Wednesday, January 15, 2014

खुरचे हुए शब्द--दीप्ति शर्मा की कवितायें


दीप्ति शर्मा 
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1.कुबड़ी आधुनिकता


मेरा शहर खाँस रहा है
सुगबुगाता हुआ काँप रहा है
सडांध मारती नालियाँ
चिमनियों से उड‌‌ता धुआँ
और झुकी हुयी पेडों की टहनियाँ
सलामी दे रहीं हैं
शहर के कूबड पर सरकती गाडियों को ,
और वहीं इमारत की ऊपरी मंजिल से
काँच की खिड़की से झाँकती एक लड़की
किताबों में छपी बैलगाड़ियाँ देख रही है
जो शहर के कूबड पर रेंगती थीं
किनारे खड़े बरगद के पेड़
बहुत से भाले लिये
सलामी दे रहे होते थे।
कुछ नहीं बदला आज तक
ना सड़क के कूबड़ जैसे हालात
ना उस पर दौड़ती /रैंगती गाड़ियाँ
आज भी सब वैसा ही है
बस आज वक़्त ने
आधुनिकता की चादर ओढ़ ली है ।




2. दमित इच्छा
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इंद्रियों का फैलता जाल
भीतर तक चीरता
माँस के लटके चिथड़े
चोटिल हूँ बताता है
मटर की फली की भाँति
कोई बात कैद है
उस छिलके में
जिसे खोल दूँ तो
ये इंद्रियाँ घेर लेंगी
और भेदती रहेंगी उसे
परत दर परत
लहुलुहाल होने तक
बिसरे खून की छाप के साथ
क्या मोक्ष पा जायेगी
या परत दर परत उतारेगी
अपना वजूद / अस्तित्व
या जल जायेगी
चूल्हें की राख की तरह
वो एक बात
जो अब सुलगने लगी है।


3- पोटली

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इस समतल पर पॉव रख
वो चल दी है आकाश की ओर
हवाओं का झूला और
घाम का संचय कर
शाम के बादलों से निमित्त रास्ते से
अपने गूंगेपन के साथ
वो टहनियों में बांधकर
आंसूओं की पोटली ले जा रही है
टटोलकर कुछ बादलों को
वो सौंप देगी ये पोटली
फिर चली आयेगी उसी राह से
फडफडाती आंखों की चमक के साथ
इसी उम्मीद में कि अब इन शहरों में
बारिसों का शोर सुनाई नहीं देगा
लोग उत्साहित होंगें पानी के सम्वाद से
क्योंकि भरे हैं अब भी
दुख उसी पोटली में
जो बादलों ने सम्भाल रखी है




4-खुरचे हुए शब्द
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खुरचे हुए शब्द
नाखूनों से , दांतो से
और निगाहों से
बेजान हैं जान नहीं बची
वो अंडे भी तो टूट चुके हैं
उस घोंसले में बेवक़्त
और ढो रहा है भार
वो घोंसला
उन टूटे अंडों का
और तब से अब तक उसमें
कोई नया अंडा नहीं जन्मा
कहीं खुरच तो नहीं गया ??
वो घोंसला भी
शब्दों की तरह
ये शब्द तो पढे नहीं जाते
और उस घोंसले में भी तो
कोई रहने नहीं आता
कि कहीं खुरच के
बेवक़्त कोई और
अंडा फूट ना जाये ।
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-दीप्ति शर्मा

परिचय -
नाम - दीप्ति शर्मा
जन्म तिथि - 20 फरवरी
जन्म स्थान - आगरा
प्रारम्भिक शिक्षा - पिथौरागढ़ 6 क्लास तक ..  फिर 2 साल भीमताल .. और अब आगरा
में 
 बी .टेक 

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