Thursday, November 22, 2012

रूपा सिंह की कविताएँ



  कवयित्री रूपा सिंह की मुखर कविताएँ, स्त्री पक्ष को बहुत ही सहजता और आत्मविश्वास से रखती हैं, पहली बार आपके लिए प्रस्तुत है 'फर्गुदिया' पर रूपा सिंह जी की कविताएँ ..







1- हत्या 

कभी- कभी कमरे स्तब्ध होते है
और दरवाज़े चौकन्ने,
जब मोहल्ले से थोड़ी दूर
पर होते हैं दंगे.
मारा जाता है कोई बेहद परिचित अपना.

आग के चारों तरफ बैठे बच्चे
घुटनों को मोड़े, हथेलियों में चेहरा
टिकाए, माँ दादियों से सटकर
बैठते हैं और पिता से दूर
खिसकते हुए
लोहे के चिमटे से भी खाते हैं.

वीरान दिशाओं की बारूदी गंध
भर जाती है फेफड़ों के अंदर
युवा लड़कियां सख्त रंध्रयुक्त  सीनों में
धड़कते एक यंत्र पर अपना
चेहरा टिका सोचती हैं
आवाज़ आवाज़ में कितना फर्क है
और कितनी नजदीकियां भी ?

जब एक कड़ी तपती आवाज़
सदियों से महकती गर्म वाष्पी
सुरों को बदल देती है                        
पल भर में, एक मृत  सन्नाटे  में?

2- सब से खतरनाक समय 

सब से खतरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं कर लूंगी खुले आम प्यार
निकल पडूँगी अर्ध रात्रि दरवाज़े से
नदियों में औंटती, भीगती, अघाती
लौट आऊँगी अदृश्य दरवाज़े से
घनघोर भीतर.

अब तक देखे थे जितने सपने
सबों को बुहार कर  करूंगी बाहर
सीझने दूंगी चूल्हे पर सारे  तकाजों को

पकड़ से छूट गए पलों को
सजा लूंगी नई हांडी में और
कह दूंगी अपनी कौंधती इन्द्रियों से
रहें वे हमेशा तैयार
मासूम आहटों के लिये

संसार की दिग्विजय पर निकली हूँ मैं
स्त्रीत्व के सारे हथियार साथ लिये

सब से खतरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं करने लगी हूँ खुद से ही प्यार.


3-भय 

कहीं एक बिच्छू है
जो दौड़ता है धमनियों में
रात की कालिमा को मिचमिचाता हुआ
डंक मारने के  फिराक में.

कहाँ जी पाएंगे अब हम अपनी
पूर्ण आयु?
भूकंप, सड़क दुर्घटना या किसी
आतंकवादी हमले में बिना
बतियाए किसी से
चल चुके होंगे बेबस यात्रा पर.

किसी  को जी भर देखने की  कशिश
और बांहों  की  कसन के  मार्मिक
अहसासों को बिना जिए
दौड़ा दिए जाएंगे अनजान दिशाओं में
जीते जीते हम अयोग्य हो जाएंगे
विश्वासों के
जो  कोंच रहे होंगे हमारी पसलियों को.
उन्हें खत्म  करने की  कोई  गुज़ारिश
कहाँ सफल होगी बिना सौहार्द्र  के
पड़ोसियों के यहाँ कटोरियों के लेन-देन
और उसमें भरे दूधिया बताशों के?

बिच्छू भागेगा सरपट...
हम बाकी बची रात
लम्हात चूम चूम  कर बिताएंगे


4-पिनकोड 

एक किताब हूँ मैं
रैक पर सजी
सुंदर रैपर
सुनहरे अक्षरों में चमकती.

मेरे साथी सभी पढ़े गए हैं
कभी न कभी

अभ्यस्त उँगलियाँ छूती
निकलती हर बार
पढ़ी ही नहीं गई बस किसी बार

अब सोची गई हूँ उपहार में  भेजने को
रौंद रौंद कर उकेरा गया है नया पता

डाकिये के झोले में दिनों खदबदाती
नई छुअन सहती, सोचती
पिनकोड नहीं भरा गया
तो क्या                                                                  
एक दिन झोले से उझकूंगी जरूर 
भले बीच चौराहे पर
चिंदी चिंदी हो बिखर जाऊँ.


5-माँ बेटी 

जब भी कोई छाया
मेरे पास आती है
और करना चाहती है
चुंबनों की बौछार
मैं ठिठक  जाती हूँ  माँ...

सीता सावित्री अनुसूया
फुसफुसाने लगती है कानों में
रेंगती हैं चींटियाँ
शापग्रस्त कोलाहल के भाप से...

माँ,
मुक्त कर दे मुझे
किसी अच्छेपन की तलाश से.
एक कहानी गढ़ लेने दे
किसी अंधे कुँए के पास में...


6-लड़की 

कुछ देर में बदल जाएगी तू
भूल जाएगी कहकहे किताबें और कविता

बन जाएगी पृथ्वी
और भूल जाएगी आकाश
संपूर्ण वेग आवेश और ताकत
लगा देगी तू बीज खिलाने में

भूल जाएगी पत्तियों के शबनम
और फूलों  की सुगंध को
फल चखना भी भूल जाएगी

कुछ देर में बदल जाएगी तू.

बन जाएगी कहानी
और भूल जाएगी कहकहे, किताब और
कविता.

7-प्रणय 

तेरी नसों में जो कुछ भी
उबल रहा हो
खूब, पानी, जोश, जवानी का दरिया,
थपेड़े मुझ तक आ जाते हैं.

नौ बित्ते के बिस्तरे पर
छटपटाती मैं उतार देती हूँ
कागज़ों पर खुद को...
जैसे किसी को अंदर तक
समोकर
एक नये को उंडेल देती है औरत


रूपा सिंह
सुपरिचित युवा हस्ताक्षर. तीन आलोचना पुस्तकें अस्मिता की तलाश’,
स्वातंत्र्योत्तर स्त्री-विमर्श और स्त्री-अस्मिता’ तथा स्त्री अस्मिता और कृष्णा सोबती
 प्रकाशित व दलित लेखकों की आत्मकथाएँ- समाजशास्त्रीय आलोचना’ तथा एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. पंजाबी में भी सृजनरत.  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कई परियोजनाओं में पुरस्कृत.  कनाडा सरकार द्वारा भी पुरस्कृत. जन्म: 16 मई. एम.फिल, पी.एच.डी. ज.ला.ने. विश्वविद्यालय से असोशिएट प्रोफ़ेसर. दिल्ली विश्वविद्यालय से डी.लिट. संप्रति: राष्ट्रपति निवासउच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान शिमला में एसोशिएट. संपर्क: D-10 राजौरी गार्डन, नई दिल्ली – 1100 15. मो. 09654223543, rupasingh1734@gmail.com.

5 comments:

  1. सच में अलग और विलक्षण है रूपा की कविता का तेवर और उनके भीतर स्‍पंदित वह संवेदना, जो उसे कविता के आम मुहावरे से अलग करती है।

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  2. 'माँ.. मुक्त कर दे मुझे...' लाजवाब. रूपा सिंह की ये कविताएँ सशक्त आगमन का ऐलान हैं. मेरी शुभकामनाएं.

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  3. एकदम अलग तरह की कविताएं हैं, स्त्री-मन को खोलकर रख देने वाली, और देर तक सोचने को विवश कर देने वाली भी. इन कविताओं ने प्रभावित किया है मुझे. बधाई रूपा को.

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  4. बहुत सुंदर ,लाजवाब और गंभीरता के साथ लिखी गयी कवितायेँ |
    http://srishtiekkalpana.blogspot.in/

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