Thursday, September 11, 2014

अन्हियारे तलछट में चमका

वर्ष २०१४ का प्रेमचंद स्मृति कथा सम्मान कथाकार अल्पना मिश्र को उनके उपन्यास 'अन्हियारे तलछट में चमका' के लिए दिए जाने की घोषणा की गयी है.२००६ से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह ७ वां संस्करण है जिसके निर्णायक मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ चन्द्रकला त्रिपाठी थी .

 यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन को एक बड़ा विस्तार देता है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है.कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से संमृद्ध यह  हिंदी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित  सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए शिखर निर्मित करता है.




अल्पना मिश्र के उपन्यास -   ‘अन्हियारे तलछट में चमका ’ का अंश -
     
स्वर्णमृग और झील मन की हलचल

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 आत्मकथा - 4  

शचीन्द्र! हर दिन तुम लौटते हो। तुम नहीं लौटते! तुम्हारा साया लौटता है। तुम्हारा हमशक्ल कोई! तुम्हारी तरह मुस्काराने की कोशिश करता। तुम्हारी तरह बहस करने का मूड बनाता। पर तुम्हारी तरह नहीं, कुछ छूटा हुआ, कुछ रूका हुआ, कुछ बीता हुआ सा.... उस साये से कुछ छूटा हुआ ......! मैं इंतजार में रूकी, इंतजार में ही रह जाती हॅू। मेरा इंतजार नहीं टूटता, खत्म ही नहीं होता!
तुम लौटते हो। थके हुए से! लौटते ही मुझ पर टूट पड़ते हो। अपने को अजमाते, अपने से संघर्ष करते। अपने से निराश होते। अपने से खीजते। अशक्त और कमजोर। पहले से ज्यादा। किसी भी तर्क से अलग। अपना तर्क गढ़ते। अपने बचाव का तर्क गढ़ते।
‘‘कमजोर हो गया हॅू। शायद इसी से। अब से फल फूल, दूध दही नियम से खाउंगा तो देखना सब ठीक हो जाएगा।’’
तुम्हारा ध्यान अपने पुरूषार्थ पर केन्द्रित हो कर रह गया है! तुम कुछ और सोच ही नहीं पाते। जब मन करता है, रहते हो, जब मन करता है, कहीं के लिए निकल पड़ते हो। कहाॅ के लिए? कोई बता नहीं सकता। ठीक ठीक दोस्त मित्र भी नहीं बता पाते!
मैं ‘‘हाॅ। ठीक है।‘‘ कहती हॅू और फल फूल के इंतजाम के लिए बैंक से पैसे निकालने लगती हॅू।
‘‘फिर भी एक बार डाॅक्टर के पास चले जाते। मैं भी चलूंगी तुम्हारे साथ।‘‘ मैं सोचती हॅूू कि तुम झिझक रहे होगे। मुझे भी साथ चलना चाहिए।
‘‘अच्छा, चला जाउंगा।’’ तुम टालते हुए कहते हो।
‘‘कब? क्यों टाल रहे हो?’’ मैं सचमुच पीछे पड़ती हॅू।
‘‘क्यों मेरी जान खा रही हो! खा तो रहा हूॅ फल, सब्जियाॅ। थोड़ी कमजोरी है, कह तो दिया। थोड़ा इंतजार नहीं कर सकती। ’’ तुमने झल्ला कर कहा है। और भी बहुत कुछ कहा है। मुझे सेक्स के लिए तड़पती औरत की तरह व्याख्यायित कर दिया है। मुझे किस हद तक हर्ट करना चाहते हो? समझ में नहीं आता। जानती हॅू, तुम नाराज हो। मुझसे नाराज हो। अपने आप से नाराज हो।
हाॅ, मुझमें भी अतृप्ति की सागरिकाएं हिलोरे लेती हैं। देह जगती है मेरी भी। तुम्हारा छूना, सहलाना, चूमना बेचैन बनाता है मुझे भी। हाड़ मांस की बनी हॅू मैं भी। प्रेम के नाम पर कुर्बान होती हॅू। सहती हॅू। तुम्हें भी सहती हॅू। तुम यह जानते ही कहाॅ हो! त्ुाम इसे जानना चाहते ही कहाॅ हो?
एक दिन और लौटते हो तुम। हाथ में थैला लिए। इससे पहले कभी कुछ लाए नहीं। कुछ तुम अपने लिए ही लाए होगे। थैला मेरी ओर फेंक कर मुॅह हाथ धोने चले गए हो। थैला मेरी ओर आया है तो मैं उसे खोल देती हॅू। बीयर कैन! नमकीन!
हैरानी मेरी आॅखों में उतर आती है! हो सकता है दोस्तों के लिए हो।
‘‘क्या पार्टी का इरादा है?’’ हैरानी मेरे शब्दों से झर रही है।
‘‘कुछ बना सकोगी? पकौड़े या और कुछ तल लेती, जो आसानी से बन जाए।’’ मेरी बात पर तुम्हारा ध्यान नहीं है। तुम मॅुह हाथ धो कर निकल आए हो।
‘‘कोई आएगा? मतलब कुछ मित्रगण?’’
‘‘नहीं बाबा, ये मेरे और तुम्हारे लिए। आज हमारा दिन होगा।’’ तुम दुलरा कर कहते हो। खुश दिखने की कोशिश कर रहे हो। जल्दी जल्दी बिस्तर की चादर ठीक कर रहे हो।
‘‘तुम्हारी यह कंचन काया! किसी जादूगरनी की तरह बाॅधती है! उफ! मैं इसे पूरा.....’’
‘‘बहुत रोमांटिक हो रहे हो। इस सबसे कुछ नहीं होता। यह ठीक तरीका नहीं है। अपने को भूल कर अपने को पाने का यह तरीका ठीक नहीं लग रहा है।’’
‘‘तुम भी! हर समय बहस करती हो। लेकिन बहस करती हो तो भी कितनी अच्छी लगती हो। छोटी सी फुदकती, चंचल सी, हिरनी सी। कौन इस मर न मिटेगा मेरी जान!’’ तुम्हारा ध्यान मेरी बातों पर नहीं है।
‘‘लेकिन मैं तो नहीं पीती हॅू। तुम जानते हो।’’ मैं अब तक हैरान हॅू। अब तक परेशान हॅू। अब तक समझ में ठीक ठीक नहीं आ रहा कि क्या होने होने को है?
‘‘तो आज पी लेना। मेरे साथ।’’ तुम हतोत्साहित नहीं हो रहे हो।
‘‘आज क्यो? जब मैंने कहा कि....’’
‘‘हर बात का बतंगड़ बनाना जरूरी है? अपने तर्क बाद में देना। अभी तो इधर आओ। आज तुम्हें सजा कर यहाॅ बैठाउंगा। मैं करूंगा सब कुछ आज। समझी मेरी सोने की हिरनी।’’
तुमने तकिए किनारे रख दिए हैं। एक अखबार बीच में रखा है। अपने हाथ से दो स्टील की गिलास उठा लाए हो। शीशे की होती तो शीशे की लाते। जो है, उससे काम चला रहे हो।
‘‘तुम अकेले ही करो यह सब। प्लीज मुझे छोड़ दो।’’ मैं डर गयी हॅू। डर गयी हॅू कि अब आगे न जाने क्या झेलना पड़े?
‘‘तुम्हारे नखरे से मैं तंग आ गया हॅू। हर बात में तमाशा करती हो।’’ तुम गुस्सा गए हो।
‘‘किसी ने बताया है कि ड्रिंक  करने से एकदम असर पड़ता है। आज देखना तुम।’’ तुम मेरे पास आ कर खड़े हो। तुम नहीं कहते यह, शैतान की आवाज आती है! कहीं और से! दूर से! मुझसे कोसों दूर!
‘‘नहीं।’’ मैं डर जाती हॅू। कितने हिंसक होते जा रहे हो तुम! और अब यह ड््िरंक कर के तो न जाने कितने पाशविक हो उठोगे? मैं यह नहीं झेल सकती। मेरी देह पर उभरी नीली चित्रकारी मुझे भय से हिला रही है।
‘‘चलो आओ।’’ तुम मुझे बाॅहों से घेर कर ले जाना चाहते हो। उधर, जिधर तुमने अपना कामना महल सजाया है।
तुम्हारा बाॅहों से घेरना अच्छा लगता है। हर बार इसी भूल में चली जाती हॅू तुम्हारे लाक्षा गृह में। वहाॅ से जली हुई मेरी लाश निकलती है। न जाने कितने दिन तक काॅपती मैं काम धाम कर पाने में असमर्थ अपने आप पर रोती हॅू और तुम अपने आप में त्रस्त- पस्त। मुझसे नजरें बचाते, छिपते, जाने कहाॅ के लिए निकल पड़ते हो।
‘नहीं, मृगतृष्णा है। मैं इससे अधिक में नहीं जा सकती। प्रयोगों के लिए मेरी देह नहीं बनी है। मैं अपने आप में कितनी छोटी होती जा रही हॅू।’
‘‘क्या सोचने लगी? आज तुम्हें निराश नहीं करूंगा।’’ तुम खींच रहे हो। मैं हिल भी नहीं रही।
‘‘नहीं। रहने दो। मेरा मन नहीं है। इतना तो समझो।’’ मैं अपने को छुड़ाने की कोशिश करती हॅू।
‘‘नहीं क्या? एक मौका इसके लिए भी सही। तुम सपोर्ट नहीं करती, यही दिक्कत है।’’
तुम बहुत दयनीय हो उठे हो। इस दयनीयता के बावजूद मुझे कह रहे हो कि मैं सपोर्ट नहीं करती। मरती हॅू हर रात एक अलग मौत, जीने की किसी उम्मीद में ही तो।
‘‘तुम्हारे अनुभवों का लाभ नहीं ले पा रहा हॅू। आज बताओ? कैसा था पहलेवाला? बोलो? ’’ तुमने मुझे धक्का दे कर गिरा दिया है।
‘‘तुम बैठोगी यहाॅ तब तक, जब तक कि मैं पीउंगा। समझी।’’
तुम किसी पाषाण से भी ज्यादा मिर्मम हो उठे हो। इस क्षण, तुम वो हो ही नहीं, जिसे मैंने चाहा था। तुम कुछ और हो। मेरे पिछले अनुभवों को जानने की भयानक इच्छा रखने वाले। यह तुम्हारा मनोरंजन हो सकता है! यह तुम्हें उकसा सकता है! पर क्या सचमुच ही तुम जानना चाहते हो कि कैसा था मेरा पति? कब से मैं तुम्हें बताना चाहती थी, पर अब इसलिए, बिल्कुल नहीं। मेरा दुख इस काम आए, मैं मर ही न जाउं, इससे पहले। मेरा प्रिय यह कह दे कि...... तो जीते जी मर जाउं मैं! हे प्रभु! मैं यह दिन देखने के लिए बची ही क्यों रह गयी? इसीलिए इतना जोखिम उठा कर भाग आई थी? इसीलिए एक नई जिंदगी जीने का साहस कर रही थी?
नहीं, मेरी आॅखों से एक भी मोती नहीं टपकेगा! नहीं रोउंगी मैं! नहीं। जीउंगी मैं। नहीं करूंगी, जो मैं नहीं चाहती। मैं उठ कर बैठ गयी हॅू।
 ‘‘मुझसे नहीं हो सकेगा।’’ मैंने अपनी तरह की निरीहता में कहा है। आखिरी प्रार्थना की तरह।
‘‘मैं तुम्हें जिबह तो करने जा नहीं रहा। ऐसे कह रही हो।’’ तुम मुझे खींच कर अपनी जाॅघों पर लिटाना चाहते हो।
तुम्हारी गोद, जिसमें चैन से सोने का सपना मेरा, बस, सपना ही है। इसे अब मैं पूरा नहीं करना चाहती।
‘‘उठो, गुड गर्ल। लो, नमकीन लो। मूड ठीक करो।’’
नमकीन की प्लेट उठा कर तुम मेरी तरफ करते हो। तुम्हारा इस तरह बीयर पीना मुझे बड़ा बेशर्म सा लगता है। इससे पहले कभी जब तुम्हें दोस्तों के साथ पीते देखा तो ऐसा खराब नहीं लगा था।
‘‘अच्छा, छोड़ो तो। लाती हॅू।’’ बचने का कोई उपाय सोचते हुए मैं कहती हॅू।
मैं छूटती हॅू तुमसे। कुछ लाने के लिए रसोई तक जाती हॅू। कोई डिब्बा उठा कर खोलती रखती हॅू।  कुछ सोचती हॅू पल भर। फिर एकाएक अपना पर्स उठाती हॅू और निकल जाती हॅू घर से, पता नहीं कहाॅ के लिए!
तुम मुझे ढूंढ लोगे, मुझे पता था। लेने आ जाओगे, मुझे पता था। वही हुआ। वही किया तुमने। मेरी सहेली सुरभि के घर चले आए। रात के दो बजे, बदहवास से  जैसे तुम्हारा कोई जिगर का टुकड़ा खो गया हो। आॅखों से गंगा जमुना उमड़ी चली आ रही हैं। सुरभि की आॅखों में तुम नहीं, मैं दोषी बन गयी हॅू। निष्ठुर, निर्मम। तुम भावुक प्रेमी के प्रतीक हो! तुम  हो ही ऐसे! सारे सिक्के अपने हक में भुनाने की कला वाले।
‘‘तुम शचीन्द्र को समझने की कोशिश करो बिट्टो। भागने से समस्या हल नहीं होती।’’ सुरभि मुझे समझा रही है। मैंने सोचा था वह शचीन्द्र को समझायेगी!
‘‘तुम उसके साथ जाओ, उसे प्यार दो। मेरा पति अगर भूल कर भी मेरे लिए एक आॅसू टपका देता तो समझो मैं तो बिना मोल बिक जाती। मगर कमबख्त, उसने आज तक प्यार का इजहार तक न किया। तुम तो भाग्य शाली हो। ऐसा प्यार करने वाला मिला है।’’ सुरभि मुझ पर नाराज हो रही है। मुझे शचीन्द्र के साथ जाने के लिए समझा रही है।
‘‘अगर मुझसे परेशान हो तो मुझे छोड़ क्यों नहीं देते।’’ मैं दुखी हो कर कहती हॅू।
तुम तड़प उठे हो। तुम्हारी आॅखें कह रही हैं। मैं इसके आगे हारती हॅू हर बार। तुम्हें मनाती हूॅ। सोचती थी कि तुम मनाओगे। पर अब सोचती हॅू कि यह मनाना भी एक कोशिश ही थी। जीवन के मरम्मत की। मनाती हॅू और जैसे तैसे प्रयत्नपूर्वक डाॅक्टर के पास ले जाती हॅू। देखो, मैंने खुद को ही कैसे एक और खर्चे में झोंक दिया है! प्रेम के नाम पर। जीने की इच्छा के नाम पर।
मैं तुम्हें वापस जीवन में देखना चाहती हॅू। इसीलिए बार बार कोशिश करती हॅू। प्यार से तुम्हारे कंधे पर टिक कर कहती हॅू कि ‘‘ जीवन भर भागते रहे हो, दौड़ते रहे हो, लड़ते की कोशिश में लगे रहे हो, पर लड़ाई वैसी नहीं बनी, जैसा कि तुम चाहते थे। है न!’’
तुम आकाश को देख रहे हो। मुझसे इतने अलग होते हुए। दूर होते हुए। देखो कि मैं फिर कोशिश करती हूॅ। कहना जहाॅ छोड़ा था, वहीं से पकड़ती हॅू-‘‘ तुम सोचते हो कि आज तक जो भी कोशिश तुमने किया, उसका कुछ भी हासिल नहीं। छात्र राजनीति के साथ जुड़े तो वहाॅ भी बहुत कुछ कर पाना संभव आज नहीं रह गया। लेकिन जीवन को ऐसे देखना ठीक तो नहीं है। जो सही काम होते हैं, उनका असर कहीं न कहीं तक जाता है। वह एकदम खत्म नहीं होता। आज जरूर देश में ऐसे हालात बन गए हैं कि बड़ी लड़ाइयाॅ नहीं बन पा रही हैं पर लगातार चलती छोटी लड़ाइयाॅ भी बड़ी लड़ाई की संभावना को बचाए रखती हैं। और तुम, सुनो, उस अपने छात्र हित वाले काम से क्यों विरत हो रहे हो? वहीं तो तुम हो! कुछ बदलने, कुछ ठीक ठाक कर पाने की कोशिश के साथ हो! त्ुाम उससे अलग नहीं हो सकते। तुम फिर जाओ! फिर से ठीक करो। फिर से शुरू करो। फिर से संगठित करो। यही एक तरीका है हमारे पास, तुम्हारे पास.....’’
मेरी आवाज, मेरी सब ध्वनियाॅ किसी बंद दरवाजे से टकरा कर लौट रही हैं।
‘‘हो गया उपदेश! परेशान कर के रख दिया है। चैन से दो घड़ी बैठ भी नहीं सकता!’’
तुमने मुझे जोर का धक्का दिया। मैं गिरते गिरते बची।
‘‘क्या समझ रही हो अपने को? हाॅ! पैसा कमा रही हो तो जो मर्जी बोलोगी? हाॅ! मैं कुछ नहीं हॅू न! यही साबित करना चाहती हो!’’ तुम तैश में खुद को भूल गए हो। एक साथ मुझे हिलाते हुए, न जाने कितने झापड़, घूसे, लात जमा रहे हो। मैं बैठी हुई, गिरती हुई, रोकती हुई, रोती हुई......
तुम गुस्से में चले गए हो। कहीं, उस जगह की तलाश में शायद, जहाॅ सुकून हो!
मुझे इसका भरोसा नहीे है। सुकून का भरोसा!
सचमुच मैं यह कहाॅ आ पॅहुची हॅू! नरक क्या यही है?
नरक! जिसके लिए मेरी माॅ हर वक्त चेताती रहती थी! जिसका एक हिस्सा झेल कर मैं भाग आई थी। जिसका दूसरा हिस्सा झेलती मैं यहाॅ बैठी हॅू! जिसका कोई तीसरा, चैथा हिस्सा भी होगा!
मैं भय से काॅप रही हॅू।
मैं चोट से काॅप रही हॅू।
धीरे धीरे उठती हॅू और कभी एक हाथ से अपना बाल ठीक करते, कभी एक हाथ से अपना पेट, बाॅह, छाती सहलाते, डाॅक्टर के पास चली गयी हॅू।
डाॅक्टर से कहूंगी कि सीढि़यों से फिर आज गिर गयी हॅू।
......................
शचीन्द्र! तुम लौटते हो। फल खाते हो। अपनी दवा समयानुसार लेते हो। तमाम चेकअप कराते हो। फिर प्रयोग करते हो।
डाॅक्टर, दवा, प्रयोग.... यही रह गया है तुम्हारे जीवन का केन्द्र!
मित्रता का हल्का सा तंतु भी नहीं बचा!
यह क्या, मशीन बनते जा रहे हो तुम!
यही, इतना भर तो जीवन नहीं होता। तुम्हें समझा नहीं पाती हॅू।
ठीक है मैंने कहा था कि तुम मुझे संपूर्णता में चाहिए। पर यही इतना भर छूट जाए तो ..... देह के पार भी चाह लेती तुम्हें। पर तुम! तुम हो कि इस देह से पार जाना ही नहीं चाहते! यहीं अटक गए हो! यहीं साबित करना है तुम्हें अपने आप को!
मैं सुखी हॅू कि दुखी हूूॅ? बीमार हॅू कि आराम में हॅू? मेरे पास पैसा है कि नहीें है? एक छोटी सी स्टेनो की नौकरी में पैसा होता ही कितना है? मैं अपने लिए कपड़े, किताबें खरीद पाती हॅू कि नहीं? मैं फल फूल, दूध, दही खाती हॅू कि नहीं?
मैं तुम्हारे मायने के किसी दायरे में हॅू भी ?
एक बार फिर मेरी लड़ाई मेरी माॅ से ठन गई है। उनसे कहूंगी तो हॅसेंगी, मजाक उड़ायेंगी।
‘‘गई थी न मनमानी करने, अब भोगो।’’ ऐसा कुछ कह सकती थीं। पर भीतर से कहीं कराह उठेंगी। आखिर जो वे नहीं चाहती थीं, वही हुआ। उन्होंने ही कहा था कि औरत कमाए तो क्या? पैसा तो उसी के अधिकार में चला जाता है, जिसके कब्जे में औरत होती है। तो क्या मैं....?
नहीं, कब्जा नहीं, मैं वश में नहीं हूॅ किसी के।
अरे, मैं मान क्यों नहीं रही कि मैं वश में हो गयी हॅू।
शचीन्द्र के वश में ! - ?
? ? ? ? ?
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