Friday, February 01, 2013

"अब तो मेरे घर में बस साहित्य ही साहित्य है"-,ज्योति चावला की कवितायें

ज्योति चावला     

5 अक्टूबर 1979 को दिल्ली में जन्म। युवा पीढ़ी में कहानी और कविता के क्षेत्र में में महत्वपूर्ण नाम। कविताएं सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में नियमित और प्रमुखता से प्रकाशित। कविताओं का पंजाबी, मराठी, अंग्रेजी और उड़िया में अनुवाद। कई पत्रिकाओं में कविताओ  की विशेष रूप से प्रस्तुति। अभी तक पांच कहानियां प्रगतिशील वसुधा, रचना समय और नया ज्ञानोदय में प्रकाशित। कहानी ‘अंधेरे की कोई शक्ल नहीं होती’ का पंजाबी, मराठी और अंग्रेजी में अनुवाद। पहला कविता संग्रह ‘मां का जवान चेहरा’ आधार प्रकाशन पंचकुला से अभी अभी प्रकाशित।



"अब तो मेरे घर में बस साहित्य ही साहित्य है"
-ज्योति चावला   

मेरे लिए साहित्य की दुनिया में प्रवेश एक अनसुने-अनजाने लोक में प्रवेश की तरह रहा। मेरा जन्म एक व्यावसायिक परिवार में हुआ। जिनका साहित्य से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं था। साहित्य या पुस्तकों के नाम पर सिर्फ धार्मिक किस्म की पुस्तकें ही आया करती थीं। यह मेरी जन्मजात रुचि ही थी जो एकदम विपरीत परिस्थितियों में भी मुझे साहित्य की ओर धकेलती रही। बारहवीं में फर्स्ट पोजीशन आने पर और परिवार वालों के लाख विरोध पर भी मैंने बी.ए. हिंदी में दाखिला ले लिया और फिर उसके बाद तो जैसे एक लीक पकड़ ली।
पंजाबी व्यवसायी परिवार से आने के बावजूद न केवल साहित्यिक रुचियां विकसित हुईं, अपितु एक धुर साहित्यिक रुचि के व्यक्ति से प्रेम और फिर विवाह भी। मेरा परिचय किसी अन्य कवि/लेखक की तुलना में अधिक गैर साहित्यिक और साधारण है। लेकिन मेरी दबी और कभी प्रकट रुचियों ने अंततः मुझे उस साहित्यिक माहौल तक पंहुचा ही दिया। उमा शंकर के साथ ने मुझे पूरा साहित्यिक बना दिया। आज स्थिति यह है कि एक दिन का भी गैर-साहित्यिक माहौल अखरता है मुझे।
जहां तक विषय का सवाल है, स्त्री की दुनिया ने मुझे हमेशा आकर्षित किया है। स्वयं स्त्री हूं, कारण सिर्फ यही नहीं है। स्त्री की दुनिया वास्तव में विषयों का अम्बार है मेरे लिए। जब से होश संभाला, मां को अकेला पाया। यह कहें कि पिता के जाने ने ही हमें जैसे एक गहरी नींद से जगाया। पिता क्या गए, दुनिया अभावों से, संकटों से घिर गई, आने वाली हर बारिश, हर तूफान हम पर सीधे आक्रमण करने लगे थे। विपदाओं और हमारे बीच जो एक छत थी, एक दीवार थी, ढह गई थी शायद। मां का माथा बिंदी के बिना कितना अधूरा लगता है, हमेशा खटकता रहा मुझे।
मां के माथे की बिंदी और हाथों से चूड़ियों का जाना केवल उनके सिंगार में कमी का आना ही नहीं था। बड़े गहरे मायने थे उसके। पिता पर आश्रित मां को अचानक अकेले पड़ते, अचानक केवल स्त्री देह हो जाते और फिर धीरे-धीरे फौलाद होते देखा है मैंने। मां के जिये हुए ये अनुभव जैसे मैंने खुद जी लिए थे। मेरी मां ही मेरी कविताओं मे बार-बार आती रहीं। मां पर लिखी हुई कई कविताएं हैं मेरे पास। शायद यहीं से मैं स्त्री के लिए इतनी संवेदनशील हो गई। उन पर लिखी अप्रकाशित तो कई कविताएं हैं, लेकिन प्रकाशित कविताओं में ‘चूड़ियां’ एक कविता है। यहीं से मेरी लेखन की यात्रा शुरू होती है। उसके बाद मां का जवान चेहरा, पिता के जाने पर, मां और आशा पारेख आदि कई कविताओं में मां अलग-अलग रंगों में आती रही।

स्त्री पर केंद्रित कविताएं मुझे हमेशा आकर्षित करती रहीं। इस क्रम में रघुवीर सहाय की कविताएं पढ़िए गीता, औरत की जिंदगी, नारी, तेरे कंधे, चढती स्त्रीप आदि मुझे बेहद पसंद हैं। कविताएं ही नहीं, कथा साहित्य में भी मुख्यतः स्त्री केंद्रित रचनाओं ने मुझे हमेशा आकर्षित किया। कृष्णा सोबती, मन्नू भंडारी, जैनेंद्र और समकालीनों में कहें तो भगवान दास मोरवाल का उपन्यास "बाबुल  तेरा देस  में" आदि ने बेहद असर छोड़ा।
हिंदी से बाहर की बात करें तो उर्दू की इस्मत चुगताई, बांग्ला लेखिका महाश्वेता देवी, ओड़िया लेखिका प्रतिभा राय, और तमिल लेखिका बामा की रचनाएं भी जैसे भीतर से उद्वेलित करती रहीं। महाश्वेता देवी का स्तनदायिनी और बामा का संगति इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय हैं।


साहित्य मुझे हमेशा से अंतिम पंक्ति के अंतिम व्यक्ति की आवाज लगता रहा है। साहित्य के परिदृश्य पर वे सारे विद्रूप चेहरे दिखाई दे जाते हैं जिनके लिए सभ्य समाज में कोई स्थान नहीं। साहित्य हाशियों पर पड़े लोगों के लिए एक जनतांत्रिक समाज है जहां उन्हें प्रभासी (वर्चुअल) ही सही, लेकिन केंद्र में जगह मिलती है। चाहे वह स्त्री हो, दलित हो, हमारी धरती का कोई ऐसा कोना हो, जहां तक केंद्रीय सत्ता की नज़र नहीं जाती। इस तरह साहित्य वास्तविक दुनिया के समानांतर एक वर्चुअल दुनिया की परिकल्पना करता है। साहित्य हमें वह स्पेस मुहैया करवाता है जहां वास्तविक दुनिया के बरक्स हम खुल कर सांस ले सकें। और यह काम कविता अपने कलेवर में ज़्यादा गंभीर रूप से कर पाती है।

स्त्री हूं और स्त्री होने के नाते इस रचना प्रक्रिया में मेरे कुछ निजी अनुभव भी हैं। शायद वे मुझ जैसी सब स्त्री रचनाकारों के अनुभव भी हों। स्त्री होने के नाते लेखन जगत में अपनी जगह बना पाना मेरे लिए एक बड़ी चुनौती रही है। लोग आसानी से कह जाते हैं कि स्त्रियां तो कुछ भी लिखेंगीं, छप ही जाएगा और पाठक भी मिल ही जाएंगे, लेकिन यह सोच पूरी तरह एकतरफा है। अपने पूरे स्त्रीत्व के साथ अपनी पहचान बनाना और फिर उसे बनाए रखना एक चुनौती रहा है स्त्री रचनाकारों के लिए। रचनाएं छपवाने से लेकर उनकी चर्चा तक, सब जगह मुझे अपनी सीमाएं नज़र आती रही हैं।



ज्योति चावला की कविता
यें   
___________________          


मां का जवान चेहरा      



मेरे बचपन की ढेरों स्मृतियों में हैं
ढेर सारी बातें, पुराने दोस्त
नन्हीं शैतानियां, टीचर की डांट
और न जाने क्या-क्या
मेरी बचपन की स्मृतियों में है
मां की लोरी, प्यार भरी झिड़की
पिता का थैला, थैले से निकलता बहुत कुछ

मेरी बचपन की स्मृतियों में है
पिता का जाना, मां की तन्हाई
छोटी बहन का मासूम चेहरा

लेकिन न जाने क्यूं मेरी बचपन की
इन ढेरों स्मृतियों में नहीं दिखता
कभी मां का जवान चेहरा
उनकी माथे की बिंदिया
उनके भीतर की उदासी और सूनापन

मां मुझे दिखी है हमेशा वैसी ही
जैसी होती है मां
सफेद बाल और धुंधली आंखें
बच्चों की चिंता में डूबी
ज़रा सी देर हो जाने पर रास्ता निहारती

मैं कोशिश करती हूं कल्पना करने की
कि जब पिता के साथ होती होगी मां
तो कैसे चहकती होगी, कैसे रूठती होगी
जैसे रूठती हूं मैं आज अपने प्रेमी से
मां रूठती होगी तो मनाते होंगे पिता उन्हें
कैसे चहक कर ज़िद करती होगी पिता से
किसी बेहद पसंदीदा चीज़ के लिए
जब होती होगी उदास तो
पिता के कंधों पर निढाल मां कैसी दिखती होगी
याद करती हूं तो बस याद आती है
हम उदास बच्चों को अपने आंचल में सहेजती मां

मां मेरी ज़िंदगी का अहम् हिस्सा है या आदत
नहीं समझ पाती मैं
मैं चाहती हूं मां को अपनी आदत हो जाने से पहले
मां को मां होने से पहले देखना सिर्फ एक बार


फिर भाग गई लड़की      

कल रात उस गली के उस घर से
भाग गई एक लड़की,
यह ख़बर आज आम है

वह भागी हुई लड़की
भाग गई लड़कियों के इतिहास की एक नई कड़ी है
कल रात, जिस चौराहे से गुज़र कर भागी वह लड़की
उस चौराहे से गुज़रते हुए झेले थे उसने
फिकरे दिल फेंक शाहिदों के और
टीस उठी थी बाप के सीने में यह देखकर

वह लड़की जो भाग गई कल रात,
उसका बाप है एक मामूली क्लर्क सरकारी दफ़्तर में
जिसकी उम्र अब हो चली है पचपन के पार,
और कुछ ही दिन बाकी हैं
सरकारी दफ्तर के उस सड़ांध भरे कमरे में

जहां फाइलों के नीचे दबे गुज़र गई
उसकी ज़िंदगी की कई सुबहें और कई शामें

भागी हुई लड़की भागी थी
पिता को गहरी नींद में छोड़कर कि
जहां शायद मिलती होगी उन्हें कुछ फुर्सत
घर और दफ्तर के बीच की दूरी नापने से और
लेते होंगे वे कुछ खुली सांसें उस सड़ांध से दूर

भागी हुई लड़की अब छब्बीस की हो चली थी
पिता के पास बची थी टूटती उम्मीदों की तार
मां के सीने पर था बोझ दो जवान बेटियों को ब्याहने का

भागी हुई लड़की भाग गई किसी के साथ,
या भाग गई ज़िंदगी से,
ठीक ठीक कोई नहीं जानता

वह भागी हुई लड़की
कल रात चौराहा पार करते दिखाई दी मुझे
वह भाग नहीं रही थी और
कदमों की चाल तो बिल्कुल भी तेज़ नहीं थी
बल्कि सड़क पर चलती हुई वह बिल्कुल चुप सी थी,
और खोई भी इतनी खोई कि
लगभग टकरा सी गई एक गाड़ी से

मैंने पुकारना चाहा, और पुकारा भी
उस भागी हुई लड़की को,
किंतु शायद नहीं चाहती थी वह
पहचानना किसी भी आवाज़ को
नहीं चाहती थी सुनना वह उन आवाज़ों को, जो
रात को सब के लगभग सो जाने पर
पैदा होती थीं मां और पिता के बीच,
कि कैसे पार लगेंगीं दो जवान बेटियां

वह लड़की जो भाग गई कल रात
वह घर से नहीं भागी थी,
वह तो भाग गई थी दूर उन आवाज़ों से जो
चौराहों, गलियों सें लेकर रात को घर के सन्नाटे तक में पसरी हुई थीं
वह ज़िंदगी से नहीं
घर में पसरे हुए सन्नाटों से भाग गई थी

अभी और लड़कियां भागेंगीं,
यूं ही रात के अंधेरों में
वे टकराएंगीं किसी मोटर, किसी ठेले

या फिर किसी पत्थर से, और फिर धीरे धीरे
गुम होती चली जाएंगीं उसी अंधरे में।



अपने हिस्से की जगह      

बेटियां, जो
अब नहीं हैं इस दुनिया में पुकारतीं हैं
दूर कहीं से
ज़रा कान लगा कर सुनो तो
सुनी जा सकती हैं उनकी आवाज़ें

वे पूछतीं हैं कि
क्या मेरे जन्म की कल्पना से तुम्हें
रोमांच नहीं होता
क्या जन्म से पहले मेरा अहसास
तुम्हारे चेहरे पर मुस्कान नहीं ला पाता
क्या मेरा भोलापन, मेरे मासूम प्रश्न
तुममें ममत्व नहीं जगाते
तो फिर क्यूं हमसे स्नेह नहीं तुम्हें
हम भी तुम से यूं ही बद्व होती हैं नाभिनाल
जैसे होता है बेटा
फिर क्यूं मुझ पर प्रहार करने से
तुम्हें चोट नहीं पंहुचती

बेटियां पूछती हैं कि
क्यूं बना दिया सभ्यता ने हमें बोझ जिसका
खामियाज़ा भुगत रहीं हैं हम सदियों से
बेटियां चाहती हैं ज़िन्दा रहना
खिलखिलाना, मुस्कुराना और
अपने हिस्से का संसार पाना
बेटियां अपनी जगह तलाश रहीं हैं।



समझदारों की दुनिया में मांएं मूर्ख होती हैं        

मेरा भाई और कभी-कभी मेरी बहनें भी
बड़ी सरलता से कह देते हैं
मेरी मां को मूर्ख और
अपनी समझदारी पर इतराने लगते हैं
वे कहते हैं नहीं है ज़रा सी भी
समझदारी हमारी मां को
किसी को भी बिना जाने दे देती है
अपनी बेहद प्रिय चीज़
कभी शॉल, कभी साड़ी और कभी-कभी
रुपये पैसे तक
देते हुए भूल जाती है वह कि
कितने जतन से जुटाया था उसने यह सब
और पल भर में देकर हो गई
फिर से खाली हाथ

अभी पिछले ही दिनों मां ने दे दी
भाई की एक बढ़िया कमीज़
किसी राह चलते भिखारी को
जो घूम रहा है उसी तरह निर्वस्त्र
भरे बाज़ार में

बहनें बिसूरती हैं कि
पिता के जाने के बाद जिस साड़ी को
मां उनकी दी हुई अंतिम भेंट मान
सहेजे रहीं इतने बरसों तक
वह साड़ी भी दे दी मां ने
सुबह-शाम आकर घर बुहारने वाली को

मां सच में मूर्ख है, सीधी है
तभी तो लुटा देती है वह भी
जो चीज़ उसे बेहद प्रिय है
मां मूर्ख है तभी तों पिता के जाने पर
लुटा दिए जीवन के वे स्वर्णिम वर्ष
हम चार भाई-बहनों के लिए
कहते हैं जो प्रिय होते है स्त्री को सबसे अधिक

पिता जब गए
मां अपने यौवन के चरम पर थीं
कहा पड़ोसियों ने कि
नहीं ठहरेगी यह अब
उड़ जाएगी किसी सफेद पंख वाले कबूतर के साथ
निकलते लोग दरवाज़े से तो
झांकते थे घर के भीतर तक, लेकिन
दरवाज़े पर ही टंगा दिख जाता
मां की लाज शरम का परदा

दिन बीतते गए और मां लुटाती गई
जीवन के सब सुख, अपना यौवन
अपना रंग अपनी खुशबू
हम बच्चों के लिए

मां होती ही हैं मूर्ख जो
लुटा देती हैं अपने सब सुख
औरों की खुशी के लिए
मांएं लुटाती हैं तो चलती है सृष्टि
इन समझदारों की दुनिया में
जहां कुछ भी करने से पहले
विचारा जाता है बार-बार
पृथ्वी को अपनी धुरी पर बनाए रखने के लिए
मां का मूर्ख होना जरूरी है।



पन्ना धाय तुम कैसी मां थी        


पन्ना धाय तुम कैसी मां थी
जो स्वामीभक्ति के क्षुद्र लोभ में
गंवा दिया तुमने अपना चंदन सा पुत्र

मैं जानती हूं राजपूताना इतिहास के पन्नों पर
लिखा गया है तुम्हारा नाम स्वर्णाक्षरों में
मैं जानती हूं कि जब-जब याद किया जाएगा
राजपूती परंपरा के, उसके गौरव को
याद आएगा तुम्हारा त्याग, तुम्हारी स्वामीभक्ति और
तुम्हारा अदम्य साहस भी, पर
उन्हीं इतिहास की मोटी किताबों मे
कहीं जिक्र नहीं है तुम्हारे आंसुओं का
चित्तौड़ के फौलादी किलों की फौलादी दीवारों के पार
नहीं आ पाती तुम्हारी सिसकी, तुम्हारी आहें
तुम्हारा रुदन, तुम्हारा क्रंदन

मैं जानती हूं पन्ना धाय
जब इतिहास में स्वर्णिम अक्षरों में
लिखा जा रहा था तुम्हारा नाम
ठीक उसी वक्त तुम रो रही थी सिर पटक
चंदन की रक्त से लथपथ देह पर
चंदन की मौत के बाद तुम कंहा गई पन्ना धाय
इतिहास को उसकी कोई सुध नहीं
नहीं ढूंढा गया पूरे इतिहास में फिर कभी तुम्हें
तुमसे लेकर तुम्हारे हिस्से का बलिदान
इतिहास मौन हो गया

पन्ना धाय सच बतलाना
कुंवर उदय सिंह की जगह चंदन को कुर्बान
कर देने की कल्पना भर से क्या
तुम कांप सी नहीं गई थी
क्या याद नहीं आए थे वे नौ माह तुम्हें
जब तुम्हारे चांद से पुत्र ने आकार लिया था
ठीक तुम्हारी अपनी देह के भीतर
क्या नाभि से बंधा उसकी देह का तार
तुम्हारे दिल से कभी नहीं जुड़ पाया था पन्ना धाय

मैं कल्पना करने की कोशिश करती हूं और हार जाती हूं
कि आखिर वह कौन-सा क्षण था
जब तुम पर मातृत्व से बढ़कर
सत्ता का अस्तित्व हावी हो गया

तुम रोई थी पन्ना धाय
कई दिन, कई रातें
तुम्हारे उनींदे सपनों में आता रहा था चंदन
और तुम डर कर उठ बैठती थी
तुम काटती थी गहरी रातें अपने दासत्व की
और फल-फूल रहा था गौरव चित्तौड़ का

आज इक्कीसवीं सदी के इस बरस
जब तुम्हारे त्यागा को इतनी सदियां बीत गईं
मैं आई हूं उदयपुर घूम कर
जानती हो यह उदयपुर उसी उदयसिंह के नाम पर है
जिसकी रक्षा के लिए तुमने गंवा दिया
अपना चंदन सा दुधमुंहा पुत्र
उदयपुर के उस गौरवमयी किले के ठीक पीछे
विशालकाय गहरी झील है
लोग कहते हैं कि इस झील ने दुगुना कर दिया है
किले के सौंदर्य को
चांदनी रात में झील के पानी पर
देखा जा सकता है किले का प्रतिबिम्ब
पन्ना धाय क्या तुम जानती हो
इस किले को देखने दूर-दूर से आते हैं सैलानी
और उसकी खूबसूरती पर रीझ से जाते हैं

मुझे मालूम है पन्ना धाय
वह झील जिसमें चमकता है किले का प्रतिबिम्ब
वह झील नहीं बल्कि तुम्हारे आंसू हैं
जिनका इतिहास में कहीं कोई ज़िक्र नहीं।


सिनेतारिका      

70mm के रंगीन पर्दे पर जब थिरकती थी वह
तो पूरा सिनेमाघर तालियों की गड़गड़ाहट से गूँज उठता था
सीटियों की चीख सी आवाज में कई दर्शक ठूंस लेते थे
अपने कानों में उँगलियां

सीने की तेज धडकन के साथ जब
थरथराता था उसका सीना तो टीस सी
उठ जाती थी कई जवाँ दिलों में

वह गुजरती थी जिन सड़कों
 से 
तिल रखने को जगह भी नहीं बच पाती थी वहाँ
और भीड़ को लगभग रौंद कर चली जाती थी
उसकी ऊँची हील वाली सैंडल और उस पर
लचकती उसकी पतली कमर

कई नजर के पारखी अपनी आँखों को खोल और भींचकर
ठीक ठीक अंदाजा लगा लेते थे
उसकी कमर की नाप और सीने की ऊँचाई का
और बीच चौक पर शर्तें लगा करती थीं इस पारखी
नजर के आकलन की

लड़कियों ने उसकी खूबसूरती को इस तरह जगह दी थी
कि कोई करता उनकी तुलना उससे तो
वे शरमा कर लाल हुई जातीं थीं
शीशे के आगे खड़े होकर लगभग हर कोण से
वे करने लगती थीं तुलना खुद की उससे

वह सिनेतारिका थी हमारे ज़माने की
साँवली रंगत और गजब का नूर और चमक लिए
वह दिलों पर हो गई थी पाबस्त
हर बूढ़े और जवाँ के

उसके बालों का स्टाइल, उसकी चाल, उसकी ढाल
उसकी हर अदा जैसे एक मूक नियम से बन गए थे
हर जवां होती लड़की के लिए और
वे ज्यों इन नियमों को मानने के लिए बंध सी गई थीं
वह हमारे समय की सिनेतारिका थी
मुस्कुराती तो ज्यों फूल झड़ते थे
इठलाती तो जैसे बिजलियां कड़क जाएं
चाहती वह तो खरीद लेती सल्तनतें
अपनी बस एक अदा से

फिर एक दौर आया लम्बी गुमनामी का

आज एक लम्बे समय बाद
देखा उसी सिनेतारिका को स्टेज पर खड़े कुछ चंद लोगों के साथ
अब वह हँसती है, मुस्कुराती है
तो लोग सिर झुकाते हैं
नाचती है वह कुछ कुछ उसी पुरानी अदा के साथ
तो लोग सम्मान में ताली बजाते हैं

आदर से उसे लाया जाता है हाथ पकड़
चमकते चौंधियाते उसी स्टेज पर 
जिस पर नाचती थी वह तो आहें उठती थीं
कई सीनों में

वह फिर बिखेरना चाहती है वही जलवा
उठाती है नजाकत से हाथ कुछ इस कदर
कि हो सके भीड़ बेकाबू एक बार फिर
और वह लहरा कर, नजरें तरेरकर निकल जाए बीच से

पर अब उसके इन उठे हाथों पर नहीं रीझता कोई
आशीर्वाद लेना चाहती है नई पीढ़ी
नई लड़कियाँ कि वे भी कायम कर सकें
वही रूप, वही समां

वह अब बूढ़ी हो गई है
पचपन पार हो चुकी है उसकी उम्र
जवां हो गई है एक नई पीढ़ी उसके बाद
और अब वह पुरानी पड़ गई है।



सम्पर्कः-
स्कूल ऑफ ट्रांसलेशन स्टडीज एण्ड ट्रेनिंग
15 सी, न्यू एकेडमिक बिल्डिंग
इग्नू, मैदानगढ़ी, नई दिल्ली-68 मो.-9871819666

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