Tuesday, September 20, 2016

और भी ज़्यादा प्यारा लगने लगा है 'पिंक'... स्वाती



जन्म से ही लड़कियों को ऐसे संस्कार, परम्पराओं में गढ़ा जाता  है, जिसमें उन्हें कैसे चलना है, कैसे उठाना-बैठना है... कब, कहाँ, कैसे और कितना हँसना - बोलना है तथा  घर से बाहर आने-जाने का समय क्या हो ये सब निर्धारित किया जाता  है | इस गढ़न में कितनी घुटन है, कितना अपमान है, लड़कों से पीछे रखने का  एक सुनियोजित  षड़यंत्र है ... सब कुछ जानते-समझते हुए भी वे इन रुढ़िवादी सोच से अपने आपको कहाँ मुक्त कर पा रहीं हैं !!  हालाकि बड़े शहरों में शिक्षित, कामकाजी महिलाओं के लिए 'पिंक' जैसी महत्वपूर्ण फिल्म आशा की एक किरण जरुर साबित हो रही है | इस फिल्म पर हिंदी विभाग की शोधार्थी, लेखिका, कवयित्री स्वाती ने बेबाकी से अपनी राय रखी  है |

एक लम्बे अंतराल के बाद  फरगुदिया को इस महत्वपूर्ण लेख के माध्यम से अपडेट किया जा रहा है | स्वागत और बधाई स्वाती  ....

और भी ज़्यादा प्यारा लगने लगा है 'पिंक'...


 जब फिल्म थोड़ी देर से देखने जाओ तो फिल्म को लेकर बहुत सारे विचार सामने आ चुके होते हैं। मैं उन विचारों को लेकर फिल्म देखने जाना चाहती तो नहीं थी, पर वे थे मेरे साथ। पर फिल्म जब से शुरू हुई तब से आखिर तक सिर्फ एक कहानी थी मेरे सामने, जो सच्ची थी, जहाँ कितने ही संवादों को तो एक्स्पीरिएंस भी किया ही होगा बहुत सारी लड़कियों ने अपनी अपनी ज़िन्दगियों में, ऐसे में कहां गुंजाइश रहती है कि उसके अलावा और भी कुछ साथ-साथ चले... फिल्म तो अभी यह लिखते वक़्त भी मेरे साथ है.. फिल्म देखने तो मैं अकेले गयी थी, पर जब लौटी तो तीन दोस्तों (मीनल, फलक, और ऐंड्रियल) के साथ थी, जो लंबे समय तक मेरे कदमों की ठिठकन को तोड़ने का हौसला देती रहेंगी.. मैं नहीं जानती कोई फिल्म या कला का कोई रूप समाज को कितना बदल पाता है. मैं नहीं जानती कि शुजित सरकार की यह फिल्म 'पिंक' कितना कुछ बदल पाएगी... पर ये जानती हूँ और भरोसा भी करती हूँ कि सिनेमा या कोई भी कला रूप जीवन की बात करे तो सच्चा लगता है और मेरा यह भरोसा है कि कुछों को तो यकीनन बदलता भी है। बदलना मतलब किसी के होने को बदलना नहीं, किसी के सोचने को बदलना है। मेरे खुद के सोचने में बहुत सारे बदलाव आए हैं, आसपास की घटनाओं को देखने समझने के नज़रिए में बदलाव आया है और मैं बढ़ा चढ़ा के नहीं बोल रही पर इन बदलावों के पीछे साहित्य भी रहा और सिनेमा भी.. एक समय था जब मैं लड़की की मजबूती के पीछे के कई आयामों को स्वीकार नहीं कर पाती थी। शायद समझ नहीं पाती थी तब, इसीलिए परंपरा के नाम पर या फिर चले आ रहे अमानवीय व्यवहार के महिमामंडन में, उसके सेलिब्रेशन में मैं भी शामिल हुआ करती थी। आज समझ पाती हूँ, और उनपर सवाल करती हूँ। इस प्रक्रिया में ज़्यादातर अकेला पाती हूँ खुद को, कभी-कभी डर का ख्याल भी आता है पर फिर सोचती हूँ कि कैसे मान लूँ कि सड़कें मेरी नहीं हैं, कैसे मान लूँ कि रातें डरावनी होती हैं.. उन्होंने तो मुझे ये अहसास कभी नहीं दिलाया, फिर क्यों मैं अपनी आवाज़ को धीमी कर दूँ, क्यों न रात में बिना किसी डर के इन सड़कों पर खुल के गुनगुनाऊँ...
इतनी सारी बातें हो चुकी हैं फिल्म पर, हर कोई अपने नज़रिए से फिल्मों को देखता है, सीखता भी है... मुझे यह फिल्म ज़िन्दगी का हिस्सा लगी। लोग बेशक इसे अमिताभ की फिल्म कहें, पर मुझे यह फिल्म उन तीनों लड़कियों की वज़ह से अधिक सच्ची लगी जिनका जीवन, जिनकी समस्याएँ कुछ ऐसी थीं, जिनसे अमूमन हर लड़की जूझती है, कुछ उसे इग्नोर कर देती हैं, कुछ डर जाती हैं पर कुछ ऐसी भी होती हैं जो लड़ती हैं.. शुरुआत के कुछ हिस्सों, जहाँ अमिताभ के अभिनय में मुझे थोड़ा सा एक्सैगरेशन महसूस हुआ, को छोड़कर फिल्म का हर कलाकार, अपनी अदाकारी से अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराता है और फिल्म को सच के करीब रखने में कौंट्रीब्यूट करता है। चाहे वह दो सीन के लिए आया वह मकान-मालिक ही क्यों न हो। तमाम बदलाव के बावज़ूद मैं जानती हूँ कि लिब्रल कह देने भर से कोई लिब्रल नहीं हो जाता है। हम इस बात को गर मानेंगे तो शायद खुद को बेहतर इंसान बना पाएँगे... और यह बात सिर्फ लड़कों के लिए नहीं है हम लड़कियों के लिए भी उतनी ही सच है। हम सब एक ऐसे सेट-अप में बड़े हुए हैं जहाँ लड़कियों की 'वर्जिनिटी', 'चारित्रिक शुद्धता' कुछ ऐसे टर्म्स हैं जो हमें हमेशा डराते रहते हैं, और हम डर-डर के सँभल सँभल के जीना सीख जाते हैं। जो ये कहते हैं कि ऐसा नहीं होता उनसे मैं पूछना चाहूँगी क्या वाकई सड़कें और रातें उनके घर की लड़कियों के लिए भी उतनी ही अपनी हैं, जितना उनके घर के पुरुषों के लिए...? क्या आज भी उन्हें लड़कियों की उन्मुक्त हँसी डरा नहीं देती और फिर अपने डर को कम करने के लिए वे हमारे सामने शुचिता का एक बड़ा सा घेरा बना देते हैं जिसमें हम कई दफे फंस जाते हैं, डर जाते हैं क्योंकि हमें कभी ये बताया ही नहीं गया कि सामान्य भावों को नियंत्रित करने की कोई ज़रूरत नहीं है। हम कभी नहीं सिखाते अपनी लड़कियों को कि तुम्हारा जीवन तुम्हारा अपना है। हम तो हमेशा ही अपनी लड़कियों पर घर की इज़्ज़त का भारी भरकम बोझ डालते हैं जो हर वक़्त आपको अपने सामान्य मानवीय इच्छाओं को नियंत्रित करना सिखाता है.. आज जब लड़कियाँ पढ़ने, नौकरी करने दूसरे शहर जाती हैं, तब आप प्रत्यक्षत: तो नहीं होते वहाँ पर वो इज़्ज़त वाला बोझा वहाँ भी होता है जो हर वक़्त उन्हें नियंत्रित करता है, डराता है और उन्हें जीने नहीं देता एक स्वाभाविक सी ज़िन्दगी, जिसकी वो हक़दार हैं... उन्हें इतना सुनाया जाता है कि वह मान लेती हैं कि उनकी हँसी, उनकी उन्मुक्तता जो कि बेहद सहज़ है, वह उनके लिए खतरा है। ‘सिंगल वर्किंग वुमेन’ के तीनों ही शब्द इस समाज को बहुत परेशान कर देते हैं और वो लड़कियों के ‘सेल्फ’ को ‘इज्ज़त’ की उस खोखली पोटली से ढक देना चाहते हैं। फिल्म में एक जगह पर एक पुरुष के रूप में अमिताभ का लड़की के हुड को हटाना कहीं न कहीं उस पोटली को, सैकड़ों सालों की झिझक को हटाना है जिसने स्त्री को ढक रखा है।
‘पिंक’ नाम सुना तो बस एक रंग ज़ेहन में आया था, जो मुझे पसन्द भी है। हाँ मैंने ये नहीं सोचा कि क्यों पसंद है यह रंग मुझे, पर ये ज़रूर सोचती रही कि लड़के क्यों गुलाबी रंग से थोड़ा परहेज़ करते हैं जैसा कि शुजित ने अपने हाल के एक इंटरव्यू में कहा भी था.. पर फिल्म के पोस्टर में गुलाबी रंग के पीछे दो मज़बूत हाथ हैं.. हमें न गुलाबी रंग से परहेज़ है, न किसी कोमलता से, हमें परहेज़ है इन विशेषताओं की आड़ में या कहूँ कि कुछ रुमानी लालचों में हमें गूँगा बना दिए जाने से और यह फिल्म उस ऐतराज़ को ज़ाहिर करती है। हम इस बात से नाराज़ नहीं हो सकते कि यह फिल्म एक महिला ने क्यों नहीं बनाई या कि वकील के रूप में कोई महिला वहाँ क्यों नहीं, हालाँकि एक बार को यह ख्याल आया था मेरे मन में भी पर तुरंत मुझे याद आया कि हमारी लड़ाई पुरुष बनाम स्त्री की नहीं है। हमारी लड़ाई उस सोच से है, जो हमारी हँसी, हमारी उन्मुक्तता को अपने लिए आमंत्रण समझता है और इसलिए हमेशा हमें नियंत्रित करना चाहता है। दारू पीने की बात का वह दृश्य याद कीजिए और दो सेकण्ड ठहर कर ईमानदारी से खुद को टटोलिए.. कैसे आप परेशान हो जाते हैं जब आप सड़कों पर बेपरवाह चलती लड़की को देखते हैं.. सोचिएगा ज़रूर.. मैं भी सोच रही हूँ कि क्यों दूसरों की नज़रें मुझे एक पल को असहज़ कर देती हैं, हालाँकि फिर हिम्मत बटोर कर मैं खुद को सहज करने की कोशिश ज़रूर करती हूँ... हम और आप यदि सब सोचें अपने व्यवहारों को तो शायद कुछ बदले..
मनोरंजन के नाम पर कुछ भी परोस देने की होड़ में जहाँ हँसने हँसाने के लिए भी आपको स्त्री के शरीर को इस्तेमाल करने की ज़रूरत होती है, जहाँ इंटरटेनमेंट के लिए आप स्त्री को ऑब्जेक्टिफाइ करते हैं, कैमरे के ऐंगल से भी और भाषा के मामले में भी, वहाँ यह फिल्म अपने ढाई घंटे में वास्तविक समस्याओं को संज़ीदगी से पेश करती है। हो सकता है इस बात को और बेहतर तरीके से कहा जा सकता हो, कमियाँ हो सकती हैं, बेहतरी की गुंजाइश भी हो सकती है, पर क्या हमें इस प्रयास की सराहना नहीं करनी चाहिए जो स्त्री संबंधी बहस को शुचिता की बहस से बाहर ले जाता है, उसकी मर्जी, उसके ‘ना’ के मायने समझाता है, जिस ओर हमारे समाज और सिनेमा ने भी ध्यान नहीं दिया.. क्या इस फिल्म को इसलिए नहीं देखा और सराहा जाना चाहिए कि इसने मीनल, फलक और एंड्रिया जैसी आज की दुनिया की ज़िंदा लड़कियों से हमारी दोस्ती कराई..




वह सोच जो हमारे कपड़ों, हमारी उन्मुक्त हँसी को हमारे व्यक्तित्व का पैमाना बना देती है.. वह समाज जो हमारी अपनी आकांक्षाओं बेशक वह यौन इच्छाएँ ही क्यों न हो, पर बात करना ही नहीं चाहता .. चाहे भी कैसे जब शादी के भीतर बलात्कार की बात करने पर उस संवेदनशील मसले पर सोचने की ज़गह अजीब सी घिन भरी नज़र हम पर फेंक दी जाती हो, जहाँ बड़ी बेशर्मी से आपकी वर्जिनिटी पूछी जाती है, को मानवीय तो नहीं कहा जा सकता। सारे सवाल हमारी ओर ही रहेंगे क्योंकि वो जो इज़्ज़त का बड़ा सा बस्ता है न वो बांध दिया गया है हमारे सर से पर हमें उस बोझ से खुद को बाहर करना होगा, उन सवालों से लड़ने की हिम्मत पैदा करनी होगी खुद के भीतर... घूरती नज़रों और गालियों ने हमें बहुत डराया है आज तक, हमारे कदमों को लगातार पीछे किया है इस झूठे इज़्ज़त के बस्ते ने... कभी मज़ाक के नाम पर कभी चीख कर, और कभी प्यार जैसे खूबसूरत भाव का आसरा ले हमें हमसे ही दूर किया गया है, फिल्मों, गानों ने भी मदद ही की है इसमें... जब आप तालियाँ बजाते हैं न औरतों के ऑब्जेक्टिफिकेशन पर, ठीक उसी वक़्त खुद को टटोलिएगा... स्त्री के शरीर को मज़ाक और हँसी के नाम पर या फिर गाली देने के लिए जब यूज़ करते हैं न तब भी थोड़ा सा ठहरिएगा और सोचिएगा कि आप स्त्री-पुरुष की दोस्ती के लिए कितने तैयार हैं... आप गर इतना कुछ सोच सकेंगे न तो उस पितृसत्ता को वाक़ई चुनौती देंगे। हमने तो चुनौती देना शुरू कर दिया है, आपकी घूरती नज़रें, आपकी गालियाँ और हर वह सोच जिनके सामने हम सहम कर, शर्मिंदा होकर आँखें झुका लेती थीं और रास्ते बदल लिया करती थीं, वही आज ठिठकते कदमों को आगे करने की ज़रूरत का अहसास कराती हैं... चुनौती देना शुरू कीजिएगा उस सोच को, जो स्त्री की आज़ादी से डरती है, मालिकाना हक़ से नहीं दोस्ताना रवैये से स्त्री को जानने की कोशिश करिएगा, आप यकीन मानिए यह आपके होने को कतई कम नहीं करेगा, आपको और बेहतर ही बनाएगा और हाँ ‘पिंक’ रंग आपको भी प्यारा लगने लगेगा...

-- स्वाती

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