Tuesday, June 04, 2013

अँधेरे के खिलाफ अँधेरे की लड़ाई : नक्सलवाद - 1

विमलेन्दु द्विवेदी 

----------------------------


अँधेरे के खिलाफ अँधेरे की लड़ाई :

नक्सलवाद
-1





      छत्तीसगढ़ में कांग्रेसी नेताओं की नृशंस हत्या ने शायद पहली बार इतने व्यापक पैमाने पर देश का ध्यान नक्सली समस्या की ओर खींचा है. अधिकांश लोग पूछने लगे हैं कि ये रेड कॉरीडोर क्या है, सलवां जुडूम किस जानवर का नाम है, माओ किस बिल्ली की आवाज़ है, और ये चारू मजूमदार और कानू सान्याल कौन थे ? जो ज्यादा नहीं जानते वो मार्क्स को ही गालियां देने लगे हैं और सारी मुसीबत की जड़ उन्हें ही ठहरा रहे हैं.



कुछ समय पहले एक साक्षात्कार में छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह कह रहे थे—“ बस्तर में पिछले 30-40 सालों से नक्सली हैं। वहां पर गरीबी व पिछड़ेपन का मूल कारण भी नक्सली ही हैं। विकास की परिभाषा है कि वहां पर सड़कें बनें, स्कूल बनें, आंगनवाड़ी बने, बिजली हो, संचार व्यवस्था हो, लेकिन नक्सली सभी का विरोध करते हैं। वे विकास करने ही नहीं देना चाहते है। इस देश में विकास और लोकतंत्र के सबसे बड़े विरोधी कोई हैं तो वे नक्सली ही है।“ उधर नक्सली कहते हैं कि सरकार के शोषण के खिलाफ ये लालक्रान्ति है. 2050 तक हम इस देश में मज़दूरों का शासन स्थापित कर देंगे. इन दो तस्वीरों के बीच हम कैसे समझें नक्सलवाद को ?



आप जानते होंगे कि नक्सलवाद कम्युनिस्ट क्रांतिकारियों के उस आंदोलन का अनौपचारिक नाम है जो भारतीय कम्युनिस्ट आंदोलन के फलस्वरूप उत्पन्न हुआ। ‘सत्ता बंदूक से निकलती है‘ के सिद्धांत पर यकीन करने वाले नक्सलवाद का जन्म 25 मई 1967 को पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी में ज़मीनदार और किसानों के दरम्यान जमीन के झगड़े से हुआ। जिसमें पुलिस की गोली से 11 किसानों की मौत हो गई थी। नक्सलवादी संघर्ष का नेतृत्व कानू सान्याल और चारू मजूमदार ने संभाला। 21 सितबंर 2004 को पीपुल्स वार ग्रुप और माओइस्ट कम्युनिस्ट सेंटर के विलय के बाद भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) गठन हुआ। इनका सैनिक संगठन पीपुल्स लिबरेशन गुरिल्ला आर्मी (पीएलजीए) काफी मजबूत है। गरीबों और शोषितों को इंसाफ दिलाने का दावा करने वाले नक्सलियों को भारतीय लोकतंत्र पर विश्वास नहीं है। वे चुनावों का बहिष्कार करते हैं। बदलते वक्त के साथ नक्सलवाद का ढ़ांचा और विचारों में परिवर्तन हो चुका है। सरकारी भवनों को उड़ाना, स्कूल और स्वास्थ्य केंद्रों को नुकसान पहुंचाना इनका प्राथमिक लक्ष्य होता है। इसके पीछे इनका तर्क है कि स्कूलों में शिक्षा की बजाए सुरक्षा बलों को पनाह दी जाती है।नक्सलवाद के विचारधारात्मक विचलन की सबसे बड़ी मार आँध्र प्रदेश, छत्तीसगढ, उड़ीसा, झारखंड, और बिहार को झेलनी पड़ रही है।



नक्सलवाद भटका हुआ आंदोलन है । यह अधैर्य की उपज है । यह पशुयुग की वापसी का उपक्रम है जिसके मूल में है हिंसा और सिर्फ हिंसा। । तथाकथित समाजवादी मूल लक्ष्यों की साधना से न अब किसी कमांडर को लेना देना है न वैचारिक सूत्रधारों को । उसके मेनीफेस्टो में अब दीन-दुखी, पीडित-दलित, मारे-सताये हुए पारंपरिक रूप से शोषित समाज के प्रति न हमदर्दी की इबारत है, न ही समानता मूलक मूल्यों की स्थापना और विषमतावादी प्रवृतियों की समाप्ति के लिए लेशमात्र संकल्प शेष बचा है । वह स्वयं में शोषण का भयानकतम् और नया संस्करण बन चुका है । वह अभावग्रस्त एवं सहज, सरल लोगों के मन-शोषण नहीं बल्कि तन-शोषण का भी जंगली अंधेरा है । कम से कम छत्तीसगढ़ के दर्पण में नक्सलवाद का तो यही विकृत चेहरा नज़र आता है।



नक्सली मानते हैं कि वे जनता के अधिकारों के पहरुए हैं और उन्हें शोषण से मुक्त करना ही उनका लक्ष्य है तो वे उसी शोषित जनता की हत्या की राजनीति क्यों चलाते हैं । यहाँ उनकी यह करतूत क्या उन्हें दक्षिणपंथी फासिज्म से नहीं जोड़ देती है? नक्सली जिस रास्ते पर चल रहे हैं उससे अंतत: लाभ होगा वॉर इंडस्ट्री को। खास कर उन्हें जो हथियारों की चोरी-छिपे भारत में अस्त्र-शस्त्र की आपूर्ति को निरंतर बनाये रखना चाहते हैं । इनकी घोर क्रांतिकारिता जैसी शब्दावली ही बकवास है। उसे मानवीय गरिमा की स्थापना की लड़ाई कहना नक्सलवाद का सबसे बड़ा झूठ है । अदृश्य किंतु सबसे बड़ा सत्य तो यही है कि वह सत्ता प्राप्ति का गैर प्रजातांत्रिक और तानाशाही (अ)वैचारिकी का हिंसक संघर्ष है ।



इसकी वैचारिकी के लिए नक्सली माओ की आड़ लेते हैं. सच्चाई तो यही है कि माओत्से तुंग अति राष्ट्रवादी थे। माओ ने लिन प्याओ को अपना उत्तराधिकारी बनाया। वह हमेशा राज्य के हित में और कौमी राज्य के हित में संलग्न रहता था । फिर ये नक्सली किन एजेंडों पर काम कर रहे हैं और किस तरह की नैशनलिज्म की राह पर चल रहे हैं, किसी से छुपा नहीं है अब । नक्सली या माओवादी यदि खून खराबा और हिंसा त्याग दें और बाकी मांगें रखें तो ज्यादा संभव है कि उनका यह संघर्ष समाज और देश के लिए बेहतर साबित हो । लेकिन खेद है कि यह उनका लक्ष्य कम से कम अब तो वह कतई नहीं रहा । यदि ऐसा होता तो वे भी समाज की, देश की अन्य बुराईयों और दासतावादी मानसिकता के विरूद्ध लड़ते । यदि ऐसा होता तो वे न्याय व्यवस्था में सुधार, न्यूनतम मजदूरी या वेतन, मादा भ्रूण हत्या, सांप्रदायिकता, धर्मांधता और अशिक्षा के विपरीत भी एकजूट होते । यदि ऐसा होता तो ये भ्रष्ट्राचार के विरूद्ध सबसे बड़ी लड़ाई लड़ते जो आज वनांचलों की ही नहीं समूचे भारत की सबसे बड़ी समस्य़ा है ।



दूसरी तरफ नक्सलवाद को लेकर सरकारें जिस तरह राजनैतिक रोटी सेंकती रही हैं वह आम जनता की समझ से बाहर कतई नहीं है । नौकरशाह यानी वास्तविक नीति नियंताओं के बीच जनता के कितने हितैषी हैं, ऐसे चेहरों को भी आज जनता पहचानती है । उन्हें समय पर सबक सिखाना भी जानती है पर नक्सलवाद का सबसे चिंताजनक तथ्य यह है कि उसके परिणाम में केवल गरीब, निर्दोष, आदिवासी और कमजोर व्यक्ति ही मारा जा रहा है ।



उधर नक्सलियों की जनजातियों के अतिरिक्त, पुलिस, न्याय व्यवस्था, जनप्रतिनिधियों और मीडिया में अच्छी पकड़ बन गई है। जब कभी पुलिस मुखबिर, दलाल आदि को गिरफ्तार करती है तो नक्सलियों के पे-रोल पर काम करने वाले सिविल सोसायटी, एनजीओ के सदस्य मानवाधिकार हनन की गुहार लगाकर अदालत को गुमराह करने में सफल हो जाते हैं। पिछले वर्ष 9 सितम्बर को एस.पी.ओ. लिंगाराम जब एस्सार और नक्सलियों के बीच बिचौलिये की भूमिका में धरा गया तो कई राज खुले। इस सत्य को स्वीकारने के बजाय नक्सलियों ने अपने कथित मानवाधिकार हनन के नेटवर्क के जरिये स्वामी अग्निवेश और प्रशांत भूषण से प्रेस कान्फ्रेंस कराकर प्रशासन को दागी बनाने का कुचक्र किया। हिमांशु ने बयान दिया कि लिंगाराम ने नोयडा स्थित इंटरनेशनल मीडिया इंस्टीट्यूट ऑफ इण्डिया में पढ़ाई की और उसकी संलिप्तता नहीं है। विगत एक दशक से छत्तीसगढ़ में रह रहा हिमांशु वनवासी चेतना आश्रम के बैनर तले नक्सलियों की मदद करता है। उसकी पैदल यात्रा का वनवासियों ने काफी विरोध भी किया था। पुलिस के मुताबिक, ऐसे कई लोग नक्सलियों के पे-रोल पर काम करते हैं। पी.यू.सी.एल. लंबे अर्से से मानवाधिकार की रक्षा के नाम पर वाम उग्रवादियों की मदद करता है।



बिहार, झारखंड और छत्तीसगढ़ में सक्रिय नक्सली संगठन भाकपा माओवादी द्वारा इन दिनों सैकड़ों की संख्या में 10 से 16 साल की उम्र के बच्चों को हथियार चलाने और बारूदी सुरंग बिछाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है.जिस उम्र में बच्चों के हाथों में क़लम और किताब होने चाहिए थे, इन बच्चों के हाथों में घातक हथियार हैं.झारखंड के लगभग हर ज़िले में नक्सलियों का ऐसा बाल दस्ता है, जिनमें 18-20 बच्चे शामिल हैं. कुछ इलाके में तो ऐसे बाल नक्सली दस्ते की संख्या दर्ज़नों में है.नक्सली दस्ते में शामिल अधिकांश बच्चे दलित, पिछड़े और आदिवासी वर्ग के हैं.



चतरा इलाके में सक्रिय सब ज़ोनल कमांडर आकाश कहते हैं- "अशिक्षा, ग़रीबी और शोषण की मार सहने वाले इन बच्चों को हम संगठन में शिक्षा देने का भी काम कर रहे हैं. आम तौर पर इन्हें हथियारबंद दस्ते में सक्रिय भूमिका नहीं दी जाती. लेकिन ज़रुरत के हिसाब से इन्हें हथियारों का प्रशिक्षण देना ही पड़ता है."आकाश का दावा है कि इन बच्चों को नक्सली संगठन में शामिल करके वो एक ऐसी क्रांतिकारी फ़ौज़ का निर्माण कर रहे हैं, जो आने वाले दिनों में शारीरिक और मानसिक रुप से हर ख़तरे का सामना कर पाने में सक्षम होगा.



नक्सलियों की इस तथाकथित लालक्रान्ति का एक जबरदस्त आर्थिक पहलू भी है. कुछ दिनों पहले तक मघ्यप्रदेश और राजस्थान के अलावा कहीं और अफीम की खेती करने के बारे में कोई सोच भी नहीं सकता था। किंतु अब उत्तरप्रदेश में भी इसकी खेती होने लगी है। हाल ही में इस श्रेणी में बिहार और झारखंड का नाम भी शामिल हो गया है। दरअसल बिहार और झारखंड के कुछ जिलों में गैरकानूनी तरीके से अफीम की खेती की जा रही है।



अफीम की खेती पठारों और पहाड़ों पर भी हो सकती है। अगर पठारों और पहाड़ों पर उपलब्ध मिट्टी की उर्वराशक्ति अच्छी होगी तो अफीम का उत्पादन भी वहाँ अच्छा होगा।इस तथ्य को बिहार और झारखंड में कार्यरत नक्सलियों ने बहुत बढ़िया से ताड़ा है। वर्तमान में बिहार के औरंगाबाद, नवादा, गया और जमुई में और झारखंड के चतरा तथा पलामू जिले में अफीम की खेती चोरी-छुपे तरीके से की जा रही है। इन जिलों को रेड जोन की संज्ञा दी गई है।ऐसा नहीं है कि सरकार इस सच्चाई से वाकिफ नहीं है। पुलिस और प्रशासन के ठीक नाक के नीचे निडरता से नक्सली किसानों के माघ्यम से इस कार्य को अंजाम दे रहे हैं।



आमतौर पर नक्सली किसानों को अफीम की खेती करने के लिए मजबूर करते हैं। कभी अंग्रेजों ने भी बिहार के ही चंपारण में किसानों को नील की खेती करने के लिए विवश किया था। उसी कहानी को इतिहास फिर से दोहरा रहा है।जब पुलिस अफीम के फसलों को अपने कब्जे में ले भी लेती है तो उनके सिकंजे में केवल किसान ही आते हैं। पुलिस की थर्ड डिग्री भी उनसे नक्सलियों का नाम उगलवा नहीं पाती है।एक किलोग्राम अफीम की कीमत भारतीय बाजार में डेढ़ लाख है और जब इस अफीम से हेरोईन बनाया जाता है तो उसी एक किलोग्राम की कीमत डेढ़ करोड़ हो जाता है।



उल्लेखनीय है कि प्रतिवर्ष इस रेड जोन से 70 करोड़ राजस्व की उगाही नक्सली कर रहे हैं। सूत्रों के मुताबिक सीपीआई, माओस्टि के अंतगर्त काम करने वाली बिहार-झारखंड स्पेशल एरिया कमेटी भी 300 करोड़ रुपयों राजस्व की उगाही प्रत्येक साल सिर्फ बिहार और झारखंड से कर रही है।छत्तीसगढ़ में बड़ी-बड़ी कंपनियों के नक्सली संगठनों से रिश्तों के उजागर होने के बाद अब पुनः सरकार और जनता को सलवा जुडूम की प्रासंगिकता याद आ रही है।



आपको याद होगा कि जून 2005 में छत्तीसगढ़ सरकार ने सलवा जुडूम की शक्ल में एक अभिनव प्रयोग किया था. इसमें नक्सलियों का मुकाबला करने के लिए आदिवासियों को ही तैयार करने की कार्ययोजना बनाई गई. आदिवासियों में ही विशेष पुलिस अधिकारी (SPO) बना दिए गए. उन्हें प्रशिक्षण और हथियार दिए गए. इसका कुछ असर भी दिखा. छत्तीसगढ़ में नक्सली गतिविधियाँ कम हुईं. लेकिन आरोप लगे कि ये SPO खुद आदिवासियों पर अत्याचार करने लगे हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं नें इस पर आपत्ति करते हुए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगाई. 2009 में सुप्रीम कोर्ट ने सलवा जुडूम पर रोक लगा दी. अभी नकसलियों का शिकार हुए महेन्द्र कर्मा सलवा जुडूम अभियान के कर्ता-धर्ता थे.



अवैध ढंग से धन देकर नक्सली बहुल क्षेत्रों में खनन और ऊर्जा कंपनियाँ भोले-भाले आदिवासियों और अन्य वर्गों का शोषण करती हैं। सर्वहारा वर्ग का कथित संरक्षण का दंभ भरने वाले नक्सली इनका दोहरा शोषण करते हैं। ऐश करने का माध्यम बनाकर नक्सली वीरप्पन शैली में खुशहाल जिंदगी जीते हैं। हिंसा का ताण्डव कर पुलिस व प्रशासन और जनप्रतिनिधियों को वहाँ जाने से रोकते हैं। अकूत वन संपदा का दोहन करने पहुँचे उद्योगपतियों से लाखों रूपये की वसूली के बदले वे उन्हें अवैध तरीके से करोड़ों रूपये का लाभ पहुँचाते हैं। सर्वहारा और पूंजीवाद के विकृत घालमेल से उत्पन्न विद्रूप तस्वीर अत्यंत भयावह है। कमीशनखोरी के कारण सरकार के प्रतिनिधि भी अति प्रसन्न हैं। विकास के नाम पर राशि में वृध्दि ही उनकी संपन्नता को बढ़ाता है। छत्तीसगढ़ सरकार की एस.आई.टी. द्वारा जारी रिपोर्ट के मुताबिक, दंडकारण्य कमेटी की वार्षिक आय पांच करोड़ है, जिसमें तीन करोड़ हर साल खर्च हो जाते हैं। दो करोड़ रूपये प्रतिवर्ष सेंट्रल कमेटी को भेजा जाता है। सलवा जुडूम की वजह से आय का स्त्रोत घटा है। सरकारी उत्सव से लेकर आयोजनों को विफल करने की नक्सली रणनीति अपने साम्राज्य के क्षेत्र को बढ़ाना और निरंकुश शासन व्यवस्था को कायम रखने का है।



उद्योगपतियों से अकूत धनराशि देने के एक मामले के भंडाफोड़ से सरकार और जनता सभी चकित हैं। जांच रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि एस्सार कम्पनी ने जान-बूझकर ठेकेदारों को अतिरिक्त भुगतान किया, जो नक्सलियों को देने के लिये थी। इसकी सीबीआई जांच की मांग उठने के साथ सियासी राजनीति गर्मा गई है। स्टील क्षेत्र में बड़े निवेश कर रही विवादास्पद कंपनी एस्सार की 267 किलोमीटर लंबी मेटल पाइपलाइन दंतेवाड़ा (छत्तीसगढ़) से आरंभ होकर मलकानगिरि (उड़ीसा) से गुजरते हुए विशाखापत्तनम (आंध्रप्रदेश) में समाप्त होती है।

एनएमडीसी के साथ अनुबंध के बाद एस्सार ने पाइपलाइन बिछाई जिससे प्रतिटन 550 रूपये की जगह अब उसे 80 रूपये व्यय करने पड़ते हैं। इस कार्य को पूरा करने में बाधक न बनने के लिये नक्सलियों को करोड़ों रूपये दिये गये। इन क्षेत्रों में धंधा करने के लिये यह आवश्यक हो गया है।पूर्व गृह सचिव जी.के. पिल्लई ने स्वीकार किया था कि अनेक उद्योगपतियों से ‘शांति’ के एवज में वाम उग्रवादी धन वसूलते हैं।



इस तस्वीर को देखने के बाद आप खुद सोचिए कि क्या इसे मुक्ति का संघर्ष कहा जा सकता है. नक्सली वनवासियों के नाम पर अपना कारोबार चला रहे हैं. वो वनवासियों तक कोई सरकारी मदद पहुचने नहीं देते . वनवासियों की दशा सुधर जायेगी तो इनका धंधा ही बन्द हो जायेगा. राजनीतिक दल इन आदिवासियों का इस्तेमाल अपने फायदे के लिए करते हैं. भ्रष्ट अफसरशाही खाज में कोढ़ का काम करती है. इन दो पाटों के बीच पिस रहा है वह आदिवासी समाज, जिसका हितैषी होने का दावा नक्सली भी करते हैं और सरकार भी.



तो क्या इन जंगलों में बसने वाले निर्दोष लोगों के जीवन में कभी सुबह आयेगी ? आयेगी तो कैसे आयेगी ? क्या ये कभी इस महान देश में अपने पूरे नागरिक अधिकारों और गौरव के साथ रह पायेंगे ? क्या इनके साथ होने वाला छल खत्म होगा ? नक्सलियों का यह जाल कैसे कटेगा, और सरकार  के भेड़ियों से कैसे बचेंगे ये निर्दोष वंचित लोग ? अभी इन सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं । ( जारी......आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है........)
                         ****************************************


आखिर इस मर्ज़ की दवा क्या है ! : नक्सलवाद-2



आदिवासी समाज को निकट से जानने वाले जानते हैं कि यह दुनिया का सबसे निर्दोष समाज है। ऐसे समाज की पीड़ा को देखकर भी न जाने कैसे हम चुप रह जाते हैं। पर यह तय मानिए कि इस बेहद अहिंसक, प्रकृतिपूजक समाज के खिलाफ चल रहा नक्सलवादी अभियान एक मानवताविरोधी अभियान भी है। हमें किसी भी रूप में इस सवाल पर किंतु-परंतु जैसे शब्दों के माध्यम से बाजीगरी दिखाने का प्रयास नहीं करना चाहिए। भारत की भूमि के वास्तविक पुत्र आदिवासी ही हैं, कोई विदेशी विचार उन्हें मिटाने में सफल नहीं हो सकता। उनके शांत जीवन में बंदूकों का खलल, बारूदों की गंध हटाने का यही सही समय है। बस्तर से आ रहे संदेश यह कह रहे हैं कि भारतीय लोकतंत्र यहां एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है, जहां हमारे आदिवासी बंधु उसका सबसे बड़ा शिकार हैं। उन्हें बचाना दरअसल दुनिया के सबसे खूबसूरत लोगों को बचाना है। लेकिन सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या हमारी सरकारों और राजनीति की प्राथमिकता में आदिवासी कहीं आते हैं। क्योंकि आदिवासियों की अस्मिता के इस ज्वलंत प्रश्न पर आदिवासियों को छोड़कर सब लोग बात कर रहे हैं, इस कोलाहल में आदिवासियों के मौन को पढ़ने का साहस क्या हमारे पास है ?



कुछ समय पहले, सर्वहारा की लडाई लडने का दावा करने वाले माओवादियों के संबंध में एक और सनसनीखेज खुलासा हुआ था। बंगलूरू पुलिस ने पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई व नक्सलियों के बीच सांठगांठ कर देश में आतंकी वारदात को अंजाम देने की साजिश के आरोप में दो लोगों को गिरफ्तार किया है। वैसे तो पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई द्वारा नक्सलियों को सभी प्रकार की सहायता करने संबंधी आरोप पहले से लग रहे थे। लेकिन इस मामले में बंगलुरु पुलिस द्वारा दो लोगों को गिरफ्तार किये जाने के बाद यह और पुख्ता हुआ है। AK-47 और बुलेटप्रूफ गाड़ियों को उड़ा सकने वाली लैण्डमाइन्स इनके पास कहाँ से आती है, क्या यह अंदाजा लगाना कठिन है !



माओवादी दावा करते हैं कि वे एक वैचारिक लडाई लड रहे हैं। उनके प्रवक्ता जब भी मूंह पर काली पट्टी पहने बंदूक के साथ किसी जंगल में किसी टेलीविजन चैनल के सामने बयान देता हैं तो वे इसी बात को कहता हैं। लेकिन वास्तव में ऐसा है क्या य़ह विचारणीय प्रश्न है। बंगलूरू की घटना के बाद स्थिति और स्पष्ट हुई है और नक्सलियों पर जो नकाब था, वह उतर रहा है।



माओवादी इस्लामी आतंकवादियों से मिले हुए हैं। इस्लामी आतंकवादियों से वे क्यों मिले हुए हैं? क्या इसका कोई वैचारिक आधार है? क्या इस्लामी आतंकियों का और सर्वहारा की लडाई लडने वालों का कोई समान वैचारिक धरातल है जिसके आधार पर दोनों एक दूसरे के साथ दे सकते हैं?



केवल इस्लामी आतंकवाद ही क्यों चर्च प्रेरित आंतकवाद का साथ भी नक्सली दे रहे हैं। इसका खुलासा आज से लगभग तीन साल पूर्व ही हो गया था। कंधमाल के वनवासी इलाके में चार दशकों से कार्य कर रहे हैं स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की जब जन्माष्टमी के दिन अत्यंत नृशंसता से हत्या कर दी गई थी। स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की हत्या केवल इस लिए की गई थी कि उन्होंने मतांतरण को इलाके में पूरी तरह रोक दिया था। उन्होंने इलाके में गौ हत्या बंद करवा दी थी। इस कारण मतांतरण के कार्य में लगे चर्च के निशाने पर वे थे। इस बात का खुलासा जिला प्रशासन के आला अधिकारियों ने मामले की जांच के लिए बनी न्यायिक कमिशन के सामने भी कहा है। लेकिन हत्या की जिम्मेदारी माओवादियों ने ली है। घटना के कुछ दिनों बाद माओवादी नेता सव्यसाची पंडा ने विभिन्न समाचार पत्रों को इस संबंध में साक्षात्कार दिया था। उसमें उसने यह दावा किया कि स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या माओवादियों ने की है। लक्ष्मणानंद सरस्वती की माओवादियों द्वारा क्यों हत्या की गई इसके बारे में इस साक्षात्कार में उसने कुछ अजीब तर्क प्रदान किये थे, जिसका यहां उल्लेख करना आवश्यक है। इससे चित्र और स्पष्ट हो सकता है। उसने इस साक्षात्कार में बताया कि स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती ईसाई बन चुके हिन्दुओं की घरवापसी करवा रहे थे। इसके अलावा स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती इलाके में गौ हत्या होने नहीं देते थे।



चर्च द्वारा जनजातीय लोगों के मतांतरण करवाने पर इस साक्षात्कार में सव्यसाची ने कोई टिप्पणी नहीं की और न ही किसी पत्रकार ने उससे यह प्रश्न पूछा। उसने एक बात और बतायी कि उसके कैडरों में अधिकतर ईसाई हैं। इस कारण उनका दबाव भी था। उधर इस मामले पर नजर रखने वाले कुछ लोगों का कहना है कि चर्च से भारी पैसे लेकर माओवादियों ने लक्ष्मणानंद की हत्या की है।



अब सव्यसाची के इस साक्षात्कार में कहे गये उत्तर का विश्लेषण करना होगा। सव्यसाची मूल रूप से मार्क्स के शिष्य है। मार्क्स ने कहा है कि चर्च, सर्वहारा की क्रांति में सबसे बडी बाधा है। लेकिन सव्यसाची एक ओर तो मार्क्स के अनुयायी होने तथा सर्वहारा की लडाई लडने का दावा कर रहे हैं वहीं दूसरी ओर मार्क्स के द्वारा बताये गये सर्वाहारा के दुश्मन चर्च की सहायता भी कर रहे हैं। क्या यह नक्सलियों का वैचारिक अंतर्विरोध नहीं है? क्या इससे यह स्पष्ट नहीं होता कि नक्सली कोई वैचारिक लडाई नहीं लड रहे हैं बल्कि सर्वहारा की लडाई लडने का पाखंड कर रहे हैं।



नक्सली इस्लामी आतंकवादी व चर्च का साथ क्यों दे रहे हैं? यह एक मुख्य प्रश्न है। इसका उत्तर शायद नक्सलवाडी आंदोलन को प्रारंभ करने वालों में से एक कानू सान्याल ने अपने मौत से पहले एक साक्षात्कार में दिया था। उन्होंने कहा था कि वर्तमान में नक्सलवाडी आंदोलन का जो नया संस्करण माओवाद है उसे मार्कसवादी नहीं कहा जा सकता। इसे अराजकतावादी कहा जा सकता है।

कानू सान्याल ने वर्तमान के माओवादी हिंसा के बारे में स्पष्ट किया है इस आंदोलन का मार्क्स के विचारों से कोई लेना देना नहीं है। माओवादी, अराजकतावादी हैं।



नक्सली आन्दोलन आज एक छल है । इस छल के शिकार होकर सैकड़ों हजारों असंतुष्ट युवा, बुद्धिजीवी और बेरोजगार इस आंदोलन में अपना जीवन व्यर्थ गवाँ चुके हैं । वे भारी भूल में थे जो यह समझते रहे कि वे मानवीय हित के लिए लड़ रहे हैं या वे समाज के लिए शहीद हो रहे हैं । न उनके आँगन का अंधेरा छंटा न ही गाँव-समाज-देश का । वास्तविकता तो यही है कि जाने कितने गरीब माँओं का आँचल सूना हो चुका है । सैकड़ों असमय वैधव्य झेल रही हैं। हजारों बच्चे आज सामाजिक विस्थापन झेल रहे हैं । एक ओर उन्हें हिंसावादी की संतान मान कर असामाजिक दृष्टि को झेलना पड़ रहा है दूसरी ओर वे असमय आसराविहीन हो रहे हैं । हाँ कभी-कभी उनके पिताओं के नाम पर बने किसी स्मृति पत्थर पर जरूर दो-चार जंगली फूल जरूर सजा दिये जाते हैं । वह भी इसलिए कि भावुक और आक्रोशित युवा नक्सलियों को शहीद होने का भ्रम बना रहे । यह सिर्फ ढोंग और नक्सलवाद की कुटिल चालें हैं, और कुछ नहीं । बस्तर और सरगुजा का भी युवजन नक्सलवाद के इसी ढोंग का शिकार हो चुका है ।





आजादी के साढ़े छह दशक बाद भी आदिवासियों की दशा सबसे बुरी है। विकास के नाम पर जल-जंगल-जमीन से बेदखल कर देने की पॉलिसी ने ही नक्सलवाद को मजबूत किया है। यदि आप गौर करेगें तो देखेंगे कि नक्सलवाद उन्हीं जगहों पर सबसे ज्यादा मजबूत है जहां विकास के नाम पर सरकार ने इन क्षेत्रों को कॉरपोरेट के हाथों में सौंप दिया है। जिन आदिवासियों ने जमीन के बदले मिलने वाले मामूली मुआवजे को लेने से इंकार किया उन्हें नक्सली समर्थक बताकर न सिर्फ जेलों में बंद कर दिया गया बल्कि उनके घर की इज्जत को भी तार-तार किया गया। इस पूरे परिदृष्य पर गौर किया जाए तो साफ है कि आदिवासी दो बंदूक के बीच फंसकर रह गए हैं। माओवादी उन्हें पुलिस का मुखबिर होने का शक करते हैं तो पुलिस उन्हें माओवादियों का समर्थक मानती है । माओवादियों का साथ देने के आरोपों का सामना कर रहे स्थानीय नौजवानों के सामने दो ही विकल्प रह जाते हैं, या तो वह वास्तव में बंदूक उठाकर उनका साथ दें अथवा गांव छोड़कर चले जाएं। जो इस बात की ओर इशारा है कि शासन धीरे-धीरे स्थानीय जन समर्थन खो सकता है।



पहले से ही उपेक्षा का शिकार आदिवासियों ने अपनी जमीन छिनते देख हथियार उठा लिया और नक्सल बनते चले गए। यहां उन्हें जन अदालत में भले ही जमीन वापस न मिली हो लेकिन इंसाफ जरूर मिला जो शायद भारतीय अदालत में मिलना मुश्किल था क्योंकि इसके लिए पहले पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करानी होती है जो पहले से ही उनपर सरकारी भाषा और लाठी का प्रयोग करती रही है। आदिवासी समाज उन सुविधाओं से भी वंचित है जो एक अति पिछड़े गांव में भी होती है। जल, जंगल और जमीन ही इनकी जीविका का मुख्य स्त्रोत है। जिसका उचित मुआवजा दिए छिनने का विरोध करने पर इनपर ज्यादतियां की जाती हैं। यदि आजादी के बाद केवल एक प्रतिशत ही इन क्षेत्रों पर ईमानदारी से खर्च किया जाता तो 65 सालों में इन क्षेत्रों में 65 प्रतिशत विकास हो गया होता।



ऐसी परिस्थितियों में आप कल्पना कर सकते हैं कि वहां के युवा आदिवासियों को किस प्रकार की कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है। कई नौजवान बिना किसी ठोस सबूत के वर्षों से जेल की सलाखों के पीछे जिंदगी गुजार रहे हैं। अकेले कांकेर जैसी छोटी जेलों में तीन सौ आदिवासी युवा बंद हैं। राज्य के ऐसे कई जेल इसी का उदाहरण प्रस्तुत कर रहे हैं। स्थानीय निवासियों के अनुसार राज्य के विभिन्न जेलों में हजारों युवा आदिवासी केवल इस आरोप में ठूंस दिए गए हैं कि उन्होंने कभी हथियारबंद दस्ता के किसी सदस्य को एक वक्त का खाना खिलाया था। जबकि वास्तविकता यह है कि आज भी आदिवासी घर आए मेहमान का पांव धोकर और माथे पर तिलक लगाकर उनका स्वागत करने की अपनी परंपरा का पालन करते हैं तथा बगैर भोजन कराए उन्हें जाने नहीं देते हैं। ऐसी परिस्थिति में जब कोई व्यक्ति उनके पास बंदूक लेकर आए तो क्या वह उन्हें किसी भी चीज के लिए मना कर सकते हैं? विशेष रूप से जबकि उन्हें इंकार करने का परिणाम मालूम है।







केवल सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो पिछले पांच वर्षों के दौरान नक्सली हिंसा में 3,000 हजार से भी ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं। जिसमें आम नागरिकों के अलावा सुरक्षा बलों की भी एक लंबी फेहरिस्त है। नक्सली हिंसा की सबसे अधिक घटनाएं इससे प्रभावित चार राज्यों छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा और बिहार में हुई है। इस दौरान माओवादियों ने छोटी बड़ी करीब 6,500 से अधिक घटनाओं को अंजाम दिया है। प्रभावित राज्यों के अतिरिक्त अन्य राज्यों में भी नक्सलियों के पांव पसारने की खुफिया रिपोर्ट के बाद सरकार को इससे निपटने के लिए नई रणनीति बनाने पर मजबूर कर दिया है।



नक्सलियों से निपटने के लिए सरकार द्वारा चलाये गये ऑपरेशन ग्रीन हंट से समस्या सुलझने की बजाए और पेचिदा ही हुई है। इस ऑपरेशन में नक्सलियों को जितना नुकसान नहीं पहुंचा उससे अधिक उनके जवाबी हमले में सरकार ने अपने सिपाही खोए हैं। आपको याद होगी दंतेवाड़ा की वह घटना जिसमें अब तक के सबसे बड़े नक्सली हमले में 73 से ज्यादा सुरक्षाकर्मी मारे गए थे। बस्तर से लगा दंतेवाड़ा नक्सलियों के लिए सबसे अधिक सुरक्षित क्षेत्र है। जो घने जंगलों के साथ साथ पड़ोसी राज्य महाराष्ट्र, उड़ीसा और आंध्रप्रदेश की सीमा से लगा हुआ है। नक्सली इस जंगल के चप्पे-चप्पे से वाकिफ हैं जबकि सरकार ने उनसे लोहा लेने वाले वैसे सुरक्षाकर्मियों को मोर्चे पर लगा रखा है जिन्हें क्षेत्र की विशेष जानकारी नहीं होती है। ऐसे में वह माओवादियों द्वारा किए गए अचानक हमलों या गुरिल्ला हमलों का जवाब देने के लिए तैयार नहीं हो पाते हैं। दूसरी ओर नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों के मांइस प्रोटेक्टिव व्हीकल (एमपीवी) पर हमला कर उसे क्षतिग्रस्त करने के बाद यह साफ जाहिर है कि माओवादियों को आंतकवादियों का समर्थन मिलने लगा है. क्योंकि इतने शक्तिशाली हथियार उन्हीं के पास है.



हमें सभी नक्सल प्रभावित को समवेत कर एक समन्वित अभियान चलाना ही होगा। इस ज्वाइंट आपरेशन के माध्यम से ही इस समस्या से लड़ा जा सकता है। पुलिस और सुरक्षाबलों का मनोबल बनाए रखने के लिए आला पुलिस अफसरों को भी मैदान में उतारने की जरूरत है जो अपने वातानुकूलित कमरों में आराम फरमा रहे हैं। उन्हें पुलिस मुख्यालय से निकाल कर बस्तर को अलग-अलग जोन में बांट कर उनका प्रभार देने और नियमित वाच की आवश्यक्ता है। वरना यूं ही साधारण जवान मौत के शिकार होते रहेंगें और हमारा राज्य बहादुरी से जंग जारी रखने के बयान देते रहेगा। माओवाद प्रभावित राज्यों की छत्तीसगढ़ से लगी 4000 वर्ग किलोमीटर की सीमा पर चौकसी बढ़ाने के साथ-साथ स्थानीय पुलिस बलों और केंद्रीय बलों में और बेहतर समन्वय की आवश्यक्ता है। साथ ही पुलिस बलों को यह भी प्रेरित करने की जरूरत है कि वे आम जनता के मित्र की तरह पेश आएं और जनता के बीच विश्वास बहाली का काम करें। क्योंकि जनसहयोग के बिना यह आपरेशन सफल नहीं हो सकता। पुलिस की छवि अगर अत्याचारी और बलात्कारी की होगी तो इससे नक्सलवाद को ही बढ़ावा मिलेगा।


विमलेन्दु द्विवेदी 

2 comments:

  1. इस सुगठित आलेख हेतु विमलेन्दु जी का हार्दिक आभार व्यक्त करना चाहूँगी... शब्दशः सहमति है आलेख से..एक तरफ भ्रष्ट राजनीतिक समूह और दूसरी ओर अनैतिकता की पराकाष्ठा को प्राप्त ये हिंसक आतंकवादी समूह, इन दोनों के बीच फंसा है भारतीय लोकतंत्र और स्वतंत्रता भी और फंसी है निरीह भोली भाली आदिवासी जनता भी .. एक और कुआँ तो दूसरी और खाई है..खाई (राज्यतंत्र) तो फिर भी यह पार कर ले, पर उस मारक अंधकूप से उसे बचने वाला कोई नहीं..
    बात चीत की स्थिति से बात बहुत आगे निकल चुकी है, जिस तरह से यह दानव सेना अपना विस्तार करती जा रही है, यदि भारत सरकार ने दृढ इच्छा शक्ति दिखाते हुए इनका दमन न किया तो वह दिन सचमुच दूर नहीं जब इनका आतंक साम्राज्य ठीक उसी विस्तार को प्राप्त होगा जैसा रावण का हुआ था ...

    ReplyDelete
  2. भाई विमलेन्दु द्ववेदी किसी भी विषय की जड़ तक जाकर सार्थक
    पड़ताल करते हैं, फिर उस विषय पर सटीक और सार्थक लिखते है
    यह आलेख,रपट इसी का परिणाम है
    उत्कृष्ट प्रस्तुति

    आग्रह है
    गुलमोहर------

    ReplyDelete

फेसबुक पर LIKE करें-