Tuesday, November 20, 2012

"अंगुरी में डँसले बिया नागिनियाँ "


     
    "मेरी यह कोशिश रहती है कि मेरी हर कहानी का कथ्य अपनी पिछली कहानी के कथ्य से
अलग हो। अब यह निर्णय तो पाठक ही करेंगे कि मैं कितना सफल रहा हूँ या कि नहीं
रहा हूँ। प्रस्तुत कहानी, "अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया" देश भर में हो
रही जातीय हिंसा की भर्त्सना करती हुई इस मौलिक भाव को स्थापित करने का एक
अकिंचन प्रयास करती है कि उन्मुक्त मानव-मन किसी जातीय बं‍दिश में बँधा नहीं
होता और प्रेम जैसी शाश्वत अनुभूति ही मानव-जीवन का अंतिम सच होता है। उम्मीद
है आपको कहानी पसंद आएगी।" 
----अनुज



 अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया 
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{"यह कहानी देशभर में हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोगों की विधवाओं एवं उनके बच्चों को समर्पित है"- लेखक}


छावनी के बीचो-बीच बरहम बाबा ज़मीन पर इस तरह चित लेटे हुए थे, मानो निद्रावस्था में हों। ऐसे भी निद्रा और मृत्यु में स्थायित्व का ही तो अन्तर होता है, वरना स्थितियाँ तो दोनों लगभग समान ही होती हैं! लोग चहुँओर से दौड़े चले आ रहे थे। जो भी सुनता भागा आता। लाश तो गाँव में आज पहुँची थी, लेकिन ख़बर तो तीन दिन पहले ही आ गयी थी कि मोटरसाइकिल पर सवार कुछ अज्ञात लोगों ने बरहम बाबा को गोलियों से भून दिया है। भून ही तो दिया था! जिस तरह घनसार की लाल टह-टह रेत में मक्के के दाने पटपटा उठते हैं, छप्पन से निकली छप्पई में बरहम बाबा का शरीर भी जैसे पटपटा उठा था।
हालांकि अख़बारों ने कवर तो खूब किया था, लेकिन ‘पैसिव कवरेज’ के साथ। आम लोगों में भी हलचल वैसी नहीं हुई थी, जैसी प्रशासन को आशंका थी। हलचल तो तब होती जब युवा-शक्ति का साथ होता! लेकिन गाँवों की आधी से ज्यादा युवा-आबादी तो पहले ही महानगरों में पलायन कर चुकी थी, और जो थोड़ी बहुत बच गयी थी, उसकी बरहम बाबा जैसों में अब कोई दिलचस्पी रह नहीं गयी थी। अन्य राजनैतिक समीकरण भी तो बदल गए थे! इसीलिए आज बरहम बाबा की हत्या को कोई राजनैतिक घटना नहीं बल्कि एक पारिवारिक दुर्घटना के रूप में देखा जा रहा था। फिर भी, प्रशासन कोई जोखिम नहीं उठाना चाहता था,  इसीलिए धारा-144 जैसे एहतियाती कदम उठा लिए गए थे।
पोस्टमार्टम में भी थोड़ा ज्यादा समय लग गया था। दरअसल लाश को चीरने वाला डोम लाश को छूने से आनाकानी कर रहा था।  जब दो-दो डोमों ने सीधे-सीधे मना कर दिया तब जाकर डॉक्टर साहब को खटका लगा था।  वे कारण तो ठीक से समझ नहीं पाए थे कि आख़िर डोमों को हुआ क्या है, लेकिन वे चिढ़ ज़रूर गए थे। लेकिन जल्दी ही उन्होंने अपने-आप को संयत किया और एक अन्य डोम को बुलाकर बातचीत की। लेकिन जब इसबार भी उधर से वही जवाब मिला, तब वे तैश में आ गए। जोर की झिड़की लगाते हुए डोम को फटकारा और बोले, "थोड़ा एक्स्ट्रा पैसा चाहिए तो ले लो, तुम लोग उसी समय से ई नाटक क्या बतिया रहा है...!"
डोम ने सहमते हुए दबी ज़ुबान में कहा , "नाटक का कौनो बात नहीं है हुजूर...लेकिन हम इस पापी का लहास नहीं छूएँगे, और ई सब बात का हम भूल जाएँगे कि ई हतियारा सब बाथे और सेनारी में कइसा तांडव मँचाए हुआ  था !  अरे दादा रे..., छोटका-छोटका ननकिरवा सब को भी...! बाप रे बाप…! ई सब का कौनो कम नाटक किया था, जो आप हमको कह रहे हैं कि हम नाटक बतिया रहे हैं..? अरे छुअल त छोड़ दीजिए....! जाने दीजिए हुजूर..., हमसे नहीं होगा बस.....!" 
लेकिन डॉक्टर साहब ने समझा-बुझाकर एवं चंद झूठे वायदे करके उसे मना लिया था और वह अपनी लाख़ हीला-हवाली के बावजूद लाश चीरने के लिए तैयार हो गया था। आख़िरकार पोस्टमार्टम की कार्यवाही, थोड़े विलंब  से ही सही, पर पूरी कर ली गई थी। इन्हीं सब कारणों से घर वालों को लाश सुपूर्द करने में तीन दिन लग गए थे। गाँव में लाश लेकर पुलिस की गाड़ी ही आई थी और जल्दी-जल्दी लाश उतारकर वापस चली गयी थी। यह दारोगा का निजी अनुभव था कि भीड़ के मिजाज का कोई ठीक तो रहता नहींइसीलिए वह थोड़ा ज्यादा ही सहमा हुआ दिख रहा था। जल्दी-जल्दी लाश उतारकर चलता बना था।
बरहम बाबा का चेहरा तो ए. के. छप्पन की गोलियों ने पहले से ही बिगाड़ रखा था, पोस्टमार्टम के बाद और भी बिगड़ गया था। पोस्टमार्टम में शरीर को आधे-आध चीर भी तो देते हैं! मारते हैं छेनी और हथौड़ा सबसे पहले कपार पर, मानो लकड़ी का कोई गठ्ठर चीर रहे हों, और माथा तो ऐसे अलगाते हैं जैसे आदमी का सिर नहीं, कोई बेल हो। फिर बारी आती थी छाती, पेट, और भी जाने किन-किन अंगों की । फिर यह सोचकर कि अब जलाना ही तो है, काम के बाद सिलाई भी नहीं की जाती थी ठीक से! बस, जैसे-तैसे निपटा भर दिया जाता था।  लेकिन बरहम बाबा का हाल तो और भी बुरा दिख रहा था। ऐसा लग रहा था मानो डोम ने भी अपने तरीके और सामर्थ के अनुरूप मृत शरीर से ही अपने लागों का बदला ले लिया हो। लाश देखने आए लोगों में से ज्यादातर का यह ख्याल था कि बरहम बाबा का दिल शेर का था। डरते नहीं थे किसी से ! पोस्टमार्टम के बाद बिगड़े हुए चेहरे को देखकर यह अंदाजा लगाना मुश्किल था कि मरते वक़्त उनके चेहरे पर कौन-सा भाव रहा होगा, लेकिन पोस्टमार्टम से पहले उनकी लाश को देख चुके लोग इस बात को जानते थे कि भय से फटी आँखों का पता देती उनकी खुली पलकों को किस तरह जबरदस्ती ही बंद करना पड़ा था। चेहरे की रेखाओं को पढ़ लेने वाली बूढ़ी और अनुभवी गँवई आँखें भी इस बात की पहचान कर ले रही थीं कि मौत की भयावकता चेहरे की नस-नस में भिंची हुई थी।


सुनरदेव शर्मा आँसुओं को पोंछता हुआ स्यापा कर रहा था,
“कहाते थे बरहम बाबा अउर बुझाता अलुआ नहीं था कुछो, बतकही शुरू करते थे तो खतमे नहीं होता था, जइसे सारा दुनिया हीत ही बइठा हो, लगेंगे सारा इदिया-गुदिया उकटने, हम बोले थे कि नगिनिया है, बच के रहिएगा….डँसेगी एक-ना-एक दिन…लेकिन ना…सुनना ही नहीं था किसी का…हो गया ना…अब जे बा से कि बुझाया ना…गए ना ऊ धाम, अब त हो गया मन शांत ….!” बोलते- बोलते  फफककर रो पड़ा था।
सुनरदेवशर्मा की यह हालत देख देवल चौधरी ने उसके दाहिने कंधे पर हाथ रखा और उसे ढाढ़स बँधाते हुए कहा, “चुप हो जाइए, आप इतने बहादुर आदमी हैं...आप ही हिम्मत हार जाइयेगा तो फिर अउर लोग को कौन सँभालेगा? जाइये, जा के सरयू सिंह को संभालिए, भोरे से भोकार पारे हुए हैं, चुप्पे नहीं हो रहे हैं…।”

बरहम बाबा की लाश जहाँ रखी हुई थी वह जगह किसी किलाबंद सैनिक छावनी से कम न थी। चूँकि बाबा भी अपने लोगों को सैनिक ही कहते थे इसलिए लोग-बाग़ उनके इस ठिकाने को छावनी कहने लगे थे। पुलिस रिकार्ड में भी इसे छावनी नाम से ही दर्ज किया गया था। बाबा पर लाखों रूपये का इनाम भी तो रखा गया था, जिन्दा या मुर्दा ! लेकिन यह सब दिखावे की बात ही थी। पुलिस-प्रशासन क्या, आम आदमी  भी यह जानता था कि बाबा इसी छावनी में रहते हैं। छावनी के पीछे की ओर कुछ बैरक सरीखे कमरे बने हुए थे। छावनी के सैनिक जब किला फतह कर लौटते थे तो इन्हीं बैरकों में शरण लेते थे। इन बैरकों में अत्याधुनिक तकनीक से सुज्जित सुख-सुविधा का हर-संभव पुख्ता इन्तजाम होता था। इसी में मेहमानों के लिए एक तफरीह घर भी बना हुआ था जहाँ उच्च पदस्थ आला अधिकारियों और सत्तासीन मेहमानों की मेहमांनवाजी की जाती थी। रंगीन पेय के साथ-साथ कच्चे गर्म गोश्त का भी इन्तज़ाम रखा जाता था। इसके लिए मलिनों की बस्तियों का ही आसरा होता था। कहते हैं कि पुलिस और प्रशासन के कई-कई आला अधिकारी और सत्तासीन राजनेता भी इसी लालच में बाबा के आगे-पीछे डोलते रहते थे और बाबा की कृपा दृष्टि पाते रहने के लिए छावनी की कारगुजारियों पर परदा डाला करते थे। हालांकि छावनी आर्थिक रूप से भी ख़ूब समृद्ध थी और बाबा सैन्य कार्यों में शाहखर्च भी थे, लेकिन धन का आकर्षण तन के आकर्षण से ज्यादा गहरा नहीं होता था। बाबा भी इस रहस्य को ख़ूब समझते थे इसीलिए उन्होंने सैनिकों को अपनी मौन सहमति दे रखी थी। सेना जब भी आक्रमण को जाती, अपने साथ चार-छ: किलो बाँध ही लाती थी। इसी तरह से नगिनिया भी बाथे से बाँध लाई गई थी। लेकिन छावनी के सैनिक जल्दी ही यह समझ गए थे कि नगिनिया सिर्फ गोश्त-भर नहीं  थी।

खीमपुर बाथे बिहार के मोतिहारी शहर से होकर बहने वाली धनौती नदी के किनारे बसा एक छोटा सा गाँव है जो कभी मलिनों की सबसे बड़ी बस्ती के रूप में पहचाना जाता था। अब तो स गाँव में  केवल बंजर-सी ज़मीन ही दिखती है और लोग इसे चँवर कहने लगे हैं। यहाँ कोई रहना भी तो नहीं चाहता है!  नहीं तो एक समय था, जब यह गाँव खूब हरा-भरा हुआ करता था और निचली तथा उच्च जाति के कहे जाने वाले लोग भी यहाँ बड़ी हँसी-खुशी और आपसी सौहार्द के साथ रहा करते थे।  राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे लोग जब पटना के गाँधी मैदान में जातीय भेद-भाव को मिटा देने का आह्वान करते थे, तब पटना से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित इसी लखीमपुर बाथे गाँव का उदाहरण दिया करते थे और यह जोर देकर कहा करते थे कि पूरे देश को इस गाँव से सीख लेनी चाहिए। लेकिन अब तो यह सबकुछ जैसे अतीत हो गया था !  बाथे में छावनी के सैनिकों ने ऐसा हमला किया कि पूरा गाँव ही उजड़ गया। उजड़ा भी ऐसे कि फिर दोबारा कभी बस नहीं पाया था। बाथे पर हुए इस हमले ने पूरे देश को हिला कर रख दिया था। सच पूछा जाए तो, हिल तो छावनी भी गयी थी, क्योंकि बाबा भी तो इसी हमले के बाद धरे गए थे! आज भी उस हमले की भयावकता को याद करके लोगबाग सिहर उठते हैं।

      रात के कोई दस बज रहे थे। हालांकि बड़े शहरों की दृष्टि से देखा जाए तो अभी शाम ही हुई थी, लेकिन गाँवों में तो दस बजते-बजते लोगबाग आधी नींद सो चुके होते हैं! नींद खर्राटे भर रही थी। टिटिहरियों की टिर्र-टिर्र रात को और भी गहरा रही थी। दूर कई-कई कुत्ते रो रहे थे, जैसे गाँव  भर के कुत्तों पर एक साथ ही कोई आसमान टूट पड़ा हो एक कुत्ता रोना शुरू करता और जाकर पंचम पर चुप होता, तो दूसरा उसके रोदन को सप्तम पर लाके छोड़ जा रहा था। रुदाली बने ये कुत्ते जैसे वातावरण को भयाक्रांत करने की अपनी कोशिशों में कोई भी कसर उठा नहीं रहने देना चाहते थे। कुत्ते तो अपना काम ईमानदारी से ही कर रहे थे लेकिन अब के समय में कुत्तों के रोने से भी लोगों पर कहाँ कोई फर्क पड़ता है, बल्कि किसी के भी रोने-गाने से कहाँ किसी पर कोई फर्क पड़ता है! एक समय था जब कुत्ते रोना शुरू करते नहीं थे कि गाँव-घर के लोग चोकन्ने हो उठते थे और इस अंदेशे से घुले जाते थे कि पता नहीं क्या अनिष्ट होने वाला है। 
      फिर अचानक जैसे खर्राटों में खलल पड़ गई । बरहम बाबा के सैनिकों ने गाँव को चारों तरफ से घेर लिया था। किसी अनहोनी की आशंका से पूरा वातावरण दहल उठा था। रात के अँधेरे की घुप्प चुप्पी के बीच दर्जनों लोगों की दिल दहला देने वाली नारेबाजी गूँजने लगी थी। लोग छोटी-छोटी टोलियों में बँटकर नारे लगा रहे थे; "दादा रणवीर अमर रहे, अमर रहे - अमर रहे…!"
सुनरदेव शर्मा ने अपनी बंदूक को आसमान में लहराते हुए नारे को और भी बुलंद किया,
      "बारा के बदला बाथे में,
      तिन इन्ची ठोकब माथे में"

      छावनी के सैनिकों ने किसी मलिन बस्ती पर यह पहला आक्रमण किया हो, ऐसा नहीं था। सेनारी, मियाँपुर और इक्वारी जैसी मलिन बस्तियों में तो सैनिकों के आक्रमण होते ही रहते थे, लेकिन पिछले दिनों जब शिवहर जिले के बारा गाँव में मलिन काउन्टर कमांड (एम.सी.सी.) का हमला हुआ था और गाँव के पाँच-सात आततायी जमींदारों को घरों से निकाल कर मार दिया गया था, तब छावनी के सैनिक कुछ ज्यादा ही आक्रामक हो आए थे। बाबा ने भी अपने रसूख का पूरा लाभ उठाया था ताकि प्रशासन को साथ मिलाकर मलिन काउन्टर कमांड पर नकेल कसी जा सके। बाबा की तत्परता रंग लाई थी, तभी तो उस हमले के सभी आरोपी महीने दिन के भीतर ही पकड़ लिए गए थे। यह बाबा का ही कमाल था कि फास्ट ट्रैक कोर्ट ने उन्हें सजा भी बहुत जल्दी में सुना दी थी, नहीं तो ऐसे मामले तो निचली अदालतों में ही सालों-साल लटके रहते हैं! अब तो सभी आरोपी जेल की सजा काट रहे थे। ऊपरी अदालतों में अपील भी तो नहीं कर पाए थे! अब घर में खाने को दाना तो था नहीं, अदालती लड़ाई क्या खाक लड़ते, और फिर मलिनों में कौन से बैरिस्टरी पढ़े लोग बैठे थे कि छावनी के दिग्गजों से टक्कर लेते और इन भुखमरों का मुकदमा लड़ते! इसलिए निचली अदालतों ने इन्हें जो सजा सुना दी, बस भुगतने लगे थे। बावजूद इसके छावनी में संतोष न था। कानून द्वारा दी गयी सजा कम दिख रही थी। आज के समय में कानून द्वारा दी गयी सजा पर कहाँ किसी को भरोसा रह गया था !  इसीलिए बारा का बदला लेने के लिए छावनी के सैनिकों ने अपने बाजुओं की ताक़त पर ही भरोसा किया था।
      बारा-कांड के बाद बरहम बाबा ने छावनी में एक आपात बैठक बुलाकर यह शपथ ली थी कि वे बारा में हुए इस नर-संहार का बदला लेकर ही दम लेंगे। सुनरदेव शर्मा ने तो तभी यह घोषणा कर दी थी कि जबतक वह अपनी राइफल की तीन इंच लम्बी गोलियाँ मलिनों के सिर में नहीं ठोंक देगा तबतक चैन से नहीं बैठेगा। आज बाथे में उसकी यह साध पूरी हो रही थी, इसीलिए कुछ ज्यादा ही उत्साहित था। उस बैठक में बाबा ने अपने लोगों को  दादा रणवीर के नाम की क़सम देते हुए कहा था कि बारा का बदला बाथे को उजाड़ कर ही लिया जाएगा। छावनी के सैनिकों में दादा रणवीर के नाम की बड़ी इज्जत थी।
      कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कभी दादा रणवीर ने सामन्तों के ख़िलाफ़ एक सेना गठित की थी और अंग्रेजों के चहेते एवं पिठ्ठू जमींदारों को नाको चने चबवा दिया था। उन दिनों दादा रणवीर की सेना में सामाजिक और आर्थिक रूप से दबी कुचली निचली जातियों के लोग तो थे ही, सामन्तों से त्रस्त उच्च जाति के लोगों ने भी दादा रणवीर का खुलकर साथ दिया था। लेकिन बरहम बाबा की यह मौजूदा सेना सामन्तों के विरूद्ध नहीं, उनके हित में खड़ी थी।
     
      बाबा का आदेश पाते ही उनींदे लोग घरों से खींच-खींचकर बाहर निकाले जाने लगे थे। गोलियाँ अंधाधुंध चल रही थीं। फिर झोंपड़ियों में आग लगा दी गई  ताकि मांद में किसी के होने की कोई आशंका बची ना रह जाए। मिट्टी से लीप-लाप कर बनाई गई फूस की दीवारों की बिसात ही क्या थी! झोंपड़ियाँ धू-धू कर जल उठी थीं। जो जिस अवस्था में था, घरों से बाहर भागने लगा था। जलती झोंपड़ियों के ताप से बचने के लिए लोग जैसे ही झोंपड़ियों से बाहर भागते, सैनिकों के हत्थे चढ़ जा रहे थे। सैनिक तो जैसे इस प्रत्याशित प्रतिक्रिया के लिए पहले से ही तैयार बैठे होते थे! जो लोग लड़ाकू से दिखे, उन्हें तो तत्काल ही गोली मार दी गई थी।  लेकिन बाकियों को पकड़ लिया गया था। खूबसूरत कमसिन लड़कियों और दुधमुँहे बच्चों को एक तरफ छाँटा जा रहा था।
      बाबा ने ज़ोर की हाँक लगाई, "देखिअ सुनरदेव, केहु बाँचे ना…..घेर ल चारू ओर से….कौनो भागे ना पाए … देवल, समदिया के घरइया अउर महतारी के धरल बहुत जरूरी बा, तू पीछे से जा आपन आदमी लेके। पकड़के लाओ त, तनी हमहूँ देखीं कि ऊ कौन महतारी हई, अउर कथी के दूध पिअइले बाड़ी समदिया के जे एतना अगराइल चलअ ता ….! समदिया के घरे से जे केहु धरा जाए, सब के खींच लीहअ लोगन…धरके मुआओ सब के कूँच-कूँच के …," बाबा चीख पड़े थे।
बाबा को यह खबर मिल चुकी थी कि आज ही समदिया दुसाध की बेटी का छेंका हुआ है। इसलिए बाबा इसबात के लिए निश्चिंत थे कि आज तो समदिया पकड़ में आ ही जाएगा। वे यह भी जानते थे कि सम‍दिया अभी लड़ने की स्थिति में नहीं होगा क्योंकि एक तो उसे इसबात की खुशी होगी कि बेटी की शादी हो रही है और दूजे यह कि उसके ज्यादातर लड़ाकू सैनिक तो बारा कांड के मुख्य आरोपी थे और अभी जेल की दीवारों से अपना सिर टकरा रहे थे। बाबा का अनुमान सही था। दस-पाँच राउन्ड की मामूली फायरिंग के बाद ही समदिया अपने जवान बेटे के साथ धर लिया गया था। बाबा के आदेश पर समदिया दुसाध और उसके बेटे को बाबा के सामने घसीटकर लाया गया। बाबा का दानवी रूप खिलकर सामने आ गया था। समदिया और उसके बेटे की ऐसी दुर्गति देख छावनी के सैनिकों का उत्साह तो सातवें आसमान पर चढ़ गया था, लेकिन अबतक पकड़े गए मलिनों में प्रतिकार की रत्तीभर संभावना बची न रह गयी थी। महिलाएँ तो बेहोशी की हालत में आ गई थीं। 
        चारो तरफ लाल टहटह रौशनी बिखर गयी थी। ज़मीन से लेकर आसमान तक रक्तिम होने लगा था। बाबा ही नहीं, सब के चेहरे लाल-लाल हो आए थे। मौत का खौफ भरने वाले और मौत का खौफ महसूस करने वाले चेहरों में बहुत ज्यादा फर्क नहीं दिख रहा था। शायद मृत्यु सबको एकाकार कर देती है। कहते हैं कि छोटे-छोटे दुधमुँहे बच्चों को हवा में उछालकर उनपर निशाना लगाना बाबा के विशेष शौक में शामिल था, और बाबा के हर शौक को पूरा करना छावनी के सैनिक अपना धर्म समझते थे।
       बरहम बाबा ने चीख़ कर सैनिकों का आह्वान किया, "रोग का जड़ पर हमला करना चाहिए…ई औरत का जात ही है जो हरामियों को पैदा करती है, अउर यही हरामी सब बड़ा होकर बनता है एम.सी.सी…..सुनरदेव, सबसे पहिले ई सब औरतन अउर ननकिरवन सब के खतम करो…ना रहिएँ बाँस न बजिहें बँसुरिया….!"
      बाबा का आदेश टाला नहीं जा सकता था। इसीलिए सर्जना की संभावना वाली महिलाओं और उनके छोटे-छोटे बच्चों को रस्सों से बाँधा जाने लगा था। कार्रवाई शुरु कर दी गयी थी। सरयू सिंह अभी राइफल तानने ही वाला था कि बाबा ने झिड़की लगाई, "गोली का तुम्हारे ससुर के फैक्ट्री से आया है जो लगे बंदूक तानने… एतना शाहखर्ची….! कमाल कई देहलअ बाबू.....! छावनी के पास का एतना फालतू पइसा है कि सब हर्रे-बहेरा पर गोली खरचा किया जाए….अरे केतना महँगा गोली है, कुछ मालुमो है तुमको…! कुछ बुझाता नहीं है का तुम लोगों को …? बइठे-बइठे असला-बारूद मिल जाता है तो फुटानी सूझ रहा है…ट्रैक्टर काहेला बना हुआ है…जाओ जाके ट्रैक्टर लेके आओ!"
      बाबा का इतना बोलना था कि सरयू सिंह ने राइफल को एक तरफ रख दिया। अब उसने एक मोटा सा डंडा उठा लिया था। महिलाओं को डंडों से गोंद-गोंद कर मारने लगा था। गर्भवती महिलाओं को तबतक गोंदता रहा था जबतक कि उनका गर्भपात नहीं हो गया था।  यमदूत प्राण हरने की बात तो बाद में सोचते थे, पहले तो वे चीख़-पुकार का मजा लेते थे। यमदूत अपने इस पावन कार्य के लिए डंडों के साथ-साथ राइफलों के बट्टों को भी बहुत कारगर और उपयुक्त यंत्र मानते थे।
फिर सैनिकों ने महिलाओं और बच्चों को जबरदस्ती कतार से लिटाना शुरू कर दिया। गोलियाँ खर्च ना हों इसलिए छावनी के सैनिकों ने महिलाओं और बच्चों को ट्रैक्टर से कुचलकर यमलोक पहुँचाने की अद्भुत प्रविधि का इजाद कर लिया था। चलन यही था कि सभी पीठ के बल ही लिटाए जाएँ ताकि जब ट्रैक्टर का अगला पहिया चढ़े तो उनके चेहरे पर आने वाला भाव साफ-साफ दिखे। मौत के भय से फैलती बेबस आँखों को देख छावनी के सैनिक ख़ूब खुश होते थे।
      हालांकि  बरहम बाबा छावनी के सैनिकों की इस सर्जना-विरोधी कार्रवाई को हमेशा एक सैद्धांतिक आधार देने की कोशिश करते थे और वे इसका ख़ूब प्रचार भी करते थे, लेकिन मलिन बरहम बाबा के इस रहस्यमयी सिद्धांत को कायरता कहकर ही बुलाते थे। तभी तो मलिनों का नेता समदिया दुसाध जब भी अपनी बस्ती के लोगों को संबोधित करता तो कहा करता था,
"साथियो, ई डरपोक जात का लोग है। ई सब सामने से नहीं लड़ता है, पीठ-पिछे से छुरा घोंपता है, एही से एकनी सब पर भरोसा मत करिह लोग। ई रात में चोरा के हमला करता है। ई कुली चोर हवन स। एकनी से बच के रहे के बा हमनी के...!"
समदिया थोड़ा दम भरता और फिर बोलता, "ई सब अपना को बड़ा जात कहता है और हमलोग को सोलकन कहता है...अरे, अपने तो अइसा-अइसा नीच कुकरम करता है कि भगवान को भी शरम लगे....बड़ा जात का लोग हैं ई...छी:छी:...ई सब को बड़ा कहना तो छोड़ दीजिए, थूकने लायक भी नहीं है ई सब के नाम पर...!"  बोलते हुए समदिया दुसाध का मन जैसे घृणा से भिनभिना उठता था।  
समदिया जब अपने लोगों को संबोधित करते हुए बोलता, तो लोग बेसुध होकर सुनने लगते थे। बोलता भी तो था बहुत भावुक होकर!
"अरे दम हो तो मरद सब से लड़ के दिखाए ना...औरतन और बच्चा-बुतरुक सब को मारता है....ई का मरदई है कि जवान लड़की सब को उठाके ले जाए और.....! भड़ुआ साले...!"
समदिया बोलते-बोलते कभी गुस्से में आ जाता था, तो कभी उसका गला भर उठता था। लोगों पर तो जैसे जादू कर देता था।

सरयू सिंह ने चाबी घुमाई और ट्रैक्टर खड़खड़ करके चालू हो गया। इन्तजार बस सुनरदेव के आदेश का था। सुनरदेव शर्मा ने अंतिम अनुमति के लिए बाबा की ओर देखा तो एकबारगी चौंक गया। बाबा की  आँखें कहीं और टिकी थीं। वह ठिठक गया। सुनरदेव बाबा की सांस पहचानता था। बाबा के साथ साये की तरह चिपका भी तो रहता था! उसने गौर किया कि बाबा एक ताजा गोश्त को अपलक निहार रहे थे।  
उसका चेहरा भय से पीला पड़ा हुआ था। निढाल-सी अपने साथ की महिला के कंधे से टिकी खड़ी थी। उम्र भी सोलह-सत्रह की ही रही होगी लेकिन गठन ऐसा की चेहरे से मासूम दिखने के बावजूद बीस-बाईस से कम नहीं दिख रही थी। ढीली चोटी में करीने से बँधे उसके बाल सामने की ओर छाती पर झूल रहे थे। घने बालों वाली चोटी ने एक स्तन को तो ढँक रखा था लेकिन दूसरे के लिए कोई पर्दा न था। मौत के भय के कारण सांसें जैसे धौंकनी की तरह चल रही थी। सांसों के फूलने-पिचकने और तेज-तेज चलने से उन्नत उरोज तेजी से उठ-बैठ रहे थे। उसके सहमे हुए चेहरे पर उसके काले-काले रेशमी बालों के आठ-दस रेशे उड़-उड़ कर चुहुल करते जा रहे थे। बालों के रेशे जब गोरे-गोरे गालों पर से होते हुए उसकी तीखी नाक पर आ जाते तब वह उन्हें अपने हाथों से समेटकर यथावत अपनी जगह पर लौटा देती थी। यह समदिया दुसाध की छोटी बेटी बसनी थी।
      ट्रैक्टर अब धीरे-धीरे आगे की ओर सरकने लगा था। अचानक सुनरदेव आगे बढ़ा और उसने बसनी की बाँह पकड़कर उसे अपनी ओर तेजी से खींच लिया। ट्रैक्टर के चक्कों से कच्च-कच्च और फच्च-फच्च की आवाज़ आने लगी थी। हृदय विदारक चीख-पुकार से जैसे आसमान का सीना चिरने लगा था। सैनिक भी जयघोष बुलंद करने लगे थे – "दादा रणवीर अमर रहे, अमर रहे अमर रहे….!" चीख़-पुकार तो ट्रैक्टर के अगले पहियों के चढ़ने तक ही मचती रही, पिछले पहियों ने तो सबकुछ हमेशा के लिए शांत कर दिया था। फिर कुचली जा चुकी मरी-अधमरी देह उठाकर जलती झोंपड़ियों के दहकते अलाव में फेंकी जाने लगी थी और छावनी के सैनिक आग में जलते मानव-मुंडों से फूटकर निकलने वाली चटकती ध्वनियों को सुनकर आनंदित हो रहे थे। यह पूरी प्रक्रिया कई बार दोहराई जाती रही।


     आज बहुत दिनों के बाद छावनी का वीराना टूटा था। पिछले कुछ सालों से यहाँ कोई उठता-बैठता भी तो नहीं था! लेकिन जब बाथे कांड के सभी आरोपियों को बाईज्जत बरी कर दिया गया था और बरहम बाबा, देवल चौधरी, सरयू सिंह आदि जेल से छूटकर लौट आए थे, तभी जाकर छावनी में कुछ लोग आने-जाने भी लगे थे। नहीं तो, जबतक बाबा जेल में रहे, यहाँ वीराना ही छाया होता था। जब बाबा पकड़े गए थे, कुछ दिनों तक तो छावनी में खूब गहमा-गहमी रही थी और बाबा के पास जेल में भी मिलने-जुलने वालों का तांता लगा रहा था, लेकिन धीरे-धीरे लोग अलसाने लगे थे। लोगों का जेल जाकर बाबा से मिलना-जुलना भी कम ही हो गया था। आखिर एक दिन ऐसा भी आया जब सब छूट गए - साथी, संगी, सैनिक, सभी। 
      बरहम बाबा का प्रारंभिक ख्याल था कि सैनिकों को यदि सुख-सुविधा की हर वस्तु मुहैया नहीं करायी गयी तो सैनिकों में छावनी के प्रति गहरी निष्ठा नहीं आ पाएगी। फिर भी, यह बात बाबा की समझ में नहीं आ पाती थी कि आखिर वो कौन से कारण हैं कि इतने अधिक वेतन, रुतबे और सुविधाओं के बावजूद छावनी के सैनिकों में अपने आकाओं के प्रति वैसी निष्ठा नहीं आ पाती थी जैसी अंध-भक्ति समदिया दुसाध के लिए मलिनों में होती थी। छावनी के सैनिकों में वैसा आपसी भाईचारा भी नहीं होता था और ना ही मलिनों जैसी भयहीन आक्रामकता दिखती थी। इसलिए छावनी के ‘थिंक-टैंक’ के लिए यह विचार-मंथन का विषय बना रहता था कि आखिर मलिनों की नंग-धड़ंग सेना की भयहीन आक्रामकता और अपने सेनापति के प्रति की ऐसी अंध-भक्ति के पीछे का रहस्य क्या है!  बरहम बाबा जबतक छावनी में रहे, उनके लिए यह रहस्य, एक रहस्य ही बना रहा। लेकिन जेल के जीवन के दौरान उन्हें यह बात तब समझ में आई थी जब उन्हें प्रोफेसर रामाधार का साथ मिला था। प्रोफेसर साहब पिछले कई सालों से विचाराधीन कैदी बने पड़े हुए थे। उन्हें तब गिरफ्तार किया गया था जब सरकार ने मलिन काउन्टर कमांड (एम.सी.सी.) को एक प्रतिबंधित संगठन घोषित कर दिया था। प्रोफेसर साहब पर एम.सी.सी. के 'थिंक-टैंक' का सदस्य होने का आरोप था। जेल के अन्दर तो दुश्मनों को भी दोस्त बनाकर रखने की मजबूरी होती है! इसी मजबूरी के तहत बाबा और प्रो. रामाधार निकट आ गए थे। जब सश्रम कारावास की सजा भुगत रहे कैदी काम पर चले जाते थे तब विचाराधीन कैदी आपस में बातचीत करके अपना समय काटा करते थे और सुख-दुख साझा किया करते थे। बाबा भी विचाराधीन कैदी ही थे। उन्होंने भी अपना सुख-दुख साझा करने के लिए  प्रो. रामाधार के रूप में एक साथी ढूँढ़ लिया था।
एक दिन जब बाबा ने प्रोफेसर साहब से निष्ठा संबंधी अपनी उलझनों को साक्षा किया और उनसे कुछ समझने की कोशिश की, तब प्रोफेसर साहब ने बाबा को कहा, "ब्रह्मदेव भाई, सिर्फ सुख-सुविधा दे देने से ही निष्ठा नहीं आ जाती है। निष्ठा तो सैद्धांतिकी का बाई-प्रोडक्ट होती है। आप जो कुछ भी करते हैं, उसके पीछे एक सिद्धांत होना चाहिए। आपकी सोच वैयक्तिक नहीं वैश्विक होनी चाहिए और यह समझना भी उतना ही महत्त्वपूर्ण होता है कि आप समाज के दबे-कुचले और कमजोर तबके के पक्ष में खड़े हैं या कि उसके प्रतिपक्ष में।" 
इसबात पर बाबा ने प्रो. रामाधार को रोकते हुए पूछा था, "लेकिन रामाधार भाई, हम भी तो अपने लोगों के लिए ही लड़ रहे हैं, जइसे आप लोग अपने लोगों के लिए…।"
प्रोफेसर साहब कंबल को लपेटकर तकिए की शक्ल देने की जुगत में लगे हुए थे और बाबा से बातचीत भी करते जा रहे थे। जब तकिया तैयार हो गया तब उससे टिक कर अधलेटे से पड़ गए और एक गहरी सांस छोड़ते हुए बोले, "हम लोगों की लड़ाई और आप लोगों की लड़ाई में बहुत अन्तर है ब्रह्मदेव भाई। आप लोगों की लड़ाई एक उद्देश्यहीन लड़ाई है जिसके पीछे कोई मकसद नहीं है, और थोड़ा बहुत कुछ है भी तो वह सकारात्मक नहीं नकारात्मक है जिससे समाज का कुछ बनने वाला नहीं है।"
यह सुनकर बाबा ने विरोध किया था लेकिन दबी जुबान में। प्रो. रामाधार एक विद्वान व्यक्ति हैं यह बात बाबा ही नहीं पूरा इलाका जानता था और तमाम राजनैतिक विरोधों के बावजूद सभी विचाराधाराओं के लोगों के बीच उनकी विद्वता की बड़ी धाक थी। इसीलिए बाबा भी उनकी विद्वता से सहमे हुए ही दिखे थे। उम्र में भी तो बाबा उनसे बहुत छोटे थे! बरहम बाबा ब्रह्मचर्य के हिमायती थे इसीलिए गाँव के बुजुर्ग लोग उन्हें बाबा कहने लगे थे, नहीं तो उनकी उम्र पैंतालीस-पचास के बीच ही कुछ रही होगी!
बरहम बाबा बोल पड़े, "रामाधार भाई, मार-काट तो आप भी करते हैं। अब आप वही काम करें तो सकारात्मक और समाज का उससे भला हो रहा है, लकिन वही काम हमारे लोग करें तो नकारात्मक! ये क्या बात हुई!"
यह सुनकर प्रो. रामाधार मुस्कराने लगे थे। शायद उन्हें बाबा से ऐसी साफगोई की उम्मीद नहीं थी । लेकिन पके हुए आदमी थे, तनिक भी विचलित नहीं हुए।
समझाने की मुद्रा में बोलने लगे, "ब्रह्मदेव भाई, यही तो बात आपकी समझ में नहीं आ रही है। हम लड़ते हैं एक सपने के लिए, एक सपने को साकार करने के लिए, जबकि आप सपनों के दुश्मन बने बैठे हैं। हम सत्ता और सामंती व्यवस्था के खिलाफ़ खड़े हैं, जबकि आप सत्ता के दलालों के पक्ष में खड़े हैं। मकान बनाने और दुकान  सजाने में बहुत अंतर होता है ब्रह्मदेव भाई। हम उस सत्ता के विरोध में खड़े हैं जिसने आज बीच चौराहे पर एक ठेला लगा लिया है और एक खोंमचे वाले की तरह हमारे आदर्शों को, हमारे मूल्यों को बल्कि हमारे पूरे समाज को हांक लगाकर सरेआम बेच रही है। ब्रह्मदेव भाई, हमारी लड़ाई आपसे थोड़े ना है। हम तो कभी-कभी अपने बचाव में आपसे भिड़ जाते हैं। हमारी लड़ाई तो सीधे-सीधे सत्ता से है। जबकि आप सत्ता द्वारा हमारे खिलाफ़ इस्तेमाल किए जा रहे हैं। आपको इस फर्क को समझना होगा। ब्रह्मदेव भाई, आपको यह बात बहुत गंभीरता से समझनी होगी कि आपको इस्तेमाल किया जा रहा है और आप लोग अच्छी तरह से इस्तेमाल हो भी रहे हैं!"  फिर दोनों थोड़ी देर के लिए खामोश हो गए थे।
      बाबा को तो पहले से ही यह दर्द साल रहा था कि सत्तासीन पिछड़ी  जाति के राजनेताओं ने किस  तरह से उनका इस्तेमाल कर लिया था। देश की राजनीति में ऐसा पहली बार हुआ था कि किसी पिछड़ी कही जाने वाली जाति ने अपना हक़ माँगती किसी निचली जाति के विरूद्ध अपने फायदे के लिए किसी अगड़ी जाति का इस्तेमाल कर लिया हो और जब गन्ने का रस पूरी तरह से निचुड़ गया, तब गन्ने की सिठ्ठी को उठाकर कालकोठरी में फेंक दिया हो। पहले तो अगड़ी जाति ही पिछड़ों का इस्तेमाल किया करती थी!
      बाथे कांड से पहले तो छावनी में प्रदेश के मुख्यमंत्री तक की आवाजाही सतत बनी रहती थी। लेकिन जब से बाबा जेल गए थे, मुख्यमंत्री क्या, किसी विधायक तक ने भी उनकी सुध लेना जरूरी नहीं समझा था। यही सब सुन-सोचकर बरहम बाबा खामोश हो गए थे।
      जेल के जीवन ने बाबा को एकाकी बना दिया था। जब भी अकेले होते, दुनिया भर की बातें दिमाग में कौंधने लगतीं। सबसे ज्यादा तो बसनी का चेहरा परेशान करता रहता था। कभी वह सामने रेलिंग से टिकी दिखती, तो कभी पीछे की ओर से छम्म से आ जाती, कभी दरवाजे की ओट से झांक रही होती, तो कभी पिता और भाई को याद करके उसकी सांसें उखड़ रही होतीं। जब कभी बाबा उसका हाथ पकड़ते और उसे चूमने की कोशिश करते, तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेती और अपने को छुड़ाते हुए अपने कोप-भवन की ओर दौड़कर भाग जाती और बाबा मुस्कराते हुए उसे देखते रह जाते। भागकर कोप-भवन की ओर जाती हुई बसनी के पाँवों से आती पायलों की छम-छम, बाबा को घंटों सुनाई देती रहती। वे मुस्कराने लगते। लेकिन फिर तत्काल ही सचेत हो जाते और यह सोचकर इधर-उधर देखने लगते थे कि जाने किसी दूसरे कैदी ने देख तो नहीं लिया उन्हें इस हालत में! बाबा हरपल इसी तरह की पता नहीं कितनी यादों में खोए हुए डूबते-उतराते हुए मुस्कराते रहते थे। लेकिन जैसे ही बाबा को बसनी के साथ का अपना पहला समागम याद आता, वे विचलित हो उठते थे।
      रात गहराई हुई थी। झिंगुर झुन-झुन-चुन-चुन कर रहे थे। छावनी में घुप्प सन्नाटा छाया हुआ था। कहीं से फुसफुसाहट तक नहीं आ रही थी। कभी-कभी ठंडी हवाएँ सर्र-सर्र की ध्वनि के साथ कान के पास से निकल जा रही थी। हालांकि ऐसा नहीं था कि सभी लोग नींद में ही रहे हों लेकिन सन्नाटा मौत का सा था। बसनी की चीख़ से ही सन्नाटे में सुराख हुई थी। हालांकि किसी ने उसकी कराह पर उस तरह ध्यान नहीं दिया था, लेकिन बाबा के कान बज उठे थे। उनका  पूरा शरीर जैसे सर्द-सा पड़ गया था। यह सिर्फ बसनी की चीख़-भर न थी। ऐसा लगा था मानों रात की इस खामोशी के बीच समदिया की हृदय-विदारक चीख़ गूँज उठी हो। समदिया और उसके बेटे की तरह ही बसनी भी दो-तीन बार ही चीखी थी, लेकिन तीव्रता इतनी मानो सबकुछ टूट कर बिखर गया हो। टूटती चूड़ियों की कड़कड़ की आवाज ने भी ऐसे शोर मचाया था जैसे अलाव में मानव-मुंड चटक रहे हों। अभी चित्कार की यह ध्वनि दूर घाटियों से टकराकर लौटती, इससे पहले ही ट्रैक्टर से आती कच्च-कच्च और फच्च-फच्च की आवाज तेज हो आई थी। ऐसा हरबार होता। कोठरी की पूरी दीवार मानो निढाल पड़ी बसनी के उदास चेहरे में तब्दील हो जाती। यादें खींझ में बदल जातीं और बाबा अपने मन को झटककर किसी और बात में उलझाने की कोशिश करने लगते। फिर बाबा एकबारगी बिस्तर छोड़ उठ खड़े होते। पास पड़े घड़े से एक ग्लास पानी निकालते और गला तर करने लगते थे। सोने के लिए तो जाने कितनी ही तरकीबें अपनानी पड़ती थीं!  
      उनसे मिलने-जुलने भी तो कम ही लोग आते थे। कभी-कभी बसनी ही मिलने आ जाती थी। लेकिन वह तभी आती थी जब उसे किसी फरमान पर अंतिम ठप्पा लगवाना होता था। जबकि बाबा के मन में तो बसनी हमेशा ही बसी रहती थी और बाबा जब भी अकेले होते, उससे बातें भी खूब किया करते थे। बाबा को रात के अंधेरे में अकेले किसी से फुसफुसाकर बातें करते देख, सुनरदेव चिढ़ जाता था और व्यंग्य में बोल पड़ता, "चले हैं बुढ़ारी में घिंउढ़ारी करने।" यह सुनकर बाकी लोग मुस्करा देते थे। हालांकि बाबा के विरोध में किसी को बोलने की इजाजत नहीं होती थी। लेकिन बाबा ने सुनरदेव को इतनी छूट दे रखी थी। अगर कभी कोई अवांछित छूट लेने की कोशिश करता तो सुनरदेव ही उसे झिड़क कर चुप करा देता था। सुनरदेव शर्मा के मन में यह बात हमेशा घर की रहती थी  कि छावनी के सैनिकों ने बाथा जैसे पता नहीं कितने ही आक्रमण किए थे और कितनी ही बसनियाँ छावनी के तफरीह घर की भेंट चढ़ती रही थीं, लेकिन स्वयं बाबा ने इससे पहले कभी किसी बसनी की ओर नजर उठाकर नहीं देखा था। यही सब सोच-सोचकर वह बाबा को लेकर बहुत भावुक हो जाता था, लेकिन बसनी के लिए उसके मन में सहानुभूति का तनिक भाव नहीं रहता था।
      जेल ने बाबा के जीवन को ही नहीं, उनकी सोच तक की चूलें हिला दी थीं।  अबतक उनकी सभी पूर्ववर्ती धारणाएँ ध्वस्त हो चुकी थीं और वे दार्शनिकों-सी बातें करने लगे थे। शायद जेल की ऊँची-ऊँची दीवारों के पीछे ही बड़े-बड़े दर्शन जन्म लेते हैं।
      जेल से निकलने के बाद बरहम बाबा ने अपने को सैद्धांतिक रूप से मजबूत करना शुरू कर दिया था। अब उनका ज्यादा समय दार्शनिकों के विचारों को पढ़ने और उन्हें आत्मसात करने में ही बीतता था। लेकिन बाबा ज्यों-ज्यों अपने को सिद्धांतों में तल्लीन करने लगे थे, वे अपने को मलिनों के दुख-दर्द के क़रीब महसूस करने लगे थे। ऐसे में, मलिनों के प्रति उनकी पूर्ववर्ती आक्रामकता क्षीण पड़ने लगी थी और वे अपने ही बनाए नियमों में शिथिलता दिखाने लगे थे। उनके इस वैराग्य को देखकर छावनी में यह बात प्रचारित होने लगी थी कि बरहम बाबा अब सठिया गए हैं। उन्हें अपनी मृत्यु का भय सताने लगा है इसीलिए मउगाए घूम रहे हैं। जबकि बरहम बाबा जेल से छूटने के बाद अपने स्वयं के द्वंद्व से जूझ रहे थे। वे मलिनों के विरूद्ध की जाने वाली आक्रामक कार्रवाई के विरोधी से हो गए थे। अब वे सैनिकों की फौज लेकर भी नहीं निकलते थे, नहीं तो एक समय था जब मैदान के लिए भी निकलना हो तो ऐसे निकलते थे मानो सेना कूच को निकली हो।
     
     
      आज नदी पार की दूर मलिन बस्ती में सब कुछ सामान्य-सा दिख रहा था। लाउड-स्पीकर पर कोई गाना बज रहा था जिसकी हल्की-हल्की सी आवाज़ छावनी तक भी आ रही थी। शायद किसी के घर कोई विवाह  का समारोह था। छावनी और मलिन बस्ती के बीच धनौती नाम की यह नदी पता नहीं कितने वर्षों से बह रही थी और बहती ही जा रही थी। नदी का पाट तो सँकरा ही था, लेकिन यही दोनो को अलगाता था। नदी पर लकड़ी की एक जर्जर पुलिया बनी हुई थी जो मलिनों की बस्ती से छावनी को जोड़ती थी। मलिन बस्ती से छावनी की ओर सामान्यत: कोई आता जाता नहीं था, लेकिन विविध सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के अवसर पर डोमकच  आदि रस्मों के लिए मलिनों की जरूरत पड़ ही जाती थी। इसलिए छावनी की ओर कभी-कभी मलिनों का आना-जाना हो जाता था। छावनी की तरफ से सिर्फ बसनी ही कभी-कभार अपनी बड़की दीदी के ससुराल तक हो आती थी। बसनी के लिए रिश्तेदार के नाम पर वही तो एक बच गयी थी!  पिता और भाई  तो लखीमपुर बाथे कांड में उसकी आँखों के सामने ही बड़ी बेरहमी से मार डाले गए थे। बाथे कांड में जब बसनी को उठाकर बाबा की बाहों में ढकेल दिया गया था, तब सैनिकों को इस बात का बहुत गर्व और संतोष हुआ था कि उन्होंने मलिनों के नेता समदिया दुसाध की बेटी को उठा कर मलिनों को कभी ना भूलने वाली सजा दी है। लेकिन छावनी के सैनिकों के मन का यह भाव बाबा के मन का स्थायी-भाव नहीं बन सका था।
      कहते हैं कि बसनी बरहम बाबा का पहला प्यार बन गयी थी और बाबा भी  बसनी के प्यार में  जो एकबार उलझे, तो बस उलझते ही चले गए थे। इसीलिए छावनी में बसनी के साथ वैसी दुर्गति भी नहीं की गई थी जैसी कि आमतौर पर आक्रमण के बाद पकड़कर लाई गयी अन्य मलिन लड़कियों के साथ की जाती थी। छावनी में बसनी रानी बनकर रही  थी। बाबा ने बसनी को मलिन बस्ती में आने-जाने की छूट दे रखी थी। बाबा एक तरफ तो उसके प्यार में बँधे हुए थे तो दूसरी तरफ, जेल से लौटने के बाद अब मलिनों को लेकर उनका मन मलिन रहने लगा था। लेकिन सुनरदेव शर्मा बाबा के इस ख्याल से कभी सहमत नहीं हो पाया था। यह सुनरदेव शर्मा ही था जो बसनी को नगिनिया कहकर बुलाता था और यह बात बसनी भी जानती थी।  वह हमेशा कहा करता था, "अरे ई नगिनिया है, आज ना कल डँसेगी जरूर। बाबा को कुछ बुझाता नहीं है। नहीं तो चाहे सेनारी हो कि इक्वारी हो और चाहे बाथे हो, अपना एक्को-गो आदमी कभी नहीं मराया था। जब से ई नगिनिया आई है, तबही से सेना का लोग मराने लगा है और सेना का हमला खराब होने लगा है। अरे भाई, ई कइसे होने लगा है कि कोई हमला हुआ नहीं कि चारो तरफ से टिटिहरी जइसा निकल पड़ता है सब बंदूक लेके, अउर सेना को भागना पड़ता है जान बचाके...! ऊ सब को पता कइसे चल जाता है कि अभी हमला होने वाला है? नगिनिया ही देती है ख़बर...!"
      छावनी के सैनिक आमने-सामने की लड़ाई से गुरेज करते थे इसीलिए जब भी आमने-सामने की भिड़न्त होती थी तो सेना को ही अधिक नुकसान उठाना पड़ता था, जबकि मलिनों को सीधी भिड़न्त से परहेज नहीं होता था। मलिन हर समय प्रत्याक्रमण को तैयार रहते थे। सुनरदेव शर्मा की छठी इंद्रियाँ हमेशा इसबात की गवाही देती रहती थी कि नगिनिया के कारण ही छावनी को नुकसान उठाना पड़ रहा है और वह साथी सैनिकों में यह बात बोलता भी रहता था। सुनरदेव अपने इस सुबहे को लेकर बाबा को भी समझाने की कोशिश करता था, लेकिन बाबा पर उसकी एक ना चलती थी।
      सुनरदेव शर्मा बाबा का सबसे चहेता सैनिक था। यह बात बसनी जानती थी। यूँ भी बसनी का रहस्यमयी मौन ही उसकी एकमात्र थाती थी। सुनरदेव भी बाबा के मन में बसी बसनी की महत्ता को खूब समझता था, इसीलिए बहुत मुखर विरोध नहीं कर पाता था। दूसरी ओर, बसनी को चाहने वालों की भी फेहरिश्त कोई कम लम्बी नहीं थी। कुछ तो छावनी में सुनरदेव शर्मा की महत्ता से ईर्ष्या रखते थे  इसलिए बसनी को समर्थन दिया करते थे, तो कुछेक बसनी को भोगने की लालसा लिए संभावनाएँ तलाशते रहते थे। इसतरह सेना के अन्दर बसनी और सुनरदेव के रूप में दो सत्ता-केन्द्र बन गए थे। लेकिन इनके बीच हमेशा एक शक्ति-संतुलन बना रहा था और यह सत्ता-संतुलन आख़िरकार तभी जाकर टूटा था जब सेनारी कांड की चार्जशीट फाइल हुई थी और सुनरदेव शर्मा जेल चला गया था। 


      बरहम बाबा का मृत शरीर शांत-चित्त लेटा हुआ था। आँखें ऐसी भिंची हुई थीं मानो मियांपुर, सेनारी, इक्वारी और बाथे की सफलता पर अफसोस जाहिर कर रही हों। लोग बाग़ आते, देखते और फिर पीछे हो, हौले से निकल जा रहे थे। आसपास खड़े सभी लोग बाबा की अर्थी के उठने का इन्तज़ार कर रहे थे जबकि सिर के पास बैठी बरहम बाबा की माँ एकटक अपने बेटे को निहारती हुई उसके माथे पर हाथ फेरती जा रही थीं। बरहम बाबा के पिता छावनी के पीछे खड़े  आम के पेड़ की छाँव में बैठे किसी  ग्रामीण के सामने अपना दुखड़ा रोते हुए बोल रहे थे, "भाई, हम तो वो अभागा हैं कि अपने बाप का भी किरिया-करम किए हैं और बेटा का भी करने जा रहे हैं। अरे भाई.., हम तो बोल-बोल के थक गए कि आह मत लो निहत्था गरीब सब लोग का, लेकिन माने तब ना! जेहल काटके आया तब से थोड़ा सुधर भी गया था, लेकिन सुधरने का फायदा का हुआ जब सब खतम हो गया… गरीबहन सब का हाय लग गया भाई..!"  बोलते हुए बरहम बाबा के पिता फफक पड़े थे। 
      अर्थी  के उठने की तैयारी पूरी हो चुकी थी। सिर्फ बसनी  के आने का इन्तजार हो रहा था कि वह आए और अंतिम दर्शन कर ले ताकि बाबा की महायात्रा शुरू हो सके। सांकल के बजने की आवाज आई। बसनी अपने कोप-भवन से बाहर निकली थी। बाबा ने छावनी में बसनी को जो कमरा दे रखा था, उसे वह कोप-भवन ही कहती थी। बाहर भी तो कम ही निकलती थी! आज बसनी लाल जोड़े में थी। सजी ऐसी थी कि दुल्हन विदाई को तैयार हो।  भखरा सिन्दूर से उसकी मांग दमक रही थी। नारंगी रंग का भखरा सिन्दूर शादी के समय दुल्हन की मांग में डाला जाता था और नवविवाहिताएँ थोड़े दिनों तक उसे अपनी मांग में डालती रहती थीं । हालांकि उनके सिन्दूरदानों में भखरा सिन्दूर भरा रहता था, लेकिन रोजमर्रे में इसका उपयोग नहीं किया जाता था। इसीलिए आज बसनी को भखरा सिन्दूर में देखकर लोगों को आश्चर्य हो रहा था। उसकी कलाइयाँ लाल चूड़ियों से सजी हुई थीं।  उसने अपने लम्बे-लम्बे बालों को एक जूड़े में समेट रखा था। जूड़ों के कारण दुधिया गर्दन चमचम कर रही थी जिससे झूलते काले-काले मोतियों की लरी वाले मंगल-सूत्र ने उसे और भी आकर्षक बना रखा था। आज बसनी ने ऊँची ऐंड़ी वाली सैंडिलें पहन रखी थीं। सैंडिलों से आती खट-खट की आवाज ने सब का ध्यान खींच लिया था। बाबा ने इन सैंडिलों को बड़े प्यार से खरीदा था।  जब बाबा ने बसनी को सैंडिलें दी थीं तो उसके गोरे-गोरे पाँवों को सहलाते हुए कहा था, "बसनी, भगवान ने तुम्हारा गोड़ एतना सुन्दर बनाया है कि पूछो मत, जब ई सेंडिल पहिनोगी तो दुनिया का सबसे सुन्दर लड़की लगोगी।"
प्रत्युत्तर में बसनी ने कुछ कहा तो नहीं था, लेकिन उसने बाबा के जीते-जी कभी उन सैंडिलों को पहना नहीं था।
      सब की नज़रें बसनी पर ही टिकी थीं। आज से पहले बसनी को इस रूप में कभी किसी ने देखा भी तो नहीं था, इसलिए सभी भौ-चक्क खड़े थे।  बसनी अर्थी के करीब आई और उसने बाबा को घूर कर देखा। आँखों से जैसे अंगारे बरस रहे थे। चेहरे पर तो मातम का नामोनिशान तक न था। होठों पर हल्की-सी मुस्कान जरूर दौड़ रही थी। थोड़ी देर बाबा को घूरते रहने के बाद बसनी ने अपनी सैंडिलें उतारीं और घुमाकर फेंक दिया पास के बथान की ओर। सैंडिलें गोबर के टाल पर चप्प से गिरी थीं इसलिए किसी प्रकार की विशेष आवाज़ नहीं हुई थी। फिर उसने एक लम्बी खरास खींची और अचानक थूक दिया बाबा के मुँह पर, "आक् थू"।
      भीड़ सन्न रह गयी। अभी लोग-बाग़ कुछ समझते इससे पहले ही वह तेजी से मुड़ी और भागने लगी नंगे पाँव, मलिन बस्ती की ओर। मलिन बस्ती के लाउड स्पीकर पर बजने वाला गाना अब साफ-साफ सुनाई देने लगा था,  "अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया रे, ये ननदी, दियरा जरा द...।"
      लाउड स्पीकर से आने वाली आवाज़ धीरे-धीर और तेज होने लगी थी।
*****

अनुज कुमार
                              
जन्म: मोतिहारी (बिहार)                                                                                                                                                                                 
प्रकाशन : कहानी संग्रह, कैरियर गर्लफ्रैंड और विद्रोह,            
(भारतीय ज्ञानपीठ, नयी दिल्ली) 
विविध राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में कहानियाँ, कविताएँ,
संस्मरण, लेख और पुस्तक- समीक्षाएं प्रकाशित 
आकाशवाणी की राष्ट्रीय प्रशासन सेवा के लिए दर्जनों 
फीचरों का निर्माण व टांक लेखन.
संप्रति : 'कथा' पत्रिका का संपादन 
संपर्क : 798 बाबा खड़कसिंह मार्ग, नयी दिल्ली - 110001 .
फोन : 09868009750 
ई -मेल : anuj.writer@gmail.com     
  

3 comments:

  1. पोस्ट दिल को छू गयी.......कितने खुबसूरत जज्बात डाल दिए हैं आपने..........बहुत खूब
    बेह्तरीन अभिव्यक्ति .आपका ब्लॉग देखा मैने और नमन है आपको और बहुत ही सुन्दर शब्दों से सजाया गया है लिखते रहिये और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.

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  2. वाह कमाल की कहानी शेयर किया आपने सेनाओं के बारे में तो केवल सुना ही था उनकी क्रूरता और पशुता को उजागर करती एक सशक्त कहानी ! शोभा जी इसके लिये आपको हृदय से धन्यवाद!

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  3. वाह कमाल की कहानी शेयर किया आपने सेनाओं के बारे में तो केवल सुना ही था उनकी क्रूरता और पशुता को उजागर करती एक सशक्त कहानी ! शोभा जी इसके लिये आपको हृदय से धन्यवाद!

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