Wednesday, February 27, 2013

डा.अलका सिंह की कविताएं

डा.अलका सिंह ************
2000 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से आधुनिक इतिहास विभाग से स्वतंत्रोतर भारत में ‘उत्तर प्रदेश में महिलओं की स्थिति’ विषय पर शोध कार्य. 1999 से स्वतंत्र पत्रकार के रूप में कार्य. आधी दुनिया और एक छात्रा की डायरी दो चर्चित कालम, कई लेख प्रकाशित
पिछले 15 – 16 सालों से सरकारी, गैर सरकारी संगठ्नों के साथ महिला मुद्दों पर विशेष् कार्य साथ ही स्वास्थ्य और क्लाईमेट चेंज जैसे मुद्दों पर भी कार्य
फिलहाल – अमृता संस्था की अध्यक्ष
उत्तर मध्य रेलवे की
घरेलू हिंसा कमीटी में  सलाहकार 
तथा सेक्सुअल हैरश्मेंट  कमीटी की सद्स्य के रूप मे जुडाव




भूल गयी थी कुछ तुमसे प्यार करते करते 


तुमसे प्यार करते करते
भूल गयी थी कुछ कूट विचार
माँ के
जो याद आये हैं बरसों बाद आज
पीछे मुड्कर देखते हुए कि -
डांटती नहीं हूँ मैं
ना ही रोकती हूँ दुनिया देखने से
बस आगाह करना चाहती हूँ एक औरत को
जो बनाने जा रही है एक रिश्ता
घर के बाहर और उडने की कोशिश में है
एक घोसले के जिसके तिनके तिनके को वो
खोजेगी, बुनेगी और सहेजेगी
बताना चाहती हूम उस औरत को कि
ये घर से बाहर बनता हुआ एक ऐसा
रिश्ता है जो
अनुभूति के साथ हर रोज बढता है
सवंरता है , आकार लेता है और गुम हुए से लगते है
कई अर्थ
पर सच में ऐसा होता तो क्यों कुरेद कर कुरेद कर
पूछती तुमसे और बार बार सवाल करती ?
समझाती रही है वह मुझे कि
यह शीतल है जैसे चांद की रोशनी
कोमल है जैसे गुलाब की पंखुडी
मदमादा है जैसे महुए का नशा
किंतु चांद के दाग , गुलाब के कांटों और
महुए के नशे का भी एक सह है
और यही सच धीरे- घीरे
सामने आता है
यह बताने के लिये खडी हूँ तेरे आस पास
कि जब भी तू दहलीज़ के बाहर
कहीं जुडेगी तो जीयेगी कुछ वैसा ही
जिससे गुजरती रही हूँ मैं
इसलिये उतरने को बेताब हूँ तुझमें विचार बन
कि हुनर सिखा सकूँ
नये समय में स्त्री होने का
बता सकूँ कि जना है जिसको औरत ने
वह मालिक बन जाता है एक वक्त के बाद
क्योंकि औरतें खोजाती रहीं हैं अपने उस मालिक को
कभी चांद से बातें कर
कभी शाम में अकेले खुद से बुदबुदाते हुए
और कभी प्रेम गीत गाते हुए
डूब जाती हैं एक ऐसी दुनिया में
जहां सब प्रेम में डूबा उसका
अपना संसार है
जानते हो –
तुमसे प्रेम करने की यात्रा में
माँ के कूट वचन को बेमानी समझ
झटक आयी थी उसी के द्वार
पर आज सच में गुलाब के उस कांटे ने
डसा है पहली बार
सोच रही हूं उठा लाऊँ वो पोटली
और बीन लूँ सारे कूट
अपनी बची यात्रा को नया कर जीने और
अपनी जवान होती बेटी के अन्दर
विचार बन उतरने के लिये 



एक नदी का ज़ख्म      

माना कि
हम
उसे पूजते रहे हैं सदियों
पर
अब भी सब अनजान हैं
कुछ बातों से
और सबके नाम लिखी उसकी एक पाति से
जिसमें लिखा है
उसका बचपन , यौवन और सुनहरे दिन
अंतिम अध्याय
अथाह दर्द और
अग्रह से भरा है
यह वसीयत है एक नदी की
जिसे पढकर
गयी थी उसके पास मिलने
हुलस कर नहीं आयी वो
मेरे पास पहले की तरह
दूर से ही
घुटनों पर खडी हुई
निहारा
और वहीं पसर गयी
इतनी वेदना !!
इतना अश्य दर्द !!!!
सोच ही रही थी कि उसने
बुलाया, कहा कि
फुर्सत से आओ
तो कभी बात हो
दिल खोलकर
तो दिखाऊँ अपना जख्म
मुझे पूजने से पहले इसे
देखना जरूर
एक बार
यह भी देखना कि
इतने साल कैसे रही हूम मैं
और कितना सहा है
व्यवभिचार
माँ थी मैं ऐसा सब कहते थे
फिर भी बालात होता रहा ये
अत्याचार
मुझे पूजने से पहले
सुनना जरूर एक बार
जानती हूँ मृत्यु के कगार पर हूँ 
 अपनी पीडा से अधिक इस पीडा में हूँ
कि मेरे जाने के बाद फिर जुलसेगी ये भूमि
और इंतज़ार करना होगा
सगर के पुत्रों को
सदियों एक भगीरथ का





ऊँचे ओहदे पर बैठी वह ___________________


1.

दफ्तर के सबसे ऊँचे ओहदे पर बैठी वह
कई आंख को चुभती है दिन - रात
लोग अक्सर कहनियां सुनाते हैं
एक दूसरे को उसके अतीत की
और बताते हैं राज
उसके ऊपर वाली कुर्सी पर बैठने के
किंतु वह निरंतर काम में लग्न
तोडती जाती है हर बाधा और बनाती जाती है
नया मुकाम
अभी कल ही जब उसे एक नया ओहदा मिला
बन गयी है फिर से
एक नयी कहानी

2.

जब वह नयी नयी दफ्तर में आयी थी
हर रोज लोग उसके इर्द गिर्द
घूमते थे
हौले हौले मुस्कुराते थे
नयी बॉस  मैडम है
एक दूसरे को सूचना देते थे
जैसे समझाते थे कि
महिला है तो काम कम ही जानती होगी
यह भ्रम धीरे धीरे टूटने लगा
जब
काम में माहिर ईमानदार बॉस  ने
हर रोज अपनी समझ का परिचय दे
काम का हिसाब देना और लेना शुरु किया
और बस तब से
किस्से ही किस्से और हज़ारों कहानियां
कभी उसके चरित्र की, कभी आदतों की
और कभी उसके मुस्कुराने के मतलब की

3.

आज उसके ही चरित्र पर गढे गये
किस्सों की कुछ चिन्दियाँ
उड्कर उसके कान तक पहुँची
हैरान नहीं है फिर भी
खडी है चुप सोचती
कि इतने किस्सों के बीच
क्या मैं ही अकेली हूँ ?
या वो सब हैं जिनके परों ने
अभी अभी फड्फडाना सीखा है ? क्या जडों पर वार करने वाली इन कुल्हाडियों के बीच
निढाल हो जाना होगा ?
या फिर इन कुल्हाडियों की धार को
हर रोज भोथडा करना होगा
मजबूती से ?
डरना –घबराना तो नहीं ही होगा
इन स्थितियों के बीच
तेज़ ना ही सही किंतु
चलना तो होगा ही इन छींटों से अने सने
बढने के लिये

4.

आज दफ्तर में मीटिंग रखी है
उसमें कुछ सवाल रखे हैं
सामने सबके
कि
कौन हूँ मैं?
क्यों हूँ यहां?
क्या करती हूँ ?
यह तौहीन किसलिये ? ये किस्से किसलिये ?
और मांग रही है जवाब
एक सन्नाटा पसरा है
मीटिंग खत्म है और सब
व्यस्त हैं सवाल का जवाब
खोजने में
एक दूसरे से पूछ्ने में
सवालों के जवाब ...........

.

Monday, February 25, 2013

मेरे पापा - डॉ सोनरूपा विशाल


डॉ सोनरूपा विशाल
________________



"कवयित्री, ग़ज़ल गायिका डॉ सोनरूपा विशाल विख्यात गीतकार डॉ उर्मिलेश जी की बेटी हैं ... साहित्य जगत में गीतकार डॉ उर्मिलेश जी का नाम किसी परिचय का मोहताज नहीं है .... अपने पिता की स्मृतियों को साझा करते हुए सोनरूपा   के कोमल मन ने बाल रूप धर लिया  .. मैंने ये महसूस  किया  जब उन्होंने   चैट पर   अपने पिता की स्मृतियाँ मुझसे साझा की ...  एक बेटी द्वारा सहेज कर रखी हुई अपने पिता की स्मृतियाँ .. आप सभी के लिए 'फरगुदिया' पर ... "



स्मृतियाँ मुझे अपनी उँगली पकड़ा कर उन पलों की ओर ले जा रही हैं जहाँ दादी के मुँह से मैं उस युवक की बातें बड़े मन से सुन रही हूँ जिसका नाम प्रमोद है, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बदायूँ ज़िले के छोटे से गाँव भतरी का यह पतला दुबला युवक जिसने पाँचवीं तक घर पर रहकर पढाई की फिर गाँव से ५ किलोमीटर दूर वजीरगंज कस्बे तक पैदल जाकर बीच में बहती सोत नदी को पिता के कन्धों पर चढ़ पार कर उस कसबे से इंटर मीडीएट करने के बाद वो युवक यानि मेरे पापा ने चंदौसी(मुरादाबाद) के एस .एम् कॉलेज से बीए किया फिर हिंदी में एम् ए और पी.एच डी आगरा कॉलेज आगरा से .......


’पढ़ाई में अव्वल था बेटा वो ,लेकिन हरकती भी बहुत... चोरी छिपे गाँव में घेर में छुप कर रस्ते चलते लोगों को परेशान करता ,कभी दोस्तों को मिठाइयाँ खिलवा कर लम्बा चौड़ा उधार तेरे बाबा जी के लिए छोड़ देता था ,तेरी बुआ को १० आने देकर अपना सब काम उससे करवा कर अपना मस्ती से दोस्तों के साथ मटरगश्ती करता था ...........पापा की ये सब गुस्ताखियाँ भी दादी बड़े गर्व से बतातीं क्यों कि दिन भर नाक में दम करने वाली शैतानी कर के रात में सिर्फ़ दो तीन घंटे की जम कर की गयी पढ़ाई ने उन्हें आगरा यूनिवर्सिटी से एम्ए में हिंदी में सर्वाधिक अंक लेकर गोल्ड मैडल दिलवा दिया था और फिर जल्द ही डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर की नौकरी भी .


बाबा जी भी कवि थे और मेरे परदादा भी ......सो १६,१७ साल की उम्र से पापा ने भी कवितायेँ कहानियाँ लिखनी शुरू कर दी थीं उनकी इसी लेखनीय सक्रियता से उनके नाम की गूँज कविसम्मेलनों और पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से आस पास के शहरों में और फिर धीरे धीरे देश के अन्य हिस्सों में सुनाई देने लगी थी | मेरी गाँव की भोली भाली दादी हमेशा कहती थीं बाबा से कि ‘काम की कविताई तो उर्मिलेश की है जो तुम तो बस बैठे ठाले कविता लिखते हो और छपवाते हो,तुम्हारी कविताई किसी काम की नहीं है’ |पापा को अपना नाम प्रमोद पसंद नहीं था इसीलिए उन्होंने खुद का नाम बदलकर ‘उर्मिलेश’ रख लिया था और तो और दादी का भी नाम फूलवती से बदल कर पुष्पा कर दिया, ,ऐसी बहुत सारी बातें मैं दादी से,बाबा से पापा के बारे में सुनती थी और बड़े मन से सुनती थी | पापा के बचपन की ये सब बातें मुझे बहुत आनंदित करती थीं क्यों कि ये मेरे आने से पहले की बातें जो थीं बाद बाकी सारी यादें सुरक्षित हैं मेरे पास कुछ धुँधली और कुछ बिल्कुल ताज़ा......पापा ही मेरे हीरो रहे और अब तक हैं, हर बच्चे की तरह मैंने तो पापा के स्पर्श को तब पहचाना था जब एक अबोध बच्चा स्पर्श जानने पहचानने लगता है , पापा के लिए जामिया मिलिया दिल्ली से और बदायूँ के ने.मे. शिव नारायण दास डिग्री कॉलेज से एक साथ कॉल लैटर आया था,ज़मीन से जुड़े रहने का लोभ ही था कि उन्होंने बदायूं का ही कॉलेज चुना नौकरी के लिए | प्रोफेसर्स कॉलोनी का तीन कमरों का फ्लैट हमेशा पापा के स्टूडेंट्स, दोस्तों ,रिश्तेदारों से भरा रहता कोई ही दिन ऐसा बीतता जब बस हम परिवारीजन होते घर में|आये दिन काव्य गोष्ठियाँ होतीं ,रात रात महफ़िलें जमती| हमेशा से मस्त ,दोस्ती बाज़ी में सबसे अव्वल पापा जैसा जिंदादिल इंसान मैंने अपनी जिंदगी में नहीं देखा था, किसी एक शख्स के आने से ऐसा लगे मानो उत्सव आ गया है कुछ ऐसा ही था पापा का व्यक्तिव.....पापा की बहुत लाडली थी मैं, इतनी कि अगर कोई कह देता कि मैं मम्मी जैसी लगती हूँ तो पापा को बिल्कुल नहीं सुहाता था वो हमेशा कहते थे कि मेरा बेट्टा मेरे जैसा है..........



मीतू मेरा नाम है
पढ़ना मेरा काम है 
उर्मिलेश की बेटी हूँ 
मैं रीतू से जेठी हूँ 
अक्षत मेरा भैया है ..........

इस कविता से मैं अपना इंट्रो देती थी ऐसा पापा ने सिखाया था,हम तीन बहन भाई में मैं सबसे बड़ी फिर मेरी बहन फिर मेरा भाई है ....ज़िन्दगी मज़े में थी,साल भर में एक दो बार पापा हमारी कॉपी किताबें उठा कर देखते फिर तो शामत आनी पक्की होती थी हमारी और हमारे टीचर की ...ये ‘व’को ‘ब’ कैसे लिखा ? सिर्फ़ इसी गलती के कारण मेरी बहन को पापा ने दोबारा एक ही क्लास में रिपीट करवा दिया था.


एक होनहार छात्र ,गुरुनिष्ठ ,कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक,और एक श्रेष्ठ काव्य सर्जक के रूप में सिद्ध हो चुका उनका व्यक्तिव और कृतित्व दिनों दिन प्रगति कर रहा था और हम सब साक्षी थे उन गौरवशाली दिनों के .पापा कोई कविता सृजते तो हम सब घर में बिल्कुल शांति बनाये रखते, उनकी लेखनी धीरे धीरे परवान चढ़ रही थी मंच से संपृक्त होने के कारण वे अपने कथ्य को अधिक से अधिक बोधगम्य,मारक और प्रभविष्णु बनाने में सफल हुए|कोई विधा ऐसी नहीं थी कि जिसमे कोई कह सके कि उर्मिलेश यहाँ कमज़ोर हुए हैं उनके जाने के बाद मैंने जिस बारीकी से उनकी रचनाएँ पढ़ीं वो उनके होने पर नहीं पढ़ पाई ,हालांकि बचपन में मैंने उनकी असंख्यों कवितायेँ स्कूल और अनेकों कॉम्पटीशन में गायीं .


हम छुट्टियों में पापा के साथ कभी-कभी कविसम्मेलनों में भी जाते थे और वहाँ पापा का दर्शकों में क्रेज़ देखकर मन ही मन रोमांचित होते ,लोगों का हुजूम उन्हें घेरे रहता,ऑटो ग्राफ के लिए लाइन लग जाती पापा की आवाज़ जब मंचों पर गूँजती तो बस सब ख़ामोश.... जैसे सब हिप्नोटिक हो गए हों और कविता का बंद खत्म होते ही जो तालियों की गडगडाहट होती उससे समूचा सदन गूँज उठता,हजारों लोगों को बांध लेने की क्षमता थी उनमें |देश की हर प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में उन्हें छापा गया ,प्रतिष्ठित सम्मानों से नवाज़ा गया, इतनी प्रसिद्धि सम्मान के बावजूद उनकी सहृदयता के सब कायल थे उनकी सोच की एक वानगी इस दोहे से ..




अभिनन्दन ,उपहार और फूलों के ये हार 
सामाजिक दायित्व का हमें सौपते भार 


और वास्तव में उन्होंने अपने दायित्वों को निभाया भी खूब,वे ना जाने कितनों को आर्थिक मदद देते उनके जाने के बाद कई लोग आये और आज भी आते हैं और बताते हैं कि कब मुसीबत में डॉ. साहब ने हमारी मदद की ....ये सब बातें हमें गर्व से भर देती हैं..................उनकी यही सह्रदय सोच,रिश्तों से प्रेम,परिष्कृत विचार,बेबाकी,निष्पक्षता,हर उस बिम्ब को देखने का व्यापक नजरिया जहाँ से कोई कविता या विचार एक नया रूप लेते हैं, ने उन्हें देश का लाडला गीतकार,एक अनुकरणीय शख्सियत बना दिया था .



पूजा पाठ में उनकी बहुत निष्ठा थी,गृह दशाओं में भी अच्छे जानकार थे ...एक बार उनकी कुंडली के अनुसार जब सूर्य की महादशा शुरू हुई तो कुछ ज्योतिर्विदों ने उन्हें सूर्य की उपासना और मंत्र जाप के लिए कहा तो उन्होंने एक नया रास्ता चुनते हुए सात सौ दोहे लिख कर सूर्य को प्रसन्न करने का संकल्प लिया.



.ऐसी बातें तो ना जाने कितनी हैं,भावुक भी बहुत थे और दिल के कमज़ोर इतने थे कि ज़रा सा भी बुखार आ जाये तो चाहते थे कि पूरा परिवार सब काम धाम छोडकर उनके पास आ बैठे......क्या क्या याद करूँ ......एक ही व्यक्ति में इतना विस्तार कि शब्दों में ना समां पाए कुछ ऐसा ही है उनके बारे में लिखा जाना . 


 सम्मोहक व्यक्तित्व ,लम्बा चौड़ा कद और हाँ वो आजानु बाहु थे,आवाज़ ऐसी कि चलते हुए आदमी को भी रुकने के लिए मजबूर कर दे ,भाषा और शैली उनसे जैसे और विस्तार पाती थीं,मृदुभाषी इतने थे कि पहली बार मिलकर ही हर कोई उनका मुरीद हो जाता,माथे पर पड़े उनके सिल्की बात और बार बार उनको सँवारना उनकी पहचान बन गया था ,फैशनेबल इतने कि दिन में कई कई बार कपड़े बदलते, बाहर निकलते तो परफ्यूम से नहाकर मानो ,१०० से ज़्यादा जोडियाँ होंगी उनके पास जूतों की और कपडों की कोई गिनती ही नहीं एक बार में १० जोड़ी से कम कपड़े सिलने नहीं जाते थे दर्जी के पास |अपना जन्मदिन भी बड़े जोर शोर से मनाते ,फोटो खिंचवाने का इतना शौक कि एक फोटो ग्राफर साहब उनके हर वक़्त साथ रहते उनके फोटो खींचने के लिए ...


उनका एक शेर है ’इतना आदी हुआ हूँ चलने का ,बैठते ही थकान होती है’...वास्तव में कुछ ऐसा ही देखा मैंने पापा को | कॉलेज की व्यस्तता, कवि सम्मलेन के लंबे लंबे दौरे ,रात भर जग जग कर पढ़ना लिखना लेकिन इस पर भी सामाजिक और पारिवारिक दायित्व को कहीं भी इग्नोर नहीं किया उन्होंने ,संबंधों को निभाना कोई उनसे सीखे,साथ ही माँ ने भी उन्हें हमेशा घर बाहर की छोटी छोटी बातों में नहीं उलझाया,उन्हें घर में भी वही खुला आसमान दिया जिसमे उनकी सृजनशीलता और परवान चढ़ी,इतने बिज़ी होने के बावजूद एक चीज़ जो ताज़िन्दगी नहीं छूटी वो उनका रोज शाम दोस्तों का जमघट .....


मेरे पापा हैं तो क्या उनमें सिर्फ़ अच्छाईयां ही हैं ...ऐसा नहीं है इतने गुणों के साथ उनमें अवगुण भी थे और होते भी क्यों नहीं इंसान ही थे ना वो .........लगातार रातों का जागना ,शारीरिक श्रम उससे उपजी स्वास्थ्य समस्याएं ऊपर से उनकी स्वास्थ्य के प्रति लगातार लापरवाहियाँ .....उनको समझाने के हमारे सारे उपक्रम कम हो जाते थे .....डाइबिटीज़ होने के कारण जब कई सारे फ़ल नहीं खा पाते तो बिना डॉक्टर की सलाह लिए विटामिन्स की गोलियाँ गटक लेते ज़रा सा बुखार आया नहीं कि ब्रूफिन अंदर ............स्वास्थ्य में नीचे ऊपर चलता रहा .


उनकी प्रसिद्धि ने उनके कई दुश्मन भी बनाये लेकिन क्या मजाल जो किसी के लिए भी कोई दुश्मनी घर कर जाये उनके अंदर ........उनकी एक गज़ल है ..ये सच है कि हम थोड़ा कम बोलते हैं /अगर बोलते हैं तो हम बोलते हैं /बहुत बोलते हैं जो उथले हैं दिल के /जो गहरे हैं दिल के वो कम बोलते हैं कुछ ऐसा ही मैंने महसूस भी किया उनके खुद के अंदर .......


कलम के धनी पापा लगभग हर विधा में रचना कर रहे थे ....गीत ,नवगीत ,गज़ल, मुक्तक ,अतुकांत,वीररस की कवितायेँ,दोहे,समीक्षा,शोध निर्दशन ,कई पत्रिकाओं का संपादन .....डायरियों में बंद पापा की काव्य रचनाएँ संग्रह का रूप लेलें ये मम्मी की कामना थी और पापा की भी लेकिन पापा समया भाव के कारण ऐसा नहीं कर पा रहे थे अतिशय व्यस्तता में भी उन्हें एक बात सालती थी वो ये कि कहीं उनकी पहचान बस ताली बजबाऊ कवि के रूप में ना बन जाये उनका वृहद साहित्य सृजन को बस लोगों के सामने आने में देरी थी ये संग्रह ही उनके कृतित्व के विभिन्न आयामों से लोगों का परिचय करवा सकते थे.



...खैर वो घड़ी भी आई ...१९९५ में पापा का पहला गज़ल संग्रह ‘धुआँ चीरते हुए’ प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने अपनी १९७५ तक की पुरानी आत्मग्रस्तता के इर्द गिर्द घूमती हुई ग़ज़लों को छोड़ उन ग़ज़लों को स्थान दिया जिसमे अपने चारों ओर बिखरे परिवेश और यथार्थ का समावेश था .....संग्रह नोटिस किया गया और खूब किया गया ......उनके पास वरिष्ठ कवियों का आशीर्वाद था सराहनायें थीं ...मंच पर भी उन्हें देश के सुविख्यात साहित्य पुरोधाओं का आशीर्वाद मिला |बाद में उनके २५ और काव्य संग्रह आये उनके बाद दो संकलन और भी प्रकाशित हुए ,आज उनकी कवितायेँ रूहेलखंड विश्विद्यालय में बी.ए.के पाठ्यक्रम में संकलित हैं ....अपने गाँव में बहती सदानीरा नदी सोत नदी के लिए समर्पित संग्रह ‘सोत नदी बहती है ‘ उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान से पुरस्कृत कृति है ...पुरस्कार की लालसा मैंने कभी उनके अंदर देखी नहीं ना कभी अपने संबंधों को भुनाते हुए देखा... उन्होंने नौजवानों को आगे बढ़ाया, लिखने के लिये प्रेरित किया,लिखना सिखाया............उनका यही उपक्रम ‘विराट बदायूं महोत्सव’ के आयोजन के रूप में सामने आया...बदायूं क्लब जो यहाँ का एक प्राचीन और ऐतिहासिक क्लब हैं उसके सचिव पद पर उन्हें मनोनीत किया गया था उसी क्लब के तले उन्होंने बदायूं महोत्सव की परंपरा डाली ......पूरे उत्तर प्रदेश में इस महोत्सव की धमक सुनी जाने लगी थी ...और उत्सव धर्मी तो वो थे ही जहाँ वो वहाँ लोगों का कारवाँ सा बन जाता था ........



हम दोनों बहनें व्याहता हो गयी थीं मेरे बेटे ने उनके अंदर के छिपे बच्चे को फिर से एक्टिव कर दिया था ......चूँकि मेरा विवाह बदायूं में ही हुआ था .....तो उनकी सुबह शाम उसको देख कर ही सम्पूर्णता पाती थी मुझे मिलने वाले बचपन के प्यारे प्यारे संबोधन से अब वो पुकारा जाने लगा ,अब वो चाहते थे कि अपना ज़्यादातर समय घर पर दें,गिने चुने कवि सम्मेलनों में जाना चाहते थे अब वो .....कहते थे अब ज़िम्मेदारियाँ पूरी हो गयी हैं अब पठन लेखन पर कंसंट्रेट करूँगा बहुत सी पुरानी डायरियों में बंद बहुत कुछ सृजा हुआ अनदेखा पढ़ा हुआ था .......उन्हें स्वरूप देना था ....बहुत सम्रद्ध लाइब्रेरी थी उनकी ..आज जब भी मैं वहाँ से कोई भी किताब निकालती हूँ हर किताब में उनके हाथ से बने मार्क होते हैं जिन्हें वो सही समय पर ऐसे कोट करते थे जैसे मुँह जवानी याद हों ....एक सुखी और सम्रद्ध परिवार था हमारा ..........पापा का यश दिनों दिन बढ़ रहा था लेकिन स्वास्थ्य धीरे धीरे कमज़ोर हो रहा था .....उनके निरंतर गिरते हुए स्वास्थ्य ने उन्हें कई बार झटका दिया लेकिन उनकी लापरवाहियों का सिलसिला जारी रहा ...और एक सुबह जो सूरज उगते ही काली हो गयी ...४ अप्रैल २००५ की सुबह थी ...पापा को ब्रेन हेम्रेज हो गया था .......हमारे शहर से लगे शहर बरेली में पापा को १३ अप्रैल को काव्य पाठ करना था पूरा शहर डॉ.उर्मिलेश के नाम से पोस्टर से पटा हुआ था ..उसी शहर के एक हॉस्पिटल में वो ज़िन्दगी और मौत के बीच झूल रहे थे ..तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह ने मम्मी से कहा कि हम उन्हंो एयर एम्बुलेंस से यहाँ लखनऊ बुलवा कर उनका फरदर ट्रीटमेंट करवाना चाहते हैं लेकिन उनकी क्रिटिकल कंडीशन देख कर ये बिल्कुल संभव नहीं था ..बहुत सारी कॉम्प्लीकेशन एकदम उन पर तेज़ी से असर कर रही थीं ......और १६ मई हमारे परिवार के लिए सबसे काला दिन साबित हुआ .....ये सब लिखते लिखते मेरे हाथ मेरा साथ नहीं दे रहे हैं ...मैं इस पैराग्राफ को यहीं बंद कर देना चाहती हूँ ...



खुश और जिंदादिल होकर जीने की कला हमने उन्ही से ही सीखी थी इसीलिए अब उनकी ऐसी ही पंक्तिओं में उनका अक्स ढूँढते हैं और उन पर चलने का प्रयास करते हैं ......



बेवजह दिल पे कोई बोझ ना भारी रखिये 
ज़िन्दगी जंग है इस जंग को जारी रखिये 
कितने दिन जिंदा रहे इसको ना गिनिए साहिब 
किस तरह जिंदा रहे इसकी शुमारी रखिये .....


उनकी इन इंस्पिरेशनल लाइन्स ने मुझे क्या ना जाने कितनों को संबल दिया है कितने दिन ज़िंदा रहे इसको ना गिनिए साहिब ,किस तरह ज़िंदा रहे इसकी शुमारी रखिये .......यही लाइनें हैं जो हम से कह रही हैं क्यों हम गिने कि उन्होंने सिर्फ़ ५४ वर्ष की अल्प आयु का जीवन जिया... हम वो गिने कि इतनी आयु में भी वो ऐसा अविस्मरणीय जीवन जीकर गए हैं जो ज़्यादातर कोई शतायु होकर भी नहीं कर पाता है ......


                                                                                                                                 डॉ सोनरूपा विशाल 





डॉ उर्मिलेश जी का  परिचय



 राष्ट्रीय गीतकार डॉ. उर्मिलेश   

पिता – जनकवि पं.भूप राम शर्मा ‘भूप’
जन्म - ६ जुलाई १९५१ .इस्लामनगर (बदायूं)
निधन - ६ मई २००५
शिक्षा – एम.ए (हिंदी ) पी-एच.डी
सम्प्रति – ने.मे.शि.ना.दास.स्नातकोत्तर महाविद्यालय,बदायूं
प्रकाशित साहित्य –
१.साहित्यशास्त्र और समालोचना के सरल आयाम
२.नया सप्तक –व्याख्या और विवेचन के नए आयाम
३.गीत –पहचान और परख
४.धुँआ चीरते हुए (ग़ज़ल –संग्रह)
५.सोत नदी बहती है (गीत –संग्रह)उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान द्वारा पुरस्कृत
६.डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लें (ग़ज़ल संग्रह)
७.घर बुनते अक्षर (गीत-मुक्तक संग्रह)
८.चिरंजीव हैं हम (राष्ट्रीय गीत-संग्रह)
९.गंधों की जागीर (दोहा–संग्रह)
१० –वरदानों की पांडुलिपि(दोहा–संग्रह)
११.बाढ़ में डूबी नदी (गीत-संग्रह)
१२ .जागरण की देहरी पर (नवगीत-संग्रह)
१३.बिम्ब कुछ उभरते हैं (नवगीत-संग्रह)
१४.फ़ैसला वो भी गलत था (ग़ज़ल संग्रह)
१५.धूप निकलेगी (ग़ज़ल संग्रह )
१६.आईने आह भरते हैं (ग़ज़ल संग्रह)
१७.अक्षत युगमान के (सामयिक कविता-संग्रह)
१८.ज़िन्दगी से जंग (ऑडियो सी.डी.)
१९.आपका साथ (डॉ.उर्मिलेश की ग़ज़लें-सोनरूपा विशाल द्वारा स्वरबद्ध)
२०.स्वरांजलि(शर्मा बंधु,उज्जैन द्वारा स्वरबद्ध डॉ.उर्मिलेश के गीत)

विशेष- हिंदी कविसम्मेलनों के चर्चित एवं प्रतिष्ठित कवि ,सचिव बदायूं क्लब ,संयोजक/संस्थापक ,बदायूं महोत्सव एवं कविता चली गाँव की ओर ,विविध साहित्यक संस्थानों /पत्रिकाओं के संरक्षक.
संपादक- माटी के हरसिंगार,अंचला,मंच,परंपरा,बदायूं महोत्सव स्मारिका,इतिहास पुरुष पं.राजेश दीक्षित अभिनन्दन ग्रन्थ
अलंकरण- कवि-भूषण,राष्ट्र कवि ,भारत श्री ,गीत गंधर्व,आचार्य श्री ,भारत श्री ,युग चारण,राष्ट्र गौरव ,साहित्य श्री ,आकाशवाणी,दूरदर्शन एवं कई चैनलों के लोकप्रिय कवि,देश के लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित
उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा २००७ में मरणोपरांत यशभारती सम्मान,रोटरी इंटरनेशनल द्वारा पोलियो के उन्मूलन में ‘कविता चली गाँव की ओर’ कार्यक्रम के संयोजन से अपना बहुमूल्य योगदान हेतु इंडिया नेशनल पोलियो कमेटी द्वारा मरणोपरांत ‘रोटरी सेना के महारथी’ सम्मान,इलाहाबाद राष्ट्रीय राज भाषा पीठ इलाहाबाद द्वारा मरणोपरांत भारतीय रत्न सम्मान

Sunday, February 24, 2013

कहानी : संझा - किरन सिंह


कहानी : संझा - किरन सिंह
-----------------------------

 "'हंस' सितम्बर २०१२ में प्रकाशित 'संझा' एक किन्नर की कहानी है! 
संघर्ष से लेकर स्वयं अपनी अस्मिता स्थापित करने तक की बेहद मार्मिक 
प्रेरक कहानी है!
 प्रिय कथाकार  किरण जी फरगुदिया पर हार्दिक स्वागत!"  




(तुम लोगों में से कोई बुड्ढा कह गया है कि दुख कई तरह के होते हैं। खालिस बकवास। दुख एक है- बिछड़ना। धन हो कि स्वास्थ्य कि अपने लोग...इन तीन से बिछड़ना। तो करोड़ों साल से एक ही तरह के दुख और एक ही तरह से दुखी लोगों को देखते-देखते मैं ऊब गया हूँ। तुम्हें बताऊँ, मैंने इस बार, एक नये किस्म का दुख रचा है। आओ मेरे साथ। क्या ? तुम लोग दूसरों के दुख में मजा नहीं लेते! दाई से पेट छिपाते हो बे!)


रहमान खेड़ा गाँव के लोग नदी के तीर-तीर बसते चले गए। इस तरह चार गाँव बन गए-बंजरपुर, मुरसीभान, गुलरपुर और 
रहमानखेड़ा  तो पहले से था ही। चारों गाँवों में कुल मिला कर सौ घर होंगे। यह इलाका तीन तरफ पठार, एक तरफ छिछली नदी और चारों तरफ बेर के जंगलों से घिरा है। यहाँ न कारखाने लग सकते हैं, न जमीन में पैदावार है न पनबिजली परियोजना बैठाई जा सकती है। इसलिए यह इलाका गरीब है। बेदखल है। और स्वायत्त है।


चारों गाँवों में एक-एक परिवार ही बढ़ई, धोबी, दर्जी,कुम्हार और लुहार हंै। और एक ही वैद्य जी हैं। वह चैगाँवा के सबसे इज्जतदार आदमी हैं। इसलिए इज्जत उतारने के लिए उन्ही को चुना गया है। इन्ही वैद्य महाराज के घर आठ बर्ष बाद संतान जन्म ले रही है।

ये मूड़ी बाहर निकली...चेहरा...पेट...नाभि...वैद्य जी ने साँस रोक ली...लड़का है कि लड़की। एक चीख....निकलने से पहले ही वैद्य जी ने दोनों हथलियों से मुँह दाब लिया है- ‘‘रात-बिरात कोई दवा के लिए दरवाजे पर ठाढ़ होगा। सुन लेगा!’’

‘‘ पूत है कि धिया ? बोलते काहे नहीं ?’’दर्द से थकी बैदाइन सोना चाहती थीं।

‘‘ पता नाहीं!’’

‘‘ पता नाहीं ? पता नाही! पता नाहींऽऽ’’

सौरी के दरवाजे पर रखी बोरसी के गोइठे से भभका उठा। सपनों के कपाल क्रिया की चिराईंध गंध कोठरी में भर गई।

‘संतोख रखो वैदाइन! आठ बरस बाद कोई पानी को पूछने वाला तो आया घर में।’’ आज वैद जी के काटने से नाल खींच रही थी। वैदाइन को दर्द का भान नहीं था।

सुबह चैगाँव रंग में था। ‘‘बेटी सतमासा भइ ह तो का ! बंस तो आगे बढ़ा! परती धरती का कलंक तो छूटा! हलवाई बैठाना पड़ेगा बैद जी! खुसी का मौका है।’’

छठी-बरही दोनों दिन सबको न्योतना पड़ा। गाँव भर बेटी को गोद में खिलाने की हठ पर अड़ा था। वैद्य जी ने सबके प्रेम का सत्कार करते हुए हाथ जोड़ा और कहा-

‘‘सतमासी लड़की बहुत कमजोर है। बाहर निकालने पर हवा-बतास लग जाएगी। दो चार रोज ठहर जाइए।’’

वैद-वैदाइन ने बेटी का नाम रखा है-संझा।

(संझा! हुँह!इनकी बेटी में दिन और रात, दोनां का मिलन है। इसलिए वह सिर्फ दिन और सिर्फ रात से अधिक पूर्ण-पहर है।)

संझा के जन्म से पहले बैदाइन दिन भर घर से बाहर रहतीं थीं। ‘हवा खाओं नाहीं तो दवा’ वैद्य जी के टोकने पर उनका जवाब होता। अब बैदाइन ने अपने को एक कोठरी में समेट लिया था।

‘‘एक कोठरी से काम नहीं चलेगा बैदाइन! संझा ठेहुन-ठेहुन चलेगी तो जगह चाहिए।’’ वैद्य जी ने पिछवाड़े के खेतों को घेरते हुए जेल जितनी ऊँची मिट्टी की चहारदीवारी उठवा दी।

‘‘भला काम किया आपने बैद महराज। मैं रोज पानी छिड़क दूँगी। घर ठंडा रहेगा। सोधी गंध उठेगी।’’ बईदायिन ने लंबी साँस भरी। खुली हवा की साँस जैसे मिले न मिले।

‘‘सियार चाहे भेडि़ए दीवार पर चढ़के भीतर कूद जाएँगे। हमारी बेटी को उठवा ले जाएँगे।’’ आँगन के ऊपर और घर की खिड़की में बैद्य जी ने जाली लगवा दी।

‘‘ठीक महराज! मैं इस पर लतर फैला दूँगी। मेरी बेटी के साथ-साथ बढे़गा।’’ बैदाइन ने आसमान को जी भर देखते हुए कहा।

सखियाँ-सहेलियाँ बैदाइन को संदेशा भिजवाती कि ‘‘तुम छौड़ी के जनम के बाद गरबीली हो गई हो।’’ बैदाइन बिना मन के सखियों से मिलने बाहर निकलती। ‘‘बिटिया को काहे नहीं लाई। हमने उसे देखा तक नही।’’सबके पूछने पर बैदाइन कहतीं-ं ‘संझा सुरु के साल दुआर पर भी नहीं निकली न! अब बाहर निकलते ही रोने लगती है। आप के नजीक दो घड़ी हम बैठ भी न पाते। फिर सतमासा के नाते बहत सुकुवार हैं।’’

(मैं चाहता था कि संझा को प्रेम न मिले। जिससे वह किसी को प्रेम दे भी न पाए। और हर तरह से बंजर रहे। लेकिन कोई बात नहीं। सतरंगा संसार देख लेने के बाद, आँखो की रोशनी छिन जाए, तो जन्मांध से अधिक पीड़ा होगी।)

चहारदीवारी में बन्द बैदाइन पीली पड़ती जा ही थीं। ‘‘मेरी संझा का क्या होगा ! मेरी संझा का क्या होगा बैद जी!’’वह संझा को गोद मे लिए यही रटती रहतीं।

( कितना भी पढ़े हों, परीक्षा में सफलता का तनाव लेने वाले फेल हो जाते हं। )

तीन बरस की संझा सोच रही थी कि माँ सोई है। वह माँ की बाँह पर लेट गई थी। बैद जी बड़बड़ा रहे थे- ‘‘बैदाइन धोखा दे गई तुम। तुमने भँवर में साथ छोड़ा है बैदाइन! बस कहने को बैद जी महराज, कहने को संझा रानी ! मन में न मेरी चिन्ता थी न बेटी की!’’

‘‘बेटी की चिन्ता! रात में चिता नहीं जलती। नरक मिलता है। लेकिन कल सुबह बैदाइन को जलाया तो संझा को किसी के पास छोड़ना पड़ेगा। गाँव वाले बेटी को श्मशान नहीं जाने देंगे।’’
‘‘जो जिन्दा है, उसे देखना है।’’ उसी समय बैद्य जी ने बैदाइन को महावर सिंदूर लगाया। लाल साड़ी में लपेटा। खटिया पर बाँधा। सोई हुई संझा को कंधे पर लादा। एक हाथ से खटिया घसीटते, हाँफते हुए श्मशान पहुँचे। सुबह गाँव वालों से कहा-‘‘बरम्ह मुहूर्त में एक घड़ी के लिए मुक्ति का पुन्य योग बन रहा था। आप लोागें को जगाता तब तक समय बदल जाता।’’

( अच्छे भले बच्चे को तो पिता सँभाल नहीं पाते संझा तो... अब भेद खुलने ही वाला है। वे लोग भी दाहिनी पहाड़ी पर पहुँचने लगे हैं। )

वैद जी मुँह-अँधेरे उठ जाते। बेटी को बुकवा-तेल मलते, नहलाते-धुलाते। बेटी की इलास्टिक लगी कच्छियाँ मोरी में बहा दी थी। वैदाइन की कुछ सूती साडि़यों से लँगोट बना लिये थे। सूने घर में भी बेटी को लँगोट पर पैजामी फिर लंबी फ्राक पहनाते। थुल थुल वैद्य जी, बेटी के साथ बड़े से आँगन में दौड़-दौड़ कर खेलते जिससे वह थक जाए। संझा के सोने के बाद उसकी कोठरी में बाहर से ताला बन्द करते और गद्दी पर औषधि देने के लिए बैठ जाते। लौट कर आते तो संझा टट्टी, पिशाब और आँसुओं में लिपटी मिलती।

जब बैदाइन थीं, भोर होने से दूसरे पहर तक, वैद्य जी जंगल में जड़ी छाँटते थे। अब वे संझा को अकेले छोड़ कर इतनी देर के लिए कैसे जाएँ ? उसे साथ लेकर तो बिलकुल नहीं जा सकते। गाँव वाले उसे गोद में लेने के लिए झपटने लगेगें। कही संझा ने पेशाब कर दिया और स्त्रियाँ उसकी पैजामी बदलने लगीं तो ?

औषधि के बिना चैगाँव के लोग निराश हो-हो कर लौटने लगे। एक दिन वैद्य जी के दरवाजे पर पंच इकट्ठा हुए -‘‘बैद महराज सिरफ अपनी छौड़ी को देख रहे है। हम सब भी तो आपके ही भरोस पर हैं। आप संझा बिटिया की देख भाल के लिए दूसरा लगन कर सकते हैं। हम दूसरा बैद कहाँ से पाएँगें ?’’

वैद्य जी ने बहुत सोच कर जवाब दिया-‘‘बात संझा की बिलकुल नहीं है। बात ये है कि बैदाइन के जाने के साथ ही मेरे हाथ से जस भी चला गया। दवा फायदा नहीं करे तो इलाज से क्या फायदा। आप लोग पहाड़ी पार के कस्बे में जाइए।’’
(जब जान जाने लगती है तो बंदरिया भी अपने बच्चे को फेंक कर तैरने लगती है।)

रोगी आने बन्द हो गए। वैद्य जी के घर का एक-एक सामान, गाँव वालों के हाथ, जोन्हरी और कोदो के बदले बिकने लगा। आज वैद्य जी ने जाँत में फँसे जौ के आटे को झाड़ कर इकट्ठा किया। भून कर संझा को पिला दिया था।

‘‘मैं भी मर गया तो! नहीं, नहीं! ... मुझे जीने की सारी शर्तें मंजूर हैं।’’ उन्होंने सोच लिया-‘‘लोगों का मुझ पर से भरोसा उठ गया तो क्या! मैं उन्हें खुद पर भरोसा करने की औषधि दूँगा।’’ संझा ने देखा कि उसके बाउदी खड़े होने पर गिर रहे हैं। फिर साँप की तरह रेंगते हुए जंगल की दिशा में जा रहे हैं।

पेड के नीचे सुस्ताते, रहमान खेड़ा के किसान से वैद्य जी ने कहा-‘‘ मुझे कुछ खाने को दो, तुरन्त। बदले में मैं तुम्हें मर्दाना ताकत की शर्तिया कारगर औषधि दूँगा।’’ उसकी स्त्री से कहा-‘‘इससे तुम्हारा बाँझपन भी दूर होगा।’’

महीना भीतर, सूरज निकलने से पहले ही, वैद्य जी के ओसारे में लोग जगह छेका कर बैठने लगे। जंगल से बहुतायत में उगी मुसली तोड़ने में वैद्य जी को समय न लगता और इसे लेने वाले पैसे भी तुरन्त दे देते। कभी, मरते हुए आदमी के सभी अंगों में जुंबिश भर देने वाले वैद्य जी, एक अंग तक सीमित हो कर रह गए थे।

‘‘बाउदी! आप की फंकी में फफूँद लग रही है। इमाम दस्ते में दवा कूटते समय आपके आँसू गिरते रहते हैं ! अपने मन भर जड़ी नहीं बटोर पाते इसलिए न! आज से जंगल में औषधि के लिए मैं जाऊँ बाउदी!’’


‘‘नहीं! नहीं! बाहर निकलते ही तुम्हें छूत लग जाएगी। एकदम भयंकर! लाइलाज बीमारी! मैंने कितनी बार तुम्हें समझाया है।’’
‘‘कौनो बीमारी नहीं लगेगी। मैं बहुत ताकतवर हूँ।’’
‘बैद हम हैं कि तुम। फिर चैगाँवा में लड़कियाँ बाहर नहीं निकलती।’’
‘‘आपने मुझसे तीली माँगी थी। जब मेरी उमिर की लड़की की उँगली कट गई थी। वह बन में चरी काटने गई थी न! ’’
‘‘तुम बूटियाँ नहीं पहचान पाओगी। बिलकुल नहीं। ’’


‘‘बाबूजी! आपने मुझे औषधि बनाना सिखाया हैं। पढ़ना लिखना सिखाया है...मैंने लाल जिल्द वाली किताब में पढ़ा है...सर्पगंधा की झाड़ से साँप नहीं गोबर की बास आती है। मजीठी..
‘‘बाहर की दुनिया बहुत खतरनाक है संझा!’’
‘‘आप भी बाउदी! आप जब औषधि देते हैं, मैं दरवाजे की झिर्री से झाँकती रहती हूँ। सब आदमी- औरत आपके आगे हाथ जोड़े रहते है...सब पीड़ा में कराहते हैं। बेचारे लोग...आप झूठ्ठे डर रहे हैं बाउदी ?’’


‘‘मैं तुमको इस संसार के बारे में कैसे समझाऊँ बेटी!’’


‘‘आपने मुझे दुनियादारी सिखाने के लिए कितनी सारी कहानियाँ सुनाई तो हैं... बृहन्नला की... शिखंडी की... अर्धनारीस्वर की... कृष्ण के चूडि़हारिन बनने की...।’’


बैद्य जी उठ कर बाहर चले गए। वह समझ गए कि समय आ गया हैं।
वैद्य जी ने बारह साल से बन्द खिड़की की, जंग लगी सिटकनी खोल दी। उस खिड़की पर, वह पतली जाली लगी हुई थी, जिससे भीतर से बाहर सब कुछ देखा जा सकता था किन्तु बाहर से भीतर का कुछ भी नहीं दिखाई देता था। वैद्य जी ने दूसरा काम यह किया कि पानी की कमी वाले उस इलाके में, खिड़की से पचास कदम की दूरी पर, खूब गहरी बोंिरंग का हैण्डपम्प लगवा दिया।

‘‘रोटी बनाने के बाद यहाँ से दुनिया देखना बेटी।’’ कहते हुए बैद्य जी बाहर निकल गए।
वैद्य जी को आज, अपनी बारी की प्रतीक्षा में बैठे रोगी टोक दे रहे थे-‘‘ बैद्य जी! अपना भी दवा-दारु कीजिए। आपके हाथ से फंकी गिर-गिर जा रही है।’’

‘‘हाँ-हाँ.. वो सूरत भाभी होंगी, जो मस्से निकलने से परेशान है। खूब लंबी...वो तो बाउदी की मीना बहिनी ही हैं। खाँसते-खँासते जिनका चेहरा लाल हो जा रहा है वो कमलेसर चाचा होंगे। गुलबतिया...हाँ, वही है, जिसके घुटने पर बड़े फोडे का दाग है। वो रमजीत्ता होगा, बैल जैसे कंधों वाला।’’ वैद्य जी, संझा को गाँव के हरेक आदमी का नक्शा बता चुके थे। एक दूसरे पर गीली मिटटी फेंकते, नहाते, बतियाते, पुट्ठे पर हाथ मार कर हँसते लोग-‘‘बाप रे! सब कितना अच्छा है...मेरी अम्मा जैसा।’’

संझा ने बाउदी से चहक-चहक कर सब कुछ बताया, कई बार बताया- ‘‘देखा बाउदी! कहाँ लगी छूत की बीमारी! नहीं लगी न! सब मेरे फुआ, चाचा, बाबा, आजी ही तो थे। मैं औषधि लेने जंगल में निकल सकती हूँ।’’

‘‘अभी रुको बिटिया!सँभल के संझा! महीने भर तक तुम्हें कोई बीमारी नहीं लगी तब सोचूँगा।’’ खिड़की खुलने के बाद, बाउदी के झुकते जाते कंधे, संझा अपनी ख़ुशी के आगे देख नहीं पा रही थी।

दूसरे दिन, सूरज निकलने से पहले ही, हैण्डपम्प चलने की आवाज आने लगी। उनींदी संझा झट खिड़की पर जा बैठी। माएँ नहा रही थीं। खिड़की के नीचे उसकी उम्र की आठ दस लडकियाँ, फ्राक उठाए, उकडू़ बैठी थीं। वे बातें करती हुई खिसकती जा रही थीं। उनके छोटे भाई उसकी दीवार पर पिशाब कर रहे थे।
‘‘ये छौड़े-छौड़ी इसी धरती के हैं न ! फिर इनका सब कुछ मेरे जैसा क्यों नहीं है ?
‘‘हो सकता है मैंने अँधियारे में आँखें फैलाकर देखा हो तो चीजें बड़ी दिखी हों।’’


(अपाहिज माँ का इकलौता बेटा मर जाए तो वह असंभव बातें कहती है- ‘उसकी साँस चल रही थी। लोग अपना काम खतम करने के लिए हड़बड़ी में दफना कर घाट से लौट आए।)


‘‘ऐसा तो नहीं कि मुझ में ही गड़बड़ी हैं। वो चीज उन सबकी की एक जैसी थीं। मैंने बाउदी की किताबों में ऐसी फोटुएँ देखी तो थीं। लेकिन ये क्या हैं, तब मैं बूझ नहीं पाई थी।
... नहीं! बाउदी ने बताया है कि मैं चैगाँव की सारी छौडि़यों में सबसे अच्छी हू। फिर उमिर के साथ सारे अंग बढ़ते हैं। याद है, अँगूठेभर का मुखिया का लड़का बाउदी की दवा से एकदम से खींच गया था। इसके बढ़ने की भी कोई दवा जरुर होगी। मेरे बाउदी तो मरते आदमी को जिन्दा कर देते हैं।’’


सब कुछ ठीक है। तब संझा की रोटियाँ क्यों जलने लगी थी और हाथ भी। बाउदी के सामने बिना बात उसकी नजरें हत्यारिन जैसी झुकी क्यों रहने लगीं थीं।
वैद्य जी चुपचाप अपनी टूटी-फूटी संझा के लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे।


वैद्यजी देख रहे थे कि उनकी बेटी सो नहीं रही है। वह, उनके बाहर निकलने का इंतजार करती है और खिड़की पर बैठ जाती है। हैण्डपम्प पर नहाते लोगों के एक-एक अंग को खा जाने वाली निगाह से देखती है। रात में वैद्य जी जल्दी ही आँखों पर हाथ रख कर लेट जाते। संझा तुरन्त उठकर ढिबरी की बत्ती चढ़ा लेती। आयुर्वेद की पोथियों के अक्षर जोड़ कर रात-रात भर पढ़ती। चैथे पहर फिर खिड़की पर।


छः महीने बीतने को आ गए। संझा के बाउदी ने तो संझा को यही बताया हैं कि चरक, सुश्रुत, धनवन्तरि से कुछ भी छूटा नहीं है। बाउदी अपनी संझा से झूठ थोड़े कहेंगे। लेकिन जो तकलीफ संझा को है, कहीं उसकी चर्चा नहीं, नाम निशान कुछ नहीं। जबकि बहुत-बहुत घिनौनी बीमारी के बारे में तक तो लिखा है।


‘‘कहीं इस कमी को पाप तो नहीं मान लिया गया है, जिसकी चर्चा तक छिः मानुख है। बाउदी हो !’’


...कुछ नहीं। बाउदी ने जो दवा मुखिया के लड़के को दी थी, उस दवा को खाते हैं। दो-चार महीने बीतते-बीतते सब अच्छा हो जाएगा। बाउदी से बात करने की.... कौन जरुरत ? वो भी यही औषधि देंगे।’’


छः महीने और बीतने के साथ ही संझा का चैदहवाँ साल लग गया। उसके साथ की लड़कियों के अंग जब मुलायम और गदरारे हो रहे थे। उस समय संझा का बदन तेल पिए हुए लाठी की तरह लंबाई नाप रहा था, ऊँचाई के नाम पर सिर्फ गाँठें उभर रही थीं। उसकी नसें बैगनी और त्वचा मोटी हो रही थी। उसकी ठुड्डी और होठों के ऊपर भूरे रोंएँ उग रहे थे। गालों की हड्डियाँ उभर रही थीं और चेहरा तिकोन में लंबा हो रहा था। किन्तु एक अंग वैसा ही था, सुई की नोक के बराबर। वह शीशे के सामने खड़ी रहती। गिरने-गिरने को होती तो बैठ जाती। एक छेद उसके दिल में होता जा रहा था जिससे वह बन्द कोठरी में कपड़े पहनना भूलने लगी थी।


एक आखिरी उपाय। उसके बाद वह बाबा से बात करेगी। बाबा ने वरदराज की कथा सुना
ई थी। उसके हाथ में बिद्या की रेखा नहीं थी तो उसने हथेली चीर कर बिद्या रेखा बना ली थी। वह भी अपनी किस्मत बदल देगी।

(बिल में पानी भरने से चूहे बाहर निकलते हैं। साँिपन को निकालना हो तो बिल में आग लगानी पड़ती है।)

संझा उन्माद में थी। उसने ढिबरी की लौ धीमी कर दी। आँगन में लगी, नीम-तुलसी की पत्ती पीस कर रख लिया। बन्द कोठरी में जमीन पर लेट गई है और दोनों पाँव दीवार पर फैलाकर टिका लिया। शरीर को धनुष की तरह तान लिया। अम्मा की धोती फाड़ कर मुँह में ठूँस लिया। भगवान के नाम पर बाउदी की तस्वीर उभरी और चाकू वहाँ रख लिया। लंबी साँस ली। साँस रोकी। और चाकू की फाल धँसा लिया। वह लंबान में चीर देने के लिए ताकत लगाना चाहती थी। लेकिन चाकू धँसने के साथ ही बदन निचुड़े कपड़े की तरह ऐंठने लगा। आँखें, साँस लेने बाहर निकली मछली के मुँह की तरह खुलने-झपकने लगी। मुँह में ठुँसी हुई माँ की धोती निकाल कर, वहाँ रखते हुए, लहराती आवाज में कहा-‘‘बाऽउऽदी बाऽउऽदी’’


वैद्यजी को लगा कि वह तो संझा को लेकर सपने में भी डरे रहते हैं। हंर समय लगता है कि बेटी पुकार रही है। दुबारा-तीबारा वही आवाज सुनकर कोठरी की ओर भागे।


‘‘संझा आँख खुली रखना। सोना मत संझा! संझा! संझा सोना मत!’’ वैद्यजी चिल्लाते हुए पिछवाड़े के जंगल की दिशा में दौड़ रहे थे। मूसली के सिवाय घर में रखी शेष औषधियों में फफूँद लग चुका था।
वैद्यजी बेटी को गोद में लिए नित्य क्रिया कराते। नीम के पानी से घाव धोते। लेप लगाते और संझा के दोनों पाँव जाँघ के पास से बैदाइन की धोती से बाँध देते जिससे दरार जुड़ती चली जाए।

सातवें दिन वैद्य जी ने संझा से कहा- ‘‘तुमको ऐसा नही करना चाहिए था बेटी। तुम्हारी जिन्दगी चली जाती।’’

‘‘बाउदी क्या अगला जनम होता है।’’

‘‘क्या तुमने मेरे मुँह से कभी सुना है कि तुम मेरे पिछले जन्म के पाप की सजा हो।’’
‘‘नहीं बाउदी’’

‘‘जब पूर्व जन्म नहीं होता तो पुर्नजन्म भी नहीं होता।’’
‘‘क्या कोई रास्ता नहीं बाउदी !’’
‘‘किस्मत ने एक जरुरी अंग हटा कर तुमको पैदा किया है, बेटी!
जीवन के लिए सबसे जरुरी तो आँख हैं। जोगी चाचा अंधे पैदा हुए। जरुरी तो हाथ है। बिन्दा बुआ का दाहिना हाथ कोहनी से कटा है। रामाधा भइया तो शुरु से खटिया पर पड़े हैं, रीढ़ की हड्डी बेकार है। बिसम्भर तो पागल है, जनम से बिना दिमाग का। क्या.. वो..वो आँख, कान, हाथ, पाँव, दिमाग से भी बढ़ कर होता है ?

‘‘ तुम बंस नहीं बढ़ा सकती।’’
‘‘गाँव में ऊसर औरतें भी हैं, मान से रहती हैं।’’
‘‘बाउदी आप चुप क्यों हैं। क्या मैं किसी के काम की नहीं।’’

‘‘.इस धरती के बासिन्दों ने तुम्हारी जाति के लिए हलाहल नरक की व्यवस्था की है। उस नरक के लोग पहाड़ी पर तुम्हारे जन्म के सात साल बाद आ कर बस गए हैं। वे लोग कपड़े उठा कर नाचते हैं और भीख माँगते हैं। लोग उन्हें गालियाँ देते हैं, थूकते हैं, उनके मुँह पर दरवाजा बन्द कर लेते हैं, उन्हें घेर कर मारते हैं। वे जिस इलाके में बसे हों, वहाँ कोई भी अपराध हो, इन पर ही इलजाम लगता है। वे डरे और जले हुए लोग अपनी बिरादरी बढ़ाना चाहते हैं। तुम्हारे बारे में पता चल गया तो वो लोग तुम्हें छीनने आ जाएँगे और चैगाँव के लोग तुम्हें घर से खींच कर उनके साथ भेज देंगे।


‘‘मुझे छूत की बीमारी नही लगेगी। मैं इस समाज के लिए अछूत हूँ...घिन्न खाने लायक हूँ।’’
‘‘तुम्हें जिन्दगी भर अपने आप को छिपाना है संझा!’’
‘‘मैं बाहर निकलना चाहती हूँ बाउदी! मै औषधि की पत्तियाँ छूना चाहती हूँ। बहता पानी...गीली मिट्टी...जंगल..आसमान देखना चाहती हूँ! बाउदी! मैं दौड़ना चाहती हूँ... खूब जोर से हँसना चाहती हूँ....सबके जैसे जीना चाहती हूँ। आपके कहने से मैं ऐसे रह तो जाऊँगी लेकिन दो चार दिन की ही रह जाऊँगी बाउदी!’’


‘‘मेरी गुडि़या! तुम आज रात से बाहर निकलोगी। मैं उपाय करता हूँ।’’
वैद्य जी दो रात पहले संझा बिटिया का नाम लेकर चिल्लाते हुए क्यों भाग रहे थे ? वे गद्दी पर क्यों नहीं बैठ रहे हैं ? चैगाँव के सवाल का जवाब तैयार था-‘‘तुम लोग गँवई ही रहे। बूढ़ा बैद कुछ सोच कर दो दिन से दम साधे है। पास आओ, उस रात डकैत आए थे। ’’
‘‘डकैत!’’

‘‘हाँ!’’ अपने चोटिल साथी को लेकर। मेरी खिड़की के नीचे बैठे थे। संझा बिटिया ने उन्हें देख लिया। मैं ने छोड़ा नहीं, उनको दौड़ लिया। बिटिया का नाम इसलिए ले रहा था जिससे उसे हिम्मत बनी रहे और तुम सब जाग भी जाओ। अरे हाँ सुनो! भागते-भागते वे कह गए कि सारा जंगल छोड़ कर, मेरे घर के ठीक पीछे वाले जंगल में छिपे रहंेगे। मुझसे बदला लिए बिना वहाँ से नहीं जाएँगे। इसलिए तुम लोग सब दिशा में जाना, मेरे घर के पीछे के जंगल की ओर मुँह करके मूतना भी मत।’’


‘‘धन्न! बैद महराज! आपकी दवा-पट्टी से ठीक होकर वे हमें ही लूटते। आपने अपने पर जोखिम लेकर हमको बचाया।’’
(बुड्ढा वैद्य सती बाप है।)
संझा के घर के पिछवाड़े से, जंगल तक की, बेर के कांटों भरी पगडंडी, राजपथ बन गई। जिस पर वह दो-चार दिन अपने बाउदी की ऊँगली पकड़ कर लड़खड़ाते हुए चली। उसके बाद उड़ने लगी।


वह बन की रात में, जुगनओं से भरी ओढ़नी, माथे पर टार्च की तरह बाँध लेती। वह रात भर की राजकुमारी के सिर पर हीरों का ताज था। पके हुए कटहल से कोया निकाल कर पखेरुओं के खाने के लिए बिखेर देती। कटहल की खोइलरी में छेद कर के बरगद की जटाएँ फँसाती और कमर से लटका लेती। यह औषधि का थैला था। पाँवों में चप्पल की तरह पुआल बाँध लेती और हरेक पेड़ को छूते हुए, कांटों पर बेधड़क दौड़ती। युवा पेड़ों का पानी, संझा के छूने से, देर तक काँप कर ठहरता। बूढ़े और बच्चे पेड़ों को, अपनी नींद के लिए, संझा की थपकियों की आदत पड़ चुकी थी। ‘‘देखें डाँट खाने पर कैसा लगता है!’’ वह बरगद की डाल को झकझोर देती। अधेड़ कौए उस पर मिल कर चिल्लाते। सोए हुए जानवर आँखें खोल कर संझा को देखते, मुस्कुराते और ऐसे सो जाते जैसे माँ को बगल में देख कर बच्चे सोते हैं।


जंगल  में, कोई संझा को देख लेता तो सबसे यही कहता-‘‘ मैंने कल रात उड़ने वाली हरियल साँपिन को देखा है।’’

संझा महसूस करती कि रात में हवा सम पर चलती है क्योंकि सोए हुए पेड़ बराबर से साँस लेते हैं। पेड़ों को झकझोरने पर, रात में सन्नाटा रहता है तब भी, दिन जितनी आवाज नहीं होती। हरा रंग, काले रंग से गाढ़ा होता है। तभी तो, दूर अँधेरे में, पेड़ की मोटी जड़ नहीं दिखाई देती, किन्तु नन्हीं पत्ती दिखती है।

तीसरे पहर वह औषधि बटोरती। ‘‘कल हैण्ड पम्प चलाते समय सहचन दादा की नकसीर फूट गई थी। उसकी नाक में टपकाने के लिए दूब का रस और लेप के लिए नदी की मिट्टी ठीक रहेगी। बुन्नू दादी की गठिया के लिए नागरमोथा...अर्जुन...अरे वही जो बृहन्नला बना था...उसकी छाल करेजे की औषधि है ? बहुत अच्छा! आज तो मधु के लिए मधुमाखी के भी हाथ जोड़ना है भाई ! बाउदी ने कहा था.....कतरो की माहवारी नहीं साफ आ रहा है...माहवारी ? ये कौन सी बीमारी हैं ? उँह! बीमरियों के बारे में जितना कम जानो अच्छा।’’


वह थकने लगती तब पानी में उतर जाती। चिडियाँ जब संजा को चेताना शुरु करतीं कि सुंबह होने को है, संझा पानी से खेलना छोड़े और घर जाए, तब वह अध्र्य देती और कहती- ‘‘हे सूर्ज हे! हे जंगल! हे जल! मुझ अछूत को ऐसी सिफत देना कि मेरे छूने से औषधि अमरित बन जाए। ’’
संझा और उसके साथ की लडकियाँ कपड़े पहने हुए ही नहाने लगी हैं।


अन्तर शर्म और शर्मिन्दगी का है। उसके साथ की लड़कियों के पास, भौंरो वाले सूरजमुखी से लदी चोटियाँ थीं, उस समय वह पठार का पठार ही रह गई। बदन पर कड़े होते बाल, पठार पर सूखी घास की तरह थे। वह इतनी लम्बी है कि माँ की साडि़याँ छोटी पड़ती हैं। बैगनी नसों और अँगूठे पर उगे रोएँ वाला पाँव छिपाने के लिए उसे कमर से बहुत नीचे साड़ी बाँधनी पड़ती थी। ठुड्डी और होंठों के ऊपर की रोमावली ढकने के लिए वह पल्लू को सिर से लेने के बाद, नाक के नीचे से उस कान तक, तर्जनी-अँगूठे से पकड़े रहती। चेहरे पर सिर्फ आँखें दिखती और पीछे पूरी कमर खुली रहती।

संझा कभी नही जान पाएगी कि लंबाई के कारण उसकी कमर में, नदी के अचानक मुड़ जाने जैसा कटाव बनता है। उसकी उभरी-चिकनी रीढ़ की घिर्रीयाँ, नदी में उतरती सीढि़याँ लगती हैं।


(ये संझवा हरियल नाहीं, पनियल साँपिन है। काहें कि साली की लचक से मेरे मन में ऐसी लहरें उठने लगी हैं जइसे पनियल साँपिन के चलने से पानी में उठती हैं।)


संझा की समझ में यही आया कि उसे हम उमिर लड़कियों को देख कर घबराहट होती है। इस कारण, उसे लड़कों को देखना अच्छा लगने लगा है।


‘‘बाउदी! वो हर शनिचर पहाड़ी से औषधि लेने उतरता है, कौन है ?


‘‘ललिता महाराज का गोद लिया हुआ बेटा है। तुमने देखा होगा ललिता महराज को। भक्ति में नाचते-बजाते पहाड़ी पर चले आते हैं।


‘‘नाचने-बजाने की आवाज से कँपनी चढ़ने लगती है बाउदी! ’’


‘‘तुम्हारे साथ की लड़कियाँ ब्याही जा रही हैं। सारे गाँव में रोज ढोल घूमेगा। अपने को थामे रहना बेटी!’’


चैगाँव की बेटियों के बाप हल्दी और अच्छत लेकर सबसे पहले वैद्य जी को न्योतने पहुँचते। उस समय वैद्य जी का चेहरा पीला-सफेद पड़ जाता।


(मैं वर्तमान के भय से, भविष्य के भूत पैदा करता हू" )


चैगाँव आपस में बात करने लगा कि संझा बिटिया को हल्दी नही लगेगी क्या ?
‘‘वैद्य जी साँसे-ढेकार नही ले रहे हैं।’

‘‘संझा बिटिया के भाग से बूढ़ा बैद कोठिला भर-भर धन-जस कमा रहा है। तो काहें ब्याह करेगा। ’’


चार पंच जन वैद्य जी के दरवाजे पहुँचे-‘‘संझा के साथ की सब लड़कियाँ ब्याह दी गई हैं बैद जी!’’


‘‘अरे हाँ! बैदाइन होती तो ध्यान दिलातीं...मैं आज से ही बर खोजने निकलता हूँ।’’ बैद जी जवाब देकर बैठ गए।


‘‘संझा के साथ की लड़कियाँ बाल-बच्चेदार हो गई हैं बैद जी! वे नाती-पोतों वाली हो जाएँ तब संझा को बियाहिएगा का ?’’


‘‘देख रहा हूँ। यहाँ-वहाँ गया था। पनही टूट गई...’’


छठें-आठवें साल बैद्य जी आजिज आ गए-‘‘मेरी गुनवन्ती बेटी जोग दामाद भी तो जोड़ का मिले। मेरी बेटी मछरी तो है नही जो सड़ रही हो! उठा कर गड़ही में फेंक दूँ।’’
चैगाँव के लोग तिलमिला गए।‘‘ हमारी बेटिया सड़ी मछरी थीं और इनकी संझा में सुरखाब के पंख जड़े हैं। ’’


‘‘इसका कहना है कि हमने अपनी बेटियों को गड़ही में फेंक दिया।’’


‘‘चैबासे में तो लेन-देन भी नहीं चलता।’’


‘‘फिर बैदा संझा का ब्याह क्यों नही करना चाहता ?’’


‘‘बैद ने वैदाइन के मरने के बाद अपना ब्याह भी क्यों नहीं किया। जबकि हमारे यहाँ की कई उनके साथ बैठने को तैयार थी ?’’


‘‘बैद...बैदाइन के मरने के बाद औषधि छोड़ कर मूसली क्यों बेचने लगा ?


‘‘कहीं बाप ही...’’


‘‘संझा को इसलिए बाहर नहीं निकलने देता कि वह सब बता न दे!’’


(संझा को जन्म लिए सत्ताइस साल हो गए। बूढ़ा वैद्य पहले ही संझा को घर से निकाल देता, तो मुझे आज अपने खरबों बर्ष के जीवन मे, पहली बार इतना पतित न होना पड़ता। खैर! दुनिया तक यह फरमान जाना ही 

चाहिए-‘‘किस्मत से लड़ा जा सकता है। हराया नहीं जा सकता।’’)

वैद्य जी दाहिनी पहाड़ी पर चढ़ते। उधर किन्नरों की बस्ती थी। दूसरे दिन बाएँ हाथ की पहाड़ी पर चढ़ते। जिधर चैगाँव देवता का मन्दिर था। वह दोनों ओर हाथ जोड़ते और लौट आते।


‘‘बेटी! तुमने एक दिन कहा था-अपनी जिन्दगी बनाए ंरखोगी, किसी भी हाल में।’’


‘‘मैं अपनी जिन्दगी नहीं खतम कर रही हूँ बाउदी! आप मुझे आदमखोरों के बीच भेज रहे हैं।


‘‘मैं मजबूर हूँ।’’


‘‘मुझे बचाने से बढ़ कर क्या मजबूरी हो सकती है बाउदी!


‘‘मै बता नहीं सकता।’’


‘‘मेरी बात मुझसे ही नही बता सकते ?’’


‘‘मैं ने देखा कि तुम हर शनिवार....वो पहाडि़यों से उतरता हुआ लड़का...कनाई...अच्छा मानुख है...’’


‘‘वो लड़का और आप लोग मानुख हैं। मैं छिः मानुख हूँ बाउदी!’’
वैद्य जी ने आज पहली बार संझा को जोर से बोलते हुए सुना था। वे चैंक गए-‘‘ तुम बिदाई के समय चुप रहना। रोना मत बेटी!’’


वैद्य जी दीवार के सहारे पीठ टिकाए बैठे रहते । चैगाँव की परिपाटी के अनुसार, बेटी के ब्याह में सभी जुट कर काम कर रहे थे -‘‘वैद्य जी को ललिला महराज जैसे नचनिया का घर ही मिला था ब्याह के लिए। कनाई उनका सगा बेटा भी नहीं है। वृंदावन के मन्दिर में फेंका मिला था।’’


‘‘ संझा की उमिर भी तो बैद ने घर में बैठा कर बढा़ दी। कैसा भी सासुरा हो लड़की को अपना घर तो मिला।’’


‘‘देखों कैसा हाथ डाले बैठा है बैदा! कुछ नहीं कर रहा पापी!’’


विदाई के समय, संझा अपनी कोठरी से निकलने को तैयार नहीं हो रही थी। उसने कई दिन से खाना छोड़ दिया था और जमीन पर लस्त पड़ी थी। लाल साड़ी में बँधी हुई संझा को, कंधे में हाथ देकर चैगाँव की स्त्रियाँ, घसीटते हुए, डोली में बैठाने के लिए बाहर ला रही थीं।


वैद्य जी संझा को एकटक देख रहे थे। उन्हें लगा कि वह लाल कफन से ढकी, खटिया पर घिसटती वैदाइन हैं। ‘‘अरे वैदाइन हो ! सब छोड़ चले!’’ अपने बाउदी का कलपना सुन कर संझा का बन्द मुँह खुल गया।
‘‘ऐसे ही करना था तो अपने हाथ से माहुर दे दिए होते बाउदी! बली खातिर बकरी सयान किए बाउदी! आखिरी भंेट! हे बुन्नू चाची! तिल्लो मौसी! सुब्बू भइया! मेरे बाउदी का खयाल रखिएगा। अरे बाउदी हो बाउदी!’’ भूखी संझा कराहते हुए, छाती पीटते हुए रो रही थी।


पिता-पुत्री के प्रेम को देख कर सभी आपस में कहने लगे-‘‘हमारी बेटियाँ भी बिदा र्हुइं। ऐसा कलेजा बेध देने वाला बिलाप तो चैगाँव में आज तक नहीं सुना। बाप की कितनी चिन्ता! इसी मारे संझा ही ब्याह नहीं करना चाहती होगी। हाँ, येही बात थी। ’’


ललिता महाराज के मन में उसी समय से संझा के लिए गाँठ पड़ गई। ‘‘ऐसा चिग्घाड़ रही है जैसे मेरे घर रेतने ले जाई जा रही है। आवाज देखो इसकी-मर्दाना।’’


‘‘संझा! मैंने रोने को मना किया था न! जिस दिन से ब्याह तय हुआ है, इतना रोई है कि गला फट गया है।’’ वैद्य जी ने ललिता महराज और गाँव को सुना कर कहा।


(आज मैंने बूढ़े वैद्य के हाथ से संझा को छीन लिया है। आज वह अकेली है। आज मेरे खेल का चरम है। आज कनाई संझा के वस्त्र उतारेगा। फिर उसे कपड़े पहनने का मौका नहीं देगा। संझा गिड़गिड़ाएगी, बाप की इज्जत की भीख माँगेगी। उसी हालत में बालों से खींचता-कूटता-लतियाता हुआ, दाहिनी पहाड़ी से उन लोगों की ओर ढकेल देगा। जिस औरत का रोया रोया रो रहा हो उस औरत का नृत्य देखा है कभी, एक अलग मजा मिलता है। कोठे हर शहर में होते है, बीबियाँ होती हैं, प्रेमिकाएँ होती हैं फिर भी बलात्कार होते है कि नहीं। इसी मजे के लिए। )


संझा जमीन बैठी थी। वह खटिया का पावा पकड़े थी। ताखे नुमा रोशनदान से चाँदनी, प्रोजेक्टर की रोशनी की तरह, संझा के बदन पर पड़ रही थी। रोशनी में, लाखों धूल के कण, बेचैन गति से इधर-उधर दौड़ रहे थे। ढिबरी की लौ संझा के बाएँ वक्ष पर पड रही थी। हवा साँस थामे थी। फिर भी ढिबरी की लौ बुझने-बुझने को होकर लपलपा उठती थी।


‘‘धोखा हुआ है! ’’कनाई पाटी पर बैठ चुका था।
खून बहने से खून सूख जाने का दर्द ज्यादा ठंडा होता है।
‘‘मैं तुम्हें सब कुछ बता देना चाहता हूँ। तुम मेरी बात सुन रही हो न ?’’
स्ंाझा ने हाँ में सिर हिला दिया- ‘‘ये तो कोई अपनी बात बता रहा है।’’


‘‘जनमास्टमी का दिन था। बसुकि के चारों भाइयों ने मुझे मन्दिर के पीछे वाली चट्टान पर चित्त पटक दिया। तीन भाई मुझे लात से दबाए हुए थे। उसका चचेरा भाई, पहवारी नाम है उसका, वही लाठी से मेरी ढोढ़ी (नाभि)से नीचे की नसों को तोड़ने लगा। जइसे मूसल से चिउड़ा कूट रहा हो। वे चारों चीख रहे थे कि मैं एक नचनिया की गोद ली हुई औलाद हूँ। बेर खाकर गुजारा करता हूँ। मेरी औकात कैसे हुई उनकी बहन को छूने की।’’ देवथान में गोपिका गीत, झाल-करताल, मँजीरा, अपने उठान पर था। चिरई भी मेरी बचाने की पुकार-गुहार नहीं सुन सकी।


....जान चली जाती तो भी मैं बसुकि को नही छोड़ता। लेकिन उस दिन के बाद मैं किसी काम लायक नही रह गया ।


...तुम्हारे बाउदी के पास मैं हर शनिचर अपने जिन्दा रहने की आस लेने जाता था। इधर कुछ दिनों से मैने निराश होकर जाना बन्द कर दिया था। वैद्य जी ने इसका यह अरथ निकाल लिया कि मैं ठीक हो गया हूॅ। मैं भी सबसे अपनी बात छिपाना चाहता था। इसके लिए विवाह करना जरुरी था, सो चुप रहा।
... तुम दिन में मेरे साथ दिखावे के लिए बनी रहना। रात में अपने जिस प्रेमी के पास कहोगी, मैं खुद पहुँचा कर आऊँगा। मैंने तुम्हें धोखा दिया है। मैं बधिया कर दिया गया हूँ।’’कनाई संझा के पाँव पर अपना माथा रख चुका था।
स्ंाझा ने अचकचा कर कनाई को सीने से लगा लिया।
कनाई को संझा की खपच्चियाँ उस पिंजरे की तरह लगीं, जहाँ बसान करके, वह उड़ान भले न भर पाए लेकिन सुरक्षित है-‘‘मैं बेर और लाख की रखवारी के लिए बन के मचान पर ही रहता हूँ। सुबह के पहर यहाँ आता हूँ, दो-तीन घण्टे देवथान का काम करना होता है। तुम यहाँ मेरी अम्मा की कोठरी में रहोगी या मेरे साथ चलोगी ?’’


संझा ने कनाई की हथेली में अपनी सकुच-हथेली रख दी।


(प्रेम करने वाले का दिमाग संसार का सबसे तेज दिमाग होता है। मैं सोच रहा था कि मैं उस बुड्ढे बाप की पीठ पर चढ़ा हूँ। वह चुप इसलिए था कि क्योंकि उसको मुझे पीठ पर चढ़ा कर तगड़ा धोबी पाट देना था।)


मचान पर, कनाई के नाक बजने की आवाज सुन कर संझा ने घूँघट उठाया। वह एक पहर तक कनाई को देखती रही। कोई उसके इतने पास है, उसका सगा है- ‘‘बाउदी ने गोपाल को उसके फाड़ (आँचल) में डाला है। वह जान लगा लग़ा देगी उसमें जान डालने के लिए।’’


उस रात की सुबह, बेर के कांटों भरे जंगल में, हरी पत्तियों के बीच पीले-सिन्दूरी बेर थे। भूरी डालियों पर की लाख, सुहागी लाल थी।


मचान पर औधें लेटा हुआ कनाई, दूर नदी की ओर देख रहा था। नदी से उठते कोहरे की कमर पर भृंगराज की पत्तियाँ कैसे लिपटी है ? ओह यह तो संझा है जो नदी में खड़ी डुबकी ले रही थी। रात के तीसरे पहर संझा ने भृंगराज और कोइन यानी महुए के बीज को कूँच कर तेल बनाया, गोपाल की पीठ पर बैठ कर उसकी मालिश की, उसे केले की जड़ का रस पिलाया था। चैथे पहर नदी की ओर निकल गई थी।


‘‘संझा! देर हो गई, देवथान चलो जल्दी। तुम्हारे छूने से जो आराम मिला है वो ललिता महराज कुटम्मस करके बढा़ देगे।’’


संझा ने आँचल से हाथ बाहर निकाल कर बरजने का इशारा किया-‘‘मुझे यही छोड़ दीजिए। ’’

‘‘नहीं!नही! तुम, चलो!’’गोपाल ने संझा की पीपल के पत्तों जैसी नसों वाली काँपती हथेली थाम ली और खींचता हुआ ले आया।


संझा ने बाहरी दुनिया का एक अनुमान लगाया था। उसकी ससुराल का, उसके अनुमान की दुनिया से, कोई मेल नहीं था। उसकी ससुराल में तीन पत्थर की कोठरियाँ थीं। जिसके दरवाजे जान बूझ कर छोटे बनाए गए थे कि गर्दन झुकानी पड़े। एक कोठरी में चैगाँव देवा स्थापित थे। दूसरी कोठरी में उसके ससुर के उतारे कपड़े रखे थे। तीसरी कोठरी में सास ने अपनी लाठी रख दी थी। महाराज जी ‘‘गिरा कर मारुँगा’’ कहते हुए उनके हाथ से जब तब लाठी छीन लेते थे। कम उम्र में ही उसकी सास झुक-झूल गईं थीं। आँगन के कोने में रखे फूटे बर्तनों में बरसात का पानी भरा था, जिसमें मुर्दा मकड़ी तैर रही थी।


‘‘कनइवा की माई!’’


संझा वैदाइन की साडि़याँ ही पहनती थी। वे पुरानी-सूती साडि़याँ, बदन और सिर से चिपकी रहती, फिसलती नहीं थी। उसका घूँघट उसके लिए मायके की खिड़की की तरह था। उस खिड़की से उसने आवाज की दिशा में देखा। उसकी आँख पत्थर की आँख की तरह पलक झपकाना भूल गई।


उसके ससुर के हाथ पैर चेहरे पर एक भी बाल नहीं था। उनकी आँख में अमावस की रात में बनाया गया चैडा़ काजल था। होंठों पर अढ़उल की पंखुरियों को मसल कर तैयार की गई लाली थी। नाक से लगायत माँग के आखिरी छोर तक, अभ्रक मिला सिन्दूर रगड़ा हुआ था। वह राधानामी घाघरा और कुर्ता पहने थे। लाल गमछे को सिर पर ओढ़नी की तरह लपेटे हुए थे। उनका बदन, सिन्दूर से टीके गए मुगदर जैसा था।


‘‘कनइवा की माई! ये नई दुलहिन है ? पुरानी मारकीन क्यों पहने है ? सजी-बजी काहें नही है ? इससे कह दो, परसों साइत है। उस समय इसकी मुँह दिखाई करुँगा। इस पर जल छिड़क कर इसका नया नाम रखूँगा-रास मणि।’’ संझा पर ललिता महराज की एक्सरे-नजर थी। वह देख रहे थे कि संझा एक हाथ से चुन्नट को जाँघों में दबा रही है। दूसरे हाथ से पल्लू को सीने पर कस रही है।


‘‘ये साडि़याँ इसके माँ की असीस की नाई इससे ढके रहती होगी...हैं न बहुरिया ! आओ मेरे साथ काम सीखो।’’ उसकी सास, उसेे ससुर के सामने से हटा ले गई थीं।


‘‘तुम्हारे ससुर माने ललिता महराज जी, किसुन लीला में राधा रानी बनते थे। वृन्दावन में राधा रानी इनके सिर पर्र आइं और महराज जी से कहा कि तुम मेरी सखी ललिता हो। जाओ चैगाँव देवता के मन्दिर में प्रान प्रतिसठा करो। वहीं रह कर हमारी सेवा करो।


...संजोग देखो उस बेरी ये अँगना में कह कर गए थे कि नौटंकी में घूमते-घूमते बदन को थाका मार गया है। अब यही चैगाँव में, एक असथान पर रहने का मन है। लेकिन बैठ जाऊँगा तो खाऊँगा क्या ? देखो देबी ने सब कैसे जान लिया ? सिद्ध पुरुख हैं महराज जी!’’ संझा की सास ने, जमीन पर जैसे ललिता महराज के पाँव हों, इस भाव से माथा टेकते हुए कहा।
‘‘नाहीं दुलहिन! अभी कौनो काम मत करो। चार रोज सो-बैठ लो। मचान पर निकलने से पहिले मन्दिर में हाथ जोड़ लेना। एक दम हउले से, महराज जी जाप में बैठे होंगें।’’


संझा को देख कर कनाई को बार बार भ्रम क्यों होता है। शाम की पहाडि़यों से उतरती, संझा को देखकर उसे लग रहा है कि वह अपना रंग आसमान को दे कर उतर रही है। सन्ध्या स्नान करती हुई संझा, नदी को अपनी सखी बना कर, उसके साथ अपना सिंदूर बाँट रही है।


संझा ने कनाई की दाढ़ी बनाने का इशारा करते हुए चोली से औजार निकाल लिया।


‘‘ये तुमको कैसे मिला।’’


संझा ने साँस खींच कर अपनी आँखें बन्द कर लीं और तर्जनी पर अँगूठा चढ़ा लिया।

‘‘अच्छा! ललिता महराज जाप में बैठे थे, तब तुमने चुरा लिया। वाह! मन से मस्त हो लेकिन जबान से नहीं बोलती, काहें ?’’
संझा ने नजरें झुका लीं।

‘‘लाज लगती है ?’’


संझा ने सिर हिला दिया।

‘‘इसीलिए इतना ढके तोपे भी रहती हो अपने को। खानदानी घर की बेटी हो न! ’’


संझा ने कनाई से दाढ़ी बनाना सीख कर उसकी दाढ़ी बनाई। उसे मालिश करके नहलाया और औषधि देकर सुला दिया। इस दौरान कनाई बिना रुके-थके बोलता रहा। लगता था कोई पहली बार उसे सुनने वाला मिला है।


कनाई ने संझा को बताया कि ललिता महराज उससे कहते हैं -‘‘ तुम तो भूसा घास कुछ भी खा लोगे भगठी-छिनार की औलाद, लेकिन देवता को तो ये नहीं खिला दोगे। देवता के लिए असली घी की एक्इस पूड़ी और गाय के दूध का बड़ा कटोरा भर खीर का इंतजाम तो करना ही पड़ेगा, कहीं ले आओ।’’ दो चार भगत-साधु मन्दिर में बने ही रहते थे। जिनके लिए प्रसाद बढ़ा कर बनाना पड़ता है। कनाई और उसकी माँ के हिस्से में बेर बचता है। कनाई ने आमदनी बढाने के लिए दो साल से बेर बेचने के साथ लाख की खेती भी शुरु की है। लेकिन उसके पास बढि़या उपज योग्य न ताकत बची है न लागत है।


वह कनाई का सब कुछ लौटाएगी। ताकत भी लागत भी। ‘‘कहीं ठीक होकर कनाई उसी पर मर्दानगी दिखाने को उतावला हुआ तो! तो ? वह अपने को बचाने के लिए उसे ऐसे ही छोड़ दे ? नहीं, उसके बाउदी ने उसे धरम सिखाया है। जब कनाई ठीक जाएगा तब वह कनाई से कह देगी कि वह बरम्हचारी रहना चाहती है। वह बसुकि से ब्याह कर ले। वह कनाई के लिए इतना कर रही है तो कनाई बदले में उसकी हर बात मानेगा। हाँ ये सही है।’’


संझा को सबसे पहले कनाई, अपनी सास और अपने लिए भरपेट भोजन का इंतजाम करना था। उसकी समझ में यही आया कि वह लाख की खेती में मेहनत बढ़ा देगी। साथ-साथ जंगल में अपने काम-काज से आए लोगों को औषधि देना शुरु करेगी।


यही सब सोचती हुई संझा, अगली सुबह, दोनों हाथों में भरी-बड़ी बालटी लेकर मन्दिर धोने के लिए चढ़ रही थी। उसने देखा कि पहाड़ी पर खड़े ललिता महराज अचरज से उसे देख रहे हैं। उसने लड़खडा़ कर बाल्टी का पानी गिरा दिया। मानों उसने पानी भर तो लिया था लेकिन अब इतनी ताकत नहीं है कि लेकर चढ़ सके।


‘‘बइठो बहुरिया! माथ से आँचल तनिक पीछे सरका लो।’’


मुँह दिखाई के समय संझा की आँखें बन्द थी। उसे भान हो रहा था कि ललिता महराज की आँखें उसके चेहरे पर नाच रही हैं। ललिता महराज जो खोज रहे थे वह कल रात नदी तीरे गड्ढा खोद कर दफना दिया गया था-संझा के बदन,चेहरे के बाल, कनाई के मचान पर सो जाने के बाद।


संझा मनुष्यों की दुनिया में धीरे-धीरे शामिल हो रही थी।


शुरु के महीनों में वह, उजाला और आदमियों से इतना डरती थी, मानो वह इंसान नहीं कोई प्रेतात्मा हो। उजाले में उसके कपड़ों के पीछे तक का सब कुछ दिख जाएगा। आदमी उसे बोतल में बन्द करके नदी में फेंक देगे। जैसे उस रोग के कीटाणु को मारने के लिए उसी रोग के टीके लगाए जाते हैं, भयानक भय को जीतने, और अपने को बचाए रखने की धुन में संझा केे भीतर प्रेतीली ताकत पैदा हो रही थी। इसी प्रक्रिया में वह चैदह साल की उम्र से अपनी नींद भूल चुकी है। वह पेड़, थुंबी या दीवार के सहारे झपकी लेती है और प्रेत की तरह काम करती है।


अपने को जिन्दा रखने के लिए वह सबकी जरुरत बन जाना चाहती थी।
‘‘संझा! अपने को हवा क्यों नही लगने देती हो ? पल्लू हटा कर बैठ लो पल भर! तुमने गर्दन पीछे करके पानी में अपना ये हिस्सा देखा है कभी! कनाई बहाने से संझा की कमर पर हाथ फेर रहा था। वह संझा के इतने पास आ गया कि उसकी साँस का महुआ संझा की साँस में चढ़ने लगा।


संझा ने नशा तोड़ने के लिए खट् से बेर की लक्खी डाल तोड़ दी। कनाई चैंक गया। संझा, बेर की लाख से भरी डालियों की गुल्ली काटती जा रही थी। अपने लंबे हाथों से बेर की ऊँची शाखाएँ झुका कर उनमें गुल्ली बाँधती जा रही थी। उसके बाद वह उन गुल्लियों पर पुआल लपेट देती। लाख बनाने वाले करियालक्का कीड़े गर्मी पाकर जल्दी बढ़ते हैं। उसने कनाई से इशारा किया कि आओ काम में हाथ बटाओ।


कनाई ने भी इशारे में जवाब दिया कि मैं मचान पर आराम से लेट कर तुम्हें देखूँगा। एक यही काम मुझे अच्छा लगता है।


कनाई जब सोकर उठा तब संझा नदी पर थी। कुल्थी का साग तोड़ती स्त्रियों को इशारे से बता रही थी.. ये किसी के ठेहुनों में दरद होतो...ये भूख न लगती हो तो। संझा उनके सामने ही जड़ या पत्ती का टुकड़ा तोड़ कर पहले खुद खा रही थी-
‘‘देखो माहुर नहीं दे रही हूँ। मैं बैद जी की बेटी हूँ। सही औषधि दे रही हूँ।’’ गाँव की स्त्रियाँ संझा के इशारे समझने की तकलीफ क्यों उठाए ? इसलिए संझा को औषधि देते समय बोलना पड़ रहा था।


‘‘तुम ? हमरे बैद महराज की बेटी हो!
.‘‘तबियत में सुधार हो तब आना-दो आना पैसा, चाहें पाव-आध पाव जोन्हरी-कोदो, जो तुम्हारी सरधा हो, लेती आना चाची। सिमरा फुआ का हाल अब कैसा है ?’’


‘‘ऊ चंगी हो रही हैं। बिदाई के समय रोते-रोते तुम्हारी आवाज फट गई थी वो अभी ठीक नहीं हुई क्या संझा ?’’
‘‘अरे चाची! अभी चैगाँव को मुझ पर भरोसा नहीं न! सबके सामने औषधि खानी पड़ती है। उसी में गलती से सिन्दूर का फल खा लिया। अब तो ये आवाज कबहु नहीं ठीक होगी।’’


संझा को अपने पर अचरज हुआ। किसी ने उसके उसके बारे में कुछ पूछा नहीं कि दिमाग सन्न! हो जाता था। आज कैसे उसे अपनी भारी और फटी आवाज का हमेशा के लिए जवाब मिल गया ? कोई उसे जवाब भेज रहा है, बचा रहा है-बाउदी !
‘‘बहुरिया! आज महराज जी पूजा नहीं करेंगे। तुम्हें ही करना है।’’ अगली सुबह देवथान आने पर उसकी सास ने कहा।


‘‘क्यों ?’’ संझा की दो पल की चुप्पी में यह सवाल था।
‘‘महीना हुए हैं। तीन दिन असुद्ध रहंगे।’’


तीन दिन बाद संझा ने अपनी माँ की पुरानी साड़ी फाड़ी। उस पर सहतूत कूच कर लगाया। जहाँ ललिता महराज की माहवारी के कपड़े धोकर फैलाए गए थे, वहीं वो कपड़े फैला दिए। पेड़ पर धारी खींचने लगी कि सत्ताइसवाँ दिन याद रहे। वह तो कहो कि गाँव की स्त्रियों से उनकी पीड़ा के बारे में सीधे बात करने के बाद वह माहवारी के बारे में जान गई थी।


‘‘तुम तीन दिन मचान पर लेटी रहोगी तो त्राहि त्राहि मच जाएगी बहुरिया!’‘ चैगाँव की घसियारिनें कहने लगीं।
संझा ने तीन दिन कनाई से फंकी कुटवाई और पुडि़या बँधवा कर जरुरतमंदों को दिया। सत्ताइस दिन बीतते न बीतते चैगाँव की स्त्रियाँ खुद कहने लगती-‘‘बहुरिया औषधि पहले ही बना कर रख लेना। कनाई से कहना तीन दिन कहीं जाए नहीं। ’’


‘‘ये लोग मुझसे नहीं, अपनी जरुरतों से प्रेम करते हैं। मैं अपनी असलियत भूल रही हूँ। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। मुझे प्रेम की आदत पड़ रही है। एक दिन सब कुछ छिन जाएगा। कनाई...चैगाँव... सबके प्रेम के बिना...सबकी घिन्न के साथ...उसे जिन्दा रहना पड़ेगा अगर !’’


संझा की झपकी उचट जाती। वह बदहवास सी, चैगाँव के बाकी किसानों की डालियों पर भी पाल बाँधने लगती। चैगाँव के लिए, कनाई के लिए, अपनी सास के लिए, इसको-उसको, सबको स्वस्थ रखने की औषधि तैयार करने लगती।


चैगाँव के लोग अगली सुबह अपनी पाल बँधी डालिया देखते तो कहते-‘‘संझा बिटिया के कारन यहाँ की हवा बदल रही है।
‘‘वह बन देबी है। कुँवारेपन से उसके लच्छन देबियो जैसे थे।’’
‘‘हम अपनी तकलीफ के लिए मुँह खोलते ही हैं कि आगे बीमारी का लच्छन वो खुद ही बताने लगती है।’’


‘‘मैं रात में उसके पास धावता हुआ गया तो क्या देखता हूँ कि पहले से ही औषधि लिए खड़ी है।’’


‘‘हाँ! हाँ! हमारे साथ भी ऐसे ही हुआ है।’’


चरी काटने, पाल बाँधने, बेर तोड़ने, लकड़ी बटोरने, नदी नहाने आई स्त्रियाँ, संझा से गाँव-जवार का एक-एक सुख-दुख बतियाती। हारी-बीमारी की चर्चा जरुर करती थीं। इससे संझा को अंदाज लग जाता था कि किसकी बीमारी रात के एकांत में हमलावर हो जाएगी। उसकी औषधि की जड़ी पत्तियाँ वह कूट-छान कर रख लेती थी।


कुछ और बीमारियाँ भी थी जिसकी दवा लेने वाले रात में ही आते थे।


‘‘मैं बसुकी!’’


‘‘हम आपको बिन देखे पहचानते हैं।’’


‘‘आप मेरी तकलीफ के बारे में कइसे जानती हैं।’’


‘‘क्योंकि तुम सुन्दर हो। गाँव की स्त्रियाँ तुम्हारी चुगली कर रही थीं। कह रहीं थी कि बसुकि संझा बनना चाहती है। तीन महीने से घर के बाहर नहीं निकली। यह सुन कर मैंने बुलवाया। तुमको इतनी देर नहीं करनी चाहिए थी।’’


‘‘दीदी! कनाई से मत बताइएगा।’’


‘‘नहीं, किसी को कुछ नहीं।’’


‘‘मेरी साड़ी पहनो। ये जड़ी खालो। मेरे साथ सोन नदी के किनारे चलो।’’
बसुकि के देह से खण्ड-खण्ड, कट-बह कर निकलता रहा। संजा उस पर मिट्टी डालती रही और बसुकि के बदन पर पानी। उजाला होने से पहले, बसुकि को सहारा देकर, उसके घर के दरवाजे तक छोड़ आई।


सात दिन की औषधि खत्म होने के बाद, बसुकि, रातों को संझा और कनाई से मिलने आने लगी। संझा उन दोनों को मचान पर छोड़ कर बहाने से उतर आती और चारों दिशाओं में पहरा देती।


भादो का महीना लग गया था। पीले बेर फटने लगे थे। बेर की अपनी आधी डालियाँ भूरी और लाख से लदी डालियाँ लाल हो चुकी थीं। लंबी-लंबे बास का गुलेल बनाकर लाख की डालियों को टिकाया जाने लगा था। लाख की लाली और पानी के बादलों के कारण जंगल दिन में भी शाम की तरह लाल-साँवला रहने लगा था। काँस छाती तक चढ़ आया था और गोजर-बिच्छुओं का मन बढ़ गया था।


हर साल भादों के कृष्ण पक्ष में ललिता महराज कृष्ण लीला करवाते थे। इस बार संझा के कारण घर में धन था। देश-देश से सखी और भक्त जन आए थे। चैगाँव से भी दो लोगों ने ललिता महराज से मन्त्र ले लिया था। दिन भर कीर्तन चलता। कई बार प्रसाद बँटता।


दिन भर सखी लोग सोती थीं। शाम से, संझा उसकी सास और चैगाँव की कई स्त्रियाँ सखी लोगों की सेवा करके पुन्य बटोरतीं। आठों सखियों को चिरौंजी का उबटन मला जाता, कुएँ की जगत पर बैठा कर नहलाया जाता, पीले-लाल रंग की पुडिया से रँगे बाडी,पेटीकोट, साड़ी, ब्लाउज,महावर, चूड़ी, बिन्दी चढ़ाव पर दिया जाता। चैगाँव के बच्चे भीड़ लगाकर उन्हें देखते और गरीब-गुरबा उनका जूठन खाकर जनम सुद्ध करने के लिए बैठे रहते

शाम से कृष्ण लीला होती। रात्रि के दूसरे पहर सखी लोग भक्ति भाव में नाचती-गाती, रासलीला की झाँकी दिखातीं। तीसरे पहर मन्दिर का कपाट बन्द कर दिया जाता। बन्द कपाट के पीछे प्रकृति और पुरुष का चिरंतन नृत्य होता, जिसमें सिर्फ सखी लोग शामिल होतीं। नित्य लीला कोई भूल से भी देख ले तो अंधा हो जाएगा।


संझा की सास, ललिता महराज और सखी लोगों के कपड़े धोते हुए, पिछले चार दिनों की तरह, आज भी उलटी कर रहीं थी। संझा उन्हें काम करने से मना करते हुए उनके हाथ से कपड़े छीनने गई थी। वह देखने लगी कि गेरुए कपडों पर नाक बहने जैसा क्या लगा है ? उसी समय देवथान पठार के नीचे की समतल जगह से हल्ला उठा-


‘‘ललिता महराज! कनाई को बाहर निकालो! ये हमारी बहन बेटियों को खराब कर रहा है।’’


नीचे समूचा चैगाँव इकट्ठा था। ललिता महाराज नींद से उठकर बाहर निकले। हाथ के इशारे से शांत हो जाने को कहा लेकिन...


‘‘हम उस हरामी को हमेशा के लिए ठंडा करने आए हैं। बहुत गरमी चढ़ी है साले को। आप कनाई को हमें सौंप दीजिए।’’ये बसुकि के भाई थे जिनमें पहवारी सबसे आगे था।


‘‘कनाई ने ऐसा क्या कर दिया ?’’


‘‘उसने हमारी बसुकि को... कहते जीभ कट रही है...गरभ ठहरा दिया था।’’
‘‘कनाई! कनाइवा! हमारे जइसे धरमी के साथ रह कर भी छिनार की औलाद ही निकला। आप लोग निचिन्त रहिए। ललिता महराज के दरबार में आए हैं। न्याय होगा। मैं कनाई को आप सब को सौंपता हूँ। कनाई! ’’


संझा की सास चैगाँव देवता से गुहार करती हुई जमीन पर लोटने लगी। दरवाजे की ओट में खड़ी संझा समझ नहीं पा रही थी कि कनाई को कैसे बचाए ? भीड़ के सामने जाने की उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी। वह बसुकि के बारे में सब को बता दे... नहीं बेचारी कितने लोगों के साथ बदनाम होगी।’’


‘‘सुनो कनाई! तुम कह दो कि ठीक है....पंच लोग आज ही बसुकि से तुम्हारा ब्याह कर दें। ’’ संझा ने किवाड़ की ओट से कहा।


‘‘नहीं! बसुकि के भाई लाठी के हुरे से मेरा कपार फाड़ डालेंगे। मैं सब सही-सही बता दूँगा।’’
‘‘कनाइवा! मैं तुम्हें लेने आऊँ कि तुम खुदे आ रहे हो ?’’ ललिता महराज क्रोध में चीख रहे थे।


‘‘मैंने कुछ नहीं किया है ललिता महराज! चैगाँव के लोगों।’’ कनाई ने देख लिया कि पहवारी उसे दिखा कर,अपनी लाठी से, मिट्टी को धान की तरह कूट रहा है।
‘‘मैं...मैं नपुंसक हूँ...’’


‘‘झूठ्ठे हो तुम! संझा जैसी ताकतवर औरत को तुम सँभाल न पाते तो वो कबका तुम्हें छोड़ कर किसी मर्द के साथ बैठ गई होती! ललिता महराज! इसे पहाड़ी से ढकेलिए ! हमें सौंपिए। आज सारा चैगाँव सबक सीखेगा।’’
‘‘नहीं रुकिए! मेरी बात सुनिए आप लोग... संझा मुझे इसलिए छोड़ कर नहीं गई कि....वो ....वो हिजड़ा है। एक दिन बिसेसर चाचा को नींद के लिए पोस्ता दाना देने से पहले इसने खुद चख लिया था। उस रात, मेरी जानकारी में ये पहली बार सो गई थी। इसकी साड़ी इसके सिर पर चढ़ गई थी और पल्लू हट गया था। तब मैंने देखा था-


‘‘...कि संझा का ऊपर बेर है और नीचे बेर का कांटा...’’

‘‘मुझको तो उसकी चाल और आवाज के कारन बिदाई के दिन से सुबहा था।’’
‘‘आदमियों से भी ज्यादा तो उसकी ताकत है तभी तो हमसे बढ़ कर काम कर लेती है।’’


‘‘उसके हाथ का छुआ पानी नहीं पीना चाहिए लेकिन उसने पूरे गाँव को अपने हाथ से औषधि पीस कर कई-कई दिन तक पिलाया है।’’


‘‘वह हम सबको अपने जैसा बनाना चाहती थी। इसलिए हम सबको असुद्ध कर रही थी।’’


‘‘वह तीस साल से सबको धोखा देकर हमारे बीच रह रही है।’’


‘‘उसने चैगाँव की माटी को...बन को...नदी को मैला किया है।’’


‘‘उसने मेरे देवथान को अपवित्तर किया है। इसको नग्न करके इसका बाल मूँड़ दो। मुँह पर कालिख पोत कर पूरे चैगाँव में मारते हुए घुमाओ। उसके बाद उन लोगों को खबर कर दो इसे आकर ले जाएँ। राधे!राधे! पूरे चैगाँव को सुद्ध करने के लिए जाप बैठाना पड़ेगा। सखी लोगों के रुकने की अवधि बढ़ानी पड़ेगी।’’


बसुकि के भाई संझा के केश पकड़ घसीटते हुए नीचे ले आ रहे थे। कंकड़ ओर बेर के यहाँ-वहाँ बिखरे काँटों पर रगड़ती हुई संझा कहना चाहती थी ‘‘चैगाँव देवा! रच्छा करो’’ ’ लेकिन उसके मुँह से निकला ‘‘बाऽऽउदी! बाऽऽउदी! ये लोग आपकी संझा को मार रहे हैं!’’ संजा की डेकरती हुई आवाज पहाडि़यों से टकराती हुई बैद्यजी की तक पहुँचती, उसके पहले ही बूढ़ा बाप बैचेन होकर, हाँफता हुआ संझा के ससुराल की दिशा में दौड़ चुका था।


चैगाँव के लोगों में संझा को नंगा करने की होड़ मची थी। उसकी माँ की सफेद धोती हवा में छोटे-छोटे टुकड़ों में उछल रही थी। चैगाँव के जवान मर्द, उत्तेजना मंे चिल्ला रहे थे कि देखें हिजड़े का कैसा होता है। संझा, सैकड़ों चोट करती हथेलियों के बीच जमीन पर पड़ी थी। उसकी आँखें माँ की चिन्दी-चिन्दी उड़ती साड़ी देख रही थी, अपनी स्मृति में वह मरी हुई माँ की बाँह पर सोई थी...बाबा से ससुराल के लिए बिदा ले रही थी। उसके कान में कनाई के ‘संझा!संझा!’ कह कर रोने, ललिता महराज के ‘‘इसके खून से देवथान धुलेगा तब पवित्तर होगा’’ कहने और लोगों के हँसने की आवाज पड़ रही थी, लेकिन दिल और दिमाग को सिर्फ एक बात साफ तौर पर सुनाई दी-


‘‘संझा! मेरी गुडि़या...तुम्हारे जनम के बाद मैंने और तुम्हारी माँ ने तुम्हें पालने के अलावा कोई काम नहीं किया... हमारा प्रेम हारने मत देना मेरी बच्ची!’’ अपने ऊपर झुके हुए पाँवों की दरार से संझा को बाउदी की खुली हथलियाँ दिखार्द दी।


‘‘जिस सच्चाई को छिपाने के लिए तीस साल, मैं और मेरा बूढ़ा बाप, हर पल डरते रहे, उस सच्चाई के खुलने का ही डर था, खुल गई तो अब कैसा डर! अब कोई डर नहीं।’’


संझा ने पीठ के नीचे दबी, नुकीली कांटों वाली वह साख निकाल ली जो अब तक उसे धँस रही थी। उसने पूरी ताकत से उसे लहराया। आधी भीड़ चीखती हुई पीछे हट गई।


‘‘सुनो चैगाँव के बासिन्दों!’’ संझा की फटी आवाज की तरंगो से कंकड़ भरभरा कर लुढ़कने लगे।


पहाड़ी पर खड़ी संझा को देख कर चैगाँव जड़ हो गया। उसके बदन पर लँगोट बची थी। अगरबत्ती के धुएँ के रंग जैसी त्वचा पर, जगह-जगह काँटे और कंकड़ धँसे थे। कई जगह से रक्त की पतली-पतली धार बह रही थी, जिस पर लतर-पत्तियाँ चिपकी थीं। माथे का सिंदूर आधे गाल पर फैल गया था। उसके हाथ में बेर की फल-कांटेदार डाल थी।


वह अच्छा करने पर फल और बुरा करने पर कांटे देने वाली दिखाई दे रही थी। सभी देख रहे थे कि रक्त की धारियों को पोंछ दिया जाए, तो चैगाँव देवता की मूर्ति बिलकुल ऐसी ही है।


हवा को काटती संझा की भीगी आवाज ऐसी लग रही थी जैसे बहुत सारे जल पंछी, फड़फड़ा कर उड़े हों-‘‘एक पर सौ, तुम सब मर्द हो ? ये ललिता महराज आदमी है और मैं हिजड़ा ? ये कनाई जो अपनी प्रेमिका की थंभी नही बन सकता ? वो बसुकि का चचेरा भाई जो उसके साथ रोज जबरदस्ती करता था, जिसे डर था कि बसुकि कनाई के साथ भाग न जाए, वो बड़ा मर्द है। मैं गर्भपात की औषधि लेकर रोज रात को न बैठूँ तो तुम मर्दो के मारे चैबासे की लड़कियों को नदी में कूदने के सिवाय क्या रास्ता है ? तुम सबों की मर्दानगी-जनानगी के किस्से नाम लेकर सुनाऊँ क्या ? उस रात जब मैं सोमंती के तीनों बच्चों को दवा देने आई थी...सोमंती ने ही अपने बच्चों को जहर दिया था अपने प्रेमी के साथ मिल कर ...उन्नइस साल की कुनाकी, जिसने झंझट खतम करने के लिए अपना गर्भासय निकलवा दिया...उसका आदमी खुद उसे लेकर कस्बे के साहबों के पास जाता था...जब खून नहीं रुक रहा था तब रोती हुई मेरे पास आई...चैगाँव के एक एक आदमी की जन्मकुडली है मेरे पास।


न मैं तुम्हारे जैसी मर्द हूँ। न मैं तुम्हारे जैसी औरत हूँ। मैं वो हूँ जिसमें मुझमें पुरुष का पौरुष है और औरत का औरतपन। तुम मुझे मारना तो दूर, अब मुझे छू भी नहीं सकते, क्योंकि मैं एक जरुरत बन चुकी हूँ। सारे चैगाँव ही नही, आस-पास के कस्बे-शहर तक, एक मैं ही हूँ जो तुम्हारी जिन्दगी बचा सकती हूँ। अपनी औषधियों में अमरित का सिफत मैंने तप करके हासिल किया है। मैं जहाँ जाऊँगी, मेरी इज्जत होगी। तुम लोग अपनी सोचो। तो मैं चैगाँव से निकलूँ या तुम लोग मुझे खुद बाउदी की गद्दी तक ले चलोगे।’’


(मैं अब तक भाग्य था। लेकिन किसी मजबूर पर ताकत आजमाने वाला और किसी मजबूत की ताल से दुबका हुआ मैं, सबसे बड़ा हिजडा़ हूँ।)

****************************

किरन सिंह
----------------

3/2शिक्षा: एम्. ए. ( हिंदी, प्राचीन भारतीय इतिहास ) बी. एड., पी -एच. डी.रचनाएँ: "सूर्यांगी" पर उ.प्र. हिंदी संस्थान से 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' ,
मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित 'शाल' एवं 'मंगला' तेली फिल्मों में अभिनय.
आकाशवाणी, दूरदर्शन, लखनऊ में आकस्मिक समाचार वाचिका एवं उदघोषिका.

सम्प्रति: अध्यापन, स्वतंत्र लेखन .26 विश्वास खण्ड
गोमती नगर, लखनऊ
Mobile : 08765584823

Saturday, February 23, 2013

कहीं कोई नहीं - तरन्नुम रियाज़

 तरन्नुम रियाज़

विख्यात कवयित्री,
 आलोचक, 
उपन्यासकार 







कहीं कोई नहीं  
----------------

ये किसने बोई हैं चिंगारियां तेरी ज़मीनों में
यह किसने आग सी सुलगाई है मासूम सीनों में


कोई वीरान मौसम आ बसा बारह महीनों में
कि जिसे हों न तासीरें ही अब झुकती जबीनों में

किसी ने बागबाँ बन कर जलाया मुर्गज़ारों को
किसी ने सायबान बन कर उजाड़ा है बहारों को

खिजां ने देख डाला घर तिरे सब लालाजारों का
निशात और चश्माशाही,डल ,वुलर का शालीमारों का

तिरे झरनों ,पहाड़ों, नदियों का ,आबशारों का
सुकून के हर खजाने पर है पहरा शाहमारों का

सभी तिरी ज़मीं पर चाहते हैं आसमां अपना
जड़ों पर घुन लगा कर टहनियों पर आसमां अपना

तेरे इन पानियों में ज़हर-ए -कातिल क्यों मिलाया है
तिरे सब गुलशनों को किसने कब्रिस्तां बनाया है

ये बुलबुल के सुरीले गीत को किसने डराया है
धनक रंग आसमां पर ये धुयाँ क्यूं आन छाया है

तिरी अजमत के कायल शाहों की हर याद रोती है
हज़ारों साल की तारीख शर्मिंदा सी होती है

खुदाई ने किसी इन्साफ में यूँ देर की है क्यूं
तिरे सूफी बुजुर्गों ने खामोशी साध ली है क्यूं

खफा सूरज भी तुझसे और रूठी चांदनी है क्यूं
तिरी दुश्मन बनी आखिर तिरी ये सादगी है क्यूं

तिरी चिड़ियों के नोहों में तरन्नुम कौन लाएगा
तिरे मजरूह होंठों पर तबस्सुम कौन लाएगा

फ़रिश्ता अम्न का उजड़े घरों को कब बसाएगा
जवां जानों के गम की झुर्रियों में मुस्कुराएगा

कंवारी बूढियों की मांग में मोती सजाएगा
कहीं कोई नहीं ,कोई नहीं है कौन आएगा

मुखालिफ सातों में तुझको हमदम कौन रखेगा
मिरी वादी तिरे ज़ख्मों पे मरहम कौन रखेगा


 तरन्नुम रियाज़                        

Wednesday, February 20, 2013

सायबर लव - आलेख, मनीषा कुलश्रेष्ठ


 सायबर लव        
*************

"सोशल नेटवर्किंग साईट्स से घर बैठे हमें बहुत महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिल जातीं हैं , इस आभासी दुनिया के मित्रों से मिलकर बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है लेकिन सायबर प्यार के मामले में ज़रा संभलकर रहने की जरुरत है, इंटरनेट के माध्यम से डिस्काउंट में मिले प्रेम से ज़िन्दगी संवरने के चांसेज कम होतें हैं , डिप्रेशन में जाने के ज्यादा होतें हैं ... 'अहा ज़िन्दगी '  फरवरी माह के प्रेम महाविशेषांक में प्रकाशित कथाकार,उपन्यासकार मनीषा कुलश्रेष्ठ द्वारा लिखा  आलेख 'फरगुदिया' पर आप सभी के लिए ..."  


सायबर लव और सायबर संबंध भले ही भारत में, इस दशक के उत्तरार्द्ध में मध्यमवर्गीय शहरों और मध्यमवर्गीय समाज में लोकिप्रिय हुए हों, मगर पन्द्रह साल पहले भी चैट रूम्स में सायबर रोमांस, सायबर फ्लर्टसायबर सेक्स अस्तित्व में थे. तब सोशलनेटवर्किग साइट नहीं हुआ करती थीं. उन्हीं दिनों से सायबर रोमान्स के चलते विकसित देशों में बहुत से दिल जुड़े  भी तो दिल टूटे भी, घर बसे भी, उजड़े  भी. टूटे दिलों और उजड़े  घरों के लोग मनोवैज्ञानिक सहायता के लिए मनोचिकित्सक के क्लिनिक के लिए जाने लगे. फिर वह समय आया जब अमेरिका और जापान में तभी सायबर रोमान्स पर सायकियाट्रिक वर्कशॉप होने लगी थीं. इन दस सालों में बहुत सारी अजीबोगरीब सायबर सफल प्रेम, सायबर मैरिजेज, सायबर असफल प्रेम, सायबर प्रेम अपराध, सायबर डेट रेप की कहानियां सामने आईं. इस किस्म के प्रेम पर चर्चित देशी (मित्र)और विदेशी फिल्में(यू हैव गॉट मेल) बनीं.  जुकरबर्ग़ के स्वयं के प्रेम ने फेसबुक को इतना बड़ा माध्यम बना दिया.

अब जिस तरह से आम भारतीय सोच में बदलाव आया है और इंटरनेट का बूम आया है, युवा, सोशल नेटवर्किंग साइट्स का दीवाना होने लगा है. जिस तरह से सायबर प्रेम परवान चढ रहा है, मुझे लगता है जल्दी ही हमें भी ऐसी ही मनोचिकित्सकीय कार्यशालाओं की जरूरत पड़ने लगेगी. बीसवीं सदी के बीतते हुए पनपी इस तकनीकी को सलाम कि सायबर स्पेस ने हमारी सामाजिक सीमाओं को विस्तार दिया है और हमारी काम करने की पद्धत्ति को बदला है. मगर इक्कीसवीं सदी की शुरुआत के ही साथ इंटरनेट पर सोशल नेटवर्किंग और ऑनलाइन डेटिंग की वेबसाइटों के चलते जाने कितनी सायबर प्रेमकहानियों ने स्क्रीन पर जन्म लियाकुछ भ्रूणावस्था में ही मर गईं¸ कुछ स्क्रीन पर ही बनीं और बिखर गईं¸ कुछ सफल सायबर प्रेम कहानियां बनी और विवाह में परिणत हुईंदेश की सीमाओं के भीतर और तमाम वैश्विक हदों के बाहर जाकर मिसाल बनीं . कुछ प्रेम अपराधकथाओं में बदल गईं. सायबर प्रेम की गाथाएं लिखने बैठें तो सच्चे अनुभवों पर कई कई महाकाव्य बन जाऐंगे.

सायबर प्रेम यानि ई - क्रश, या 'क्रॉसिंग द लाईन ऑनलाईन'. कुछ भी कह लेंप्रेम तो प्रेम है. प्रेम में पडना अपने आप में एक सम्मोहन है. प्रेम शब्द से प्रेमएक मानसिक अवस्था है, अति होने पर मनोविकार भी.

          इतिहास गवाह है कि स्त्री और पुरुष अपने लिए सही जीवनसाथी पाने के लिए या प्रेम भर करने के लिए, सदियों से तरह  तरह के साधनों का उपयोग करते रहे हैं¸ चाहे वे कबूतर हों¸ दूतियां हों¸ चूडी बेचने वालियां हों. सिंहल द्वीप की राजकुमारी पद्मिनी और चित्तौडग़ढ क़े महाराणा रतनसिंह और अलाउद्दीन खिलजी की प्रेम¸ अंधे आकर्षण¸ शौर्य और बलिदान की यह ऐतिहासिक त्रिकोणात्मक गाथा पुष्टि करती है इन साधनों की. सत्तर¸ अस्सी और शुरूआती नब्बे के दशक में प्रेम हरेक को सहज सुलभ नहीं था, कॉलेज और रेस्तरां लडक़े - लडक़ियों से भरे तब भी थे¸ मगर अभिव्यक्ति के माध्यम अतिसंक्षिप्त थे. दिल की बात कई बार जबां पर ही अटक जाती थी, अस्वीकृति का भय लगातार बना रहता था. अब सायबर स्पेस है न यही वजह है कि ज्यादा से ज्यादा कुंवारे सायबर - खाक छान रहे हैं.
आजकलबेहतर साथी की तलाश में. पहले की तरह यह नहीं कि मोहल्ले की सबसे ठीक कन्या पर आकर सब्र कर लिया जाए या क्लास में महज एक ढंग का अनार हो और सारे के सारे, सौ बीमार हों.

हालांकि ऑनलाइन संबन्ध, सहज सम्बन्धों से एकदम अलग तरह से विकसित होते हैं. लव एट फर्स्ट साइट की जगह लव एट फर्स्ट बाइट. इस सायबर प्रेम में दैहिकता की सीमा पाटने के लिए इसकी अपनी भाषा विकसित हो चुकी है¸ संक्षिप्त और मारक मसलन ठहाके के लिए LOL¸ आलिंगन के लिए < >¸ कस के आलिंगन करना हो तो <<< >>>¸ चुम्बन के लिए हैं इमोटीकोन्स. फिर स्माइलीज हैं न जो आपकी मनोदशा बताते हैं चैटिंग के दौरान. सक्सेसफुल ऑन लाईन डेटिंग के गुर बताती हैं कई वेबसाइट्स¸ जबकि ऑनलाईन डेटिंग को भुना रही हैं कई वेबसाइट्स. ऑनलाईन डेटिंग में आम प्यार की तरह ही आनंद और पीड़ा दोनों आपको प्रसाद में मिलते हैं. यहां कुछ कह नहीं सकते, कि आपको क्या मिलने वाला है प्रेम के नाम पर,  चांसेज फ़िफ्टी - फिफ्टी! आपको आपका सच्चा प्रेम भी मिल सकता या एक अच्छा - खासा धोखा भी. मान लीजिए कि पटना की प्रमिला 'क्यूट पॅमेला' बन कर रामपुर के रामभरोसे बनाम 'रैम्बो' को सायबर डेट कर रही है, पिछले सात महीने सेदोनों की सायबर उम्र कुछ भी हो सकती है और असल उम्र कुछ और. यही बात पेशे और शैक्षणिक स्तर पर भी आ जाती है. सायबर विस्तार अपने आप में बहुत विस्तृत होते हुए भी अलग तरह की सीमाएं रखता है. छल और धोखे की शत - प्रतिशत संभावनाएं यहां हैं¸ अज्ञात और गोपनीयता के पर्दे में लिथड़ा प्रेम कई बार बहुत दुखदायी हो जाता है. ऐसे में आप चैटरूम में किसी अनजान कूल डूड या क्यूट बेब या फिर लकी लिप्स या माचो मैक के प्रेम की आड़ में बस फालिंग इन लव की चक्करदार जाईंट व्हील की राइड का मजा भर ले रहे होते हैं. जो हो सकता है सच में मिलने पर निराश- हताश करे. या फिर आप चारों खाने चित्त धाराशाई मिलें.

        आईए जानें कि मनोवैज्ञानिक क्या कहते हैं एक मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इंटरनेट पर अकसर लोग अपनी आभासी छवि पेश करते हैं. जानकर भी और अनजाने भी ऑनस्क्रीन इमेज में अकसर लोग अपनी वह छवि बनाते हैं जैसा कि वे खुद को देखना चाहते हैं¸ या इस खामख्याली में रहते हैं कि वे ऐसे हैंअपने व्यक्तित्व का सच में खुद उनको नहीं पता होता है विरोधाभास उनकी सायबर छवि में खूब दिखता हैवहां वो गढ़े हुए यानि ऑल्टर्ड सेल्फ होते हैं¸ अपनी आदर्श छवि में बंधे हुए स्वयं को पेश करते हुए. अपनी व्यक्तिगत और असल छवि को लेकर उनमें आत्मविश्वास नहीं होता. वे खुद भी महसूस करते हैं कि वे जब ऑनलाइन होते हैं तो ज्यादा खुश और आत्मविश्वासी होते हैं. ये चीजें सायबर संबंध को भुरभुरा बनाती हैं. रोमांच, सायबर रोमांस का पहला गुण है. एक दूरस्थ अजनबी में प्यार को खोज पाने का रोमांच. फरफेक्ट सोलमेट ढूंढने के चक्कर में एक से दूसरा, तीसरा, फिर न जाने कितने सायबर प्रेम. सोशल नेटवर्किंग साईट्स पर इनबॉक्स प्रेम बड़ा लोकप्रिय है, रंग लगे न फिटकरी....परफेक्शन प्रेम का किश्तों में, इसमें यह तो उसमें वह ! यह तय है कि इसायबर संबन्धों में एकनिष्ठता भी फिर वर्चुअल ही होती है, हर बार प्रेम में पड़ने का रोमांच ज्यादा से ज़्यादा होता है. भले ही आज का आपका परफेक्ट सोलमेट एकदम कल ही एक भ्रम साबित हो! वह एक ऊबी हुई गृहणी या कॉल सेन्टर में बैठा कोई टेलीकॉलर हो सकता है¸ या फिर कोई सायको अधेड. वजह यही है कि इंटरनेट को प्रेम के नाम पर एक पलायन की तरह इस्तेमाल करने का आंकड़ा बढ ग़या है. ऊबे हुए लोग¸ हीनभाव से ग्रस्त लोग इस अवास्तविक संसार से बहुत आकर्षित होते हैं. वे सोचते हैं कि हम बस वही हैं, जो हम टाईप करते हैंलिखते हैंकहते हैं. अपने रूपरंग¸ व्यवहार¸ वजन और स्टायल और छवि को लेकर यहाँ आसानी से झूठ बोला जा सकता हैहाल ही में एक भारतीय लडक़ी ने दूर विदेश में बैठे एक लडक़े को ऐश्वर्या राय का फोटो भेज कर लिख दिया यह मैं हूँ. अब अंतर्राष्ट्रीय खबर बन चुकी ऐश को किसी चैनल पर देख कर विदेशी लडक़े ने इस बात पर हंगामा काटा और यह खबर भारतीय मीडिया में भी आ गई. बल्कि अब तो यह आस-पड़ोस और परिवारों में होने लगा है कि सोशल नेटवर्किंग साईट पर प्रेम हुआ और स्कायप’ पर सगाई. जब शादी हुई तो कभी नियामत साबित हुई तो कभी ‘कयामत’ !

ऑनलाइन रोमांस में दूसरी चीज स्पीड होती है. आकर्षण और निकटता के बीच ऐसी कई धीमी अवस्थाएं होती हैं¸ जिनमें बार - बार मिल कर एक - दूसरे को समझना और हल्का आशंकित होना भी है. लेकिन इस स्पीड के चलते प्रेम की ऐसी कई जरूरी अवस्थाएं अनजान छूट जाती हैं, जो कसौटी का काम कर सकती हैं. ऑनलाईन रोमांस में आकर्षण और निकटता के बीच कुछ नहीं होता. आकर्षण¸ इंस्टेन्ट अभिव्यक्ति और फिर सायबर लव जो कि न जाने कब 'सायबर लस्ट में बदल जाता हैफिर एक समय बाद यह भी उबाऊ होने लगता है. इस प्रेम का त्रिआयामी चित्र पूरा कभी सामने नहीं आता. एक व्यक्ति को व्यक्तित्व बनाने में बहुत से आयाम काम करते हैं. ऑनलाइन टायपिंग से आप व्यक्ति का स्वभाव¸ काम¸ गुण पूरा पूरा नहीं जान सकते. आप नहीं जान सकते कि उसे कब किस बात पर गुस्सा आता है¸ उसके कपड़े  पहनने का ढंग कैसा है¸ वह हकलाता है या बोलता है तो मुंह से थूक गिरता है, या उसकी चाल में लचक है.
यह सच है कि कुछ हद तक, किसी न किसी तरह का 'सायबर सम्बन्ध' संभव है. सायबर आकर्षण की अपनी जगह है, इस संसार में. मगर सायबर प्रेम? क्या यह संभव है?
मैं पूरी तरह से सहमत हो ही नहीं पाती कि यहाँ लोग अपने सही रूप में खुद को कंप्यूटर स्क्रीन पर पेश करते होंगे. सायबर दुनिया में लोग वह सब चीजें कह - सुन लेते हैं जो वो रू-ब-रू कभी कहने का साहस न जुटा पाऐंगे. यहां वे संकोचहीन होते हैं, बल्कि यह संकोचहीनता की अवस्था 'अति' पार करके मनोवैज्ञानिक ग्रंथि बन जाती है. संकोचहीनता की यह अति एक परदे के पार, एक परदे के पीछे 'अज्ञात' बन जल्दी ही किसी अजनबी को अपना सब कुछ बता देने, किसी पर भी सहज ही विश्वास कर लेने, बहुत निकट महसूस करने की हदों के पार ले जाती है. सायबर स्पेस में अंतरंगता बहुत तेजी से विकसित होती है.

सायबर-स्पेस के सोशल-नेटवर्क में आमतौर पर लोग खुद को वैसा प्रस्तुत करते हैं जो उनकी कल्पनाओं के अनुसार आदर्श होता है मगर सच्चे तौर पर नहीं. वे अपने 'आल्टर्ड सेल्फ' और 'आल्टर्ड ईगो' के साथ आपके सामने होते हैं.  मैं इसे 'प्रोजेक्टिव आइडियलिज्म' कहूंगी. जब आप सामने वाले को देख,सुन,महसूस नहीं कर रहे होते हो, बस एक खाली स्क्रीन और कीबोर्ड आपके सामने होता है, तब हम अपनी उन खूबियों को पेश करते हैं जो हमें बेहद पसंद होती हैं. चाहे वे हममें हो न हों. हम अपने ही सपनों के 'खुद' बन जाते हैं.उसमें हम वो सारे रंग भरते हैं जो खूबियां हमें दूसरों में पसंद होती हैं. फिर जब सामने भी कोई है तो वह भी इस मानसिकता के तहत यही सब करता है, वह प्रतिक्रिया में आपके 'आइडियल प्रोजेक्शन' की होड़ में अपना भी आदर्श स्वरूप प्रस्तुत करेगा ही न ! वह क्यों पीछे रहेगा? आप की सोच में वह अपनी सोच जोड़ेगा, कई बार आपको लगेगा कि  'वाह ! यह कितना कुछ मेरे जैसा है न!' या 'कितना समझता है यह मुझे' यही पहला कदम है सायबर आकर्षण का. इंटरनेट पर आपके 'आदर्श स्व' को हवा देने वाले और सायबर रोमान्स को उकसाने वाले 'इंटरनेटी केसेनोवा' भरे पड़े  हैं. जिन्हें अमरीकी मनोवैज्ञानिक सायबरहोलिक्स या इलेक्ट्रॉनिक कोल्ड टर्कीज का नाम देते हैं.

ऑनलाईन फ्लर्टिंग की शुरूआती हल्के - फुल्के संवाद के बाद शुरू होती है. ऑनलाइन डेटिंग या सोशल नेटवर्किग साइट के पन्नों पर या फिर चैटरूम में. शुरूआत अकसर व्यक्तिगत बातों के शेयर करने से होती है. फिर दो अजनबी एक दूसरे के दोस्त बनने लगते हैं. धीरे - धीरे दिल खुलते हैं. - मेल्स या मैसेजेज का एवेलान्च आता है. वर्चुअल उपहारों, फूलों के चित्र, चुम्बनों वाले स्माइली, एनीमेटेड लव सिग्नल्स अदले - बदले जाते हैं. कोई भी प्यार भरा दिल इस सब के संक्रमण से ग्रसित हुए बिना फिर रह सकता है भला? हर बार धडक़ते दिल और पसीजी हथेलियों से आप माऊस थामते हैं. अपने इनबॉक्स में नई ई - मेल या सोशलनेटविर्किग साइट के आपके प्रोफाइल पेज पर नया मैसेज या नोट देख कर पेट में गड्ढे बनते - बिगडने लगते हैं. फिर तस्वीरों की अदल बदल की बारी आती है. सच्ची तस्वीर हो तो फिर उम्मीदों और सपनों पर आघात लगने का भय बना रहता है या उम्मीदों के पंख लगने शुरु होते हैं. कई  बार  सपनो का राजकुमार या स्वप्न सुंदरी मिल जाती है मगर कई बार महज धोखा. सायबर प्रेम का सबसे मुश्किल दौर होता है मिलन, जो सारे वर्चुअल रोमांस के पत्ते झड़ा सकता है. एक ब्लॉग पर मैं ने किसी का अनुभव पढा था कि मुंबई के एक रोमियो महाशय जहाज पकड क़र सुदूर उत्तरपूर्व के एक सुन्दर शहर में पहुंचे. तयशुदा जगह परएक क्यूट चिक की प्रतीक्षा में खड़े  हुए उसे एक छोटी बच्ची मिली आर्किड्स लिए 'ये मेरे भाई ने भेजे हैं. खेद है वह नहीं आ सका.' छ: महीने लम्बी चैट्स , प्यार भरी - मेल्स वह जिसे करता रहा वह 'चिक' नहीं, 'डूड' था!  यह एक छोटी सी बात ही तो थी जो उसका 'स्वीटहार्ट' बताना ही भूल गया.

        मुझे इस प्रेम पर कई बार हैरानी होती है, प्रेम के शुरूआती प्राकृतिक संकेत, बायलॉजिकली तो दैहिक भाषा के ककहरे मसलन मुस्कान, मुद्राओं, आवाज और आंखों के मूक संवाद में छिपे होते हैं. प्राकृतिक प्रेम में शारीरिक बनावट, दैहिक भाषा, आवाज व्यवहार सब कुछ एक बडी भूमिका निभाते हैं. यहाँ तो बस स्क्रीन और छपे शब्द, कुछ छायाचित्र. वेबकैम का इस्तेमाल तो लोग बहुत अंतरंग होने के बाद ही करते हैं. वैबकैम और वॉयस मैसेज के बावजूद परस्पर संवाद के त्रिआयामी प्रभाव अनुपस्थित ही रहते हैं. कोई शक नहीं कि सायबर स्पेस ने हमारी सामाजिक सीमाओं को विस्तार दिया है और हमारी काम करने की पद्धत्ति को बदला है. यहाँ तक कि इसने मित्र बनाने और बेहतर साथी ढूंढने में एक विस्तृत साधन की भूमिका निभाई हैबावजूद सफल सायबर प्रेमगाथाओं और विवाहों के इंटरनेट सच्चे प्रेम का संवेदनात्मक विकल्प बन सकेगा इस पर मुझे हमेशा संदेह रहा है और रहेगा, क्योंकि एक नैसर्गिक निकटता के लिए अब या बाद में सायबर प्रेमियों को मिलन की दरकार तो रहती ही है. अकसर मिलने पर स्क्रीन से अलग व्यक्तित्व से मिलने पर सायबर इमेज में जोड और घटाव का अनुभव सायबर प्रेमियों को होता ही है जो कि उत्साहजनक या निराशाजनक कुछ भी हो सकता है.
 
वैवाहिक रिश्तों में खटास की एक वजह बनता जा रहा है, यह वर्चुअल रोमानियत का आकाश कि जब भी कोई ऊबा हुआ या अकेलापन महसूस करे तो एक क्लिक के साथ यह आपके लिये खुल जाता है बस पंख पसारने की देर है. तनाव, ऊब, पारिवारिक दबावों के चलते विवाहित लोगों के सायबर लवर्स में बदलने का प्रतिशत बढता जा रहा है. हैरानी की बात है इनमें घरेलू गृहणियों की संख्या विश्वभर में बहुत ज्यादा है. सायबर संसार सबसे ज्यादा महिलाओं को रास आता है क्योंकि यहां उन्हें उनकी दैहिक सुंदरता को लेकर नहीं आंका जाता. उनके बढते वजन और बिगड़ते आकार को लेकर 'आंटीजी' नहीं समझता. पुराने फोटो को देखकर ये सायबर रोमियो वही टायप करते हैं जो वे सुनने को तरसती रही हैं असल लाइफ में. महिलाओं की यह प्रवृत्ति उन्हें शोषित होने की तरफ धकेलती रही है सदियों से तो वर्चुअल संसार में भी यह प्रवृत्ति भुनाई जाती है. ऑनलाइन रोमियोज की भावनात्मक जरूरतों को पूरा करते हैं. बात मिलने जुलने पर आती है तो डेट रेप जैसे कई किस्से सामने आते हैं.

आज के कारपोरेट समय में ऑफिस रोमान्स की जगह अब सायबर रोमान्स शादियां तोडने की खास वजह बनता जा रहा है. क्योंकि जब दिवा स्वप्नों और सायबर प्रेम के बीच झूलते हुए कोई वास्तविकता को ही भूलने लगे तो असल जिन्दगी के समीकरण तो बिगडेंग़े ही. यह और कुछ नहीं सूखे किनारों पर बैठ अपने पैरों की उंगलियां पानी में डालने जैसा कुछ है. यह देखने जैसा भर है कि उस पार की घास कहीं ज्यादा हरी तो नहीं
बेहतरी इसीमें है, ना - ना करते भी सायबर प्यार हो बैठे तो उसे जल्दी असलियत की जमीन पर ले आएं. शादीशुदा हैं तो बाज एं, अकेले हैं तो जल्दी ही मिलने की तारीख तय कर लें क्योंकि चाहे प्रेम कितना ही वर्चुअल हो, दिल टूटने पर पीड़ा तो वर्चुअल नहीं होती वह तो असल होती है. अगर इंटरनेट पर प्रेम डिस्काउंट में मिलता है तो पीड़ा एक के साथ एक मुफ्त मिलती है. ऐसे में जरूरी तो यह है कि हम उस 'कॉमन सेन्स' का इस्तेमाल करें जो आजकल 'अनकॉमन' है.

मनीषा कुलश्रेष्ठ     





फेसबुक पर LIKE करें-