Sunday, March 17, 2013

दीपक अरोड़ा की प्रेम कवितायें


दीपक अरोड़ा      


     " दीपक अरोड़ा  ने शब्दों की दुनिया में नए आयाम बनाए हैं ,नए प्रतिमान तय किये हैं .दीपक की कलम से जैसी प्रेम कवितायें निकली हैं ,वो अपने आप में एक मिसाल हैं .वही एक भाव प्रेम , और कैसे कैसे अनूठे बिम्ब ... .दीपक का पाठक-वर्ग खुद को खो देता है उस दुनिया में और मूक सा बार बार अपने भाव प्रकट करने की असफल कोशिश में अंततः दीपक के पास ही पहुँचता है ..और कह उठता है --आह ! प्रेम .." 

                                                                                                        वंदना ग्रोवर
1- 
अनिद्रा के तकिये पर सर रख,

बेहोश सोती है लड़की,

अर्धरात्रि के किसी अनचीन्हे पल में,

अपनी छाती पर टिक गये अपने ही हाथ को,

पा खोल देती है आँख,

बची रात में नींद तिलचिट्टों सी आँख में रेंगती है .


परिचित सह्याद्रियों के साथ के मील पत्थर,

स्मृतियों में कील से गढ़ते हैं,

रात गहराते किसी अदृश्य गंध सा,

सोते चेहरे पर मक्खियों की तरह बैठता है,

कोई अवांछित,परिचित स्पर्श,

नींद छत के पंखे के साथ घूमती है,

गोल ,काली और भूरी उन के गोले सी .


चेतना की परत को छूने लगती है,

छिपते सूर्य की रौशनी,

लड़की सैंडल के तलवे पर रखती है ऊँगली,

पूछती है सही जमीन का पता,

अगला कदम रखने को ,

मेट्रो की तीखी किनारी वाला कार्ड,

चढ़ने और उतरने की सही जगह बता देगा,

मिला तो .


लेम्प पोस्ट की रौशनी में चलते,

अपनी पदचाप से चौंक -नहीं डर जाती है लड़की,

मानती है मन्नत,

मत कहीं घर पहुँचने से पहले गुल हो जाए बत्ती,

अपने भीतर ही उग आये एक गहरा अँधेरा,

सारे अस्तित्व को घेर लेता है एक कुंडली दार अजगर,

टप्पे खाती फुटबाल सा कुछ,

पसलियों से बजता है धाड़ धाड़ .


घर लौटी लड़की सुनिश्चित नहीं होती लौट कर भी,

सोते हुए लेती है दो तकिये,

एक सर के लिए ,एक खुद के लिए ."



2-
तुम्हारी पदचाप ने कहा ,

तुम यहीं हो बहुत पास,

मैंने और गहरे खोदा भूमि को ,

और दुबक कर बैठ गया, 

एक डरे उदबिलाव की तरह .

तुम्हारी स्थिर चाल ने बताया,

तुम्हारा चले जाना,

बिल से सर निकाल कर मैंने देखा ,

तुम्हारा ना होना ,

तुम्हारे पाँव के पीछे छूटे निशान को,

कुरेदा मैंने अपने पंजे से ,

पाया तुम यहीं हो ,


लगने और होने के बीच का फर्क,

मेरे पंजों में छपा है,

हलकी हरी घास की प्याज सी गाँठ,

मिटटी उतार मैं अपने मुहं से चखता हूँ ,

तुम्हें पहली बार चूमा याद आता है,

फिर फिर फिर .


रोज़ और गहरा और चौड़ा करता हूँ,

अपने बिल को मैं,

हवा की तरह ख़ामोशी से चलती तुम,

एक दिन दाखिल होगी इसमें ,

तुम्हारी ऊष्मा से भरा मैं,

मिटटी को लिपटा लूँगा तन से .


उस दिन हम खायेंगे एक मूंगफली,

एक साथ बिना बांटे ."



3-
ऋतुओं को नापने के लिए ,

मेरी हथेली छोटी है,

शाखों से सूखकर गिरे पत्ते ,और

उगती हुई जामुनी कोंपलें,धीरे से मुस्कुरा,

प्रश्न के उत्तर में देतीं हैं एक दिगम्बर संकेत .


हवन की वेदी में धधक कर,

उत्तर देती हैं,आम ,बेरी ,पीपल जामुन की लकडियाँ,

याद करती हैं,यौवन के दिन,

स्मृति पटल पर छप जाती हैं फिर फिर,

जड़ में उगी दीमकों की बांबी,और

स्वाद भर बदलने को चुभती,

कठफोड़वा की तीखी चोंच से जन्मी टीस


परिक्रमा करते ताम्बई लोटों से छलकता है दूध,

लाल धागों ,और कामनाओं से बंधा बरगद,

एडियों के नीचे पड़े,अक्षत और सिंधूर को,

अपने पत्ते टूटने से टपके दूध से धोता है,

कौवों के बैठने के लिए फैला देता है बाहें,

नीम को देता है कड़वाहट धोती एक स्निग्ध मुस्कान.


बूढ़े वृक्ष छूते हैं झरते हुए बुढ़ापे को,

दुनिया बचाने का यह उनका अपना तरीका है,

शांति से अनगिनत सूर्यास्त देखने के बाद,

एक दिन अचानक वे तय करते हैं,

फिर से सूखी लकड़ी होना ,और

जाने कैसे उनके कट जाने के कुछ ही दिन बाद ,

वहीँ उग आता है एक छोटा सा पौधा .


(मैं निष्कर्ष नहीं निकालता पर अक्सर लगता है मुझे ,दुनिया झूला झूलती है ,लकड़ी और बीज के बीच कहीं )"




4-
.कल से निरंतर भूख से श्रृंगारित स्त्री ने,

संझा को चाँद से बात कर खाया कुछ ,और

कुछ छोड़ दिया उनके लिए,

कौवो का बोलना जिनके लिए नहीं है पूर्वाभास,

प्रिय के आगमन का.


वे जिनके लिए तय किया जाता है केश तर्पण,कि

किन्हीं और विस्फरित नेत्रों से ताका जाना,

विस्मृत उसे, नहीं भुलाये ,

कुछ गहरे लाल पीले रंगों की अनुपस्थिति से उपजे ,

ओढ़े गये वैराग्य और उदासी के घोल में,

अनुदानित कार्तिकेय प्रात: शीत स्नान का,


कल ! दिन भर मौन रहा मैं,और

सुना मैंने,छनकती कांच की चूड़ियों से रिसता,

उपेक्षिताओं का मौन विलाप,

जरूर,मैं नहीं बन पाया चित्रकार,कि

कभी नहीं जान पाया मैं औरत को प्रिय सही ,

पर जरूरी भी नहीं है,लाल रंग ही .


(कल इसे कहना अपशगुन माना जाता ,सो नहीं कहा )

( विलम्ब के लिए क्षमा निराश्रित स्त्री )"

1 comments:

  1. दीपक जी का काव्य संग्रह "वक्त के होंठों पर एक प्रेम गीत "पढ़ा है...लाजवाब कवितायें....
    हर रचना बाँध लेती है...
    बधाई दीपक जी को,

    शुभकामनाएं..
    अनु

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