Saturday, October 01, 2016

सूखी जमीन पर जीवन के उल्लास की कहानी: 'पार्च्ड' - स्वाती



सूखी जमीन पर जीवन के उल्लास की कहानी: 'पार्च्ड'









   


  बीते तकरीबन दस दिनों के भीतर दो बेहतरीन फिल्में देखना अपने आप में एक अच्छा अनुभव रहा.., दोनों ही फिल्में स्त्री जीवन से जुड़ी हैं और मेरे दर्शक में भी मेरा स्त्री होना शामिल है ही.. यहाँ पिंक और पार्च्ड की समानता की कोई बात नहीं क्योंकि मुझे दोनों एक जैसी लगी भी नहीं, सिवाय इस बात के कि वहाँ कहानी के केंद्र में तीन लड़कियाँ थीं, और यहाँ चार औरतें। बहरहाल 'पार्च्ड' का परिवेश, कथानक, ट्रीटमेंट अलग है... क्या और कितना नया है, ये अलग बात है।  सूख कर ऊसर बन चले मन की ज़मीन पर जब इच्छाओं की बूंदें गिरती हैं, तो क्या अहसास होता होगा... पार्च्ड मुझे इसी अहसास की कहानी लगी। इस फिल्म के लेखन और निर्देशन के लिए यकीनन लीना यादव बधाई की पात्र हैं, उस लेखन को ज़िन्दा करने वाले अभिनेता कलाकार काबिलेतारीफ हैं। जानकी का चरित्र निभाने वाली सबसे छोटी अदाकार लहर खान के अभिनय में भी उतनी ही गंभीरता है जितनी बाकी स्त्री चरित्रों के अभिनय में। दृश्यों को जीवंत बाने वाली फिल्म की सिनेमैटोग्राफी कमाल की है।

स्त्रियों की समस्याओं पर एक स्त्री के नज़रिए से बनाई गई इस फिल्म में अपनी समस्याओं से जूझती खुदमुख्तार औरतें हैं। चार-औरतें, चार जीवन, पर यह फिल्म और इसकी कहानी सिर्फ उन चार औरतों और उनके जीवन की कहानी नहीं है। यह कहानी दरअसल उन जीवनों के मार्फत स्त्री इच्छाओं के अधूरेपन को खारिज़ कर खुले आकाश में अपने होने को महसूस कर सकने की कहानी है, स्त्री का अपने शरीर पर अधिकार व उसके उत्सवधर्मिता की भी कहानी कहती है यह फिल्म। ‘पिंक’ में शहरी परिवेश में कामकाजी लड़कियों के अपने शरीर पर अधिकार पाने और किसी भी तरह की जबरदस्ती को ‘न’ कह सकने के हक़ की लड़ाई है तो 'पार्च्ड' ग्रामीण परिवेश में रची एक ऐसी कहानी है, जहाँ मरुस्थल बन चुके स्त्री मन के भीतर इच्छाओं की बूँदें गिरती हैं, जहाँ आकाश की ओर मुँह बाए हवा को भर लेने की ख्वाहिश है और जहाँ अपनी इच्छाओं के अनुरूप जीने को लेकर कोई गिल्ट नहीं है। हमने यों तो स्त्रियोन्मुखी बहुत सी फिल्में देखी हैं, बहुत से मजबूत स्त्री चरित्र भी देखे हैं, पर उन मजबूती के पीछे, परिवार न बसा पाने का गिल्ट है कहीं तो कहीं अपनी यौन इच्छाओं के बारे में सोच भर लेने से जन्मा गिल्ट भी दिखाई देता है.. यह गिल्ट हमारे समाज की देन है, जिसने ‘यौन शुचिता’ का एक भयावह बोझ स्त्रियों पर डाल रखा है, जो संबंधों को बचाने की सारी ज़िम्मेदारी स्त्रियों पर डाल पुरुषों को उनके सपनों को जीने के लिए पूरा आकाश थमा देता है और जिसने स्त्रियों को इस ओर इतनी बारीकी से अनुकूलित कर दिया है कि इसके बाहर सोचना तक गिल्ट में डाल देता है उन्हें... बाँझपन, बाल-विवाह, वैधव्य और वैश्यावृत्ति से जूझती इन स्त्रियों के जीवन में प्रेम का अभाव तो है, पर वे उस अभाव को अपने जीवन की नियति नहीं मानतीं, उनकी ठिठोलियाँ इस अभाव के गाढ़ेपन में उम्मीद की रोशनी की तरह झिलमिलाती रहती हैं। गालियों के पीछे की मर्दवादी मानसिकता पर करारा चोट करती हुई यह फिल्म स्त्री उन्मुक्तता का उल्लास रचती है। कोई भी सोचने वाला इंसान इन गालियों के बनाए जाने की मानसिकता को ज़रूर समझना चाहेगा और उसे वह दृश्य, जब बिजली अपनी दोस्तों रानी व लाजो से इस बारे में बात करती है, इस ओर और सोचने के लिए बाध्य करेगा। सच कहूँ तो यह फिल्म मुझे शुरू से लेकर आखिर तक उस तरह से फिल्म लगी नहीं, जिस तरह की फिल्में बड़ी संख्या में बनाई व देखी जाती हैं। ऐसा कहते हुए मैं इस फिल्म को, उसकी कलात्मकता को कतई कम करके नहीं देख रही.. ऐसी फिल्म जो शुरू से आखिर तक बिना किसी चकाचौंध के आपको अपने साथ कर ले.. अपने हर दृश्य, हर संवाद, हर चरित्र के ज़रिए किसी तरीके की भव्यता नहीं परोसे बल्कि अपनी कहानी के ज़रिए एक ऐसा जीवन आपके सामने रखे, जिसे उसके दृश्य, संवाद, चरित्र ज़िन्दगी देते हों, तो क्या कहा जाए... यकीनन यह फिल्म उन लोगों के लिए नहीं है जो फिल्म से एक खास तरह का मनोरंजन ढूँढ़ते हैं, जो फिल्म की सुनी सुनाई खबर पर फिल्म में ‘मज़ा’ लेने जाएँ, पर वहीं मुझे यह भी लगता है, उन्हें यह फिल्म फिर भी देखनी चाहिए, क्या पता अपने भीतर की मर्दवादी मानसिकता को और अधिक पोसने की जगह उन्हें अपने भीतर के खोते इंसान को ज़िन्दा करने का ख्याल हो आए...

मैं पहले भी कह चुकी हूँ कि फिल्में सब कुछ नहीं बदल सकतीं और हमें सारी ज़िम्मेदारी सिनेमा पर डालनी भी नहीं चाहिए। रानी, लाजो, बिजली, जानकी- चार एकदम सहज़ और सामान्य चरित्र जिनपर यकीन करना ज़रा भी मुश्किल नहीं.. पर जो चीज़ इन चार चरित्रों को खास बनाती है वह है अपने होने का अहसास, और एक दूसरे से उनका कनेक्शन जो उस बनाई गई धारणा को खारिज़ करता है कि स्त्रियाँ ही स्त्रियों की दुश्मन होती हैं। पितृसत्ता में जीती ये चारों औरतें, जो वैधव्य, बाँझपन, बाल-विवाह, वैश्यावृत्ति जैसी चार बड़ी सामाजिक समस्याओं से जूझ रही हैं, पर कितना जीवन बचा हुआ है इन चरित्रों में, और ये जो जीवन है, वही इन्हें खूबसूरत बनाता है...सामाजिक रूढ़ियों में बंधी इन औरतों का जीवन कहीं भी ठहरा हुआ नहीं है, वे काम करती हैं, कुछ हद तक जुल्म भी सहती हैं, पर उसे अपनी नियति नहीं मानतीं.. तभी तो अंत में पूरा आकाश उन्हें अपना लगता है..

रोज़ रात में अपने पति के हाथों पिटती लाज़ो को देख जहाँ एक अजीब सा दर्द और क्रोध भी पैदा होता है, वहीं आदिल हुसैन के साथ का वह प्रेम दृश्य मन को उतना ही खूबसूरत लगता है। फिल्म की सिनेमैटोग्राफी फिल्म की कई सारी खासियतों में से एक है। यह मानना और भी पुख्ता हुआ कि सिनेमैटोग्राफर का नज़रिया किसी दृश्य को एक बिलकुल अलग आयाम दे सकता है... वह दृश्य और उसके तुरंत बाद का दृश्य इतनी खूबसूरती से फिल्माया गया है कि वह खूबसूरती देखने वाले के भीतर उतर आती है और उसी वक़्त बजता 'माइ री' गाना उस खूबसूरती के रंग को और गाढ़ा करता है।

फिल्म के संवाद हमारे सामाजिक ताने बाने को ही उकेरते हैं, "पढ़लिख कर किताबें सर चढ़ जाती हैं" यह संवाद सिर्फ एक फिल्म का डायलॉग नहीं है। हम जैसी बहुत सी लड़कियों ने अपने जीवन में इस ताने को सुना ही होगा..
हंसी हँसी में लाजो का यह संवाद कि "अगर दुनिया में मेरे जैसी बाँझ नहीं होती, तो बच्चों का तो अब तक अलग देश बन गया होता" मन में चुभता है... बच्चे किसी भी वज़ह से पैदा न कर सकने वाली स्त्रियों के जीवन को जिस किसी ने देखा होगा वह इस चुभन को समझ सकेगा.. पता नहीं क्यों मुझे हमेशा ऐसा लगता है हम जब चीज़ों को ग्लोरिफाइ करते हैं न तो उसके पीछे एक खास तरह की शोषण की मानसिकता काम करती है.. और इसलिए इस तरह के ग्लोरिफिकेशन से मुझे बेतरह खीझ होती है... एक औरत और उसके माँ होने को हमारा समाज अपनी उसी मानसिकता से ग्लोरिफाइ करता रहा है पर फिल्म के एक दूसरे दृश्य में बिजली के इस सवाल के जवाब में कि 'तू बच्चा क्यों चाहती है" लाजो का यह कहना कि वह बच्चा खुद के लिए चाहती है, एक राहत भरा दृश्य है।

इस फिल्म की कलात्मकता इस बात में है कि यह चार औरतों के सहारे हमें ऐसे सफर पर ले जाती है, जो हमें एक ओर हमारे समाज की मर्दवादी मानसिकता की क्रूरता को दिखाती है, वहीं उस क्रूरता से जूझती औरतों के सहारे जीवन का उल्लास रचती हैं। अपने अपने जीवन में, प्रेम रहित संबंधों में जीते हुए भी उनके अपने होने में कहीं भी प्रेम और जीवन धुंधलाता नहीं है। उनकी खिलखिलाहट, उनके सपने, उनका प्रेम यही तो डराता रहा है इस पितृसत्ता को जिसे वह गालियों व इस तरह के अन्य औजारों से नियंत्रित करता रहा है पर इस फिल्म की स्त्रियाँ हर उन गालियों को धता बता अपने भीतर के उफान से उस आकाश तक अपनी खिलखिलाहट पहुँचाती हैं। गाड़ी चलाती बिजली और उसपर सवार दुपट्टा उड़ाती रानी, लाजो और जानकी अपनी खिलखिलाहट से उस आकाश को खूबसूरत रंग से रंग देती हैं, जिसमें विचरने से उन्हें हमेशा  नियंत्रित किया गया...

अगर अब तक आपने फिल्म नहीं देखी है तो ज़रूर जाइए और झरने सी बहती इन स्त्री चरित्रों की उन्मुक्तता के उत्सव में शामिल होइए, आप खाली हाथ नहीं लौटेंगे। उन चरित्रों से, उनकी कहानी से कुछ न कुछ लेकर ही आएँगे...

- स्वाती



8 comments:

  1. Bahut achha likha hai aapne Swati Ji Film Abbi dekh nahi paaya par ab pahli fursat me dekhta hun.

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    1. bahut bahut shukriyaa.. zaroor dekhiye sir.

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    2. Hausla afzai k liye bahut shukriya sir.. Zarur dekhiye sir, pasand aayegi..

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  2. बेहतरीन विश्लेषण

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  3. अति सुँदर लिखा समग्रता से स्वाति। क्या बात है वाह। ललक पैदा हुई फिल्म देखने की। आभार।.कण्डवाल मोहन मदन

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    1. शुक्रिया.. ज़रूर देखें..

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