठंडक हवा में थी. सुबह और रात को एक हल्के से स्वेटर के लायक. बूढ़े ने भी आज एक स्वेटर पहन रखा था. झक सफेद कुरता और क्रीज़ किया हुआ सफेद पायजामा. लेकिन स्वेटर जैसे किसी पुराने गोदाम से धूल झाड़कर निकाला हो. नीचे के बॉर्डर में कुछ फंदे गिरे हुए और फंदों के बीच से बिसूरता दिखता छेद. यह स्वेटर किसी भी तरह बूढ़े की पूरी पोशाक से मेल नहीं खा रहा था.
शिवा सैर और प्राणायाम निबटा कर अपनी बेंच पर आ जमी. बूढ़ा आकर पास खड़ा हो गया.
‘‘बैठने की इजाज़त है या...?’’
‘‘आइये न!’’ शिवा बेंच पर थोड़ा सरक गई. बूढ़े के बैठते ही उसकी निगाह स्वेटर पर गई.
‘‘उधड़ गया है...यह स्वेटर.’’ शिवा ने झिझकते हुए कहा.
‘‘हाँ, बहुत पुराना है. एंटीक पीस!’’
‘‘इसको ठीक क्यों नहीं करवा लेते! एक फंदा गिर जाए तो फंदे उधड़ते चले जाते हैं.’’                         कहकर अपने ही जुमले ने उसे उदास कर दिया .
‘‘ऐसे ही ठीक है यह.’’ बूढ़े ने उधड़ी हुई जगह पर अपनी पतली-पतली उँगलियाँ ऐसे फेरीं जैसे किसी घाव को सहला रहा हो.
‘‘किसने बुना? आपकी...?’’
‘‘हाँ, मेरी वाइफ़ बिंदा ने बिना था यह स्वेटर मेरे लिए.... शादी के बाद. बाद में बेटे-बेटियों, नाती-पोतों के लिए स्वेटर बिनती रही. इस बार सर्दियाँ आने से पहले गरम कपड़ों का ट्रंक खोला तो यह हाथ आ गया. कितना सुंदर डिज़ाइन है न!’’ बूढ़े ने जैसे अपने आप से कहा.
‘‘हूँ.’’ शिवा बस सिर हिलाकर और मुस्कुरा कर रह गई. कह नहीं पाई कि आखिर आपकी बिंदा की उँगलियों ने बुना है,  सुंदर तो होगा ही!
‘‘मेरी बिंदा मुझसे दो साल बड़ी थी, पर कोई कह नहीं सकता था कि..... इस उम्र में भी तुम सोच नहीं सकतीं कि वह कितनी खूबसूरत लगती थी.’’
ज़रूर लगती होगी. शिवा ने कहा नहीं, सिर्फ सोचा- जिसको अपने पति से इतना प्रेम मिलता रहा हो उसे हर उम्र में खूबसूरत दिखने से भला कौन रोक सकता है! प्रेम की चमक को भला कौन नकार सकता  है!
शिवा अपने मटमैलेपन में खो गई थी. लग रहा था एक बार फिर संवाद के सारे सूत्र यहाँ आकर समाप्त हो गए हैं. अब आगे जुड़ नहीं सकते. बिंदा की उजास पूरे माहौल को चमका रही थी.
तभी उसे अपने सन्नाटे से उबारती बूढ़े की आवाज़ उसे सुनाई दी- ‘‘आपकी दो बेटियाँ हैं न? शादी नहीं की उन्होंने?’’
‘‘नहीं.’’ 
‘‘दो में से किसी एक ने...?’’
‘‘हाँ, दो में से किसी ने भी नहीं!’’ शिवा ने एक-एक शब्द पर ज़ोर देकर कहा और मुस्कुराहट को होंठों के एक सिरे पर उभरने से पहले ही झटक दिया- जैसे मखौल उड़ा रही हो किसी का.
‘‘क्यों भला? ऐनी ग्रजेज़ अगेंस्ट मैरेज?’’
‘‘हाँ, वे कहती हैं - नो मैन इज़ वर्थ अ वुमैन!’’ (कोई भी मर्द औरत के लायक नहीं होता)
‘‘कौन-सी बेटी कहती है? बड़ी या....?’’
‘‘दोनों!’’ सवाल के पूरा होने से पहले ही उसने जवाब दे दिया. बोलते हुए शिवा को लगा वह अपनी कुढ़न बेवजह इस बूढ़े तक क्यों पहुचा रही है.
‘‘अजीब बात है!’’ बूढ़े के चेहरे पर असमंजस था.
‘‘वैसे दे आर ओपन टु इट! कोई सही मिल गया तो....!’’ उसने सही को दोनों हथेलियों की तर्जनी हिलाकर इन्वर्टेड कॉमा में होने का संकेत दिया, और अपनी तल्खी को छिपाने में कामयाब हो गई. 
‘‘ह्म्म.....वेटिंग फॉर मिस्टर राइट. ....आय टेल यू ……. दिस जेनेरेशन इज़ गोइंग हेवायर.’’ (यह पीढ़ी बदहवास हुई जा रही है.)
‘‘नो, दे आर मोर एक्यूरेट अबाउट देअर च्वॉयसेज़. (नहीं, वे अपने चुनाव के बारे में ज्यादा आश्वस्त हैं) वो अपने कान का पर्दा फटने देने के लिए तैयार नहीं हैं.’’ शिवा ने महसूस किया कि उसका अपने पर से नियंत्रण छूट रहा है और मुस्कुराहट के वर्क में वह अपने स्वर के तंज को बेरोकटोक उस ओर पहुँचने दे रही है. मुस्कुराहट भी इतनी तल्ख होकर बहुत से राज़ खोल सकती है, उसने पहली बार जाना.
‘‘ओह यस, ऑफकोर्स! आय नो! मेरा बेटा कभी मेरी बहू को डाँटता था तो बिंदा उसे झिड़क देती थी - खबरदार जो मेरी बहू से ऊँची आवाज़ में बोले. आदर्श सास थी बिंदा, जिसमें माँ होने का ही प्रतिशत ज्यादा था! कभी बहू से रार-तकरार नहीं. मेरी बहू भी अपने पति की हर शिकायत अपनी सास से ऐसे करती जैसे वह माँ हो उसकी.’’ बूढ़ा एकाएक रुका- ‘‘सॉरी, मैं बहुत बोलता हूँ न बिंदा के बारे में?’’ 
‘‘कोई बात नहीं, मुझे सुनना अच्छा लगता है!’’ शिवा ने डूबते स्वर में कहा.
बूढ़े ने शिवा के चेहरे पर उदासी की लकीर खिंचती देख ली और उसके कंधे पर हाथ रखा- ‘‘लाइफ़ नेवर स्टॉप्स लिविंग, शिवा!’’ बूढ़ा कंधा थपथपाकर चला गया- ‘‘सी यू टुमॉरो! चीअर अप!’’
चीअर अप शिवा ! शिवा ने कंधे से अपना नाम उठाकर अपने चेहरे पर सजा लिया और खुश दिखने की कोशिश की.                                                                           
बूढ़ा अपने पीछे बिंदा का अहसास छोड़ गया था -- बिंदा ये थी, बिंदा वो थी. इन बोगनबेलिया के लहलहाते फूलों की तरह. इन हरे-हरे पत्तों से झुकी शाख की तरह. इन शाखों पर बहती दिसम्बर की भीनी-सी ठंडक लिए महक से भरी हवा की तरह. उस बूढ़े की साँस-साँस में बिंदा बसती थी. ...और एक शिवा थी, जिसे पति का प्रेम कभी मिला ही नहीं और हिटलर-पति की दहशत में कभी उसने अपनी ओर आँख खोलकर देखा तक नहीं. इन लहलहाते फूलों-पत्तों में एक अदना-सा ठूँठ! कितना बदसूरत-सा लगता है इस हरी-भरी आबादी के बीच! इस पार्क में जहाँ हँसते-खिलखिलाते जोड़े हाथ थामे जब सामने से निकल जाते हैं तो शिवा की हथेलियाँ अपने सूखेपन से अकड़ जाती हैं और उसके बाद धुँधली आँखों के सामने सारी हरियाली धुँधला जाती है. 
बच्चों के लिए पीले चमकदार प्लास्टिक से बने खूबसूरत स्लाइड और गेम स्टेप्स के क्यूबिकल्स देखकर शिवा सोचती रही कि ज़िन्दगी हमारे लिए जापानी तकनीक के ऐसे सुरक्षित सैंड-पिट क्यों नहीं बनाती कि हम गिरें तो हमारे ओने-कोने लहूलुहान होने से बच जाएँ.
अतीत के धूसर सायों ने इस कदर छा लिया कि शाम को हरारत-सी महसूस होने लगी और अगले दिन बुखार हो आया. जब मन और दिमाग पर कोहरा छाता है तो शरीर पहले अशक्त होने लगता है, फिर अनचाहा तापमान सिर से शुरू होकर पूरी देह को गिरफ्त में ले लेता है. वह तीन दिन इस बुखार से लस्त-पस्त पड़ी रही. उसे लगा पार्क में जाकर बैठने की उसकी हिम्मत जवाब दे रही है.
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छोटी बेटी का टिफिन तैयार कर अब वह अपने चाय के कप के साथ बाल्कनी में बैठी थी. इस बाल्कनी के साथ सुबह की बहुत सारी यादें जुड़ी थीं. कभी अपनी दोनों बेटियों के पिता के साथ इस बाल्कनी में बैठकर चाय पीते हुए भरसक इस कोशिश में रहती थी कि बेटियाँ रात का कोई भी निशान उसके चेहरे या गर्दन पर पढ़ न लें. इस कोशिश में वह अपने चेहरे पर एक मुस्कान को ढीठ की तरह अड़ कर बिठाए रखती, पर बेटियों के स्कूल,  कॉलेज या नौकरी पर जाते ही वह मुस्कान अड़ियल बच्चे की तरह उसकी पकड़ से छूट भागती और वह ज़िन्दगी के गुणा-भाग में फिर से उलझ जाती. ..... अब मुस्कान के उस खोल की ज़रूरत नहीं रही, उसने सोचा और बग़ैर शक्कर की चाय के फीके घूँट गले से नीचे उड़ेलती रही. कमरे की ठहरी हुई हवा में नय्यरा नूर की आवाज़ में फ़ैज़ की नज़्म तैर रही थी-

जिस घड़ी सीनों में डूबे हुए दिन 
आस्तीनों में निहा हाथों की राह तकने लगे                                                                       
आस लिए

जब न कोई बात  चले
जिस घड़ी रात चले

जिस घड़ी मातमी सुनसान सियाह रात चले                                                                                                                                                                     तुम मेरे पास रहो....




कब बेटी उससे कह कर चली गई- ओके मॉम, गोइंग! योर मॉर्निंग वॉक फ्रेंड इज़ कमिंग टु सी यू. आय हैव केप्ट द डोर ओपन! ( जा रही हूँ. आपके सुबह की सैर वाले फ्रेंड मिलने आ रहे हैं. मैंने दरवाज़ा खुला छोड़ दिया है!) उसने सुना तक नहीं.
अपनी कुर्सी के हत्थे पर एक झुर्रियों वाला हाथ देखकर शिवा चौंकी- ‘‘अरे, आप कब....’’                                                        
‘‘मैं यहाँ एक मिनट नहीं तो चालीस सेकेंड से तो खड़ा ही हूँ. तुम्हारी बेटी ने इंटरकॉम पर मेरा स्वागत किया और कहा - ममी ठीक हैं, चाय पी रही हैं, यू कैन गिव हर कम्पनी! .....लेकिन आप कहाँ खोई हैं मैम?’’ बूढ़े ने लाड़ भरे स्वर में कहा- ‘‘लॉस्ट इन द स्काई? आय हैव डिस्टर्ब्ड यू....परहैप्स...!’’ फिर रुक कर किंचित मुस्कुराते हुए वाक्य पूरा किया- ‘‘शायद मैंने आकर तुम्हारी दुनिया में खलल डाला!’’
शिवा ने आँखें ऊपर नहीं उठाईं.
बूढ़े ने अब धीमे से कहा- ‘‘मुझे लगा तुम कहीं बीमार न हो इसलिए देखने चला आया तुम्हें.’’
‘‘सॉरी!’’ उसने माफी माँगी, पर शब्द बुदबुदाहट में सिमट कर रह गए. बाएँ हाथ की उँगलियों ने उठकर धीरे से दूसरी कुर्सी की ओर इशारा किया- ‘‘बैठ जाइए प्लीज़!’’
बूढ़े ने सुना नहीं और कुर्सी पर अनमनी-सी बैठी शिवा की आँखों में झाँका. शिवा ने एकाएक महसूस किया कि उसकी आँखों की कोरों पर बूँदें ढलकने को ही थीं. ये आँसू भी कभी-कभी कैसा धोखा देते हैं- बिन बुलाए मेहमान की तरह मन की चुगली करते हुए आँखों की कोरों पर आ धमकते हैं और बेशर्मी से गालों पर ढुलक कर मन के बोझिल होने का राज़ खोल जाते हैं.
शिवा ने जैसे ही आँखें उठाईं, वहाँ से एक बूँद ढलक गई. बूढ़े ने उन आँखों में अपना अक्स देखा और धीमे से अपनी हथेलियाँ उसके चेहरे की ओर बढ़ा दीं! उस मुरझाए चेहरे को दो बूढ़ी हथेलियों ने भीगे पत्तों की तरह जैसे ही थामा, चेहरे ने अपने को उस अँजुरी में समो दिया. गुलाब की पंखुड़ियों-सा इतना मुलायम स्पर्श, जैसे कोई रूई के फाहों से घाव सहला रहा हो. हथेली के बीच आँसू, अब पूरी नमी के साथ, बेरोकटोक बेआवाज़ बह रहे थे. कोई बाड़ जैसे टूट गई थी. शिवा को लगा यह वक्त जिसका उसे सदियों से इंतज़ार था, यहीं थम जाए. बूढ़े की उँगलियाँ उसके बालों में हल्के से फिर रही थीं. उन उँगलियों की छुअन कानों की लवों तक पहुँच रही थी. वह चाह रही थी अपने भीतर जमा हुआ वह सब कुछ इन हथेलियों में उड़ेंल दे जो उसने अपने आप से भी कभी शेअर नहीं किया था ! शिवा भूल गई थी कि एक फ्लैट की बाल्कनी होने के बावजूद यह एक खुली जगह थी - दाईं-बाईं ओर बने टावरों की बाल्कनी में खड़े होकर या इसी इमारत के दूसरे बरामदों से उन्हें देखा जा सकता था. जो अपने आँसुओं को अब तक अपने से भी छिपाती आई थी वह आज इस तरह अपने को उघाड़ क्यों रही है? लेकिन उन हथेलियों की नमी थी कि शिवा अपने को हटा नहीं पा रही थी.
कमरे में हवा लहराने लगी थी. आँसुओं से भीगे चेहरे पर ताज़ा ठंडी हवा की छुअन पाकर शिवा ने अपनी मुँदी हुई आँखें खोलीं. उसके ज़ेहन में एक पुरानी भूली-बिसरी पंक्ति बजी- टु डाय एट द मोमेंट ऑफ सुप्रीम ब्लिस.....
ज़िन्दा रहने के लिए सिर्फ़ इतनी-सी छुअन ज़रूरी होती है, उसे नहीं मालूम था. इस छुअन को पाने की साध इतने बरसों से उसके भीतर कुंडली मारे बैठी थी और उसे पता तक नहीं चला. एक खूबसूरत सपने से जैसे लौट आई थी वह. उन हथेलियों पर अपनी पकड़ को वह कस लेना चाहती थी, पर अचानक उसने पूरा जोर लगाकर अपने चेहरे को आज़ाद कर लिया.
बूढ़ा अब बाहर फैले शून्य में ताकता हुआ खड़ा था. मुट्ठी बाँधे अकबकाया-सा. पास रखी खाली कुर्सी पर ढहते हुए उसने कहा- ‘‘आयम सॉरी.’’ कहने के बाद उसने बँधी मुट्ठी खोली और हथेलियों से अपने चेहरे को ढँक लिया. भीगे चेहरे को छिपाए वह बुदबुदाया- ‘‘आयम सॉरी शिवा!’’ कुरते की जेब से रुमाल निकाला और अपने भीगी आँखों को पोंछा. बिना उसकी ओर देखे उसने जैसे अपने आप से कहा- ‘‘शिवा, मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है!.....मेरी बिंदा! छह महीने से मैं उसे ढूँढ़ रहा था और वह यहाँ बैठी थी मेरे सामने. .....शिवा, मुझे माफ कर देना! मुझे आज वो बहुत दिनों बाद दिखी तो मैं अपने को रोक नहीं पाया.’’ और वह फफक कर रोने लगा.
शिवा जैसे पत्थर की शिला हो गई. पथराई-सी वह उठ खड़ी हुई. ‘‘चाय लाती हूँ.’’ उसके होंठ हिले और वह रसोई की ओर मुड़ गई.
बिंदा! ...तो यह छुअन शिवा के हिस्से की नहीं थी. शिवा के लिए नहीं थी, बिंदा के लिए थी.
एक पनीले सपने से बाहर आते हुए उसके भीतर बार-बार वह वाक्य बज रहा था- मुझे क्यों ऐसा लगा जैसे बिंदा लौट आई है...! शिवा, तुम्हारे लिए नहीं था यह गुलाब की पंखुरियों-सा स्पर्श! ज़ाहिर है, उसके हिस्से ऐसे मुलायम स्पर्श तो कभी आए ही नहीं. उसके हिस्से में पहला पुरुष स्पर्श उस चुंबन का था जो होंठों पर जबरन प्रहार की तरह था- उसके अपने फूफा का, जब उसकी उम्र सिर्फ़ बारह साल थी; जिसके बाद होंठ तीन दिन तक सूजे रहे थे और वह अपने माँ- पापा, सबसे अपने होंठों को छिपाती रही थी, जैसे कितना बड़ा अपराध कर डाला था उसके होंठों ने. उसे लगा था जैसे अब वे होंठ फिर से पहले जैसे होंठ कभी बन नहीं पाएँगे. लेकिन नहीं, ऐसा नहीं हुआ. वह फिर से लौट आई थी जब उसकी शादी हुई, और उसने अपने वजूद को उतना ही नम पाया- फिर से एक भीगी-सी छुअन के लिए तैयार. पर शादी के बाद की वह पहली खौफनाक रात- पूरी देह पर जैसे चोट देते ओले पड़ रहे थे. उसके बाद वैसी ही अनगिनत रातें और बीहड़ चुंबन. होंठों ने दोबारा, तिबारा, सौ बार, हज़ार बार धोखा खाया, खाते रहे. सालों साल. वे सारे चुंबन ऐसे थे जैसे उसके होंठ अनचाही लार और थूक से लिथड़-लिथड़ कर बार-बार लौट आते हों. वह उन्हें कितना भी पानी से धोती, तौलिये से पोंछती, पर थूक और लार की लिथड़न उसके भीतर एक उबकाई की तरह जमकर बैठ जाती - उतरने से इनकार करती हुई. उसके बाद स्पर्श की नमी को तो भूल ही गई थी वह. सबकुछ भीतर जम गया था. नहीं सोचा था कि कभी यह बर्फ़ पिघलेगी. 
....पर स्पर्श ऐसा भी होता है- हवा से हल्का, लहरों पर थिरकता हुआ और गुलाब की पंखुड़ियों-सा मुलायम, यह तो उसने पहली बार जाना. अब तक वह अपने जीने की निरर्थकता को स्वीकारती आई थी. आज उसे पल भर को लगा था कि अब वह मर भी जाए तो उसे अफसोस नहीं होगा. ....पर यह तो ग़लती से एक नक्षत्र उसकी झोली में आ गिरा था. जब तक उसकी चमक को वह आँख भर सहेजती उसकी झोली को कंगाल करता हुआ नक्षत्र वापस अपने ठिये से जा लगा था.
बरामदे में दो कुर्सियों के बीच की छोटी-सी तिपाई पर उसने चाय का कप रख दिया. बूढ़ा जा चुका था. उसने लम्बी सांस भरी और अपनी ही हथेलियों से मुंह ढांप कर, आँखों में कैद आंसुओं को जी भर कर बह जाने दिया !
चाय का प्याला बरामदे में पड़ा-पड़ा उसके सामने ठंडा होता रहा. उसने चाय को उठाकर अंदर वाशबेसिन में उलट दिया.
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अगले दिन वह पार्क गई. उसी बेंच पर बैठी. देर तक प्राणायाम की कोशिश में लगी रही पर अपने मन को एकाग्र नहीं कर पाई. जैसे ही आँखें बंद करती लगता वह सफेद कुरता पास आकर खड़ा है. उसकी खुशबू भी हवा में घुलकर उस तक पहुँच रही थी. खुशबू को छूने के लिए वह आँखें खोलती तो वहाँ कोई नहीं होता. बस पेड़ों की शाखों में हिलते हुए पत्ते थे. बीच में टहलने के लिए बने रास्ते पर एक के बाद एक अधेड़ अपने ट्रैक सूट में तेज़-तेज़ चल रहे थे, दौड़ रहे थे पर वह ए.के. कहीं नहीं था.
किसी तरह वह अधूरे प्राणायाम लेकिन सैर के पूरे बदहवास चक्कर लगाकर लौट आई. शिवा अपनी उम्र के पैंसठ साल फलाँग गई थी. उसने कहा था- वह पचास की लगती है. पैंसठ की हो तो भी क्या! शिवा ने सोचा- उम्र से कहीं कोई फर्क नहीं पड़ता.
दो दिन. तीन दिन. चार दिन. आँखें उन नर्म-काँपती हथेलियों को ढूँढ़ती रहीं जिनमें उसका चेहरा था उस दिन. शिवा बेचैन हो उठी. रोज़ दिखता आसमान जैसे ढँक गया था, बदली गहरा आई थी, लेकिन उसके पीछे छिपे हुए सूरज की किरणें तेज़ थीं जो शिवा के भीतर जमे ग्लेशियर को पिघला रही थीं.

पाँचवें दिन शिवा के कदम खुद-ब-खुद उस सफेद कुरते और उधड़े हुए स्वेटर की उँगली की दिशा में उठ गए. वही इक्कीसवाँ माला. फ्लैट नम्बर वही जो उसका है. फोन नम्बर में सिर्फ एक का फर्क. बस बिल्डिंग का नाम अलग. ढूँढ़ पाना मुश्किल नहीं था.

लिफ्ट का दरवाज़ा खुला और शिवा सकुचाते हुए बाहर निकली. क्या कहेगी वहक्यों आई यहाँ?  क्या वैसे ही जैसे सफेद कुरता चला आया था उसके घर, जब वह पार्क में कुछ दिन नहीं दिखी थी. क्या लौट जाए वह?
वह दुविधा में थी.
फ्लैट के बाहर ही चंदन की अगरबत्तियों का धुआँ और भीनी-सी खुशबू आ रही थी. सामने खूब सारी चप्पलें पड़ी थीं. आखिर पोते-पोती, नाती-नातिनियों वाला घर है. उसके घर की तरह उजाड़ नहीं कि एक जोड़ा चप्पल न दिखे कभी.
फ्लैट का दरवाज़ा खुला था और सामने इतने सारे सिर- अड़ोसी-पड़ोसी, नाते-रिश्तेदार!
‘‘क्या हुआ?’’  उसने सामने पड़े पहले व्यक्ति से पूछा.
‘‘ए.के. के फादर नहीं रहे. रात को सोए तो बस... सुबह उठे ही नहीं!’’
‘‘क्याss?’’ शिवा की साँस थम गई. ऐसा कैसे हुआ! उसे तो किसी ने यहाँ बुलाया नहीं था. आज ही उसके पैरों ने इस घर का रुख क्यों किया ?  क्यों ?  इस मलाल से कहीं बड़ा मलाल था कि उसके पैरों ने इस घर का रुख इतने दिन क्यों नहीं किया ?  पूरे पाँच दिन. रोज़ उसकी निगाहें पार्क में ही क्यों ढूँढ़ती रहीं उसे. ये पैर पहले भी तो इस ओर मुड़ सकते थे. क्या उसकी उम्र आड़े आ रही थी ? शायद...शायद वह पहले यहाँ आ गई होती तो बिंदा से मिलने की ऐसी अफरातफरी न होती इन....इन ए.के. को!  गले के भीतर रुलाई का एक गुबार-सा उठा, जिसे नीचे धकेलने की कोशिश में उसका सिर वज़नी हो रहा था. मन ने चाहा कि यहीं से अपने को लौटा ले, पर पैर अपने आप सामने खड़े लोगों के बीच से राह बनाते आगे को बढ़ चले, जहाँ ज़मीन पर एक रँगीन चटाई पर सफेद चादर से ढँका वह चेहरा लेटा था- शांत,  निस्पंद. कसकर भिंचे हुए पतले-पतले होंठ!
शिवा एकटक आशीष कुमार के चेहरे को निहारती रही जहाँ अब आय एम सॉरी का कोई माफीनामा नहीं था. कोई बात नहीं’- अब वह किससे कहती! किस तक पहुँचाती जो वो कहना चाह रही थी और न कह पाकर अपने गले तक कुछ फँसा हुआ महसूस कर रही थी.
ज़मीन पर बिछी हुई एक रँगीन चटाई पर लेटे उस चेहरे पर एक अपूर्व शांति थी- कोई इच्छा, आकांक्षा, लालसा जहाँ बची न हो. खुली हुई मुट्ठी ऐसे खुली थी जैसे सबकुछ पा लेने के बाद सबकुछ छोड़कर चले जाने की तसल्ली !
सहसा शिवा की निगाह उनके कंधों पर गई. वही क्रीम और ब्राउन धारियों वाला उनकी अपनी बिंदा के हाथ का बिना हुआ स्वेटर. ऐसे स्वेटर का बिना जाना और ऐसे सहेजते हाथों में उस स्वेटर को पहुंचा पाना , जि़न्दगी की नायाब हकीकत है । कितनी औरतें अपने पतियों के लिये ऐसे स्वेटर बुनतीं हैं पर वे उधड़ने के बाद भी ऐसे सहेजने वाले हाथों में कहां पहुंच पाते हैं। सारे स्वेटर हवा में तैरते रहते हैं और कोई हाथ उन्हें लोकने के लिये आगे नहीं बढ़ता । एक दिन वे सारे स्वेटर पूरे आसमान को ढक लेते हैं और उजाले की एक किरण को भी धरती तक पहुंचने नहीं देते । शिवा के गले तक आया रुलाई का गुबार आँखों के रास्ते बह निकला, जैसे कोई बढ़ती आती लहर सूखी रेत को दूर तक भिगो दे और फिर भिगोती चली जाए.
आखिर अपनी बिंदा के पास वे इस उधड़े हुए स्वेटर को पहने बिना कैसे जा सकते थे- शिवा ने सोचा और अपने को तसल्ली दी. नहीं, उनकी जगह वहीं थी जहाँ वे इस वक्त चले गए हैं. क्या सचमुच- अपनी बिंदा के पास ?
शिवा एक साये की तरह मुड़ गई, जैसे अपने को वहीं छोड़ आई हो.
पैरों ने अपने फ्लैट की ओर का रुख किया. जहाँ बाल्कनी की कुर्सी पर चाय का अनछुआ कप जैसे बरसों से अब तक वहीं पड़ा था.                                                                                                                                    0    0                                                                       phone : 097574 94505 / 022 4005 7872






- सुधा अरोड़ा

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