कहानीकार प्रियम्बरा बक्सी लोकसभा टीवी में प्रोडक्शन असिस्टेंट के पद पर कार्यरत हैं | इनके लेख और कहानियाँ विभिन्न प्रतिष्ठित समाचार-पत्रों और ई पत्रिका में प्रकाशित होती रहती हैं | "बारिश के अक्षर" कहानी हिंदी अकादिमी की प्रतिष्ठित पत्रिका इन्द्रप्रस्थ भारती में प्रकाशित हुयी है | संकोच और धैर्य की धीमी आँच पर पकती अनकहे प्रेम की मीठी कहानी आप सब भी पढ़िए |
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बारिश के अक्षर
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एक कबूतर जिसने अभी-अभी उड़ना सीखा था, ज़मीन पर गिर पड़ा था। सुबह की बारिश में उसके छोटे-छोटे पंख भीग कर आपस में चिपक गए थे। बारिश के बाद छिटकी, थोड़ी तीखी-थोड़ी मीठी धूप के आकर्षण में बंधा ठुमकता हुआ वह धूप की तरफ चला जा रहा था। तभी एक कुत्ते की नज़र उस पर पड़ी। भूख से बिलबिलाता कुत्ता उस पर तेज़ी से झपटा। नन्हा कबूतर खुद का बचाव करता हुआ कभी पत्थर, कभी ईंट के पीछे दुबकने लगा.... किन्तु कुत्ते के पंजे से बचना आसान नहीं था। कुत्ते ने अपने तीखे पंजों से उसके पंख घायल कर दिए। पंख से खून रिस रहा था। नन्हें पैरों में चोट लग गयी थी। फिर भी उस कबूतर का संघर्ष जारी था। वह खुद को घसीटते हुए भागने की कोशिश कर रहा था और कुत्ता उसे दबोचने को तैयार था। कबूतर खुद को घसीटते हुए सूखी हुई नाली के अंदर दुबक गया। कुत्ते का मुंह उस नाली के मुहाने से बड़ा था। वह घात लगाकर वहीं खड़ा हो गया और भौंकने लगा। मैं उस नन्हे कबूतर के संघर्ष को काफी देर से चुपचाप देख रहा था। आखिरकार मुझसे नहीं रहा गया। मैंने कुत्ते को भगाया और उस परिंदे को बचा लिया। अनचाहे ही ये ख्याल आया कि सरस्वती होती तो इस परिंदे के साथ क्या करती? अपने आँचल में छिपा लेती। अपने हाथों से दाना खिलाती। पास में बैठा कर पानी पिलाती। इतना स्नेह देती कि यह परिंदा कभी उसे छोड़कर जा ही नहीं पाता। उसी का हो जाता, जैसे मैं हो गया, जैसे माँ हो गयी थी...जैसे वह नीलकंठ हो गया था जिसके टूटे घोसले की उसने अपने हाथों से मरम्मत की थी ...जैसे बूढ़े बाबा हो गए। जैसे वह कबूतर हो गया था, जिसे उसने बिलौटे से बचाया था। बिलौटे के पंजे से कबूतर घायल हो गया था। उसके ज़ख्म देखकर वह बेचैन हो उठी थी। उसकी बड़ी बड़ी आंखों से आंसू टपक पड़े थे। शाम तक जब वह कबूतर फुदकने लगा, तब जाकर सरस्वती को चैन पड़ा। फिर तो जब भी दरवाज़ा खुला मिलता वह कमरे में आकर गुटरगूँ करने लगता। सरस्वती उससे बातें भी करती।
एक सम्मोहन शक्ति थी उसमें, जो मिलता उसका हो जाता। गोल चेहरा, बड़ी-बड़ी आंखें, घुटनों तक लंबी काली घनी केशराशि जिनकी अक्सर वह वेणी बना लेती। मेरी बहुत इच्छा होती कि उन्हें आज़ाद कर दूं, पर कभी इतनी हिम्मत नही हो सकी कि उन्हें छू भी सकूं। उसका चौड़ा ललाट उसपर छोटी सी लाल बिंदी। कानों में सोने की छोटी-छोटी बालियां, जब वह बातें करती तो वे बालियां भी उसकी हाँ में हाँ मिलाती। उसके चेहरे पर बच्चों सी मासूमियत थी। रंग थोड़ा दबा हुआ था किंतु उसके व्यक्तित्व में एक अजीब सी कशिश थी। उसे देखने के बाद आँखे कहीं और टिकती ही नहीं थी। उसके चेहरे की मुस्कान के लिए मैं कुछ भी कर सकता था। मोटी-मोटी आंखें जब सजल होती तो ऐसा लगता जैसे मेरे अंदर कुछ पिघल रहा हो, उसका ताप अंदर से मुझे जला डालता। मेरी ज़िंदगी में उसकी अहमियत इतनी ज्यादा हो गयी थी कि बिना उससे चर्चा किये मैं कोई कार्य नहीं कर सकता था। आह! अब ये यादें ही तो मेरे जीने की प्रेरणा है। मेरी एक गलती ने उसे हमेशा के लिए मुझसे दूर कर दिया।
मेरी माँ और पिता का मेरे बचपन में ही तलाक़ हो गया था। मैं माँ के पास ही रहा। मुझे सारी सशक्त स्त्रियाँ माँ जैसी ही लगती और उनकी ऒर मेरा झुकाव स्वतः हो जाता। ऐसी स्त्रियों के पास लगभग सभी समस्याओं का हल हुआ करता। वे संघर्ष की सीढ़ियां दनदनाते हुए चढ़तीं...हर बन्द दरवाज़े को ऐसे खोलतीं जैसे उसकी चाबी पहले से ही उनके पास मौजूद हो। आड़े दिनों में भी उनके चेहरे पर एक शिकन तक नही होता। उन्हें किसी के साथ या सहारे की ज़रूरत नहीं पड़ती और मुझे उनसे सहायता लेने में कोई हिचक नही होती थी। मैं पुरुषों पर उतना भरोसा नहीं कर पाता था जितना स्त्रियों पर।
हाँ...सरस्वती, मेरी पसंद की स्त्रियों से बिलकुल अलग थी। घबराई हुई, संघर्ष से तुरंत हार मान लेने वाली। बात-बात पर आंसू बहाने लगती। इसके बावजूद जाने कैसे हमारे बीच एक मजबूत रिश्ता बन गया था। वह बेआसरा… खुदकुशी करने चली थी। ठीक तभी मैं उसके और मौत के बीच आ गया। अजनबी होने के बाद भी उस दिन मैंने उसे बहुत डांटा-फटकारा-समझाया था। पेशे से वकील था। उस दिन अपने सारे अनुभव-तर्क मैंने उसे समझाने में लगा दिये- “देखो आत्महत्या तुम्हारे रचनात्मक पक्ष पर तुम्हारे ध्वंसात्मक पक्ष की जीत है। उससे बचो, क्यों ध्वंसात्मकता को रचनात्मकता पर हावी होने देना चाहती हैं।” उसने सवालिया निगाह से मुझे देखा। मैंने सफाई दी “ये मैं नहीं कहता बल्कि मनोविश्लेषक कार्ल मेनिंजर कहते हैं। यह भी एक पक्ष है कि जब इंसान दूसरों को कष्ट देना चाहता है तब आत्महत्या की कोशिश करता है। फ्रायड इसे आक्रामक वृत्ति का रूप मानते हैं । आखिर तुम यह करके किसे दुःख देना चाह रही हो? कुछ तो बताओ । ” वह अभी भी खामोश थी जैसे किसी शॉक में हो ।
“अगर रहने की समस्या है तो तुम मेरे यहाँ रह सकती हो। मेरी माँ ने भी जीवन में बहुत कष्ट सहे पर कभी जीवन समाप्त करने का नहीं सोची। ऐसा करके तुम उसका अपमान कर रही, जिसने तुम्हें इस जीवन में आने का सौभाग्य दिया।” “मेरे ज़िन्दा रहने की कोई वजह नहीं। मेरे वजूद पर...मेरी स्त्रीयत्व पर सवाल उठाए गए। न ससुराल मेरा न मायके मेरा,कहाँ जाऊं? आपके घर चलूं पर किस हक़ से? मुझे मर जाने दीजिए। नहीं जीना...इस नर्क से छुटकारा चाहिए बस।” “देखो अभी तुम भावनात्मक रूप से कमज़ोर हो इसलिए समझ नहीं पा रही कि क्या सही है और क्या गलत ! हमें जो जीवन मिला है उसका कोई न कोई औचित्य है। मृत्यु अवश्यम्भावी है। उसे नियत समय पर आने दो। अपने हिस्से का सुकर्म तो कर लो। क्या पता किसी को तुम्हारी ज़रूरत हो। बचपन में मैंने अकेले अपनी माँ को सब संभालते हुए देखा है, दुनिया की परवाह मुझे रत्ती भर भी नहीं। घर चलो।” मेरे इस “घर चलो” में जाने कैसा अपनापनभरा आदेश था, वह बिना कुछ कहे मेरे साथ चल पड़ी।
सरस्वती को आत्महत्या से बचाने के बाद मैं नाकाबिल इंसान खुद को मालिक समझ बैठा था। भूल गया था कि हम सब वही करते हैं जो ‘समय’ करवाता है। उसने मेरे पास सरस्वती भेजी और मैंने उसका नियंत्रण अपने हाथ मे होने का भ्रम पाल लिया। उसे नियंत्रित करने लगा। उसका स्नेह सिर्फ मुझ पर बरसे इस प्रयास में हमेशा जुटा रहता। काश ! उस दिन मैंने सही को सही कहा होता। काश! मैंने उसे रोक लिया होता तो आज मैं दुनिया का सबसे सुखी व्यक्ति होता।
जीवन में मेरी मुलाक़ात अनेक ऐसी स्त्रियों से हुई जो तमाम उम्र धूप निगलती रही और बदले में धूप उगला भी करती थी। मुझे ऐसी ही स्त्रियां पसंद भी थीं। दरअसल मजबूत और कभी कभी तल्ख़ होते रवैये से उनके सशक्त होने का एहसास होता था, और यही गुण मुझे अक्सर उनके करीब ले जाता, पर सरस्वती उनसे एकदम अलग थी।
सरस्वती के पति ने बांझ कह कर उसे घर से निकाला था। डॉक्टर के कहने पर उसने सारी जांच करवाई जिससे पता चला कि वह माँ बन सकती है पर पति और ससुराल वाले कुछ भी सुनने को तैयार नही थे। उन्हे तो किसी तरह से इससे छुटकारा चाहिए था, जिससे ज़्यादा दहेज़ के साथ लड़के का दूसरा ब्याह रचाया जा सके। तलाक़ से पहले ही उसे घर से निकाल दिया गया। मायके में पनाह तो मिली, लेकिन पहले जैसी इज़्ज़त नहीं थी। माता-पिता की उपेक्षा और भाभी की जली-कटी बातों से तंग आकर उसने मौत का रास्ता चुना था। उस दिन गलती से मैं उसके और मौत के बीच आ गया। यूँ कह सकते हैं कि ‘जाको राखे साइयाँ मार सके ना कोई’। उसे ज़िंदा रहना था, शायद इसलिए ईश्वर ने मुझे वहाँ भेज दिया था।
घर में मेरे अलावा माँ थी जो हर मामले में मेरी आदर्श थी। पिता से तलाक़ के बाद हर छोटी-बड़ी ज़रूरतों का ख्याल उन्होंने रखा था। सरस्वती के बारे में मैंने माँ को सबकुछ बताया। उन्होंने हृदय से उसका स्वागत किया। अब हमारे परिवार के तीन सदस्य थे। मैं, माँ और सरस्वती। वह घर के काम में हाथ बंटा दिया करती, लेकिन किसी अनजान घर में सहज होना उसके लिए, जिसने अपने घर में सिर्फ नफरत झेला हो, आसान नहीं था। वह हमेशा अपने आप में उलझी कुछ न कुछ सोचती रहती। वक़्त का रूखापन जैसे उसके स्वभाव में आ गया था। चेहरा भावशून्य रहता। संवेदना का एक सैचुरेटेड पॉइंट होता है…उस पॉइंट पर पहुंचकर मन प्रतिक्रिया शून्य हो जाता है। वह भी शायद उसी पॉइंट पर पहुँच चुकी थी। कभी किसी बात पर कोई प्रतिक्रिया ही नहीं देती थी। उसकी इस प्रतिक्रिया शून्यता पर कभी-कभी खीझ भी आती। उसे व्यस्त रखने के लिए मैंने पास के ही ऑफिस में उसे एक छोटी सी नौकरी दिला दी ।
खाली वक़्त में उसका ज़्यादातर समय प्रकृति के बीच बीतता। उसके हिस्से की धूप अक्सर बादलों में बदल जाती जो यदा-कदा बारिश बन उसकी आंखों से बरसती रहती। मेरी और उसकी बातचीत भी कभी-कभी ही हो पाती, पर मेरी नज़र तो जैसे उसके इर्द-गिर्द ही टंगी रहती। कानून की मोटी-मोटी किताबों से ज़्यादा दिलचस्प मुझे वह लगने लगी थी। उसके आने से घर में रौनक आ गई थी। घर की हर चीज़ जैसे जी उठी थी। ऐसा लग रहा था जैसे निर्जीव का सजीव में परिवर्तन हो गया हो। माँ उससे खूब बातें करती, लेकिन उसके जवाब हाँ…हूँ से आगे बढे हों ऐसा मुझे याद नहीं।
उस रोज़ सुबह से ही तेज़ बारिश हो रही थी। सरस्वती फुहारों में खोई हुई थी। तभी उसकी नज़र शहतूत की ओर गई। बारिश की वजह से नीलकंठ का घोसला शहतूत के पेड़ से गिर पड़ा था और चूज़ा ज़मीन पर पड़ा काँप रहा था। सरस्वती ने उसे उठा कर अपने आँचल में रख लिया और हल्के हाथों से उसे सहलाने लगी। हथेली की ऊष्मा से चूज़े का काँपना कम हुआ। उसका ध्यान गिर कर टूट चुके घोंसले की ओर गया। उसकी आँखें नम हो आईं। आँखों में तैर आई नमी को पोंछते हुए उसने चूज़े को हौले से रुई पर रख दिया और घोंसले की मरम्मत में जुट गयी। मैं बरामदे में खड़ा खामोशी से ये सब देख रहा था। उस बारिश में मेरे अंदर भी कुछ बीज अंकुरित होने लगे थे । घोसले की मरम्मत के क्रम में वह पूरी तरह भीग चुकी थी। माँ उसे समझा रही थी “बिटिया ठंड लग जाएगी, सर्दी-जुकाम-बुखार हो जाएगा। बारिश रुकने के बाद कर लेना।” “अभी आयी माँ” कह कर वह घोसले की मरमत में तल्लीन हो जा रही थी। मैं उसकी तल्लीनता पर मुग्ध हुआ जा रहा था। अपनी चोर निगाहों से उस क्षण मैं उसे पूरी तरह छू लेना चाह रहा था। मेरी नज़र उसके बदन पर पानी की बूंदों के संग फिसल रही थी। मन शायराना हो रहा था।
हवा और तेज़ बारिश से उसके केश बार बार बिखर जा रहे थे और वह उन्हें लपेट कर जूड़ा बना ले रही थी। मैं बड़बड़ा रहा था “ये स्त्रियां कभी पुरुष के दिलों को समझ नहीं सकतीं। ओह सरस्वती, काश! आज तुम मेरी नज़र पढ़ पाती।” बारिश अपने चरम पर थी। तभी दरवाज़े पर किसी ने दस्तक दी। सरस्वती ने दरवाज़ा खोला। मैं भी उसके पीछे लपका। दरवाज़े पर एक बूढ़ा अपने शरीर को बमुश्किल सम्हालता उकड़ूँ बैठा था। बारिश में भीग कर उसके कपड़े शरीर से चिपक गए थे, जिससे पूरा शरीर कंकाल नज़र आ रहा था। उसके बालों से, कान के पास से, नाक के ऊपर से पानी की तेज़ धार बह रही थी। ऐसा लग रहा था जैसे कोसी राह भूलकर उस बूढ़े शरीर में समा गई हो या फिर उसे भी अपनी बाढ़ की जद में ले ली हो। भादो की बरसात थमने का नाम नहीं ले रही थी। वह कभी बरसात की बूँदों से प्यास बुझाने की कोशिश करता तो कभी थूक घोंट कर गला तर करने की कोशिश करता, लेकिन थूक हलक में अटक जा रही थी। बूढ़े की बेचारगी देख सरस्वती के कदम सहारा देने के लिए आगे बढ़ गए। बूढ़ा सकुचा रहा था, लेकिन उसके शरीर में इतनी भी ताक़त नहीं बची थी कि वह एक कदम आगे भी बढ़ा सके। सरस्वती उसे सहारा देकर घर के अंदर ले आयी। कोसी बूढ़े की आँखों में सिमट आयी थी। तेज़ बारिश में उसके बेटे और बहु ने उसके ही घर से निकाल दिया था। जब उसके पैर जवाब देने लगे तब उसने इस घर का दरवाज़ा खटखटाया। बूढ़े के आँसू रुक नहीं रहे थे और सरस्वती दिलोजान से उसकी तिमारदारी में जुटी हुई थी। साथ-साथ बूढ़े को आश्वासन भी देती जा रही थी- “बाबा मुश्किलें भी उन्हीं के हिस्से आती हैं जो संघर्ष करने का हौसला रखते हैं, बस ये हौसला ना टूटे।” मां भी बाहर आ चुकी थी। उनहोंने तुलसी की पत्तियों और गोलमिर्च डाल कर चाय बनाई थी। उन्होंने सबको चाय देते हुए सरस्वती को लाड़ के साथ डाँट पिलाई “अपना ख्याल नहीं रखोगी तो दूसरों का ख्याल कैसे रख पाओगी? इतनी भीगी हो। जाओ कपड़े बदलो और चाय पियो।” बूढ़ा अब भी कांप रहा था। उस दिन सरस्वती के अंदर बहुत कुछ बदल रहा था। उसका अवसाद बारिश के पानी मे धुल रहा था, और उसे हम भी महसूस कर रहे थे। जाने क्यों मुझे यह बदलाव पसन्द नहीं आ रहा था। मुझे उसी हारी हुई सरस्वती की आदत हो चली थी। मैं नहीं चाहता था वह भी मेरी पसंद की स्त्रियों में शामिल हो जाए। उसका मुझ पर निर्भर रहना मुझे सुकून देता था, आत्ममुग्ध बनाता था… सर्वशक्तिमान होने का एहसास करवाता था।
मैंने मां से कहा “ऐसे किसी को घर के अंदर ले आना उचित है क्या? वह कौन है, कहाँ से आया है किसे पता? सरस्वती भी हर किसी पर भरोसा कर लेती है।” “ तू भी तो एक दिन सरसवती को लेकर आया था। नहीं लेकर आता तो उस दिन एक जान चली जाती। भरोसा जान से बढ़कर नहीं होता बेटा। देख ज़रा बूढ़े की हालत...अगर तेरे घर के दरवाजे पर मर जाता तो पाप किसके सिर आता?” “सो तो है माँ पर..!” कुछ और बोलने से पहले ही माँ ने डपट कर कहा “सरस्वती अपनी जगह बिल्कुल सही है, तुम गलत हो। तुम्हें तो खुश होना चाहिये कि कभी अपनी जान देने पर अमादा वह आज किसी की जान बचा रही है। तुम्हें यह बात पच क्यों नहीं रही? कहीं उसे किसी और का ख्याल रखते देख तुम्हें ईर्ष्या तो नहीं हो रही? सच-सच बता बेटा तेरी रग-रग को पहचानती हूँ। जब वह घोसले की मरम्मत कर रही थी, तब तू जिस तरह से उसे देख रहा था….बेटा तेरी माँ हूँ सच बता तू इससे शादी करेगा?” उस समय मैं सकपका गया था। मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि मैं अपने दिल की बात माँ के सामने स्वीकार कर सकूं। मैंने पलट कर कहा- “कैसी बात करती हो माँ वह कमअक्ल मेरे लायक भी है क्या…” तभी सरस्वती वहां आ गई। मैंने कहा “ये देखो जाने किसे उठा ले आयी है घर में और उसे अकेला छोड़ यहां आ गयी।” उसने कुछ नहीं बोला। मैने उसके हर काम में कमियां निकालनी शुरू कर दी। शुरू में उसे यह यकीन नहीं हो रहा था कि यह सब मैं कर रहा हूँ। वह फटी आंखों से मेरे चेहरे की ओर देख रही थी जैसे मेरे चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही हो। मैंने चेहरा घुमा लिया और कहा- “इस बूढ़े जैसे लोग ही घरों में डकैती को अंजाम देते हैं।” वह भाग कर मेरे पास आई और फुसफुसाते हुए बोली “कैसी बात करते हैं? कितने वृद्ध और बेचारे हैं। क्या उन्हें देखकर कहीं से भी वे अपराधी दिख रहे हैं क्या?” मैंने उसके हर काम में छोटी-छोटी गलतियां निकाल कर उसपर चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया। मैं चाहता था कि वह मुझसे कुछ कहे, पर मेरी हर कोशिश नाकाम हो रही थी। जिन आंखों में मैं सिर्फ अपने लिए फिक्र देखना चाहता था वहां आज किसी और के लिए फिक्र थी। मैं चाहता था कि मेरे बीमार पड़ने पर ऐसी बदहवासी हो जो अभी उस बूढ़े के लिए दिख रही थी। सरस्वती किसी और के लिये इतनी फिक्रमंद कैसे हो सकती थी? गुस्से में मैंने उसकी दुखती रग पर हाथ रख दिया। उस दिन मैंने भी उसे बाँझ कहा और उसके घर से निकाले जाने का दोषी उसके चरित्र को ठहराया। मैं उसकी प्रतिक्रिया देखना चाहता था पर उसने पलट कर कोई जवाब नहीं दिया। उस बूढ़े ने मेरी बातें सुन लीं और उसका प्रतिकार किया- “बेटे ये तो साक्षात् देवी है। इसके लिए ये कैसी बातें कर रहे तुम? इसने आज मेरी जान बचाई है। इसे गाली देकर तुम ईश्वर को गाली दे रहे।” एक बूढ़ा जो अभी थोड़ी देर पहले ज़िंदा रहने की जद्दोजहद में था वह मेरे ही घर में मुझे गलत ठहरा रहा है अब यह मेरे बर्दाश्त से बाहर हो गया था। मैंने आव देखा न ताव और चिल्लाना शुरू कर दिया -“तुम होते कौन हो समझाने वाले? इस औरत ने तुम्हारा दिमाग खराब कर दिया है। तुम दोनों निकल जाओ मेरे घर से अभी के अभी।” माँ और सरस्वती अवाक मेरा चेहरा देख रही थीं। बूढ़ा फिर से रोने लगा था। दोनों औरतें उसे चुप करा रही थी। रात घिर आयी थी। बरसात की वह रात बहुत डरावनी थी। अंदर की जलन जब शांत हुई तब गलती का एहसास हुआ। मैं उठकर सरस्वती के कमरे की तरफ गया, पर हिम्मत नहीं हुई कि उससे माफी मांग सकूं, मैं दबे पांव वापिस आ गया। बाहर वाले कमरे में बूढ़े बाबा भी सो चुके थे। माँ रोज़ की तरफ सुबह के नाश्ते के लिए सब्जी छाँट कर अलग रख रही थी। मैं अपने कमरे में आ कर सो गया।
दूसरे दिन सुबह बारिश थम चुकी थी। नरम सी बदरकट्टू धूप फैली थी। मैं सरस्वती के कमरे में गया। वहाँ मेज पर एक चिट्ठी पड़ी थी।
“..मेरे विचारों की कोमलता पर
अक्सर हावी हो जाते हैं
तुम्हारे अनगढ़ विचार
तुम्हारी संगत में मन सूफी सा हो गया
पर तुम रहे औघड़ के औघड़
कहाँ सोच पाती कुछ अलग से तुम्हारे लिए
अक्सर सैकड़ों तितलियाँ
मेरे इर्द गिर्द पंख फैलाए बे-परवाह उड़ती हैं
इन्हें छोड़ जाते हो अक्सर मेरे आस पास रंग भरने को
दूर मुस्कुराते फूलों की सुगंध पहुँच हीं आती है मुझ तक,
तय है इसमें भी हाथ तुम्हारा ही है,
ये तुम ही तो हो जो ले आते हो इन्हें मेरे करीब।
ये पंक्तियाँ कभी लिखी थी आपके लिए। क्या सम्बोधन दूँ समझ नहीं पा रही। आपने मुझे बचाकर उस रोज एक नया जीवन दिया था। बहुत मुश्किल था मेरे लिए हर जगह से दुत्कारे जाने के बाद ज़िंदा रह पाना। आपने अपने घर में पनाह दी, एक परिवार दिया। मुझे फिर से माँ मिल गयी। आप सभी के स्नेह ने मुझे फिर से जीना सीखा दिया। मैं अवसाद से बाहर आने लगी थी। लेकिन सच है कि चाँद दूर से जितना सुन्दर लगता है, वास्तव में वह उतना ही बदसूरत है। वहाँ गड्ढे और पत्थर के सिवाय और है क्या? मैं अपनी सच्चाई कैसे भूल सकती थी। अब मुझे अन्धकार में ही रहने दीजिए…
एक शाम थी जो गुज़र गई
एक रात है जो ठहर गई
अब इसी रात में जीना है। माँ से झूठ कह देना कि मैं अपने घर चली गयी।
सरस्वती ”
तेज़ हवा थी चिट्ठी मेरे हाथ से छूट कर उड़ती हुयी शहतूत के दरख़्त के पास जा गिरी। उस क्षण मैं खुद से नज़रें नहीं मिला पा रहा था। मैं सरस्वती से माफ़ी माँगना चाहता था, लेकिन वह उस बूढ़े के साथ जा चुकी थी। मुझे कभी खुद पर, तो कभी सरस्वती पर, तो कभी उस बूढ़े पर गुस्सा आ रहा था। आत्मग्लानि के बोझ से मैं दबा जा रहा था। मुझे इस बोझ से मुक्ति चाहिए थी। पुलिस स्टेशन, अखबार, सोशल मीडिया सबके द्वारा उसे ढूँढा लेकिन वह नहीं मिली। आज भी वह बोझ मुझे चैन से जीने नहीं देता। शहतूत की पत्तियों से छनकर आती हुई उसके हिस्से की धूप आज भी मेरे आंगन में उसका इंतज़ार कर रही है। आज उस कबूतर को देखकर ऐसा लगा जैसे वह सरस्वती ही है जो मुझसे छिपने के लिए वेश बदल ली है।
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प्रियम्बरा
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