Monday, May 27, 2019

टीस महिला दिवस की - मीना पाठक



टीस महिला दिवस की
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"हिंदी अकादमी द्वारा प्रकाशित इंद्रप्रस्थ भारती के मई अंक में मीना (दीदी) पाठक की कहानी "टीस महिला दिवस की" प्रकाशित हुई है। आज मीना दीदी का जन्मदिन भी है।"
खूब बधाई दीदी को💐







“का भाग ले के जन्मे रहे महतारी की कोख से..नैहर में ढेर नाही त कुछ कम भी नाही था..बाबू कउनों चीज की कमी नाहीं होवे देत रहे..बड़ा देख सुन कर अपने से अच्छे घर में बियाहे रहे कि उनकी बबुनिया रानी बन कर रहेगी..बाकिर हमरे करम फूटल रहा..त ऊ का करें..खेती-पाती..घर-दुआर..जनावर..सबेकुछ रहा..बाकी भाइन में बटवारा के बाद जऊन खेती-पाती हिस्से आयी..मंगरुआ के बापू धीरे-धीरे सब बेच खाए..अब तो बस गुजर-बसर भर को ही जमीन बची है..गाय-गोरू के नाम पर दुइ ठो बैल..का से का हो गयी जिनगी !”
सोचते-सोचते उसकी आँख भर आयी, अपनी सूती साड़ी की खूँट से आँसू पोंछ कर वह जल्दी-जल्दी खुरपी चलाने लगी |
बुधिया खेत की मेड़ पर बैठी खुरपी से हरी-हरी घास खोदते हुए मन ही मन अपने भाग्य को कोसती जा रही थी | तभी अचानक उसके पीछे से आवाज आयी --
“अरी बुधिया..! आज इतनी धूप में ?”
उसने घूम कर देखा, गाँव के सरकारी स्कूल की मास्टरनी जी थीं | उसने खुरपी छोड़ कर दोनो हाथ जोड़ दिए | उनके हाथ में फूलों का गुच्छा और चमचम करती कोई चीज थी जिसे देख कर वह पूछ बैठी – “ई का है मास्टरनी जी ? अऊर ई इत्ता सारा फूल !”
उसकी जिज्ञासा शांत करते हुए मास्टरनी जी मुस्कुरा कर बोलीं- “महिला दिवस पर मुझे सम्मानित किया गया है..कल छुट्टी है..इस लिए आज ही हेडमास्टर जी ने सभी अध्यापिकाओं के साथ मेरा भी सम्मान किया है |”
दोपहर में स्कूल की छुट्टी कर के रोज इस मेड़ से मास्टरनी जी चल कर अपने गाँव जाती थीं और अक्सर बुधिया से उनकी मुलाकात हो जाती थी| फिर थोड़ी गप-शप, थोड़ा हँसी-मज़ाक कर वह आगे बढ़ जातीं थीं और इन सब से बुधिया का मन भी हल्का हो जाता था | आज भी वही हुआ, स्कूल से लौटते हुए मास्टरनी जी को बुधिया घास छीलती दिख गयी और वह उसकी ओर बढ़ आयी थीं |

“अच्छा !” बुधिया की आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं, महिला दिवस क्या होता है उसे कुछ समझ नहीं आया | मास्टरनी जी उसे अचकचा कर अपनी ओर देखते देख कर बोलीं -
“हाँ...महिला दिवस के दिन महिलाओं को उनके अच्छे कार्यों के लिए सम्मानित किया जाता है |”
“तो का सबही मेहरारून के सम्मान होत है ? हम जइसन का भी ?” आँखें झपकाती हुई पूछ बैठी बुधिया |
“हाँ बुधिया..इसी लिए यह दिवस मनाया जाता है ताकि सभी लोग, सभी स्त्रियों का सम्मान करें |”
“अच्छा..! ई बात है !” बुधिया ने कह तो दिया पर उसे अब भी विश्वास नहीं हो रहा था कि स्त्रियों के सम्मान के लिए भी कोई दिन तय है | फिर मन ही मन सोचती है कि मास्टरनी जी कह रहीं हैं तो सही ही होगा |
“अब तू बता..अपने पति को क्यों नही भेजती इस काम के लिए ?..जब देखती हूँ तू ही घास काटते  हुए दिखाई देती है |” मास्टरनी जी उसे स्नेह से डपटते हुए बोलीं |
“हुंह ! ..दुई बैल बचे हैं दुआर पर..उसके भरोसे छोड़ देई त भूखे मरि जइहें मास्टरनी जी..ऊ कहीं पी के पड़ल होई !” पति का नाम सुनते ही गुस्से से उबल पड़ती है बुधिया |
“कल महिला दिवस है..अपने पति को भेजना घास लेने..तुम मत आना..!” मास्टरनी जी हँस कर बोलीं |

“अच्छा !” आश्चर्यचकित हो कर मास्टरनी जी की ओर देखा बुधिया ने |
“अरे ! कल का दिन तुम्हारा है..तुम्हें जो अच्छा लगे वह करना अपनी पसन्द से..समझी..!” कहते हुए मास्टरनी जी आगे बढ़ गयीं |

उनके जाने के बाद बुधिया सोचने लगी ‘तो का हम बिहान अपने मर्जी से सब करब ?..जऊन मन करे तऊन !”
बुधिया को लगा महिला दिवस कोई त्योहार है, जैसे दशहरा, दीपावली, होली आदि पर इससे पहले तो उसने इस त्योहार के बारे में कभी नहीं सुना था |
“अरे ! अब तो पता चल गया ना |” बुधिया मन ही मन खुश हो गई..चलो कम से कम एक दिन तो अपनी मर्जी से..अपने मन मुताबिक़ कुछ कर सकती है ..यही बहुत है..भागे भूत की लंगोटी ही सही..जिन्दगी का एक दिन तो खुशी से बीते...उसकी खुरपी तेज हो गयी |
बुधिया का मन बल्लियों उछलने लगा..उसे लग रहा था कितनी जल्दी आज का दिन बीते और कल का दिन आये..महिला दिवस मनाने की खुशी में वह बाकी सब भूल गयी |
जल्दी-जल्दी लायी हुई घास झाड़ कर उससे मिट्टी निकालने के बाद बुधिया ने गड़ासे से उसके छोटे-छोटे टुकड़े काट लिए फिर कुछ बैलों के आगे नाँद में डाल दिया और कुछ सुबह के लिए रख लिया |
*
आज तो उसकी खुशी का ठिकाना नहीं है, खुशी के कारण वह खेलावन की दी हुयी सारी तकलीफें इस समय भूल गई है इसी लिए उसे कोसना छोड़ अपना मन पसन्द गीत -
‘पान खाए सइयां हमारो..
साँवली सूरतियाँ होठ लालो लाल..
हाय-हाय मलमल का कूरता’...
तन्मयता से गुनगुनाते हुए बगीचे से जो सूखे पत्ते बीन कर लायी थी उसके साथ कुछ उपले जला कर रात की रोटी पकने के बाद खुशी-खुशी खेलावन को बुला कर खाना परोसने लगी |
“आज कुछु पा गयी का..जो इतना खुश है..हरदम जहर-माहुर उगलत तोर मुंह नाहीं खियाता है..अऊर आज त सइयां के पान खिया रही..!” खेलावन उसे गुनगुनाता देख कर तंज कसता है |
बुधिया बिना कुछ जवाब दिए थाली उसके आगे रख कर लोटा में गगरी से पानी उझीलने लगी, होठों से अब भी गीत के बोल फूट रहे थे | तभी खेलावन के चिल्लाने से चौंक गयी वह |
“ई रोज-रोज घास-पात !..तू ही खा..नाही खाना मुझे !” खेलावन थाली सरका कर उठ गया पीढ़े से |
बुधिया की सारी ख़ुशी पिघल कर बह गयी | चेहरे पर मुस्कुराहट की जगह गुस्से की लकीरें खिंच आयीं, होठ गीत गुनगुनाना भूल गए | कुछ देर जलती निगाहों से खेलावन को देखने के बाद वहीं लोटा पटक कर बरस पड़ी -
“अरे !..त काहे नाहीं बजार से तरकारी भाजी खरीद लाता है..घर में नाहीं दाने आम्मा चली भुनाने...औकात दो कौड़ी की नाहीं औ खाये का भाजी तरकारी चाहीं..अरे !..खाए पिए का सऊक है त जा..काम कर...खेत में पसीना बहा..कहीं मजूरी कर...दुई पैसा घर ला...तब ई रुआब दिखा...सब तो बेच कर पी गया..मेरा खून भी तो नाही छोड़ा तूने देह में...नहीं तो वही पिला देती तुझे... आत्मा जुड़ा जाती तेरी..जिनगी में कउनो सुख नाही जाने..खाये पीये और सोवे के लिए हम ई के मेहरारू..ओकरे बाद जनावर से भी गये गुजरे...!”

खेलावन खिसिया कर पैर पटकते हुए बाहर चला गया | बुधिया अपने भाग्य को कोसते हुए अपना गुस्सा बर्तनों पर निकालने लगी | आज का दिन अच्छा ही था उसका जो इतनी तीखी बातें सुन कर भी खेलावन ने हाथ नहीं उठाया था उस पर | वह तो पहले ही बेचन तमोली के साथ पी-खा कर आया था, वो तो बुधिया को दिखाने के लिए खाने चला गया था | कहाँ वो मुर्गा और दारु ! कहाँ ये सूखी साग-रोटी !
वह खटिया पर फ़ैल कर खर्राटे भरने लगा | बुधिया भी झंखती-पटकती अपनी खटिया पर ढिमिला गयी |
*
अगले दिन भोर में ही झाड़ू-बुहारू के बाद दुआर पर पानी छिछ्कार कर फिर पिछले दिन की बची हुई कटी घास बैलों को डाल दिया बुधिया ने | इन्हीं बैलों के कारण कुछ पैदावार हो जाती थी | जो थोड़े से खेत बचे थे, इन बैलों के सहारे ही जोते-बोये जाते थे | खेती के थोड़े बहुत काम के अलावा खेलावन कुछ नहीं करता था | बुधिया ही सब करती, जब उसका जी जलता तो खेलावन को जी भर के उल्टा-सीधा बोलती तब खेलावन उस पर हाथ छोड़ देता | बुधिया रो-धो कर फिर काम में लग जाती, यही उसका जीवन था |
*
खेलावन अभी तक सो रहा था, वह रात की बात भूल गई थी | कल की बात भूल कर आगे बढ़ जाना ही रोज का काम था उसका | खेलावन को जगा कर वह भीतर चली गयी | खेलावन खटिया उठा कर खड़ी करने के बाद कुएँ की ओर बढ़ गया | भीतर बुधिया हड़ियाँ-पतुकी में कुछ ढूंढ़ने लगी, एक पुरानी पतुकी में थोड़ा गुड़ और हड़ियाँ की पेंदी में थोड़ा सा चावल मिल गया उसे | वह चूल्हा जला कर रसिआव बनाने बैठ गयी कि तभी खेलावन आ गया | बुधिया अपने आँचल के खूँटे से एक मुड़ा-तुड़ा दस रु० का नोट निकाल कर खेलावन को देते हुए बोली – “बजारे से कउनो नीक तियना-तरकारी ले आओ..अऊर सुनो !..आज हम दुभिया लेबे नहीं जायेब..आज तोहके जाये का है |”
खेलावन नोट पकड़ते हुए अकड़ गया - “काहे..? आज केहू आ रहा है का..जो नहीं जायेगी दुभिया के खातिर या आज कौनो तीज त्यौहार है ?”
“अरे ! आजु मेहरारू लोग का दिन है ना !” वह उसे कुछ बताना नही चाहती थी फिर भी ना चाहते हुए भी उसके मुँह से निकल गया | खेलावन से किसी उपहार की उम्मीद तो थी नहीं उसे कम से कम इसी बहाने एक दिन का आराम पा जायेगी काम से, थोड़ा साँस ले लेगी राहत की| उसके लिए इतना ही बहुत था |
खेलावन की कामचोरी..शराब पीने की आदत और मार-पिटाई से वह आज़िज रहती थी..उसके जाते ही वह चूल्हे पर चढ़ा हुआ रसिआव चलाने लगी..चूल्हे में सूखे पत्तों के जलने की चट्ट-चट्ट की आवाज सुन कर बुधिया को लगता है कि वह भी तो जीवन भर इन्हीं पत्तों की तरह जलती रही है...खेलावन के पीने की आदत ने उसे कहीं का नहीं रखा |
उसे याद आता है कि कैसे उसका पाँच साल का बेटा मंगरू काली खाँसी से खाँसते-खाँसते परलोक सिधार गया था..पर पीने के आगे खेलावन ने बच्चे की जरा भी सुध नहीं ली..जितनी बार भी रुपया ले कर घर से गया..दारू पी आया और कह दिया कि बैद्य जी कहे हैं..आदी, तुलसी, पीपर अउर काली मरिच का काढ़ा पिलाओ बच्चे को... वह काढ़ा पिलाती रही..पर एक दिन मंगरू की खाँसी और मंगरू..दोनों शान्त हो गये..| सोचते-सोचते उसकी आँखों से आँसुओं की धारा छलक पड़ती है, मंगरू को याद कर के उसका कलेजा फटने लगा | वह खेलावन के लिए क्रोध और नफ़रत से भर उठी | मन में सोचने लगी कि वह कैसे रह रही है इस जानवर के साथ ?..फिर सोचती है कि आखिर जाय तो जाये कहाँ ?..बस किसी तरह जिन्दगी कट रही उसके साथ |
*
अचानक कुछ जलने की महक से उसकी सोच को झटका लगा..वह चौंक पड़ी..चूल्हे पर चढ़ा हुआ रसिआव फफा-फफा कर जल गया था..तसली से धुँआ उठ रहा था..जल्दी से तसली उतारने में उसकी उंगलियाँ जल गयीं..उसने बिना सपटा के ही तसली उतार लिया था..उँगली के साथ उसका अंतर्मन भी जलने लगा..वह वहीँ बैठ कर सिसक पड़ी..कुछ उँगलियों की जलन और उससे भी ज्यादा अन्तर के तपन की पीड़ा !..भरभरा कर उसकी आँखों से बह निकला |
वह चूल्हे की तरफ देखती है..कुछ उपलों की राख में अब भी आग बचा था.. पत्ते जल कर ख़ाक हो गये थे..पर कुछ पत्तों ने जलने के बाद भी अपना आकार नही खोया था |
दिन चढ़ने लगा..बुधिया ने आलू कुचल कर उसे अपनी उंगलियों पर थोप लिया..जिससे उँगलियों की जलन में कुछ आराम मिला.. पर अपनी आत्मा पर वह क्या छापे..कौन सा मरहम लगाए कि वहाँ भी थोड़ी रहत मिले !
*
बुधिया खेलावन की राह देखते-देखते थक गई..कल की बची हुई घास उसने बैलों को डाल दिया..अब उसे शाम के चारे की चिंता होने लगी..खेलावन अभी तक नही आया था..खरामे-खरामे दुपहरिया भी खिसकने लगी थी | बुधिया सब भूल गई, बैलों के चारे की फिकर में उसकी भूख प्यास सब मर गई |
उसने खाँची-खुरपी और बोरी उठायी, घर के दरवाजे पर साँकल चढ़ा कर चल दी बगीचे की ओर | पहले गिरे हुए सूखे पत्ते बटोर कर बोरी में भरा फिर उसे वहीं एक पेड़ के सहारे रख कर वह एक ओर बैठ कर हरी मुलायम दूब इकठ्ठा करने लगी | उसे अब ना उंगलियों में जलन महसूस हो रही थी ना ही सुबह की तरह मन में कोई उत्साह ही रह गया था, वह यंत्रवत अपने काम में लग गयी | आज स्कूल बंद था | मास्टरनी जी शायद आज भी महिला दिवस मना रही थी | शाम होने को थी | उसकी खाँची भर गई, उसने इधर-उधर देखा तभी उसे बाजार जाता हुआ भगेलू का लड़का दिखाई दिया |
“रे रमेसरा !..तनी ई खांची हमरी मुड़िया पर धरा दे रे !”
रमेसरा दौड़ता हुआ आया और उसकी खाँची उसके सिर पर रखवा कर चला गया | बुधिया एक हाथ से सिर पर खांची को संभाले और दूसरे हाथ से पत्ते वाली बोरी उठये कर घर की ओर चल दी | मन ही मन फिर से अपने भाग्य को कोसने लगी- “हमरे भाग में एको दिन चैन-सकून का नाहीं लिखा बरम्हा ने !” उसने सुबह से कुछ नहीं खाया था पेट में आँतें मरोड़ रही थीं, भूख कुलबुला रही थी | वह तेजी से घर की ओर बढ़ गयी |

घर पहुँच कर फिर से वही सब काम, घास झाड़ना, छाँटी काटना, बैलों को चारा-पानी देना फिर चूल्हे के आगे बैठ कर रसोई के लिए सोचना कि क्या बनाऊँ क्या ना बनाऊँ | वह उठी और एक लोटा पानी हरहरा कर पी गई फिर घर के बाहर आ कर बैठ कर खेलावन की राह देखने लगी | उसने सोच लिया था कि आज उसे भी भूखा रखेगी, कुछ नहीं बनाएगी खाने को |
अन्धेरा होने लगा था थोड़ी देर बाद खेलावन झोला लटकाए आता दिखाई दिया | उसने सोचा कि आज जी भर के सुनाएगी, चाहे जो हो | खेलावन के नजदीक आते ही एक जोर की भभक लगी उसे, वह समझ गई कि आज भी पी कर आया है वह |
गुस्से में बिफर पड़ी बुधिया ..”आजो पी आया !..एक दिन बिना पिए नहीं रह सकता...तरकारी के खातिर रुपया दिए रही तोहका..वोहू पी के आ गया..पेट है कि नाँद..कब्बो भरता ही नाही..हमार तो करम फूटा रहा कि तोहरा जईसन मरद मिला...ए से नीक त बाबू हमका कौनो नदी-नाले मे बहा दिए होत..त ई बीपत त ना भोगे के पड़त..तोहरे जइसन पियक्कड़ आ कामचोर मरद हमरे भाग में लिखल रहे |” गुस्से में बुधिया ने खाली झोला खेलावन के हाथ से झटक कर खींच लिया | नशे की हालत में भी खेलावन का पुरुषत्व जाग गया, उसने लपक कर भीतर जाती हुई बुधिया का झोंटा पकड़ लिया और उसे गाली देते घसीटता हुआ आँगन में ले आया..
“रुक ससुरी, आज तोर दिन है ना..एही से ढेर मुँह चला रही है..कल्हिये से ढ़ेर फड़फड़ा रही है..जऊन मुंह में आ रहा तऊन बक रही है..चल आजु तोर पखिया कतर के मेहरारून के दिन मना देत हयीं हम..ढेर दिन हो गयील..खाए भर का नाहीं मिलल ..आजु देत हईं तोके खाए भर के !”
बुधिया चीख रही थी “छोड़ दे रे...कौनो दिन मेहरारून के नाही होत..छोड़ दे...छोड़ दे ...जनावर..छोड़ दहिजार के पूत..मुतपियना..रे अभगवा..! छोड़ मुझे !”
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दो-तीन दिन बीत गये थे मास्टरनी जी को बुधिया नहीं मिली थी |  उनके मन में शंका हो रही थी कि उन्होंने तो उस दिन यूँ ही मजाक में कह दिया था बुधिया से, कहीं उसने उस बात को गम्भीरता से तो नहीं ले लिया ? वह जानती थीं खेलावन को, वह एक नम्बर का गँवार और शराबी था इस लिए उनके मन में शंका घर कर गई | उन्होंने सोचा कि कल स्कूल की छुट्टी के बाद वह बुधिया की खोज-खबर लेने उसके घर जायेंगीं |
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अगले दिन कुण्डी बुधिया के घर की कुंडी खटकाने पर रुखिया ने दरवाजा खोला | खबर लगते ही वह ससुराल से भागी-भागी माँ को देखने चली आई थी |
“अरे ! तू कब आई ?” उसे देखते ही बोलीं मास्टरनी जी |
“माई को देखने आई थी |”
“का हुआ उसे ?” मन ही मन डरते हुए पूछा उन्होंने |

बिना कुछ जवाब दिए वह उन्हें भीतर बुधिया की खटिया के पास ले गयी | मास्टरनी जी की आवाज सुन कर बुधिया ने कराहते हुए अपनी आँखें खोली | सामने मास्टरनी जी को देख कर सिसक पड़ी |
मास्टरनी जी उसकी दशा देख कर घबरा गयीं | बिखरे बाल..आँखों के नीचे काला...सूजे हुए होठ...गालों पर छपे उँगलियों के निशान देख कर वह सब समझ गयीं कि क्या हुआ है | उनकी शंका सही निकली | पूछने पर बुधिया ने सब बताया और अपने शरीर पर लगा कपड़ों में छुपा हुआ घाव भी दिखाया, उसके पूरे शरीर पर जगह-जगह काले निशान पड़े थे, खेलावन ने उसे जानवर की तरह पीटा था | दवा के लिए पूछने पर रुखिया ने बताया की ‘माई कुछो खा-पी नहीं रही है |’ मास्टरनी जी ने आज व्यस्तता के कारण अपना नाश्ता नहीं खाया था उन्होंने बुधिया को प्यार से समझा बुझा कर अपना नाश्ता खिलाया और कहा-
“इसी हालत में चल मेरे साथ..अभी |”
“कहाँ ?” चौंक कर बोली बुधिया |
“ग्राम-प्रधान या पुलिस के पास..खेलावन की शिकायत करने..मैं भी चलती हूँ तेरे साथ..दो दिन में ना सुधर जाए तो कहना |” गुस्से से तमतमाते हुए बोलीं मास्टरनी जी |
पर हर बार की तरह इस बार भी बुधिया तैयार नहीं हुयी | फिर आने को कह कर बाहर निकल आयीं | वो कई बार समझा चुकी थीं बुधिया को कि वह खेलावन के खिलाफ़ कोई कदम उठाये; पर वह नहीं सुनती थी, कहती थी कि “का होगा इससे मास्टरनी जी?..पुलिस के डंडे की चोट पर हरदी हमही का छापे के पड़ी |” उसका जवाब सुन कर वह चुप रह जातीं | हर बार मार खा कर रो-धो कर बैठ जाती थी पर इस बार बुधिया की इस हालत की जिम्मेदार वह स्वयं को मान रही थीं | उनका ये छोटा सा मजाक हमेशा उनके हृदय को टीसता रहेगा | वह मन ही मन व्यथित थीं कि अपनी गलती का पाश्चाताप कैसे करें ?
अचानक उन्होंने मन ही मन कुछ निर्णय किया और उसके घर से निकल कर आगे बढ़ गयीं |
*
अगले दिन सुबह-सुबह ही पुलिस के साथ ग्राम प्रधान खेलावन के घर पहुँच गये | पुलीस दरोगा को देख कर गाँव के लोग खेलावन के दरवाजे एकत्र होने लगे | सभी फुसफुसा रहे थे कि ‘पुलीस क्यों आई है ?’ कहीं खेलावन पीने के साथ चोरी भी तो नहीं करने लगा !’
प्रधान की कड़कती आवाज सुन कर खेलावन बाहर आया | प्रधान के साथ पुलिस और गाँव वालों की भीड़ देख कर उसके होश उड़ गये | वह हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया तभी दारोगा साहब बोले - “तेरा नाम ही खेलावन है ?”
उनके सामने हाथ जोड़ता हुआ बोला, “हाँ साहेब पर हमने तो कुच्छो नहीं किया है |”
दारोगा ने उसका कालर पकड़ते हुए घसीटा और जोर का एक थप्पड़ उसके चेहरे पर रसीद कर दिया | खेलावन के आँखों के सामने तारे छिटकने लगे वह घिघियाता हुआ बोला, “साहेब !..हमरा कुसूर तो बताव |”
“ससुर का नाती !..मेहरारू से बकयिती दिखा रहा..चल अब दिखा बकयिती..हमहूँ त देखें..तू केतना बड़ा बकैत है...घर की औरत पर हाथ उठाता है!” बड़बड़ते हुए दारोगा ने आठ दस लात और घूसों से उसकी पिटाई कर दी |
शोर सुन कर रुखिया के सहारे बुधिया भी बाहर आ गई और खेलावन को पिटते देख अपना सारा दर्द भूल कर वह दरोगा से हाथ जोड़ कर खेलावन को छोड़ने के लिए गिड़गिड़ाने लगी |
दरोगा के कहने पर खेलावन को पूरे गाँव के सामने बुधिया से क्षमा माँगनी पड़ी | बुधिया की विनती पर दारोगा ने उसे इस शर्त पर छोड़ा कि वह आगे से बुधिया पर कभी हाथ नहीं उठाएगा और एक कागज़ पर लिखवा कर उस पर खेलावन के अंगूठे का निशान भी ले लिया |
धीरे-धीरे दोनों की जिंदगी पटरी पर आ गई, खेलावन ने फिर कभी बुधिया पर हाथ नहीं उठाया और मेहनत से खेती करने लगा |
*
खेलावन को उसके किये की सजा मिल गई और वह सुधर भी गया, बुधिया के दिन बहुर गये | अब वह घर के काम के साथ-साथ मास्टरनी जी से पढ़ना-लिखना भी सीख रही थी, पर अब भी ना जाने कितने खेलावन हमारे समाज के कोने-कोने में छुपे बैठे हैं, जरुरत है मास्टरनी जी की तरह उन सभी के चेहरे से नकाब उतारने की और खेलावन जैसे व्यक्तिओं को उसके किये की सजा दिलाने की | पड़ोस के घर से आती सिसकियों की आवाज सुनकर भी नजरअंदाज करने से खेलावन जैसे अहंकारी पुरुष अपनी पत्नियों से हिंसा करते रहेंगे|



--मीना पाठक



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'अंतर्मन ' ब्लॉग का सफल संचालन ,
प्रकाशित कृति – (साझा संग्रह)-‘अपना-अपना आसमा’, ‘सारांश समय का’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-2’, ‘काव्य सुगंध भाग-2’, ‘सहोदरी सोपान-2’, ‘जीवन्त हस्ताक्षर-3’ ‘लघुकथा अनवरत’ और ‘जीवंत हस्ताक्षर -4’
‘लमही’, हिन्दुस्तान, जागरण, ‘कथाक्रम’ विश्वगाथा, भाषा-भारती, ‘निकट’, उत्तर प्रदेश सरकार की पत्रिका ‘उत्तर-प्रदेश’ व भारत सरकार की पत्रिका ‘इन्द्रप्रस्थ भारती’, ‘समहुत’ आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ व कविताएँ प्रकाशित, विभिन्न ई -पत्रिकाओं और ब्लॉग पर नियमित रचनाएँ प्रकाशित होतीं रहती हैं .
सम्मान - शोभना वेलफेयर सोसायटी द्वारा-शोभना ब्लॉग रत्न सम्मान 2012, माण्डवी प्रकाशन द्वारा 2014 में ‘साहित्यगरिमा’, अनुराधा प्रकाशन से ‘विशिष्ट हिन्दी सेवी’ सम्मान तथा ‘विश्व हिन्दी संस्थान कल्चरल आर्गेनाइजेशन कनाडा द्वारा उपन्यास ‘खट्टे-मीठे रिश्ते’ में रचना धर्मिता के लिए सम्मान 2015 प्राप्त हुआ और कहानी ‘शापित’ 92.7 big fm द्वारा सम्मानित हुई ..

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Saturday, May 04, 2019

मित्रो मरजानी : कुछ खतरे, कुछ दुश्वारियां - रोहिणी अग्रवाल



मित्रो मरजानी : कुछ खतरे, कुछ दुश्वारियां


हंस के अप्रैल अंक में वरिष्ठ लेखिका, आलोचक रोहिणी अग्रवाल जी का प्रकाशित लेख "मित्रो मरजानी: कुछ खतरे, कुछ दुश्वारियाँ" फ़रगुदिया पाठकों के लिए. 








“मैं पानी में भीग-भीग कर अपनी आत्मा तक फैले हुए सूखे को


नहला देना चाहती हूं.

मैं थार हूं, सब्जा नहीं।

ताल के एेन बीचो-बीच पाल वाली नौका डगमगाती सी किनारे की

ओर तिरती सरकती है।

मैं आँखें चुराए रहती हूं और ताल के उस एर वाली राह को

दिल ही दिल में घेर लेती हूं।

अनजाने ही अपने से शर्त बांध ली है कि पूरे ताल के साथ दौड़ूंगी

चाहे अंधड़ हो। तूफान हो। जो कुछ भी हो।

………………

कहीं पहुंचने का फैसला ही कर लिया तो पहुंचने की जल्दी क्या !

……………

इस क्षण , इस शाम मैं अपने होने में अपने काया और आत्मा से

अपने बिल्कुल करीब हूं ।

अपने साथ हूं।” (सोबती एक सोहबत, पृष्ठ 383)





लगभग तीस वर्ष के अंतराल के बाद ‘मित्रो मरजानी‘ से दुबारा मुखातिब हुई हूं। किताब खोलते ही स्मृतियों में पैठा कोई पुराना पाठ लहलहाने लगा है। नॉस्टैल्जिया ने मुझे चौतरफा घेर लिया है , लेकिन भीतर बैठी नि:संग आलोचकीय आंख न किसी किस्म के झांसे में आती है, न धूप-धूल से बचने की आड़ में कोई चश्मा पहनना मंजूर करती है। बस, चेता रही है कि तेल देखो, तेल की धार देखो क्योंकि समय के बदलाव के साथ पुरानी पगडंडियों की महक, बनत और मकसद बहुत बदल जाया करते हैं ।

‘हरदम उपदेश‘!

मैं होंठ बिचका कर पुस्तक में डूब गई हूं। बोली-ठिठेली के मीठे आरोह -अवरोह के बीच मैं नृत्य-लय-तान की उच्छ्ल लहरों के हवाले करने हेतु अपने काया को ढीला छोड़ना चाहती हूं, लेकिन देखती हूं कि मित्रो के चारों ओर रचा गया सम्मोहन धूल-गर्द की परतों के साथ धुंधला गया है। हाथ बढ़ाकर साफ करने को होती हूं कि वह भुरभुरा कर नीचे गिर जाता है।अब मेरे सामने खड़ी है एक स्त्री - कभी अपनी गुंजलकों में डूबती, कभी लहरों की सवारी कर जमीन से ऊपर अपना ठांव बनाने की जुगत करती; खोई हुई भी, और अपने को बचाने के लिए किसी भी ताकत से टकरा जाने को तैयार भी। इस स्त्री में न ‘संगरूरवाली लाली बाई‘ की मदमाती यौनिक अदाएं हैं, न ‘बसरे की हूर‘ का इलाही सौंदर्य।अपने समय के सभी शहसवारों की तरह मैं भी तो उसके इसी रूप पर कुर्बान हुई थी न! मर्द होती तो शायद लोभी भंवरे-से मुंह मारने के परंपरागत संस्कार की वजह से मैं मित्रों की दीवानी ही बनी रहती, लेकिन मैं तो हूं अपने युग की ठोकर-थपेड़ों से रची मामूली स्त्री! तब मन में छुपे तहखानों में उतरकर इन अदाओं में वर्जनाओं से मुक्ति का वर्चुअल सुख पा रही थी। ऐसा सुख जो मित्रो के कंटीले तेवरों से बूंद-बूंद टपक कर मेरे अस्तित्व की देह पर लगे तमाम कील-कांटों को बीन कर मुझे ‘मनुष्य‘ होने की गरिमा देता रहा है। लेकिन अब….? अब लगता है जैसे खिलंदड़ी मित्रो की आब को किसी ने निचोड़ लिया है। क्रांति के गीत गाने वाली वह जांबाज योद्धा अब मुझे अपने संरक्षक की गोद में दुबकी कोई ‘चिड़िया‘ दिखाई पड़ती है। क्या सुहागवंती सरीखी? न, सुहागवंती भारतीय परिवारों में जिस स्त्री का प्रतिनिधित्व करती है, वह मां और बांदी की तरह पति की देखभाल करने में ही इतनी रीत जाती है कि चिड़िया या इंसान बनकर अपने जिंदा होने की पुलक को महसूस ही नहीं कर पाती।

सुहागवंती पातिव्रत्य के तेज से रचा गया एक आभासी चरित्र है जो मिथ्या महामंडनों और प्रवचनाओं को ही सांस के आरोह-अवरोह की तरह भीतर- बाहर कर जिंदा होने के एहसास से अपने को पुचकारता चलता है । पितृसत्तात्मक व्यवस्था को अपने सुख, स्वास्थ्य और सुविधाओं के लिए ऐसी ही जिंदा मशीनों की दरकार रहती है।

मैं बेहद आशान्वित हो मित्रो की ओर टक लगा कर देख रही हूं।प्रत्याशा से पोर-पोर धड़क रहा है कि सुहागवंती का विलोम बनकर वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था के षड्यंत्रकारी नकाब को उलट देगी। ऐसे ही कोई विद्रोही चरित्र का खिताब नहीं पाता। लेकिन देखती हूं, उसके चेहरे -मोहरे और उम्र के जाने-चीन्हे रेशों- रंगो को पर धकेल कर ‘ऐ लड़की‘ की बूढ़ी अम्मू आ विराजी है।कैसे भूल सकती हूं पुस्तक के अंतिम पृष्ठ में उकेरी गई मित्रो की दो मुद्राएं जो स्थिति की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर नहीं रहतीं, मित्रो का व्यक्तित्व और उपलब्धि बनकर उसे कूल-किनारा देने में सक्षम होती हैं। पहली मुद्रा भवानी सरीखी है। कलपती मां की भूखी प्यासी डाकिन-सी आंखों में उगते सौतिया डाह को देखते ही अपने ‘बगलोल‘ पति (या अस्तित्व की जमीन?) को बचाने के लिए दिग्-दिगंत में गूंजती भीषण टंकार - “तू सिद्ध भैरों की चेली, अब अपनी खाली कड़ाही में मेरी और मेरे खसम की मछली तलेगी? सो न होगा बीबो, कहे देती हूं।” दूसरी मुद्रा में पूरी कायनात को अभयदान देती दृढ़ता और नेह की प्रगाढ़ता घुली-मिली है - “सैंया के हाथ दाबे, पांव दाबे, हथेली होठों से लगा झूठ-मूठ की थू कर बोली, कहीं मेरे साहब जी को नजर न लग जाए इस मित्रो मरजानी की।”

प्रेम और वात्सल्य, समर्पण और एकात्म के बीच मित्रों ने कुछ यूं गूंथ लिया है अपने को कि वह उस पूरे पैटर्न में कहीं अलग से नजर नहीं आती। सुनाई पड़ती हैं तो बूढ़ी अम्मू की असंबद्ध टिप्पणियां ...नसीहतें.. और निष्कर्षों में ढली बड़बड़ाहटें, जो ऊपरी तौर पर असंबद्ध भले ही हों, भीतर ही भीतर एक भरे-पूरे जीवन के निचोड़ के जरिए संबंध, समाज और व्यवस्था के शास्त्र को उकेरती हैं। जैसे “सृष्टि का हर नर सूरज से शक्ति खींचता है ।उसी की कृपा से अपने तपोबल को जगाता-गर्माता है ...और नारी ...उसकी इष्ट है पृथ्वी। वह पाराशक्ति बनी पुरुष के आगे पीछे व्याप्त हो जाती है ।समेट लेती है उसे घेरे में”। या “ नर जिस जल में स्नान करता है, नारी उसी को धारण कर हरियाती है।वह रात के टुकड़े कर डालता है और यह इसे पिरो कर गले में डाल लेती है। बच्चा बनाया कि गले में मणका डाल लिया। मां को इसी का वरदान है। उसी के एकांत सरोवर से निथर कर आत्मा देह में प्रवेश करती है तो बच्चा घटित होता है … इस तरह मां करती है मृत्यु को पराजित।” या “ घर का यह खेल बराबरी का नहीं, ऊपर-नीचे का है। घर का स्वामी कमाई से परिवार के लिए सुविधाएं जुटाता है। साथ ही अपनी ताकत कमाता-बनाता है।इसी प्रभुताई के आगे गिरवी पड़ी रहती है बच्चों की मां।” और “ मर्द का दबदबा बना रहना ही चाहिए। उसका स्थान नीचे नहीं, ऊपर है।”

बरजती हूं खुद को ही कि मित्रो से सीधे मुठभेड़ न कर क्यों मैं अम्मू की आड़ लेना चाहती हूं। क्या इसलिए कि मित्रो के तेज-ताप को सहने की ताकत नहीं मेरे भीतर? ( हालांकि यह सवाल अपने तईं बेहद महत्वपूर्ण है कि मित्रो के तेज-ताप के रंग-रेशे आखिर हैं क्या? इस सवाल की पड़ताल थोड़ी देर बाद।) या इसलिए कि उस स्फटिक सी पारदर्शी स्त्री में मुझे झोल ही झोल नजर आने लगे हैं। इतने कि नद नदिया सी खुली-डुली वह दरियाई नार मुझे भूलभुलैया लगने लगी है। मित्रो जानती है कि दैहिक आनंद का बेलगाम दरिया डिप्टी की ओर बहता है। वहां न पहरे है, न अंकुश। छक कर पीने की छूट मानो चप्पे-चप्पे पर अमृत-घट छलके पड़े हों। “फिर कौन तो भड़ुवा तेरा खसम और किसकी तू तरीमत।” वर्जनाओं के अंकुश न हों तो पतंग की तरह सरसरा कर आसमान छू ले मित्रो। लेकिन डिप्टी की ओर जाने वाली पगडंडी आसमान का भ्रम देकर जिस अंधेरी खोह में खुलती है, वहां खड़ी है बालो- उसकी अपनी मां - ठंडी भट्टी सरीखी अकेली, कामनाओं में सुलगती, अकारण उमड़ पज़ते सौतिया डाह में फुंककी, मसान से सूने घर में अपनी ही सांस की आवाज से सिहरती। मित्रो की त्रासदी यह है कि अपने को जानने और पाने की धुन को उसने एक जिद की तरह चुना जरूर है,लेकिन यह समझने का जतन नहीं किया कि ख्वाहिशों के समानांतर विद्रूप वास्तविकताओं का बेतरतीब उलझा जाल बिछाती व्यवस्थाओं का चरित्र न इकहरा है और न इतना ठोस एवं मूर्त कि शिनाख्त कर उसकी गर्दन पर तलवार धर दी जाए। खिड़की से दीखते आसमान को मित्रो पूरी दुनिया माने बैठी है और अपने भोले उछाह को युद्ध जीतने की धारदार रणनीतियां। उससने अपने वजूद को देह के पार जाना ही नहीं; और देह को गूंथ लिया है यौनिक आनंद के साथ। यानी प्रतिपक्षी है वर्जनाओं का भरा-पूरा संसार। बस, इतना सा ही है दुनियावी ज्ञान मित्रो का,और उतनी ही बौनी ख्वाहिशों का ‘लंबा सफर‘ उसकी मंज़िल। एक दबंग आत्मविश्वास और ढीठ लापरवाही के माथा ऊंचा कर वह मुकाम जीतने इस राह पर आगे-आगे बढ़ती जा रही है। रास्ते में आने वाली बाधाओं के साथ दो-दो हाथ करने को उसने अपनी जुबान और देह में कांटे उगा लिए हैं, लेकिन इस ‘सच‘‘ से वाकिफ नहीं कि बाधाएं राह किनारे घनी छाया देते मायावी पेड़ों की छलनाओं की तरह भी सामने आ विराजती हैं; और वर्जनायें चाहनाओं की रेशमी चादर ओढ़ सीधे दिल में उतरती चलती हैं। वह जान ही नहीं पाती कि जिस भूलभुलैया में पैर उलझा कर वह फंस गई है, वह ससुराल का भरा पूरा आंगन बनकर जब-तब उसके सामने स्वर्ण-मृग दौड़ा देती है, जहां बूढ़े सास- ससुर को अपने मजबूत हाथों से संभालते तीन- तीन बांके सजीले जवान बेटे हैं; सास को महारानी का खिताब देती उसकी चाकरी में जुटी इन सजीले जवानों की सुघड़-सलोनी बहूटियां हैं; और मौत पर जिंदगी के हस्ताक्षर कर परिवार को हरा-भरा रखती शिशु की चहकती किलकारियां हैं।चहुं ओर बिखरे ऐश्वर्य के बीच खड़ा व्यक्ति अपने वैभव के मोल को नहीं जानता। समझता है तब जब दिशाहारा नंगी ठोस जमीन पर अकेले खड़े होने की नौबत आ जाए। जीवन से भरे गृहस्थी के इन फलदार पेड़ों के बरक्स मित्रो अपनी मां को बिल्कुल नए रूप में देखती है - ठंडी भट्टी सरीखी अकेली , और उसके चारों और मसान सा सूना भांस- भांय करता घर। मित्रो सन्नाटे की भीतरी अनुगूंजों से बुना गया मननशील चरित्र नहीं है कि मौन को चिंतन, और चिंतन को दर्शन बनाकर अपने को किसी वैचारिक औदात्य तक ले जाए। वह हकीकतों की नहीं, ख्वाहिशों की पोटली है। क्रिया नहीं, प्रतिक्रिया उसकी परिचालक शक्ति है। इसलिए शब्द, भंगिमा, नाटकीयता और चप्पल चंचलता उसका व्यक्तित्व रचते हैं।



स्थिति के संज्ञान का संवेदनशील बिंदु मित्रो के विश्लेषण और चयन के विकल्पों से गुजर कर निर्णय तक पहुंचने की धीरता और गंभीरता नहीं देता, भय की सृष्टि करता है। रास्ता चुनने की स्वतंत्रता रास्ता बनाने की मननशील सक्रियता से अनिवार्यत: जुड़ी होती है। मित्रो का स्वभावगत उतावलापन उसे हमेशा एक अति से दूसरी अति की ओर धकेलता चलता है। वह नहीं जानती कि अनुभव, चिंतन और अंत: प्रकृति के घालमेल से एक खास शक्ल अख्तियार करने के बाद ही बेहतर विकल्प भीतर से उगते हैं। उसकी चेतना सतह का अतिक्रमण न कर पाने को अभिशप्त है। अतः उपलब्ध विकल्पों में से किसी एक का चयन उसकी नियति है। मां या सास? मसान या जिंदगी? मित्रो में जीने की जितनी हौंस है,उतना ही मौत से खौफ भी। ‘तिन पहाड़‘ की जया की तरह जो अवांछनीय स्थिति के दबाव में उस लम्हे के परे जिंदगी को महसूस ही नहीं कर पाती, और तिस्ता के उफनते वेग में छलांग लगाकर मुक्ति की चाह में मौत का वरण कर लेती है। इसलिए जिस मिट्टी के बुत में कोई हरकत न होने का आरोप लगाकर मित्रो उसकी मां से किसी वैद्य-हकीम को दिखा लाने का तंज कसा करती थी, वही ‘मिट्टी का बुत‘ उसकी डूबती नैया का खेवनहार बन जाता है। तब क्यों नहीं अम्मू के निष्कर्ष को मैं उसके युवा रूप मित्रो का निजी अनुभव कहूं कि “परिवारों के बच्चे बड़े-बूढ़ों को नया करते रहते हैं।”

बेशक लेखिका मित्रो के फैसले को लेकर संतुष्ट है, लेकिन मेरे लिए उसका पूरा आचरण और पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि गले न उतरने वाला कौर बन जाती है।‘सोबती एक सोहबत‘ पुस्तक में कृष्णा सोबती ने पीठ ठोंकने के अंदाज में मित्रो की घर- वापसी को सूझबूझ का कदम बताया है - “अपनी जुर्रत और औकात के बल पर यात्रा करते हुए मित्रो ने लेखक के बिना पूछे ही बाहर के खेमे से चौखट की ओर मुंह कर लिया। अपने तन- मन के ताप -संताप ,जलन-प्यास को फलांग खुद की लीक को लांघ जाना मित्रो के निकट परिवार के प्रतीति थी, उसकी वापसी नहीं।”

परिवार के प्रति एक रोमान मिश्रित मेह कृष्णा सोबती के यहां पृष्ठ दर पृष्ठ दिखाई पड़ता है। परिवार जे पितृसत्तात्मक व्यवस्था की मजबूत संस्था है। परिवार , जहां संस्कार के नाम पर स्टीरियोटाइप्स को बिना प्रश्नांकित किए इपनीवलैंगिक पहचान पर चस्पां करने का प्रशिक्षण दिया जाता है। परिवार, कुटम्मस करतेपति की बर्बरता से थरथपा कर जख्मों पर हल्दी का लेप लगाती पत्नी पातिव्रत्य की नई मिसाल बनती है। सेचती हूं, मां के निर्जन भविष्य की तस्वीर में अपने बुढ़ापे की वीभत्स सूरत देख जब परित्राण के लिए मित्रो ने सरदारी की छाती में मुंह छुपाया होगा, तब क्या उसे अकारण धौल-धप्पा करते सरदारी की उग्र छवि याद नहीं आई होगी? हिंसा शोषण और अपमान के जिन जख्मों को मन और संवेदना पर बना देती है , उन्हें पूरना इतना सरल भी नहीं होता। तो क्या ‘परिवार की प्रतीति‘ स्त्री-मन से जख्मी होने की याद ही छीन लेती है? या उसे स्त्री से शुतुरमुर्ग बन जाने का प्रशिक्षण देती है? कृष्णा सोबती की पूर्ववर्ती उर्दू लेखिका रशीद जहां की छोटी सी कहानी ‘दिल्ली की सैर‘ तो ऐसी किसी शुतुरमुर्ग स्त्री की बात नहीं करती; बल्कि अपमान को प्रतिकार की नैतिक ताकत बनाकर पूरी व्यवस्था की नकाब पलटने को तैयार हो जाती है। फिर, सुभद्राकुमारी चौहान की कहानियां - दांपत्य संबंधों से बाहर पुरुष मित्र के साथ जुड़े हार्दिक संबंध को अकुंठ भाव से उसी प्रखरता और शुचिता के साथ जीने की वैचारिक दृढ़ता से रची कहानियां - क्या मित्रों के यू टर्न को आवेश, विचारहीनता और विघटन का रूप नहीं देतीं?

अब मैं जांच की जद में लेखिका को भी ले आती हूं। कोई सवाल पूछूं कि ‘सोबती एक सोहबत‘ में संकलित लेख ‘तब तक कुछ मालूम नहीं था‘ में वे तफसील से ‘मित्रो मरजानी‘ की रचना-प्रक्रिया पर बात करना शुरु कर देती हैं। “वह (मित्रो) किस तस्वीर का नेगेटिव थी या उस नेगेटिव से कौन सी तस्वीर उभरेगी, तब तक कुछ मालूम नहीं था।” मैं उनकी साफगोई से बेहद प्रभावित हूं और आकर्ण सुनती हूं दो स्त्रियों के दो किस्से। पहली स्त्री शरबती या मिश्रीबाई है - मजदूर है जो ठेकेदार के साथ हास-परिहास करते हुए अपनी और उसकी दोनों की काम-पिपासा को हवा देती चलती है। दूसरी स्त्री नपुंसक पति की काम चेष्टाओं से त्रस्त एक उद्दीप्त- अतृप्त पत्नी है जिसके सामने रोने-झींकने और गरिया कर चुप हो जाने के अतिरिक्त निष्कृति के अन्य कोई विकल्प खुले नहीं हैं। जाहिर है मित्रो को इन दो स्त्रियों का कोलाज बनाने की खींचतान में लेखिका भूल गई स्त्री री उद्दाम यौनिकता की बात कहते-कहते पितृसत्तात्मक व्यवस्था के नैतिकता के दोहरे मानदंडों को कटघरे में खींच लाना चाहती हैं, या विवाह संस्था के शिकंजे में फंसी स्त्री की पीड़ा, दैहिक- मानसिक अत्याचार और तिल-तिल घुटने की यंत्रणा को साक्षात् करना चाहती हैं। कहानी में शिनाख्त की नोक पर टंगी पितृसत्तात्मक व्यवस्था नहीं है।अलबत्ता सावधान हो उसी लेख में लेखिका अपनी शिनाख्त को ‘तन-मन‘ (भोग-मुक्ति / प्रवृत्ति निवृत्ति यानी थोड़ा बहुत ‘चित्रलेखा‘ उपन्यास वाला मामला) के सवाल पर केंद्रित कर डालती हैं। उनके सामने सवाल की शक्ल में तफ्तीश के दो पहलू हैं। एक, तन बड़ा कि मन? कहने को मन और पाने को तन। इसी अगियारी नोक पर दुनिया स्थित है।”और दूसरा, “होगी तो इस आदिम मांग की कितनी बिसात होगी? औकात कितनी होगी उस छलकती-धड़कती चाहत की जो पाप और पुण्य से बड़ी है और उसके दावों से बाहर है।”(सोबती एक सोहबत, पृ० 387)



मैं समझ नहीं पाई कि यदि मित्रो की रचना के मूल में पारिवारिक मर्यादा के भीतर रहती स्त्री की दैहिक प्यास की थाह लेने की आकांक्षा है तो क्यों नहीं लेखिका ने औसत भारतीय परिवार की सामान्य स्त्री को अपनी नायिका बनाया? एक ऐसी स्त्री को जिसकी दमित आकांक्षाओं के शास्त्र में औसत पाठक/ स्त्री को अपने तलघर की झलक मिल पाती? या जो अपने उत्तापऔर अनुताप के बीच एक नई गढ़त लेने की जुगत में हदबंदिसों और नाकेबंदिसों से लहूलुहान होती भी दिखती और अपनी आजादी का जश्न मनाने के नव उल्लास से भी उमगती। कृष्णा सोबती मित्रो के रूप में जिस चरित्र को गढ़ती हैं, वह अपनी स्वत:स्फूर्तता, गतिमयता और ग्लैमर के बावजूद स्त्री का प्रतिरूप नहीं बन पाता। चेतना और समानता के तमाम दावों के बावजूद 21वीं सदी में आकर भी मेरी शंकाएं ज्यों की त्यों है कि ‘कसबन‘ ( नगरवधू /वेश्या) की पुत्री का कुलीन परिवार से संबंध-नाता कैसे जुड़ा? मित्रो की सास धनवंती के बार-बार के पछतावे को आधार मानकर इस निष्कर्ष पर पहुंचू कि अपनी भलमनसाहत में वह परिवार ‘ठगा‘ गया, तो भी सवाल अपनी जगह बरकरार है कि आज जब ‘भले‘ परिवार ही प्रेम-विवाह के अपराध में खाप पंचायतों की शह पाकर बेटी-दामाद का कत्ल कर डालते हैं , तब ‘ठग- विद्या‘ के इस्तेमाल से घर में घुसने वाली और ‘मिरासनों सी करतूतों ‘ के कारण बिरादरी में नाक कटाने वाली स्त्री के प्रति इतनी नरमी और सह्यता आखिर क्यों? कौन नहीं जानता कि हर दौर के खांटी वैष्णव भारतीय परिवारों का चरित्र खासा हिंसक और बर्बर रहा है, जो पहले घर में शोषण-मर्दन की तालीम में महारत हासिल करता है, और फिर बाहर उसे परवान चढ़ाने जाता है ।

पितृसत्तात्मक व्यवस्था स्त्री को न मनुष्य के रूप में देख पाई है, न लैंगिक पहचान आरोपित कर उस पहचान की समग्रता में। वह स्त्री को ‘देह‘ के साथ साथ ‘इज्जत‘ के खांचे में भी ढालती है। देह हेना स्त्री होने की पहली शर्त है, लेकिन साथ ही शर्त यह भी है कि देह-सुख का अहसास स्त्री स्वयं न ले, बल्कि देहातीत हो देह पर हो रहे क्रिया व्यापार (रति) को निर्विकार ढंग से देखती-सहती रहे।इसलिए ‘इज्जतदार‘ स्त्री रो परिवारों की चौखट में बांधकर कामधेनु की तरह दुहा जाता है। यहां देह शारीरिक श्रम बनकर पुरुष को भौतिक- लौकिक सुख पहुंचाने के लिए खटती रहती है, और यौनिक आनंद बनकर अपने को इस्तेमाल होता देखती रहती है।यौनिक आनंद पुरुष के लिए है, गर्भाधान-प्रजनन और बच्चे के पालन-पोषण का दायित्व स्त्री का।अलबत्का बच्चा बड़ा हो जाए तो पिता का वारिस बनकर पिता के पाले में। परिवार की चौखट के बाहर भी पुरूष ने स्त्री को देह बनाकर अपने लिए आरक्षित रख छोड़ा है।वहां वह समाज के नैतिक स्वास्थ्य के लिए बनाई गई ‘गंदी नाली‘ है जिसे बतर्ज कुलवधू ‘नगरवधू‘ की संज्ञा दे कर गौरवान्वित करने का मिथ्या बोध दिया जाता है। लेकिन देह के जरिए अपनी आजीविका स्वयं कमाती यह स्त्री पुरुष की तरह स्वतंत्र, स्वायत्त, मानवीय इकाई का बिंब नहीं रचती, बल्कि कमाई से लेकर दैहिक आनंद तक पुरुष के अधीन बनी रहती है। देह व्यापार में पूंजी स्त्री का शरीर है, लेकिन उस पर मालिकाना हक पुरुष तंत्र का है जो इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रबंधन और संरक्षण तक अनेक रूपों में फैला हुआ है। कुलवधू की तरह वेश्या के लिए भी रतिक्रिया आनंद का स्रोत नहीं,ग्राहक के रूप में आए पुरुष को अपनी कामार्त आहों-कराहों के साथ ‘रिझाने‘ का यांत्रिक क्रिया-व्यापार है। पितृसत्तात्मक व्यवस्था ने स्त्री के लिए देह को अभिशाप की तरह रचा है। वह देह को ऐन्द्रिकता (सेंसुअसनेस) से परे देखने और जानने का विवेक स्त्री (और पुरुष को भी) नहीं देना चाहती, जबकि वास्तविकता यह है कि देह मात्र एक दृश्यमान आधार है जो बुद्धि, चेतना, संवेदना और विवेक के जरिए ही अपना एक सुनिश्चित व्यक्तित्व ग्रहण करती है। स्त्री के लिए ये सभी नियामतें वर्जित मानी गई हैं। संवेदना को जरूर एक पुड़िया में भरकर प्रसाद की तरह उसकी ओर बढ़ा दिया जाता है। संवेदना में वैचारिक औदात्य के तालमेल के कारण जहां करुणा, सहानुभूति, प्रेम, त्याग, समर्पण जैसी मनोवृत्तियां रूप बदल कर समूची सृष्टि को अंकवार करने वाले बृहद जीवन मूल्य बन जाती हैं, वहीं विचारशून्यता न केवल संवेदना को कोरी भावुकता में तब्दील कर देती है, बल्कि आत्मदया और आत्मपीड़न के प्रशिक्षण के जरिए आंसू और करुणा को अंधमोह, अंधविश्वास, बचकानी जिद और डाह में विघटित कर देती है। यही वजह है कि बकौल कृष्णा सोबती स्त्रियां पहले अपनी करुण स्थिति से पुरुष के मन में हिंसा पकाती हैं, और फिर उसकी हिंसा का शिकार हो अपनी दयनीय स्थिति को मजबूत करती है।चूंकि लेखन रचनाकार की वैचारिक प्रतिबद्धता का अक्स हुआ करता है और अपने से बाहर निकल कर समाज को एक नई गढ़त देने की व्यग्रता को कमोबेश महसूसता-उकेरता है , इसलिए मित्रो की पारिवारिक पृष्ठभूमि के चयन और गठन में लेखिका की निजी अंतर्दृष्टि के हस्तक्षेप को अस्वीकारा नहीं जा सकता। बेशक वे कहती रहें कि “किसी भी यथार्थ और आदर्श की अतिशयोक्ति या आग्रह मित्रो को असामाजिक बना देने को काफी थे। मित्रो के आगे बुलबुलाते खतरे और दूरदराज की सुरक्षा को किसी भी मूल्य पर एक दूसरे से बदला नहीं जा सकता था”, लेकिन यह तय है कि पूरी रचना में मित्रो एक कन्विंसिंग और रियल चरित्र के रूप में दिखाई नहीं देती। कृष्णा सोबती बेहद सजग चौकस रचनाकार हैं। अपने पात्रों के नैन नक्श, वेशभूषा, बोली-बानी से लेकर घटनाओं के चयन और ब्यौरों तक में एक सुचिंतित सधाव साफ दिखाई पड़ता है। ‘तिन पहाड़‘ में अपने आप में खोई और जिंदगी से अस्त-व्यस्त जया को जब-जब भी वे होटल के डाइनिंग रूम या कलिंगपोंग की वादियों में या फिर किसी अन्य सार्वजनिक स्थल पर प्रस्तुत करती हैं, जया की अपने को ‘पा‘ लेने की उद्विग्नता पाठक तक तैरकर नहीं आती। सबसे पहले उसकी नजर टिकती है जया के परिधान - साड़ी,शॉल,ज्वेलरी - पर, उसकी भंगिमा पर । भाषा का जादू तो खैर उनकी हर रचना में पात्र और परिवेश के अनुरूप अपनी छटा बदलता रहा है। कृष्णा सोबती रे पात्र पाठक के भीतर उतरने की बजाय अपनी पहली प्रतिक्रिया में उसे ‘चौंका‘ देना चाहते हैं। और यह तय है कि हार्दिकता की अपेक्षा विस्मय की जमीन से उगा हुआ रिश्ता विस्मय को प्रगाढ़तर करते हुए एक समानांतर दूरी बनाए रखता है क्योंकि विस्मय प्रगाढ़ परिचय में तब्दील हो जाने पर अपने ही जगाए हुए जादू को बचा नहीं पाता। कृष्णा सोबती की नजर में ‘परिवार‘ का स्थान बहुत ऊंचा है। रचनावदर रचना उनकी नायिका अपनी जिंदगी के अभिशाप को धोकर इसी परिवार संस्था में प्रविष्ट होने की आकांक्षी रही है। परिवार की चौखट के भीतर मजबूती से कदम गड़ा कर बैठी कुटुंबप्यारी (दिलो दानिश) और सुहागवंती (मित्रो मरजानी) जैसी स्त्रियों में उनकी दिलचस्पी नहीं है। न ही वे उनके आंसू पोॉछने या आंसुओं को आग में तब्दील करने के इरादे से उन तक पहुंचती है। उनकी नजर खींचती है परिवार की चौहद्दी से बाहर खड़ी स्त्री, वह चाहे रत्ती (सूरजमुखी अंधेरे के) हो, महकबानो (दिलोदानिश) हो या मन्नो (बादलों के घेरे)। चूंकि परिवार की चौहद्दी से बाहर होकर परिवार में घुल-मिल जाने की हसरत उनकी स्त्री का कुल परिचय है, इसलिए परिवार को आलोचनात्मक नजर से देखने की बजाए वे उसकी रोमानी छवि के इर्द-गिर्द अपनी छावनी बना डालना चाहती हैं।लेखिका भारतीय परिवारों की रवायतों को भी जानती हैं, और उसके ‘सर्वभक्षी‘ स्वरूप को भी। ठेकेदार से परिहास कर अपनी काम-ग्रंथियों को संतुष्ट करने वाली मजदूर स्त्री कुलीन परिवारों के आंगन में नहीं मिलती। कुलीन स्त्री योनिकता-प्रकरण पर अपनी समवयस्काओं के आगे खुलेगी भी तो भाषा भंगिमा और कहन पर सात-सात पर्दे चढ़ाकर, संकेतों में, सुहागवंती की तरह।दाहिर है इसलिए बड़े-बड़े ‘तैराकों‘ को डुबोने की ताब रखने वाली ‘चढ़ी नदिया‘ सरीखी स्त्री को रचने के लिए उन्हें ऐसी पृष्ठभूमि की दरकार थी जहां नैतिक वर्जनाओं के अभाव में ‘खुलापन‘ बेशर्मी की हदों को छूने में भी परहेज न करे।

बात को दूर तक खींचते चलें तो अपनी ही बात पर घोर अविश्वास करते हुए कह सकते हैं कि वेश्यापुत्री मित्रो को कुलवधू बनाकर कृष्णा सोबती ने एक तीर से दो शिकार किए हैं। स्त्री की यौनिक स्वतंत्रता की मांग के साथ साथ ‘वेश्योद्धार‘जैसे मुद्दे को अपनी रचना का केंद्रीय विषय बनाना। स्वतंत्रता से पूर्व समाज सुधार आंदोलन की रचनात्मक पुकारों के अधीन प्रेमचंद, सुभद्रा कुमारी चौहान, उग्र आदि अनेकानेक रचनाकारों ने वेश्याओं की स्थिति और उनकी सामाजिक इंक्लूजिवनेस को लेकर अपने-अपने स्तर पर विचार किया है। लेकिन तमाम वैचारिक औदार्य के बावजूद न वे अपने कुलीन संस्कारों से मुक्त हो पाए हैं, न समाज में (परिवार की कौन कहे) उन्हें किसी सम्मानजनक स्थान देने की पैरवी कर पाए हैं। यहां तक कि मिर्जा हादी रुसवा की बेहतरीन कथा-कृति ‘उमराव जान अदा’ भी अपनी नायिका के वजूद को करुणा और प्रेम के संकरे रास्ते से बाहर निकलने की इजाजत नहीं देती। तब कुप्रिन के ‘यामा द पिट’ जैसे घनघोर यथार्थवादी उपन्यास के तीखे दबंग खस्ताहाल चरित्रों और व्यवस्थाजन्य कुचक्रों को उकेरने की बात कौन कहे। कृष्णा सोबती का प्रिय शगल बेशक अपनी नायिकाओं को रोमान की गली में घुमाने का रहा हो, लेकिन ‘गुलाबजल गंडेरियां‘ और ‘आजादी शम्मोजान की‘ जैसी वेश्या-केंद्रित कहानियां रचते हुए वे रोमान को बरज कर तीखी-पैनी नजर के साथ उनके अंतर्मन में घुसने की चेष्टा करती हैं। तब वहां न उनका ऐश्वर्य है, न शानो शौकत; न भरी महफिल को बांकी चितवन से नचा डालने की बचकानी हरकतें हैं, न अपने को ‘इलाही ताकत‘ मानने के भरम, जो बालो- मित्रो संवाद में उनके विगत ऐश्वर्य की कथा कहते हैं। सेक्स भी वहां उबकाई का पर्याय है, चटखारे ले कर चाटने की वस्तु नहीं। ऐसे में मित्रों को ‘कसबन‘ की बेटी के रूप में कथा में उतारने की वजह एक ही हो सकती है कि परिवार की मर्यादा और शुचिता को बचाने की अतिरिक्त सजगता और मोहपरकता के कारण कृष्णा सोबती पारिवारिक स्त्री को इतने कुत्सित रूप में प्रस्तुत नहीं करना चाहती थीं।बोल्ड रचनाकार के रूप में जाने जाने वाली लेखिका की इस प्राथमिकता को मैं साहसहीनता की संज्ञा नहीं दूंगी, हालांकि साथ साथ इस तथ्य को भी रेखांकित करना चाहूंगी कि इस्मत चुगताई ‘मित्रो मरजानी‘ की रचना से पूर्व ‘लिहाफ‘ जैसी कहानी में स्त्री की दमित यौनेच्छाओं की तीव्रता को न केवल खुले तौर पर स्वीकारती हैं, बल्कि सेक्स में पैसिव पार्टनर मानी जाने वाली स्त्री को लैस्बियन संबंध की परस्पर सक्रियता में प्रस्तुत कर पितृसत्तात्मक व्यवस्था के नैतिक शिकंजों को दूर फेंक आती हैं। कृष्णा सोबती के पास अद्भुत मैनरिज्म है, उखाड़ पछाड़ का खेल बुनती भाषाई कलाबाजियां है, लेकिन परिवार संस्था पर आंच न आने देने की फिक्र में वे अपने ही कदमों को नैतिकता के पाले की ओर खींचती चलती हैं। रचना और रचनाकार के अन्योन्याश्रित संबंध को लेकर वे लिखती भी हैं कि “रचना के गठन में निहित रचनाकार का अपना निज का एकांत है, चिंतन है। उसका चिंतन उसकी सोच है जो गहरे में उसकी मानसिकता की जड़ों से उभरी है। वही उसके परिवेश और मूल्यों से जुड़ी है। उनमें रची-बसी है।” (सोबती एक सोहबत, पृ० 396)

मित्रो मरजानी के सारे पात्र स्टीरियोटाइप्स से परिचालित हैं। दो-दो ब्याह करके औरत को सिधाने वाला बनवारी, पति के चरण धो-धो कर पीती उसकी आदर्श पत्नी सुहागवंती, रोबीले गले में हुक्म की थाप भरकर घर के मालिक होने का सुख भोगता गुरुदास, मां और पत्नी की भूमिका में टहलन के संग-संग मालकिन के गरूर में इतराती धनवंती, और तिरिया चरित्तर रचाकर अपने स्त्रीत्व को रणनीतियों में विघटित करती फूलांवंती - सब तो जाने-पहचाने चरित्र हैं। अलग है मित्रो, लेकिन अलग कहां! वह भी तो वेश्या (कुराह पड़ी स्त्री) के स्टीरियोटाइप से भिन्न नहीं। भाषा और तेवर ठीक वही जो फिल्मों में अच्छी बनाम बुरी औरत के बिंब को उघाड़ने के लिए प्रयुक्त किए जाते रहे हैं ।सरदारी के लिए मित्रो के संबोधन की एक बानगी हाजिर है - बेली सैयां, दिलबर सैयां, हुकम, महरम, चन्न जी। और भाषा में भाषा में नंगई को छूता ‘खुलापन’- “ सात नदियों की तारू, तवे सी काली मेरी मां, और मैं गोरी-चिट्टी उसकी कोख पड़ी। कहते हैं, इलाके के बड़भागी तहसीलदार की मुहांदरा है मित्रो।” या “मेरी इस देह में इतनी प्यास है, इतनी प्यार कि मछली सी तड़पती हूं।” रीतिकालीन नायिका सरीखा मित्रो का है कामार्त्त चीत्कार पाठक को गुदगुदाता है। जाहिर है इस गुदगुदी में सरदारी के बरक्स अपने पुंसत्व की पुख्तगी का आश्वासन भी है और घर में मित्रो नहीं, सुहागवंती-सी बीवी होने का संतोष भी।पूरी कथा जाने क्यों मुझे शेक्सपियर के नाटक ‘द टेमिंग ऑफ द श्रू‘ (रचनाकाल 1590 ई०) की आउटलाइन्स पर लिखी भासती है जहां बिगड़ैल औरत को ‘राह‘ पर लाने के कुचक्रों में पुरुष की श्रेष्ठता का डंका अपने आप बजने लगता है। मजबूत और उत्च्छृंखल स्त्री को सिधा कर समर्पिता बनाने का सुख कौन पुरुष नहीं पाना चाहता? दरअसल आज की ही तरह साठ के दशक में कथा-चरित्र ही नहीं, स्त्री कथाकार भी अपनी लैंगिक पहचान में रच-बस कर ही पाठक के दिल-दिमाग में रजिस्टर होते रहे हैं। इसलिए ‘यारों के यार‘ हो या ‘मित्रो मरजानी‘, दोनों रचनाएं एक बड़े पाठक वर्ग का ध्यान इसलिये खींचती है कि स्त्री रचनाकार की कलम से फूल की तरह झरती गालियां सुनना और एक स्त्री द्वारा अपनी सेक्सुएलिटी को सेलेबल प्रोडक्ट की तरह हाथ में लिए घूमना उन्हें चौंकाता और पुलकाता है। दूसरे, मनोरंजन अपनी जगह ठीक है, लेकिन वहह सिरफिरी तत्ती मित्रो सरीखी स्त्री यदि लेखक की शह पाकर अपने समय का रोल मॉडल बनते हुए घर-घर अपने क्लोन पैदा करने के अभियान पर निकल पड़े तो पूरा समाज एक निगूढ़ सांकेतिक चुप्पी के साथ उस पर टूट पड़ता है। ठीक वैसे जैसे तीखे-तुर्श तेवरों में स्त्री का उद्बोधन करने वाली पुस्तक ‘सीमंतनी उपदेश‘ प्रकाशन के कुछ ही समय बाद अंडरग्राउंड कर दी गई। मित्रो जीवित है क्योंकि वह भवानी की तरह अपनी शक्ति के मद में इतराती स्त्री के पुन: पतिव्रता बन जाने की कहानी है। और मजेदार बात यह है कि कथा में यह वरण स्वयं उसका अपना ऐच्छिक वरण है।

मित्रो की विडंबना यह है कि ‘मैं तो चंद्र खिलौना लैहों‘ के तिरिया हठ को वह पालती जरूर है, लेकिन बाल-बुद्धि के कारण थाली के पानी में डोलते चांद के अक्स को अपना अभीष्ट समझ मुदित हो जाती है। वह अपनी सारी ताकत मां की बुरी नीयत को भांपनेवऔर उस से दो-दो हाथ करने में लगा देती है, तनिक रुक कर अपनी ही उस टिप्पणी पर विचार नहीं करती कि “जिंद जान का यह कैसा व्यापार? अपने लड़के बीज डालें तो पुण्य। दूजे डालें तो कुकर्म।”लेकिन फिर भी तमाम खामियों के बावजूद मित्रों को खारिज करना आसान नहीं। वह ध्यान ही नहीं खींचती, चेतना पर चुंबक की तरह चिपक भी जाती है। इसलिए कि सुहागवंती जैसी स्त्रियां जहां अपने आसपास के माहौल और भीतर उठते सवालों-आकांक्षाओं से बेखबर रहकर अपने को शून्य में विघटित करते-करते पहाड़ सी जिंदगी एक लीक पर चल कर गुजार लेती हैं, वही मित्रो बाखबर भी है और अपना हक पा लेने के लिए मुस्तैद भी। नैतिकता के दोहरे मानदंड और ‘अवैध‘ संतान जैसे अवधारणाएं स्त्री को नैतिक-आत्मिक रूप से नि:शेष करने हेतु गढ़ी गई संरचनाएं हैं, अन्यथा कौन नहीं जानता कि नियोग जैसे परंपराएं और पुत्रेष्टि यज्ञ जैसे संस्कार ‘अवैध‘ और ‘अनीति‘ को पूरे तंत्र-शास्त्र-व्यवस्था की ताकत के साथ ‘वैध‘ करने के तरीके हैं। कृष्णा सोबती चाहतीं तो फूलांवंती के कपटपूर्ण आचरण को चिंदी-चिंदी उड़ाने के लिए मित्रो की नेकनीयती को बड़ी लकीर की तरह खींचकर ही संतुष्ट न होतीं, बल्कि उसके निर्भीक-दबंग तेवरों को वैचारिक आलोड़न और दिशा देकर उसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था का पुनरीक्षण करने को प्रेरित करतीं। घरेलू हिंसा, पुरुष की श्रेष्ठता, अदृश्य एवं अनुत्पादक कर दिए गए स्त्री-श्रम का दोहन और अवमूल्यन, परावलंबन की अपमानभरी पीड़ा,मैरिटल रेप, और इन्द्रियविहीन होकर जीने की यंत्रणा - ये कुछ ऐसे मुद्दे हैं जिन्हें वह अपनी ‘आजादी‘ के लिए नहीं, ‘मुक्ति‘ के लिए एक-एक कर उठा सकती थी। मित्रो अपने प्रथम दर्शन के साथ ही एक उम्मीद की तरह पाठक के सामने सतरंगी इंद्रधनुष का आकार लेती है, लेकिन अंतिम परिणति में सांप की केंचुल बनकर वह पाठक के भीतर एक निरूपाय खीझ ही जगा पाती है। ठीक कहती हैं कृष्णा सोबती कि “आप की आजादी पर अंकुश वह नहीं जिसकी अपेक्षा दूसरे आपसे करते हैं। वे हैं जो लचीलेपन में आप में और एक बड़ी दुनिया से तादात्म्य कायम करने की सामर्थ आपको देते हैं।नतीजा, आप जिंदगी से बहुत कुछ बटोरने की हसरतें नहीं पाले रहते और न ही अपने को बलि का बकरा समझते चलते हैं। ठीक इसके उल्टे समझौतापरस्ती में गर्क भी नहीं हो जाते हैं। आप व्यक्ति की हैसियत से अपने और दूसरों के अधिकार जांचते हैं। न आप घेराव में रहना चाहते हैं,न किसी का घेराव करना चाहते हैं। आप स्वयं अपनी सामर्थ्य और सीमा से जूझना चाहते हैं। अपने ही बल पर कुछ पा लेना चाहते हैं। ……. आपकी आजादी पर अंकुश वे नहीं जिसकी अपेक्षा दूसरे आपसे करते हैं। वे हैं जो आपके अपने विवेक और आप की स्वतंत्रता को परिभाषित करते हैं, आप की विवशताओं को नहीं।”( सोबती एक सोहबत, पृ० ४०१) अपनी धारणाओं (कनविक्शंस) को सिद्धांत-कथन के तौर पर कहना जितना आसान है, कथा में पिरो कर उसे कलात्मक उत्कर्ष देना उतना ही कठिन। यह मित्रो और उसकी प्रणेता दोनों की कमजोरी है कि मित्रो अपने समय की साजिशों को बेनकाब करने का हौसला, संयम, विचार और अंतर्दृष्टि अर्जित नहीं कर पाती। अलबत्ता अपनी ‘घर वापसी‘ के साथ यथास्थितिवादियों के लिए सुकून का सरंजाम तो जुटा ही लेती है जो सास धनवंती की तरह आठों पहर यही दुआ करते हैं कि “इस नक्कछिकनी के जी में भी कोई ऐसा मंत्र फूंक कि बहू बन पुरखों के कुल-कबीले की इज्जत-पत तो रख ले।”

मुझे लगता है मित्रो को लेकर मैं कुछ ज्यादा ही बेरहम हो गई हूं। शायद इसलिए कि जहां कमजोर से टकराने की बजाय उसकी सलामती का ख्याल उसके गुण और दोषों को एक ही रंगत में ढाल देता है, वहीं दमदार को पछाड़ने के लिए खोज-खोज कर दुर्बलताएं निकाली जाती हैं। अंतिम मूल्यांकन में मित्रो की पारिवारिक पृष्ठभूमि को ज्यादा तूल नहीं देना चाहती, लेकिन परिवार संस्था की समीक्षा किए बिना परिवार संस्था में सुरक्षा का अंधमोहवश उसे मेरी नजर में अपरिपक्व स्त्री बना देता है। जानती हूं, कोई पलट कर मुझसे यही सवाल पूछ ले कि ‘परिवार संस्था का विकल्प क्या है आपके पास”, तो मैं निरुत्तर उसे ही एकटक देखती रहूंगी। सिंगल मदरहुड से लेकर लिव इन रिलेशनशिप तक के लंबे सफर में स्त्री आज तक न विवाह संस्था का कोई माकूल विकल्प खोज पाई है, न विवाह को अनावश्यक मान खारिज कर सकी है। इसलिए झुंझलाहट भी होती है कि अपने अतिनाटकीय लटकों-झटकों और ‘कंजरियों‘- सी वेशभूषा के चौंकाऊपन से किनारा कर यदि मित्रो और उसकी रचयिता ने सेक्सुअलिटी के प्रदर्शन-आमंत्रण की बजाय इसी स्त्री-सेक्सुएलिटीव का दमन करने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बनावट को समझा होता, और सौ-सौ कौरव जनने की मुराद में सरदारी को रिझाने की बजाए उसे संवेदनशील बनाने का उपक्रम किया होता तो मित्रो ‘मरजानी‘ जैसे लाड भरे विशेषण के साथ बहुतों के दिल में बेशक न उतरती, लेकिन स्त्री-योद्धाओं की फौज का एक यादगार सिपहसालार जरूर बन जाती।

कृष्णा सोबती का समूचा लेखन चिंतन की बजाय उच्छ्वास की नोक पर टिका हुआ है। प्रबंधात्मकता और ब्यौरों का निर्वाह उनके वश की बात नहीं। यहां तक कि ‘जिंदगीनामा‘ जैसी पृथुल रचना में भी समय के संजीदा सवालों से टकराने की गंभीरता नहीं, स्मृतियों में उमड़ पड़ते छोटे-छोटे काल-खंडों, चरित्रों, घटनाओं,हूकों और मीठी जुगालियों को एक चटकीले तैल- चित्र में टांक देने की मुस्तैदी है। हां, एक खूबी जरूर है उनके लेखन में कि वे अवसाद को नहीं, उल्लास को अपनी कहन की टेक बनाती हैं। इसलिए धूप के चटकीले रंगों में नहाया कथा-परिवेश ताजगी के साथ-साथ ऊर्जा और आलोक भी देता चलता है। आँसू, करुणा, आत्मदया, आत्म-पीड़न, त्याग - साहित्य के प्रचलित मुहावरों से परहेज कर कृष्णा सोबती अपनी नायिकाओं को पहाड़ी झरने सा रूप देती हैं।

मित्रों की कथा-यात्रा को लेखिका जिस मोड़ पर ले जाकर छोड़ देती हैं, मैं वहीं से उल्टे पैरों नहीं लौट पाती, बल्कि उसके साथ रफ्ता-रफ्ता चलते हुए उसकी जिंदगी में दाखिल हो जाना चाहती हूं। देखती हूं, उस कठकरेज औरत में अपने फैसलों पर टिके रहने की कुव्वत जरूरत से ज्यादा है, और पर फैला कर उड़ जाने की चाहत में पैर सिकोड़ कर सोने का लचीलापन धीरे-धीरे उसने अर्जित कर लिया है। दरअसल यही वह बिंदु है जहां अपनी प्रतिक्रिया को भाषा की गुलेल पर तानकर दूसरे पर फेंकने की जगह उसने उसे हौले से भीतरी तहखाने में समेट लेने का हुनर सीख लिया है। अनकही प्रतिक्रिया घुटन बनकर जब मन के आकाश पर घुमड़ती है तो स्थितियों के रेशे-रेशे को उलट-पलट कर उसकी बनावट की जांच कर लेना चाहती है। परिवार हमेशा अपने को या दूसरों को कठघरे में खड़ा करने की जगह नहीं है। इसलिए आरोप-प्रत्यारोप के अनंत सिलसिले आत्मान्वेषण की कवायद में ढल जाया करते हैं। मैं पूछना चाहती हूं मित्रो से कि घर लौटने के निर्णय ने भले ही परिवार के रिसते जख्मों पर मरहम लगाई होगी, लेकिन शुकराना पेश करने के एवज में उसने (पति और परिवार ने) अपने अक्खड़-हिंसक तेवरों पर क्या लगाम लगाई होगी? “इसे ज़िद चढ़ी है तो तू ही आंख नीची कर ले बेटी। मर्द-मालिक का सामना हम बेचारियों को क्या सोहे!” सास की यह सीख कोई अनहोनी नहीं, परंपरासम्मत स्त्री सुबोधिनी है। सुन सुनकर क्या जी नहीं जलता होगा? तत्ती मित्रो नहीं, अम्मू में कायांतरित हो गई मित्रो मेरे इस सवाल का जवाब देती है - आंखों में मीठी-तीती स्मृतियों का कोलाज पिरो कर - “ गृहस्थी में पांव रख कर स्त्री का जो मंथन-मर्दन होता है, वह भूचाल के झटकों से कम नहीं होता। औरत सहन कर लेती है क्योंकि उसे सहन करना पड़ता है।” साथ ही एक लंबी सांस छोड़ और उतने ही लंबे अंतराल के बाद वह यह कहना भी नहीं भूलती कि “जो मन में सोचें और कर पाएं, वहीं सर्वोत्तम प्रसाद है।” न, गृहस्थ में लय हो जाने का मतलब अपने को बिसरा-बिखरा देना नहीं है, अपनी हस्ती को मजबूती से थामे रखना है - “ मैं मां जरूर हूं, पर अलग हूं। मैं मैं हूं। मैं तुम नहीं, और तुम मैं नहीं।” ठीक मित्रो से बांके तेवर और अपनी पसंद-नापसंद के इजहार का ठीक वही तुर्श अंदाज! मैं ‘मित्रो मरजानी‘ के अविभाज्य अंश की तरह ‘ऐ लड़की‘ के पाठ को इसमें जोड़कर ही मित्रो की मुकम्मल तस्वीर तैयार करना चाहती हूं। तब एक लंबी उम्र तक कदम दर कदम चली उस दरियाई नार में मुझे बरसाती उफान नहीं दीख पड़ता; दिखाई पड़ती है समुद्र की गहराई। जिंदगी की तरह परिवार की इबारत भी पल-पल अपना रूप बदलती चलती है। इसलिए न उसका इकहरा पाठ संभव है, न किसी एक कोण पर खड़े होकर निकाले गए निष्कर्ष को अंतिम फैसला मानने की जिद।मैं अम्मू के एक कथन को मनन की आधारभूमि के रूप में उठा ले आती हूं कि “निधि चुक जाए तो शक्ति का भंडार नि:शेष। बुढ़ापा इसे ही तो कहते हैं।” सोचती हूं, बालो के बुढ़ापे में अपने बुढ़ापे की सूरत देख क्या मित्रो इसलिए सिहर गई थी कि जिस देह को वह अपनी निधि - इलाही ताकत - मानती है, वह सेमल के फूल की तरह चार दिन का खेल है। लेकिन यह निधि पति का साया-संरक्षण भी तो नहीं है न! महादेवी वर्मा तो ‘हिंदू स्त्री का पत्नीत्व‘ में इस तथाकथित निधि को गरियाते हुए इसे स्त्री के लिए बेहद अपमानजनक बताती हैं। मित्रो की घर वापसी बेशक ‘मित्रो मरजानी‘ के कलेवर में पितृसत्तात्मक व्यवस्था को मजबूत करती योजना के रूप में उभरती हो, ‘ऐ लड़की‘ की अम्मूवमें ढलकर वह पितृसत्तात्मक व्यवस्था की शिनाख्त की जमीन मुहैया कराती है। तो क्या यह निधि स्त्री की अपनी मानवीय अस्मिता है? निर्णय लेने की स्वतंत्रता, आर्थिक आत्मनिर्भरता, तार्किकता, विवेकशीलता और गत्यात्मकता की दीप्ति से देदीप्यमान स्त्री अस्मिता?

बेशक मुक्ति न देह की है, न संबंधों से है। मुक्ति देह और संबंधों की जकड़बंदी करने वाली सोच से है जो देह में स्थित दिमाग और हृदय के सानुपातिक सक्रिय गठजोड़ के बिना संभव नहीं।



- रोहिणी अग्रवाल



प्रोफेसर, हिंदी विभाग, महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक, हरियाणा
फ़ोन नंबर: 9416053847
rohini1959@gamil.com

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