डायन का तिलिस्म- स्वयंबरा बक्षी
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वे बचपन के दिन थे. मोहल्ले में दो बच्चों की मौत होने के बाद काना-फूसी शुरू हो गयी और एक बूढी विधवा को 'डायन' करार दिया गया. हम उन्हें प्यार से 'दादी' कहा करते थे. लोगों की ये बातें हम बच्चों तक भी पहुंचीं और हमारी प्यारी-दुलारी दादी एक 'भयानक डर' में तब्दील हो गयीं. उनके घर के पास से हम दौड़ते हुए निकलते कि वो पकड़ न लें. उनके बुलाने पर भी पास नहीं जाते. उनके परिवार को अप्रत्यक्ष तौर पर बहिष्कृत कर दिया गया. आज सोचती हूँ तो लगता है कि हमारे बदले व्यवहार ने उन्हें कितनी 'चोटें' दी होंगी. और ये सब इसलिए कि हमारी मानसिकता सड़ी हुई थी. जबकि हमारा मोहल्ला बौद्धिक(?) तौर पर परिष्कृत(?) लोगों का था!
वक़्त बीता, हालात बदले. पर डायन कहे जाने की यातना से स्त्री को आज भी मुक्ति नहीं मिली है. बिहार के दैनिक समाचार पत्रों में अक्सर ऐसी घटनाओं का जिक्र होता है जहाँ किसी औरत को डायन करार देकर उसकी हत्या कर दी जाती है ... पर इससे ये कतई न सोचें कि बिहार में ही ऐसी अमानवीय प्रथाएं हैं. ये बेशर्मी यहीं तक ही सीमित नहीं. संयुक्त राष्ट्र संघ ने वर्ष 2003 में जारी एक रिपोर्ट में बताया गया था कि भारत में 1987 से लेकर 2003 तक, 2 हजार 556 महिलाओं को डायन कह कर मार दिया गया.
एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार अपने देश में 2008-2010 के बीच डायन कहकर 528 औरतों की हत्या की गयी. क्या ये आंकडे चौंकाने के लिए काफी नहीं कि मात्र एक अन्धविश्वास के कारण इतनी हत्याएं कर दी गयी?
राष्ट्रीय महिला आयोग के मुताबिक भारत में विभिन्न प्रदेशों के पचास से अधिक जिलों में डायन प्रथा सबसे ज्यादा फैली हुई है. मीडिया के कारण (भले ये उनके लिए महज टी. आर. पी. या सर्कुलेशन बढ़ने का तमाशा मात्र हो) कुछ घटनायें तो सामने आ जाती हैं पर कई ऐसी कहानियां दबकर रह जाती होंगी. बेशक ये बातें आपके-हमारे बिलकुल करीब की नहीं, गांव-कस्बों की हैं. किसी खास समुदाय या वर्ग की हैं, पर सिर्फ इससे, आपकी-हमारी जिम्मेदारी कम नहीं हो जाती.
ध्यान दें, अखबार में छपी वे बातें महज़ खबरें नहीं, जिन्हें एक नज़र देखकर आप निकल जाते हैं. इनमें एक स्त्री की 'चीख' है, उसका 'रुदन' है, उसकी 'अस्मिता' के तार-तार किये जाने की कहानी है, अन्धविश्वास का भंवर जिसका सब कुछ डुबो देता है और हमारा 'सभ्य' समाज इसे 'डायन' कहकर खुश हो लेता है.
'डायन', क्या इसे महज अन्धविश्वास, सामाजिक कुरीति मान लिया जाये या औरतों को प्रताड़ित किये जाने का एक और तरीका. आखिर डायन किसी स्त्री को ही क्यूँ कहा जाता है? क्यूँ कुएं के पानी के सूख जाने, तबीयत ख़राब होने या मृत्यु का सीधा आरोप उसपर ही मढ़ दिया जाता है? असल में औरतें अत्यंत सहज, सुलभ शिकार होती हैं क्यूंकि या तो वो विधवा, एकल, परित्यक्ता, गरीब,बीमार, उम्रदराज होती हैं या पिछड़े वर्ग, आदिवासी या दलित समुदाय से आती हैं, जिनकी जमीन, जायदाद आसानी से हडपी जा सकती है. ये औरतें मानसिक, शारीरिक और आर्थिक रूप से इतनी कमजोर होती हैं कि अपने ऊपर होने वाले अत्याचार की शिकायत भी नहीं कर पातीं. पुलिस भी अधिकतर मामलों में मामूली धारा लगाकर खानापूर्ति कर लेती है.
हैरानी होती है कि लगभग हर गाँव या कस्बे में किसी न किसी औरत को 'डायन' घोषित कर दिया जाता है. मैंने कहीं नहीं देखा कि कभी किसी पुरूष को डायन कहा गया हो. या इस आधार पर उसकी ह्त्या कर दी गयी हो. क्यूंकि ऐसे में अहम् की संतुष्टि कहां हो पाएगी. और यह बात कहने-सुनने तक ही कहां सीमित होती है. जब भीड़ की 'पशुता' अपनी चरम पर पहुंचती है तब डायन कही जानेवाली औरत के कपडे फाड़ दिए जाते हैं... तप्त सलाखों से उन्हें दागा जाता है... मैला पिलाया जाता है... लात-घूसों, लाठी-डंडों की बौछारें की जाती है ...नोचा-खसोटा जाता है और इतने पर मन न माने तो उसकी हत्या कर दी जाती है. उनमें से कोई अगर बच भी जाये तो मन और आत्मा पर पर लगे घाव उसे चैन से कहा जीने देते हैं. 'आत्महत्या' ही उनका एकमात्र सहारा बन जाता है.
औरतों पर अत्याचार और उनके ख़िलाफ़ घिनौने अपराधों को लेकर अक्सर आवाज़ उठाई जाती है. लेकिन ऐसी घटनायें हमें हमारा असली चेहरा दिखाती हैं. हम स्वयं को 'सभ्य' कहते और मानते हैं पर इनमें हमारा खौफनाक 'आदिम' रूप ही दीखता है. हमने इसकी आदत बना ली है. ये शर्मनाक है....पर हम भी, पूरे बेशर्म हैं!
स्वयंबरा बक्षी
Freelance writer , Lecturer

 

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
आपने लिखा....हमने पढ़ा
ReplyDeleteऔर लोग भी पढ़ें;
इसलिए आज 20/06/2013 को आपकी पोस्ट का लिंक है http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर
आप भी देख लीजिए एक नज़र ....
धन्यवाद!