Thursday, March 09, 2017

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों है ?





"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम क्यों है ?"
 इस प्रश्न पर कुछ सम्मानित वरिष्ठ, युवा लेखिकाओं, महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं के विचार आज फरगुदिया पर पढ़िए !
आदरणीय  सरला महेश्वरी जी, सुधा दीदी, वंदना शर्मा दीदी, कविता वाचक्नवी दीदी, मीना दीदी, किरन दीदी, विजय पुष्पम दीदी, उषा राय जी ...
प्रिय आभा बोधि जी, नाइस हसन जी, प्रत्यक्षा जी, आराधना सिंह, डॉ विभावरी, चंद्रकांता  सहयोग के लिए आप सभी का बहुत आभार!!


  

राजनीति में महिलाओं की भागीदारी
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"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी का प्रश्न सीधे तौर पर नीति-निर्णायक निकायों में महिलाओं की भूमिका से जुड़ा हुआ है। इसमें महिलाओं की चिंताजनक स्थिति नीतियों को तय करने में उनकी भागीदारी की अनुपस्थिति का संकेत देती है । यह सत्ता में महिलाओं की भागीदारी से जुड़ा पहलू है ।
अन्तरराष्ट्रीय मंचों पर महिला प्रश्न पर चली आ रही बहस और आंदोलनों का अपना एक लम्बा इतिहास रहा है।
महिलाओं में राजनीतिक शक्ति न्यस्त हो, यह कोई सिर्फ भारतीय मामला

नहीं है।इसका विरोध करने वाले इसे सवर्णों के द्वारा सब कुछ हथिया लेने की एक साजिश कहते हैं । लेकिन वास्तविकता में यह लंबे काल से दुनिया के जनतांत्रिक प्रशासनिक निकायों की एक साझा चिंता का विषय रहा है।इस पूरे इतिहास से हम सभी परिचित हैं।
हमारे देश में भी महिलाओं के राजनीतिक सशक्तीकरण का प्रश्न अचानक ही नहीं उत्पन्न हुआ है।1974 में महिलाओं की स्थिति के संबंध में तैयार की गयी रिपोर्ट में एक पूरा अध्याय ही महिलाओं की राजनीतिक स्थिति के बारे में था। और इसमें विशेष तौर पर इस बात का उल्लेख किया गया था कि महिलाओं की ख़राब स्थिति के लिये उनकी आर्थिक और सामाजिक स्थिति के साथ ही उनकी राजनीतिक स्थिति भी ज़िम्मेदार है और इससे उबरने के लिये विधायक निकायों में आरक्षण के बारे में कहा गया था कि असमानता के वर्तमान ढ़ाचे को तोड़ने के लिये इस प्रकार का संक्रमणकालीन क़दम लिंग की समानता तथा जनतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सवाल की दृष्टि से कोई पश्चगामी क़दम नहीं होगा, बल्कि यह वर्तमान व्यवस्था की तुलना में कहीं ज़्यादा बेहतर ढ़ंग से समानता और जनतंत्र के दूरगामी लक्ष्यों की सेवा कर सकेगा।
1974 की स्टेटेस रिपोर्ट, 1988 की राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना की संस्तुतियाँ और फिर 1995 में राष्ट्रीय महिला कन्वेंशन के प्रस्ताव में विधानसभा और संसद में महिलाओं के लिये 33 प्रतिशत आरक्षण की माँग को इसी रूप में देखा जाना चाहिये।
लेकिन चिंता की बात है कि आज तक महिला आरक्षण बिल अधर में लटका हुआ है।कभी ओबीसी के नाम पर तो कभी महिलाओं की योग्यता का सवाल उठाकर, कभी इसे प्रोक्सी पोलिटिक्स, यानी वाइव्ज ब्रिगेड के ख़तरे के रूप में, तो कभी घर-परिवार के टूटने के नाम पर लटकाया जा रहा है।
हमारे पितृसतात्मक समाज में राजनीतिक पार्टियाँ भी पुरुष-प्रधान समाज के स्थापित मूल्यों को प्रतिबिम्बित करती हैं जिसे सामाजिक-आर्थिक ढ़ाचे में बिना कोई ढांचागत परिवर्तन किये बदलना मुश्किल है।
पूरे विश्व में विधायिकाओं में सिर्फ 10.5 प्रतिशत महिलाएँ हैं और मंत्री पद पर सिर्फ 6.1 प्रतिशत महिलाएँ हैं। हमारे देश की स्थिति तो हमारे पड़ौसी देशों से भी बदतर है।
इस बात को समझते हुए भी कि सिर्फ आरक्षण ही सारी समस्याओं का हल नहीं है, मैं इस बात को कहना चाहूँगी कि सामान्य तौर पर वंचित और उत्पीड़ित महिला समाज में जितनी भी राजनीतिक जागृति पैदा होगी, उससे पूरे समाज के जनतांत्रिक रूपान्तरण की प्रक्रिया को ही बल मिलेगा।"

--सरला माहेश्वरी
पूर्व सांसद,राज्य सभा
लेखिका, अनुवादक




"​भारत बहुलतावादी देश है। भारतीय समाज बहुरंगी है। यहाँ बहुत तरह की विचारधाराएं हैं , मत वैभिन्य हैं - वामपंथ है, दक्षिण पंथ है, मार्क्सवाद है, समाजवाद है लेकिन एक सत्ता ऐसी है जिसे लेकर बहुत छोटे से तबके को छोड़ कर सब एकजुट हो जाते हैं ! वह है - पितृसत्ता। पुरुष वर्चस्व और सामंती अवधारणा। समाज के हर क्षेत्र में पितृसत्ता की रुग्ण जड़ें इतनी गहरी धंसी हुई हैं कि उसपर कोई नए फूल, कोमल पत्ते अंकुर निकलने की गुंजाइश नहीं रह गई है ! फिर भी उन जड़ों को सींचने में देश का एक बड़ा तबका जुटा है ! ऐसी स्थिति में स्त्रियों की भागीदारी कहाँ तक हो पाएगी।
समाज के किसी भी क्षेत्र में किसी भी तबके की सहभागिता सुनिश्चित करने के लिए सामाजिक व्यवस्था में वह प्रावधान होना चाहिए जो उस तबके को सहभागी बनाने में मदद करे।
हमारे देश में स्त्रियों को लेकर एक दुविधा बनी रहती है कि इनको कितनी आजादी दी जाए, जो पितृसत्ता के खिलाफ न जाती हो। थोड़े बहुत बदलाव को छोड़कर निर्णय लेने का अधिकार आज भी पितृसत्ता के हाथों में महफूज है, जो बड़े करीने से अपना खेल कर रहा है और जिबह होने वाली महिलाएं जान भी नहीं पाती कि उनके पर कतरे जा चुके हैं। जो जान-समझ पाती हैं, उन पर करारा प्रहार होता है। जो असहमति में मुंह खोलती हैं, उन पर चरित्रहीनता का फतवा जारी कर दिया जाता है !
धार्मिक संहिताएं सदियों से स्त्री को नियंत्रण और पाबंदियों में रहने का आदेश देती हैं और आज भी उसी लीक पर देश का नियन्ता वर्ग चल रहा है ।


राजनीति में सहभागिता का पाठ समभाव के बिना पूरा नही हो सकता । हमारे देश में घर से लेकर, स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय, खेत-खलिहान और दफ्तरों तक में महिलाओं को कमतरी का अहसास कराया जाता है। स्त्रियों की सीमा रेखा आज भी घर परिवार की देहरी बना दी जाती है।
राजनीति में महिलाओं का प्रतिशत कम होना सिर्फ भारत की समस्या नहीं है ! पूरे विश्व में इसे देखा जा रहा है। पिछले दिनों अमेरिका में लेडी क्लिंटन अगर चुनाव जीत जातीं तो अमेरिका की पहली महिला प्रेसिडेंट होने का  इतिहास रचतीं।
राजनीति के लंबे इतिहास में महिला नेत्री उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। इंदिरा गांधी से लेकर सुचेता कृपलानी, भंडारनायक से लेकर मार्गरेट अल्वा तक अधिकांश ने सत्ता में जाकर भी महिलाओं की बेहतरी के लिए कोई बड़ा कदम नहीं उठाया। महिलाओं के हक़ में किसी भी बड़े फैसले को पारित होने में दशकों लग गए। कारण यह भी है कि उनकी आवाज़ सुनी ही नहीं गई, चाहे वह सुभाषिनी अली हों या वृंदा करात। परिवार के तहत आईं नेत्रियों ने सत्ता में ओहदा तो लिया पर पर्याप्त हस्तक्षेप नहीं किया। महिलाएं जब तक वर्ग, जाति और धर्म की फांस से बाहर नहीं निकलती तब तक राजनीति तो क्या घर में भी उनकी सहभागिता सार्थक और सम्मानजनक नही हो सकती है। धर्म का ध्वज वाहक बने रहने से पितृसत्ता ही मजबूत होती है। पितृसत्ता और स्त्री चेतना या स्त्री अस्मिता एक दूसरे के विलोम होते हैं।
पर यह भी बहुत बड़ा सच है कि राजनीतिक महत्वाकांक्षा की मारी महिलाऐं, देश के सामने कोई बड़ा आदर्श प्रस्तुत कर पाने में अक्षम रही हैं। सच तो यह है कि आजादी के इतने सालों बाद भी शुद्ध रूप से महिला अधिकारों के लिए पूरे देश की महिलाएं कभी एक मंच पर नही आ पाईं । ​​आरक्षण बिल लंबे अरसे से इस या उस कारण से पारित नहीं किया जा रहा है। ​
पर हाँ, ​इरोम शर्मीला का राजनीति में उतरना और ​युवा वर्ग का बेख़ौफ़ होकर अपनी बात कहना हममें एक उम्मीद जगाता है ! वह सुबह कभी तो आएगी ......"

--सुधा अरोड़ा
लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता





"इस मामले में एशियन देशों का हाल काफी बुरा है ! भारत में 'महिलाओं की राजनीति' में भागीदारी का प्रतिशत विश्व में 98 नम्बर पर है ! क्या ये आश्चर्य की बात नही कि युगांडा जैसा देश नम्बर एक पर है ? यह बात अलग है कि इंदिरा,सोनिया, जयललिता मायावती, ममता बनर्जी और महबूबा मुफ्ती आज के दौर की वे महिलाएं थीं या हैं जो अपनी अपनी पार्टी की प्रधान तक बनी ! बहुत सी महिलाएं है ऎसी जो राजनीति में अपनी छाप छोड़ गई पर आधी आबादी की हिसेदारी पर बात की जाए तो लगता है अब समय आ गया है कि जिस तरह से संविधान संशोधन द्वारा पंचायतों में हमारी हिस्सेदारी सुनिश्चित की गई उसी प्रकार हरेक दल को अब इस दिशा में विचार करना चाहिए कि देवगौड़ा सरकार द्वारा लाया गया महिला आरक्षण बिल लोक सभा में भी पारित किया जाए ! क्यों कि पुरुषों ने पॉलटिक्स को अपना ऐसा अखाड़ा बना डाला है जहां या तो स्त्रियाँ ऊँचे पदों तक आ नही पातीं या उनके खानदान की स्त्रियों के सिवाय ऊँचे पद पर किसी सामान्य स्त्री को टिकने ही नही दिया जाता अथवा उनके द्वारा 'नियुक्त' स्त्री मात्र स्टार प्रचारक मार्का शोपीस या कठपुतली बना कर रख दी जाती है ! अजब विरासत छाप राजनीति का दौर है यह !


जिस दिन भारतीय समाज की आखिरी स्त्री भी राष्ट्रीय राजनीति में अपना प्रतिनिधित्व,नितांत अपने दम पर कर पाएगी, उसी दिन इस मसले पर यह देश 98 के दयनीय पायदान से ऊपर कहीं आ पायेगा !
अब हाथ कंगन को आरसी क्या , हमारे उत्तर प्रदेश के विधान सभा चुनावों में महिलाओं की भागीदारी का आँकड़ा ही जरा देख लीजिए 17 वीं विधान् सभा की 403 में से 98 सीटें आधी आबादी को दी गई हैं मतलब 25 प्रतिशत से भी कम 😊 और इनमे भी इन दलों का हाल ये है कि अपनी अपनी बहुओं बेटियोंं में कितनी ही सीटें बाँट दी गई ! Bjp ने 370 में से सर्वाधिक 46 सीटें महिलाओं को दीं हैं , तो कॉंग्रेस की 105 सीटों में से मात्र 5 महिलाओं को मिलीं और सपा ने 299 में से सिर्फ 29 महिलाओं को टिकिट दिए हैं और बसपा जिसकी मुखिया एक महिला ही है वहाँ टिकिट बंटवारे में महिलाओं की सबसे बड़ी उपेक्षा की गई यहाँ हाल ये कि 400 सीटों पर सिर्फ 21 महिला प्रत्याशी हैं तो भाई ये तो सच्चाई है इस् सदी में भारतीय राजनैतिक परिपेक्ष्य में महिला हिस्सेदारी का !
इसलिए स्वाभाविक है हमारा ये लगना कि 20 साल की अपनी यात्रा में जो महिला आरक्षण बिल राज्यसभा से आगे नही जा पाया है उसे अब आगे बढ़ाया जाए क्यों कि अधिकार माँगने से मिल नही रहा है दोस्तों 😊 ये सोच पाना असम्भव न् हो तो कठिनतर अवश्य हो चला है कि कोई स्त्री नितांत अपने दम पर उठे टिके और बढ़ती चले और राष्ट्रीय राजनीति में भी ऊंचाइयों तक पहुँचे , बिना किसी बड़ी आर्थिक बैकग्राउंड के, बड़े घरानों या पारिवारिक पृष्ठभूमि के या अन्य प्रकार की बैसाखियों के और तमाम राजनैतिक दुश्चक्रों,कलंक कथाओं,उठा पटक, बाधाओं को पार करती हुई अपनी सामर्थ्य ,चाह और देश के प्रति अपनी अभिलाषाओं स्वप्नों को साकार कर सके ! क्यों कि राजनीति का सबसे बड़ा उद्देश्य देश समाज की सेवा ही तो है ! पर अफ़सोस प्रायः उनके ये उद्देश्य क्षरित होते हैं प्रधानी से लेकर मंत्री पद तक जाते जाते उनकी ये यात्रा कठपुतली से सत्ता तक की रह जाती हैं और "सत्ता कभी स्त्रीलिंग नहीं होती " 😊 प्रायः स्त्री होने का जरूरी दायित्व कहीं पीछे छूट ही जाता है इसलिए मैं उन महिलाओं के प्रति बेहद आदर सम्मान बल्कि श्रद्धा से भरी हूँ जिन्होंने दूर दराज के उपेक्षित इलाकों , स्त्रियों , दलितों और आदिवासियों के प्रति अपने सेवा संकल्प को किसी राजनैतिक दलदल में न् धंसने दिया , न् झुकने दिया , वे न् कठपुतली बनी और न् अपनी ही महत्वाकांक्षाओं की बलि चढ़ीं ! इसके विपरीत उन्हें अपने वे पवित्र ध्येय हमेशा स्मरण रहे जिनके कारण वे इस क्षेत्र में उतरीं थीं !

---वंदना शर्मा
कवयित्री




"राजनीति में महिलाओं की भागीदारी सामाजिक संरचना पर काफ़ी कुछ निर्भर करती है । मार्था नसबौम जैसा कहती हैं कि-स्त्रियों के राजनीतिक भागीदारी की क्षमता में एक महत्वपूर्ण अवरोध हिंसा का ख़तरा है ।
पित्रसत्तात्मक समाज अनेक तरीक़ों से स्त्रियों को दबाता कुचलता है । घरेलू हिंसा , यौन शोषण , साक्षरता दर का कम होना , इन सब कारणों ने भी स्त्रियों के आर्थिक और राजनीतिक अवसरों पर अपना प्रभाव डाला है ।

स्त्रियों की सामाजिक और राजनीतिक स्तरों में सक्रिय भागीदारी की क्षमताओं को कम किया है ।

स्त्री सशक्तिकरण  के पहल के बावजूद अब भी संसद में स्त्रियों की भागीदारी सिर्फ़ बारह प्रतिशत है । पंचायतों में भी स्त्रियाँ proxy नेता , मुखिया ही हैं । फिर भी नियमों का विसरण और व्यापन ही सामाजिक जड़ता को तोड़ने का काम करेगा । स्त्रियाँ जितनी आत्म निर्भर होंगी , जितना स्वाभिमान और साहस से भरीपूरी होंगी उतना ही सार्वजनिक स्पेस को क्लेम् करेंगी , राजनीतिक और सामाजिक दायरों पर अपना दावा पुख़्ता करेंगी |"

--प्रत्यक्षा सिन्हा
लेखिका 





"शिक्षा ,खेलकूद ,चिकित्सा ,इंफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी,फ़िल्में ,बैंकिंग ,व्यापार ,अंतरिक्ष , सेना और यहाँ तक की अंडर वर्ल्ड में भी महिलाएं पुरुष के कन्धे से कन्धा मिलाकर चल रही हैं ,यहाँ तक कि युद्ध रिपोर्टिंग जैसे साहस भरे कामो को अंजाम दे रही हैं और अपना आप मनवा रही हैं ।राजनीति जैसे क्षेत्र में उनकी आम दरफ्त कम क्यों है यह एक शोध का विषय हो सकता है ।सफाई कर्मी से लेकर देश के सर्वोच्च पद तक स्त्री ने पूरी निष्ठा और ज़िम्मेदारी से भागीदारी की है लेकिन फिर भी राजनीति में पूर्ण कालिक सक्रिय महिलाएं उंगलियों पर गिनी जा सकती हैं । देश की आधी आबादी के सक्षम होने के बावजूद राजनीति में उनकी भागीदारी दाल में नमक के बराबर ही है ।
राजनीति में महिलाओं की भागीदारी मात्र कागज़ों और बहसों तक सीमित रह जाती है ।महिला आरक्षण विधेयक आज तक लागू नही हो पाया ,नही तो जैसे अन्य क्षेत्रों में स्त्रियां अपनी सक्षम भागीदारी सुनिश्चित कर रही हैं वैसे ही राजनीति में भी कर पातीं।यदि कोई सीट महिला के लिए आरक्षित नही घोषित की गयी हो तो सामान्य सीट अमूमन किसी पुरुष उम्मीदवार को ही दी जाती है ।गांव पंचायत जैसे छोटे चुनावों में भी यदि महिला सीट है तो प्रधान महिला भी जनरल मीटिंग्स में नही जाती है या नही जाने दिया जाता है ।उसका पति ही या ससुर ही प्रधान कहा जाता है ।जबकि महिला प्रधान जहाँ कहीं थोडा दबंग होती हैं उस क्षेत्र का विकास अनुपात में कहीं

अधिक हुआ होता है ।
हकीकत यही है कि आधी आबादी अभी तक अपनी मूलभूत आवश्यकताएं ही नही पूरी कर पा रही है तो पूर्णकालिक राजनीति कैसे कर पायेगी ! ये अलग बात है कि इंदिरा गांधी जैसी महिला देश की प्रधानमंत्री रही लेकिन उसके पीछे उनकी सलाहियत कम और नेहरू परिवार से होने का आभामण्डल अधिक प्रभावी था ।ऐसे ही नज़्म हेपतुल्ला ,तारकेश्वरी सिन्हा ,मोहसिना किदवई ,या शीला दीक्षित भी अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि की वजह से आगे आ पायीं ।अन्य महिलाएं जो किसी प्रदेश में मंत्री या मुख्यमंत्री या किसी अच्छे पोर्टफोलियो में रहीं ,उनके पीछे भी परिवार या किसी न किसी समर्थ व्यक्तित्व का हाथ रहा ।

हालाँकि राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तर पर अच्छी खासी तादाद महिला प्रतिनिधिओ की है फिर भी ज़िम्मेदार पदों पर कुछ ही महिलाएं हैं ।साथ ही राजनीति में महिलाओं की सक्रिय भागीदारी न होने में ,इस क्षेत्र में बढ़ता प्रदूषण भी है ।यदि कोई दबंग लड़की या महिला यहाँ आना भी चाहती है तो परिवार वाले असुरक्षा और पीठ पीछे होती आलोचना और भद्दी बातों को देखते हुए जाने की अनुमति नही देते ।यदि विरोध करके किसी तरह आ भी जाये तो राजनीति के खुर्राट भेड़िये साबुत निगल लेने को तैयार बैठे मिलते हैं ।स्त्रियोचित संकोच ,आर्थिक पराधीनता ,चुनाव में होने वाले अंधाधुंध खर्चे भी यहाँ आने से पहले बार -बार सोचने को विवश करते हैं ।
समय की मांग यही है कि अधिकाधिक महिलाएं राजनीति में आएं और महिला विषयक कानूनों को पारित करने में अपना योगदान दें ,तभी आधी आबादी का दर्द कुछ कम होगा ।"

विजय पुष्पम्
सी 35 ,एच .ए.एल.टाउनशिप
फैज़ाबाद रोड 226016
(09415516679)




ऐसी मुश्किल में लगन और अलख की काम आएगा
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"प्रकृति प्रदत संरचना को विस्तार देने वाली स्त्री को ही पीछे ढकेलने की राजनीति दुखद है। सोचनीय और निंदनीय यह भी है कि संसार कितनी तेज गति से आगे बढ़ रहा है। लेकिन इस संसार में, इस समाज में स्त्री अभी भी पुरूष के साथ या बराबरी की जगह पाने के लिए भागती हुई , खीसटती हुई तड़प रही है। तरस रही है। इस तरह राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम होने का सबसे महत्वपूर्ण कारण “बंदिश” हैं। बंदिशों की साजिशें हैं। पित्रसत्ततात्मक समाज महिलाओं को अपनी मिल्कियत समझता आया है। और लाख हजार कोशिशों के बावजूद वह महिला को अपनी जरुरत की सामग्री समझता रहेगा। अफसोस की उसमें भी साथ देंगी रहेगी औंरतें!

पुरुष ने ऐसा जाल बुना, जहाँ औरत ही औरत का विरोध करने के षड्यंत्र में भागीदारी लेती रहेगी। समाज के बुरी नजरों की दुहाई देते हुए, उसे डरा –धमका कर पीछे ढकेलता रहेगा समाज। इसे समझने के लिए कहीं दूरी जाने और सोचने की जरुरत नहीं। अपने घर-परिवार, अड़ोस-पड़ोस से वाकिफ होना ही काफी है। जिस समाज में बेटियों को देर रात बाहर रहने के अंजाम से डराया जाता है, उस समाज में राजीनीति में भागीदारी बहुत दूर की कौड़ी है । और तो और पिता, भाई, पति अक्सर उन महिलाओं को लांक्षित करते पाए जाते हैं, जिन महिलाओं ने अपनी मेहनत और लगन से समाज में अपनी जगह बनाई हों। तो कुल मिला कर स्त्री कुछ करे तो लांक्षन,और न करे तो कुढ़ मगज।

स्त्री को हमेशा मर्यादा की दुहाई देकर बरगलाया गया। ताकि समय बीतता रहे और दुनिया से अंजान स्त्री चूल्हें-चौके तक समीति रह, पुरूष की सेवा में तल्लीन रहे। पुरुष, दरअसल स्त्री प्रतिद्वंदी से भय खा कर ऐसा करता है। उसे इस बात को इतना घोट कर पिला दिया जाता है कि वह यदि स्त्री से हार गया तो वह पुरूष कैसा ? मर्दानगी की दुहाई में पुरूष जितना आगे बढ़ने और बढ़ाने की कोशिश में मन नहीं लगाता, उतना वह फेल ने हो, या प्रतिद्वंदी स्त्री से पीछे न रह जाए..इस बात को ज्यादा तवज्जो देता है? ऐसे समीकरण वाले समाज में स्त्री को मर्यादा की दहाई देना पुरुष के लिए सबसे सरल रास्ता है। और मर्यादा के नाम पर बौराई स्त्री –एक अच्छी बेटी, एक अच्छी बहन, एक अच्छी पत्नी और अंत में एक अच्छी माँ बन कर अपने जीवन की संपूर्णता पर इतरा उठती है। वह स्त्री एक वास्विक संपूर्णता का अनुभव करती है। इसमें भी कोई दो राय नहीं। अपने जीवन और अपने कर्तव्य से फारीग ।

यानि की वस्तु(स्त्री) को तंत्र के संचालन योग्य कैसे समझा जा सकता है! यह पुरूष प्रधान समाज, अपनी षड्यंत्री तरकीबों को तब तक अमल में लाता रहेगा, जब तक स्वय स्त्रियाँ जागेंगी नहीं! मान मरजाद को धता बता कर, खुद के लिए बेकल हो कर घर से बाहर भागेंगी नहीं। भागने का अर्थ स्पष्ट करना जरुरी नहीं। वह सवाल में निहित व संकलित है खुद। ऐसी स्थिति में स्त्री के लगन और अलख ही काम आएँगे...."

--आभा बोधिसत्व
9820198233
apnaaghar@gmail.com

  




"आज आजादी के इतने वर्षों बाद भी भारतीय राजनीति में महिलाओं की भागीदारी बहुत कम है, इसका क्या कारण है ? ये सोचने का विषय है | आज देश में चारों ओर विकास  की बयार बह रही है | विकास  की इस बहती बयार ने भी महिलाओं को विशेष प्रभावित नहीं किया है | आज भी  आधी आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा अपनी मूलभूत सुविधाओं से दूर है | आवश्यकता है उन्हें विकास की मुख्य धारा से जोड़ने की, उनके लिए स्वस्थ माहौल मुहैया करवाने की ताकि वे  घरों से बाहर निकल कर समाज में अपनी उपस्थिति दर्ज करा सकें| पर दुर्भाग्य इस बात का है कि इसके लिए जमीनी स्तर पर कोई प्रयास नहीं हो रहें हैं | घर हो या बाहर, दफ्तर हो या राजनीतिक क्षेत्र हर स्थान पर उनका शोषण होता है और वह अपनी बात खुल कर किसी से कह नहीं पातीं |  उनके लिए हमारे पितृ सत्तात्मक समाज ने अनेकों लक्ष्मण रेखाएँ खींच रखी हैं, ढ़ेरों बंदिशे और बाधाएं खड़ी कर रखी हैं ताकि वो उन्हीं में उलझी रहें और उनके बाहरी क्षेत्र में दखल ना दे सकें जिससे पुरुषों का वर्चस्व बना रहे, और अगर कोई महिला इन तमाम बंदिशों और दायरों को पार कर बाहर निकल अपना आस्तित्व साबित करने का प्रयास करती भी है तो हमारे पुरुष वर्चास्व समाज में उन्हें  चरित्रहीन साबित करने की होड़ लग जाती है, ताकि उन लांछनों से

शर्मशार होकर वे  अपने बढ़ते हुए कदम वापस खींच लें | हालाकि कई महिलाओं ने पुरुषों द्वारा खींची गयी लक्ष्मण रेखा को पार कर समाज में अपनी उपस्थिति मजबूती से दर्ज कराई है पर इनकी गिनती बहुत कम है |  आज भी देश में महिलाओं के लिए समुचित शिक्षा व्यवस्था नहीं है | महिलाओं की साक्षरता दर बढ़ी है फिर भी वह पुरुषों की साक्षरता दर से कम है |
भारतीय परिवारों की तरह भारतीय राजनीति में भी पुरुषों का दबदबा रहा है और वही राज करते आये हैं बावजूद इसके इंदिरा गाँधी ने पन्द्रह वर्षों तक प्रधानमंत्री के पद पर आसीन रहीं |
आज जरूरत है देश की आधी आबादी को मुख्य धारा से जोड़ने की | जरूरत है उनके प्रति अपना नजरिया बदलने की | अगर इन्हें अवसर मिले तो वह बहुत कुछ कर सकती हैं | महिलाएं एक समय  में एक से अधिक विषयों पर सोच सकती हैं, एक साथ एक से अधिक कार्य कर सकती हैं जब कि पुरुष एक समय  में एक ही कार्य करता है वो भी तब, जब उसकी पत्नी उसको उसके कार्य क्षेत्र के लिए पूरी तरह तैयार कर के भेजती है |
कुल मिला कर महिलाओं के साथ बहुत भेदभाव किया जाता है | उसकी स्थिति में आज भी कोई बहुत विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है । हर स्थान पर पुरुषों का दबदबा है घर, दफ्तर हो या राजीनीति ! कहीं भी महिलाओं के लिए स्थितियां सामान्य नहीं हैं ।
 महिला आरक्षण बिल के अनुसार संसद और राज्य की विधान सभाओं में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण की व्यवस्था है परन्तु वास्तविकता इससे अलग है ।
और अंत में राजनितिक पार्टियाँ महिलाओं को एक बड़ा वोटबैंक तो मानती हैं पर प्रत्याशी के रूप में उन्हें टिकट देने से हिचकिचाती हैं । यही सब कारण हैं कि राजनीति में महिलाओं की भागीदारी कम है ।"

--मीना पाठक





"प्रथम तो राजनीति एक सार्वजनिक क्षेत्र है, और मध्ययुगीन परम्परा से सार्वजनिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी सीमित रही है। यद्यपि 20 के दशक के उत्तरार्द्ध में यह बढ़नी प्रारम्भ हुई किन्तु वह केवल कला और सौन्दर्य के क्षेत्र में, या स्पष्ट कह लें तो फिल्मों में और तत्पश्चात् सेवा और शिक्षा के क्षेत्र में अर्थात् नर्सिंग एवम् अध्यापन में।
दूसरा कारण यह कि राजनीति मुख्यतः अनीति की शरणस्थली रहती आई है, जहाँ अपराध और कपट को या तो संरक्षण और प्रश्रय मिलता आया है अथवा उस से संघर्ष और जय-पराजय। स्त्रियों की प्रकृति से यह सार्वजनिक समेकित द्वन्द्व मेल नहीं खाता।


तीसरे, समाज में कार्यों का विभाजन इस प्रकार का रहता आया है कि स्त्री परिवार और गृहस्थी की धुरी होती है, वह परिवार और सन्तान से सम्बन्धित दायित्वों से इतना अवकाश और छूट नहीं पाती कि वह निरपेक्ष भाव से ऐसे किसी अवसर /अध्यवसाय को समय दे सके।
चौथा, कई अर्थों में यह 'महिलाओं के लिए सुरक्षित नहीं' भी माना/कहा जा सकता है। जिन परिवारों की पद-प्रतिष्ठा और सुरक्षाकवच-सा स्त्रियों को मिला उन परिवारों की स्त्रियाँ मुख्यतः राजनीति में आईं भी।

पुरुषों के वर्चस्व वाले क्षेत्र में स्त्री का स्थान बनाना भी स्वयम् में चुनौती है। तभी तो संसद में आरक्षण का प्रस्ताव तक पुरुष वर्चस्ववादी दलों ने लाने नहीं दिया। राजनीति में अपराधीकरण कम हो तो धीरे-धीरे यह अनुपात बढ़ेगा, या स्त्रियाँ अपराध की अभ्यस्त हो जाएँ तब भी बढ़ेगा। स्त्री-वर्चस्व बढ़ने ओर्र राजनीति के मानवीय पक्ष की अपेक्षा तब की जा सकेगी।"

- कविता वाचक्नवी

लेखिका  





"मेरे ख़याल से सामान्यतः हमारा समाज स्त्रियों में राजनीतिक समझदारी के विकास के अवसर ही उपलब्ध नहीं होने देता. इसके बावजूद यदि किसी महिला का रुझान सक्रिय राजनीति में हो गया तो घोषित रूप से अतिरिक्त समय और श्रम की माँग करने वाले इस क्षेत्र में आने पर महिला के समाज द्वारा उसके लिए निर्धारित भूमिकाओं से समझौता एक अनिवार्य शर्त बन कर उभरता है, लिहाज़ा महिलाओं के राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय होने की

राह पुरुषों की तुलना में आसान नहीं रह जाती.

कह सकते हैं कि महिला के राजनीति में सक्रिय होने के लिए प्रबल इच्छा शक्ति के साथ-साथ धारा के विपरीत चल पाने का जज़्बा बेहद महत्त्वपूर्ण हो जाता है जिसके अभाव में अपनी सामाजिक, जैविक और पारंपरिक भूमिकाओं से बंधी महिलायें सामान्यतः इस क्षेत्र को प्रोफेशन के तौर पर नहीं अपना पातीं! एक ऐसे समाज में जहाँ टीचर, नर्स, डॉक्टर जैसे चंद प्रोफेशंस को महिलाओं के लिए मुफ़ीद माना जाता हो अगर कोई महिला राजनीति को अपना कार्यक्षेत्र बना भी ले तो ज़्यादातर मामलों में समाज उसे आत्मनिर्भर तरीके से काम कर पाने की सलाहियत नहीं दे पाता. देश की ग्राम पंचायतों में महिला आरक्षित सीटों पर निर्वाचित महिलाओं की जिम्मेदारियां और काम-काज का निर्वहन उस महिला के पिता, पति, भाई या बेटे द्वारा किया जाना बहुत आम है. इन हालात के बावजूद आज हमारे देश की विभिन्न राजनीतिक पार्टियों में कार्यरत जुझारू महिला नेताओं का होना इस बात का संकेत है कि यदि अवसर मिलें तो महिलायें बेहतर राजनीतिज्ञ साबित हो सकती हैं. महिलाओं की शख्सियत में इस आत्मविश्वास के विकास में निःसंदेह उनकी उच्च शिक्षा और आर्थिक आत्मनिर्भरता की अहम भूमिका है. "

--डॉ विभावरी




"मुख्यधारा कि तरह राजनीति में भी महिलाओं कि उपस्थिति मिसिंग है .पॉलिसी मेकिंग और डिसीजन मेकिंग राजनीति के दो प्रमुख बिंदु हैं लेकिन महिलाओं का सामाजिकरण या वैचारिक कंडिशनिंग इस तरह से होने ही नहीं दी जाती वे राजनीति में भागीदारी का सोचें.राजनीति में स्वप्रेरित महिलायें कम हैं जहाँ हैं वहां भी या तो परिवारवाद का प्रभाव है या उन पर राजनीतिक उम्मीदवारी थोप दी गयी है. यह एक बड़ा कारण है कि स्थानीय निकायों में एक तिहाई आरक्षण के बावजूद महिलाओं कि राजनितिक उपस्थिति प्रभावी नहीं हो पायी है.

यह बात किसी से छिपी नहीं है की महिलाओं में नेतृत्व के गुण कूट कूट कर भरे हैं फिर भी उस नेतृत्व का दायरा उसकी होममेकर की भूमिका तक सीमित कर दिया जाता है.बाकी राजनीति का अपराधीकरण जैसे जुमले केवल महिलाओं को डराने के लिए हैं . जब महिलायें एक अपराधी समाज का सामना कर सकती हैं तो राजनीति का क्यूँ नहीं ?
जागरूक महिलायें खुद को राजनितिक भागीदारी के लिए तैयार करें तो कोई ठोस परिवर्तन हो .और उनकी यह भागीदारी निश्चित ही विकृत हो चुकी वर्तमान राजनीति से इतर एक स्वस्थ राजनितिक परिवेश का निर्माण करेगी."

--चंद्रकांता
लेखिका, सामाजिक कार्यकर्ता




"हमारे घरों में लड़कियों को सहेली के घर जाने तक के लिए झूठ बोलना पड़ता है,फोन पर बात करने,घर पर आने-जाने के हर पल का हिसाब देना होता है।  खुल के बोली गई बातों पर घर के ही तिलमिलाए लोगों के फ्रस्ट्रेशन से जूझना होता है।  हमारी शक्तियां हमारी संवेदनशीलता की वज़ह से इन छोटी-छोटी व्यर्थ की लड़ाइयों में इतनी ख़र्च हो जाती है कि हमारी उड़ानों की ऊँचाई,उनकी परिधि नि:संदेह घटती जाती है।लंबी,ऊँची

उड़ान भरने की हमारी महत्वकांक्षा को हमारे चरित्र से यूं गूँथ दिया जाता है कि अपनी महत्वकांक्षाओं को हम ख़ुद किसी संगीन गुनाह की तरह देखने लगते हैं। राजनीति ही क्यूं खेती,सेना,ड्राइवरी,व्यापार बहुत सी जगहों पर आधी आबादी आधी तो दूर एक चौथाई उपस्थिति भी दर्ज़ नहीं कर पाती।  
सुषमा स्वराज,मायावती,स्मृति इरानी जैसी और कुछ महिलाओं को अपवाद स्वरूप छोड़ दिया जाए तो बाकी महिलाएं चाहे वह गाँव की प्रधान हों,विधायक,सांसद हों उनके सरपरस्त उनके पति या परिवार का कोई सदस्य होता है और राजनीति में होकर भी उनका कोई निर्णय नहीं होता। उनका राजनीतिक अस्तित्व केवल नाम का होकर रह जाता है।"

--आराधना सिंह
कवयित्री 





"हमें राजनीति में वैसे ही उतरना चाहिए जैसे इरोम शर्मिला उतरी हैं। सोलह वर्षो तक अनशन पर बैठी रही इरोम ने जब राजनीति में उतरने का फैसला लिया तब उनके परिवार के सदस्य भी इस निर्णय से खुश नहीं हुए। देवी की छवि में रुढ़ होती जा रही लौह महिला का सामान्य जन में घुल-मिल कर काम करने के प्रति मणिपुर की जनता का एक हिस्सा सहज नहीं हो पा रहा था। जब लौह महिला के राजनीति में आने आने का स्वागत और विरोध हो रहा है तो हम तो सामान्य स्त्रियाँ हैं। हमारी राजनीति की राह और कठिन होगी। लोकतंत्र के इस सबसे बड़े उत्सव में क्या हम निर्णय को प्रभावित कर सकने की भूमिका में हैं? उम्मीदवार के रूप टिकट देना तो दूर की बात है, चुनावी घोषणा पत्रों में स्त्रियों को आकर्षित करने वाली घोषणाएँ गायब रहती हैं।


पिछले चुनावों में एक महिला उम्मीदवार (अपनी समझ से योग्य उम्मीदवार) के पक्ष में घर-घर वोट माँगने के दौरान आमतौर पर यह बात सुनने को मिली-‘‘ये (पति) जहाँ कहते हैं, हम वहीं वोट दे देते हैं।’’स्त्रियों में राजीतिक चेतना का अभाव दिखाई दे रहा है। राजनीति हमारे जीवन को प्रभावित करती है। यह एक मुख्य वजह है कि हम समाज में निर्णायक भूमिका में नहीं उतर पा रही हैं। बहन जी’ हों या ‘दीदी’ ये भी जब सत्ता में आती हैं तो हमें भूल जाती हैं क्योंकि आधी आबादी ‘चुनाव जिताऊ फैक्टर’ नहीं है। जनसत्ता समाचार पत्र की 6 मार्च की रिपोर्ट के मुताबिक मणिपुर में दो चरणों में होने वाले चुनावों में कुल दस महिला उम्मीदवार हैं। उत्तर प्रदेश में 344, पंजाब में 81, उत्तराखंड में 56, और गोवा में 18 महिलाएँ मैदान में हैं। इसमें भी कई महिला उम्मीदवार ऐसी भी हैं, जैसे मड़ियाहूँ सीट से माफिया डान मुन्ना बजरंगी की पत्नी सीमा सिंह मैदान में हैं। उस पर भाई लोगों की टिप्पणी है-‘‘सब जानत हैं कि भइया जी लड़ रहे हैं। भाभी का नामे भर है।’’ पंचायत चुनावों में स्थिति बेहतर है। वहाँ महिलाएँ विजयी होकर बहुत काम कर रही हैं। भले एक नया शब्द ‘प्रधान-पति’ भी चलन में आया हो। राजनीति में महिलाओं के लिए आरक्षण होना चाहिए। महिलाओं को अपने विरुद्ध हो रही राजनीति को समझना होगा, जिसकी शुरुआत परिवार से होती है और जो राष्ट्रीय स्तर तक पसरी है।


...किरण सिंह

लेखिका
3/226, विश्वास खण्ड, गोमती नगर

फोनः 09415800397





"भारत में महिला राष्ट्रपति प्रधान मंत्री यहाँ तक कि राजनीतिक दल की अध्यक्ष बनती है लेकिन यह परेशान करने वाली बात है कि राजनीति में महिलाओं की कुल भागीदारी महज़ 10.86 प्रतिशत ही क्यों है ? पंद्रहवीं लोक सभा इसलिये महत्व रखती है कि इसमें महिलाओं का प्रतिशत पहली लोकसभा से लेकर चौदहवीं लोक सभा तक सबसे ज्यादा है । एक अनुमान

के मुताबिक यदि महिला आरक्षण बिल पास हो जाता तो 543 सदस्यों वाली लोक सभा में महिला सांसदों की संख्या 61से बढ़कर 181के करीब हो जाती । मेरा मानना है कि न सिर्फ़ भारत में बल्कि वैश्विक पटल पर भी राजनीति में महिलाओं की भागीदारी अत्यंत आवश्यक है ।आजादी के बाद हमने कई समस्याओं पर मिशन की तरह काम किया और लक्ष्य को प्राप्त किया ।अत : हमें इस दिशा में भी सोचना और काम करना चहिये ।"

---उषा राय
लेखिका




" सियासत में औरतों की मौजूदगी कम होना काबिले फ़िक्र है। 2014 में हम 188 मुल्कों मे 117 वां नंबर रखते थे पर 1 फरवरी 2016 तक के आंकलन के हिसाब से अब 191 देशों में हमारा नंबर 144 वां हो गया है।

हिंदुस्तानी समाज में औरतों की कोई आज़ाद आवाज़ अभी भी नहीँ बन पाई है। राजनीति में महिलाओं का आना किसी निश्चित प्रक्रिया के तहत नहीँ हो पा रहा है । कुछ नेताओं की पत्नियाँ बेटियाँ मजबूरी में आ गई कुछ को किसी नेता की मौत के बाद जगह मिली। कुछ गलैमर के कारण आई।
कुल मिलाकर वंशवाद और वोट पॉलिटिक्स को ही बढ़ावा मिला है। उनका हिस्सा लोकसभा और राज्य सभा में सुनिशचित होना बहुत ज़रूरी है। ऐसा समाज को अधिक मानवीय और बराबरी पर आधारित होने के लिए निहायत ज़रूरी है।"




 ------नाइस हसन
लेखिका, महिला अधिकार कार्यकर्ता






प्रस्तुति: किरन सिंह
            शोभा मिश्रा







1 comments:

  1. नवीन नही पर विचारणीय प्रश्न आज भी ।समय लगेगा लेकिन एक दिन ऐसा अवश्य होगा जब राजनीति में भी सक्रिय भागीदारी महिलाओं की होगी ।आशावान हूँ मैं !बढ़िया परिचर्चा के लिए बधाई प्रिय शोभा !

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