Wednesday, February 13, 2019

शिकार - प्रत्यक्षा


            




"हमारी कल्पनाएँ,हमारे स्वप्न ,हमारा प्रेम ,हमारी सोच और हमारा जीवन सब कभी न कभी वास्तविक धरातल ढूँढते ही हैं । प्रत्यक्षा की कहानी "शिकार" ऐसे ही प्रेम को धरातल पर रखकर परखती है। कहानी आप सभी के लिए।"








शिकार
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उनके बदन से खमीर उठते आटे की महक आती थी । खासकर पेट का वो हिस्सा जो ब्लाउज़ और साडी के बीच आता है । खूब गूँधे हुये नर्म मुलायम मैदे की लोई । सामने दस्तरखान बिछा था । बाकरखानी रोटी के साथ गोश्त का शोरबा । कटोरियों में मीठे चावल , फिरनी । रोटी को शोरबे में डुबो डुबो कर खा रहा था । बीच बीच में उनकी ओर नज़र उठाकर देख लेता । वो चुप बैठीं मुझे खाते देख रही थीं । नज़र बार बार चेहरे से फिसल जाती थी नीचे उनके अनावृत पेट पर । लेस लगा सफेद साडी का पल्ला खिसक गया था । मुझे ये पता चल गया था कि थोडी सी बडी उम्र की औरतें , मतलब तीस पैंतीस के ऊपर , अपने शरीर से लापरवाह हो जाती हैं । कम उम्र लडकियाँ , कुँवारी लडकियाँ अपने शरीर के प्रति सजग रहती हैं । दिखाना भी हो तो एक चौकन्नी सजगता रोम रोम से फूटती है , आओ देखो । छुपाना हो तो दस लपेटे में छुपा के रखा ,फिर भी कहीं दिखाने लायक आभास छोडता हुआ जैसे एक धीमा उच्छावास । पर तीस पैंतीस की स्त्रियाँ , पल्लू ढलक जाये , छाती का उभार दिखता हो , पीठ का मोहक भराव लपटें मारे , पेट ,कमर का हिस्सा दो बच्चों के जन्म के फैलाव को अपनी पूरी संपूर्णता में जग जाहिर करे । आह ! ये तीस पैंतीस की औरतें ।

मैं खाता जा रहा था , उनकी ओर देखता जा रहा था । उनकी आँखों में कल रात के काजल की अँधियारी परछाईं थी । उनको देखकर हमेशा ऐसा लगता कि अभी सुबह सुबह तैयार हो कर उन्होंने काजल नहीं लगाया । रात का कोई जादू उनकी आँखों से सुबह सवेरे बोलता था । उनकी आँखें ऐसी कोई सुन्दर नहीं थी । पर मुझे बहुत सुन्दर लगती थीं । छोटी छोटी तिरछी आँखें , काली चमकीली आँखें , घनी बरौनियोँ से ढँकी आँखें । कोई गहरा रहस्य अचानक जैसे थम गया हो , पानी पर तरंग एकदम शांत होने के पल भर पहले , घने जंगलों के बीच छोटा सा तालाब जिसपर पेडों का प्रतिबिम्ब ,हरी काली आभा छोडता हुआ ।

मैं खाता जा रहा था , उनकी ओर देखता जा रहा था । उनके नाक के हीरे का लौंग लश्कारा मार रहा था । वैसे मारना नहीं चाहिये था क्योंकि वो एकदम शांत बैठी हुई थीं । पर मैं हिल रहा था । मेरी आँखों में हीरे की लपट थी | उनके हाथ गोद में निस्पन्द पडे थे । गुलाबी हथेलियों वाले गुदाज़ हाथ । कमल के फूल जैसे हाथ । इन्हीं हाथों से उन्होंने गोश्त पकाया होगा । पेट भर चला था । उन्होंने बिना कुछ बोले फिरनी का कटोरा मेरी ओर सरकाया । पल्लू अब एहतियातन कँधों पर से लपेट कर कमर में खोंस लिया । मेरी बहकती नज़र उन्होंने देख ली थी क्या । मैं सतर सावधान बैठ गया था ।

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उस दिन गया तो बडी गहमागहमी । पिछवाडे के कमरे में रफीक के साथ बैठा । अब्बू के अकाउंटस देखने थे । बगल के सहन से बडी रौनकें । देग पर कुछ खदबदाता पक रहा था । भाप का गुबार उठ रहा था । खाने की खुशबू , मसाले भुने जाने की खुशबू । बरतनों रकाबियों की खटर पटर । कढाई में छोलनी चलाये जाने का संगीत । पतले कटे प्याज़ का ढेर । रफिया ,बडी व्यस्त , इधर उधर । खदीमा ,दुपट्टा सर पर लपेटे बुडबुडाती सिलबट्टे पर मसाला पीस रही थी । और इनसब के बीच वो बैठी थीं मोढे पर । दुपट्टा लपेट रखा था सर पर । एक बाल तक दिखता न था । चेहरा तमतम गुलाबी । चूल्हे की आँच से ।



-आयें , धूप में आ जायें । रफीक ने कगज़ों का पुलिन्दा उठाते हुये कहा था ।

कुर्सी खींच ली गई थी बाहर । एक गोल मेज़ बीच में लगा दी गई । सफेद लेस के मेजपोश से उसे ढक दिया गया । चाय आयी , बडे गिलासों में । वही दूध मसाले का काढा । ज़ोहर के नमाज़ का वक्त हो गया था । अज़ान की आवाज़ आ रही थी । रफीक के अब्बू उठ गये थे । कमरे में जानमाज़ बिछाकर घुटने मोड नमाज़ पढने लग गये । मैंने कुर्सी मोड ली सहन की ओर । लाल मिर्च तेल में भूनी जा रही थी । फिर इसे पीसा जायेगा । एक अलग कढाई में प्याज़ की बिरयानी तली जा रही थी ।

-रफिया हाथ जल्दी चला

-खदीमा , तशतरी ला , एक चमचा भी

उनकी आवाज़ ठहरी हुई थी । खदीमा बुडबुदाती हुई मसाला पीसना छोड , उटंग सलवार के पायँचे समेटते बावर्ची खाने में घुस गई ।

-बगेरी खायेंगे ? बस पक ही चला

बचपन में बगेरीवाला आता था । चिपटे गोलाकार टोकरियों में बगेरी , चाहा , तीतर , बटेर । दर्जन के हिसाब से खरीदा जाता । टोकरी के फाँक से चिडियों की आवाज़ आती ।

-बचवा उधर चले जाव ,कहकर वो हाथ डालता ज़रा सा ढक्क्न खिसका कर । एक एक करके शामत आती चिडियों की । गर्दन मरोड कर एक तरफ ढेर बनाता जाता । फिर पानी से भरे बर्तन की पुकार होती । पानी में डुबाकर उनके पर नोचे जाते । मैं भाग जाता । प्रण करता कि अब आगे कभी बगेरी ,चाहा नहीं खाउँगा । फिर लटपट मसालेदार पकता और मैं दो के बजाय चार रोटी खा लेता । फिर बगेरी वाले का आना छूट गया और मेरा खाने न खाने का द्वंद ।

आज इतने दिन बाद । गरम मसाले की खुशबू अब तेज़ हो गई थी । तेज़पत्ता , दालचीनी , लौंग , बडी इलायची की पोटली चावल के देग में डाली जा रही थी । भूने लाल मिर्च की झाँस से खाँसी उठ आई ।

तश्तरी में मसाले में लिपटा बगेरी , तेल छूटा हुआ । मैंने उनकी आँखों में ढीठ नज़रे डाले हुये एक बार में

गप्प से मुँह में डाल लिया । मसाली के तेज़ स्वाद से आँखों में आँसू भर आये पर उन्हें बदस्तूर देखता रहा । उनका चेहरा लाल हो गया । कुछ शर्म , कुछ नाराज़गी ,कुछ रौब । कुल मिलाकर एक अजीब सा भाव चेहरे पर आया , गुज़र गया । एक पल को असमंजस में ठिठकी फिर पलट कर बावर्ची खाने में



मैं क्रमश : ढीठ होता जा रहा था ।बेबाक होता जा रहा था । एक बरजोरी का सा भाव । वो अब हिचकने लगी थीं मेरे सामने आने में । पर अबतक मैं उनके घर का हिस्सा बन चुका था । मेरी पहुँच उनके जनानखाने तक हो गई थी । अम्मी , मतलब बडी बेगम मुझे अंदर बुलवा लेतीं । सरौते से सुपारी की कतलियाँ काटती रहतीं , तरह तरह के लच्छे । पानदान खुला रहता । उनके बाल मेंहदी से रंगे रहते और उनके झक्क गोरे चेहरे पर उम्र ने मकडजाल बनाना शुरु कर दिया था ।

-माहरुख बेटा ,कल जो सेवैइयाँ बनाई थीं , खिलाओ इसको

मैं खाता उनकी आँखों में आँख डाले । वो एक जालफँसी चिडिया सी बँधी आँखों से देखती । कभी होंठ खोलतीं कि अब शायद अम्मी को मना कर देंगी ,फिर होंठ भींच लेतीं । मैं भी खासा शातिर हो गया था इस मामले में । चेहरे पर एक मासूम भोलापन रहता । सिर्फ आँखें अपनी बात कहतीं । बेचैन आँखें जो फिरती थीं , उनके होठों पर , उनके छाती पर , गोद में पडे उनके हाथों पर । एक लपट निकलती थी जो मुझे जला रही थी धीमे धीमे । वो अब मेरे सामने सतर्क चौकन्नी हो गई थी । लपेट लपूट कर रखतीं खुद को । मेरे सामने उनके हाथ बारबार अपने दुपट्टे को , अपने आँचल को संभालते । कभी बाल , समेटे हुये बाल को दोबारा समेटतीं , कभी चेहरा पोंछती । गरज़ ये कि मेरे सामने वो अब अस्थिर होने लगी थीं । गुस्से की जगह अब एक शर्म भरी बेचैनी ने ले लिया था । उनके खाविंद ,अशरफ ,बाहर थे । साल छ महीने में आते । मैंने शिकार अच्छा चुना था । पर मेरे साथ पूरे इंसाफ के साथ अगर कहा जाये तो ये कि शिकार पहले मैं ही हुआ था । शिकार उनको बनाना तो बाद में हुआ था । पूर्वनियोजित षडयंत्र था । पूरी तौर पर षडयंत्र । अब मैं मौके की तलाश में था ।

शुरुआत फकत ऐसे हुई थी कि मैं सिर्फ उनको देखता । पर जैसे ही निगाह मिलती मैं घबडाकर नज़र फेर लेता । उनके चेहरे पर एक छोटी मुस्कान । मुँह फेर हँस पडतीं । फिर मेरी निगाह ढीठ होने लगीं । देखता तो नज़र मिला के । अब वो घबडाने लगीं थीं । वो जितना घबडातीं मैं उतना ही ढीठ होता जाता । पर मेरे लिये ये सिर्फ खेल था , महज़ एक खेल । एक आकर्षण दुर्निवार पर अंत में सिर्फ एक खेल ।


एक खुशबूदार दलदल में खुद को डुबा देने का तीव्र इच्छा लहक जाती । मेरी बेचैनी उन तक पहुँचने लगी थी । मेरी मौजूदगी में वो हडबडाई रहतीं । उँगलियाँ चेहरे , बाल , आँचल पर बेचैन घूमतीं , समेटती , सँवारती , बिखेरती काँपती लरज़ती उँगलियाँ । चेहरे पर सर्दी के बावज़ूद एक नमी आ जाती । मेरे चेहरे पर शिकार को फँसा लेने की आश्वस्तता पसरने लगती ।

आखिरकार ये मौका आ ही गया । उस दिन मैं रफीक के कमरे था । वो घुसी थीं कपडों का ढेर हाथ में । साँझ का झुटपुटा था । कमरे में अँधेरा था । बिजली अभी गई थी और रफीक गये थे रौशनी का इंतज़ाम करने । उनके साये का आभास हुआ था । फिर मीठी दालचीनी की सी महक और मैंने पीछे से उस खुशबू को भर लिया । अँधेरे को समेट लिया ,भर लिया आँखों में , होंठों में ,सीने में । एक धूँआ उठा ,ठोस पर तरल ,जंगली लतर , बेले का फूल उफ्फ मेरी जान ! पर एक तडप फिसल गई और उसके बाद जो हुआ वो अप्रत्याशित ! एक ज़ोरदार तमाचा चेहरे को टेढा कर गया ।

मेरा अंदाज़ा इतना गलत कैसे । शिकार मरते मरते आक्रमण कैसे कर गया । मैं चोरों की तरह निकल भागा था उस दिन । फिर कई दिन गायब रहा । एकाधबार रफीक से मिलने के बावज़ूद बहाना बना गया ।

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ट्रेन में बैठे बैठे यही सब सोचता रहा । खिडकी की सलाखों से भागते गाँव , खेत हरे के हरे , अधनंगे बच्चे भागते ट्रेन को देखकर कुछ दूर तक साथ साथ दौडते , देसी मुर्गी अपने चूज़ों के साथ गाँव घरों के सामने चौंक कर कुडक कूँ करतीं , तालाब में पगुराती भैंसे , एक कतार से बत्तखों का झुंड क्वैक क्वैक करता , ताड के पेड कतार के कतार , रहट से पानी पटाता किसान , सब भागते रहे , निमिष मात्र को आँखों के आगे आते फिर ओझल हो जाते । मैं गर्दन सलाखों से सटाये चेहरा टेढा किये अंतिम क्षण तक उस दृश्य को पकडने की असफल कोशिश करता रहा । एक गाँव आता ,छूट जाता , फिर दूसरा ,फिर दूसरा । खेत के खेत , मैदान का मैदान, छोटे कस्बे , रेलवे क्रॉसिंग पर इंतज़ार करते साईकिल सवार , ट्रैक़्टर पर परिवार । मैं सुन्न बैठा रहा । बीच बीच में कुलहड वाली चाय सुडकता रहा । खोवे की लाई , रेत पर भूना हुआ मूँगफली , चनाज़ोर वाला । लोग खरीदते रहे ,खाते रहे , टूँगते रहे । ट्रेन का फर्श मूँगफली के छिलकों से , खाली ठोंगों से अट गया । जूता पॉलिश वाला जूता चमकाता रहा । सूरदास गाना सुनाकर अपनी अल्मूनियम की थाली बजाता रहा । इन सब के बीच मैं निर्विकार सुन्न बैठा रहा । हिलता रहा , झपकता रहा । मेरा सर खिडकी की सलाखों से नींद में टकराता रहा । उठा तो एक गूमड ,कान के ऊपर टीस मार रहा था । झटक कर ख्यालों को परे हटाया । गुस्सा , खीज , झुँझलाहट , शर्मिन्दगी और हार ,बस हार ।



इसबार गौना था । उसे लाना था । घर पर पीली धोती का अंबार , आंगन में सूखते पापड , बडी , अचार । रिश्तेदारों की भीड । पंडाल घेर कर बैठने का स्थान । छत पर हलवाई का जमावडा । खौलती कढाई में छनती पूडियाँ , इमरती , तले हुये परवल की मसालेदार तरकारी , उबले आलू मटर की रसेदार सब्ज़ी , दही में बुन्दिया । हवन , पूजा , मंत्रोच्चार । गहमागहमी , भागदौड । खेलते बच्चे , सजती औरतें । आलता लगे पाँव , बिछिया, नथ । सूप में चावल , नारियल , रोली हल्दी । पंडित , नाई, बीच बिचैव्वा ।

मैं सब भूल गया । सब ।

उसकी छूईमूई छवि सिर्फ याद रही । उसका लाल गोटेदार चादर मेरे पीले चादर से बँधा । गठरी सी मेरे पीछे सूप पर पैर रख कर घर में प्रवेश करती वो । पान के पत्ते से उसका स्वागत । अक्षत रोली हल्दी दही । फिर हम दो , सिर्फ हम दो ।

साँकल बन्द की । पीली गठरी बिस्तर पर । कमरे में हल्दी की महक , चंदन की महक । मेरी हथेलियाँ पसीज रही थीं । चेहरा ऊपर किया । बेतरतीब पर बडी चमकीली घनी भौंहे और उसके नीचे बन्द पलकों पर गहरी घनी बरौनियाँ । नाक की थरथराती नथ के नीचे भरे होंठ । आह !

पतली सुकुमार कलाईयों पर ढेर सारी धानी पीली चूडियाँ ,फिसल कर कुहनी तक आ गई थीं । जैसे किसी और की पहन ली हो । दो दो , सवा दो ,दो आना दो , चूडियों के नाप । कौन से तेरे नाप । मैंने थाहना चाहा पर वो चिहुँक गई । गले की हड्डी ठमक गई एकबार । बीच का गड्ढा ,सुबुक सा एक पल को काँप गया ,धडक गया । मैंने गठरी समेट ली । मेरी बाँहें किसी अनचिन्हे आवेग से थरथरा रही थीं । ज्यादा न भींच दूँ इसका संयम भारी पड रहा था । कच्चे दूध की गमक , बारिश पहली ,मिट्टी पर । छोटे छोटे चहबच्चे में पानी टप टप टपकता , फिर मूसलाधार । दूब का हरापन ,कचाईन हराईन फिर मीठा ,फिर मीठा ।

हाथों पर अचानक कुछ गडा । देखा । आँचल में बँधा खोंईंचा जो किसी शरारती नटखट ननद के इंतज़ार में था । पर हमारे यहाँ कौन । फिर नहीं तो किसी जेठानी , देवरानी का अधिकार । पर बडके भैया ऐसे ही रह गये । ब्याह ही नहीं किया । क्यों नहीं किया कौन जाने । ऐसे लंबे हट्टे कट्ठे । फिर फुसफुसाहट कि कोई नुक्स । पर जो भी हो , घर में अम्मा के सिवा कौन खोलने वाला खोंईचा ।

तब मैं ही बन्धु मैं ही सखा । मेरी उँगलियाँ अचानक मोटी हो गईं । पहली गाँठ मुश्किल से खुली । फिर खुली तो खुलती गई । चावल . दूब , हल्दी का टुकडा , तुडा मुडा पचास का नोट और एक रुपये का सिक्का , सब बिखर गया हरहरा कर ।

सुबह चाँपाकल पर नहाते महुये की मीठी खुशबू आती रही । शहद टपकता रहा गाढा । इसबार लौटा तो दूसरे हाल में ।

पर उनके यहाँ जाना बदस्तूर चलता रहा । ये दूसरी शुरुआत एक अजब वाकया था । रफीक लगभग घेर घार कर मुझे ले गया घर । रफीक से मेरी दोस्ती पुरानी थी । दोस्ती भी ऐसी कि खूब मान मनौव्वल । कभी पैसे माँगे तो ऐसे हक , अधिकार से माँगे कि दिया और खुद फिर कहीं से उधारी की । मना अगर कर दिया तो जिद्द पर अड गये, दोगे कैसे नहीं । हमें ज़रूरत है तो फिर तुम्हीं से लेंगे । हमें कुछ नहीं सुनना । बात की तो शुरु लडाई से हुई । रुठ गये । फिर खुद कहा कि भई अब मना भी लो । खाने पर बुलाया ,वो भी सुबह सवेरे नाश्ते पर और टरका दिया पावरोटी ऑमलेट पर । जाओ फिर कभी फुरसत से बिरयानी कबाब खिलायेंगे ।

उम्र हो गई थी पर ऐसी भी नहीं पर लडाई बच्चों वाली । अम्मी , अशरफ भाई , घर के सब , मतलब खदीमा , रफिया , बच्चे हमें देख देख हँसे , ये लोग ऐसे लडते हैं । औरतें गीली गीली । ऐसी दोस्ती । इकतीस दिसंबर को रात पीते रहे दोनों । सुकून से बैठे सुनते रहे एकदूसरे को। तू मेरा भाई , मेरा यार । दसियों बार दोहराया , दोनों ने। पीकर याराना गाढा होता है । पर यहाँ तो वैसे भी था । हम हँसते रहे चुपके चुपके । बाद में मिलकर खूब ब्लैकमेल किया , उस रात क्या क्या बोले । हम ज़रूर खूब उल्लुपना किये होंगे , दोनों झेंपें ।



हर मुद्दे पर हमारे बीच खूब गर्मागरम बहस । कोई फर्क नहीं हमारे बीच । हम बेखबर , हम गाफिल । चाय और पकौडियों पर बहस चलती रहे देर रात तक । कौन किसके पक्ष में बोल रहा है इससे कोई सरोकार नहीं । हम दो खेमे में ज़रूर थे अपनी तार्किकता पर मुग्ध , जुनून से हमारे शब्द जलते थे । हम वक्त रहते इस गुट से उस गुट में अदलाबदली करते थे ,शब्दों और भावनाओं पर सवारी करते और अंत में थककर चूर हो जाते । देर रात लौटते ।

फिर इस दोस्ती को दरकिनार कर मैं उनकी ओर बिलावजह क्यों खिंचा । जैसे एक साँप सम्मोहित करता है वैसे ही उनकी छोटी छोटी चमकीली आँखों से मैं खिंचा । खैर , जो हुआ अच्छा हुआ । बहुत अच्छा हुआ ।बस एक गडबड ये हुई कि उनके सामने आने में मैं असहज हो जाता । कोशिश करता कि बाहर से ही लौट जाऊँ ।अगर कभी वो आ जातीं तो मैं तुरत उठ जाता । वो झन्नाटेदार तमाचा याद आ जाता । मेरी हथेलियाँ खुदबखुद चेहरे को सहला जातीं । न , उस दिन कुछ न हुआ , बहुत अच्छा हुआ । मैं दलदल में धँसने से बच गया । मैं रफीक से मिलते रहने के लिये बच गया । मैं उस महुये और हल्दी के कच्चे सुगंध के लिये बच गया ।

पर इधर गौर किया उनकी आँखें मुझे ताकतीं । क्या वो किसी माफी के इंतज़ार में थीं । उनके चेहरे पर सचमुच एक इंतज़ार फैला रहता । आँखें ज़रा सा ज्यादा खुलीं , कहो ,कहो न कुछ । मैं क्या बोलता । शर्मिन्दगी तारी हो जाती । एक पीली गठरी याद आती । दूब का कचाईन हराईन मीठापन याद आ जाता ।

इंतज़ार धडकता था ,डब डब । ज़रदे और कीमा में , शामी और रेशमी कबाब में , मसालेदार सुपारी में , इत्र फुलेल में , आँगन में , सहन में , तार पर फैले सूखते कलफ लगे कपडों में , पायँचे वाले शलवार में , लेसदार दुपट्टे में , चूडी वाले पजामे में , चूडियों में ,चिडियों में , कबूतर और परिन्दों में । और एक दिन मेरे गर्दन पर कान के पीछे उस इंतज़ार ने अपने होंठ रख दिये , गर्म नर्म । एक दाग , जला हुआ आग । और एकदम अचक्के से चील ने झपट्टा मारा । मैं अंदर गुडुप । हाथ पैर छटपटा गये । साँस बेकाबू । मैं फँस गया था । शिकारी खुद अपने जाल में फँस गया था ।

शहद के अंदर का गाढा रस मेरी शिराओं में बहने लगा था । मीठा , लसलसा और मैं उसमें डूबता चला जा रहा था ।एक भंवर था और मैं बहता तिनका । खुश्बू की एक भारी चादर तिरी थी जहाँ दम घुटता न घुटता था , जहाँ बहाव के जोर के आगे मेरे पैर टिकते न टिकते थे । मैं सबकुछ भूल रहा था ,सबकुछ ।



साल बीत गये इसबात को । कई कई साल । शहर छूट गया , दोस्त छूट गये । शरीर के रंग बेरंग हो गये । मन अब बावरा नहीं होता , किसी भी चीज़ से नहीं होता । घर गृहस्थी के जंजाल , बच्चों की चिल्ल पों की खटराग , जीवन अब ऐसे ही चलता है । उस दिन लेकिन एक अजूबा देखा अपने शहर मोहल्ले में । कहाँ का भूला भटका गाँव गँवई का आदमी । कंधे पर बहंगी लटकाये , चमरौंधे जूते , मटमैले कपडे ,चेहरा धूल पसीने का साक्षात विज्ञापन बना हुआ । पता नहीं बहंगी में था क्या । कोई माल असबाब या क्या पता कोई जादू का पिटारा । अजब भौंचक निगाहों से इधर उधर ताकते चला था । मैं भी ठिठक कर खडा रह गया था । मेरे चेहरे पर कोई मुस्कुराहट होगी , जरूर होगी क्योंकि एक बार उससे निगाह मिली थी तो उसके चेहरे पर भी कोई जवाबी मुस्कान का झेंप भरा पैरोडी सा कुछ क्षण भर को शायद कौंध गया था । फिर पल भर में कहीं भीड भरी गलियों में बिला गया । एक साँस पहले तक मेरी निगाह के हद में था और अगले साँस लेने तक गायब ।मैंने तेज़ साँस भरी थी , और यकीन मानिये उस साँस में सिर्फ साँस ही नहीं आई , साथ में एक तेज़ भभका दालचीनी लौंग इलायची के खुशबू में लिपटा बगेरी के मसालेदार कौर का भी आया । कौन यकीन करेगा लेकिन सचमुच मेरी जीभ पर वही स्वाद पल भर को नोक से होकर पूरे मुँह में भर गया । और उस स्वाद के साथ ही मेरे गर्दन पर कान के पीछी इंतज़ार का गर्म नर्म दाग , एक जला हुआ आग लहक गया ।आज तक मुझे नहीं पता कि शिकार किसने किसका किया ।


--प्रत्यक्षा
pratyaksha@gmail.com

साभार: अन्यथा पत्रिका 


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