Monday, February 13, 2017

मुझमें रही न हूं - रोहिणी अग्रवाल






हिंदी की प्रेम कहानियाँ - जिनमें प्रेम के रूप में सिर्फ समर्पण, त्याग और गूढ़ आस्था का चित्रण है, उस स्थापित प्रेम के स्वरुप की आलोचनात्मक शिनाख्त करता रोहिणी अग्रवाल जी का सारगर्भित लेख ..


तूं तूं करता तूं भया, मुझमें रही न हूं

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प्रेम से भी ज्यादा मनोहारी है प्रेम की कल्पना। किसी अतींद्रीय लोक में ले चलती जहां न सामाजिक दबाव और वर्जनाएं हैं, न लोभ-मद-मत्सर। है तो प्रेम करने और पाने की अकुंठ स्वतंत्रता! इतनी कि प्रियजन एकाकार होकर अपने अलग.अलग अस्मिता ही भूल जाएं। मानो प्रेम और कुछ नहीं, आत्मविस्मृति के जरिए आत्म विस्तार की सर्जनात्मकता का आह्लाद है।

अमूमन हर साहित्यानुरागी अपने पाठक-जीवन के प्रारंभिक चरण में प्रेम कहानियों के रस से सराबोर जरूर हुआ है। खुली आंखों और पन्नों पर कसे हाथ में किसी अदृश्य तूलिका के साथ वह हृदय की भीतरी गहराइयों में उतर कर कब अपने सपनों और कल्पनाओं को प्रेम की तरल रंगत में डुबोने लगता है, पता ही नहीं चलता। प्रेम उसे मुक्त करता है और उसकी अदना सी हैसियत को सृष्टि का विस्तार और गहराई का आधार देने लगता है। लैला-मजनू, शीरी-फरहाद, राधा-कृष्ण, रोमियो-जूलियट, युसूफ-जुलेखा की कितनी ही कहानियां मुझे अपने सम्मोहन में बांधने लगी हैं। समर्पण, त्याग, विरह की मीठी यादें और मिलन की उदग्र आशा - लगता है इन मनोवृत्तियों और मनोकांक्षाओं के बीच चहलकदमी करती कोई भाव हिलोर है प्रेम। 'लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल' वाली स्थिति जिसे आध्यात्मिक संदर्भों का बाना पहनाकर कोई रहस्यवाद का नाम देना चाहिए तो भले ही दे ले, लेकिन है तो वह नारसिस जैसी आत्ममुग्धता की पराकाष्ठा।

मैं रुक जाती हूं। एक ही सांस में दो परस्पर विरोधी बातें! बरजती हूं खुद को कि प्रेम का अर्थ रोमानी हो जाना नहीं है, सामाजिक संदर्भों में प्रेम के स्वरूप और तत्वों की आलोचनात्मक शिनाख्त करना भी है। विश्व की तमाम प्रेम कहानियों के साथ हिंदी की प्रेम कहानियां दबे पांव मेरी स्मृति में चली आई हैं। 'अरे, यह क्या''ए मैं चौंक जाती हूंए ''प्रेम कहानियों में प्रेम ही नहीं!'' देखती हूं, 'उसने कहा था' में प्रेम की स्मृतियों को जगा कर इमोशनल ब्लैकमेलिंग करती सूबेदारनी के भीतर की प्रेमिका को धकियाकर पतिव्रता पत्नी और ममतामयी मां आ बैठभ् है जो अपनी गृहस्थी को बचाने के लिए अतीत के प्रेमी से जान की कुर्बानी लेने में भी नहीं चूकती। 'जान्ह्वी' कहानी में 'दो नैना मत खाइयो जिन पिया मिलन की आस' कहकर अपने प्रेम को महिमामंडित करती जान्ह्वी की पीड़ा जरूर है, लेकिन ऊपरी सतह खुरचते ही वहां पितृसत्तात्मक व्यवस्था की अहम्मन्यता के साथ.साथ स्त्री-पुरुष स्टीरियोटाइप्स यथावत बनाए रखने की सजग लेखकीय चेष्टाएं भी हैं। 'यही सच है' में दीपा का द्वंद्व नहीं, दो प्रेमियों में से किसी एक का चयन कर अपने भविष्य को सुरक्षित कर लेने की सजग भौतिक चिंताएं हैं तो 'तीसरी कसम' में प्रेम की नक्काशीदार कल्पना के सुख में स्त्री के सौंदर्य और यौवन का भोग करने की लोलुप प्रवंचनाएं हैं। मनोजकुमार पांडेय की कहानी 'और हंसो लड़की' में ऑनर किलिंग को वैध ठहराती सामाजिक दरिंदगियां हैं जो प्रेम कर सकने वाली स्त्री की स्वतंत्र निर्णय क्षमता से खौफ खा कर हत्या और आतंक को अपने वर्चस्व का पर्याय बनाती हैं। फिर वंदना राग की कहानी 'यूटोपिया'! यहां प्रेम वासना का रुप ही नहीं लेता, अल्पसंख्यक समुदाय के प्रति अपने मन में पलती घृणा को घिनौने प्रतिशोध में बदल देता है। तो क्या प्रेम विडंबना का दूसरा नाम है?

लेकिन 'कोसी का घटवार' के गुसाईं-लछमा और 'आषाढ़ का एक दिन' के विलोम की प्रिय के प्रति निष्कंप आस्था और अकुंठ समर्पण की भावना देख मैं अपने ही कथन को सुधारने लगती हूं कि प्रेम हर विडंबना का सहज स्वीकार है। प्रेम है, तभी तो विडंबनाओं के दुर्दांत हस्तक्षेप से अपने को बचाना आसान हो जाता है।

प्रेम का दुर्भाग्य यह है कि इसके अखंड-समग्र रूप को जाना-पहचाना नहीं जा सका है। वह औदात्य की पराकाष्ठा या वर्जनाओं का घटाटोप अंधेरा बनाकर रूढ़ियों में बांध दिया जाता है। साहित्य की दुनिया से परे यथार्थ जगत के कस्बाई और ग्रामीण जीवन में यह 'उच्छृंखलता' या 'शर्म' के रूप में आता है तो महानगरीय संस्कृति में 'आधुनिकता' और 'स्टेटस सिंबल' बन कर। दावा किया जाता है कि प्रेम समय और मनुष्य का संस्कार करता है, लेकिन देखा यह गया है कि अपनी ही भौतिक लिप्साओं और संकीर्णताओं में खोया हुआ समाज प्रेम को लोभ, भोग और वासना में तब्दील करते.करते निजी जायदाद की जद में ले आता है। तब प्रेम में एक ही धरातल पर खड़ी दो संवेदनशील-विवेकशील मनुष्य अस्मिताएं अपना वजूद खोकर जेंडश्र में तब्दील होने लगती हैं, यही नहीं, नेपथ्य से निकलकर आती पितृसत्तात्मक व्यवस्था 'कांता सम्मत उपदेश' देते हुए स्त्रीसे एकनिष्ठ भाव से प्रेम, त्याग, समर्पण, नैतिकता, और मनुष्यता के उंचे-गहरे मूल्यों को संभाले रखने की अपेक्षा करने लगती है, और प्रेम (भोग) का चश्मा पहन कर पुरुष को इधर-उधर हर हरे भरे खेत में मुंह मारने का लाइसेंस दे देती है। प्रेम चूंकि हर तरह के द्वैत, विभाजन और विषमता को अस्वीकार करता है, इसलिए यह 'वसुधैव कुटुंबकम्' का कानफोड़ू नारा बन कर नहीं आता, किसी के अंधेरे कमरे में दीया जला कर अदृश्य हो जाने की साधना में ढल जाता है। अंदर की मनुष्यता का उत्खनन है प्रेम, और एक ऐसी शै जिसका उत्स, अस्तित्व और लक्ष्य सब एक है - प्रेम।

प्रेम बुलबुले की तरह उग कर फूट पड़ने वाली क्षणिक स्थिति नहीं है। इसलिए असफल प्रेम की अभिव्यक्ति के नाम पर वह एसिड अटैक, बलात्कार या हत्याकी कायर साजिशों में उभर कर अपने को गिराता नहीं, आकर्षण को हार्दिकता और उत्तेजना को सृजन के आनंद में तब्दील कर 'चितकोबरा' उपन्यास के मनु-रिचर्ड और 'मढ़ी का दीवा' के जगसीर-भानी की तरह प्रेम की परिधि मे हर दबी-कुचली अस्मिता को ले आता है। आज यदि साहित्य में प्रेम 'वन नाइट स्टैंड' या दैहिक तृप्ति का एक माध्यम मात्र बन कर रह गया है तो समाज के विघटनशील चरित्र के साथ-साथ साहित्यकार की सृजनशीलता के क्रमश- क्षरित होते चले जाने का भी सूचक है।निजता की क्षुद्रताओं से खींच बाहर कर चिंतन की ऊर्ध्वगामी दिशाओं को मनुष्य, समाज और सृष्टि के साथ जोड़ देने पर उसमें दर्शन की जो गहराइयां आती हैं, दरअसल वहीं प्रेम का घर है। दो मनुष्यों के बीच आकर्षण की लुकाछिपी से शुरु हुआ प्रेम अपने भीतर के कल्मष को धोने की प्रक्रिया में इतना नि:संग और समर्पित, दृढ़ और लचीला, एकांतप्रेमी और सार्वजनीन बन जाता है कि वह अंततः अपना मूल रूप खोकर आत्मानुशासन में बंधी स्वाधीन प्रेरणा का प्रचारक बन जाता है।

आज की उपभोक्ता संस्कृति के लिए प्रेम भीषण गर्मी में कुल्फी का लुत्फ उठाने की ऐयाशी भले हो, दरअसल यह कोमलता और संवेदना के सहारे सिरजी वैचारिक उदारता के साथ मनुष्यता के संरक्षण का पहला और आखरी कदम है। चूंकि साहित्य यथार्थ जगत की अपूर्णताओं की जीरॉक्स प्रति नहीं है और न उन से पलायन की युक्ति, इसलिए उसे ही हिंसा और उन्माद से संत्रस्त समाज को बताना होगा कि प्रेम विश्वास और सद्भाव की खोई हुई निधियों को पाकर भीतर तक समृद्ध हो जाने के ऐश्वर्य का दूसरा नाम है।

-डॉ रोहिणी अग्रवाल
डीन, मानविकी संकाय महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय, रोहतक
9416053847

(साभार जनसत्ता )

1 comments:

  1. Waah....shandar post..aapne sahi kaha ki andar ki manushyata ka utkhanan hai prem....prem ka maksad hai prem.....niji taur par mai is anubhaw se gujar raha hun...

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