Wednesday, February 11, 2015

"पितृसत्तात्मक रूपों की शिनाख्.त" विशेष संदर्भ- होमवती देवी की कहानी ‘उत्तराधिकारी’ - अल्पना मिश्र

पितृसत्तात्मक रूपों की शिनाख्.त
विशेष संदर्भ- होमवती देवी की कहानी ‘उत्तराधिकारी’
- अल्पना मिश्र


अपनी जड़ों को पहचानने की कोशिश करती, जब मैं आधुनिक युग में गद्य के क्षेत्र में उतर आईं महिला रचनाकारों को पढ़ रही थी, तब तमाम कहानियाॅ मुझे अपनी सर्जनात्मक क्षमता से रोमांचित करतीं और अपनी बेहद जमीनी अनुभवों से बनी देशज दृष्टि से बाॅधतीं, आह्लाद से भरती, विचार करने की प्रेरक बनती दिख रही थीं, कुछ कहानियाॅ स्त्री को देर से मिली शिक्षा के कारण भी दिखा रही थीं तो कुछ कह रही थीं कि आस्थाओं और नियति के प्रश्न से जूझना स्त्री के लिए कितना दारूण है और इससे निकलने के रास्ते कैसे सत्ता व्यवस्था के शिकंजे से आक्रांत बना दिए गए हैं। ऐसे में एक ऐसी कहानी मेरे हाथ लगी, जिसने मुझे चैंका भी दिया और विचार के लिए रोक भी लिया। यह कहानी तो अंधे के हाथ बटेर लगने की तरह थी। यहाॅ जड़ थी, जिसकी शाखाएं अब लहलहाती हुई दीखने लगी थीं। यह कहानी थी होमवती देवी की ‘उत्तराधिकारी’।

‘उत्तराधिकारी’ अपने प्रस्तुतीकरण में भाषा की सांकेतिकता और कलात्मकता लिए हुए थी, जब कि मैं मन ही मन यह मान कर चल रही थी कि बीसवीं शताब्दी के पुर्वार्द्ध में महिला लेखकों के लेखन में कलात्मक बारीकियों की बहुत उम्मीद करना उनके साथ अन्याय ही होगा, क्योंकि शिक्षा बहुत देर में स्त्रियों तक पॅहुची थी। उसमें भी जन साधारण की कोटि में आने वाली स्त्रियों की पॅहुच में यह और भी देर में आई। चेतना के स्तर पर असर दिखाने का काम इस शिक्षा ने और भी देर में शुरू किया। सन् 1877 में पहली बार लड़कियों को मैट्रिक  की परीक्षा देने की अनुमति मिली थी। भारतेंदु युग में भी स्त्री शिक्षा की मुख्य चिंता में स्त्री धर्म पालन करवाना ही था। स्वयं भारतेंदु के प्रसिद्ध बलिया भाषण में या ‘बाला बोधिनी’ के संपादकीय में यह चिंता व्यक्त होती रहती थी। भारतेंदु मंडल भी इससे भिन्न राय नहीं रखता था। प्रताप नारायण मिश्र, पर्दे के पीछे रहते हुए स्त्रियों को कुछ शिक्षा मिल जाए, इसी के पक्षधर थे। ऐसे में स्त्री चेतना की बात शिक्षा पर अधिक आधारित न होकर अनुभव पर ही आधारित हो सकती थी। शिक्षा प्राप्त महिलाओं ने जो स्त्री प्रश्न उठाए, उसमें भी जीवन अनुभव ही केन्द्र बना। इस जीवन अनुभव ने, सुधार आन्दोलनों से उठ रही बहस में जीवन यथार्थ पर बात करने की उन्हें समझ दी। द्विवेदीयुगीन स्त्री केन्द्रित पत्र पत्रिकाओं में इस बहस का स्वरूप देखा जा सकता है, जो पश्चिमी टाइप शिक्षा से अपने लिए माध्यम तो चुनती है पर स्त्री समस्या को ठेठ भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखने का साहस रखती है। इन्हीं वैचारिक पृष्ठभूमि के साथ होमवती देवी की कहानी ‘उत्तराधिकारी’ को देखना उचित होगा। इसी पृष्ठभूमि से उभर कर आई अनेक महिला रचनाकारों को पढ़ना सुखद अनुभूति से भरता है। हॅलाकि इन महिला कथाकारों को लेखक का ठीक ठाक दर्जा भी उस समय नहीं दिया गया और बाद में भी इन कहानियों को अनावश्यक समझ कर इन पर बात नहीं की गई। जबकि कुछ कहानियाॅ अपने कथ्य, शिल्प और ट्रीटमेंट की दृष्टि से अलग और तत्कालीन समय के हिसाब से नई स्त्री दृष्टि ले कर आ रही थीं। ऐसी ही अपने समय से आगे बढ़ी हुई नई स्त्री दृष्टि सम्पन्न कहानी है ‘उत्तराधिकारी’।

यह कहानी पिछले किसी भी दायरे को तोड़ती हुई स्त्री समस्या के हल की तरफ ले जाने वाली एक नई बहस उठाती है और पिछली किसी भी भावुकता से मुक्त होती हुई स्त्री के मानसिक अनुकूलन की जड़ता और पितृसत्ता की आचार संहिता, दोनों को एक साथ चुनौती देती है। इसका कथ्य अपने समय से बहुत आगे का है और इसके कथ्य की सांकेतिकता में छिपी हुई लेकिन बेधड़क बोल्डनेस है।

होमवती देवी का जन्म 20 नवम्बर सन् 1902 में हुआ था। सन् 1936 में ‘उद्गार’ नाम से उनका पहला कविता संग्रह भी आया था। उनका पहला कहानी संग्रह ‘निसर्ग’ सन् 1939 में आ गया था। बहुत बाद में उनकी एक कहानी ‘ गोटे की टोपी’ पर किशोर साहू ने ‘सिंदूर’ नाम से एक फिल्म बनाई थी। हॅलाकि ‘गोटे की टोपी’ में भावुकता अधिक थी और फिल्म बनाए जाने की दृष्टि से उसका उपयोग समझ में आ सकता है फिर भी यह स्त्री जीवन के संदर्भ में मानव मन को संवेदनशील बनाने की उत्प्रेरक भूमिका निभाने वाली कहानी है और उनकी नई दृष्टि से जीवन को समझने तथा उसका हल ढूंढने की कोशिशों को यहाॅ भी बखूबी लक्ष्य किया जा सकता है। चूॅकि लेखिका का देहान्त सन् 1951 में हुआ था, इस हिसाब से उनका रचनाकाल प्रेमचंद और उनके कुछ बाद का ठहरता है। यह वह दौर था जब कहानी के क्षेत्र में अनेक दिग्गज मौजूद थे। हिंदी कहानी ने अपना स्वरूप और अपनी उॅचाई पा ली थी। लेकिन यही वह समय था जब स्त्री का कहानीकार के रूप में प्रतिष्ठित हो जाना लगभग असंभव भी था। सुभद्रा कुमारी चैहान की बेहतरीन कहानियों का जिक्र मुख्य कथा धारा में नहीं किया गया। कविताओं में कुछ स्वीकृति जरूर मिल रही थी। ऐसे समय में समाज की एक बड़ी समस्या अनमेल विवाह को ले कर नई दृष्टि के साथ बात करना निश्चित ही बड़ा दुस्साहसिक कदम था। जब कि इसी विषय को लेकर एक बेहद यथार्थवादी और मार्मिक उपन्यास ‘निर्मला’ प्रेमचंद लिख चुके थे।

‘उत्तराधिकारी’ में उठाई गई समस्या आज भी हमारे समाज में पूर्ववत मौजूद है। बस, कहीं कहीं उसकी पकड़ जरा सी ढीली पड़ी है, खास कर उन जगहों पर, जहाॅ स्त्रियों को कुछ अधिकार प्राप्त हुए हैं या उनमें अपनी स्थिति परिस्थिति को लेकर सजगता आई है। पुत्र मोह, वंश को आगे बढ़ाने की चाह, एक स्त्री की मृत्यु होते ही दूसरे विवाह की लालसा, गरीबी के कारण कम उम्र की लड़कियों का अधिक उम्र के पुरूषों से विवाह, वैध संबंधों की आड़ में अवैध संबंधों की स्थितियाॅ आदि इस कहानी के केंद्र में हैं।

लालाजी की तीसरी पत्नी का देहांत हो गया है और तेरहवीं के कर्मकांड के दिन ही लालाजी के लिए रिश्ते की बात लेकर बनिया आ पॅहुचा है। यही है हमारा समाज! यही सभ्यता है! जहाॅ स्त्री की मृत्यु शोक का विषय है तो सिर्फ इसलिए कि ‘‘ न कोई घर देखने वाला, न तीज त्यौहार मनाने वाला।’’ इससे बड़ी भूमिका उसकी नहीं है! लालाजी की कई बेटियाॅ हैं, पुत्र रत्न नहीं है। सामाजिक मान्यता यही है कि ‘‘लड़कियों से कब किसी का वंश चला है? और फिर यह अतुल धनराशि - इसका उत्तराधिकारी तो होना ही चाहिए।’’ इस अतुल धनराशि पर सबकी निगाह है। इसलिए भी लालाजी की पुत्रविहीन स्थिति सबके अर्थात् उनके रिश्तेदारों की चिंता के केन्द्र में है और अब वे लोग उन्हें बच्चा गोद ले लेने की सलाह भी देने लगे हैं। परंतु लालाजी को यह नहीं भा रहा है। दूसरे के पुत्र को अपने औरस पुत्र की जगह दे देने की उदारचेतना हमारे साजाजिक व्यवस्था का हिस्सा नहीं बन सकी है। आज भी यह सोच पाना आसान नहीं है। फिर लालाजी तो पिछली पीढ़ी के हैं। उनके लिए यह बात पचा पाना और भी मुश्किल है। और चूॅकि कन्या औरस संतान होते हुए भी सम्पत्ति की हकदार नहीं मानी गयी थी, इसलिए उसका होना न होना कोई महत्व नहीं रखता था। यह उसकी मायके में भूमिका और उपयोगिता दोनों को मद्देनजर रख कर पितृसत्ता द्वारा निर्धारित किया गया होगा। लड़की को धन सम्पत्ति का मालिक बनाने का मतलब था किसी दूसरे पुरूष के हाथ में अपनी सम्पत्ति की बागडोर थमा देना और यह पितृसत्तात्मक परिवार व्यवस्था के कतई अनुकूल नहीं हो सकता था। दूसरे, लड़की पिता का वंश नहीं चला सकती, यह स्पष्ट था, फिर उसे धन सम्पत्ति का हकदार बना कर क्या मिलेगा? इस समूची विडम्बना पर भी व्यंग्यार्थ यहाॅ देखा जा सकता है। इसलिए लालाजी इस तरह की कोई मजबूरी बन सकने के पहले सारे विकल्प आजमा लेना चाहते हैं। इस विकल्प में सबसे आसान विकल्प दूसरा, तीसरा, चैथा या पाँचवाँ... विवाह ही है। इसलिए वे धीमें स्वर में लेकिन स्पष्ट मंतव्य के साथ अपनी माँ  के पास आ कर कहते हैं कि ‘‘ इस समय तो सामने एक नई उलझन खड़ी हो गई माँ ! सब अपनी अपनी कहते हैं। मैं सोचता हूँ कि किसी को गोद ले कर रखने से क्या फायदा? अगर वंश चलना होगा तो तभी ....... जब इस घर की देहली पर होगा। ’’

लालाजी तीसरी पत्नी की तेरहवीं के दिन ही उस बीस वर्षीया गरीब लड़की से शादी के सपने देखने लगते हैं जब कि उनकी लड़कियों की बेटियों की शादी की उम्र हो रही है। उनकी नातिन सरोज का विवाह शीघ्र होने वाला है। पत्नी की मृत्यु का एक महीना बीता कि उधर उनकी नवविवाहिता का गृहप्रवेश हुआ। यहां लेखिका की भाषा का व्यंग्य बहुत पैना हो गया है - ‘‘ हॅसना और रोना - शादी तथा गमी- सब एक ही स्थान पर और एक ही व्यक्ति द्वारा संपादित होने में कोई आश्चर्य नहीं।’’ फिर लेखिका कुछ दार्शनिक हो उठती हैं कि ‘‘ यही संसार का क्रम है और यही शायद व्यक्ति का धर्म। इसमें रत्तीभर भी संदेह नहीं किया जा सकता।’’ लेकिन यह दार्शनिक भाव शीघ्र गायब हो जाता है। बल्कि कुछ और गहराई से देखने पर लगता यह है कि यह दार्शनिक भाव भी मीज दर्शन नहीं है और न ही लेखिका सृष्टि का नियम विधान समझाने बैठी हैं।  यहां  तो लक्ष्य स्त्री के मूल्यहीन जीवन को दिखाना है। किस तरह हमारा समाज उसके जीवन का मूल्य एक परिचारिका के रूप में आंकता है और उसकी मृत्यु के शोक में समय गॅवाने को निरर्थक समझता है। यह स्त्री प्रश्न सन् 1915 में लिखी गई आत्मकथा ‘सरलाः एक विधवा की आत्म जीवनी’ में लेखिका दुःखिनीबाला ने भी उठाया था। वहाॅ भी यह प्रश्नांकित हुआ था कि एक छोटी सी प्यारी लड़की के बधू बन कर घर आने और सबकी संवेदना के साथ उसके जुड़ जाने के बाद उसकी मृत्यु के समाचार को पाकर इकट्ठी हुई शोक सभा में दूसरे विवाह का प्रस्ताव शुरू हो जाता है। उससे भी पहले प. रमाबाई ने स्त्री जीवन को समाज द्वारा निकृष्ट बताये जाने के विरूद्ध तर्कपूर्ण ढंग से प्रतिवाद किया था। यहां भी लेखिका अपने उद्देश्य से पल भर को भी विचलित नहीं होती हैं। उनकी भाषा फिर यथार्थ के तेवर से भर जाती है।

होमवती जी, नवविवाहिता बधू और उसकी परिस्थितियों का चित्रण बिना किसी भावुकता में पड़े करती हैं। यह तटस्थ दृष्टि उन्हें यथार्थ को साफ देखने और उसकी सतहों को उघाड़ने का साहस देती है। यह बधू घर की स्थितियों से अनजान, भोली भाली मूर्खा नहीं है, वह तो इन परिस्थितियों से जूझने निकली है। नतीजा कि सास के पाॅव छूते ही वह अनुमान कर लेती है कि यह शायद अधिक दिन जीवित न रहे। धन दौलत की भी समझ है उसे ओर वह बहुत सावधानी से सारी परिस्थितियाॅ संभाल भी लेती है। बिना किसी नारेबाजी, बिना किसी शोर शराबे के, खालिस देशी पृष्ठभूमि से निकल कर ठोस कदम उठाती हुई एक मजबूत स्त्री की तरह वह पाठक के सामने आती है। लालाजी का भतीजा मोहन, जो उसका हमउम्र है, पढ़ा लिखा भी है, लालाजी का विश्वासपात्र भी है, उससे नवविवाहिता की सहज स्वाभाविक मित्रता, अपना नया रूप रंग ढूंढ लेती है।

यहाॅ लेखिका मनुष्य की सहज इच्छाओं और आकर्षण की बात कर के अपने समय से आगे खड़ी हो जाती हैं। वह गाॅव की एक अनपढ़ लड़की को चित और पट दोनों साधते दिखाने का साहस रखती हैं। इस साहस के साथ जो एक बड़ी बात कहानी के अंत में खुलती है, वह है स्त्री को स्त्री का सहयोग। यहां अंत में पता चलता है कि नवविवाहिता बहू के निर्णयों के पीछे एक सहमति सास की भी बनी हुई है और इस चित और पट को संभालने में वह स्त्री इसलिए भी अधिक सक्षम बन कर खड़ी हो पाई है। कहानी के अंतिम परिदृश्य में नवविवाहिता बहू पुत्रवती होती है। घर खुशियों से भर गया है। पूरे समय बहू के इर्द गिर्द जो व्यक्ति बना हुआ है, वह मोहन है। लेकिन मोहन और बहू के संबंध को ले कर लेखिका कहीं भी लाउड नहीं होती हंै। बेहद धीमा और सांकेतिक स्वर भी पाठक को ठीक ठीक पहचान में आ जाता है। अंतिम वाक्य लेखिका के इस कला कौशल का उदाहरण है। शिशु को उठाते हुए दादी कह पड़ती हैं- ‘‘ यह तो ठीक मोहन जैसा ही होगा, वैसी ही नाक, आॅख और वैसा ही उॅचा माथा......, जैसे दूसरा मोहन ही हो। ’’ पास ही खड़े मोहन ने एक बार शिशु की ओर और दूसरी बार उसकी माँ  की ओर देखा, पर वह जैसे लाज से धरती में गड़ी जा रही थी।’’
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एसोसिएट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली- 7

 

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