Tuesday, December 16, 2014

ऐसे असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें -डॉ कविता वाचक्नवी





 "भारतीय स्टेट बैंक की त्रैमासिक पत्रिका हेतु बैंक की राजभाषा अधिकारी अर्पिता शर्मा द्वारा 28 मार्च 2014 को लिए गए साक्षात्कार में उन्होंने 16 दिसंबर ( दामिनी, निर्भया प्रकरण ) की घटना के सन्दर्भ में महिलाओं-लड़कियों के प्रति समाज के नजरिये पर सार्थक प्रतिक्रिया दी है ! आदरणीय लेखिका का बहुत आभार अपने सार्थक विचारों को फरगुदिया पाठकों से साझा करने के लिए !

हाल ही में साहित्यकार डॉ कविता वाचक्नवी  को  विदेश में हिंदी के प्रचार-प्रसार हेतु समर्पित तथा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "हिंदी विदेश प्रसार सम्मान" (2013 ) तथा  इंडियन हाईकमीशन,ब्रिटेन द्वारा समग्र एवं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अवदान हेतु हरिवंश राय बच्चन के शताब्दी वर्ष पर स्थापित "हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार" (2014) से सम्मानित किया गया ! "







 

अर्पिता शर्मा - सबसे पहला प्रश्न सिर्फ एक महिला से, ( न माँ, न बेटी, न पत्नी, न साहित्यकार, सिर्फ एक महिला), कैसा महसूस होता है महिला होकर। क्या कोई पछतावा है?



कविता वाचक्नवी – महिला होने के अपने सुख दु:ख हैं । कुछ इतने भीषण दु:ख कि उनका उल्लेख भी संसार से नहीं किया जा सकता। इसलिए नहीं कि छिपाना है, बल्कि इसलिए कि संसार के पास उस संवेदनशीलता का अभाव है कि वह उन दुखों के मर्म तक पहुँच सके।


कुछ ऐसे सुख भी हैं जो बहुत बड़े हैं.... !

परन्तु कई बार मुझे लगता है कि पुरुष होने के भी अपने सुख-दु:ख हैं। मनुष्य-मात्र और प्राणिमात्र के अपने दु:ख हैं । अतः जब सुख दु:ख सभी के साथ हैं तो फिर अपने ही दु:खों पर पछताना-रोना कैसा ?

अर्पिता : स्त्री होने के ?




कविता वाचक्नवी : जिन्हें हम स्त्री होने के दु:ख समझते हैं, वस्तुतः वे स्त्री होने के दु:ख न होकर समाज की स्त्रियों के प्रति दृष्टि और व्यवहार के दु:ख हैं, समाज की स्त्री के प्रति सोच और बर्ताव के दु:ख हैं । इसलिए मुझे अपने स्त्री होने पर कोई पछतावा नहीं अपितु समाज के निर्मम और क्रूर होने पर क्षोभ है।




अर्पिता : तो स्त्री होना कैसा अनुभव लगता है ?




कविता वाचक्नवी : ऐसे हजारों क्षण क्या, हजारों घंटे व हजारों अवसर हैं, जब मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व हुआ है। जब-जब मैंने पुरुष द्वारा स्त्री के प्रति बरती गई बर्बरता व दूसरों के प्रति फूहड़ता, असभ्यता, अशालीनता, अभद्रता, लोलुपता, भाषिकपतन, सार्वजनिक व्यभिचार के दृश्य, मूर्खतापूर्ण अहं, नशे में गंदगी पर गिरे हुए दृश्य और गलत निर्णयों के लट्ठमार हठ आदि को देखा-सुना-समझा​-​झेला, तब-तब गर्व हुआ कि आह, स्त्री-रूप में मेरा जन्म लेना कितना सुखद है।

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रही इसके विपरीत अनुभव की बात, तो गर्व का विपरीत तो लज्जा ही होती है। आप इसे मेरा मनोबल समझ सकती हैं कि मुझे अपने स्त्री होने पर कभी लज्जा नहीं आई। बहुधा भीड़ में या सार्वजनिक स्थलों आदि पर बचपन से लेकर प्रौढ़ होने तक भारतीय परिवेश में महिलाओं को जाने कैसी-कैसी स्थितियों से गुजरना पड़ता है, मैं कोई अपवाद नहीं हूँ; किन्तु ऐसे प्रत्येक भयावह अनुभव के समय भी /बावजूद मुझे अपने स्त्री होने के चलते लज्जा कभी नहीं आई या कमतरी का अनुभव नहीं हुआ, सिवाय इस भावना के कि कई बार यह अवश्य लगा कि अमुक-अमुक मौके पर, मैं स्त्री न होती तो, धुन देती अलाने-फलाने को।



यदि मेरा अगला जन्म मनुष्य के रूप में ही होता है, तो निस्संदेह मैं स्त्री होना ही चुनूँगी / चाहूँगी। कामना है यह संसार तब तक कुछ अधिक सुसभ्य व मानवीय हो चुका हो।






अर्पिता शर्मा - आज के दिन में महिलाओं को किस स्थिति में पाती हैं, विशेषकर भारत में महिलाओं को, सामाजिक, आर्थिक परिप्रेक्ष्य में ?




कविता वाचक्नवी – महिलाओं की स्थिति में यद्यपि दृश्यरूप में कुछ सुधार हुआ है। स्वतन्त्रता आंदोलन के काल या उससे पूर्व के साथ तुलना करें तो कई अर्थों में सुधार हुआ है, बालविवाह, सतीप्रथा आदि अब लुके-छिपे घटते हैं या न के बराबर हैं, स्त्रीशिक्षा का प्रचलन बढ़ा है, पर्दा काफी कम हुआ है, स्त्रियाँ लगभग प्रत्येक क्षेत्र में आगे बढ़ी हैं। वे अपनी बात कह सकती हैं, जो स्त्री 'विवाह के कारण सार्वजनिक जीवन से निर्वासित' (महादेवी वर्मा के शब्द) जैसी हो जाती है, सोशल नेटवर्किंग ने उस स्त्री को भी घर बैठे ही समाज से जुडने का अवसर दे दिया है, नगर की स्त्री के जीवन में परिवर्तन अधिक हुए हैं। आश्चर्य यह है कि इन सामाजिक परिवर्तनों और सुधारों के चलते भी समाज का रवैया स्त्रियों के प्रति बहुत नहीं सुधरा, अधिक भयावह ही हुआ है। इन सब सुधारों का प्रतिशत भी बहुत कम है, उन भयावहताओं की तुलना में जिन्होंने स्त्री को घेर लिया है। पितृसत्तात्मक ढाँचा कमजोर नहीं हुआ। बस उसके रूप बदल गए हैं। बलात्कार, भ्रूण-हत्याएँ, छेड़छाड़ और जाने क्या-क्या ! अब तो स्त्री अपनी माँ के गर्भ तक में सुरक्षित नहीं है, जो प्राणिमात्र के लिए संसार का सबसे सुरक्षित स्थान होता है। पितृसत्ता के हाथ माँ के गर्भ तक से उसे खींच बाहर निकाल ला मारते हैं। ऐसे समाज को आप व हम कैसे मानवीय व उदार कह-मान सकते हैं ? भ्रूण की हत्या इसलिए नहीं होतीं कि लड़कियाँ नापसंद हैं, अपितु इसलिए होती हैं क्योंकि यह समाज लड़कियों के लिए मानवीय नहीं है। उस अमानवीयता से बचने / बचाने के लिए उन्हें धरती पर साँस लेने से पहले ही समाप्त कर दिया जाता है। ऐसे भारतीय समाज को कैसे मैं मान लूँ कि स्त्रियों के लिए बेहतर हुआ है ? बलात्कारों का अनुपात और बलात्कार से जुड़ी भयावहताएँ इतनी कारुणिक हैं कि वे सुधार के सब आँकड़ों को अंगूठा दिखाती हैं।




अर्पिता : और आर्थिक सुधारों व स्त्री की आर्थिक निर्भरता ?




कविता वाचक्नवी : रही आर्थिक स्थिति की बात, तो महिलाओं की आर्थिक स्थिति/ निर्भरता में सुधार यद्यपि हुआ है और वह इन मायनों में कि स्त्रियाँ अब कमाने लगी हैं, किन्तु इस से उनकी अपनी आर्थिक स्थिति सुधरने का प्रतिशत बहुत कम है क्योंकि वे जो कमाती हैं उस पर उनके अधिकार का प्रतिशत बहुत न्यून है। वे अपने घरों/परिवारों के लिए कमाती हैं और जिन परिवारों का वे अंग होती हैं, उन घरों का स्वामित्व व अधिकार उनके हाथ में लगभग न के बराबर है। समाज में जब तक स्त्री को कर्तव्यों का हिस्सा और पुरुष को अधिकार का हिस्सा मान बँट​वारे की मानसिकता बनी रहेगी,​ तब तक यह विभाजन बना रहेगा। स्त्री के भी परिवार में समान अधिकार व समान कर्तव्य हों, यह निर्धारित किए/अपनाए बिना कोई भी समाज, अर्थोपार्जन में स्त्री की सक्षमता-मात्र से उसके प्रति अपनी संकीर्णता नहीं त्याग सकता। स्त्री की शारीरिक बनावट में आक्रामकशक्ति पुरुष की तुलना में न के बराबर होना, उसे अशक्त मानने का कारण बन जाता है। तीसरी बात यह, कि महिलाओं की पारिवारिक, सामाजिक निर्णयों में भूमिका हमारे पारम्परिक परिवारों में नहीं होती है और यदि शिक्षित स्त्रियाँ अपनी वैचारिक सहमति असहमति व्यक्त करती भी हैं तो इसे हस्तक्षेप के रूप में समाज ग्रहण करता है, जिसकी समाजस्वीकार्यता न के बराबर है। अतः महिलाओं के सशक्तीकरण के लिए मात्र उनकी आर्थिक सक्षमता ही पर्याप्त नहीं है, अपितु अन्य भी कई कारक हैं।




अर्पिता शर्मा – फिर थोड़ा लौटते हैं; महिला होने की क्या चुनौतियाँ​, उपलब्धियाँ​ रही हैं, या भविष्य में किन-किन की संभावना / आशंका देखती हैं ?


कविता वाचक्नवी – सामाजिक, शैक्षिक या पारिवारिक जीवन में महिला होने के नाते सदा ही असंख्य भीषण चुनौतियाँ रहीं। संयुक्त परिवार में पलते हुए, कुलीन उच्चकुल की बेटी होने के कारण​ एक ऐसा समय भी था जब हमें चारदीवारी के भीतर रहने की कड़ी हिदायतें थीं। आवश्यकता के समय बाहर जाने पर अकेले जाना हमारे कार्यों व हमें संदिग्ध बनाने को पर्याप्त था। किसी का साथ होना अनिवार्य होता था; भले ही डेढ़, दो, चार वर्ष के चचेरे भाई की उंगली पकड़ कर उसे साथ लिया जाए। मैं बरसों तक अपनी एक अध्यापिका के घर उनसे मिलने जाते समय हाई स्कूल के बाद अपने चलना सीखे चचेरे भाई को साथ ले कर जाती रही। लड़कियों के साथ ही खेली। यह उल्लेख अनिवार्य है कि मेरे पिताजी ने यह भेदभाव कदापि नहीं किया। जब-जब मैं उनके साथ रही, तब-तब उन्होने सहशिक्षा वाले विद्यालयों में पढ़ाया, लड़कों के साथ खूब खेलने भेजा, उनसे कुश्ती तक करवाया करते थे, आर्यसमाज के मंचों पर ले जाते थे, वक्तृता, अध्ययन, लेखन, सामाजिक कुरीतियों व गलत का जी-जान से खुला विरोध आदि करने का कौशल उन्होने ही विकसित किया, किन्तु पिताजी के स्थानांतरण की स्थिति में जैसे ही कक्षा 8वीं के बाद संयुक्त परिवार में आई, तैसे ही रहन-रहन बिलकुल उलटा हो गया। इसीलिए मैं आवश्यकता से अधिक दुस्साहसी बनी क्योंकि पिताजी के स्वतन्त्रचेता होने के संस्कार भीतर थे, उन्हीं का अभ्यास भी था, किन्तु जब उन से अलग वातावरण में रहना पड़ा तो मस्तिष्क और मन को यह स्वीकार्य नहीं हुआ। माँ-पिताजी के यहाँ दूध-दही आदि सब श्रेष्ठ वस्तुओं पर पहला अधिकार मेरा रहता था और संयुक्त परिवार में मक्खन आदि केवल घर के कमाऊ पुत्रों को मिलता था, जबकि घर में गाय थीं और घर में बिलोया जाता था, कोई किसी प्रकार की कमी न थी। ये तो वे अनुभव हैं जो इतने सामान्य हैं कि इन्होंने मन पर कोई खरोंच तक नहीं छोड़ी, किन्तु कुछ दृश्य, अवसर और संस्मरण बड़े कसैले हैं ..... हजारों अनुभव हैं, उन्हें स्मरण तक करने की इच्छा नहीं है क्योंकि उनकी पीड़ा सहन करने का सामर्थ्य आज भी नहीं है, उनके विवरण देने का औचित्य भी नहीं, वे सारे क्लेद हृदय की अतल गहराइयों में हैं, टीसते हैं, रुलाते और तड़पाते हैं, उन्हें कभी किसी कागज पर लिखा-कहा नहीं जाएगा, नहीं जा सकता, आवश्यकता भी नहीं। कह-लिख दूँगी तो शायद चुक जाऊँगी, क्योंकि वे ही तो आग भरते हैं स्त्रियों के लिए लड़ने की।

अर्पिता : और विवाह के बाद ?

कविता वाचक्नवी : विवाह जब हुआ उस समय जो कुछ पढ़ रही थी, वह पढ़ाई बीच ही में छोड़ देनी पड़ी। उस समय (लगभग तीस बरस पहले)​ संस्कृत लेक्चररशिप / नियुक्ति लगभग पुष्ट​ (क​न्फ़र्म​) हो चुकी थी किन्तु सब कुछ को तुरन्त अलविदा कहना पड़ा। पर किसी ने दबाव नहीं डाला; यह तो स्वेच्छा से ही तय की गई वरीयता थी। मेरी सन्तान को मेरी आवश्यकता थी। कई ​बरस बाद​ अपने से भी छोटी आयु की लड़कियों / लोगों को प्रोफेसर या रीडर होने के दम्भ में इतराते देखती तो कभी-कभी वे दिन याद आते कि यदि वह न होता तो क्या होता। वर्ष ​ 82’ की छोड़ी पढ़ाई वर्ष 98’ के अन्त में पुनः शुरू की और परिवार चलाते हुए गृहस्थी के साथ ​हिन्दी में एम ए किया, एम फिल (स्वर्णपदक) किया और पीएच डी की। जो कुछ पुस्तक-लेखन, अध्ययन, प्रकाशन, सम्पादन, अध्यापन, संगोष्ठियाँ या उपलब्धियाँ मेरे बायोडेटा या खाते में दर्ज़ हैं वे सब 1998 के बाद की हैं। तो जीवन के लगभग 16 वर्ष केवल गृहिणी, माँ व पत्नी हो कर रही। इन सोलह वर्ष में कुछ न करने का मलाल भी होता है किन्तु स्वयं पर गर्व भी कि अपने बूते, बिना किसी के कन्धों का सहारा लिए, बिना किसी रिश्तेदार, सम्बन्धी के हाथ पकड़ कर आगे बढ़ाए, बिना रत्तीभर भी समझौता किए, बिना किसी गॉडफादर के, बिना महत्वाकांक्षाओं या उनकी पूर्ति के लिए रत्तीभर भी समझौते किए, अपनी शर्तों पर, अपने बूते, कर्तव्य अकर्तव्य के पिताजी के दिए विवेक के बूते यहाँ पहुँची हूँ, जहाँ आज हूँ।



अर्पिता : आज तो आपके मायके व ससुराल को आप पर गर्व होता होगा... इतनी योग्यता व उपलब्धियाँ आपके नाम हैं !


कविता वाचक्नवी : मैं जिस संयुक्त परिवार से हूँ, वहाँ बेटियाँ नहीं होतीं, पिताजी सात भाई और दो बहन। इन सात भाइयों के घर केवल तीन बेटियाँ, बुआओं के सात पुत्र। तब भी बेटी होने का कोई विशेषाधिकार किसी के पास नहीं। अपने पूरे मायका-कुल में (ददिहाल व नहिहाल में) मैं सर्वाधिक पढ़ी हूँ, सर्वाधिक एकेदेमिक छवि व कार्यक्षेत्र है। मुझसे बाद की पीढ़ी में भी मास्टर्ज़ डिग्री से आगे अब तक कोई नहीं गया। यों यह कोई बड़ी बात नहीं है, किन्तु जब अपने को वहाँ ले जाकर देखती हूँ या कभी-कभार आयोजनों में समूचे परिवार के साथ मिलती-जुलती हूँ तो चुभने वाले कई बीते प्रसंग याद आते हैं और तब दूसरों को भले हो न हो किन्तु अपने पर गर्व होता है। कई बार लगता है कि पिताजी की व उनके माध्यम से आर्यसमाज की रोपी स्वातंत्र्यचेतना और परिस्थितियों द्वारा उस पर लगा अंकुश ही चैलेंज के रूप में रहा हो कि उसने मुझे जुझारु बना दिया।



अर्पिता : स्त्री होने के नाते बहुत कुछ खोना भी पड़ता ही है भारतीय समाज में, अधिकांश महिलाएँ उस व्यूह में टूट जाती हैं। कोई विशेष अनुभव ?




कविता वाचक्नवी : स्त्री होने के नाते ​बहुत कुछ खोया भी है। सामाजिक जीवन के कई अनुभव भी बड़े कुरूप हैं। भारतीय समाज में स्त्री का स्त्री होना उसका बड़ा अपराध है। जिसकी सजा हर राह चलता व्यक्ति उसे देने का अधिकार रखता है। मैं सोचती हूँ यदि मुझ जैसी निडर, साहसी और दो टूक स्त्री के प्रति समाज निर्मम हो सकता है तो चुपचाप सब कुछ सहन करने वाली स्त्रियों की क्या दशा होती होगी। जीवन के कुछ अनुभव तो एकदम कभी न मिटने वाली पत्थर पर खोद कर बनाई लकीरों की तरह मन में खुद-खुभ गए हैं। परन्तु विकट से विकट अनुभव ने मुझे और-और साहसी ही बनाया, और-और जुझारु ही बनाया, थकना, टूटना या हार मानना तो कभी सीखा ही नहीं। एक तरह से आप यों कल्पना कर सकती हैं कि जो भारतीय समाज आज्ञाकारी और सहनशील स्त्री तक को सुख से जीने नहीं देता उस भारतीय समाज ने एक विद्रोही, न झुकने वाली और जुझारु स्त्री को भला कैसे सहन किया होगा ? अपने इस विद्रोही, साहसी आदि होने के कई मीठे-कड़वे प्रसंग हैं। अधिकांश तो कड़वे ही हैं । कुछ को मैंने संस्मरणबद्ध भी किया है, जिनमें से एक अत्यन्त लोकप्रिय भी हुआ था "जब मैं छुरा लेकर परीक्षा देने गई" शीर्षक से। शायद आपने देखा-पढ़ा हो |




अर्पिता : और भविष्य की चुनौतियों का प्रसंग तो छूट ही गया ...




कविता वाचक्नवी : रहा भ​विष्य की चुनौतियों की आशंका का आपका प्रश्न, तो उसके बारे में अभी से क्या कहा जा सकता है। हाँ इतना अवश्य कहूँगी कि भारत में रहते हुए जिन साधारण से साधारण इच्छाओं का गला घोंटना पड़ता था, आज ब्रिटेन में रहते हुए मैं उन सब को पूरा करने में लगी रहती हूँ। जैसे, स्कूल-कॉलेज के समय से मेरी बहुत इच्छा हुआ करती थी कि मैं चारों ओर से खुले में धरती पर आकाश के नीचे लेट जाऊँ और घण्टों आकाश को देखूँ सब ओर से बेपरवाह होकर..... । वहाँ वह इच्छा कभी पूरी नहीं हो पाई क्योंकि भारत में खुले में सार्वजनिक रूप से एक स्त्री के लेटे होने की हम कल्पना भी नहीं कर सकते। किन्तु अब लन्दन में मैं इसे पूरा कर पाती हूँ। जब-जब धूप निकलती है, तो मैं झील के किनारे वाले बहुत बड़े मैदान में अकेली जाकर धरती पर घण्टों लेटी रहती हूँ, कई बार सो भी जाती हूँ । यहाँ कोई इसे अन्यथा नहीं लेता व न इसे मेरी अनधिकार चेष्टा समझता है। कुछ पुरुषों की टीम थोड़ी दूरी पर सदा ही वहाँ फुटबाल खेल रही होती हैं। वे भी मुझे लेटा जानकर थोड़ा आदर करते हुए कुछ दूर चले जाते हैं। यहाँ मुझे कोई अनुभव ही नहीं करवाता कि मैं स्त्री हूँ तो कुछ दोयम हूँ, कुछ दर्शनीय वस्तु हूँ, कुछ कमतर हूँ, कुछ खाद्य हूँ, कुछ छू कर देखने की वस्तु हूँ, कुछ छेड़छाड़ की छूट मेरे प्रति ली जा सकती है, कुछ मुझे धकेला, बरगलाया जा सकता है, मेरे वस्त्रों के पार देखने की चेष्टा की जा सकती है, मेरी देह कोई लज्जा की वस्तु है कि उसे लेकर मुझे सदा अपराधबोध से ग्रस्त रहना चाहिए और उसे संसार की नजरों से बचाए-छिपाए रखना चाहिए, या मैंने स्त्री होकर कोई अपराध कर दिया है, या मेरा बौद्धिक स्तर स्त्री होने के नाते निस्सन्देह कमतर होगा, या मुझे स्वयं को शक्तिहीन समझना चाहिए और पुरुष के पशुबल से आक्रान्त रहना चाहिए। अर्थात् स्त्री होने के नाते मुझे अपनी सुरक्षा के लिए कुछ भी नहीं करना पड़ता। ऐसी निश्चिंतता मैंने भारत में कभी नहीं पाई। हाँ, स्त्री होने के नाते जो बुरा अनुभव मुझे यहाँ होता है वह यह कि अधिकांश लोग भारतीय समाज की स्त्री होने के कारण बलात्कार वाले वातावरण से जोड़ कर देखते हैं कि इनके देश में तो स्त्री से जब चाहे, जो चाहे, जहाँ, जैसे चाहे बलात्कार कर सकता है।




अर्पिता : और वहाँ पुरुषों का आपसे व्यवहार कैसा है ?


कविता वाचक्नवी : इस देश में लोग (पुरुष भी) हमें छूते हैं, गले लगाते हैं, सार्वजनिक रूप से चूमते हैं (वह अभिवादन का तरीका है) किन्तु उनके स्पर्श में कभी रत्ती भर भी लैंगिक आकर्षण का अंश नहीं होता। यह अनुभव आत्मविश्वास और सुरक्षा लौटाता है। पुरुष डॉक्टर तक मनोबल बढ़ाने के लिए आकर गाल सहलाते हैं, कई बार दोनों हाथों में चेहरा लेकर सहला देते हैं, ये अनुभव मुझे विशेष राहत और सुख देते हैं। यहाँ की स्त्री के लिए भले विशेष न हों किन्तु हम भारतीय परिवेश की पली-बढ़ी स्त्रियों के लिए ये स्वस्थ स्पर्श पुराने घावों पर मरहम-से प्रतीत होते हैं, जो कई घाव भर देते हैं। हमने अपरिचित पुरुष का यह रूप नहीं देखा हुआ होता, इस वातावरण व सहज सम्पर्क से हमारा परिचय हमें अकुण्ठ करता जाता है मानो।



अर्पिता शर्मा - बहुचर्चित दामिनी प्रकरण (16 दिसम्बर, दिल्ली में बस में हुए जघन्य बलात्कार) के भारतीय समाज में क्या मायने पाती हैं? क्या परिवर्तन होगा या फिर शांति?




कविता वाचक्नवी – दामिनी के साथ हुए जघन्य काण्ड से देशभर में एक लहर-सी आ गई थी। किन्तु वह आक्रोश का बुलबुला जिस तेजी से फूला था, उसी तरह फूट भी गया। भारतीय समाज के साथ विडम्बना यह है कि वहाँ सब के सब ओर की परिस्थितियाँ बहुत आक्रोशपूर्ण हैं। व्यक्ति किस-किस के विरुद्ध आक्रोशित हुआ रहे और कब तक ? व्यक्ति की मानसिकता कितने दिन इसे सहन और वहन किए रख सकती है ? ऊपर से जीवन जीने की विवशताएँ और दबाव भी हैं जिनमें उन्हें जुटना है, उनके पास इतनी सुविधा नहीं कि वे हर एक बात और घटना पर अपने आक्रोश को सिरे तक पहुँचाएँ और कोई हल निकालें। उन्हें उन्हीं के साथ जीना मरना है। इसलिए दामिनी प्रकरण हो या गोहाटी का प्रकरण, ये तो वे प्रकरण हैं जो प्रकाश में आ गए किन्तु इनके समानान्तर ठीक उसी दिन, उसी नगर में अन्य कई लड़कियों के साथ निरन्तर अमानवीय क्रूरताएँ होती रहीं किन्तु उनका देश ने नोटिस ही नहीं लिया। प्रति २० मिनट पर एक स्त्री बलात्कार की शिकार होती है भारत में। ​यह केवल दर्ज अपराधों का आंकड़ा है। अतः वास्तव में यह दर क्या होगी, इसकी कल्पना से रोंगटे खड़े हो जाएँगे ३, ५ व ८ वर्ष की बच्ची से तो आगामी दिन ही बलात्कार की सूचना समाचारपत्रों में थी​। ​ इसी बीच इम्फाल में १८ दिसम्बर २०१३ को ही एक २२ वर्ष की अभिनेत्री व मॉडल Momoko को भरी भीड़ में से खींच कर उसके साथ यौनिक व्यभिचार के लिए ले जाया गया। इसके विरुद्ध सड़कों पर विरोध के लिए उतरी भीड़ पर पुलिस द्वारा चलाई गयी गोली से दूरदर्शन के एक पत्रकार मारे गए। इस प्रकार स्त्री के प्रति जघन्यतम अमानवीयताएँ वहाँ दैनन्दिन जीवन का हिस्सा हैं।


भविष्य में दामिनी प्रकरण का क्या परिणाम होगा उसके अनुमान के लिए थोड़ा पीछे जाएँ। वर्ष 78’ में गीता और संजय चोपड़ा भाई-बहन के साथ हुई क्रूरता भी तत्कालीन समाज में बड़ी घटना थी, पर फिर धीरे-धीरे समाज उसका अभ्यस्त होता चला गया। कुछ भी नहीं बदला, अपराध उल्टा तब से अब अधिक बढ़े ही हैं। इसलिए शान्ति का तो निकट भविष्य में प्रश्न ही नहीं। कोई सरकार इस पर पूर्ण अंकुश नहीं लगा सकती क्योंकि जब तक जन-जन में स्वानुशासन और मानवीय मूल्यों के प्रति आस्था नहीं, संस्कार नहीं, तब तक डण्डे के ज़ोर पर समाज को बदलना सम्भव नहीं। हम भारत के लिए पिछड़े देशों जैसी न्याय-व्यवस्था की कामना नहीं कर सकते ।



अर्पिता : लोगों ने दण्ड कड़े करने, स्त्रियों को नियन्त्रण में रहने और वस्त्रों आदि की हिदायतें दी हैं। क्या वे ठीक हैं ?


कविता वाचक्नवी : हैवानियत से बचाव का उपाय सुझाना, संस्कारों के नाम पर पर्दे की वकालत, दण्ड-व्यवस्था के रूप में अरब आदि देशों के उदाहरण, कोई न कोई हल सुझाने की हड़बड़ी व अदूरदर्शिता आदि की बातें भारत को नष्ट करने के लिए बहुत काफी हैं । कोई हल न निकाल पाने की मजबूरी के चलते भारत को भी लीबिया या सीरिया जैसा देश नहीं ​बना दिया जा सकता । सब लोग मानो एक साजिश के तहत भारत को और हजार साल पीछे धकेलने वाले अमानवीय तरीकों को सुझावों और हल के रूप में देख रहे हैं। ​ऐ​से लोगों की ​आँखें ही नहीं खुलतीं कि यही सब जारी रहा और यही सब हल व तरीके ​यदि स्त्री-सुरक्षा के​ समाधान रहे तो भारत जल्दी ही बुर्के और घूँघटों ​वालियों का ऐसा देश बन जाएगा जहाँ ​पिछड़े​ देशों की तरह ​की दण्डप्रणाली लागू की जाए। समाधान के तरीकों पर बात करते समय इन खतरों से वाकिफ रहना बेहद जरूरी है। कोई समाधान या उदाहरण हजार साल पीछे व पिछड़े हुए देशों का नहीं अपनाया जा सकता....​। दूसरी ओर देश में बलात्कारों ​के लिए लड़कियों के रहन-सहन और वस्त्रों को लेकर हर बार की तरह बहस करने वाले लोग लड़कियों को ही दोष देने लग गए, मानो वे स्वयं बलात्कारियों को आमन्त्रित करती हैं।

जिन लोगों को स्त्री के वस्त्र और उसका खुले में घूमना या साँस लेना स्वीकार्य नहीं, वे वही लोग हैं जिन्हें अपने पर संयम नहीं। ऐसे असंयमी लोगों को चाहिए कि अपने लिए बुर्के तलाश लें और ऐसे समय बाहर निकला करें जब संसार की हर औरत सो चुकी हो। या फिर बाहर निकला ही न करें। ऐसे असंयमी पशुओं को अपने असंयम के चलते मनुष्यों को दड़बे में बंद करने का कोई अधिकार नहीं। जंगली पशु को दड़बे/पिंजरे/सलाखों में बंद किया जाता है, न कि जंगली पशुओं से बचाए जाने वालों को।

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लड़कियों के वस्त्रों और शाम के बाद बाहर घूमने या पुरुष मित्र के साथ फिल्म देखने की आड़ में स्त्री को दोषी ठहराने व बंदी बनाने वाले कुतर्क करते हुए यह याद रखना अनिवार्य है कि दुनिया के सारे सभ्य देशों में महिलाएँ कई-कई बार पूरी रात भी बाहर रहती हैं, घूमती हैं, पार्टी करती हैं.... और तो और योरोपीय देशों में तो पुरुष मित्रों के साथ प्रगाढ़ चुम्बन लेती हैं, सार्वजनिक स्थलों पर लेटी भी मिलती हैं, कपड़े भी अत्याधुनिक व कई बार तो न्यूनतम पहनती हैं; अर्थात वह सब करती हैं, जो पुरुष या पूरा समाज सार्वजनिक रूप से करता / कर सकता है। परन्तु क्या उन सबके साथ इन कारणों और इन कुतर्कों का बहाना बना कर हरदम बलात्कार हुआ करते हैं ?

वस्तुतः यह स्त्रियों पर शासन करने की प्रवृत्ति ही तो बलात्कारी मानसिकता की जनक है। जो ऐसे दुष्कर्म करते हैं वे भी किसी के भाई और बेटे तो होते ही हैं, भले ही वे अपनी सगी बहनों से शारीरिक बलात्कार न करते हों, पर मानसिक, वैचारिक व भावनात्मक बलात्कार (बलपूर्वक किया गया कार्य)​ तो घरों में अपनी बहनों, पत्नी व माँ के साथ भी होते हैं। अपने घर की स्त्रियों से शुरू हुई इसी शासन की आदत से दूसरों की बेटियाँ इन्हीं भाइयों और बापों द्वारा मारी गई हैं... इन्हीं भाइयों और बापों की आधिपत्य लिप्सा और स्त्री को अपने सुख की वस्तु और लिप्सापूर्ति का साधन समझने की आदत के कारण स्त्रियों की दुर्दशा है।



और जब तक स्त्री पर शासन करने का संस्कार और मानसिकता आमूलचूल समाज से नहीं जाती तब तक स्त्री की सुरक्षा या बलात्कारों पर अंकुश या शान्ति जैसी कल्पनाएँ केवल कल्पनाएँ हैं, यथार्थ नहीं।


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अर्पिता शर्मा – आपकी आभारी हूँ कि साधारण से प्रश्नों में निहित भावों को भाँप कर आपने उनका समाधान करते हुए मुझे इतना समय दिया। अपनी ओर से व पत्रिका की ओर से आपका आभार व्यक्त करती हूँ।




डॉ कविता वाचक्नवी

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शिक्षा : एम.ए. हिंदी ( भाषा साहित्य )

प्रभाकर : हिंदी साहित्य एवं भाषा
शास्त्री- संस्कृत साहित्य
एम. फिल. - Sociolinguistics ( स्वर्णपदक) किसी भी भारतीयभाषा में उक्त सैद्धांतिकी पर पहला शोध

पी. एच. डी. - आधुनिक हिंदी कविता और आलोचना

भाषाज्ञान : पंजाबी ( मातृभाषा ), हिंदी,संस्कृत, मराठी, अंग्रेजी
प्रवास :  नार्वे, जर्मनी , थाईलैंड, यू. के., स्पेन

सम्मान
विदेश में हिंदी के उन्नयन एवं प्रचार-प्रसार के लिए समर्पित तथा उत्कृष्ट साहित्य सृजन के लिए उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा "हिंदी विदेश प्रसार सम्मान" (2013 )
इंडियन हाईकमीशन द्वारा समग्र एवं सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक अवदान हेतु हरिवंश राय बच्चन के शताब्दी वर्ष पर स्थापित "हरिवंश राय बच्चन लेखन सम्मान एवं पुरस्कार" (2014)

भारतीय उच्चायोग द्वारा हिन्दी पत्रकारिता के क्षेत्र में सर्वश्रेष्ठ अवदान (2011 हेतु)   "आचार्य महावीर प्रसाद पत्रकारिता सम्मान"

http://vaagartha.blogspot.in/2008/07/blog-post_26.html


Friday, December 05, 2014

जीवित रहूंगी मैं - निर्मला ठाकुर की कविताएँ



निर्मला ठाकुर की कविताएँ    

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    जब फेसबुक पर सभी वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी निर्मला जी को श्रद्धांजलि दे रहे थे, स्त्रीवादी रचनाकार सुधा अरोड़ा ने निर्मला ठाकुर के बारे में यह लिखा था --
 सब उन्हें कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी के रूप में ही जानते हैं! बहुत कम लोग जानते हैं कि वे बहुत अच्छी कवयित्री और एक बेबाक समीक्षक भी थीं!  मेरी पहली किताब ''बगैर तराशे हुए'' की पहली समीक्षा उन्होंने ही लिखी थी -- श्रीपत राय सम्पादित ''कहानी'' पत्रिका में -- तब मुझे नहीं मालूम था कि वे दूधनाथ सिंह की पत्नी हैं ! 
बहुत स्नेही माँ और समर्पित पत्नी तो थीं ही! अक्सर अपने नामचीन पतियों के प्रभामंडल से तृप्त पत्नियां, अपने आप को गुमनामी के घेरे में आसानी से सरका देती हैं। निर्मला भाभी ने भी यही किया पर इधर उनका कवि मन बाहर आने को आकुल था। एक बार उन्होंने बताया कि एक हफ्ते में उन्होंने दस बारह कवितायेँ लिखीं। सन 2001 में कथादेश में जब मैंने मन्नू जी के बारे में एक टिप्पणी लिखी थी  ''कलाकार की पत्नी होना अंगारों भरी डगर पर नंगे पाँव चलना है !'' तो उन्होंने कहा - यह हम सब जानते हैं। 
फोन पर उनकी ममतामयी मीठी आवाज़ को भुला पाना मुश्किल है ! 

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    आज जब मध्यवर्ग के परिवारों की हम एक ऐसी पीढ़ी को देख रहे हैं जो घर से बगावत करके वहां की चहारदीवारी से बाहर निकल आई है और बाहर की दुनिया में अपने लिए जगह बना रही है , हम उस पिछली पीढ़ी को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते जिसने नई पीढ़ी के लिए यह ज़मीन तैयार की ! वरिष्ठ कथाकार दूधनाथ सिंह की पत्नी निर्मला ठाकुर अपने एकांत में अपनी व्यथा ऐसी कविताओं में रचती रहीं और किताब में छपवा कर चुप हो रहीं ! फेसबुक का एक बड़ा पाठकवर्ग इन रचनाओं से अनजान ही रहा ! फरगुदिया के पाठक पाठिकाएं पढ़ें और देखें कि सीधी सहज शब्दावली के भीतर छिपी परतों में आम औरत की कितनी गाथाएं छिपी हैं ! वरिष्ठ कवयित्री निर्मला ठाकुर को उन्हीं की पंक्तियों के पत्र- पुष्प समर्पित करते हुए यह श्रद्धांजलि !













मध्यमवर्गीय 
परिवार की औरत

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मैं कभी जी नहीं सकी

अपना जीना

बचपन में माँ ने सिखाया

ऐसे जियो

जैसे मैं कहती हूँ

पिता ने

जैसा मैं चाहता हूँ

भाई-

तुझे सबकी सुननी है

मैं सुनती रही सबका कहना

भाग-भागकर पूरी करना

सबकी मांग

पिता को चाय

तो भाई को कॉफ़ी

बहन को दूध की बोतल

तो माँ को पेट का चूरन

सब मर्ज़ की जैसे

मैं ही थी दवा

इन सबके बीच

चूल्हा - चक्की

माँ के बार -बार माँ बनने की त्रासदी में

अपने भाई-बहनों को

सहेजती 


होती गई मैं बड़ी

बीच-बीच

छत के नीरभ्र एकांत में

उड़ान भरते युवा सपने

मामूली थे वे

सपने

नौकरी की इक्षा

आत्मनिर्भरता की चाहत

ऐसा कुछ कर गुजरने की ख़्वाहिश

जो देता संतोष मुझे

और जीना की सार्थकता

देखते ही देखते

पीले हुए हाथ

भर मांग सिंदूर ले

मैं अब पूरी तरह अधिकार में थी

अपने पति - परमेश्वर के

गुलाम

बिन खरीदी

कौड़ियों के मोल ...

उसने कहा

भूल जाओ अपना वह घर बार

अब सब कुछ तुम्हारा

यहीं है

यही है असली घर- ठिकाना

जैसा मैं चाहूँ

उसी तरह जियो ...

देखते-देखते

भूल गई सपने

भूलने की कोशिश की तमाम बरस

जो थे मेरे अपने

भूल गई अपने लिए

जीना

धीरे -धीरे

उतर आई झुर्रियां

शरीर था

थकता गया

बेटा साधिकार बोला एक दिन

माँ, अब मैं हूँ

मेरी ही सुननी होगी बात

जैसा मैं कहूँ -

आह, किस-किस की सुनूँ मैं

जीवन भर सुना ही सूना तो

थक गई हूँ | बेहद

थकान - अथाह

आह, अब तो मांगती हूँ - दुआ

कि मेरे साथ जो हुआ

सो हुआ

पर अगली पीढ़ी की

कोई भी लड़की

कोई भी औरत

अपना जीवन जिए

और अगली सदी में

मेरी तरह

किसी की शर्तों पर
ना जिए |

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जीवित रहूंगी मैं
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जीवित रहूंगी मैं

अपने बच्चों में

बेटी बताएगी अपने बचपन की बातें

जब भी अपने बेटे से

जब

वहीं कहीं मैं भी हूंगी

उन चर्चाओं में

उन यादों में।


बेटियां कभी नहीं भूलतीं

अपनी मांओं को

उनके सुख-दुख को

क्योंकि बेटियां बनती हैं एक दिन

मेरी तरह एक

मां

और मांएं

नानी बन

सजीव हो जाती हैं

किस्से-कहानियों में

जीवित रहूंगी मैं।


संगम की धारा को जब भी देखेगा बेटा

मुझे क्या भूल पाएगा ?

जानती हूं


उसकी स्मृतियों में

मैं

संगम बन रहूंगी

जिसे समय-असमय

उम्र की सीढ़ी-दर-सीढ़ी चढ़ते

वह दुहराएगा जरूर।


कल मैं न रहूं

पर रहूंगी जीवित तब भी

उनकी धमनियों में

घुलमिलकर।






वक्त की धार

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कहां से कहां पहुंचा देती है

वक्त की यह धार

एक फूल की तरह खामोश

प्यार!

हवाएं के बीच सहेजने की कोशिश

बार-बार

टूटता जाता है मन का यह

तार

सांझ गिरती है

और उदास

रात चुपके से आती है

और-और

पास।




दाम्पत्य

 
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वे झगड़ते हैं


आपस में लगाते हैं

आरोप-प्रत्यारोप चीखते चिल्लाते हैं

अन्त में बदहवास

थककर

36 की संख्या में

सो जाते हैं(शायद)

लेकिन एक तस्वीर है

ड्राइंग रूम में

जहां वे अभी भी

एक दूसरे को तकते

मुस्कराते विभोर

63 की संख्या में मुखातिब है

कौन सी संख्या सच है

बताएंगे आप!



कोई भी चीज़
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कोई भी चीज़

बेअसर हो ही जाती है।

आख़िरकार

तुम भी।


दुखी होना न तुम्हारे वश में

था

न मेरे।

जीने के लिए

मरना तो पड़ता ही है।

एक न एक दिन

हर किसी को

राह निकालनी ही होती है

एक रोटी

एक घर।


प्रेम

या अविश्वास

कभी न कभी

हर चीज़ बदल जाती है।

तुम भी।

तुम तगड़े हो रहे हो

भविष्योन्मुख।

मैं घरेलू

आत्मोन्मुख।

क्योकि दुखी होना न तुम्हारे वश में था

न मेरे।




बिटिया
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फूलों-भरे पेड़ की डाली सी

मेरी बिटिया

हँसती है

होठों से

आँखों से

कपोलों के गहवर से

दूर दिगन्त तक उसकी हँसी फैलती है

और

मीठी खुशबू बिखेरती चली जाती है

इस कमरे, उस खिड़की

इस बिस्तर, उस कुर्सी

किताबें, फूलदान, मोमबत्ती

सब महक- महक उठतें हैं

आलोकित हो जातें हैं

वह हँसी

वह आँखें

कपोलों के नन्हे गहवर

मुझमें भरतें हैं जीवन

पुनर्जन्म इसी तरह होता है।







बेटे के लिए
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(1)

कहीं फूल के खिलने की एक मुद्रा

मुझे मुग्ध करती है

वह नन्हा- सा मुखड़ा

गुलाब है

जूही है

कुंदकली है

झर-झर झरता निर्झर है

मुझे आप्लावित करता

खिलखिल रोशनी है

अपनी नन्ही बाहों को फैलाता हुआ

यह एक जाड़े की मीठी धूप है

यह मेरी कविता है

मुझे ही रचती है

अनेको बार।

(2)

वह जो अपनी बड़ी-बड़ी आँखों में

संजोये हुए हैं- ढेर सारे सपने

अपने

माँ के, पिता के, भाई- बहन के

शुभ आशीर्वाद- सा

छाया रहता है घर के हर कोने में

वह उत्सव है

वह वसंत है

यह मौसम है

वह आकाश- यहां से वहाँ अनंत विस्तार में

सागर- तरंगित होता हुआ

दुनिया को हिला देने की ऊर्जा लिए

एक सार्थक लड़ाई के लिए सन्नद्ध

वह जागृति है

वह मशाल है

वह वर्तमान है।


जिन्दगी
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(1)

धीमे धीमे

सरकती जा रही यह

जिन्दगी

जाड़ों की धूप सी

प्यारी और प्यारी

लगती जा रही

यह जिन्दगी

लेकिन अजब है यह

कि बस

बन्द मुट्ठी में बंधी ज्यों रेत-सी

खिसकती जा रही

यह जिन्दगी।

(2)

जिन्दगी

स्वीट पी की खुशबू है

फैलती है यहां से वहां

आदिम चाह-सी

जिन्दगी जो खुला प्रांगण है

जिन्दगी जो

धूल, धूप, हवा

और पानी

गृहस्थी का उत्सव

और आंगन है

मात्र यही तो हर क्षण

धड़कनों का साक्षी

साथी है

फिर भी

अब, कहां

साथ छोड़ जाए

भरोसा नहीं

यह जिन्दगी।

(3)




बीतते जा रहे हैं

बरस पर बरस

रीतते जा रहे हैं

मौसम दर-मौसम

चुक जाएगा यह जीवन भी

एक दिन

एकाएक।


......यूं ही सोचते रह जाएंगे

अब करेंगे ऐसा कुछ

जाने कब से अपेक्षित था जो

ऐसा कुछ.........।




एक मनःस्थिति

 
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देखो तो


अब निहार सकती हूं

मैं आकाश का विस्तार

धरती का रूप

अकेली सड़क का मधुर एकान्त

सुन सकती हूं

झरते हुए पत्तों का

उदास, आत्मीय संगीत

नए पत्तों की लय

यह दुनिया कितनी खूबसूरत हो गई है

देखो तो

क्या से क्या हो गई हूं

मैं!


तुम्हारे जाने पर
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(1)
अच्छा हुआ तुम चले गए

अब कुछ सोच समझ सकती हूं

उन संवादहीन दिनों को

एक नाम दे सकती हूं

रिक्तता की खाई

मौन से भर सकती हूं।


चलो, तुम छोड़ गए

गहरे पानी में

(कोई बात नहीं)


(2)
कहीं कुछ नहीं होता

और बहुत कुछ घटता

काटता चलता है

अंधकार में

लहरों के उत्थान-पतन में

अरारों का गिरना

किसने जाना ?

-जिसने बांधा

वही

फिर-फिर उसी का टूटना

किसने तब जाना

घहरा कर

दम तोड़ना

एक नाटक

बिना मंच, बिना संयोजन के

होता है

मैं पात्र हूं (पर कहां हूं)

मेरे इर्द-गिर्द जो है

जो कुछ हो रहा है

वहां तो नहीं हूं

किन-किन व्यथाओं में

अभिभूत

उदास और रिक्त

और-

नामहीन हूं।

(3)

हंसी आती है अब प्रेम-प्रदर्शन पर

और विश्वास की बात

उदास कर जाती है

खुशियां हर बार

आहत हो

मौन के द्वार

टूट गिरती हैं।


राग जो अपना है

धुंध में डूबा है

वसन्त का अन्त

समझ में आता है।










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