Thursday, April 25, 2019

डर- सपना सिंह





डर
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"हम खूब दावे कर लें कि स्त्रियों के प्रति सदियों से स्थापित सोच में बदलाव आया है .. फिर क्यों आज भी जन्म से ही एक अंजाना डर उनके जीवन का हिस्सा बन जाता है... और उस डर को वे पीढ़ी दर पीढ़ी प्रत्यारोपित करती जा रहीं हैं.
कहानीकार सपना सिंह की कहानी 'डर' सामजिक परिवेश में स्त्रियों के प्रति उस विचारधारा को उजागर करती है जो हर क्षण उनमें डर की पौध को खाद-पानी देकर सींच रही है!"





  लड़की के साथ गैग रेप। भीगा तैलिया आंगन में फैलाते हुये उसके कानों में टी.वी. पर आती आवाज टकराई लॉबी में रखा टी.वी. लगातार अमंत्रित करता है ब्रकेंग न्‍यूज किचन की ओर जाते उसकी निगाह टी.वी. पर पड़ती है न्‍यूज रीडर लगातार पूरे एक्‍साइटमेनट के साथ बोल रहा है एम.बी.ए. की छात्रा पढ़कर लौटते वक्‍त कार में लिफट ले लेना आफत न्‍यौतना ही तो है।

“सुमि, कहां खोई हो... मेरे मोजे कहां हैं...? कितनी बार कहा, जूतों के साथ ही रक्‍खा करो...’’ पतिदेव का कर्कश स्‍वर कानों से टकराया... वह आंटा माड़ना छोड़ मोजे ढूढ़ने लपकी। हर बार इसी सब के लिये झाड़ पाती है, मोजे, जूते, रूमाल, मोबाइल। यही तीन कमरों का घर... वही दो एक मेज... वही अलमारियां...फिर भी वहीं सब चीजों के लिये कच-कच उसका बड़बड़ाना एक बार शुरू होता है तो जल्‍दी खत्‍म होने पर नहीं आता.... मेरी चट्टी बनियाइन... सही जगह पर क्‍यों नहीं रखती? अब वह तो अपने हिसाब से सही जगह पर ही रखती है, पर उसकी सही जगह अक्‍सर पतिदेव के लिये गलत ही होती है अब तो, इसी बात पर मूड़ ऑफ। ये मर्द और इनका मूड़... इनकी बड़-बड़ से क्‍या हमारा मूड़ नहीं बिगड़ता? पर जतायें किसे...? चुप रहो तो कहेंगे घर पर रहना बेकार बोलों तो सुनेंगे ही नहीं.... जैसे उनसे नहीं दीवार से कह रहे हो.... थोड़ा तेज बोलों तो, कहेंगे.... चिल्‍लाती क्‍यों रहती हो हर वक्‍त... ब्‍लप्रेशर बढ़ जायेगा... गिर पडो़सी किसी दिन भट्ट से...।

“मम्‍मी .... चोटी करो...।” बेटी कंघा लेकर खड़ी है।

’’करती हूँ... पहले दूध खत्‍म करो।‘’

‘पहले चोटी करो... वही तुनकता उददण्‍ड’’ स्‍वर... जो उसे भीतर तक खदबदा डालता है, उसने उस स्‍वर को नजर अंदाज किया और दूध में बोर्न्‍विटा मिलाने लगी।

‘’मम्‍मी... जल्‍दी करो... ऑटो आ जायेगा ....।‘’

बेटी बेसब्र हो रही है मुंह से निकलते ही बात पूरी हो जानी चाहिये... वह भुनभुनाते हुये बेटी के बाल बनाने लगी।

’कस के करो-....’

’तुम ठीक से... सीधे खड़ी रहो...।‘’ उसने बेटी को डपटा....

’ढीला कर रही हो...’ बेटी तुनकी और अपने बाल छुड़ाकर शीशे के सामने खड़ी हो खुद से चोटी बनाने लगी।

जब मेरा किया पसंद नही आता तो... खुद ही किया करो... अब से मत आना मेरे पास कहते हुये कुछ याद आ गया बहुत पहले का कोई दृश्‍य... इतनी बड़ी लड़की अपनी मां से भी लम्‍बी... मां से अपनी दो चूटिया गुथवाती... इसी तरह मां को टोकती झुझंलाती...। क्‍या दुनियां में किसी लड़की को अपनी मां की गुथी चोटी पंसद नहीं आती...?

पतिदेव का स्‍पेशल कमेंट है... तुम मां- बेटी की पटती नहीं....।

’मम्‍मी। पिन लगा दो...’ वो स्‍कूल का दुप्‍पट्टा लिये खडी़ है... अब इसमें भी झिक-पिक । इस वर्ष आठवी से ही सलवार कुर्ता चल गया है... तर्क है लड़के सीढि़यों के नीचे खड़े हो, झाकते हैं स्‍कर्ट खतरनाक है... निचली क्‍लास की स्‍कर्ट भी डिवाइडर टाइप की हो गई है। कुछ भी देख पाने पर पूरा अंकुश। उसकी आंखे बेटे के मासूम चेहरे पर अटक जाती है, ये चेहरे... कैसे शैतान चेहरों में तब्‍दील हो जाते हैं।

उसे याद आता है... वेा चचेरा भाई, उससे 6-7 साल छोटा, वह पूरी तरह बड़ी और बो बड़े होने की प्रक्रिया से गुजरता हुआ। इस दोपहर नॉवल पढ़ते-पढ़ते वह नींद में जा पहुंची थी... गले में सरसराहट... उनींदी आंखो में कौंध सा गया चेहरा... जैसा किसी रहस्‍य लोक में घुसने की चोरी करते पकड़ा गया हो उसने किसी को बताया नहीं... पर दिनों तक अपने उस भाई से नजरे चुराती रही थी।

टी.वी. पर विज्ञापन चल रहा है किसी सैनेटरी पैड का ... हवा की तरह हल्‍की फुल्‍की लड़की... कुछ ज्‍यादा फुदक रही हैं पीरियड्स में उतना घूमना फिरना? पर उसे तो दुनिया की सेाच बदलती है न... जैसे, सिर्फ स्‍त्राव ही परेशानी का सबब हो जिससे बेतरीन पैड बैड लगाकर छुटकारा पाया जा सके.... उन दिनों की खिन्‍नता, दर्द असुविधा.... ये सब... इनका क्‍या करे....? अब बाजार में ये, ये चीज भी मौजूद है.... जिसका इस्‍तेमाल तुम्‍हें पूरी स्‍वच्‍छता देगा।

‘मम्‍मी ये क्‍यो है’ बेटे की सहज जिज्ञासा।‘

’ये-ये लड़कियों का ड्रायपर है...’ पांच साढ़े साल पांच साल के बच्‍चे को और क्‍या बताये ? जैसे तुम छोटे थे तो पहनते थे न वैसे ये बड़ी लड़कियों का...।

’दीदी का भी’

’हां...।‘’



‘दीदी... क्‍या शू शू करती हैं...’ इतने में दीदी ने एक चपत उसके सिर में लगाई, मम्मी की ओर रोष से देखते हुये। भूनभूनाई.... मम्‍मी... कुछ भी बताती रहती हो’ बड़ी होती बेटी उससे सं‍बंधित हर बात में सकुचाई रहती है, पैड छुपाकर लाया करो ऐसे क्‍यों लाती हो... पापा से क्‍यों मगाती हो।

वो भी तो थी इस उम्र में ऐसी ही.... कपड़ा फाडने हुये लगता अदृश्‍य हो जाये, कपड़े की चिडर्र किसी कानों तक न पहुंचे और फिर गंदे कपड़े को अखबार में लपेटकर बाउंडरी के उस पार उछालना...ऐसे कि वह इधर न गिरकर उस पार पानी भरे प्‍लॅाट में गिरे... और ये सब होते बीतते कोई देख न ले... आंगन में चारपाई पर लेटे धूप सेंकते पापा या फिर वहीं चटाई पर बैठ स्‍वेटर बुनती मां... या फिर छोटे भाई बहन या बगिया की घांस निकालता चपरासी, वो छोटे छोटे पल कितने भारी होकर गुजरते थे, अब ये पैड बैड होने से कितनी सहूलियत हो गई है तब कहां मिलते थे छोटे कस्‍बों शहरों में...।

नयी पत्रिका आई है, फुरसत में वह इन हल्‍की फल्‍की पत्रिकाओं को पढ़ना पंसद करती है सबकुछ तो होता हो इनमें ड्रांइंग रूम से लेकर बेडरूम तक में एक औरत को कैसे होना रहना चाहिये खुद से लेकर घर और आस पड़ोस सब सुन्‍दर साफ और व्‍यवस्थित,सबसे पहले सवाल-जवाब के कॉलम पढ़ती है वो विशेषज्ञों द्वारा दिये... गये जवाब... कितने बदल गये हैं... आजकल के सवाल पहले जहां इन कॉलमों में पति द्वारा उत्‍पीड़न बचपन में हुये यौन उत्‍पीड़न से उपजे अपराध बोध विवाह पूर्व प्रेम प्रसंग को लेकर उपजा अर्न्‍तद्द ... आदि से संबंधित सवाल होते थे... वहीं अब सवाल चौकाते हैं ज्‍यादातर सवाल रिलेशनशिप से जुडे़ होते हैं, एम.बी.ए. की छात्रा का सवाल है-

अपने ब्‍वायफ्रेण्‍ड के सांथ उसके सेक्‍सुअती रिलेशन है... क्‍या ये गलत है? दूसरी सवाल है- क्‍या शादी से पहले अपने पार्टनर के सांथ सेक्‍स एंजॉय करना गलत है? पर जब मेरी उम्र की लड़कियां शादी करके सेक्‍स एंजॉय कर रही है तो मैं क्‍यों नहीं...।

ऐसे सवाल और उनके वैसे ही जवाब इंगित करते हैं वक्‍त बहुत तेजी से बदला है... अब सेक्‍स टैबू नहीं रहा... शायद छोटे शहरों कस्‍बों में अब भी हो... पर बड़े शहरों में सेक्‍स पिज्‍जा बर्गर की तरह तेजी से नयी पीढ़ी द्वारा स्‍वीकार्य हो रहा है शायद प्रेम या रिलेशनशिप की अनिवार्यता भी पीछे छूट जाये... एक भूख जिसे पूरा किया जाना... जरूरी हो! कहीं पढ़ा था, अमेरिका, यूरोप में सेक्‍स अनुभव लेने की औसत उम्र सोल‍ह वर्ष है ऐसे आंकड़े सर्वे आजकल प्रतिष्ठित पत्रिकायें खूब करती हैं... उनके रिजल्‍ट भी चौकानें वाले होते हैं। यह सब पढ़-सुन देख डरती है वो...।

डर तो और भी बहुत सारे है... बचपन से आज तक ये डर साथ-साथ रहा है हर वक्‍त हर कहीं... बहुत बचपन की घटनायें... वर्षों डराती रहीं... जाने कौन था वो... जो रात के अंधेरे में 6-7 साल की बच्‍ची की पीठ पर अपने शरीर की रगड़ देता अब तक डरावनी यादों की तरह सिहरा देती है।

पापा के ऑफिस के सभी लोग मेला देखने जा रहे हैं वो भाई बहन भी कालोनी के अन्‍य बच्‍चो की तरह जीप में ठूंस लिये जाते हैं भाई आगे पापा की गोद में वी पीछे छोटे कर्मचारी चपरासियों के साथ कुछ और बच्‍चे भी वह किसी की गोद में थी, सारी राह कुछ चुभता सा.. नीचे की ओर... दर्द चुभन से बेहाल...वह उठना चाहती पर बुरी तरह ठंसी जीप लौटते में वह जिदिया गई थी... आगे... बैठेगी... पापा के पास.... भाई को पीछे जाना पडा़ था...। क्‍या उसे भी वैसे ही कुछ चुभा होगा?

और ये आज कल की लड़कियां... जानबूझकर जोखिम मोल लेती किसी से भी लिफ्ट ले लेना... ब्‍वायफ्रेड से अकेले में मिलना... शार्टकट के चक्‍कर में सुनसान रास्‍ते जाना... ये सब आफत को न्‍यौता देना ही तो है, अखबार चैनल सनसनी बरदात सारे दिन ब्रेकिंग न्‍यूज... आरूषिद्व रूचिका शिवानी... डर ...डर... डर।

ढेरों घटनायें... देर तक सोचती है वो, कैसे, क्‍या करने पे बचा जा सकता था.. किसने किया होगा... आरूषि का कत्‍ल? क्‍यों किया होगा रूचिका ने आत्‍महत्‍या...? और वह हाई प्रोफाइल पत्रकार शिवानी भटनागर! कितने अनुतंरित सवाल।

एक लड़की का जन्‍म लिया है तो उम्र भर सिर्फ ‘बचने’ की सोचो अपने आपको सुरक्षित रखने की जुगत इतनी बड़ी बन जाती है... कि बाकी हर संभावना इसके आगे बौनी।

““मम्‍मी ! मैं जा रही हूँ ... देर हो रही है... ” बेटी का स्‍वर झुझलाया हुआ.... मतलब इरा अभी नहीं आई थोड़ी दूर पर रहने वाले मौसेरे भाई की बेटी की क्‍लास में है दोनों सांथ ट्यूशन जाती हैं सुविधा भी सुरक्षा भी एक से भले दो...। पर उसे दो मिनट भी देर हुई नहीं कि, इनका झुझलाना शुरू।

“मम्‍मी... फोन करो मामी को इरा चली का नहीं...”

“आती होगी....।”

“कल से ... मैं .... नहीं रूकूगी ... उसकी वजह से हमेशा लेट होते है...। “पीछे बैठना पड़ता है... जगह नहीं मिलती....।” बेटी की आवाज तल्‍ख है।मम्‍मी की ये सब बाते उसकी समझ में नही आतीं। इसके साथ आओ.... अकेले मत जाओ... सुनसान रास्‍ते से मत जाओ...। लेकिन, क्‍या वो चाहती है ये सब करना कहना.... कितनी मन्‍नतो से मांगी थी बेटी, पर बेटी की मां बनते ही कैसे तो एक डर भी भीतर पैदा हो गया। ना ये सामान्‍य मात़त्‍व का डर नही था जो अपने बच्‍चे की सुरक्षा को लेकर हरदम सचेत रहता है वह गि‍र न जाये... कोई चोट न... लगा बैठे.... कुछ नुकसान न कर ले अपना.... इन सब डरो के साथ-साथ एक और अदृश्‍य सा डर जो प्रत्‍यक्षत: कहीं नहीं दिखता था... पर था... और दिन व दिन बेटी के बढ़ने के साथ ही वह भी बढ़ रहा था डगमग चलते पाव कब का स्थिर , मजबूत चाल चलने लगे, गिरने पड़ने चोट खाने का कोई भय नहीं, फिर भी, आंखो के दायरे से बाहर नहीं जाने देना चाहती वो उसे। कब मुक्‍त होगी वह इन डरो से। क्‍या कभी ये दुनियां वैसी होगी जहां कोई लड़की अपनी पूरी उम्र बगैर डरे जी पाये, ईश्‍वर ने सृ‍ष्टि रचते हुये ये जो इतने सारे तरह तरह के जीव जन्‍तु बनाये... उन सब में उसके जैसा बिल्‍कुल उसका दूसरा कम उसका पूरक उसी की नस्‍ल का...। क्‍या एक के बिना दूसरे का अस्तित्‍व संभव है...? फिर, क्‍यों और कैसे एक की सत्‍ता दिन व दिन और और मजबूत होती गयी और दूसरा सिर्फ दास नुमा भूमिका भूमिका में उतरता गया, कैसी बिडंबना है- डर भी उसी से है और डर भगाने के लिये सहारा भी उसी का है। औरताना जिंदगी के उम्र का कोई पड़ाव इस... डर से अछूता बचा है क्‍या ? छोटी बच्चियों से लेकर दादी, नानी की उम्र तक की औरत तभी एक सलामत जब तक सामने पड़ने वाले पुरूष के भीतर का पिशाच जाग न जाये ... और पिशाच को जगने न देने के लिये तमाम एहतियात... न ऐसे न रहो...ये न पहनो...यों न बैठो... न चलो... यूं न देखो .... बंदिशे, सलोहं सहूलियतें समझाइशें...।

वह उतान पड़ी है कमरे में, स्‍कूल बैग, ड्रेस, बोतल जूता मोजा सब बिखरे पड़े हैं कितनी बार कमरे को व्‍यस्थित रखने को कह चुकी है... पर वह सुनती नहीं... ज्‍यादा बोलने पर झुंझला जाती है। पतिदेव का कहना है तुम कुछ सिखाती नहीं। अब वो न सुने उसके कहे को तो? यूं भी स्‍कूल से थके यादें आये बच्‍चों पर कड़कडाना उसे अच्‍छा नहीं लगता। दो बजे तक उसकी अपनी बैटरी भी डिस्‍चार्ज हो चुकी होती है जैसे-तैसे बच्‍चों का खाना परोस उसे खुद भी बिस्‍तर ही दीखता है।

देखो, कैसी तो बेहोश सी सो रही है। सोचते हुये... वह इधर उधर बिखरी चीजों को समेटने लगी हैं उसकी आहट ने बेफिक्र सोई बेटी को शायद नींद में ही झिझोड दिया है... फैले पैर को सिकोड़ करवट ले उनीदी आंखे खोलती हैं बेटी का यों पैर सिकोड़ना... पता नहीं क्‍यों उसे भीतर तक मथ देता है आहटें, बेटियों को ही पैर सिकोड़ना पर क्‍यों मजबूर कर देती हैं...?

“कोई नहीं... मैं हॅू...।” वह आश्‍वस्‍त सी करती कहती हैं... और फिर चीजों समेटने में जुट जाती हैं... उफ ये टयूशन वाला बैग... कल से चेन खुली है इसकी... सोचते हुये बैग उठाती है... खुली चेन को बंद करते भीतर कुछ चमकता है... ये क्‍या है...? अरे, ये यहां.... इसके बैग में.. कितने दिनों से वह इसे किचन में ढूढ़ रही थी... पर, इसे इसने बैग में क्‍यों रक्‍खा है...? हाथ में पकड़ने फल काटने के चाकू पर उसकी नजरें जम सी गई हैं.... उसे चक्‍कर सा महसूस होता है... जाने कब, कैसे उसके भीतर का डर उसकी बेटी के भीतर प्रत्‍यारोपित हो गया... कब कैसे...?

---सपना सिंह

परिचय


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नाम - सपना सिंह

जन्‍म तिथि - 21जून 1969] गोरखपुर] उत्‍तर प्रदेश

शिक्षा - एम.ए. (इतिहास, हिन्‍दी) बी.एड.

प्रकाशित कृतियॉ - धर्मयुद्ध] साप्‍त’हिक हिन्‍दुस्‍तान के किशोर कालमों सें लेखन की शुरूआत, पहली कहानी 1993 के सिम्‍बर हंस में प्रकाशित... लम्‍बे गैप के बाद पुन: लेखन की शुरूआत, अबतक-‘’हंस-कथादेश’’, परिकथा,कथाक्रम, सखी(जागरण), समर लोक संबोधन (प्रेमकथा विशेषांक), हमारा भारत, निकट, अर्यसदेंश, युगवंशिका, माटी, इन्‍द्रपस्‍थ भारती, गम्‍भीर समाचार, कथा यूके ‘पुरवाई’ , इत्‍यादि में दो दर्जन से अधिक कहानियॉं प्रकाशित।
आकशवाणी से कहानियों का निरतंर प्रसारण।
प्रतिलिपि, सत्‍याग्रह, शब्‍दाकंन, हस्‍ताक्षर, पहलीबार, नॉटनाल वेब पत्रिकाओं में कहानियां।
उपन्‍यास - तपते जेठ में गुलमोहर जैसा।
कहानी संग्रह़ - उम्र जितना लम्‍बा प्‍यार , चाकर राखो जी

सपना सिंह
द्वारा प्रो. संजय सिंह परिहार
म.नं. 10/1456, आलाप के बगल में,
अरूण नगर रीवा (म.प्र.)

मो.न्ं. 09425833407


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