Wednesday, November 06, 2013

घना कोहरा चीरकर, मन में आसमान आया ! डायरी-अंश



   "फ़रगुदिया संस्था की कुछ लड़कियों के डायरी-अंश  "दूसरी परंपरा " पत्रिका के प्रवेशांक में प्रकाशित हुई है .. अब फ़रगुदिया पर आप सभी के लिए साभार " दूसरी परंपरा" से 

    अब तक  आदिवासी महिलाओं और उन जैसी अतिनिम्न वर्ग की महिलाओं की विपदा और दुःख के बारे में दूसरे लिखतें आयें हैं .. कुछ शिक्षित दलित लेखिकाओं ने अपनी आत्मकथाएं लिखी हैं लेकिन अब भी हमारे समाज में कुछ ऐसी बच्चियां/महिलाएं  हैं जो मुख्यधारा का अंग नहीं हैं .. कुछ कम पढ़ी-लिखी लड़कियां/महिलाएं  जिनकी शिक्षा सुचारू रूप से नहीं चल सकी .. कभी पारिवारिक कारण या गरीबी की वजह से शिक्षा को महत्व न देने के कारण उनकी शिक्षा पूरी नहीं हो सकी उन्हें लेखन के प्रति प्रोत्साहित करके  हमने उन्हें डायरियां दी  .. और लेखन के माध्यम से खुलकर अपने मन की बात और पीड़ा को व्यक्त करने के लिए कहाँ  .
  डायरी लेखन के माध्यम से उन्होंने अपने 
जो भाव व्यक्त किये उसे पढ़कर कभी आँखें सजल हुईं .. कभी उनके अक्षरों में खुशियाँ देखकर राहत महसूस हुआ .. वो भी अपने भविष्य को लेकर सजग रहतीं हैं  .. अपने पाँव पर खड़े होकर अपने परिवार को सहारा देना चाहतीं हैं .. अपने लिए उनके कुछ इन्द्रधनुषी ख्वाब भी हैं .
    उनकी सहमती से 
उनकी डायरी के कुछ अंश 
 आप सभी से साझा कर रहीं हूँ ...  चौदह से सोलह वर्ष की तीनलड़कियों में से परवीन ने  अपने घर का कार्यभार अपने नन्हें कन्धों पर उठा रखा हैं  .. शराबी पिता की फ्रस्टेशन और अभद्र व्यवहार को सहते हुए परवीन दिन भर अथक परिश्रम करती है .. दिन में घर का काम और शाम के पांच बजे से लेकर ग्यारह बजे तक सब्जी बेचतीं हैं ..  परेशानी का कारण आर्थिक तंगी से ज्यादा पिता का उसके और उसके परिवार के प्रति अभद्र व्यवहार है ... तीसरी कक्षा  के बाद आगे पढाई जारी नहीं रख सकी जिसका उसे बहुत अफ़सोस है .... वो फिर से पढना चाहती है ... बेहद संवेदनशील हृदय की स्वामिनी समाज के प्रति अपने कुछ उत्तरदायित्व भी समझतीं हैं .

   21  वर्षीया  रूबी ने डायरी में अपने बचपन के बहुत ही मार्मिक अनुभव लिखें हैं .. बालावस्था में पिता के रोजगार मेंउनका हाथ बंटाना उसके पश्चात् स्कूल जाना .. स्कूल में भी सहपाठियों और शिक्षिका द्वारा उपेक्षित व्यवहार सहकर विषम परिस्थितियों में भी अपना हौसला बनाये रखा .

  पांचवीं कक्षा  में पढने वाली 14 वर्षीया प्रेमा कुमारी के संघर्षशील जीवन की गाथा पढ़कर यही महसूस होता है की आर्थिक तंगी से जूझतीं ये बच्चियां छोटी उम्र में ही बहुत मेच्योर हो जातीं हैं .

    किसी के मन के भाव और अभिव्यक्ति जो मन- मस्तिष्क पर कोई गहरा प्रभाव छोड़तें हैं .. वही तो साहित्य है .. जैसे संत कबीर बिना किसी लाग-लपेट के सरल भाषा में खुद को व्यक्त करते थे .. उसी तरह इन् लड़कियों ने भी  लिखा है ... ये सभी लड़कियां वाक्य विन्यास में सक्षम नहीं हैं लेकिन भाषा अपना विन्यास करतीं हैं .. इन् सभी की लेखिनी में कबीर के जीवन के संताप-उंताप की झलक दिखाई देती है ..  इनके लेखन को ज्यो का त्यों आपके समक्ष रखा जा रहा है ... वर्तनी सम्बन्धी त्रुटियों में सुधार नहीं किया गया है ..
                                                         (
संस्थापक और संचालिका शोभा मिश्रा)







नाम-बेबी परवीन
शिक्षा -  कक्षा, 3
उम्र -16 वर्ष


मंगलवार , १२/३/२०१३

आज मेरे घर में मेरे मम्मी-पापा में झगड़ा हो गया है .. आज मेरे पापा सब्जी लेने भी नहीं गएँ हैं .. जो कल का सब्जी बचा हुआ था .. उसी को जाकर बेचीं हूँ ! आज भी पूरे दिन यही सोची हूँ कि में इस्कूल में नाम न लिखों तो अच्छा है .. बस अब में यही सोचतीं हूँ कि अगर आप मेरे को पढ़ना चाहती हो तो पढ़ा दो .. बस मैं इससे ज्यादा आपसे कुछ नहीं कहूँगी .. बस मेरे ऊपर आप थोडा सा अहसान कर दो तो अच्छा है क्य्पकी मेरा भी मन आपके पास पढ़ने का करता है !
   आज में बहुत टेनसन में थी .. मेरे को कभी-कभी इतना  टेनसन हो जाता है कि मन करता है कि मैं मर जाऊं .. लेकिन क्या करूँ ..मजबूर हूँ .. क्योकि फिर मैं ये सोचतीं हूँ कि मेरा घर कैसे चलेगा .. अगर मेरे को कुछ हो जायेगा तो मेरा घर बरबाद हो जाएगा .. इसलिए मैं ये सब करने से डरतीं हूँ .. मैं ये भी सोचतीं हूँ कि मेरे पापा सिर्फ मेरे को ही गाली बकें तो ठीक है ..


५/४ २०१३ शुक्रवार
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आज आपको पता है, हमारे घर के पास एक आदमी गाड़ी ( ट्रेन )से कट गया था, शायद वो आदमी दारु पी रखा था इसलिए उस आदमी को गाड़ी की आवाज़ नहीं सुनाई दी, लेकिन वो आदमी पूरा नहीं कटा था, सिर्फ उसका दोनों पाँव कट गया था और उस आदमी को सर में भी चोट लगा था !
   जब वो आदमी  कटा था तब ही गाड़ी रुक गया था, शायद डरेवर  ( ड्राइवर) ये सोचा कि कोई इसको हटा देगा लेकिन उसका वहाँ पर कोई नहीं था, फिर वो गाड़ी चला गया!
वो आदमी बार-बार पानी पीने को मांग रहा था, लेकिन उसको कोई पानी नहीं दे रहा था , मेरा एक मन किया कि मैं उस आदमी को पानी दे दूँ लेकिन सब कोई यही सोच रहा था कि इसे पानी देने पर ये मर गया तो इसके परिवार वाले मेरे को पकड़ लेंगें, इसलिए उसको कोई पानी नहीं दे रहा था और न ही कोई पुलिस को फ़ोन कर रहा था और न ही कोई अपना  मोबाईल दे रहा था !
 कुछ देर के बाद उसके घरवाले आये और उसको उठाकर ले गए, जब उसके घरवाले आये तो बहुत रो रहे थे , वो आदमी भी अपने घर वालों को देखकर रो रहा था, फिर उसके घरवाले उस आदमी को उठाकर ले गए !
जब वो आदमी कटा था तो सब कोई दौड़ कर गए थे , मैं भी गयी लेकिन मैं उस आदमी को नहीं देखी, क्योकि अगर मैं कटा हुआ आदमी देख लेती हूँ तो मुझे चक्कर आने लगता है ...
( परवीन  की झुग्गी रेलवे लाइन के बहुत पास है .. वहाँ इस तरह की दुर्घटना रोज होती है )

२१/५/२०१३
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आज ना मैं जब सब्जी मंडी से आ रही थी तो सुनी की एक लड़की फांसी लगा ली और वहाँ  पर बहुत आदमी सब खरा (खड़ा ) था और उसके पापा सर पकर (पकड़ ) कर रो रहे थे, उसकी माँ यहाँ पर नहीं थी , वो कहीं गयी थी, सायद (शायद)उसके घर में कोई नहीं था, में (मैं) सुनी कि वो लड़की चाल की अच्छी नहीं थी और उसकी मम्मी भी वैसी थी ! में सुनी तो मुझे बहुत अफ़सोस हुआ, में सोचती हूँ कि मरने से क्या फायदा? माँ और पापा का क्या जायेगा ? वो अपनी जान से गयी, किसी का कुछ भी नहीं लेकर गयी .
   आज ना मेरी चचेरी बहन अपने घर चली गयी, मैं भी उसके साथ गई थी, मेरे को वहाँ से कुछ रासन लाना था, फिर जब मैं वहाँ से आई तो मंडी गई फिर में देखी कि जो लड़की फांसी लगाकर मरी थी तो उसको तो पुलिस वाला उठाकर ले गया था , तो उसका पोस माटम (पोस्टमार्टम)  कर के लेकर के आये और पारक में रखे और उसके घरवाले वहीँ पर आ गए , उसकी दो बहन जाबन जाबन ( जवान जवान ) थी और उसके पापा तो बिलकुल पागल लग रहे थे , वहीँ पर बैठे थे और पता नहीं क्या क्या बोल रहे थे .
और वो लड़की को कोई नहाने के लिए तैयार नहीं था , सब कोई उसको देखकर के डर रहा था, बहुत देर तक तो वो लड़की वही पर पड़ी थी , फिर आदमी सब बोल कि औरत सब नहीं नहलायेंगी  तो हम सब नहला देंगें .
औरत सब नहलाने के लिए तैयार हो गयीं , एक ही अंटी उसको नहलाई , वो अंटी बोल रहीं थी कि क्या कहूँ , मैं तो जबरदस्ती उसको नहलाई , वो तो बिलकुल नहलाने लायक नहीं थी , उसको तो कोई हाथ लगाने को भी तैयार नहीं था ...

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रूबी 21 वर्ष, विवाहित   
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‘जब मैं छे सात साल की थी दुकान के लिए सुबह तीन बजे ही उठकर साईकिल में सामान लाद कर में और मेरे पापा बहोत ही दूर जाया करते थे. सड़क पर खड़े होकर चाय बना कर दिया करते थे और मैं सड़क पर खड़े होकर चाय-चाय कर के बेचा करती थी तब मैं सोचती थी की सबसे ज्यादा मैं ही कमा के अपने पापा को दूं.
'मैंने मेहनत करने में कभी सरम नहीं किया करती थी.'
तब मैं गांव में पढ़ाई करती थी मेरे स्कूल का समय सुबह के 10.30 बजे से शुरू था.मैं 9.30  तक दुकान में रहने के बाद वहीँ दुकान के पीछे कपडे बदल कर दौड़ते हुए स्कूल जाया करती थी.और जो स्कूल के बच्चे मुझे देखते थे ,सामान बेचते हुए तो वह  मेरा बाद में बहोत मजाक उड़ाया करते थे साथ ही साथ मेरे स्कूल की टिचर भी मुझसे सही से बात तक करना पसंद नहीं करती थीं.

   कई बार मेरी दूसरों बच्चे से लड़ाई भी हो जाया करती थी मैं खुद ही घर पर बहाना बनाकर स्कूल नहीं जाया करती थी में बहोत अकेली पड़ जाया करती थी मेरी उस स्कूल में एक ही दोस (दोस्त) थी जो मेरा बहोत ही परवाह किया करती थी मुझसे नफरत किये बिना या मेरा किसी भी तरह फायदा उठाये बिना मुझसे बात किया करती थी और मेरी मदद किया करती थी.’

‘दिरे-दिरे (धीरे-धीरे) समय बिता गया और मेरे पापा की आमदनी काफी कम हो गयी.हमारे  खाना खाने के लिए भी बुखे पेट सोना पड़ता था.सुबह चावल बनाया तो चावल का पानी जिसे माड़(मांड) भी कहते हैं उसे हम नहीं फेकते थे उसी में थोडा नमक मिर्च घोलकर एक टाइम पिया करते थे.वही हमारा एक समय का खाना होता था.दिन में चावल और मिर्च मिलकर खाया करते थे और रात को उसी चावल में पानी मिला देते थे और पियाज या सुतु (सत्तू) के साथ खाते थे.

जब हमारा दिन काफी खराब हो गया तब मेरी मम्मी नें सोचा की दिल्ली चलते हैं वहीँ पे कमाएंगे और रहेंगे .’ 



'मेरे मौसा मौसी मम्मी पापा यह चारों पेड़ के नीचे सोया करते थे और हम गैराज में सोया करते थे चारपाई के नीचे चार जन और चारपाई के ऊपर तीन जनें ..धिरे- धिरे हमने भी एक गैराज लिए.मेरी मम्मी नें कोठियों में काम करना शुरू कर दिया और मेरे पापा ने गाड़ (गार्ड)की नौकरी करनी शुरू कर दी.और मैं गैराज वालों का काम और घर का सारा खाना बनाना शुरू कर दिया.'

धिरे-धिरे मेरी मम्मी नें हम तीनों को स्कूल में भारती करवा दिया और इसी तरह हम सबकी जिंदगी व्यतीत होती गयी.

‘मैं जब पंद्रह साल की हो गयी और उस समय आठंवी कक्षा में थी तब से मेरी शादी की बात चलनी शुरू हो गयी क्यूंकि हमारे गाँव में लड़कियों की शादी १२ या १३ साल के अंदर किया जाता है .गाँव में मेरी शादी हो गयी उस समय मुझे शादी का मतलब तक नहीं मालूम था..की शादी के बाद लड़कियों के साथ क्या क्या मुसीबतों का सामना करना पड़ता है.’

शादी के डेढ़ महीने बाद मैं दिल्ली आ गयी .और यहाँ पर आने के बाद मैंने स्कूल जाना शुरू कर किया .मैंने अपनी जिंदगी के साथ समझौता कर लिया..
'सुबह चार बजे उठती थी और सबसे पहले मैं मेरे और अपने पति के लिए नाश्ता और खाना एक ही बार में बना कर रख दिया करती थी.उसके बाद मैं पांच बजे निकल जाया करती थी घर से काम करने के लिए.और फिर ७.३० बजे तक दो घर का काम करके जल्दी-जल्दी साइकिल चला कर घर वापस आती थी और फिर स्कूल के लिए तयार (तैयार) होकर जल्दी -जल्दी भगा दौड़ी में यदि खाना खाने का टाइम मिलता था तो खाती वरना मैं दो बजे खाना खा पाती थी.'
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प्रेमा कुमारी
कक्षा -5
उम्र-14


आज मैं कितना लेट से सोकर उठी .. मैंने मम्मी से पूछा कि तूने मुझे जगाया क्यों नहीं .? मम्मी बोली "मैं तो जगा रही थी तू खुद ही नहीं उठी तो मैं क्या करूँ"
इतना बोलकर मेरी मम्मी अपने काम पर चली गयी .. फिर मैं उठी और पहले सारा घर साफ़ की फिर सारा बर्तन धुली फिर खाना खायी .. खाना खाने के बाद में स्कूल का फाइल बनाई ... फाइल बनाते-बनाते शाम पांच बज गए .. फिर भाभी बोली कि प्रेमा खाना खा ले और उसके बाद थोडा बरतन है उसे भी  धो ले .. मैंने बोला भाभी देखा न सुबह से जबसे उठीं हूँ तभी से काम कर रहीं हूँ .. बरतन आप ही धो लो ना.. सब काम करने के लिए मुझे ही क्यों बोलती हो ?  फिर भाभी मेरे से लड़ाई करने लगी .. में चुप हो गयी और भाभी को बोली कि आप भी चुप हो जाओ .. इतने में भईया आ गए और भाभी को भी एक थप्पड़ मारा और मुझे भी .. में नीचे भाग गयी और भाभी खाना बनाने लगी .. फिर मैंने मोटर चालू की और सारा पानी भरी .. फिर बहार गयी पीने का पानी भी भरकर लायी और खाना खाकर सो गयी ..
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नाम -ज्योति कुमारी
कक्षा-६
उम्र-१४ वर्ष

सीता लड़की, राधा लड़की
झाँसी की रानी भी लड़की
सरोजिनी बनकर छाई लड़की
कल्पना बनकर आई लड़की
आओ हम सब कसम खायें
लड़का-लड़की का भेद मिटायें !

सब कहतें हैं
लड़की पैदा हुई क्यों
क्यों मन कोसतें हैं
क्या लड़की के बिना दुनिया चलेगी ?
आप ही बताओ
लड़की के बिना दुनिया चल सकती है ?

ऐसा सब क्यों सोचतें हैं
कि लड़की होना पाप है
ये सब गलत सोचतें हैं

सभी गुणों से सजी है लड़की
फिर भी कहतें हैं , हाय ! लड़की

बहन लड़की, माँ लड़की
पत्नी लड़की,बेटी लड़की

(ज्योति कुमारी )

२६/६/१३,बुद्धवार
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मै कुछ दिन के गाँव जाती घूमने- फिरने तो मुझे बहुत अच्छा लगता है ,क्योकि हम वहाँ कभी-कभी जातें हैं , और हमें वहाँ हरियाली दिखती है क्योकि वहाँ खेत-बाग़ और पेड़-पौधे दिखतें हैं , क्योकि वहाँ खेत जोततें हैं , अच्छे-अच्छे .फल-फूल-सब्जियाँ बोतें हैं और गाँव में बड़े - बड़े घर होतें हैं ,और दिल्ली में एक ही घर में सब कुछ करना पड़ता है और यहाँ पर कोई सुविधा भी नहीं है ,  हमें यहाँ इसलिए रहना पड़ता है क्योकि मेरे पापा का दिल्ली में ही काम चलता है , और यहाँ पर मैं भी पढाई करतीं हूँ इसलिए मैं अपनी पढाई छोड़कर कहीं और नहीं जाना चाहतीं हूँ क्योकि मेरी पढाई बेकार हो जायेगी , पर किसी और स्कूल में जाना अच्छा भी नहीं लगता है , और कोई मेरा खर्चा चलने वाला नहीं है , इस तरह से मेरी पढाई भी पूरी नहीं हो पायेगी .


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मैं यही सोचतीं हूँ कि अच्छे लोगों के साथ ही दोस्तीं करूँ , आप तो जानती हो कि हमारे यहाँ का इलाका ख़राब है इसलिए मेरी मम्मी ये सोचती है कि कहीं अच्छी जगह चलकर रहें , जब भी मेरी मम्मी पैसे जुटाकर अच्छा सा घर लेने जातीं हैं तो मेरे पापा लेने नहीं देतें हैं और दारु पीकर घर मै कोई सामान भी नहीं लातें हैं , हमारी हालत बहुत खराब है , इसलिए हमें यहीं झुग्गी मै रहना पड़ता है .
घर में मैं और मेरी मम्मी हमेशा सोचतीं हूँ कि हमारा घर अच्छी तरह से चले पर मेरे पापा कोई काम नहीं करतें हैं, पिपि ( शराब पीकर) के अपना घर बरबाद करतें हैं , मेरी मम्मी कहाँ से खर्चा चलाएगी ? मेरी मम्मी कहीं काम भी नहीं करती है .
 मैं यह सोचतीं हूँ कि में बड़ी होकर अपने घर का खर्चा चलाउं परर मैं पढने में थोड़ी कमजोर हूँ , मेरे को इस बात का बहुत दुःख है , पर मुझे अच्छी नौकरी मिले ,पर मेरी ख्वाहिश है कि मैं पुलिस बनूँ , तो मुझे और मेरे घर के लोगों को भी अच्छा लगेगा , पर अभी मेरी उम्र नहीं पर मैं अभी से ये सब सोचतीं हूँ और मेरा साथ मेरी मम्मी के कोई रहने वाला नहीं है .

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नाम-प्रियंका कुमारी
शिक्षा - कक्षा 12
उम्र- 16 वर्ष


आज मैं सुबह जल्दी उठ गयी थी, तो मैंने सोचा कि कुछ ऐसा काम करूँ कि मेरी मम्मी खुश हो जाए , तो मैंने सुबह बर्तन मांजा और खाना बनाई ! तब मेरी मम्मी सोकर उठी और बड़ी खुश हुई , फिर मैंने अपनी मम्मी को चाय दी और नाना को भी चाय दी और मैंने भी पीया ! तब पापा खाना खाने बैठे तो पापा ने मुझे बोले  कि कैसी सब्जी बनाई है तो मुझे गुस्सा आ गया और मैंने बोला  कि इसलिए ही मैं खाना नहीं बनाती हूँ , तो मम्मी ने बोला  कि एक तो उसने खाना भी बनाया और तुम उसे गुस्सा कर रहे हो !
फिर मैं खाना खाने बैठी ही थी कि तभी मेरा भाई आ गया और मुझसे लड़ने लगा तो मैंने बोला  कि "तू मुझसे मत बोला  कर .. बगैर गलती के ही लड़ाई करने लगता है, इसी बात पर उसने मेरा बाल पकड़ लिया और मुझे मारने लगा और मम्मी ने भी मेरी ही गलती निकाली, इसी  गुस्से में मैंने खाना फेंक दिया , पापा ने बोला कि उसका गुस्सा खाने पे क्यों उतार रही है , तो मैंने सोचा कि पापा सही बोल  रहें हैं, मुझे गुस्सा खाने पर नहीं उतारना चाहिए था, फिर थोड़ी देर बाद मैंने मम्मी को बोला  कि मम्मी मुझे बीस रुपये दे दो , मम्मी बोली कि क्या करोगी बीस रुपये तो मैंने बोला  कि मुझे प्रैक्टिकल शीट लेनी है !
फिर मम्मी बीस रुपये न देकर गैस सिलेंडर का पासबुक  ढूँढने लगी , मैंने बोल कि बीस रुपये दे दो , मम्मी मुझपर गुस्सा हो गयी और गलियाँ सुनाने लगी , बोलने लगी कि यहाँ पासबुक नहीं मिल रहा है और तू  पैसे मांग रही है ?
मुझे गुस्सा आ गया , मैंने मम्मी को बोल दिया कि आप अपने बीस रुपये अपने पास रखो ,मुझे नहीं चाहिए .....

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नाम- काजल
शिक्षा - कक्षा, 9
उम्र- 15 वर्ष

( नवीं कक्षा में पढ़ने वाली पंद्रह वर्षीया काजल की डायरी में आर्थिक आभाव की वजह से वही चिर-परिचित पारिवारिक परेशानियां पढ़ने को मिली , काजल गद्य  और पद्य दोनों विधाओं में अपने मन के भाव लिखतीं हैं, डायरी में उनके मनोभाव पढ़ते हुए कहीं निराशा और हताशा का घन कोहरा नज़र आया वहीं कहीं उम्मीदों की खिली धूप नज़र आई .)

कविता
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"नये मांजे "

पर्वतों का माथ छूकर,
फिर नया दिनमान आया !

नए समय पर हमारे घर,
फिर नया मेहमान आया!

सुर्यमुखियों के खिले चेहरे,
हमें भी दिख रहें हैं !

कुछ नयी उम्मीद वाले,
गीत हम भी लिख रहें हैं !

जेहन में भूला हुआ,
फिर से कोई उपमान आया !

पेड़ पर उंघते परिंदे,
जागकर उड़ने लगें हैं !

नये मांजे पतंगे की,
 तरफ बढ़ने लगें हैं !

घना कोहरा चीरकर,
मन में आसमान आया !

नई किरणों से नई आशा,
नई उम्मीद जागे पत्तियों के साथ

ताज़े फूल गुथे नये धागे,
खुशबुओं का शाल ओढ़े
फिर नया पवमान आया !

खूंटियों पर टंगे कैलेण्डर,
हवा में झूलतें हैं,
हम इन्ही को देखकर,
बीती हुई कल भूलतें हैं !

चालों मिलकर पियें कॉफ़ी,
किचन से फरमान आया  !

(काजल )
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आज मेरा दिन बहुत अच्छा था , क्योकि स्कूल में रहने से मुझे बहुत अच्छा लगता है, आज स्कूल में छुट्टियों क बाद का पहला दिन था , इस दिन हमारी कक्षा में और कक्षा से ज्यादा बच्चे थे, आज हमारी कक्षा में दो नये विद्यार्थी भी आये, वो दोनों अकेले रह रहीं थी, मैं और मेरी सारी
 सहेली उनसे बातें की और फिर हम सब आधी छुट्टी में खाना खा के थोड़ी देर घूमे , फिर क्लास में बहुत सारी बातें की कि हमारी छुट्टियां कैसे बीतीं , इस बार हमारी टीचर ने कोई सा भी काम नहीं कराया स्कूल का, छुट्टियों के बाद का पहला दिन बहुत अच्छा गया , बहुत मज़े आये , घर पर भी आज बहुत अच्छा लग रहा था !



शोभा मिश्रा

3 comments:

  1. बेहद सराहनीय प्रयास है आपका इसी तरह लगी रहें ।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
    आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आप की इस प्रविष्टि की चर्चा शनिवार 09/11/2013 को एक गृहिणी जब कलम उठाती है ...( हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल : 042 )
    - पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें, सादर ....

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  3. बहुत ही उम्दा कार्य

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