Wednesday, February 13, 2019

शिकार - प्रत्यक्षा


            




"हमारी कल्पनाएँ,हमारे स्वप्न ,हमारा प्रेम ,हमारी सोच और हमारा जीवन सब कभी न कभी वास्तविक धरातल ढूँढते ही हैं । प्रत्यक्षा की कहानी "शिकार" ऐसे ही प्रेम को धरातल पर रखकर परखती है। कहानी आप सभी के लिए।"








शिकार
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उनके बदन से खमीर उठते आटे की महक आती थी । खासकर पेट का वो हिस्सा जो ब्लाउज़ और साडी के बीच आता है । खूब गूँधे हुये नर्म मुलायम मैदे की लोई । सामने दस्तरखान बिछा था । बाकरखानी रोटी के साथ गोश्त का शोरबा । कटोरियों में मीठे चावल , फिरनी । रोटी को शोरबे में डुबो डुबो कर खा रहा था । बीच बीच में उनकी ओर नज़र उठाकर देख लेता । वो चुप बैठीं मुझे खाते देख रही थीं । नज़र बार बार चेहरे से फिसल जाती थी नीचे उनके अनावृत पेट पर । लेस लगा सफेद साडी का पल्ला खिसक गया था । मुझे ये पता चल गया था कि थोडी सी बडी उम्र की औरतें , मतलब तीस पैंतीस के ऊपर , अपने शरीर से लापरवाह हो जाती हैं । कम उम्र लडकियाँ , कुँवारी लडकियाँ अपने शरीर के प्रति सजग रहती हैं । दिखाना भी हो तो एक चौकन्नी सजगता रोम रोम से फूटती है , आओ देखो । छुपाना हो तो दस लपेटे में छुपा के रखा ,फिर भी कहीं दिखाने लायक आभास छोडता हुआ जैसे एक धीमा उच्छावास । पर तीस पैंतीस की स्त्रियाँ , पल्लू ढलक जाये , छाती का उभार दिखता हो , पीठ का मोहक भराव लपटें मारे , पेट ,कमर का हिस्सा दो बच्चों के जन्म के फैलाव को अपनी पूरी संपूर्णता में जग जाहिर करे । आह ! ये तीस पैंतीस की औरतें ।

मैं खाता जा रहा था , उनकी ओर देखता जा रहा था । उनकी आँखों में कल रात के काजल की अँधियारी परछाईं थी । उनको देखकर हमेशा ऐसा लगता कि अभी सुबह सुबह तैयार हो कर उन्होंने काजल नहीं लगाया । रात का कोई जादू उनकी आँखों से सुबह सवेरे बोलता था । उनकी आँखें ऐसी कोई सुन्दर नहीं थी । पर मुझे बहुत सुन्दर लगती थीं । छोटी छोटी तिरछी आँखें , काली चमकीली आँखें , घनी बरौनियोँ से ढँकी आँखें । कोई गहरा रहस्य अचानक जैसे थम गया हो , पानी पर तरंग एकदम शांत होने के पल भर पहले , घने जंगलों के बीच छोटा सा तालाब जिसपर पेडों का प्रतिबिम्ब ,हरी काली आभा छोडता हुआ ।

मैं खाता जा रहा था , उनकी ओर देखता जा रहा था । उनके नाक के हीरे का लौंग लश्कारा मार रहा था । वैसे मारना नहीं चाहिये था क्योंकि वो एकदम शांत बैठी हुई थीं । पर मैं हिल रहा था । मेरी आँखों में हीरे की लपट थी | उनके हाथ गोद में निस्पन्द पडे थे । गुलाबी हथेलियों वाले गुदाज़ हाथ । कमल के फूल जैसे हाथ । इन्हीं हाथों से उन्होंने गोश्त पकाया होगा । पेट भर चला था । उन्होंने बिना कुछ बोले फिरनी का कटोरा मेरी ओर सरकाया । पल्लू अब एहतियातन कँधों पर से लपेट कर कमर में खोंस लिया । मेरी बहकती नज़र उन्होंने देख ली थी क्या । मैं सतर सावधान बैठ गया था ।

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उस दिन गया तो बडी गहमागहमी । पिछवाडे के कमरे में रफीक के साथ बैठा । अब्बू के अकाउंटस देखने थे । बगल के सहन से बडी रौनकें । देग पर कुछ खदबदाता पक रहा था । भाप का गुबार उठ रहा था । खाने की खुशबू , मसाले भुने जाने की खुशबू । बरतनों रकाबियों की खटर पटर । कढाई में छोलनी चलाये जाने का संगीत । पतले कटे प्याज़ का ढेर । रफिया ,बडी व्यस्त , इधर उधर । खदीमा ,दुपट्टा सर पर लपेटे बुडबुडाती सिलबट्टे पर मसाला पीस रही थी । और इनसब के बीच वो बैठी थीं मोढे पर । दुपट्टा लपेट रखा था सर पर । एक बाल तक दिखता न था । चेहरा तमतम गुलाबी । चूल्हे की आँच से ।



-आयें , धूप में आ जायें । रफीक ने कगज़ों का पुलिन्दा उठाते हुये कहा था ।

कुर्सी खींच ली गई थी बाहर । एक गोल मेज़ बीच में लगा दी गई । सफेद लेस के मेजपोश से उसे ढक दिया गया । चाय आयी , बडे गिलासों में । वही दूध मसाले का काढा । ज़ोहर के नमाज़ का वक्त हो गया था । अज़ान की आवाज़ आ रही थी । रफीक के अब्बू उठ गये थे । कमरे में जानमाज़ बिछाकर घुटने मोड नमाज़ पढने लग गये । मैंने कुर्सी मोड ली सहन की ओर । लाल मिर्च तेल में भूनी जा रही थी । फिर इसे पीसा जायेगा । एक अलग कढाई में प्याज़ की बिरयानी तली जा रही थी ।

-रफिया हाथ जल्दी चला

-खदीमा , तशतरी ला , एक चमचा भी

उनकी आवाज़ ठहरी हुई थी । खदीमा बुडबुदाती हुई मसाला पीसना छोड , उटंग सलवार के पायँचे समेटते बावर्ची खाने में घुस गई ।

-बगेरी खायेंगे ? बस पक ही चला

बचपन में बगेरीवाला आता था । चिपटे गोलाकार टोकरियों में बगेरी , चाहा , तीतर , बटेर । दर्जन के हिसाब से खरीदा जाता । टोकरी के फाँक से चिडियों की आवाज़ आती ।

-बचवा उधर चले जाव ,कहकर वो हाथ डालता ज़रा सा ढक्क्न खिसका कर । एक एक करके शामत आती चिडियों की । गर्दन मरोड कर एक तरफ ढेर बनाता जाता । फिर पानी से भरे बर्तन की पुकार होती । पानी में डुबाकर उनके पर नोचे जाते । मैं भाग जाता । प्रण करता कि अब आगे कभी बगेरी ,चाहा नहीं खाउँगा । फिर लटपट मसालेदार पकता और मैं दो के बजाय चार रोटी खा लेता । फिर बगेरी वाले का आना छूट गया और मेरा खाने न खाने का द्वंद ।

आज इतने दिन बाद । गरम मसाले की खुशबू अब तेज़ हो गई थी । तेज़पत्ता , दालचीनी , लौंग , बडी इलायची की पोटली चावल के देग में डाली जा रही थी । भूने लाल मिर्च की झाँस से खाँसी उठ आई ।

तश्तरी में मसाले में लिपटा बगेरी , तेल छूटा हुआ । मैंने उनकी आँखों में ढीठ नज़रे डाले हुये एक बार में

गप्प से मुँह में डाल लिया । मसाली के तेज़ स्वाद से आँखों में आँसू भर आये पर उन्हें बदस्तूर देखता रहा । उनका चेहरा लाल हो गया । कुछ शर्म , कुछ नाराज़गी ,कुछ रौब । कुल मिलाकर एक अजीब सा भाव चेहरे पर आया , गुज़र गया । एक पल को असमंजस में ठिठकी फिर पलट कर बावर्ची खाने में



मैं क्रमश : ढीठ होता जा रहा था ।बेबाक होता जा रहा था । एक बरजोरी का सा भाव । वो अब हिचकने लगी थीं मेरे सामने आने में । पर अबतक मैं उनके घर का हिस्सा बन चुका था । मेरी पहुँच उनके जनानखाने तक हो गई थी । अम्मी , मतलब बडी बेगम मुझे अंदर बुलवा लेतीं । सरौते से सुपारी की कतलियाँ काटती रहतीं , तरह तरह के लच्छे । पानदान खुला रहता । उनके बाल मेंहदी से रंगे रहते और उनके झक्क गोरे चेहरे पर उम्र ने मकडजाल बनाना शुरु कर दिया था ।

-माहरुख बेटा ,कल जो सेवैइयाँ बनाई थीं , खिलाओ इसको

मैं खाता उनकी आँखों में आँख डाले । वो एक जालफँसी चिडिया सी बँधी आँखों से देखती । कभी होंठ खोलतीं कि अब शायद अम्मी को मना कर देंगी ,फिर होंठ भींच लेतीं । मैं भी खासा शातिर हो गया था इस मामले में । चेहरे पर एक मासूम भोलापन रहता । सिर्फ आँखें अपनी बात कहतीं । बेचैन आँखें जो फिरती थीं , उनके होठों पर , उनके छाती पर , गोद में पडे उनके हाथों पर । एक लपट निकलती थी जो मुझे जला रही थी धीमे धीमे । वो अब मेरे सामने सतर्क चौकन्नी हो गई थी । लपेट लपूट कर रखतीं खुद को । मेरे सामने उनके हाथ बारबार अपने दुपट्टे को , अपने आँचल को संभालते । कभी बाल , समेटे हुये बाल को दोबारा समेटतीं , कभी चेहरा पोंछती । गरज़ ये कि मेरे सामने वो अब अस्थिर होने लगी थीं । गुस्से की जगह अब एक शर्म भरी बेचैनी ने ले लिया था । उनके खाविंद ,अशरफ ,बाहर थे । साल छ महीने में आते । मैंने शिकार अच्छा चुना था । पर मेरे साथ पूरे इंसाफ के साथ अगर कहा जाये तो ये कि शिकार पहले मैं ही हुआ था । शिकार उनको बनाना तो बाद में हुआ था । पूर्वनियोजित षडयंत्र था । पूरी तौर पर षडयंत्र । अब मैं मौके की तलाश में था ।

शुरुआत फकत ऐसे हुई थी कि मैं सिर्फ उनको देखता । पर जैसे ही निगाह मिलती मैं घबडाकर नज़र फेर लेता । उनके चेहरे पर एक छोटी मुस्कान । मुँह फेर हँस पडतीं । फिर मेरी निगाह ढीठ होने लगीं । देखता तो नज़र मिला के । अब वो घबडाने लगीं थीं । वो जितना घबडातीं मैं उतना ही ढीठ होता जाता । पर मेरे लिये ये सिर्फ खेल था , महज़ एक खेल । एक आकर्षण दुर्निवार पर अंत में सिर्फ एक खेल ।


एक खुशबूदार दलदल में खुद को डुबा देने का तीव्र इच्छा लहक जाती । मेरी बेचैनी उन तक पहुँचने लगी थी । मेरी मौजूदगी में वो हडबडाई रहतीं । उँगलियाँ चेहरे , बाल , आँचल पर बेचैन घूमतीं , समेटती , सँवारती , बिखेरती काँपती लरज़ती उँगलियाँ । चेहरे पर सर्दी के बावज़ूद एक नमी आ जाती । मेरे चेहरे पर शिकार को फँसा लेने की आश्वस्तता पसरने लगती ।

आखिरकार ये मौका आ ही गया । उस दिन मैं रफीक के कमरे था । वो घुसी थीं कपडों का ढेर हाथ में । साँझ का झुटपुटा था । कमरे में अँधेरा था । बिजली अभी गई थी और रफीक गये थे रौशनी का इंतज़ाम करने । उनके साये का आभास हुआ था । फिर मीठी दालचीनी की सी महक और मैंने पीछे से उस खुशबू को भर लिया । अँधेरे को समेट लिया ,भर लिया आँखों में , होंठों में ,सीने में । एक धूँआ उठा ,ठोस पर तरल ,जंगली लतर , बेले का फूल उफ्फ मेरी जान ! पर एक तडप फिसल गई और उसके बाद जो हुआ वो अप्रत्याशित ! एक ज़ोरदार तमाचा चेहरे को टेढा कर गया ।

मेरा अंदाज़ा इतना गलत कैसे । शिकार मरते मरते आक्रमण कैसे कर गया । मैं चोरों की तरह निकल भागा था उस दिन । फिर कई दिन गायब रहा । एकाधबार रफीक से मिलने के बावज़ूद बहाना बना गया ।

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ट्रेन में बैठे बैठे यही सब सोचता रहा । खिडकी की सलाखों से भागते गाँव , खेत हरे के हरे , अधनंगे बच्चे भागते ट्रेन को देखकर कुछ दूर तक साथ साथ दौडते , देसी मुर्गी अपने चूज़ों के साथ गाँव घरों के सामने चौंक कर कुडक कूँ करतीं , तालाब में पगुराती भैंसे , एक कतार से बत्तखों का झुंड क्वैक क्वैक करता , ताड के पेड कतार के कतार , रहट से पानी पटाता किसान , सब भागते रहे , निमिष मात्र को आँखों के आगे आते फिर ओझल हो जाते । मैं गर्दन सलाखों से सटाये चेहरा टेढा किये अंतिम क्षण तक उस दृश्य को पकडने की असफल कोशिश करता रहा । एक गाँव आता ,छूट जाता , फिर दूसरा ,फिर दूसरा । खेत के खेत , मैदान का मैदान, छोटे कस्बे , रेलवे क्रॉसिंग पर इंतज़ार करते साईकिल सवार , ट्रैक़्टर पर परिवार । मैं सुन्न बैठा रहा । बीच बीच में कुलहड वाली चाय सुडकता रहा । खोवे की लाई , रेत पर भूना हुआ मूँगफली , चनाज़ोर वाला । लोग खरीदते रहे ,खाते रहे , टूँगते रहे । ट्रेन का फर्श मूँगफली के छिलकों से , खाली ठोंगों से अट गया । जूता पॉलिश वाला जूता चमकाता रहा । सूरदास गाना सुनाकर अपनी अल्मूनियम की थाली बजाता रहा । इन सब के बीच मैं निर्विकार सुन्न बैठा रहा । हिलता रहा , झपकता रहा । मेरा सर खिडकी की सलाखों से नींद में टकराता रहा । उठा तो एक गूमड ,कान के ऊपर टीस मार रहा था । झटक कर ख्यालों को परे हटाया । गुस्सा , खीज , झुँझलाहट , शर्मिन्दगी और हार ,बस हार ।



इसबार गौना था । उसे लाना था । घर पर पीली धोती का अंबार , आंगन में सूखते पापड , बडी , अचार । रिश्तेदारों की भीड । पंडाल घेर कर बैठने का स्थान । छत पर हलवाई का जमावडा । खौलती कढाई में छनती पूडियाँ , इमरती , तले हुये परवल की मसालेदार तरकारी , उबले आलू मटर की रसेदार सब्ज़ी , दही में बुन्दिया । हवन , पूजा , मंत्रोच्चार । गहमागहमी , भागदौड । खेलते बच्चे , सजती औरतें । आलता लगे पाँव , बिछिया, नथ । सूप में चावल , नारियल , रोली हल्दी । पंडित , नाई, बीच बिचैव्वा ।

मैं सब भूल गया । सब ।

उसकी छूईमूई छवि सिर्फ याद रही । उसका लाल गोटेदार चादर मेरे पीले चादर से बँधा । गठरी सी मेरे पीछे सूप पर पैर रख कर घर में प्रवेश करती वो । पान के पत्ते से उसका स्वागत । अक्षत रोली हल्दी दही । फिर हम दो , सिर्फ हम दो ।

साँकल बन्द की । पीली गठरी बिस्तर पर । कमरे में हल्दी की महक , चंदन की महक । मेरी हथेलियाँ पसीज रही थीं । चेहरा ऊपर किया । बेतरतीब पर बडी चमकीली घनी भौंहे और उसके नीचे बन्द पलकों पर गहरी घनी बरौनियाँ । नाक की थरथराती नथ के नीचे भरे होंठ । आह !

पतली सुकुमार कलाईयों पर ढेर सारी धानी पीली चूडियाँ ,फिसल कर कुहनी तक आ गई थीं । जैसे किसी और की पहन ली हो । दो दो , सवा दो ,दो आना दो , चूडियों के नाप । कौन से तेरे नाप । मैंने थाहना चाहा पर वो चिहुँक गई । गले की हड्डी ठमक गई एकबार । बीच का गड्ढा ,सुबुक सा एक पल को काँप गया ,धडक गया । मैंने गठरी समेट ली । मेरी बाँहें किसी अनचिन्हे आवेग से थरथरा रही थीं । ज्यादा न भींच दूँ इसका संयम भारी पड रहा था । कच्चे दूध की गमक , बारिश पहली ,मिट्टी पर । छोटे छोटे चहबच्चे में पानी टप टप टपकता , फिर मूसलाधार । दूब का हरापन ,कचाईन हराईन फिर मीठा ,फिर मीठा ।

हाथों पर अचानक कुछ गडा । देखा । आँचल में बँधा खोंईंचा जो किसी शरारती नटखट ननद के इंतज़ार में था । पर हमारे यहाँ कौन । फिर नहीं तो किसी जेठानी , देवरानी का अधिकार । पर बडके भैया ऐसे ही रह गये । ब्याह ही नहीं किया । क्यों नहीं किया कौन जाने । ऐसे लंबे हट्टे कट्ठे । फिर फुसफुसाहट कि कोई नुक्स । पर जो भी हो , घर में अम्मा के सिवा कौन खोलने वाला खोंईचा ।

तब मैं ही बन्धु मैं ही सखा । मेरी उँगलियाँ अचानक मोटी हो गईं । पहली गाँठ मुश्किल से खुली । फिर खुली तो खुलती गई । चावल . दूब , हल्दी का टुकडा , तुडा मुडा पचास का नोट और एक रुपये का सिक्का , सब बिखर गया हरहरा कर ।

सुबह चाँपाकल पर नहाते महुये की मीठी खुशबू आती रही । शहद टपकता रहा गाढा । इसबार लौटा तो दूसरे हाल में ।

पर उनके यहाँ जाना बदस्तूर चलता रहा । ये दूसरी शुरुआत एक अजब वाकया था । रफीक लगभग घेर घार कर मुझे ले गया घर । रफीक से मेरी दोस्ती पुरानी थी । दोस्ती भी ऐसी कि खूब मान मनौव्वल । कभी पैसे माँगे तो ऐसे हक , अधिकार से माँगे कि दिया और खुद फिर कहीं से उधारी की । मना अगर कर दिया तो जिद्द पर अड गये, दोगे कैसे नहीं । हमें ज़रूरत है तो फिर तुम्हीं से लेंगे । हमें कुछ नहीं सुनना । बात की तो शुरु लडाई से हुई । रुठ गये । फिर खुद कहा कि भई अब मना भी लो । खाने पर बुलाया ,वो भी सुबह सवेरे नाश्ते पर और टरका दिया पावरोटी ऑमलेट पर । जाओ फिर कभी फुरसत से बिरयानी कबाब खिलायेंगे ।

उम्र हो गई थी पर ऐसी भी नहीं पर लडाई बच्चों वाली । अम्मी , अशरफ भाई , घर के सब , मतलब खदीमा , रफिया , बच्चे हमें देख देख हँसे , ये लोग ऐसे लडते हैं । औरतें गीली गीली । ऐसी दोस्ती । इकतीस दिसंबर को रात पीते रहे दोनों । सुकून से बैठे सुनते रहे एकदूसरे को। तू मेरा भाई , मेरा यार । दसियों बार दोहराया , दोनों ने। पीकर याराना गाढा होता है । पर यहाँ तो वैसे भी था । हम हँसते रहे चुपके चुपके । बाद में मिलकर खूब ब्लैकमेल किया , उस रात क्या क्या बोले । हम ज़रूर खूब उल्लुपना किये होंगे , दोनों झेंपें ।



हर मुद्दे पर हमारे बीच खूब गर्मागरम बहस । कोई फर्क नहीं हमारे बीच । हम बेखबर , हम गाफिल । चाय और पकौडियों पर बहस चलती रहे देर रात तक । कौन किसके पक्ष में बोल रहा है इससे कोई सरोकार नहीं । हम दो खेमे में ज़रूर थे अपनी तार्किकता पर मुग्ध , जुनून से हमारे शब्द जलते थे । हम वक्त रहते इस गुट से उस गुट में अदलाबदली करते थे ,शब्दों और भावनाओं पर सवारी करते और अंत में थककर चूर हो जाते । देर रात लौटते ।

फिर इस दोस्ती को दरकिनार कर मैं उनकी ओर बिलावजह क्यों खिंचा । जैसे एक साँप सम्मोहित करता है वैसे ही उनकी छोटी छोटी चमकीली आँखों से मैं खिंचा । खैर , जो हुआ अच्छा हुआ । बहुत अच्छा हुआ ।बस एक गडबड ये हुई कि उनके सामने आने में मैं असहज हो जाता । कोशिश करता कि बाहर से ही लौट जाऊँ ।अगर कभी वो आ जातीं तो मैं तुरत उठ जाता । वो झन्नाटेदार तमाचा याद आ जाता । मेरी हथेलियाँ खुदबखुद चेहरे को सहला जातीं । न , उस दिन कुछ न हुआ , बहुत अच्छा हुआ । मैं दलदल में धँसने से बच गया । मैं रफीक से मिलते रहने के लिये बच गया । मैं उस महुये और हल्दी के कच्चे सुगंध के लिये बच गया ।

पर इधर गौर किया उनकी आँखें मुझे ताकतीं । क्या वो किसी माफी के इंतज़ार में थीं । उनके चेहरे पर सचमुच एक इंतज़ार फैला रहता । आँखें ज़रा सा ज्यादा खुलीं , कहो ,कहो न कुछ । मैं क्या बोलता । शर्मिन्दगी तारी हो जाती । एक पीली गठरी याद आती । दूब का कचाईन हराईन मीठापन याद आ जाता ।

इंतज़ार धडकता था ,डब डब । ज़रदे और कीमा में , शामी और रेशमी कबाब में , मसालेदार सुपारी में , इत्र फुलेल में , आँगन में , सहन में , तार पर फैले सूखते कलफ लगे कपडों में , पायँचे वाले शलवार में , लेसदार दुपट्टे में , चूडी वाले पजामे में , चूडियों में ,चिडियों में , कबूतर और परिन्दों में । और एक दिन मेरे गर्दन पर कान के पीछे उस इंतज़ार ने अपने होंठ रख दिये , गर्म नर्म । एक दाग , जला हुआ आग । और एकदम अचक्के से चील ने झपट्टा मारा । मैं अंदर गुडुप । हाथ पैर छटपटा गये । साँस बेकाबू । मैं फँस गया था । शिकारी खुद अपने जाल में फँस गया था ।

शहद के अंदर का गाढा रस मेरी शिराओं में बहने लगा था । मीठा , लसलसा और मैं उसमें डूबता चला जा रहा था ।एक भंवर था और मैं बहता तिनका । खुश्बू की एक भारी चादर तिरी थी जहाँ दम घुटता न घुटता था , जहाँ बहाव के जोर के आगे मेरे पैर टिकते न टिकते थे । मैं सबकुछ भूल रहा था ,सबकुछ ।



साल बीत गये इसबात को । कई कई साल । शहर छूट गया , दोस्त छूट गये । शरीर के रंग बेरंग हो गये । मन अब बावरा नहीं होता , किसी भी चीज़ से नहीं होता । घर गृहस्थी के जंजाल , बच्चों की चिल्ल पों की खटराग , जीवन अब ऐसे ही चलता है । उस दिन लेकिन एक अजूबा देखा अपने शहर मोहल्ले में । कहाँ का भूला भटका गाँव गँवई का आदमी । कंधे पर बहंगी लटकाये , चमरौंधे जूते , मटमैले कपडे ,चेहरा धूल पसीने का साक्षात विज्ञापन बना हुआ । पता नहीं बहंगी में था क्या । कोई माल असबाब या क्या पता कोई जादू का पिटारा । अजब भौंचक निगाहों से इधर उधर ताकते चला था । मैं भी ठिठक कर खडा रह गया था । मेरे चेहरे पर कोई मुस्कुराहट होगी , जरूर होगी क्योंकि एक बार उससे निगाह मिली थी तो उसके चेहरे पर भी कोई जवाबी मुस्कान का झेंप भरा पैरोडी सा कुछ क्षण भर को शायद कौंध गया था । फिर पल भर में कहीं भीड भरी गलियों में बिला गया । एक साँस पहले तक मेरी निगाह के हद में था और अगले साँस लेने तक गायब ।मैंने तेज़ साँस भरी थी , और यकीन मानिये उस साँस में सिर्फ साँस ही नहीं आई , साथ में एक तेज़ भभका दालचीनी लौंग इलायची के खुशबू में लिपटा बगेरी के मसालेदार कौर का भी आया । कौन यकीन करेगा लेकिन सचमुच मेरी जीभ पर वही स्वाद पल भर को नोक से होकर पूरे मुँह में भर गया । और उस स्वाद के साथ ही मेरे गर्दन पर कान के पीछी इंतज़ार का गर्म नर्म दाग , एक जला हुआ आग लहक गया ।आज तक मुझे नहीं पता कि शिकार किसने किसका किया ।


--प्रत्यक्षा
pratyaksha@gmail.com

साभार: अन्यथा पत्रिका 


Friday, February 01, 2019

नागरिक मूल्‍य अभिव्‍यक्ति को गतिशील करते हैं - कृष्‍णा सोबती


नागरिक मूल्‍य अभिव्‍यक्ति को गतिशील करते हैं - कृष्‍णा सोबती ----------------------------------------

"वर्ष 2017 के 53वें ज्ञानपीठ सम्मान समारोह  से प्राप्त स्मारिका में कृष्णा सोबती जी का अभूतपूर्व वक्तव्य है. अपने वक्तव्य में उन्होंने ज्ञानपीठ सम्मान से सम्बंधित, लेखन के राजनीतिक -सांस्कृतिक पहलुओं से सम्बंधित एवं साहित्य में स्त्री -पक्ष
से सम्बंधित बहुत महत्वपूर्ण बातें कही हैं. उन महत्वपूर्ण बातों को पाठकों के लिए, भावी लेखक पीढ़ी के लिए सहेज लेने का मन हुआ.
(वक्तव्य की पीडीऍफ़, वर्ड फाइल उपलब्ध नहीं थी. कुछ मित्रों के सहयोग से सात पेज का वक्तव्य टाइप हो पाना संभव हुआ. उन सभी मित्रों का हार्दिक आभार!)"
-शोभा मिश्रा


माननीय राष्‍ट्रपति जी, ज्ञानपीठ न्‍यास के माननीय सदस्‍य एवं आदरणीय मित्रों, सबसे पहले मैं भारतीय ज्ञानपीठ के प्रति अपना आभार व्‍यक्‍त करती हूँ कि इस बार उसने अपने सुप्रतिष्ठित सम्‍मान के लिए मुझे चुना है। मैं कृतज्ञ हूँ। मुझ नागरिक – लेखक को यह सम्‍मान लोकतंत्र के सर्वोच्‍च प्रहरी राष्‍ट्रपति जी के हाथो दिए जाने का सौभाग्‍य मिल रहा है। इस सम्मान को पूरी विनमता से स्‍वीकार करते हुए मैं यह कहना चाहती हूँ कि मैं 93 वरस की हो रही हूँ: मेरा सुझाव है कि यह सम्‍मान भारतीय भाषाओं में अतिवरिष्‍ठ लेखको को दिए जाने की परिपाटी को बदलकर उन लेखकों को दिया जाना चाहिए जो अपेक्षाकृत युवतर हैं पर जिनकी उपलब्‍धियां ऐसे सम्‍मान की पात्र हैं।

मैं एक नागरिक – लेखक हूँ और इस अवसर पर कुछ भारतीय लोकतंत्र और सहित्‍य के रिश्‍तों पर कहना चाहती हूँ । आप अगर पिछले सात दशकों पर नजर डालें तो संपूर्ण भारतीय भाषा-परिवार के लेखकों ने अपनी बौद्धिक संभावनाओं को आत्‍मविश्‍वास और कुशलता से उकेरा है और अपनी रचनात्‍मक उपलब्‍धियों से भारतीय मनीषा के संचित सत्रों से जोड़ा है। बौद्धिक सम्‍पदा और कार्यशाला को प्रमाणित नहीं कर रहे – साहित्‍य स्‍वयं अपना प्रमाण होता है। सुखद है, यह सोचना कि भारतीय लेखकों ने जिम्‍मेदारी से समाज में होते परिवर्तनों पर निर्मम मगर निर्मल निगाह डाली है। आस-पास की स्थितियों को जांचा-पड़ताला है, ऊपरी खोल की तहों तले पसरे दोहरेपन को उघाडा है। उसे राष्‍ट्र के वृत्‍तान्‍त और संवाद को जिस पाठ की बन्दिश में बांधा है, वह घना है। पुख्‍़ता है। ईमानदार है। अन्‍तर्दृष्टियों की भेदती नुकीली तलाश का विवरण है।

तंज के तान-बाने में उस व्‍यावसायिक पैंतरे का जो भ्रष्‍टाचार के सहारे सफलता के चरम पर पहुँच चुका है। सत्‍ता का पितृपक्ष, इसे हम जो भी पुकारें अब इससे विलग नहीं हैं। भारतीय लेखक के निकट यह चिन्‍ता का विषय है। हम लेखक कितनी भी छोटी-बड़ी या साधारण प्रतिभा के धनी हों, इतना तो जानते हैं कि हमारा आचार-विचार और सामाजिक व्‍यवहार व्‍यक्तित्‍व का विस्‍तार जो भी हो, हमारी चेष्‍टाएं, हमारी व्‍यक्‍तित्‍व चिंताओं और सरोकारों का अतिक्रिमण कर उस ओर प्रवाहित होती है जहाँ साधारणता का ठेठ सुरक्षित होता है। व्‍यक्ति के अन्‍तरंग से उभरकर समाज और देशकाल की गूंथ में जज्‍ब होता रहता है। अपनी शाब्दिक और आत्मिक ऊर्जा में यही प्राणवान तत्‍व साहिंत्‍य का सरोकार कहलाता है। जिस विचार को अपने पाठ के लय-ताल में बुनते हैं, वह जीवन अमरत्‍व है जो अपनी नश्‍वरता को अनश्‍वरता में बदलता हैं विचार, रंग-रूप, स्‍मृति, अक्‍स, भावनाएं, स्थितियां, अपसी संबंध , दूर-पास के मुखड़े जान-अनजाने-पहचाने पात्र, दिल और दिमाग में गूंथे हुए, कागज पर उभरते हुए कभी आमने-सामने, कभी समानान्‍तर पटरियों पर दौड़ते, कभी एक-दूसरे को आर-पार काटते हुए। लेखकीय व्‍यक्तित्‍व और उसके शैली परिधान को क्षण भर के लिए भूल जाएं तो यह है उनके पिछवाड़े का अवचेतन जो अपनी शर्तों पर उघड़ता है। और सहस्‍त्र-सहस्‍त्र रंग-रूपों में खुलता है, खिलता है और रूपायित होता है। आपकी इज्‍जत से इतना और जोड़ दूं कि सर्जक की आँख पाना और हाथ में कलम अपना मानवीय जन्‍म का अलौकिक पुरस्‍कार है, पिछले जन्‍म का पुण्‍य है। इन शब्‍दों का उच्‍चारण करते हुए मै अपने कवियों को गहरे भाव से देख रहीं हूँ। महसूस कर रही हूँ। वे ही हैं – वे ही तो इस कथन के निकटतम हैं। उनके मुकाबले में हम गद्य-लेखक अपनी औकात जानते हैं।

लेखक होना जितना सहज दिखता है, वह उतना आसान है नहीं। लेखक एक बड़ी दुनिया को अपने में समेटे रहता है। अपनी एक सीमित इकाई में एक छोटी अन्‍तरंग दुनिया को बड़ी के पक्ष में खड़ा करता है। अपने होने के बावजूद अपने से एक ऐसी तालीम जगाता है जो उसे एक बड़ा परिप्रेक्ष्‍य देती है। उसे अपने से बाहर फैले संसार के यथार्थ से जोड़ती है। उसके फैले संसार के यथार्थ से भी जोड़ती है। उसके बाहर निज के आत्मिक एकान्‍त और बाहर के शोर को एक कर देती है। उसके बाहर निज के आत्मिक एकान्‍त और बाहर के शोर को एक कर देती है। उसे समय और काल से जोड़ देती है। किसी के दबाव में नहीं – स्‍वेच्‍छा से। लेखक जो भी है, अपने चाहने से है। अपने करने से है। अपनी समस्‍याओं, सिद्धांतों और विश्‍वासों से है। जिसकी चौखट से लेखक जागृत होता है – उसका रचाव- रसाव दोनों उसके लेखन में जज्‍ब होते चले जाते हैं। हवाएं हल्‍की-तीखी, सर्द-गर्म जो लेखक ने अपने बचपन में जानी होंगी, महसूस की होंगी, वह अन्‍दर सोचा भी ली होगी। हर इनसान का बच्‍चा इस मौसमों के बीच से गुजरता है। वह सुबहें जो शहर-कस्‍बे-गांव-नगर-महानगर कहीं भी धूप-छांह में लहराई होंगी, यह यकीनन उसके वजूद में घुली होंगी। हर दिन घुलनशील रहा है। बचपन का नटखटपन, बालिग हाने के पहले की शरारतें अमिट अंकन से सजीव हो स्‍मृति के तलघर में पड़ी होंगी। वही कतरा-कतरा, बूंद-बूंद लेखक के पाठ में घुल-मिल जाती हैं। एक हो जाती हैं। इनसे जुड़ी वह डोरें, वह ताना-बाना बहुत दूर तक अपने को खींचे लिए चलता है। फिर न जाने कहां से मुखड़ा दिखाती हैं लेखक की संभवनाएं अपनी पूरी क्षमता और सीमाओं के साथ। साहित्‍य के चिरन्‍तन द्वार पर खड़ा नौसिखिया लेखक प्रतिभा के सर्जन को कैसे निहारता है, समकालीनों को सराहता है, नकारता है, नई-पुरानी सोच को कैसे अपनी अनर्दृष्टियों में उतारता, ढालता है – यह सभी कुछ लेखक से लेखक के संबंधों को मर्यादित करता है। संयमित करता है। यह सब कुछ हर लेखक के साथ घटित होता है। कभी-कभार नहीं, बार-बार, हर बार, जब लेखक नई कृति के रूप में पुराना होता है। वह पुराना पड़ता नहीं।

एक अच्‍छी कृति की गूंथ और उसकी सघनता लेखक को एक नया-सा रुआब देती है। पर यह होता है – कृतिसार की संज्ञा में नहीं, प्रकाशित कृति के हलके में। प्रकाशित हो जाने के बाद कृति का अपना अस्तित्‍व होता है। अपना ही व्‍यक्तित्‍व भी।

लेखक ने उसे आकार दिया है। विचार दिया है। अर्थ और मर्म भी। उसका वजूद लेखक से अलग है, किंतु लेखक की आत्‍मा से जुड़ा है। दिलचस्‍प है लेखक और उसके लेखन के ऐन बीचोबीच फैली दूरियां और नजदीकियां। एक अपने बाहर को भरपूर जीता है, दूसरा अपने अन्‍दर के एकान्‍त को गहनता से खींचता है। बाहर की गरमाहट को अन्‍दर खींचता है और अन्‍दर की नमी को अपने संवेदन में सोख लेताहै।

इस प्रक्रिया की साख एकतरफा नहीं। रचना दोनों अपने-अपने सीमान्‍तों से, विपरीत दिशाओं से केन्‍द्र बिन्‍दु की ओर बढ़ते हैं जहाँ रचना की पहली आहट, पहला स्‍वर धड़कता है और लेखक आधा रह जाता है। यह लेखक के एकाधिकार को कम करता है पर उसके विश्‍वास को गहराता है। रचना को आश्‍वस्‍त करता है, और उस दूरी से जो रचना और लिखी जाने वाली रचना को नहीं झाँकता, वह न विरोध, इन सब में से छनती हुई अनुभव की प्र‍तीति और गति ही लेखक का लेखकीय संकल्‍प है। उसे वह दो स्‍तरों पर उदृभासित करता है। रचना की वैचारिक भाषा और उसे अंकित और गतिमान करने वाली अक्षर-शब्‍द, पंक्ति-व्‍याकरण और वर्तनी के नियमों की गूँथ, स्‍वर-ताल में बंधी भाषा।

दोस्‍तो, भाषा इस लोक की जीवन्‍तता का रोमांस है। विचार की उत्‍तेजना, प्रखरता, गहराई, एकान्‍त की बेआहट को, प्‍यार और न प्‍यार के द्वन्‍द्व को, घर-परिवार को, शेर और जंगल के मौन को, मन की खिड़की से टकराते तनावों के पंखों से, फड़फड़ाहट की छुअन से, हास और उल्‍लास से, भला क्‍या है जो भाषा अंकित नहीं कर सकती। भाषा में निहित है प्रकृति और समस्‍त संसार का संवेदन। ऐसा कुछ भी नहीं जिसे शब्‍द व्‍यक्‍त न कर सकें। वे अपने होने के अधिकार से चाल को विराम देते हैं, तेज रफ्तार को थाम लेते हैं। प्रवाह को बींध देते हैं, चीर देते हैं। जीवन और मरण को शब्‍दों की सत्‍ता से माप लेते हैं।

एक कार्यशील लेखक की ओर से इतना तो कहा ही जा सकता है कि भाषा के ही मुखड़े से मौसमों-ऋतुओं के पंखों पर उड़ते समय को हम थाम लेना चाहते हैं, शब्‍दों और अर्थों की सोहबत में उसे दुबारा जिन्‍दा करना चाहते हैं एक क्षण, एक लम्‍हें में एक तस्‍वीर, छवि, भाव को बांध लेना हैं एक पंक्ति में। विस्‍मयकारी है विचार तो इसका विस्‍तार और इसकी गहराई और एक शब्‍द से एक बूंद को पकड़नेवाली सामर्थ्‍य भाषा की।

अपनी भारतीय भाषाओं के विशाल परिवार को देखें तो हर भारतीय भाषा अपनी निजता को अनेक रूपों और शैलियों में प्रस्‍तुत करती है। हमारी भारतीय विविधता का लोकतन्‍त्र जनमानस में स्थित है। अनेक भाषायी मुखड़े अपनी विविधता में उस केंद्रीय इकाई को प्रस्‍तुत और तरंगित करते हैं जिसे हम भारतीयता के नाम से पुकारते हैं। यही राष्‍ट्रीय संवेदन-संस्‍कार भारतीय आत्‍मा के चैतन्‍य में धड़कता है। हमारी देशी भाषाएं अपनी साहित्‍यिक अभिव्‍यक्ति से किन्‍हीं भी दूसरी भाषाओं से कम नहीं। समूचा भारतीय व्‍यावसायिक वर्चस्‍व की सामर्थ्‍य भी देगा।

शर्त इतनी ही कि नए समय की सोच को जज्‍ब करनेवाली खिड़कियां खुली हों। हम किसी भी तुलना में अपने को कम समझें और न ज्‍यादा। हम लेखक-गण इस बात को भलि-भांति जानते हैं कि देखने और सोचने में कुछ भी अतिरिक्‍त हो, अतिश्‍योक्ति हो तो 'विचार' स्थितियों और मानवीय संवेदन के अर्थ बदल जाते हैं। संदर्भ बदल जाते हैं, मुद्राएँ बदल जाती हैंऔर बदल जातें हैं - महत्वपूर्ण निर्णय | यह बात कितनी खरी उतरती है हमारे भाव और प्यार मुहब्‍बत को लेकर। इसीलिए भाषायी संदर्भ में निर्णायक हो उठता है कि हम भाषायी तेवर को, शब्‍दों के वजन को, माप को, शब्‍दों के घरानों को कैसे चीन्‍हते-जानते-पहचानते हैं, उनके अर्थों को अपने अनुभव में और कैसे साहित्‍यिक और भाषायी समझ से विचार को सही मुखड़े और मुद्रा में प्रस्‍तुत करते हैं। लिखित भाषा, भाषायी संस्‍कार, शैली-अलंकार उसकी गरिमा को सुदृढ़ करते हैं और वाचन-परम्‍परा में बोलियों की लचक, भाषा के कोलाहल संवाद को समृद्ध करती है। 'लोकमानस' बोलियों की प्राणवान धाराओं को सूखने नहीं देता। उस मीन को नए-नए प्रयोगों से बरकरार रखता है जो उसके पर्यावरण से जुड़ी हैं।

आज साहित्‍य की भाषायी सम्‍पन्‍न्‍ता में, उसकी तेजस्विता में ढूंढें तो पाएँगे कि भाषा के वैचारिक अर्थ विज्ञापन की भाषा में घुल-मिल रहे हैं, यह प्रक्रिया छोटी नहीं। इतनी बढ़ी कि नई भूमंडली व्‍यावसायिकता को प्रभावित और प्रमाणित करने की भी क्षमता रखती है। यह आज की भाषा का नया संप्रेषणीय व्याकरण है। जिसकी शैली और चयन उपभोक्‍ता बाजार की देन है। इसकी साधन-संपन्‍नता इतनी कि समाज की गंभीर तात्‍तविकता तक को समेटने की सामर्थ्‍य रखती है। साहित्‍य और कलाओं को अपने धन्‍धे में जज्‍ब करने की ताकत भी। इसके साथ-साथ यह पेचीदा बाजार नागरिकता लखके के अंदर  और बाहर के चिन्‍तन और विचार तक को तय करने लगी है। संस्‍कृति के नाम पर व्‍यावहारिक रिश्‍तों के अंतर्विरोध भी हस्‍तक्षेप करते हैं, कर सकते है। न दिखती गुप्‍त शक्तियों एक खास तरह के मौन संवेदन से निरन्‍तर बौद्धिक और सांस्कृतिक जाति की बौद्धिक स्‍वतंत्रता के आड़े आती है।

वैचारिक स्‍तर पर यदि लोकतंत्र के सैद्धांतिक और व्‍यावहारिक नागर‍िक मूल्‍य उसकी अभिव्‍यक्ति को गतिशील करते है, आत्‍मविश्‍वास देते है तो दूसरी ओर लेखकीय क्षमताओं को सीमित भी करते हैं। सत्‍ता-संस्‍थान, संगठन और लेखकों के बीच जो तनाव बना रहता है, वह जितना ऊपर दिखती है, उतना ही सतह के नीचे भी पसरा रहता है। हकीकत यह भी कि लेखक के संबंध परस्‍पर की श्रेणी में नहीं आते क्‍योंकि होते नहीं हैं। इसीलिए लेखक को स्‍वायत्‍तता का प्रश्‍न परेशान करता रहता है। क्‍या लेखक के संवेदन और अस्मिता में कोई तालमेल है? क्‍या उसके बाहृा जगत और आन्‍तरिक में कोई दूरी नहीं व्यापती, क्‍या अन्‍दर से बाहर और बाहर से अन्‍दर प्रवेश करने का एक ही प्रवेश द्वार है? क्‍या लेखक तनावों और तुष्टियों का गुणात्‍मक गठन कर सकता है? लेखकों के वैचारिक वर्ग के राजनीतिक, सामाजिक और व्‍यक्तिगत विश्‍वासों और कार्यकारी कलापों से उपजे प्रभावी तत्‍व पड़ताल की अपेक्षा रखते हैं। संस्‍थान और संगठन तन्‍त्र से लैस अपनी कार्य-संहिता से पेचीदा और पोशीदा अंकुशों को सहज सरल बनाकर जब संचारित करते हैं, तो कुछ घटित होता है। दबावी चौखटे में कोई भी क्रम और क्रमांक तय करने के लिए राजनीतिक, सांस्कृतिक पक्ष एक-दूसरे में घुल-मिल जाते हैं। यही दुधारु शक्‍ति उन्‍हें साहित्‍यिक संस्‍कारों की पहरेदारी पर लगा देती है। दोस्‍तो! साहितय कभी नियंत्रित नहीं होता, क्‍योंकि किया नहीं जा सकता। लेखक का समूचा अस्तित्‍व उसकी खबरदारी में है। 'विचार' की तथाकथित सांस्‍कृतिक मुद्रा राजनीति के इस महीन बुने जाल को फैलाती है और इसे अपनी सूझ-बूझ से अंकित और सुरक्षित करती है। कार्यवाही संबंधों की यही घनिष्‍टता और जटिलता लेखक को एक ऐसे मुकाम पर ला खड़ा करती है। जहाँ लेखक गौण है। लेखक मध्‍यस्‍थता करते दिखता है उन सिद्धांतों की जो पहले ही खारिज किए जा चुके हैं। इससे बड़ा खतरा लेखक वर्ग को और क्‍या होगा? इसी के चलते हम सिकुड़कर अपने अन्‍तरंग में स्थित होने लगते हैं। एकान्‍त में स्थित होने लगते हैं, एकान्‍त की गरिमा में अपने को नए सिरे से पहचानने लगते हैं। यह पलायन का दर्शन पुराना है। गरिमा देने के लिए इस नीम चिन्‍तन को हम गहन चिन्‍तन के नाम से भी पुकारने लगते हैं। नई परिस्थितियों के उभरते क्‍या हमारे रचनात्‍मक मिथक बदल जाते हैं? क्‍या सामाजिक, सांस्‍कृतिक परिवर्तनों के साथ सर्जनात्‍मकता के आकार भी बदले हैं? क्‍या पुरानी परम्‍परा और नई मर्यादा में समन्‍वय उभरे हैं? लेखकगण मजमे के रूप में देखे जाते हैं, क्‍यों? वे विचारशील नागरिक हैं। उसकी सोच में कुछ तो अतिरिक्‍त है, विशेष है, विशिष्‍ट है। फिर क्‍यों संशय और संदेह के गतिरोध! हम क्‍यों न इतना याद रखे कि उनके पास असहमति का अधिकार बराबर बना रहता है! हम क्‍यों न अपने सामाजिक विवेक से साथ-साथ उस अनिवार्यता को भी स्‍वीकार करें जो प्रबुद्धों के निकट उनकी मर्यादा है।

आपकी इजाजत हो तो एक छोटे मगर गंभीर मसले को छू लें! राजीनतिक संस्‍कृति का पर्यावरण जो भी हो, शब्‍द.संस्‍कृति को अपने मानसिक जलवायु की सुरक्षा करना होगी। सियासी राजनीतिक दलों और खेमों में हेर-फेर, उठा-पटक, ऊँच-नीच, जो भी होता रहे, लेखक को अपनी कलम धो-पोंछकर पन्‍नों पर पाठ की प्रतिष्‍ठ करना होगी। शब्‍द-संस्‍कृति की सुरक्षा करनी होगी। आस-पास के दल और उसके भँवर-जाल शब्‍दों और पंक्तियों को बरगला न दें। लेखक की साधाराण, छोटी-सी दिखने वाली हस्‍ती जो अपने मे न जाने किती संज्ञाएँ छिपाएं रहती हैं वह किस-किस से आक्रान्‍त नहीं ? मगर क्‍यों?

क्‍या लेखक इस घेरेबन्‍दी में 'साधन-संपन्‍नता सहयोग' के चलते, सक्रियता में जमकर अपने रचनात्‍मक वैभव को बचा सकता है?

खतरा यह भी है लेखक अपनी टकसाल में से क्‍या वही निकालेगा जो राजनीति के एजेंडा और इलेक्‍ट्रॉनिक भोंपू उलग रहे हैं।

यह राजनीति के खिलाफ नहीं, लेखकों के हक़ में कहा जा रहा है। उपभोक्‍तावाद के इस स्‍वर्णिम युग में जहाँ साधु-संयासी, ज्‍योतिषी, तांत्रिक, डॉक्‍टर, इंजीनियर, वकीली मैनेजर बनकर अपने मन्‍त्र-तन्‍त्र और कार्यशीलता को प्रवाहित करते हैं, वहाँ लेखका को पुचकारने के लिए, उसे उसके स्‍थान पर रखने के लिए कुछ ऐसा क्‍यों किया जाता है कि हमारी प्राचीन आचार-संह‍िता के अनुरूप लेखक बेचारा बनकर वहीं टिका रहे जहाँ वह पुराने वक्‍तों में था! तुलना में आज साहित्‍य अपने सांस्‍क्‍ृतिक और सामाजिक रूप में एक बहुत बड़ा व्‍यावसायिक उद्योग भी है। इसे क्‍या हम याद रखना पसन्‍द करेंगे?

एक ऐसा बौद्धिक उद्योग जो 'सत्‍य' की उपभोक्‍तावादी राजनीति से घिरा है। हम न भूलें कि संस्‍कृति भी एक विशाल सांस्‍कृतिक धन्‍धा है। इसमें वह सब कुछ है जो किसी भी धन्‍धे में मौजूद होता है।

हम सभी जानते है कि लगभग सारी राजनीतिक, उसके बैनर कुछ भी हो, 'सत्‍य' के नाम पर चलाई-बनाई जाती है। इसका व्‍यापार किया जाता है। राजीनति की भाषा में सच्‍चाइयों की कभी कमी नहीं। लोक का सत्‍य, व्‍यवस्‍था का सत्‍य, आंकड़ों का सत्‍य, झूठ की मुखलफत का सत्‍य, झूठ के पसीजने का सत्‍य और उच्‍च सत्य  से फूटते अर्ध-सत्‍य।

इन छोटे-बड़ो 'सत्‍यों' की सूची में से उभरकर आता है – इतिहास का 'सत्‍य'। इतिहास की दस्‍तावेजी प्रमाणिकता से छेड़छाड़ किए बिना भी लेखक-साहित्‍यकार सीधे जन-साधारण तक पहुँचता है और लगभग 'जन' मन की खोज में ढूँढ लाता है जो इतिहास नहीं है और इतिहास है भी।

साहित्‍य की सीमाओं में इतिहास की प्रामाणिकता और पौराणिकता दोनों एक-दूसरे के विरोध में एक-दूसरे का अतिक्रमण करने की कोशित करते हैं। इतिहास से छेड़छोड़ करने की कोशिश को हम लेखकगण शक की नजर से देखते हैं। इतिहास सिर्फ वह नहीं जो हुकूमतों के प्रमाणों और दस्‍तावेजों के साथ व्‍यवस्‍था के खातों में दर्ज है। इतिहास वह भी है जो लोक-मानस की भागीरथी के साथ-साथ बहता है, बनता है, पनपता है और जन-मानस के सांस्‍कृतिक पुख्‍तापन में जिन्‍दा रहता है।

मनमानी दृष्टि का प्रचार और प्रसार, पवित्रता का आग्रह क्‍या सचमुच अतीत को, इत‍िहास को बदल सकता है। हमने इसका हश्र देखा है- विभाजन। क्‍योंकि इतिहास एक अपना तर्क होता है। अपने तर्क को उस पर लागू करना मनचाहे नतीजे उगाहने के प्रयत्‍न किसी भी पुरानी दुखदाई स्‍मृति को पोंछ नहीं सकते। इन चेष्‍टाओं में हम इतिहास में जितनी किस्‍सागोई का सम्मिश्रण करते हैं- यह जानना भी कम जरूरी नहीं। आजकल अपने गौरणमय इतिहास की प्रशस्तियां जरा ज्‍यादा ही मुखर है।

अपने देश के इतिहास के लंबे गलियारों में से स्‍तवंत्रता प्राप्‍ति तक पहुँचते न पहुँचते हमने न जाने कितने अंधियारे पार किये. राष्‍ट्र ने पचास वर्षों में 'सत्‍य ही सत्‍य' है के मतदान-शोर को अपने लोकतांत्रिक मिजाज़ में सोखकर ऐसा रसायन तैयार किया है कि इधर देखें तो गंगा मैया, उधर देखें तो जमुना जी। अपने-अपने रंगों में दोनों साफ इतनी शफ्फा कि उनके निर्मल जल में भ्रष्‍टाचार की परछाइयाँ  तक न दीख सकें। मुखड़ों और मुखौंटों की राजनीति नोट और वोट के पवित्र नात से बंध गई। कभी वोट की कीमत एक कम्‍बल थी, धोती थी, बोतल थी, झुग्‍गी थी, खोखा था, फिर लाइसेंस था, आवास था, प्‍लॉट था, दुकान थी, ठेका था, फैक्ट्री थी, पेट्रोल पम्‍प था, होटल था, दाखिला था, सन्‍दूकची और बन्‍दूकची के इस जमाने में, आज की बात करें तो मुख्य रूप से शिक्षित और निरक्षर बंट गए हैं। उच्‍च और नीच सीढियाँ बंटी हैं। शक्तिशाली, शक्तिवान और कमजोर-दलित आदिवासी पहले से कहीं जयादा तीखी बांट से बंटे हैं। धर्मनिरपेक्ष राष्‍ट्र होने के नाते जो एक-दूसरे के नजदीक थे, वह अब एक-दूसरे के पक्ष के खिलाफ बंटे हैं। वही विरोध अध्‍यात्‍म का संकीर्ण आख्‍यान बार-बार।

हमें सवधान होना होगा। साहितय में भी इसकी बांट शुरू है। हिंदू लेखन, मुस्लिम लेखन, हिन्‍दुत्‍व लेखन, महिला लेखन, ब्राह्ण लेखन, ठाकुर लेखन और न जाने कितने-किनते कुल गोत्रों के लेखन।

कुछ तो हम भी सीखें! राजीनतिक दलों की नीतियों, कूटनीतियों से अलग अपने में तालीम जगाएं इस बड़े राष्‍ट्र भारत की भारतीयता को जीने की। राजनीतिक स्तर पर भारतीय नागरिक मतदान पेटी से आगे बढ़कर अपने को नागरिक के खाँचे में स्थिर कर रहा है.

रचनात्मक साहित्य का श्रेष्‍ठ चुनने और उसे अंकित करने के निष्‍काम मगर व्‍यावसायिक आयाम किसी से छिपे नहीं। आलोचना अपने साहित्‍यिक मूल्यों के सन्दर्भ में से किसी लेखकीय अभिव्यक्ति को असाधारण और 'विशेष' विशेषण से प्रतिष्ठित  करती है, किसे सिर्फ शिल्प के नाम पर  खारिज करती है. यह प्रक्रिया सिर्फ दिलचस्प ही नहीं, खुले रहस्‍यों को भी चमत्‍कृत करती है। फिर भी कहना होगा कि कुछ बचता है तो अच्‍छे लेखन को सहज रूप से सत्‍कारता-स्‍वीकारता है-आलोचक और पाठक। अब वह राजनीतिक मुदृों को समझने की तालीम रखता है। क्‍या गलत है, क्‍या सही, क्‍या होना चाहिए, क्‍या नहीं होना चाहिए। हमारे लोकतांत्रिक मूल्‍यों का वह जनता-जनार्दन द्वारा स्‍वीकार है। अब वह नागरिक धर्म के नाम पर उलझाए गए साम्‍प्रदायिक झगड़ों को आर्थिक सम्‍भावनाओं के सम्‍मुख रखकर देखने लगा है। नागरिक अधिकारों की ओर उन्‍मुख है वह जिन्‍होंने इसे अर्जित किया है। दलों की अंधाधुंध मनमानी पर नागरि‍क-संस्कृति अंकुश लगाने की स्थिति की ओर बढ़ रही है। मतदाता राजनीतिक दलों से उनके पारदर्शी होने की माँग कर रहा है.
नागरिक अब शासन-तंत्र और व्‍यवस्‍था में फर्क करता है। न्‍यायपालिका ने, साधरण-जन में अपने राष्‍ट्र के प्रति आस्‍था और विश्‍वास जगाया है। मानसिक आतंकवाद के तहत फैलायी जानेवाली बर्बर हिंसात्‍मक निरंकुशता और शोषण का विरोध हमारे मूल अधिकरों से जुड़ा है। आज नागरिक की एक ऐसी सरकार चाहिए जो सामाजिक विभिन्‍नताओं और राजनीतिक विषमताओं को अबूर कर बढ़े राष्‍ट्र का वजूद सुदृढ़ करे। राजनीतिक दलों के आपसी विरोध-गतिरोध को अलग रख राष्‍ट्रीय अस्मिता के मानदंड कायम कर सकें।

स्थितियों, मुदृों और बेहतर जिन्‍दगी को पढ़ने की यह भाषा न सिर्फ नगरों, महानगरों के रहनेवालों के पास होनी चाहिए। देश के दूर दराज के गाँव -कस्बे भी इस भाषा द्वारा अपना-अपना भविष्य देखने के अधिकारी हैं.

साफ़ हो यह बात कि स्त्री -पुरुष इस धरती पर जीवन की अटूट धारा को सुरक्षित रखनेवाले हैं। एक-दूसरे के निकटतम हैं। साथ-साथ पलते हैं, एक साथ घर बनाते हैं, बच्‍चे को जन्‍म देते हैं, परिवार बनाते हैं, इस दुनिया को खूबसूरत बनाकर जाते हैं। लोक की धड़कती ऊर्जा को जीवन्‍तता से कायम करते हैं। इन दो मानवीय किस्मों - स्‍त्री और पुरुष के बीच पनपता रोष, विरोध, हिंसा जीवन के यथार्थ को बनने वाले सपने को खंडित करते हैं। उसकी गरमाहट को ठंडा करते हैं।

पितृपक्ष को स्‍त्रीपक्ष की नई भाषा, नया संस्‍कार सीखना होगा। आत्‍मसात् करना होगा क्‍योंकि परिवार की निर्णायक शक्ति की बांट स्‍त्री तक अगर नहीं पहुँच सकी तो पहुँचने वाली है। उसे हमारा संविधान वही अधिकार देता है जो आपको प्राप्‍त है। शिक्षा, कानून और स्‍त्री की आर्थिक स्‍वतंत्रता उसे पुरुष की बराबरी के लिए उकसाती है। उसने अपने लोक और अनुभव के बल पर यह प्रमाणित किया है कि वह कार्यकारी क्षमता में पुरुष से कम नहीं। नारी-अस्मिता और स्‍त्री-मुक्ति से जुड़े आन्‍दोलनों को भारतीय परिवेश में समझना जरूरी है। देवी और दुर्गा का दर्जा देकर हमने उसका मनोविज्ञान बदल दिया है। उसकी मानसिकता, देह-भाषा, आत्‍मविश्‍वास, सब पितृसत्‍ता द्वारा संचालित रहे हैं। वह अपनी कर्ता नहीं थी, वह दूसरों की कारक रही। दूसरों के लिए-दूसरों के निमित्‍त। उसे इस चौखटे के तथाकथित सांस्‍कृतिक चंगुल से निकलना होगा। एक व्‍यक्ति की हैसियत से समाज में अपने को स्‍थापित करना होगा। खुद की निगाह से देखना होगा अपने को, अपने को प्रमाणित करने के लिए ऐसा करना न मात्र विद्रोह है और न पितृसत्‍तात्‍मक पर प्रहार। इसका इतिहास बहुत पुराना है, उतना ही जितना स्त्री-ऊर्जा और उसकी संभावनाओं की मुटृठी में जकड़ने का व्‍यवस्‍था-विधान। आदर्शों और महिमामंडित ममता की ऊँचाइयों में स्‍थापित कर उसकी गरिमा और उसका गुणगान काफी न होगा।

सिर्फ परिवार-कुटुम्‍ब के पोषण और संचालन की भावनात्‍मक क्रियाएँ ही अब स्‍त्री की उपलब्‍धि नहीं। उसके होने का कथ्‍य और जैविक प्रभाव समाज की व्‍यवस्‍था से सरककर उसके व्‍यक्तित्‍व में केन्द्रित हो रहा है। ग्रामीण संसार की वह निरक्षर महिलाएं भी- जो कुछ भी कमा सकती हैं- अपनी 'बेगार' भाव-मेहनत के बदले अपने में बदलाव महसूस करती हैं। यह पूरी प्रक्रिया उसकी अस्मिता का बिन्‍दु है। वक्‍त कितना भी लगे, पुराना स्त्री-धर्म अपने स्‍वभाव के क्रान्‍तिकारी परिवर्तन से गुजर रहा है। मात्र सेक्‍स और हाथ की मजदूरी की भूमिका में से उभरती स्‍त्री-छवि अपने को बदलने के लिए कटिबद्ध है। वह पुरानी सांस्‍कृतिक मान्‍यताओं और वैचारिक पुरुष परम्‍पराओं को चुनौती दे रही है। ऐसे में दोनों- स्‍त्री और पुरुष की जांच एक-दूसरे करी पड़ताल के बिना अधूरी होगी। नईनई परिस्थितियों में नया शास्‍त्र-विवेचन जरूरी होगा। स्‍त्री-पुरुष एक-दूसरे के निकटतम हैं। घनिष्‍ठ हैं, मित्र हैं, पूरक हैं। स्‍वामी और दास नहीं। किसी के भी तनाव को, रोष को, विरोध को हमें किसी एक में नहीं देखना होगा। किसी एक को नहीं देखना होगा। नीचे-ऊपर से नहीं, आमने-सामने से बराबरी का संवाद करना होगा। इसी पृष्‍ठभूमि से नत्‍थी है वह निरक्षर, अशिक्षित वर्ग भी जो हमारी जनसंख्‍या का बहुत बड़ा भाग है, जो लिखित को न पढ सके। जब नागरिक की आँखें अक्षर न पहचान सके, पंक्ति को न चीन्‍ह सकें तो बेचारगी, झुंझुलाहट, हिंसा, घृणा और खौलती आक्रामकता! हमें हमारे राष्‍ट्र को साक्षर करना होगा। यह हम पढ़े-लिखों का बयान नहीं, निरक्षरों की ओर से पैगाम है। इसी से बावस्‍ता हैं हम लेखकों की संभावनाएं और राष्‍ट्र के अच्‍छे भव‍िष्‍य की कामनाएं। हमारे जीवन में दूर तक घर करती टैक्नोलाजी की शताब्‍दी में हम उन्‍हें निरक्षर क्‍यों छोड़ दें।

एक देश में जन्‍मने के रिश्‍ते बहुत गहरे होते हैं। जो हमारे हिस्‍से में है और दूसरों के पास नहीं, इसे सुलझााने के भी रास्‍ते बहुत होते हैं। शिक्षित नागरिकों पर यह जिम्‍मेदारी है।

औकात में एक छोटी सकी कलम। नाम से सिर्फ एक लेखक। इससे अलग कोई दूसरी पहचान मेरे पास है ही नहीं। मैंने इस लेखकीय संज्ञा को, साधारणता की असाधारणता को खुद अपने अहद में जिया है. लगभग अपनी शर्तों पर. बेझिझक कह सकती हूँ कि लेखक के वजूद और व्यक्तित्व में अगर कुछ भी संचित है तो वह साधारणता का ही विशेष है.
साधारण में अपनी ही लचक है. वह लेखक के निकट किसी भी अन्य गुणात्मकता से सहस्र गुना महत्वपूर्ण है. अपने को लेकर रचनाकार के सम्बन्ध कभी भी सरसरी नहीं होते. रागात्मक सम्बन्धों की हद से भी गहरे और दूर तक उसके दिल-दिमाग और देह से गुँथे होते हैं. यह गहरी गुँथ किसी भी छोटे-बड़े लेखक के निकट मूल्यवान है. सच तो यह है कि यही उसका सरमाया है.मूलधन है. यही लेखक के पाठ में प्रवाहित होता है.
प्राचीन,प्रौढ़,नए और युवा बच्चे – एक ही देश, एक ही समय का जीते हैं. जिए हुए की अपनी पवित्रता होती है. अपना स्थापत्य भी. जो पुराना हो चुका है वह कम पुराने के सामने खडा है. आधा पुराना और आधा नया, नए के सामने खडा है. बिलकुल नया है जो वह अपने से आगे के नए को देख रहा है. किसी भी देश का वृतांत देश की जनता बनाती है और जनता के चैतन्य को बुद्धजीवी बिरादरी अंकित करती है. अपने हवाले से इतना कह सकती हूँ कि लिखना मात्र लिखना नहीं. लिखना और जीना, दो नहीं, एक है. एक ही. सुनने में लग रहा होगा, लेकिन इतना सहज है नहीं. लेखक के अन्तरंग में, अवचेतन में न जाने किस-किस के वितरण – वृतांत-वाक्यांश भरे पड़े हैं. कहीं से एक हलकी-सी आहट, मौन-सी खटखटाहट, शिराओं में कोई भूली- बिसरी झनझनाहट- और आप चौकस हो उठते हैं. चौकन्ने. क्या कोई परिचित-अपरिचित आँख से भला क्या देखा. क्या पावन पन्ने के सतह ! क्या स्मृति का प्रतिबिम्ब ! जो भी है, जहाँ से है लेखक को उसे लिखकर ही प्रमाणित करना होता है. आखिर इन मानवीय संवेदनों को प्रस्तुति में ही उद्घाटित होना होता है.


रचना लेखक के हाथ का खिलौन नहीं। वह उसके आध्यात्मिक पर्यावरण का, उसकी आत्मिक संरचना का परिष्कार है। सच तो यह भी है कि जिस लिपि में, भाषा में लेखक स्वयं को जीता है-अपने आसपास को शब्दों की बन्दिश में बांधता है, वही उसके पाठ में प्रवाहित भी होता है। साहित्य की समग्रता में।


लेखक के निकट लेखन भी मौसम है।
हर कृति एक नया मौसम- एक नई यात्रा।

हर कृति के साथ आप पुराने पड़ जाते हैं और नए हो उठते हैं। उससे जुड़ा रहता है स्वभाव का निर्वकार। प्रतिस्पर्धा के इस मौसम में भी मैं अदबी दौड़ में न किसी को पछाड़ने की फिक्र में न किसी से पिछड़ने के आतंक में। यह तालीम साहित्य ही लेखक को देता है। आप दूसरे के नाम से अपनी हाजिरी नहीं लगा सकते। ऐसे में इरादा सिर्फ इतना ही कि जितनी माशा-रत्ती, माशा-तोला, जो भी प्रतिभा परिश्रम आपके हिस्से में आए हैं, उसकी देख-रेख जतन से करें और भरसक कोशिश रहे कि उस पर आंच न आने पाए। 

अपने भावबोध की, पाँव तले जमीन पर खुद्दारी से डटे रहो। लेखक के लिए यह मुश्किल समय है। उलझे हुए-पेचीदा इन समयों को लेखक अंकित करेंगे- अपने में कोई एक दूसरा-तीसरा जगा कर! होते हैं, छिपे रहते हैं लेखक के एक में तीन! शर्त एक ही कि पांव तले की जमीन से उखड़ो नहीं। पांव के जूते न पैर के माप से बड़े हों और न छोटे हों। कुछ ऐसे कि बिना किसी चिन्ता और परेशानी के आत्मविश्वास, आत्मबल से उभरते उदात्त और उसकी प्रेरणाओं को मुखरित करें- अपनी छोटी सी लेखक की हस्ती को बरकरार रखते हुए। 

सिर उठाकर चलो कि हम स्वतंत्र देश के लेखक हैं। प्रबुद्ध हैं। लेखक की गरिमा उसके लेखन में है, मात्र संगठनों, संस्थानों और मंचों में नहीं।


इस महादेश का साहित्य और साहित्यकार अपने विचार में नियंत्रित नहीं किया जा सकता है। उस पर कब्जा नहीं किया जा सकता। 'लोक' की प्रतिष्ठा में हमारा राष्ट्र लोकतन्त्र है और हम लेखकगण लोकतन्त्र में विश्वास रखते हैं। 

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