Sunday, January 26, 2014

हमारा गणतन्त्र- शैलजा पाठक की कविताएं

शैलजा पाठक  
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1..हमारा गणतन्त्र ..

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चिरई गाँव के प्राथमिक पाठशाला 
में बच्चे सफाई में जुटे हैं 
ईटा पे गेरू लगा कर सब साफ़ सुफ़ 
कल गणतन्त्र दिवस पर सभी को 
एक लड्डू एक समोसा देने वाले हैं 

सबसे परेशां मिसिर गुरु जी है 
रंगारंग कार्यक्रम  की जिम्मेवारी है उनपर 
अब कोई लड़की इस साल भारत माता 
बनने को तैयार नही 
अब उन्हीं को केंद्र में रख कर 
सारी बात सारा शपथ तो लेना है 

लड़कियों ने निर्णय ले लिया है 
हर साल का मजाक है 
कभी भारत माता को टुटा हुआ दिखाना है 
कभी झुका हुआ कभी चोट खाया कभी रक्तरंजित 
कभी तार तार अस्मिता 
इस बार एक सावली लड़की 
को भारत माता बनाते तो फीलिंग उभर कर आता  
पर इस बार लड़कियों की फीलिंग जाग गई है 
सूखी नदी दरकते पहाड़ फटे कपडे पहन कर भ्रस्टाचार
गरीब का रोल अब हम नही करेंगे 
हर साल आपका लिखा एक जैसा भाषण भी नही बोलेंगे 

नही गुरु जी कल हम सब नही आयेंगे 
अम्मा तो कहती रही भारत माता को 
खूब चटक पिली साडी में खूब गहना पहनाकर 
ये बड़ा टिका लगाकर सब रंगबिरंगा नाच करते थे
हरियाली खुशहाली का गीत गाते थे  

हमे भी खूब नाचना है पाउडर लाली लगा कर 

उस तीन रंग के नीचे रंग रंग हो जाना है गुरु जी ......


२ ..कजरी ..

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ससुराल से पहली बार 
आई कजरी गुम सुम सी है 
कम हंसती है 

अकेले कोने में बैठ कर 
काढ़ती है तकिया के खोल 
पर हरा सुग्गा 

सहमी सी रहती है 
आने जाने वालों से नही मिलती

देर तक बेलती रहती है रोटी 
इतनी की फट जाये 

माई बाप अगली विदाई की 
तैयारी में लगे हैं 
छोटी बहन जीजा को लेकर 
जरा छेड़ती है 

आसपडोस वालों में किसी" नइ खबर "
की सुगबुगाहट 

ससुराल से वापस आई लड़कियां 
बस लाती है तथाकथित नइ खबरे 
ये मान लेते हैं सब 

कोई जानना नही चाहता ..कजरी छुपा लेती है 
वो दाग जो दुखता है हर घडी 

बाप जूटा रहा है विदाई का सामान 

कजरी के मेजपोस पर हरा सुग्गा 
एक काले पिंजरे में बंद है 

सुई चुभती है 
कजरी की उँगलियों से निकलने वाला 
रंग सुग्गा के चोच जितना गहरा है ....

३ ..जब मिलते हो तुम ..

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जब नही सोचती हू तुम्हे 
तब मैं कुछ नही सोचती 
पैर के नखों से कुरेदती हू 
जमीं का पथरिलापन 
तब तक  जब तक 
अंगूठे दर्द से बिलबिला ना उठे 

जब मैं नही मिलती तुमसे 
तब मैं किसी से नही मिलती 
जरा से बादलों को खीचकर 
ढक देती हूँ आईना 
तुम धुंधले हो जाते हो 

और जब मिलते हो तुम 
मैं आसमानी ख्वाबो में लिपटी 
पूरी दुनिया को बदला हुआ 
देखती हूं की जैसे पेड कुछ बड़े और हरे हो गए 

पोखर का पानी साफ़ है 
बिना मौसम ही खिले हैं खूब सारे 
कमल दहकते रंग के 
मेरी आँखों में खूब सारी 
जिंदगी छलक रही है 
मेरे हाथों में मेहदी का 
रंग और महक 

ऊपर आसमान में उड़ते 
दो पतंग एक दूसरे से 
गले मिलते हुए 

जब मैं तुमसे मिलती हू 
तब मैं मिलती हूं 
अपने आप से .......

४ ..स्त्रियाँ ...

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स्त्रीयों का कोई वर्ग नही होता 
धर्म नही जात नही होता 
सब मिलकर बस वो स्त्री होती है 

कुछ प्रकार होते है 

कुछ ऐसी जिनकी चमचमाती 
गाड़ियों के पीछे काले शीशे होते हैं 
उनके तलवे नर्म मुलायम होते हैं 
उनके निचे जमीं नही होती 
वो लडखडाती चलती हैं 

कुछ ऐसी जो गाली खाती है 
मार खाती है और अपने आप को 
अपने बच्चो के लिए बचाती है 

एक ऐसी जो अपने को दाव पर लगा कर 
पति के सपनों को पंख देती है 

और एक ऐसी जो सपने नही देखती 
एक वो जो जलती भुनती अपने 
मुस्कराहट को सामान्य बनाए रखती है 

कुछ स्त्रियाँ मरी हुई एक देह होती हैं 
मशीनी दिनचर्या की धुरी पर 
घुरघुराती काम निपटाती 


ये सभी प्रकार की स्त्रियाँ 
मरती हैं एक सी मौत 

जब इनका सौदा किया जाता है 
जब इन्हें रौदा जाता है 
जब इनके गर्भ में इन्हीं का कतल होता है 
इनके आसुओं का रंग लाल होता है 

दर्द के थक्के जमे होते है इनकी देंह में .....


५ ..बसंत

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मुरझाये मसले फूलों के साथ पंडित जी 
गावं के तुरहा टोला में 
बाँटते रहते है बसंत 

अम्मा खटिया की सुतरी कसती हुई 
गाती थी ...निरमोहिया याद तू आये 
हवा में तैरता था बसंत 
फिर वही तुलसी के चौरे में 
उग आता था एक दिन 

प्रेम से भरी चिठ्ठी 
पढते हुये 
दीदी ऊपर वाले छत पर 
हवाओं में कस कर पकड़ रखती थी 
जिसमे लिखी होती थी बासंती बातें 
उसके लम्बे इन्तजार में 
बसंत उसकी आँखों में तैरता 

मैं खोमचे वाली बुढिया के लिए 
लिखती एक पत्र जिसमे 
अपनी झुर्रियों पड़े शरीर से कमाए 
रुपये मनीआडर करते हुए 
अपनी पतझड़ सी जिंदगी से 
चुरा कर कुछ बसंत वो भेज दिया करती 

बरसों बाद घर आये अपने 
बिछड़े बेटे के दाल में घी 
बनकर तैरता बसंत 

बसंत बस पेड़ों पर नही आता 
खेतों में लहलहाता ही नही 

हमारी ये पहली होली है ना ?

प्रेमी के ऐसा कहने से रंग जाती है प्रेमिका 
तेज होती धड़कने आँखों के समन्दर में 
डूब जाता है बसंत ....

६ ..इन्तजार

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इन्तजार किया इतना 

की सूख गए कुओं के पानी 
बेमौत मर गई मछलियां 

रास्ते पर बिखरी रही 
सफ़ेद आँखें 

पलटते गए कैलेण्डर 
के तारीख 

खिडकियों के पर्दों पर 
पड़ने लगी उम्र की 
झुर्रियां 

फेर ली सूरज  ने नजर 
सिली सी है जिंदगी 

धडकता है इन्तजार 
फिर भी ....

७ ..गाँव की गुडिया

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उसकी आंखो से 
एक गरम नदी निकलती है 

एक ठंढी साँझ का 
उदास सूरज 
डूबता है उसकी 
गहरी आँखों में 

बेअसर दस्तकों से 
नही कांपते दरवाजे 

गीतों के धुन पर 
नहीं लरजते होठ 

सुना है एक रंगीन 
शहर में भेज दी गई 

गाँव की गुडिया 
अपनी परछाइयों में छूती है 
गाँव का पीपल 

जीने की कोशिश में 
मुस्कराती है 

और मर जाती है 
अगले ही पल ........

6 comments:

  1. शैलजा इस मंच की उपलब्द्धि हैं | इसने जिन कुछ जेनुइन लोगों को हमसे मिलाया है, उनमे शैलजा भी हैं | उनका लेखन न सिर्फ चित्रात्मक लेखन है, वरन यह एक दृश्यात्मक लेखन भी है | आप इनकी कविताओं में अपना होना भी महसूस करते हैं, और उस होने को देख भी सकते हैं | और किसी भी लेखन की यह सबसे बड़ी सार्थकता होती है, जब वह आपको दृश्य दिखा सके | फुर्गुदिया पर उन्हें देखना अच्छा लगा | उन्हें बधाई और फुर्गुदिया का आभार |

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  2. बेहद खूबसूरत ,ताजगी भरी कविताएं । स्त्री ,वसन्त ,इन्जजार ..सब बहुत ही अलग सी कविताएं हैं । बधाई शैलजा .आभार शोभना जी .

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  3. aabhaar aap sabhi ka n shukriya shobha di

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  4. कविता जिसमे माँ और ममत्व हो अपना और अपनत्व हो वह निश्चित ही एक मार्मिक और भावनात्मक कविता होती है यदि उसमे अपने देशी शब्द पिरो दिए जाते तो कविता भूषण युक्त बनिता की भांति सुशोभित होने है। आइये शैलजा पाठक जी की एक कविता में ममत्व का पुट देखते है जिसको मैंने अपने बचपन जिया है।
    'एक छोटे बच्चे की हथेली में
    तेल से तेल से अम्मा एक गोल बनाती
    कहती ये लो लड्डू '
    x x x x x x x x x x
    मीठा हो जाता
    गप गप खा जाता लड्डू पेड़ा
    खुशियों आँगन में ममता की बड़ी घनी छाँव होती है '

    आइये देखते है देशज शब्द के साथ वह अनुत्तरित प्रश्न जो आज भी उत्तरयुक्त नहीं सका।
    'मझली चाची के हल्दियाइन हाथ
    टह लाल आँखे
    चूल्हे पर खदकते अदहन से सवाल '

    आज आधुनिकता के परिवेश जहां कूकर में चावल बनता हैं वहाँ अदहन शब्द बिलुप्त होता जा रहा है अदहन शब्द जहा अपनी मिटटी से शैलजा जी ने जोड़ा है वही स्त्रियोंके अनुत्तरित सवाल को भी रखा है।

    एक बेहद उन्दा कविता ! (मैं एक देह हूँ ,फिर देहरी से )

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  5. शैलजा ने अपनी भाषाई उत्कृष्टता और गहरी संवेदना से एक अमिट छाप छोड़ी है।

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