Monday, September 24, 2012

शैलजा पाठक की जीवंत कवितायेँ

शैलजा कहती है “कवितायेँ मेरे मन के ख़ामोश वक्त का आइना हैं / जो शायद मैं बोल ना सकूँ वो कवितायेँ बोलती हैं/ महानगर में अपने मन को बाहरी आडंबर से बचाये रखा / सो कवितायेँ भी बची हुई हैं / लिखती और गाती हूँ दोनों अपने ही तरीके से


शैलजा पाठक  एम.ए (हिन्दी) मूलतः बनारस से हैं और मुंबई में जीवन यापन कर रही है 





शैलजा पाठक की जीवंत कवितायेँ 

एक दर्द भरा हसीन नयापन है उनके लेखन और इस नयेपन में इतनी शक्ति है कि पढ़ने वाला उनकी लिखी दुनिया में पहुँच जाता है और उनके साथ रुक कर देख और समझ लेता है उस दुनिया को, शायद पाठक को उसका अपना संसार दिखा देती हैं शैलजा की सीधी सरल कविताएँ .




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░१░░░░░

सौ बार बोला था
तुम्हे
की कह भी दो 
जो मन में है 
तुम रेत पर लिखती रही 

तुम नही बोली 
तुम्हे जब बोलना था 
आज मैं बैठा हुआ हूं 
उस जगह पर 

मौसमों की मार सह कर 
पानियों के साथ बहकर 
कुछ थके से शब्द 
औंधे मुह गिरे थे 

हाथ से उनको उठाकर 
भिचकर सिने से अपने 
सुन रहा था 
वो बयां करते रहे 
जान जो पाया नही था 

बावला सा दौड़ पड़ता हूं 
तुम्हारी ओर मैं 
हाथ में अपने सहेजे 
प्यार तेरा जो पड़ा था 
रेत पर इतने बरस से 





प्यार के कुछ रंग 
░░░░░२░░░░░




पता है कितना खुश हूँ ?
कितना ??
सच बहुत 
कभी नही लगा 
ऐसा जैसे लग रहा है 
अभी 

हम्म अच्छा है ना 

हाँ अचानक मन के 
सूने दरवाजे पर 
खूबसूरत कविता 
देने लगी है दस्तक 

घर की दीवारों का रंग 
इतना भी बुरा नही लगता 
शाम की उदासी को भी 
नही पीता 
घूंट घूंट 

पड़ोस से आने वाली 
आवाजों पर 
मुस्कुरा 
भर देता हूँ 

पुराने रखे कपड़ों को 
नए अंदाज से पहनता हूँ 
आईने में कमाल का 
साफ़ धुला लगता है चेहरा 

पुराने गानों की धुन पर 
जिंदगी को 
नई परिभाषा के साथ 
सुन रहा हूँ 

तुम्हारा होना 
...बादल है 
...धूप है
...गीत है 
...संगीत है 
मैं 
इनकी तरंगों पर सवार 
अपने जीवन की 
सभी अनछुई दिशाओं में 
बह रहा हूँ ....

हमेशा साथ रहोगी ना ????




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░३░░░░░




मुझे जब आती है 
तुम्हारी याद 

मैं सब भूल जाती हूँ 

पुरानी तस्वीरों से 
निकालती हूँ तुम्हें 

पिछली डायरी में 
सुरक्षित हैं कुछ 
मरते से अहसास 
उनके पन्ने खोलती हूँ 
और अक्षर अक्षर 
बोलती हूँ 

एक चूड़ी है लोहे की 
जो पहनाई थी तुमने 
मुस्कुरा कर कहा था 
सोने की भी लाऊंगा एक दिन 

आज सोने की चूडियों में 
सबसे कीमती यही है 
मैं पहनती हूँ इसे 
पुरानें दिनों को याद करते हुए 
ये सोने से ज्यादा चमकती हैं 

वो लाल बिंदी याद है 
जो गली के मोड़ से 
खरीदी थी तुमने 
पता नही 
क्या सोच के दी थी 
कभी लगाने को क्यों नही कहा था ??

मैं अपने सारे काम खत्म कर के 
तुम्हारी यादों के साथ 
बातें करती रहती हूँ 
कई बार तो जवाब में 
बोल पड़ते हों तुम 
मन के किसी कोने से 

मैं आँखें बंद किये 
सुनती हूँ तुम्हारी आवाज 
जो लगातार 
एक बेहद लंबे रास्ते पर 
चलती हुई 
दूर हों रही है मुझसे 

तुम अगले मोड़ से मुड़ गए हो .......




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░४░░░░░


सड़क के 
उस रिक्शा स्टैंड पर 
देखना तुम्हें 
पहली बार 
भीड़ को ओझल मान 
तुम्हें गले लगाना 

तुम्हारे हाथ को 
मजबूती से थामना 
तुम्हारी आँखों में पढ़ना 
दूर होने की टीस

जल्दी से 
एक कागज़ का 
आदान प्रदान 
जिसमे दोनों ने लिखा है 
एक ही शब्द 
प्यार 

एक जरा सी देर में 
बीते बरसों की 
कहानियां 
जल्दी जल्दी बताना 

पहाड़ी को देख 
गुनगुनाना 
एक पुरानी गज़ल 

हाथ में सकुचाते से देना 
वो जूट का छोटा सा पर्स 
छीन कर लेना तुमसे वो १० रुपया 

तुम्हारा जाना 
हाथ को जोर से भीचना 
रिक्शे में 
तुम ले कर फिर चले गए 
मेरा प्यार 
इंतजार 
मेरा गीत 
मेरी खुशी 

भींगती बारिश में 
मैंने बचा लिया वो कागज 
बचा लिया प्यार ......



प्यार के कुछ रंग 
░░░░░५░░░░░



मुझे कुछ नही चाहिए तुमसे 

बस कभी रो दूँ तो 
तुम्हारा रुमाल 

परेशां रहूँ तो 
तुम्हारा ख्याल 

कहना हों बहुत कुछ 
तो वक्त जरा सा 

थक जाऊ तो 
तुम्हारी बाहों का सहारा 

दूर जाते हुए 
बस आँखों का इशारा 
कि मैं साथ हूँ ना 

मेरी खामोश होती 
दुनियां को अर्थ दो 

मैंने समेटी है 
तुम्हारी दुनिया 

बस तुम भी मेरे 
मन को जान लो 

ज्यादा ना सही 
जरा सा ही 
मुझे भी पहचान दो ......





जिंदगी की आवाज़ें 
-१-

रात के अँधेरे में
गाँव के पीछे रस्ते पर
दरिंदों की 
गाड़ी रुकती है
परिंदे 
बेचे जाते हैं
माँ बाप की मुट्ठी में
कुछ गरम सी
रकम है
बरफ सा ठंडा
पड़ रहा है कलेजा
घुर घुराती सी चल
पड़ती है गाड़ी
मासूमों के रुदन से 
चीत्कार उठती है
गरीबी बेबसी लाचारी
परिंदे फड़फड़ा रहे है
नुचे पंख सी आहें उनकी 
फैली पड़ी है रास्तों पर ….
गरीबी और भूख इंसान का दिमाग निचोड़कर रख देती है ..सोचने समझने की शक्ति ऐसी ख़त्म होती है कि वो अपने शरीर का हिस्से को भी दांव पर लगा देता है .. अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है गरीब है या दोनों ही इंसान हैं .... एक भूख  और गरीबी से मजबूर और लाचार है ... दूसरा उसकी बेबसी का फायदा उठाकर आबाद है ... जिस तरह शैलजा ने गरीबी और लाचारी को कविता के माध्यम से व्यक्त किया है .. उसे पढ़कर अंतरात्मा काँप उठती है .. लिखने वाले ने अंतस से महसूस किया .. तभी ऐसा लिख सका )


जिंदगी की आवाज़ें 
-२-

वो अपनी दोनों मुट्ठियाँ
एक जादूगर की तरह
हवा में लहराता
और कहता
एक चुन ले
मैं चुन लेती
कभी पास फे़ल का निर्णय
कभी खेलने पढ़ने का
कभी गद्दे तकिये का
ऐसे तमाम उलझन
झट से सुलझ जाते
वो बता देता जैसा उसे बताना होता
मैं मान जाती
एक दिन वापस बिना बात ही
उसने अपनी बंद मुट्ठियाँ
हवा में लहराई
मुझे चुन लेने को कहा
मैंने पूछा क्या है इनमें ?
उसने कहा किस्मत
मैंने पूछा बस इतनी सी?
उसने कहा
हाँ हाँ ..मेरी भी तो इतनी ही
मैंने चुन ली एक मुट्ठी
वो मुस्करा पड़ा
और चिढाने लगा
मेरी तो मेरे पास ही है
अब तेरी भी 
मेरे पास ……
मेरी मुट्ठी में ………



जिंदगी की आवाज़ें 
-३-

हाथ में पूरे दिन की
कमाई मसलती है
कलेजा कसमसाता है
आँख भर भर ढरकाती है
पर नही खरीद पाती
जिदिद्याये बच्चे की खातिर
वो लाल पिली गाड़ी
जिसे रोज 
शीशे के पार
देखकर बिसूरता है वो 
देर तक
जबसे देखी है वो गाड़ी
बच्चे के सपने के साथ
उसके सपनों में भी
आती है सीटियों की आवाज
अगले दिन 
फिर खड़ी हों जायेगी 
घड़ी भर को
दुकान के इस पार
फिर मसलेगी पैसे
कसमसायेगी
बच्चा 
इंच भर की दूरी पर पड़ी 
गाड़ी को निहारेगा
और रख देगा 
अपनी नन्हीं हथेलियाँ 
उसके उपर
अपने हाथो में फोटो सी उतार लाएगा
खूब भागेगी गाड़ी सपने में
आएगी सीटियों की आवाज
बच्चा हथेलियों को
आँख पर रखकर
सो जायेगा …….




जिंदगी की आवाज़ें 
-४-


कान्हां ,
नींद से जागने पर
तुम्हारे कितने नखरे
यशोदा उठाती थी
दुलारती थी पुचकारती थी
पर हम… 
समय की लात खा कर
आँखें मिचमिचाये
जाते हैं काम पर
खोजते है 
कचरे के ढेर पर जिंदगी
पर वापस कभी घर नही आते कन्हैया ..
रास्तों पर छोड़ दिए गए हैं हम 
गाड़ियों के पीछे जीने 
और
मरने का संघर्ष करते हैं
बंदी हैं एक ऐसी जेल के
जहाँ का कानून 
कभी हमे
जिंदगी नही देता
तुम्हारे जन्म लेने पर क्या कहें
मत आओ धरती पर
बदल गया है रूप रंग
कंस की संख्या भी बढ़ रही है
और जो जन्मों कान्हां
तो हमारा भी जन्म करा दो
हमे यशोदा से मिला दो
गोकुल में करने दो मौज मस्ती
दूध दही की चोरी करवाओ
या की मिट्टी हुई दुनिया को
एक मुट्ठी में उठाओ 
मुँह में धरो
उद्धार करो ……..


जिंदगी की आवाज़ें 
-५-

सूखे पत्तों पर खड़खड़ाती है
तुम्हारी
आहट
तुम पास
आ रहे हों पेड़ को ठूंठ करने ……..



जिंदगी की आवाज़ें 
-६-


मैं मिलूंगी तुमसे
समय के उस हिस्से में
जब सांसे खोजती है
अपना एकांत मन खंघालता है
अपनी उलझनें
और सोच की स्याही
सफ़ेद पड़ जाती है
लिखने से पहले
मिलने पर कुछ नही होता
मुझे पता है
कहने सुनने से परे हम 
साथ होने के
यकीन को निहारते हैं
कुछ लम्हों के लिए
और बिछड़ने की
रस्में आँखें निभाती हैं 
सांसें दुरूह चलती हैं
हाथ जड़ हों जाते हैं
और हमारी 
अलग अलग जिन्दगियां 
हमे घसिटती हैं
अपनी अपनी तरफ
और हमारे बीच का शून्य
अपलक निहारता है
बीच की दूरी को
मिलने पर बिछड़ जाते हैं
हम बार बार ……..




जिंदगी की आवाज़ें 

-७-

मैं साथ हूं उसके
मुझे होना ही चाहिए
ये तय किया 
सबने मिलकर 
मैंने सहा 
जो मुझे नही लगा भला 
कभी
पर उसका हक था
मैं हासिल थी 
रातों की देह पर
परतों को उधेड़ती
उजालों की नज्म
को अपने अंदर
बेसुरा होते सुनती
इरादों से वो भी किया
उसके लिजलिजे इरादों
की बली चढ़ी
व्रत उपवास करती हैं
सुहागिने मैंने भी किया
थोपने को रिवाज बना लिया
जो ना करवाना था
वो भी करवा लिया
पाप पुण्य के
चक्र में ..
इस जनम उस जनम
के खौफ ने
मैंने बेंच दिया अपना होना
तुमने खरीद लिया …….










7 comments:

  1. सुन्दर रचनाएँ, अलग-अलग रंग रूप समेटे हुए अपनी हर बात सहजता और रोचकता से समझाते हुए .
    बधाई, शैलजा जी को ऐसे लेखन के लिए ....

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  2. इस सहजता की बेहद कमी है मौजूदा दौर की कविताओं में...। इन्‍हें पढ़ते हुए जिया जा सकता है...जीते हुए पढ़ा जा सकता है...छोटे छोटे पलों से चुराए गए शब्‍द....भीतर तक छूने वाली रचनाएं, हार्दिक बधाई रचनाकार को, प्रस्‍तुतकर्ता को भी....

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  3. शैलजा की कवितायें बरबस आकर्षित करती हैं...उन्हें शुभकामनाएं

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