Tuesday, March 12, 2013

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?


महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
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महिलाओं के लिए 'आधी आबादी' का संबोधन क्या संप्रेषित करता है .?
महिलायें जिस स्वतंत्रता की खोज में हैं ,उसका आरम्भ कहाँ से होता दिखाई देता है .. क्या पर्याप्त है उसके लिए कुछ धरने,कुछ भाषण ,कुछ मार्च .
रेप, मोलेस्टेशन जैसी घटनाओं के बाद पुरुष वर्ग न्याय की मांग के लिए तो महिलाओं के साथ खड़े हो जातें है लेकिन उपलब्धियों के शिखर पर पहुँचती हुई स्त्री को देखकर उसी पुरुष के अहंकार को ठेस पहुँचता है . सार्वजनिक स्थलों पर लड़कियों और महिलाओं को घूरती हुई पुरुषों की आँखों को देखकर नहीं लगता की वो स्त्री को देह से अधिक कुछ समझतें हैं ..

फेसबुक जैसी सोशल साइट्स पर महिलाओं के प्रति पुरूषों का रवैया , महिलाओं की वाल एक्टिविटी .. उनका प्रोफाइल फोटो चेंज करना .. पोस्ट पर लाइक, कमेन्ट को देखकर पुरुषों की तीखी प्रतिक्रियाये .
साहित्य जगत की बात करें तो महिलाओं की उपलब्धियों को लेकर महिलाओं-पुरुषों द्वारा समान रूप से उनके ऊपर गलत रास्ते अपनाने का इलज़ाम लगाना क्या उनको मात्र शरीर मान लेने की बात को पुख्ता नहीं करता .

कामकाजी महिलाओं को कई तरह की समस्याओं का सामना करना पड़ता है ... वो समस्याएँ किस तरह की हैं .. उनका हल क्या होना चाहिए ... इन सभी बातों पर एक सामूहिक चर्चा जरुरी है ..क्या आपको लगता है कि दोषारोपण बंद कर के इस आन्दोलन को अपने भीतर से शुरू करने की ज़रुरत है .??

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन के लिए मन में कुछ प्रश्न थे ... कुछ  महिलायें जिनमें  गृहिणी, अध्यापिका और लेखिकायें शामिल हैं  उनकी प्रतिक्रया कुछ इस तरह थी ..

 
                                                       
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रोली पाठक                                             
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हम सिर्फ आज ही के दिन नारी के अधिकार व उसके अस्तित्व की बातें करते हैं, क्यों ?
नारी जननी है | घर की इज्ज़त है | पिता का अभिमान, भाई का मान व ससुराल का सम्मान है, जिस पर कभी ठेस नहीं लगनी चाहिए , किन्तु वह स्वयं के लिए क्या है ???

महिलाएं कई प्रकार की होती हैं - शिक्षित महिलाएं, आत्म-निर्भर महिलाएं, घरेलू महिला, समाज-सेविका, संघर्षरत महिला, ग्रामीण महिला, दमित महिला, क्रांतिकारी नारी , समाज सेविका, उपभोग के लिए उपलब्ध नारी, उच्च पदस्थ महिला, राजनीति में सक्रीय नारी , मजदूर स्त्री आदि-आदि |
शहरों व महानगरों की महिलाएं निश्चित ही काफी हद तक स्वतंत्र हैं |

रहन-सहन, वेश-भूषा, निर्णय लेने के अधिकार, आत्मनिर्भरता यह सब उनके अधिकार क्षेत्र में है किन्तु नारी तो वो भी है जो हाथ भर का घूँघट निकाल कर आज भी डोली में बैठ कर जिस देहरी के अंदर आती है, उसकी अर्थी ही उसे लांघ पाती है | इसका बहुत कारण है -
अशिक्षा , रूढिवादिता , दकियानूसी परम्परायें | 

जींस पहन कर फर्राटेदार अंग्रेजी बोलना आधुनिकता नहीं है | फेसबुक, ट्विटर, कम्पूटर, लैपटॉप, टैब , मोबाइल आदि की अधिकतम जानकरी रखना आधुनिकता नहीं है | 

स्वतंत्रता या आधुनिकता है - विचारों का आधुनिकरण | यदि कोई स्त्री स्वयं को स्वतंत्र मानती है, अपना एक अस्तित्व बनाये रखना चाहती है तो आज के दौर में नारी उत्थान के लिए ही कुछ करना अत्यावश्यक है |
आज नारी ही नारी का भला करे, इस सोच को बढ़ाना है | अनपढ़ को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया जाए | समाज की कुरीतियों जैसे - बाल विवाह, कन्या भ्रूण ह्त्या आदि का पुरजोर विरोध कर इन्हें पोलियो की भाँति ही जड़ से उखाड फेंकने का संकल्प लेना चाहिए | 

विधवा विवाह, महिला शिक्षा आदि का समर्थन करना खुले विचारों के साथ करना चाहिए, ना कि आलोचना के साथ |
 
एक महिला होने के नाते ना हमें पुरुषों से बराबरी के विषय में सोचना चाहिए, ना कि उनसे कोई प्रतियोगिता रखना चाहिए , क्योंकि तुलनात्मक अध्ययन ही गलत है | प्रकृति ने पुरुष व स्त्री दोनों को समान बनाया है | हम अपनी राह पर चल कर मंजिल प्राप्त करें | समय-समय पर जिस तरह पुरुष नारी को संबल देता है , उसी तरह नारी भी सहभागिता के चलते उसे दुश्मन ना समझ कर सहयोगी, मित्र व सखा के रूप में ग्रहण करें, तब "महिला दिवस" मनाने की नौबत नहीं आएगी, क्योंकि "पुरुष दिवस" नहीं होता |
हम सकारात्मक व स्वतंत्र सोच रख कर चलेंगे तो हमारा हर दिन -
"महिला दिवस" होगा |
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- रोली पाठक


   सरोज सिंह     


"हमें सत्ता नहीं साथ चाहिये "
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महिलाओं का 'आधी आबादी' का संबोधन तब तक पूर्ण नहीं है जब तक कि अधिकारों पर आधे का अधिपत्य न हो ....और यही कारण है कि व्यवस्था को महिलाओं को "महिला दिवस"रूपी लोली पॉप से रिझाने की जरुरत पड़ती है, मैं तो "महिला दिवस" मनाने के सख्त खिलाफ हूँ ऐसा कर हम समाज में अपने को कमतर और कमजोर साबित करते हैं "पुरुष दिवस" क्यों नहीं मनाया जाता ?हालाकिं "यह खाई अरसों से बनती आई है, तो पाटने में बरसों लगेंगे "

सबसे पहले तो हमें अपने दिलो दिमाग से यह सोच निकालनी होगी की हम किसी से हीन या कमजोर हैं और हमारे लिए अलग से सहूलियतें मुहैया हों। यह जरुर है हमें इसके लिए खुद को मजबूत बहुत मजबूत करना होगा !प्रयास इस दिशा में हो न की हमें महिला काउंटर, महिला रेल,महिला नौकरी में सहूलिययतों का झुनझुना पकड़ा दिया जाए और महिला दिवस के दिन बड़ी बड़ी भाषण बाजी हो और हम संतुष्ट हो जाएँ !

".अरस्तु "ने कहा था कि-"नारी की उन्नति या अवनति पर ही राष्ट्र की उन्नति या अवनतिआधारित है।"स्वतंत्रता संग्राम के मध्य नारीयों के योगदान को देख कर महात्मा गाँधी ने कहा था कि-"नारी को अबला कहना उसका अपमान करना है।" और मै समझती हूँ अबला और नारी दिवस में कोई विशष अंतर नहीं है !

.... हाँ कुछ समस्याएं बहुत गंभीर हैं आज गर्भ से लेकर गृह तक महिलाएं कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं ! चेष्टा इस दिशा में हो और वो भी मात्र एक दिन का प्रयास नहीं इसके लिए जुझारू रूप से रोज़ की लड़ाई लड़नी होगी ......!
हमारे पोशाकों ,देर रात बाहर निकलने पर की गई आपत्तियों का डटकर करारा जवाब देना होगा ! सड़क चलते छेड़खानी ,घरेलु हिंसा ,शोषण ...पर हमें भी कमर कसनी होगी ..निरीह हो हम पुरुष,व्यवस्था और समाज से उम्मीद लगाए नहीं बैठ सकते ! हमें सत्ता नहीं साथ चाहिये ...और अंत में यही कहना है कि ........!


ना पथ प्रदर्शक ना अनुचर

हम है सभी के समानांतर

जीवन मूल्यों का निर्वाह कर

बढ़ना,निर्बाध गति से निरंतर !

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आशा पाण्डेय ओझा 

अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर सिर्फ़ और सिर्फ़ एक ही प्रश्न उठता है आख़िर यह दिवस मानाने की नौबत क्यों आ रही है .. अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस क्यों नहीं मनाया जता प्रश्न का उत्तर भी ज्ञात है ,जब तक स्त्री सभी बाधाओं को दूर करती हुई ..सफलताओं के डग भरती हुई .. सारी खाइयों व भेद को पाटती हुई आगे नहीं बढ़ेगी तब तक दीन ,हीन बनी महज दया का पात्र बनेगी रहेगी .. स्त्री दिवस मनना हमारे लिये गौरव की बात नहीं बल्कि यह साबित होता है कि हम पुरुषों के मुकाबले कमज़ोर व असहाय हैं ,यह आम धारणा जो बनी हुई है कि पुरुष अधिक बलशाली ,समर्थ है बुद्धिमान है ..पुरुषों की बनाई हुई इस धारणा को स्त्री भी स्वीकार करती आई है उसकी इस मौन स्वीकारोक्ति ने उसें कमजोर ना होते हुवे भी कमजोर सिद्द किया है .. क्योंकि स्त्री महत्वाकांक्षी नहीं है ,वो सहनशील है ..त्याग से भरी है ..ये उसके गुण ही उसके विकास में बाधक बने हैं .. जाने क्यों स्त्री अपनी ही बुराई बड़ी आसानी से सह जाती है ..जिस रामायण में तुलसीदास जी लिखते हैं ढोर ,गंवार ,क्षुद्र ,पशु नारी ये सब ताड़न के अधिकारी ..उस बात को बड़ी आसानी से पचा ही नहीं गईं बल्कि उस रामायण को माथे पर लगा कर बलाईयां लेती हैं .. बजाय प्रश्न उठाने के कि क्यों है व ताड़ना की अधिकारी ?जबकि सच्चाई यह की तुलसीदास को गोस्वामी तुलसी दास बनाने का श्रेय भी एक स्त्री के खाते में जाता है .. अकेला न पुरुष पूर्ण है न स्त्री .!.यह परम व सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक सफ़ल पुरुष के पीछे एक स्त्री है .. यानि उसका प्रेम , त्याग उसकी प्रेरणा उसका मार्गदर्शन व उसका विश्वास पुरुष को सफल बनाने के साधन हैं ,पर क्या एक सफल स्त्री के पीछे पुरुष है ?शायद बहुत कम .. जब स्त्री पुरुष के साथ सूरज लेकर चल सकती है उसें प्रगति की राह पर आगे बढ़ाने को तो पुरुष क्यों कतराता है उस स्त्री की राह में दीया भी जलने से ,,सिर्फ़ सम्मेलनों व गोष्ठियों भर में चर्चा परिचर्चा कर लेना या ..एक दिन धरना प्रदर्शन कर लेना या कोई एक दिवस भर घोषित कर देने भर से अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेता है पुरुष वर्ग .. क्या कोई पुरुष आज तक नारी की गूंगी पीड़ा को आवाज़ दे पाया है ?.. पुरुष ने स्त्री के माथे सारे कर्तव्यों के बोझ के टोकरे रख दिये ..फिर कहा यह हमारे बराबर दौड़ नहीं सकती ..स्त्री भी भी अपने सर के बोझ को बराबर बाँटने के बजाय यह मान लिया कि वाकई वो पुरुष के बराबर दौड़ नहीं सकती .वो भूल क्यों जाती है वो सृष्टि की सृजनकर्त्ता है !उसके पास पुरुष सें अधिक बौधिक व शारीरिक क्षमता है ..उसें जरुरत है संव्य के गुणों को पह्चानने की ..अपने सपनो की बात सुनने की ..पुरुषसत्तात्मक सोच को धिकियाते हुवे अपने आप को उनके बराबर खड़ा करने की ..इस पुरुष प्रधान समाज ने संसार को सदा ही खांचों में बांटा ..अंतिम खांचे में नारी को रखा .. नारी को हमेशा खुद की निजी संपत्ति समझा ..उसें अपने अनुसार हांका ..फिर उस पर कमजोर होने के इलज़ाम भी लगाये .दोहरी रणनीति खेलते इस पुरुष ने हमेशा नारी को नारी के खिलाफ़ इस्तमाल भी किया !

 अब भी यह तय है की कोई पुरुष किसी स्त्री को आगे बढ़ता हुआ नहीं देख सकता .. जब लेखन ..अधिवक्ता .. मिडिया चिकित्सक या किसी भी क्षेत्र में कार्यरत नारी अपने पुरुष सहकर्मियों से आगे निकल कर श्रेष्ठ साबित होती है तो वो ही पुरुष मन अवगुंठित विरोध करने लगता है जो खुद कभी उसें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता था ..उसका मन ईर्ष्या से भर उठता है ..वो फिर उसें गिराने के लिये साम- दाम- दंड- भेद अपनाता है .

अत :मेरा मानना है महिला दिवस मनना न मनना कोई माने नहीं रखता जब तक स्त्री पूर्ण से स्वतंत्र होकर खुद के फैसले खुद नहीं लेगी !

स्त्री को चाहिए कि व खुद के प्रति खुद के मन में आते नकारत्मक विचारों से बचे .. समय संयोजन से खुद के लिये वक्त जरुर निकले खुद के सपनो की अनदेखी न करे ..वो समझौते  कतई न करे जो उसके अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगाये ,आत्मविश्वास को बढ़ाये .. अपनी राह में बाधा बनती .. हर मानसिकता का मुंह तोड़ जवाब दे .. हर दिन को महिला दिवस बनाये .. इतनी ऊँचाइयों पर जाये नारी यही कामना है ..
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मृदुला शुक्ला     

आओ मनाएं फिर से एक औचित्य हीन महिलादिवास ,जंह वे औरतें इकट्ठी होकर भाषण करेंगे ,गोष्ठी और सेमीनार मैं हिस्सा लेंगी जिनकी अपनी न तो कोई पीड़ा है और न ही कोई ध्वनी वे तो प्रतिधावनी मात्र हैं इस समाज की सुशुप्त इच्छाओं की ,जो असमानता का अर्थ ही नहीं जानती ,वे उस स्त्री समाज का प्रतिनिधत्व करती हैं जिसे बदलाव की जरूरत ही नहीं है कन्या भ्रूण हत्या से लेकर ..............................गैंग रेप तक की जघन्यतम समस्याओं से जूझता स्त्री समाज एक दिन फिर टेबल बजा काफी पी औपचारिक महिला दिवस मनायेगा और अगले वर्ष तक के लिए भूल जाएगा.


आइये मनाएं महिला दिवस
की शायद कल हट सकें
अस्पतालों के बाहर लगी तख्तियां
जिन पर लिखा होता है
की "यहाँ लिंग परिक्षण नहीं किया जाता"
(की जो इशारा मात्र होता है
यह बताने का यहाँ ये संभव है)

की शायद बंद हो सके
दी जाने वाली बधाईयां
पुत्र जन्म पर
गाये जाने वाले सोहर
बजाई जाने वाली थाली
हिजड़ों के नाच
और बेटी के जन्म पर
"कोई नहीं जी आजकल तो
बेटे और बेटी बराबर हैं"

की शायद फिर न
नोच कर फेक दी जाए
गटर के पास कोई कन्या
जो पिछले नवरात्रों में
पूजी गयी थी
देवी के नाम पर

की शायद बंद हो सके चकले
जहाँ हर दिन औरत
तौलकर खरीदी जाती है
बकरे और मुर्गे
के गोश्त के भाव

की शायद जीवन साथी चुनते समय
देखि जाए सिर्फ और सिर्फ लड़की
न तौली जाए रूपए या रसूख के पलड़े पर
और फिर न ढ पड़े किसी बाप को अपनी
जिन्दा जलादी गयी बेटी की लाश

की शायद खाली पेट
और दोहरी हुई पीठ
पर बच्चा बांधे
सर पर सीमेंट का टोकरा लिए
बिल्डिंग की इमारत पर चढ़ती औरत
न तौली जाए
ठेकेदार की नज़रों से
रात के
स्वाद परिवर्तन के लिए

की शायद फिर न
कोई प्यारी खूबसूरत शक्ल
जला दी जाए एसिड से
अस्वीकार करने पर
अवांछित प्रणय निवेदन

की हम औरते भी मानी जाए
देह से परे भी कुछ
बलत्कृत न हों
हर बार
घर से बाहर निकलने पर
भीतर तक भेदती निगाहों से
और उन गालियों से
जो हमारे पुरुषों को दी जाती हैं
हमारे नाम पर

की शायद.........
की शायद......

की हम भी
स्वीकार कर लिए जाएं
सामान्य इंसान की तरह
आइये मनाये महिका दिवस
इस उम्मीद के साथ
की अगले वर्ष कुछ तो
बदला रहेगा हमारे लिए

मृदुला शुक्ला      


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गीता पंडित      

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                      धन्य हुई स्त्री आज एक दिन तो कम से कम उसे सम्मानित किया गया | एक दिन की साम्राज्ञी बनाया गया | उसके लियें जय - जयकार के नारे लगाए गये जिसने उम्रभर संस्कारों को जिया | घूँट - घूँट समर्पण को पिया | बंद कमरे, बंद तहखानों में बिन हवा धूप रोशनी के स्वयं को भुलाकर तुम्हें केवल तुम्हें स्मरण किया | आहा !!!! तालियाँ बजानी चाहियें उसे आज वो कृतग्य हुई |

                   यही हुआ हमेशा कभी लक्ष्मी, कभी देवी दुर्गा पूजनीया बनाकर अस्तित्व ही छीन लिया | उसमैं स्त्री कब रही उसे याद नहीं | केवल भोग्या, दासी, इंसान कब समझा गया ? हर काल में, हर हाल में समर्पिता होकर भी समर्पण को तरसती रही, घुट्ती रही | क्या कहूँ बहुत क्षोभ है, बहुत पीड़ा है आक्रोश है, फिर भी प्रेम है तुमसे |

               स्त्री यानी आधी आबादी, पराये तो पराये अपनों से ही त्रस्त, अपनों से ही खौफज़दा | ओह!!!!! अपनों पर भी विश्वास न कर पाये तो कहाँ जाये, किससे कहे, कैसे सहे, कैसे निबटे ? घर या बाहर हर जगह असुरक्षित |

               लेकिन कितना भी तोड़ो, नोचो खसोटो, आघात करो उन अंगों पर जहाँ से तुम्हें जन्म मिला है वो न टूटेगी, न अंधेरों को अपना साथी बनाएगी |

                     वो देह नहीं मन है, विचार है | निडर हो जियेगी | वो सृष्टा है, निर्मात्री है सृष्टि की | फिर से निर्माण करेगी एक
नयी सृष्टि का, जहाँ वह स्त्री होने का सुख भोग सके, और गर्व कर सके अपने जननी होने पर | आमीन !!!!!!




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 उपासना सियाग    
 

महिलाओं के लिए घोषित एक दिन 'महिला दिवस' की क्या वास्तव में कोई सार्थकता है ..?
इसका उत्तर है , " नहीं "
हाँ यही सही है कि स्त्री मात्र देह ही है और कुछ नहीं ...!
पुरुष सिर्फ बातों से ही स्त्री का साथ देता है और वह भी दूसरों की ...उसके स्वयं की पत्नी अगर उससे आगे बढ़ जाती है तो उसके लिए यह असहनीय है .......
फेसबुक की बात मत कीजिये यहाँ सब भ्रम है ...यहाँ भी मन में कुछ और सामने कुछ और यहाँ पर भी औरतों के प्रति कोई खास सम्मान की भावना नहीं है .
लेकिन मैं बात करुँगी सिर्फ घरेलू स्तर की औरतों की ...यहाँ पर जो पीड़ित होती है वही आगे जा कर पीड़क बन जाती है तो सुधार कहाँ हुआ ...मुझे आज तक यह समझ नहीं आया जो स्त्री अपनी आज़ादी की बात करती है अपने पर हुए जुल्मो की दुहाई देती रहती है , वह जब सास बन जाती है तो क्या वह औरत नहीं रहती ...! सुधार जब तक घरेलू स्तर पर नहीं होता , कोई भी उम्मीद नहीं की जा सकती ..यहाँ शिक्षा भी मायने नहीं रखती. सिर्फ आपसी ईर्ष्या को भुला कर आगे बढ़ना होगा .

3 comments:

  1. सभी की प्रतिक्रया सार्थक लगी .....सभी को समेटकर प्रस्तुत करने का आभार शोभा !

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  2. रोली पाठक ..सरोज सिंह ..आशा पाण्डेय ओझा ..मृदुला शुक्ला ..गीता पंडित ..उपासना सियाग ......हर दिन कुदरत की सबसे खूबसूरत कृति इंसान के नाम हो ..सभी यही चाहते हैं ..

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