12 दिन उसके जीवन-मृत्यु से संघर्ष के दिनों में पूरा देश उसके साथ था, आक्रोश.... संवेदनाएं... कानून व्यवस्था और सरकार से शिकायतें ..उसे इन्साफ दिलाने के लिए हर तरफ से आवाजें उठीं, कुछ फेसबुक मित्रों की भावनाएं , संवेदनाएं 'फर्गुदिया' पर .
सुधा अरोड़ा
"मैंने पहले दिन ही कहा था –
मैं जिंदा रहना चाहती हूँ !
मैं मरी नहीं हूँ !
मुझे मरने देना भी मत !
देह छोड़ी है मैंने ,
रूह तुम सबके साथ है !
मुझसे पहले भी मुझ जैसी हजारों देहें
ज़लील हुई , जलाई गयी , आत्महत्या करने पर मजबूर हुई !
उनकी रूहें भी सामने हैं !
इस लड़ाई को जीतकर ,
समाज को बेहतर बनाने की एक और शुरुआत हो !
समाज की स्वस्थ मानसिकता बने ,
उसकी नींव गढ़ने के लिए
हम जैसी लाखों बहनों को चाहो तो शहीद कह देना !
-- कविता गुप्ता के साथ हम सब"
मैं जिंदा रहना चाहती हूँ !
मैं मरी नहीं हूँ !
मुझे मरने देना भी मत !
देह छोड़ी है मैंने ,
रूह तुम सबके साथ है !
मुझसे पहले भी मुझ जैसी हजारों देहें
ज़लील हुई , जलाई गयी , आत्महत्या करने पर मजबूर हुई !
उनकी रूहें भी सामने हैं !
इस लड़ाई को जीतकर ,
समाज को बेहतर बनाने की एक और शुरुआत हो !
समाज की स्वस्थ मानसिकता बने ,
उसकी नींव गढ़ने के लिए
हम जैसी लाखों बहनों को चाहो तो शहीद कह देना !
-- कविता गुप्ता के साथ हम सब"
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"अब पुलिस में महिलाओं की संख्या बढ़ेगी , यह आश्वासन ही सुखकर है ! पुलिस की भूमिका यौन हिंसा के केस दर्ज करने के मामले में इतनी घृणित और गर्हित रही है कि आज देश में हिंसा और बलात्कारों की घटनाएँ इस कदर बढ़ चुकी हैं ! सज़ा क्या होगी जब केस दर्ज ही नहीं होंगे और शिकायत लेकर जाती लड़की / महिला अपना मखौल बनाकर पुलिस थाने से बाहर आएगी ! शिकायत सिर्फ तब दर्ज होती है , जब कोई महिला सामाजिक कार्यकर्त्ता या पत्रकार उसके साथ जाये ! अकेली औरत घर की हिंसा की रपट लिखाने जाती है और पुलिस वालों की हंसी और फिकरेबाजी से परेशान होकर लौटती है !"
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"सबको जगा कर सो गयी वो --
न्यूज़ चैनल पर एक गंभीर चर्चा के बीच जब दबंग-2 और नये साल पर नाच गाने के विज्ञापन आते हैं तो टी वी स्क्रीन तोड़ देने का मन होता है !
इस देश की विसंगति के पंजे हम अपनी गर्दन पर महसूस कर रहे हैं !"
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मोहन श्रोत्रिय
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"यह कहना सरासर मूर्खतापूर्ण है कि लड़कियों का पहनावा देखने वालों को बलात्कार के लिए प्रेरित करता है. यानि "खोट" आपमें, और आपके कुकृत्यों के लिए ज़िम्मेदार "कोई/कुछ और" ! एक चार साल की बच्ची ने ऐसा क्या पहन लिया होगा कि उसके सगे चाचा ने अपने "पुंसत्व" का प्रदर्शन कर दिया उसके साथ?
जिनकी मानसिकता रुग्ण है, वे ही लड़कियों के पहनावे और उनके "मुक्त विचरण" को निशाना बनाकर इस तरह का तर्क देते हैं. लडके कुछ भी पहने, और कहीं भी घूमें-फिरें, वे स्वतंत्र हैं. ऐसे में, बाप द्वारा बेटी का, या भाई द्वारा बहन का बलात्कार किस श्रेणी में रखा जाएगा? ये घटनाएं भी कोई बहुत विरल नहीं रह गई हैं. एक बीमार समाज में रह रहे हैं हम, जहां न तो क़ानून का डर है, और न किसी तरह की नैतिकता का दवाब. पुरुष होना मात्र ही जहां कुछ भी कर गुज़रने का लाइसेंस बन जाता है."
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"कच्चे धागों के सहारे लटकी हुई उम्मीदों का कोई भविष्य नहीं होता. यह बात रह-रह कर मन में उठती है, अपने यहां की लोकतंत्रीय व्यवस्था के कारोबार को को देख कर. फिर भी, हम क्यों फ़ालतू ही इतना गर्व करते हैं इसके हिंसक और अपमानजनक तामझाम पर? तमाम संवैधानिक उच्च पदों पर आसीन महामनाओं/महिषियों की संवेदनहीनता इस सवाल की अहमियत को ही उजागर करती दिखती है. वे चुप रहते हैं तो उनकी चुप्पी अटपटी लगती है, और जब वे मुंह खोलते हैं, तो दुर्गंध ही फैलती है. तंत्र लोक पर निर्ममता से सवारी कर रहा है, और इस प्रक्रिया में उसे निरंतर घायल भी कर रहा है. कोई रास्ता भी तो नहीं दिखता."
-मोश्रो
"जाग रहा है भारत, जागो नेताओ"
"यह स्वर है जो, दिल्ली मे तथा अन्यत्र भी, आज के गैंग-रेप" विरोधी प्रदर्शनों में मुखरित हो रहा है.
इसे यों भी पढ़ा जा सकता है, पढ़ा भी जाना चाहिए :
"जाग रहा है भारत, भागो नेताओ!"
दिल्ली में सफ़दरजंग अस्पताल पर, और रेल भवन तथा रायसीना हिल्ज़ के बीच हो रहे प्रदर्शन प्रकटतः गैंग रेप के खिलाफ़ हैं, पर ये मांग कर रहे हैं तमाम बलात्कार कांडों के दोषियों को "सख्त-से-सख्त" सज़ा की. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जहां मृत्यु-दंड के विरोधी सख्त-से-सख्त सज़ा की अपनी मांग को अपरिभाषित छोड़ रहे हैं, ये प्रदर्शनकारी खुल कर मृत्युदंड की मांग कर रहे हैं. पहली बार सीधे तौर पर राजनेताओं को नारों के घेरे में लाय जा रहा है. यह भी अच्छा संकेत है कि इनके साथ एकजुटता व्यक्त कर रहे वकील भी फ़ास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की मांग कर रहे हैं. इस दबाव में ही यदि कोई सख्त क़ानून बनते हैं तो देशभर में लगातार हो रहे इन कुकृत्यों पर अंकुश लगेगा.
यह जज़्बा बना रहे तो संवेदनहीन नेता, संसद और सरकार सभी विवश होंगे इस सन्देश पर अमल करने के लिए !
मेरा तो "आमीन" कहने का मन है, और आपका?"
-मोश्रो
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"*क्या हम सच में एक सभ्य समाज में जी रहे हैं?*
समाज को सभ्य बनाने में जिन कारकों का हाथ होता है, उनमें से एक मानवोचित सम्मानपूर्वक जीवन को सुनिश्चित करने वाले "क़ानून का भय"/ "कड़े दंड का भय" भी है या नहीं? ऐसा क़ानून यदि वर्तमान में नहीं है, तो उसे बनवाने के पक्ष में आवाज़ उठाना सही है या नहीं?
क्या हम वास्तव में एक सभ्य समाज में रह रहे हैं? क्या एक सभ्य समाज में वह सब कुछ होता है, जो यहां हो रहा है?
मैंने दो-तीन दिन पहले कुछ अपराध गिनाए थे, अपने एक स्टेटस में, जिनकी सतत पुनरावृत्ति यह दर्शाती है कि हम एक सभ्य समाज तो नहीं ही हैं. इन अपराधों के लिए कोई भी दंड बड़ा नहीं हो सकता."
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मनीषा कुलश्रेष्ठ
कवयित्री
कथाकार
"ये जनज्वार तो शांत था, हमारे आकाओं की उपेक्षा से उबला, ये संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, हमारे चुने हुए ये अब जनता से भागेंगे हैं,ये वे सारे रास्ते जो इनकी तरफ़ हमें ले जाते हैं वही बंद कर देंगे। ओबामा आकर जनता से सपरिवार मिलता है, उनके साथ रोता है, ये भीतर शतरंज खेलते हैं, और अपनी शातिर चालों के बाद सात दिन बाद भीतर से बाहर आते हैं तब तक पुलिस को आदेश कि ये शतरंज की शातिर चाल पूरी होने तक, डंडे जलाएँ, बेचारे युवाओं को ग्लानि और दमन? क्या स्मार्टली मॅाब का दोष आम आदमी पर!"
1-
मन तो करता है
इकट्ठे हों और
द्रौपदी की तरह
प्रण कर लें
हम सब कि
ये बाल समाज के
हर दुशासन के खून
से सिक्त कर लें
और फिर ही बाँधें ...
जेलें तोड़ दें और खुद
चीर दें एक एक बलात्कारी को
जो सरकार का मेहमान है
या संसद का दामाद !
2-
दामिनी ठीक हो जाओ,
अपना लो गुण जो
हमने विकास
की अवस्थाओं में थे छोड़े
उगा लो फिर वो अंग सरीसृपों की तरह
जो हुए क्षत - विक्षत
कोशिका के एक टुकड़े से
बना लो बहुत से स्वस्थ ऊतक
स्वस्थ ऊतकों से स्वस्थ अंग
और फिर सहेज लो पूरा पाचन तंत्र
फिर सुचारु कर लो ये शरीर
करो इकट्ठी वह जीजिविषा
और बाहर आओ नई
ये कविता नहीं मेरी बेटी
यह मंत्र हैं यज्ञ का
प्रकृति और जीवन के लिए
आहूत !
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" कितनी घटिया सी बात है कि पहले तो शिक्षा माफिया के चलते हर शहर कस्बे के शासकीय कॉलेज लगभग बरबाद हो गए...... इन पैसाखोर सत्ताओं के चलते सी ग्रेड प्रायवेट युनिवर्सिटियों ने लोगों की ज़मीन बिकवा कर फीसें लीं....और जब बच्चे घरों से दूर पढ़ने आए तो ..........अपराध...बलात्कार....कहाँ जाएं हम और हमारे देश के बच्चे? "
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"हम संयत हैं, चुप हैं मगर सजग हैं दामिनी! एक दिन तुम बाहर आओगी तो पाओगी कि पूरा देश तुम्हारे साथ खड़ा है, स्त्री - पुरुष, बच्चे ( कुछ पत्थरों को छोड़ कर )
और वे हैवान सज़ा पा चुके हैं। जो इस्मत, इज़्ज़त आँतों, अंगों के घावों से ज़्यादा ज़रूरी मानी जाती हो उसे हम सब ने निकाल फेंक दिया है, सो ये बोझ तो मन पर रखना मत, तुम फ़ाईटर हो! हमारी शान हो।"
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" रामसिंह ने जुर्म क़ुबूल कर लिया है, उसे फाँसी दो, हत्या से भयानक कुकर्म ! मैं दहली हुई हूँ! रामसिंह का भाई पहले से बलात्कार के जुर्म में जेल में है, इस दंरिंदे को छोड़ा तो बहुत भयानक होगा।"
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"मुझे लगता है कि जो आन्दोलन दिल्ली मै हुआ, जिसमें युवा इतनी बड़ी संख्या में जुड़ कर बिना किसी खास विचारधारा के छत्र का आधार लिये आन्दोलन में जुट गये, उसमें फेस बुक का बड़ा हाथ है, अभी हाल में ही मिस्र और अन्य देश में फेसबुक ने एक जन आन्दोल दिया था।
दरअसल , जब भी हम कोई बुरी घटना सुनते या पढ़ते हैं, हमें दुख होता है, पीड़ा भी होती है। कुछ लोग इस तरह के दुख को छोटे छोटे मोटे दुख से धो डालने की कोशिश करते हैं। लेकिन फेसबुक इस पीड़ा को जाया नहीं होने देती है, कोई ना कोई स्टेटमेन्ट पीड़ा को जगाये रखता है, और यहीं पर चिंगारी को नीड़ बनाने का मौका मिल जाता है, जो दावानल के रूप में जग जाती है।..
हालाँकि देश भर में इस तरह की अनेक घटनायें होती है, लेकिन लोगो को एक जुट होने का कोई ना कोई अवलम्बन तो चाहिये ना, और इस तरह के माध्यमों का सही उपयोग यही हो सकता है। सोशल मीडिया एक विवेकशीलता की माँग रखती है, अपनी विचार धारा को धीरज से रखते हुए दूसरे की विचार धारा को समझने की माँग भी रखती है.... और यही पर सामाजिक चेतना जगती है। नही तो यह मुर्दों का घर बन जायेगी,,,,
यही पर वे मूखौटे भी सामने आ जाते है जो शान्ति के दिनों में कलाकारी झाड़ते रहते हैं, लेकिन ऐसे अवसरों पर चुप्पी साध लेते हैं..... कुछ डर डर कर एक आध शब्द लिख मारते हैं.... लेकिन पीड़ा का दावानल तब तक अपनी जमीन बना चुका होता है, और आन्दोंलन चल जाता है। जरूरी नहीं कि हर कोई शब्दों में आग भर कर ही लिखे, क्यों कि हर किसी का अपना तरीका होता है विरोध जाहिर करने का, लेकिन किसी अंगारे को धधकाने के लिये एक फूँक मारना तो बनता ही है ना....
यह साझेदारी यदि सही चलती रही तो फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का महत्व है, लेकिन यदि इस माध्यम को रिश्ते बनाने, स्वार्थ साधने का माध्यम माना जाये तो इसका बड़ा दुरुपयोग होगा ."
आज जो लपट देश की राजधानी में दिखाई दे रही है, वह केवल एक बलात्कार का परिणाम नहीं,बल्कि अनेक बलात्कारों , अपमानों और तकलीफों का परिणाम है।
इसलिये यदी दिल्ली के आन्दोलन को किसी एक वर्ग या समुदाय या फिर स्थान से जोड़ने की कोशिश की जाये तो क्या कहा जाये?
आन्दोलन लड़कियों की सुरक्षा और अस्मिता को लेकर है, उसकी जाति या वर्ग को लेकर नहीं, वैसे भी हमारे देश में औरत की बस एक जाति है, और वह बस औरत है...
तरह तरह की टिप्पणियाँ देखने को मिल रही है, लोग किसी ना किसी की आड़ में विरोध की आग को ठण्डा करने की कोशिश कर रहे हैं, यह किसी के भी हित में नहीं है,,,,,
कृत्या इस कृत्य का विरोध करती है "
क्या आप जानते हैं कि केरल में में अभी कुछ महिने पहले एक लड़की को ट्रेन से लौटते वक्त रेप कर रेल की पटरी पर फैंक दिया गया था ( केरल में नौकरी के लिये रोजाना यात्रा करने वालों की काफी संख्या होती है) उस लड़की की जात तो मुझे मालूम ही नहीं, लेकिन क्या ये खबरे आप के पास पहुँची? अरुंधती जो केरल की हैं, ने क्या कुछ कहा इस विषय पर? नहीं, हो सकता है कि जिसने भी पढ़ा, उसे दुख हुआ होगा, लेकिन व्यक्त करने का मंच या हौसला नहीं था, मैंने तो यहाँ पर भी सुगत कुमारी के अलावा किसी का वक्तव्य नहीं पढ़ा.... इसी तरह कुछ साल पहले, केरल मे भरी हाट से गुण्डों ने चालीस साल की मछली वाली को पकड़ लिया, उसके साथ दुष्कर्म करके उसे पास के नाले के पास फैंक दिया़ मीडिया ने खूब उछाला बात को, दूसरे रोज जब लोग महान जन उसके पास संवेदना जाहिर करने पहुँचे , तो वह फिर से मछली लेकर हाट में बैठी थी, तब इस बात की कम चर्चा हुई कि उसके साथ दुष्कर्म हुआ, इस बात की ज्यादा कि .... हाय हाय बेहया, शर्म ही नहीं आई, इतने बड़े हादसे के बाद भी बाजार में बैठी है, मानो कि उसने दुष्कर्म किया हो.... क्या आप जानते हैं,,, या फिर यहाँ पर एकशिक्षक को उसके छात्रो के सामने पीटपीट कर मार दिया गया था, या फिर कुछ महिने पहले ही एक अध्यापक के हाथ काट दिये गये थे,,, क्या आप की प्रतिक्रिया आई,,, नहीं ना... ऐसा ही होता है, जब तक हमारे पास खबर पहुँचती है, तब तक देर हो जाती है, या फिर ठीक से खबर पहुँचती ही नहीं है....या फिर हमारे सामने विरोध दर्ज करने का जरिया ही नहीं होता है......
आज जब हम एक साथ खड़े हैं, तो खड़े रहे, मन से , तन से, भावनाओं से,,, हम एक जुट रहे, कम से कम यह तो सीखा हमने इस आन्दोलन से.....
यह विरोध सभी दुष्कर्मों के विरोध में है...
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डॉ कविता वाचक्नवी
Indian languages & culture, Creative Hindi writing,
A Writer, Poet, Critic, Sociolinguist & Human Rights Activist.
A Writer, Poet, Critic, Sociolinguist, Editor & Human Rights Activist.
"आधुनिकता व 'प्रगति' के नाम पर नैतिक शिक्षा को धर्म से जोड़कर धिक्कारने वाले लोग इस बलात्कार में बराबर के भागी हैं; जिन्होंने स्कूल कॉलेजेस् के पाठ्यक्रमों से नैतिकता और चरित्र की शिक्षा देने वाली कथाओं, चरित्रों, नायकों व पुस्तकों को धर्म के नाम पर निकाल बाहर किया। न घरों में नैतिकता का कोई उदाहरण नई पीढ़ी को दीखता है, न शिक्षा और संदेश में नैतिकता के महत्व का कोई उदाहरण या प्रमाण। जिस चीज की शिक्षा ही समाज और परिवार में नहीं है, वह कैसे बचेगी ?
पोंगा पंडितों की शिक्षा कह कर नैतिकता व संस्कारों को धिक्कारने वालों को समान रूप से बलात्कारी समझा जाए और उन के लिए भी कोई जोरदार दंड प्रस्तावित किया जाए।
अधिक नहीं तो कम से कम पाठ्यक्रम बोर्ड से ऐसे आधुनिकतावादियों को बाहर रखे जाने की आवश्यकता ही समझी जाए और अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं में पढ़ने भेजा जाए जहाँ मानवीय मूल्यों व नैतिक शिक्षा को आवश्यक रूप से पढ़ाया जाता हो।"_________________________________________________________________________________
अत्यावश्यक निवेदन : कविता वाचक्नवी
====================="दो दिन से फेसबुक पर अपने प्रोफाईल-चित्र को काले धब्बे में बदल कर बलात्कार के विरुद्ध अपना विरोध दर्ज़ करवाने की लहर चल रही है। लोग-बाग और कई मित्र धड़ाधड़ एक कालेधब्बे को अपने चित्र के स्थान पर प्रयोग कर रहे हैं और तो और मुझे इसमें सम्मिलित होने के लिए बार-बार अपना चित्र काला करने के निवेदन/टैग व संदेश भी भेज रहे हैं।
मैं ऐसे सब लोगों को स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि मुझे अपने चित्र पर कालिख पोतने में कतई रुचि नहीं है व न ही अपने आप को काला बदनुमा दाग बना देने में। न ही मैंने ऐसा कोई कार्य किया है कि जिसके लिए मुझे यह कालिख अपने ही चित्र पर पोतनी पड़े और काला धब्बा बनना पड़े। कालिख पोतनी है तो उन सब पर जो अपनी क्लीवता, तुच्छताओं, कुंठाओं व दुर्बलताओं के कारण स्त्री को मनुष्य तक होने का अधिकार न देकर घृणित कार्य करते हैं या उस पर शासन करने की हिंसक प्रवृत्ति के शिकार हैं। वे लोग ही मानव सभ्यता पर कलंक और काला धब्बा हैं.... उनके मन में भी कालिख है और उन ही के चेहरे पर ही यह पोती भी जानी चाहिए।
मैं अपना चेहरा स्त्री होने के गर्व से यों ही दिपदिपाता हुआ रखना चाहती हूँ; भले ही किसी को यह सहन हो या न हो और भले ही कोई मेरे इस गर्व से आक्रांत हो कर जमीन में गड़ने लायक भी न रहता हो।"
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"और अब हैदराबाद में एक 5 वर्ष की बच्ची बलात्कार की शिकार !.......
उन महान औरतों और महापुरुषों की चोंच अब क्या बोलेगी जो अपने को महान और महिलाओं के चरित्र के ठेकेदार बनाकर महिलाओं के शाम को बाहर घूमने, कम कपड़े पहने, पुरुष मित्र के साथ होने और फिल्म देखने की आड़ में बकवास कर रहे थे ।"_________________________________________________________________________________
"जिन लोगों को स्त्री के वस्त्र और उसका खुले में घूमना या साँस लेना स्वीकार्य नहीं, वे वही लोग हैं जिन्हें अपने पर संयम नहीं। ऐसे असंयमी लोग अपने लिए बुर्के तलाश लें और ऐसे समय बाहर निकला करें जब संसार की हर औरत सो चुकी हो। या फिर बाहर निकला ही न करें।
ऐसे असंयमी पशुओं को अपने असंयम के चलते मनुष्यों को दड़बे में बंद करने का कोई अधिकार नहीं। जंगली पशु को दड़बे/पिंजरे/सलाखों में बंद किया जाता है, न जंगली पशुओं से बचाए जाने वालों को।"
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"दिल्ली की वह बहादुर बच्ची मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ है और भविष्य को लेकर आशावन है। लड़की की जाँच के बाद पत्रकारों से बात करते हुए डॉक्टरों ने कहा कि उसके चेहरे पर निराशा नहीं है."
कवयित्री
गृहिणी
"उसे जिन्दगी से प्यार था..उम्मीद उसकी आँखों में की रोशनी की तरह झिलमिलाती थी..उसमें जीने, का जीतने का जज्बा था..मौत से भी दो दो हाथ करने का हौसला था..बस,उसके जिस्म ने ही उसके हौसलों का साथ छोड़ दिया..उम्मीद की वो रोशनी अब करोड़ों आँखों मे मशाल की तरह धधक रही है..उसका हौसला उबाल बन कर खून में गर्दिश कर रहा है.. ये मौत नहीं एक सवाल है..हर पुरूष से, क्या सचमुच तुमने कभी किसी स्त्री को,सिर्फ देह की तरह नहीं देखा ? हर स्त्री से, क्या सच में तुमने अपने सम्मान के लिए, समझौतों की बजाय ईमानदार संघर्ष की राह चुनी..ऐसे हजार सवाल और हैं..जवाब एक का भी नहीं..इल्जाम किसी और पर रख कर खुद को पवित्र समझ लेना कायरता है..अपने भीतर झांकिए और खुद से पूछिये? क्या सचमुच आप इस कुर्बानी से नजर मिलाने के काबिल हैं ? अगर हाँ,तो जरूर वो आपको देख कर मुस्कुरा रही होगी..आप ही उसकी उसके हौसले को जिन्दा रखेंगें..तो वादा कीजिए खुद से कि आप इस समाज की मौजूदा तस्वीर को बदलने की राह पर हैं.."
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"कुछ कहने सुनने से आगे बढना होगा अब..ये एक लडकी का मामला नहीं है मेरे लिए,मैं आहत हूँ हर उस स्त्री के लिए जिसका आत्मसम्मान बेरहमी से कुचला जा रहा है.जिसके प्रतिरोध की आवाज ताकत के जोर से दबा दी जाती है,और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता तब तक जब तक कि वो हमारे घर की देहरी तक ना आ पहुँचे..हम स्त्रियाँ बुरी तरह फेल हुए हैं अगर हम ऐसी संतानो की माताएं है..और उन्हे स्त्री का सम्मान करना नहीं सिखा पाए है.."
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"हम छोटी छोटी मुसीबतों से घबरा कर मर जाने की इच्छा करते हैं कई बार... आज इस बच्ची ने सशक्त तरीके से सिखाया कि जिजीविषा क्या होती है..और जीवन कितना अनमोल.. उस माँ के लिए हृदय श्रद्धा से भरा है,जिसने उसमे ऐसा अदम्य साहस भरा.. उसकी पीड़ा मेरे अंतस में भरी है.."
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"चैन जैसे खो गया है,बेचैनी है कि घटने का नाम नहीं ले रही,कभी अनायास आँख भर आती है कभी अचानक गुस्सा आ जाता है..लगता है जो कर पा रहे हैं उतना करना काफी नहीं है..अनेक स्तरो पर अनेक तरीको से काम किया जाना बाकी है..घर से लेकर समाज तक,भावना से लेकर दिमाग तक..सब जगह एक साथ...ये अकेले करना संभव नही है सामूहिकता आवश्यक है.."
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"दिल्ली में जब धरना प्रदर्शन और न्याय की माँग का जवाब सरकार आँसू गैस,वाटर कैनन से दे रही है..ठीक उसी वक्त प्ले स्कूल में जाने वाली एक साढे तीन साल की बच्ची को सेक्सुअली एसाल्ट किए जाने की घटना हुई है.. एक अफ्रीकी 25 वर्षीय छात्रा के साथ 2 व्यक्तियों द्वारा रेप की वारदात हुई है..सरकार अपनी ताकत प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिअ क्यों नहीं कर पाती..क्या यह प्रत्यक्ष रूप से अपराधियों को बढावा देना नहीं माना जाना चाहिए...."
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आराधना चतुर्वेदी
Post-doc researcher · Delhi, India · December 2009 to present
a research fellow of ICSSR at JNU---doing research work on the topic---
"Women related provisions of Manusmriti and Yajnavalkyasmriti and its impact on women empowerment "--मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-सम्बन्धी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव .
"क्या ये मात्र संयोग है कि देश के जिस इलाके में सबसे अधिक भ्रूण-हत्या होती है, सबसे अधिक दहेज का प्रचलन है, सबसे कम सेक्स-रेशियो है, वहीं स्थित राजधानी में सबसे अधिक बलात्कार की घटनाएँ होती हैं?
इन घटनाओं का सम्बन्ध जहाँ एक ओर कानून-व्यवस्था की संवेदनहीनता से है वहीं इस मानसिकता से भी है कि औरतें सिर्फ एक भोग की वस्तु होती हैं, इंसान नहीं.
ये बात सच है कि अपराधी, अपराधी होता है, पर दिल्ली-एन.सी.आर. में औरतों के प्रति बढ़ती हिंसा और भी सवाल खड़े करती है. ये वही इलाका है जहाँ के पुलिस अधिकारी तक यह बयान देते पाए जाते हैं कि लड़कियों के साथ बलात्कार और छेड़खानी का कारण उनका पहनावा या पुरुष मित्र के साथ देर रात घूमना होता है. जहाँ छेड़खानी को इतने हलके में लिया जाता है जैसे वो कोई आम घटना हो. जहाँ छेड़खानी की रपट लिखाने जाने पर पुलिस कहती है 'कुछ हुआ तो नहीं, रिपोर्ट क्या दर्ज करें?'"
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"मैं दिल्ली में रहती हूँ. अकेले बाहर आती-जाती हूँ. शाम को जल्दी आने की कोशिश करती हूँ, पर सर्दियों में तो छः बजे अँधेरा हो जाता है.
अभी तक शॉक्ड हूँ कल की घटना से. बार-बार लग रहा है कि ये घटना मेरे साथ भी हो सकती है. सोच रही हूँ वेंटीलेटर पर गंभीर हालत में पड़ी उस लड़की के बारे में. "
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"घटनाओं का सरलीकरण बंद करें प्लीज़. घटना दिल्ली के पॉश इलाके में ज़रूर हुयी है, लेकिन लड़की भी उच्च वर्ग से हो ये ज़रूरी नहीं. उच्चवर्गीय लोग बस स्टैंड पर नहीं खड़े हुआ करते.दिल्ली विश्वविद्यालय का नॉर्थ कैम्पस, मुनीरका, लक्ष्मीनगर आदि ऐसे कई इलाके हैं, जहाँ सुदूर भारत के ग्रामीण इलाकों से आयी लड़कियाँ उच्चशिक्षा या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए पी.जी. या हॉस्टल में रहती हैं. रात नौ-दस बजे लौटना उनके लिए आम बात है. हमारे इलाके से ही अक्सर लड़के-लड़कियाँ खाना खाने कैम्प तक चले जाते हैं और दस बजे तक लौटते हैं. इसके अतिरिक्त कोचिंग, नौकरी या बाज़ार से कुछ लेने भी अक्सर इतनी रात में निकलना मजबूरी हो जाती है. क्योंकि यहाँ उनके साथ उनके बाप-भाई नहीं रहते, वो ये सब काम अकेले करती हैं.
ये लड़कियाँ समाज को बदल रही हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में ही लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से ज्यादा है, तो बाहर से पढ़ने आयी लड़कियों के कारण ही. मेरी चिन्ता सिर्फ इस बात की नहीं है कि उस लड़की से साथ ऐसा हुआ, मुझे डर इस बात का है कि मेरी भतीजी और ऐसे ही उच्च शिक्षा के लिए गाँवों से आयी बहुत सी लड़कियों को उनके घरवाले वापस न बुला लें.
बात सिर्फ सुरक्षा की नहीं है, बात लड़कियों की शिक्षा की, उनके आत्मनिर्भर होने की भी है. कहीं समाज का ये माहौल हमें वापस अठारहवीं सदी में न खींच ले जाय, जब सदियों से घर से बाहर निकलने से वंचित लड़कियों को शिक्षा के लिए बाहर निकालने के लिए समाज सुधारकों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी. कहीं हम लड़कियों को वापस घरों में न भेज दें."
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कवयित्री
गृहिणी
Still I Rise
Still I Rise
By Maya Angelou b. 1928 Maya Angelou
You may write me down in history
With your bitter, twisted lies,
You may trod me in the very dirt
But still, like dust, I'll rise.
Does my sassiness upset you?
Why are you beset with gloom?
Cause I walk like I've got oil wells
Pumping in my living room.
Just like moons and like suns,
With the certainty of tides,
Just like hopes springing high,
Still I'll rise.
Did you want to see me broken?
Bowed head and lowered eyes?
Shoulders falling down like teardrops,
Weakened by my soulful cries?
Does my haughtiness offend you?
Don't you take it awful hard
Cause I laugh like I've got gold mines
Diggin’ in my own backyard.
You may shoot me with your words,
You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I’ll rise.
Does my sexiness upset you?
Does it come as a surprise
That I dance like I've got diamonds
At the meeting of my thighs?
Out of the huts of history’s shame
I rise
Up from a past that’s rooted in pain
I rise
I'm a black ocean, leaping and wide,
Welling and swelling I bear in the tide.
Leaving behind nights of terror and fear
I rise
Into a daybreak that’s wondrously clear
I rise
Bringing the gifts that my ancestors gave,
I am the dream and the hope of the slave.
I rise
I rise
I rise.
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दुनिया की तमाम औरतें सुंदर हैं ..उनसे सुंदर और कुछ नहीं
सुन्दरता स्त्री का मेरुदंड है जिसे उसका मस्तिष्क संचालित करता है और मस्तिष्क मुक्त है -कोई सुनहरा पिंजर या कारावास उसे डरा नहीं सकता, तब तक ..जब तक कि वह सचेत है .....
दामिनी ( guts )
दामिनी स्वस्थ होना है तुम्हें
और सुन्दर
मजबूत
मेरी बेटी , मेरे प्यार
क्योंकि
दुनिया की तमाम औरतें
जिन्दा हैं तुम्हारी आँत में
1
औरत होना
ये मेरा कानून है
कोई दफा-धारा नहीं
मेरे वजूद पर
2
मैंने इंकलाब की तरह
अपना औरत होना जिया
अगले जनम मोहे औरत ही कीजे
3
मैं औरत नहीं रीढ़ हूँ
दरिंदो के सामने खड़ी
अपने शब्दकोश को दुरुस्त करो तुम
4
मेरे देश
निकल के आ तो अपनी कब्र से
निकल के आ तो अपने कफ़न से
निकल तो आ ..
मैंने हिलाकर देखा तुझे
चंद सांस हैं
या मुर्दा मेरे ग़ालिब
बोल मैं क्या अता करूँ
तेरी अतील लाश को
5
मैंने अपनी आत्मा
कर दी है नग्न
इसका जख्म खुला रहे
और खून का हर छींटा तुम्हारी सफ़ेद शर्ट पर
दर्द बनकर लिपटे
... ... ...
इस बार मैं अकेली नहीं
तुम भी चीखकर
नग्न कर दो अपनी आत्मा
आओ सड़कों पर लाश की तरह नहीं
आदमी की तरह चलें साथ
आओ कि दर्ज करें अपना इंसान होना
आओ कि रोकर नहीं
आदमी की तरह करें विरोध
आओ कि बदल लें हम इस बार
अपनी-अपनी आत्मा
6
ओ मेरी जान
ओ मेरी औरत
इस बार तू अपनी पसली से
बना पुरुष
इस बार तू मेरी जान
अल्लाह हो जा
7
अगर मेरी स्मृति में कोई रक्तरंजित क्रांति का बीज बचा है
तो उसे मैं अपनी पुत्री को सौंपती हूँ
जा बिखेर दे इसे उस जंगल में
शेर को मचान से नहीं
मार सामने से .
8
अपनी हर कथा से
कविता के हर शब्द से
स्मृति के पहले पन्ने से
वर्तमान के कान पर चीखना
मेरी औरत
मेरी बेटी
और मेरी माँ
इस बार होने देना उसके कान
लहूलुहान
... रिसने देना उसका भविष्य
दुनिया की सबसे कमज़ोर औरत
तुम्हें कर रही है सावधान
अपनी कमजोरियों का
कर दिया है वध
अब तुम निशाने पर हो ......
9
मेरी हथेली इतनी कमज़ोर नहीं
कि आग हाथ में हो
और हाथ जले
मैं आग से निबटना जानती हूँ
सूरज से मेरी दोस्ती
सावधान ..
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स्वर्ण कांता
Worked at self Freelancer
"किसी स्त्री के साथ हुए बलात्कार को उसके इज्जत का या जीने-मरने का प्रश्न नहीं बनाया जा सकता...
यहां एक गंभीर अपराध हुआ है जिसकी गंभीर सजा मिलनी चाहिए...
किसी की इज्जत नहीं गयी, क्योंकि मैं नहीं मानती कि एक स्त्री की इज्जत उसके स्तन और जांघों और योनि से ही जुड़ी हुई है..."
काश यही सोच हमारे समूचे समाज की होती तो बलात्कार के बाद कम से कम पीड़िता का जीवन तो नष्ट नही होता ! साथ ही, हर पीड़ित लड़की समाज की वजह से चुप रहने की बजाय दोषियों के खिलाफ खुलकर आवाज उठाती !"
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"आफ्टर ऑल, ईट्स ए मैन्स वर्ल्डस् , बेबी’ जैसे जैसे एक मनुष्य की हैसियत पाने की स्त्री की जिद बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे उसे उसकी पारंपरिक भूमिका तक सीमित करने के लिए दमन की धार तेज होती जा रही है...
कभी फेशनेबल कपड़ों को लेकर फजीहत, कभी पब-डिस्को थेक का ताना, कभी वक्त-बेवक्त निकलने पर हंगामा...
असम की वह 17 वर्षीय बाला हो, या 23 साल की यह मेडिकल स्टूतडेंट या और कोई... अब यह साबित हो चुका है कि...
बलात्कार किसी तीसरी टांग की कामुकता नहीं, उसका आहत अहम है जो किसी स्त्री को शोषित पीडि़त देखकर संतुष्ट होता है और उसके फैलते कद को देख हीन भावना से ग्रस्त हो उसे जलील करने में ही अपना पौरुष समझता है..
यह मैन्स् वर्ल्ड कब ‘ह्यूमैन्स् वर्ल्डे’ बनेगा..."
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न्यूज़ चैनल पर एक गंभीर चर्चा के बीच जब दबंग-2 और नये साल पर नाच गाने के विज्ञापन आते हैं तो टी वी स्क्रीन तोड़ देने का मन होता है !
इस देश की विसंगति के पंजे हम अपनी गर्दन पर महसूस कर रहे हैं !"
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"भगवान से कहो !
एक मित्र से बलात्कार के मुद्दे पर बात हो रही थी . हम सब के सामने ऐसे लोग आते हैं जो कहते हैं -- लड़कियां इतने छोटे छोटे कपडे पहनती हैं , उससे आदमी में उत्तेजना जगती है . उसने एक से कहा -- आप ही बताइए -- तीन साल , पांच साल ,सात साल की बच्चियों से जब बलात्कार होता है , उनका ड्रेस कोड क्या होना चाहिए ? जवाब मिला -- एक बार उत्तेजना जग गयी तो फिर सामने कौन है , पुरुष नहीं देखता ! मित्र ने कहा -- आप तो भगवान को इतना मानते हैं . भगवान से कहें कि लड़कियों को ऐसे ही भेजते शर्म नहीं आती उसको . उनको कपडे पहना कर इस धरती पर भेजा करे !"
एक मित्र से बलात्कार के मुद्दे पर बात हो रही थी . हम सब के सामने ऐसे लोग आते हैं जो कहते हैं -- लड़कियां इतने छोटे छोटे कपडे पहनती हैं , उससे आदमी में उत्तेजना जगती है . उसने एक से कहा -- आप ही बताइए -- तीन साल , पांच साल ,सात साल की बच्चियों से जब बलात्कार होता है , उनका ड्रेस कोड क्या होना चाहिए ? जवाब मिला -- एक बार उत्तेजना जग गयी तो फिर सामने कौन है , पुरुष नहीं देखता ! मित्र ने कहा -- आप तो भगवान को इतना मानते हैं . भगवान से कहें कि लड़कियों को ऐसे ही भेजते शर्म नहीं आती उसको . उनको कपडे पहना कर इस धरती पर भेजा करे !"
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मोहन श्रोत्रिय
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"यह कहना सरासर मूर्खतापूर्ण है कि लड़कियों का पहनावा देखने वालों को बलात्कार के लिए प्रेरित करता है. यानि "खोट" आपमें, और आपके कुकृत्यों के लिए ज़िम्मेदार "कोई/कुछ और" ! एक चार साल की बच्ची ने ऐसा क्या पहन लिया होगा कि उसके सगे चाचा ने अपने "पुंसत्व" का प्रदर्शन कर दिया उसके साथ?
जिनकी मानसिकता रुग्ण है, वे ही लड़कियों के पहनावे और उनके "मुक्त विचरण" को निशाना बनाकर इस तरह का तर्क देते हैं. लडके कुछ भी पहने, और कहीं भी घूमें-फिरें, वे स्वतंत्र हैं. ऐसे में, बाप द्वारा बेटी का, या भाई द्वारा बहन का बलात्कार किस श्रेणी में रखा जाएगा? ये घटनाएं भी कोई बहुत विरल नहीं रह गई हैं. एक बीमार समाज में रह रहे हैं हम, जहां न तो क़ानून का डर है, और न किसी तरह की नैतिकता का दवाब. पुरुष होना मात्र ही जहां कुछ भी कर गुज़रने का लाइसेंस बन जाता है."
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"कच्चे धागों के सहारे लटकी हुई उम्मीदों का कोई भविष्य नहीं होता. यह बात रह-रह कर मन में उठती है, अपने यहां की लोकतंत्रीय व्यवस्था के कारोबार को को देख कर. फिर भी, हम क्यों फ़ालतू ही इतना गर्व करते हैं इसके हिंसक और अपमानजनक तामझाम पर? तमाम संवैधानिक उच्च पदों पर आसीन महामनाओं/महिषियों की संवेदनहीनता इस सवाल की अहमियत को ही उजागर करती दिखती है. वे चुप रहते हैं तो उनकी चुप्पी अटपटी लगती है, और जब वे मुंह खोलते हैं, तो दुर्गंध ही फैलती है. तंत्र लोक पर निर्ममता से सवारी कर रहा है, और इस प्रक्रिया में उसे निरंतर घायल भी कर रहा है. कोई रास्ता भी तो नहीं दिखता."
-मोश्रो
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"निहत्थों के साथ यह सुलूक मंहगा क्यों नहीं पड़ना चाहिए सरकार को? टीवी पर देखने में ही ज़ोर आरहा था मुझे तो. लडकियां अपनी व्यथा सुनाएं और लाठियां खाएं, यह कहां का न्याय है? यह गुस्सा अब सिर्फ़ एक बलात्कार के मामले तक सीमित नहीं रह गया है. हुक्मरानों की समझ में इतनी छोटी-सी सच्चाई क्यों नहीं आ रही है? अब मुद्दा समाज में स्त्री की स्थिति और उससे जुड़े तमाम प्रश्न बन गए हैं. जिन-जिन के भी खिलाफ़ जाएं ये सवाल. धर्म के ठेकेदारों, संस्कृति के रक्षकों, कीचड़-सनी राजनीति में डूबे राजनेताओं, खाप पंचायतों के सर्वेसर्वाओं -सभी को सावधान हो जाने की ज़रूरत है. दीवार की लिखावट है, न पढ़ने की जोखिम घटक हो सकती है.""जाग रहा है भारत, जागो नेताओ"
"यह स्वर है जो, दिल्ली मे तथा अन्यत्र भी, आज के गैंग-रेप" विरोधी प्रदर्शनों में मुखरित हो रहा है.
इसे यों भी पढ़ा जा सकता है, पढ़ा भी जाना चाहिए :
"जाग रहा है भारत, भागो नेताओ!"
दिल्ली में सफ़दरजंग अस्पताल पर, और रेल भवन तथा रायसीना हिल्ज़ के बीच हो रहे प्रदर्शन प्रकटतः गैंग रेप के खिलाफ़ हैं, पर ये मांग कर रहे हैं तमाम बलात्कार कांडों के दोषियों को "सख्त-से-सख्त" सज़ा की. फ़र्क़ सिर्फ़ इतना है कि जहां मृत्यु-दंड के विरोधी सख्त-से-सख्त सज़ा की अपनी मांग को अपरिभाषित छोड़ रहे हैं, ये प्रदर्शनकारी खुल कर मृत्युदंड की मांग कर रहे हैं. पहली बार सीधे तौर पर राजनेताओं को नारों के घेरे में लाय जा रहा है. यह भी अच्छा संकेत है कि इनके साथ एकजुटता व्यक्त कर रहे वकील भी फ़ास्ट-ट्रैक अदालतों की स्थापना की मांग कर रहे हैं. इस दबाव में ही यदि कोई सख्त क़ानून बनते हैं तो देशभर में लगातार हो रहे इन कुकृत्यों पर अंकुश लगेगा.
यह जज़्बा बना रहे तो संवेदनहीन नेता, संसद और सरकार सभी विवश होंगे इस सन्देश पर अमल करने के लिए !
मेरा तो "आमीन" कहने का मन है, और आपका?"
-मोश्रो
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समाज को सभ्य बनाने में जिन कारकों का हाथ होता है, उनमें से एक मानवोचित सम्मानपूर्वक जीवन को सुनिश्चित करने वाले "क़ानून का भय"/ "कड़े दंड का भय" भी है या नहीं? ऐसा क़ानून यदि वर्तमान में नहीं है, तो उसे बनवाने के पक्ष में आवाज़ उठाना सही है या नहीं?
क्या हम वास्तव में एक सभ्य समाज में रह रहे हैं? क्या एक सभ्य समाज में वह सब कुछ होता है, जो यहां हो रहा है?
मैंने दो-तीन दिन पहले कुछ अपराध गिनाए थे, अपने एक स्टेटस में, जिनकी सतत पुनरावृत्ति यह दर्शाती है कि हम एक सभ्य समाज तो नहीं ही हैं. इन अपराधों के लिए कोई भी दंड बड़ा नहीं हो सकता."
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"दामिनी की सांसें हम सब में उसकी जिंदगी बनकर चलेंगी हमेशा. किसने कहा दामिनी चली गयी, वह मेरी आपकी ज़बां से बोल रही है . हमारे क़दमों से चल रही है. देखो तो उसका हाथ कहाँ कहाँ पहुच रहा है. हम जैसे पिताओं और भाईओं के हाथों में हाथ डाल रही है. बहनों और माओं के गले में बाहें डाल रही है. कातिलों के गरेबान पर उसका हाथ जा रहा है .दामिनी हर जगह है. देखना अभी जब यह मुस्कुराएगी तो फूल खिल उठेंगे ..दामिनी तुम हमारे वजूद का हिस्सा हो, किसने कहा तुम नहीं रहीं."
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"यह देवी है तो पत्थर है यह इंसान है तो एक शय है
इसे पूजो अगर बुत है इसे नोचो जो यह शय है
यह बस एक जिस्म है और कुछ नहीं है
कोई बेटी किसी की माँ नहीं है
यह सब बातें पुरानी हो चुकी हैं
फ़साना हैं कहानी हो चुकी है
सजाओ सेज पर और फिर जला दो
बुझाओ प्यास फिर हस्ती मिटा दो
यह खेती है तुम्हारी और क्या है
निकालो हल इसे अब जोत डालो
उठो और इसको अब पैमाल कर दो
यह धरती अब किसी की माँ नहीं है
यह औरत है कि इसमें जां नहीं है
यह बस सेजों कि शय है क्यों झिझकना
यह औरत है तो कैसी शर्म करना
यह मरियम है तो क्या औरत ही तो है
यह सीता है तो क्या औरत ही तो है
इसी का नाम ही तो दामिनी है
बढ़ो आगे बढ़ो बस जिस्म है यह"
_______________________________________________________________________
"उस लड़की के लिए जो सफदरजंग हस्पताल में मौत को चुनौती दे रही है :
आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें
जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें
जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले
इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए"
_________________________________________________________________________________
"हम पुरुष जब मर्द बनते है तो हमारी मर्दानगी हमारे जेहनों से और कर्मों से नहीं झलकती. झलकती है है हमारे जिस्मों और कुकर्मों से. जिस समाज में लड़कियां ज़ेहन से लड़कों और पुरुषों को मीलों पीछे छोड़ रही है वहीँ पुरुष मर्द बन बन कर इंसान और इंसानियत का चेहरा सियाह कर कर रहा है. स्कूलों और कालेजों के नतीजों में जब सुर्ख़ियों में लड़कियां आती है तो बाप गर्व करता है. और वही बाप पुरुष से मर्द बन कर समाज कर कालिख भी पोत देता है.
पुरुष को मर्दानगी का सुबूत का सुबूत देने के लिए सिर्फ एक जगह नज़र आती है ...औरतों के जाँघों के बीच...अपनी ताकत का मुजाहिरा कर के...उन्ही जाँघों के बीच ताकत का मुजाहिरा कर के जिनसे निकल कर उसने सूरज की किरण देखी थी...और एक शब्द...बलात्कार ऐसी तमाम हरकतों के लिए इस्तेमाल हो जाता है..नहीं शब्द तलाशने होंगे नए ...बलात्कार तो लाखों बेडरूम में हर रात होते है जो पति अपनी पत्नी के साथ करते हैं. और पत्नी लाचार सेज पर सो जाति है बिना आँख बंद किये. ज़रा देर में मर्द के खर्राटे गूंजते है..और औरत अँधेरे में छत को घूरते घूरते नींद में पनाह मांग लेती है. बलात्कारी सुबह पूरे हक से चाय , नाश्ते, खाने कि मांग करता है और निकल पड़ता है अपनी दिनचर्या पर..मगर वह तो उसकी बीवी है और खुद वह औरत का स्वामी. अपनी खेती पर जैसे चाहे हल चलाये. जिंदगी भर इज्ज़त के साथ बिना किसी डर के, बिना किसी अपराधबोध के शान से जीता है..नहीं उसे बलात्कारी नहीं कहा जाता.. “ इस खुले झूट को/ ज़ेहन की लूट को / मैं नहीं मानता / मैं नहीं मानता’ ..करोड़ों औरतें ऐसे भी बलात्कार का शिकार होती है जिसे वह खुद नहीं समझ पति. शरीर का कोई सुख जीवन भर न पाकर जन्मती है बच्चे. खुश होती है. छाती से लगा कर उनको पोसती है...इनमे से न जाने कितने मर्द बन जाते है और फिर अपनी मर्दानगी का सुबूत देते है दो जाँघों के बीच..
नहीं जो कुछ भी रेंगती करों और दौड़ती बसों में, सड़कों और सुनसान इलाकों में होता है वह मात्र बलात्कार नहीं..हमारे शब्दकोष अभी गरीब है...हम शब्द अपनी सुविधा के हिस्सा से गढते है..जिस्म फरोशी पर हमने वेश्या, रंडी, छिनाल, तवाइफ़ और न जाने कितने शब्द गढ़ लिए लेकिन उसी जिस्म के खरीदार के लिए कोई शब्द न गढा..
हम जघन्य अपराध करने वालों के लिए भी कभी जानवर कभी वहशी या दरिंदा शब्द इस्तेमाल कर इन प्रजातियों को बदनाम करते हैं. नहीं..यह एक अलग प्रजाति है. इसका नामकरण अभी होना है. भाषा और शब्दों की भी सीमा होती है..विकास धीरे धीरे होता है. नए शब्द आयेंगे इनके लिए क्योंकि एकभी यह किसी श्रेणी में रखे नहीं जा सकते. नामकरण होगा इनका ..फिर ऐसा भी वक्त आएगा कि अलग ज़ू बनेंगे...जहाँ यह प्रजाति पिंजरों में रखी जायेगी. इस ज़ू में “ जानवरों को परेशान न करें’ नहीं लिखा होगा ..लिखा होगा “.........पर थूके बिना न जायें .."
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"बड़े गर्व से देश को भारत माता कहने वाले मर्दानगी दिखा रहे है देश के साथ. कौन सी माँ किसकी माँ ..जिसको रौंद रहे हो कौन है वह..देश बनता है इंसानों से भूगोल से नहीं. इसी देश में रहती है औरत कहलाने वाली आधी जनसँख्या जो माँ है , बहन है बेटी है. कोई सुरक्षित नहीं. मर्द मर्दानगी दिखाते हुए देश भर में शिकार तलाश रहा है. हज़ारों दामिनी निशाने पर हैं. साहिर ने लिखा था “ यह वह बदकिस्मत माँ है जो बेटों की सेज पे सोती है” कोई सुरक्षित नहीं इस मर्द से. कल इसी ने रखी बाँधी ना तुमको. इसका नाम राम सिंह हो या रहमान...इस मर्द में कुछ नए रसायन घर कर गए हैं जिनका नाम किसी को नहीं मालूम वैज्ञानिक अनजान हैं. दिल्ली हो या पूरा देश हर जगह दौड़ता नज़र आ रहा है यह नया जीव. देखो कहीं आस पास तो नहीं."
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"यह देवी है तो पत्थर है यह इंसान है तो एक शय है
इसे पूजो अगर बुत है इसे नोचो जो यह शय है
यह बस एक जिस्म है और कुछ नहीं है
कोई बेटी किसी की माँ नहीं है
यह सब बातें पुरानी हो चुकी हैं
फ़साना हैं कहानी हो चुकी है
सजाओ सेज पर और फिर जला दो
बुझाओ प्यास फिर हस्ती मिटा दो
यह खेती है तुम्हारी और क्या है
निकालो हल इसे अब जोत डालो
उठो और इसको अब पैमाल कर दो
यह धरती अब किसी की माँ नहीं है
यह औरत है कि इसमें जां नहीं है
यह बस सेजों कि शय है क्यों झिझकना
यह औरत है तो कैसी शर्म करना
यह मरियम है तो क्या औरत ही तो है
यह सीता है तो क्या औरत ही तो है
इसी का नाम ही तो दामिनी है
बढ़ो आगे बढ़ो बस जिस्म है यह"
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"उस लड़की के लिए जो सफदरजंग हस्पताल में मौत को चुनौती दे रही है :
आइये हाथ उठाएं हम भी
हम जिन्हें रस्म-ए-दुआ याद नहीं
हम जिन्हें सोज़-ए-मोहब्बत के सिवा
कोई बुत कोई खुदा याद नहीं
आइये अर्ज़ गुज़रें कि निगार-ए-हस्ती
ज़हर-ए-इमरोज़ में शिरीनी-ए-फर्दान भर दें
वो जिन्हें तबे गरांबारी-ए-अय्याम नहीं
उनकी पलकों पे शब्-ओ-रोज़ को हल्का कर दें
जिनकी आँखों को रुख-ए-सुभ का यारा भी नहीं
उनकी रातों में कोई शमा मुन्नवर कर दें
जिनके क़दमों को किसी राह का सहारा भी नहीं
उनकी नज़रों पे कोई राह उजागर कर दें
जिनका दीन पैरवी-ए-कज्बो-रिया है उनको
हिम्मते-कुफ्र मिले, जुर्रत-ए-तेहकीक़ मिले
जिनके सर मुन्तज़िर-ए-तेग-ए-ज़फ़ा हैं उनको
दस्त-ए-क़ातिल को झटक देने कि तौफीक़ मिले
इश्क का सर-ए-निहां जां तपां है जिस से
आज इक़रार करें और तपिश मिल जाए
हर्फ़-ए-हक़ दिल में खटकता है जो कांटे कि तरह
आज इज़हार करें और खलिश मिट जाए"
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"हम पुरुष जब मर्द बनते है तो हमारी मर्दानगी हमारे जेहनों से और कर्मों से नहीं झलकती. झलकती है है हमारे जिस्मों और कुकर्मों से. जिस समाज में लड़कियां ज़ेहन से लड़कों और पुरुषों को मीलों पीछे छोड़ रही है वहीँ पुरुष मर्द बन बन कर इंसान और इंसानियत का चेहरा सियाह कर कर रहा है. स्कूलों और कालेजों के नतीजों में जब सुर्ख़ियों में लड़कियां आती है तो बाप गर्व करता है. और वही बाप पुरुष से मर्द बन कर समाज कर कालिख भी पोत देता है.
पुरुष को मर्दानगी का सुबूत का सुबूत देने के लिए सिर्फ एक जगह नज़र आती है ...औरतों के जाँघों के बीच...अपनी ताकत का मुजाहिरा कर के...उन्ही जाँघों के बीच ताकत का मुजाहिरा कर के जिनसे निकल कर उसने सूरज की किरण देखी थी...और एक शब्द...बलात्कार ऐसी तमाम हरकतों के लिए इस्तेमाल हो जाता है..नहीं शब्द तलाशने होंगे नए ...बलात्कार तो लाखों बेडरूम में हर रात होते है जो पति अपनी पत्नी के साथ करते हैं. और पत्नी लाचार सेज पर सो जाति है बिना आँख बंद किये. ज़रा देर में मर्द के खर्राटे गूंजते है..और औरत अँधेरे में छत को घूरते घूरते नींद में पनाह मांग लेती है. बलात्कारी सुबह पूरे हक से चाय , नाश्ते, खाने कि मांग करता है और निकल पड़ता है अपनी दिनचर्या पर..मगर वह तो उसकी बीवी है और खुद वह औरत का स्वामी. अपनी खेती पर जैसे चाहे हल चलाये. जिंदगी भर इज्ज़त के साथ बिना किसी डर के, बिना किसी अपराधबोध के शान से जीता है..नहीं उसे बलात्कारी नहीं कहा जाता.. “ इस खुले झूट को/ ज़ेहन की लूट को / मैं नहीं मानता / मैं नहीं मानता’ ..करोड़ों औरतें ऐसे भी बलात्कार का शिकार होती है जिसे वह खुद नहीं समझ पति. शरीर का कोई सुख जीवन भर न पाकर जन्मती है बच्चे. खुश होती है. छाती से लगा कर उनको पोसती है...इनमे से न जाने कितने मर्द बन जाते है और फिर अपनी मर्दानगी का सुबूत देते है दो जाँघों के बीच..
नहीं जो कुछ भी रेंगती करों और दौड़ती बसों में, सड़कों और सुनसान इलाकों में होता है वह मात्र बलात्कार नहीं..हमारे शब्दकोष अभी गरीब है...हम शब्द अपनी सुविधा के हिस्सा से गढते है..जिस्म फरोशी पर हमने वेश्या, रंडी, छिनाल, तवाइफ़ और न जाने कितने शब्द गढ़ लिए लेकिन उसी जिस्म के खरीदार के लिए कोई शब्द न गढा..
हम जघन्य अपराध करने वालों के लिए भी कभी जानवर कभी वहशी या दरिंदा शब्द इस्तेमाल कर इन प्रजातियों को बदनाम करते हैं. नहीं..यह एक अलग प्रजाति है. इसका नामकरण अभी होना है. भाषा और शब्दों की भी सीमा होती है..विकास धीरे धीरे होता है. नए शब्द आयेंगे इनके लिए क्योंकि एकभी यह किसी श्रेणी में रखे नहीं जा सकते. नामकरण होगा इनका ..फिर ऐसा भी वक्त आएगा कि अलग ज़ू बनेंगे...जहाँ यह प्रजाति पिंजरों में रखी जायेगी. इस ज़ू में “ जानवरों को परेशान न करें’ नहीं लिखा होगा ..लिखा होगा “.........पर थूके बिना न जायें .."
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"बड़े गर्व से देश को भारत माता कहने वाले मर्दानगी दिखा रहे है देश के साथ. कौन सी माँ किसकी माँ ..जिसको रौंद रहे हो कौन है वह..देश बनता है इंसानों से भूगोल से नहीं. इसी देश में रहती है औरत कहलाने वाली आधी जनसँख्या जो माँ है , बहन है बेटी है. कोई सुरक्षित नहीं. मर्द मर्दानगी दिखाते हुए देश भर में शिकार तलाश रहा है. हज़ारों दामिनी निशाने पर हैं. साहिर ने लिखा था “ यह वह बदकिस्मत माँ है जो बेटों की सेज पे सोती है” कोई सुरक्षित नहीं इस मर्द से. कल इसी ने रखी बाँधी ना तुमको. इसका नाम राम सिंह हो या रहमान...इस मर्द में कुछ नए रसायन घर कर गए हैं जिनका नाम किसी को नहीं मालूम वैज्ञानिक अनजान हैं. दिल्ली हो या पूरा देश हर जगह दौड़ता नज़र आ रहा है यह नया जीव. देखो कहीं आस पास तो नहीं."
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मनीषा कुलश्रेष्ठ
कवयित्री
कथाकार
"ये जनज्वार तो शांत था, हमारे आकाओं की उपेक्षा से उबला, ये संसार का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, हमारे चुने हुए ये अब जनता से भागेंगे हैं,ये वे सारे रास्ते जो इनकी तरफ़ हमें ले जाते हैं वही बंद कर देंगे। ओबामा आकर जनता से सपरिवार मिलता है, उनके साथ रोता है, ये भीतर शतरंज खेलते हैं, और अपनी शातिर चालों के बाद सात दिन बाद भीतर से बाहर आते हैं तब तक पुलिस को आदेश कि ये शतरंज की शातिर चाल पूरी होने तक, डंडे जलाएँ, बेचारे युवाओं को ग्लानि और दमन? क्या स्मार्टली मॅाब का दोष आम आदमी पर!"
1-
मन तो करता है
इकट्ठे हों और
द्रौपदी की तरह
प्रण कर लें
हम सब कि
ये बाल समाज के
हर दुशासन के खून
से सिक्त कर लें
और फिर ही बाँधें ...
जेलें तोड़ दें और खुद
चीर दें एक एक बलात्कारी को
जो सरकार का मेहमान है
या संसद का दामाद !
2-
दामिनी ठीक हो जाओ,
अपना लो गुण जो
हमने विकास
की अवस्थाओं में थे छोड़े
उगा लो फिर वो अंग सरीसृपों की तरह
जो हुए क्षत - विक्षत
कोशिका के एक टुकड़े से
बना लो बहुत से स्वस्थ ऊतक
स्वस्थ ऊतकों से स्वस्थ अंग
और फिर सहेज लो पूरा पाचन तंत्र
फिर सुचारु कर लो ये शरीर
करो इकट्ठी वह जीजिविषा
और बाहर आओ नई
ये कविता नहीं मेरी बेटी
यह मंत्र हैं यज्ञ का
प्रकृति और जीवन के लिए
आहूत !
_________________________________________________________________________________
" कितनी घटिया सी बात है कि पहले तो शिक्षा माफिया के चलते हर शहर कस्बे के शासकीय कॉलेज लगभग बरबाद हो गए...... इन पैसाखोर सत्ताओं के चलते सी ग्रेड प्रायवेट युनिवर्सिटियों ने लोगों की ज़मीन बिकवा कर फीसें लीं....और जब बच्चे घरों से दूर पढ़ने आए तो ..........अपराध...बलात्कार....कहाँ जाएं हम और हमारे देश के बच्चे? "
____________________________________________________________________________
"हम संयत हैं, चुप हैं मगर सजग हैं दामिनी! एक दिन तुम बाहर आओगी तो पाओगी कि पूरा देश तुम्हारे साथ खड़ा है, स्त्री - पुरुष, बच्चे ( कुछ पत्थरों को छोड़ कर )
और वे हैवान सज़ा पा चुके हैं। जो इस्मत, इज़्ज़त आँतों, अंगों के घावों से ज़्यादा ज़रूरी मानी जाती हो उसे हम सब ने निकाल फेंक दिया है, सो ये बोझ तो मन पर रखना मत, तुम फ़ाईटर हो! हमारी शान हो।"
______________________________________________________________________________
" रामसिंह ने जुर्म क़ुबूल कर लिया है, उसे फाँसी दो, हत्या से भयानक कुकर्म ! मैं दहली हुई हूँ! रामसिंह का भाई पहले से बलात्कार के जुर्म में जेल में है, इस दंरिंदे को छोड़ा तो बहुत भयानक होगा।"
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रति सक्सेना
दरअसल , जब भी हम कोई बुरी घटना सुनते या पढ़ते हैं, हमें दुख होता है, पीड़ा भी होती है। कुछ लोग इस तरह के दुख को छोटे छोटे मोटे दुख से धो डालने की कोशिश करते हैं। लेकिन फेसबुक इस पीड़ा को जाया नहीं होने देती है, कोई ना कोई स्टेटमेन्ट पीड़ा को जगाये रखता है, और यहीं पर चिंगारी को नीड़ बनाने का मौका मिल जाता है, जो दावानल के रूप में जग जाती है।..
हालाँकि देश भर में इस तरह की अनेक घटनायें होती है, लेकिन लोगो को एक जुट होने का कोई ना कोई अवलम्बन तो चाहिये ना, और इस तरह के माध्यमों का सही उपयोग यही हो सकता है। सोशल मीडिया एक विवेकशीलता की माँग रखती है, अपनी विचार धारा को धीरज से रखते हुए दूसरे की विचार धारा को समझने की माँग भी रखती है.... और यही पर सामाजिक चेतना जगती है। नही तो यह मुर्दों का घर बन जायेगी,,,,
यही पर वे मूखौटे भी सामने आ जाते है जो शान्ति के दिनों में कलाकारी झाड़ते रहते हैं, लेकिन ऐसे अवसरों पर चुप्पी साध लेते हैं..... कुछ डर डर कर एक आध शब्द लिख मारते हैं.... लेकिन पीड़ा का दावानल तब तक अपनी जमीन बना चुका होता है, और आन्दोंलन चल जाता है। जरूरी नहीं कि हर कोई शब्दों में आग भर कर ही लिखे, क्यों कि हर किसी का अपना तरीका होता है विरोध जाहिर करने का, लेकिन किसी अंगारे को धधकाने के लिये एक फूँक मारना तो बनता ही है ना....
यह साझेदारी यदि सही चलती रही तो फेसबुक जैसे सोशल मीडिया का महत्व है, लेकिन यदि इस माध्यम को रिश्ते बनाने, स्वार्थ साधने का माध्यम माना जाये तो इसका बड़ा दुरुपयोग होगा ."
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"किसी आन्दोलन के पीछे अनेक दुखों की बारूद और किसी एक दुख की चिनगारी काम करती है। इसका यह मतलब नहीं कि वह आन्दोंलन बस एक चिन्गारी से उपजा, या वह दावानल केवल एक लपट की वजह है। लपटों के अनेकों से एक होना ही आन्दोलनों की भूमिका है। आज जो लपट देश की राजधानी में दिखाई दे रही है, वह केवल एक बलात्कार का परिणाम नहीं,बल्कि अनेक बलात्कारों , अपमानों और तकलीफों का परिणाम है।
इसलिये यदी दिल्ली के आन्दोलन को किसी एक वर्ग या समुदाय या फिर स्थान से जोड़ने की कोशिश की जाये तो क्या कहा जाये?
आन्दोलन लड़कियों की सुरक्षा और अस्मिता को लेकर है, उसकी जाति या वर्ग को लेकर नहीं, वैसे भी हमारे देश में औरत की बस एक जाति है, और वह बस औरत है...
तरह तरह की टिप्पणियाँ देखने को मिल रही है, लोग किसी ना किसी की आड़ में विरोध की आग को ठण्डा करने की कोशिश कर रहे हैं, यह किसी के भी हित में नहीं है,,,,,
कृत्या इस कृत्य का विरोध करती है "
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आज जब हम एक साथ खड़े हैं, तो खड़े रहे, मन से , तन से, भावनाओं से,,, हम एक जुट रहे, कम से कम यह तो सीखा हमने इस आन्दोलन से.....
यह विरोध सभी दुष्कर्मों के विरोध में है...
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डॉ कविता वाचक्नवी
Indian languages & culture, Creative Hindi writing,
A Writer, Poet, Critic, Sociolinguist & Human Rights Activist.
A Writer, Poet, Critic, Sociolinguist, Editor & Human Rights Activist.
"आधुनिकता व 'प्रगति' के नाम पर नैतिक शिक्षा को धर्म से जोड़कर धिक्कारने वाले लोग इस बलात्कार में बराबर के भागी हैं; जिन्होंने स्कूल कॉलेजेस् के पाठ्यक्रमों से नैतिकता और चरित्र की शिक्षा देने वाली कथाओं, चरित्रों, नायकों व पुस्तकों को धर्म के नाम पर निकाल बाहर किया। न घरों में नैतिकता का कोई उदाहरण नई पीढ़ी को दीखता है, न शिक्षा और संदेश में नैतिकता के महत्व का कोई उदाहरण या प्रमाण। जिस चीज की शिक्षा ही समाज और परिवार में नहीं है, वह कैसे बचेगी ?
पोंगा पंडितों की शिक्षा कह कर नैतिकता व संस्कारों को धिक्कारने वालों को समान रूप से बलात्कारी समझा जाए और उन के लिए भी कोई जोरदार दंड प्रस्तावित किया जाए।
अधिक नहीं तो कम से कम पाठ्यक्रम बोर्ड से ऐसे आधुनिकतावादियों को बाहर रखे जाने की आवश्यकता ही समझी जाए और अपने बच्चों को ऐसी शिक्षा संस्थाओं में पढ़ने भेजा जाए जहाँ मानवीय मूल्यों व नैतिक शिक्षा को आवश्यक रूप से पढ़ाया जाता हो।"_________________________________________________________________________________
अत्यावश्यक निवेदन : कविता वाचक्नवी
====================="दो दिन से फेसबुक पर अपने प्रोफाईल-चित्र को काले धब्बे में बदल कर बलात्कार के विरुद्ध अपना विरोध दर्ज़ करवाने की लहर चल रही है। लोग-बाग और कई मित्र धड़ाधड़ एक कालेधब्बे को अपने चित्र के स्थान पर प्रयोग कर रहे हैं और तो और मुझे इसमें सम्मिलित होने के लिए बार-बार अपना चित्र काला करने के निवेदन/टैग व संदेश भी भेज रहे हैं।
मैं ऐसे सब लोगों को स्पष्ट कह देना चाहती हूँ कि मुझे अपने चित्र पर कालिख पोतने में कतई रुचि नहीं है व न ही अपने आप को काला बदनुमा दाग बना देने में। न ही मैंने ऐसा कोई कार्य किया है कि जिसके लिए मुझे यह कालिख अपने ही चित्र पर पोतनी पड़े और काला धब्बा बनना पड़े। कालिख पोतनी है तो उन सब पर जो अपनी क्लीवता, तुच्छताओं, कुंठाओं व दुर्बलताओं के कारण स्त्री को मनुष्य तक होने का अधिकार न देकर घृणित कार्य करते हैं या उस पर शासन करने की हिंसक प्रवृत्ति के शिकार हैं। वे लोग ही मानव सभ्यता पर कलंक और काला धब्बा हैं.... उनके मन में भी कालिख है और उन ही के चेहरे पर ही यह पोती भी जानी चाहिए।
मैं अपना चेहरा स्त्री होने के गर्व से यों ही दिपदिपाता हुआ रखना चाहती हूँ; भले ही किसी को यह सहन हो या न हो और भले ही कोई मेरे इस गर्व से आक्रांत हो कर जमीन में गड़ने लायक भी न रहता हो।"
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"और अब हैदराबाद में एक 5 वर्ष की बच्ची बलात्कार की शिकार !.......
उन महान औरतों और महापुरुषों की चोंच अब क्या बोलेगी जो अपने को महान और महिलाओं के चरित्र के ठेकेदार बनाकर महिलाओं के शाम को बाहर घूमने, कम कपड़े पहने, पुरुष मित्र के साथ होने और फिल्म देखने की आड़ में बकवास कर रहे थे ।"_________________________________________________________________________________
"जिन लोगों को स्त्री के वस्त्र और उसका खुले में घूमना या साँस लेना स्वीकार्य नहीं, वे वही लोग हैं जिन्हें अपने पर संयम नहीं। ऐसे असंयमी लोग अपने लिए बुर्के तलाश लें और ऐसे समय बाहर निकला करें जब संसार की हर औरत सो चुकी हो। या फिर बाहर निकला ही न करें।
ऐसे असंयमी पशुओं को अपने असंयम के चलते मनुष्यों को दड़बे में बंद करने का कोई अधिकार नहीं। जंगली पशु को दड़बे/पिंजरे/सलाखों में बंद किया जाता है, न जंगली पशुओं से बचाए जाने वालों को।"
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"दिल्ली की वह बहादुर बच्ची मनोवैज्ञानिक रूप से स्वस्थ है और भविष्य को लेकर आशावन है। लड़की की जाँच के बाद पत्रकारों से बात करते हुए डॉक्टरों ने कहा कि उसके चेहरे पर निराशा नहीं है."
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अंजू शर्मा
कवयित्री
गृहिणी
वह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनवह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनवह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिन
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"Maaf karna meri bachchi, main ek kamazor, kayar aur bebas aurat hoon.....sirt chahungi.....kuchh nahi kar paungi tumhare liye......sabhyta ek kalank ki tarah chipki hai mere wajood se......main sirf duayen maang sakti hoon....ek andekhe, anjane ishwar se....jo us raat se kahin so raha hai......"
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वह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनी को नहीं बचा पाया। वह एक पुरुष है, दामिनी का मित्र था, दामिनी के पिता, भाई भी एक पुरुष होंगे, जो उसे जी-जान से स्नेह देते होंगे। ये जघन्य कांड न घटता, तो दामिनी को पढ़ाने के लिए पिता का ज़मीन बेचना और उसका ट्यूशन पढाना एक दिन सार्थक होता। जीवन में सफल होकर एक मुकाम हासिल करती, बहुत संभव है फिर एक दिन उसके जीवन में शायद फिर एक पुरुष आता, शायद नहीं, या फिर हाँ, ये भी हो सकता है वह एक पुरुष को इस धरती पर लाने का कारण भी बनती। वैसे वे दरिन्दे भी पुरुष ही तो थे, जिन्हें केवल अपना पुरुष रहना याद रहा, उनके जीवन में भी कई महिलाएं रही होंगी, हर एक के धरती पर आने, साँस लेने और जीने का कारण भी एक महिला ही बनी होगी, इसके बावजूद वे इंसान क्यों नहीं बन पाए, स्त्री के लिए बने सारे रिश्तों, संबंधों को भूलकर मात्र एक ही रूप की विभत्सता के अतिरिक्त क्या कुछ भी उन्हें याद नहीं रहा होगा, सोच रही हूँ क्या उनमें से किसी एक को किसी एक क्षण भी अंतरात्मा ने नहीं टोका होगा, आत्मा मर गयी थी, या कभी जन्मी ही नहीं थी। क्या ऐसे लोगों के भीतर अंतर्मन में खुद से कभी कोई सकारात्मक वार्तालाप नहीं होता, क्या कोई भय, ग्लानि, कोई अपराधबोध उनके जीवन का हिस्सा नहीं होते, यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' में है तो सचमुच हम खतरनाक युग में जी रहे हैं।
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"कई बार सोचा दामिनी के लिए कुछ लिखूं पर हर बार सोचते ही ऑंखें भर आती हैं, कागज़ धुंधला जाता है, बस दिल से दुआ निकलती है, ईश्वर, तुमसे कभी अपने लिए न मांगने का समझौता है हमारे बीच, तुम सदा बिनमांगे मेरी सोच से ज्यादा देते हो .....इस बार मेरी दुआ कुबूल करो, करोड़ों लोगों की दुआ कबूल करो ....वो बच्ची ठीक होकर सामान्य जीवन जी सके, एक और बात कभी कोई बच्ची ऐसे हादसे का शिकार न बने ....कुछ ज्यादा मांग लिया क्या ........."
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"ऐसा नहीं है कि लोग ओवर-रियेक्ट कर रहे हैं, याद कीजिये गुवाहाटी कांड के समय भी लोग इसी तरह तड़प उठे थे, सोशल साइट्स की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है, प्रतिकार का यह भी एक रूप है, बल्कि मीडिया ने भले ही विषय बदल दिया हो, सोशल साइट्स अपना काम बखूबी कर रही हैं, लोग जुड़ रहे हैं, बात कर रहे है, सभी प्रशासन भी हरकत में आया और गिरफ्तारियां हुई। कुछ बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है :
1. इस लौ को जलाए रखिये, साथ ही कोई स्थायी और सार्थक हल भी ढूँढा जाना चाहिए।
2. जो लोग समर्थ हैं आगे आयें, ऐसे मामलों में कम से कम त्वरित न्याय होना भी बहुत संतोषजनक रहेगा, ताकि बलात्कारियों के हौंसले पस्त हों!
3. उस लड़की और ऐसी अन्य लड़कियों को सामान्य जीवन जीने में न केवल मदद करनी चाहिए, अपितु उन्हें प्रेरित कर हर तरह के व्यर्थ के ग्लानि भाव से मुक्त करना होगा, क्योंकि वे दोषी या अपराधी नहीं हैं।
4. समाज सुधार का कार्य अपने घर से शुरू करना होगा, अपने जीवन से जुड़े पुरुषों चाहिए वे पिता, भाई, पति, पुत्र या फिर मित्र हों, को स्त्री जाति के सम्मान और सुरक्षा के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि बलात्कारी मानसिकता का ह्रास हो।
5. ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह एकजुटता दिखानी होगी, चाहे कोई भी जगह हो दिल्ली या सुदूर के क्षेत्र, स्त्री हर जगह स्त्री है।
6. समर्थ लोग किसी बड़े आयोग के बजाय छोटी छोटी इकाइयों पर ध्यान दें, जहाँ पीड़ित महिलाओं की जल्द सुनवाई हो।
7. महिलाओं को अपनी बेटियों को मज़बूत बनाना होगा, मन से भी और शरीर से भी। उनके मन से बेचारगी के भाव को दूर कर किसी भी परिस्थिति से लोहा लेने के लिए सक्षम बनाना होगा। मेंटली काउंसलिंग और मार्शल आर्ट दोनों ही आप्शन आज जरूरी है .
8. महिलाओं को भी उपभोग की वस्तु जैसी मानसिकता से अब ऊपर उठना होगा, अस्मिता के दोहरे मापदंड को नकारना होगा, चाहे आप स्वयं हो या अन्य कोई महिला!
लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होगी, आप लोगों के विचार करने पर ढेरों बिंदु जुड़ सकते हैं, लेकिन इनकी सार्थकता इनके विचार-मात्र न रहकर क्रियान्वित होने पर ज्यादा है!"
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अंजू शर्मा
कवयित्री
गृहिणी
वह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनवह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनवह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिन
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"Maaf karna meri bachchi, main ek kamazor, kayar aur bebas aurat hoon.....sirt chahungi.....kuchh nahi kar paungi tumhare liye......sabhyta ek kalank ki tarah chipki hai mere wajood se......main sirf duayen maang sakti hoon....ek andekhe, anjane ishwar se....jo us raat se kahin so raha hai......"
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वह लड़का बार बार रो पड़ता है, जब से दामिनी के चले जाने की सूचना मिली उसने खाना पीना छोड़ दिया। उसके पिता, भाई, मामा उसके साथ हैं, हर रोज वह सुबह पुलिस स्टेशन जाता था और देर रात लौटता था, हर छोटी से छोटी जानकारी उसने पुलिस को दी, और यही कारण था कि इतनी जल्दी वे दरिन्दे गिरफ्त में आ पाए। उसे भी बहुत चोट लगी थी, सर में कई टांके भी आये, पर वो आज भी इस बात के लिए दुखी है कि पूरी कोशिश के बावजूद वो दामिनी को नहीं बचा पाया। वह एक पुरुष है, दामिनी का मित्र था, दामिनी के पिता, भाई भी एक पुरुष होंगे, जो उसे जी-जान से स्नेह देते होंगे। ये जघन्य कांड न घटता, तो दामिनी को पढ़ाने के लिए पिता का ज़मीन बेचना और उसका ट्यूशन पढाना एक दिन सार्थक होता। जीवन में सफल होकर एक मुकाम हासिल करती, बहुत संभव है फिर एक दिन उसके जीवन में शायद फिर एक पुरुष आता, शायद नहीं, या फिर हाँ, ये भी हो सकता है वह एक पुरुष को इस धरती पर लाने का कारण भी बनती। वैसे वे दरिन्दे भी पुरुष ही तो थे, जिन्हें केवल अपना पुरुष रहना याद रहा, उनके जीवन में भी कई महिलाएं रही होंगी, हर एक के धरती पर आने, साँस लेने और जीने का कारण भी एक महिला ही बनी होगी, इसके बावजूद वे इंसान क्यों नहीं बन पाए, स्त्री के लिए बने सारे रिश्तों, संबंधों को भूलकर मात्र एक ही रूप की विभत्सता के अतिरिक्त क्या कुछ भी उन्हें याद नहीं रहा होगा, सोच रही हूँ क्या उनमें से किसी एक को किसी एक क्षण भी अंतरात्मा ने नहीं टोका होगा, आत्मा मर गयी थी, या कभी जन्मी ही नहीं थी। क्या ऐसे लोगों के भीतर अंतर्मन में खुद से कभी कोई सकारात्मक वार्तालाप नहीं होता, क्या कोई भय, ग्लानि, कोई अपराधबोध उनके जीवन का हिस्सा नहीं होते, यदि इन सब प्रश्नों का उत्तर 'नहीं' में है तो सचमुच हम खतरनाक युग में जी रहे हैं।
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"कई बार सोचा दामिनी के लिए कुछ लिखूं पर हर बार सोचते ही ऑंखें भर आती हैं, कागज़ धुंधला जाता है, बस दिल से दुआ निकलती है, ईश्वर, तुमसे कभी अपने लिए न मांगने का समझौता है हमारे बीच, तुम सदा बिनमांगे मेरी सोच से ज्यादा देते हो .....इस बार मेरी दुआ कुबूल करो, करोड़ों लोगों की दुआ कबूल करो ....वो बच्ची ठीक होकर सामान्य जीवन जी सके, एक और बात कभी कोई बच्ची ऐसे हादसे का शिकार न बने ....कुछ ज्यादा मांग लिया क्या ........."
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"ऐसा नहीं है कि लोग ओवर-रियेक्ट कर रहे हैं, याद कीजिये गुवाहाटी कांड के समय भी लोग इसी तरह तड़प उठे थे, सोशल साइट्स की उपयोगिता सिद्ध हो चुकी है, प्रतिकार का यह भी एक रूप है, बल्कि मीडिया ने भले ही विषय बदल दिया हो, सोशल साइट्स अपना काम बखूबी कर रही हैं, लोग जुड़ रहे हैं, बात कर रहे है, सभी प्रशासन भी हरकत में आया और गिरफ्तारियां हुई। कुछ बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है :
1. इस लौ को जलाए रखिये, साथ ही कोई स्थायी और सार्थक हल भी ढूँढा जाना चाहिए।
2. जो लोग समर्थ हैं आगे आयें, ऐसे मामलों में कम से कम त्वरित न्याय होना भी बहुत संतोषजनक रहेगा, ताकि बलात्कारियों के हौंसले पस्त हों!
3. उस लड़की और ऐसी अन्य लड़कियों को सामान्य जीवन जीने में न केवल मदद करनी चाहिए, अपितु उन्हें प्रेरित कर हर तरह के व्यर्थ के ग्लानि भाव से मुक्त करना होगा, क्योंकि वे दोषी या अपराधी नहीं हैं।
4. समाज सुधार का कार्य अपने घर से शुरू करना होगा, अपने जीवन से जुड़े पुरुषों चाहिए वे पिता, भाई, पति, पुत्र या फिर मित्र हों, को स्त्री जाति के सम्मान और सुरक्षा के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि बलात्कारी मानसिकता का ह्रास हो।
5. ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह एकजुटता दिखानी होगी, चाहे कोई भी जगह हो दिल्ली या सुदूर के क्षेत्र, स्त्री हर जगह स्त्री है।
6. समर्थ लोग किसी बड़े आयोग के बजाय छोटी छोटी इकाइयों पर ध्यान दें, जहाँ पीड़ित महिलाओं की जल्द सुनवाई हो।
7. महिलाओं को अपनी बेटियों को मज़बूत बनाना होगा, मन से भी और शरीर से भी। उनके मन से बेचारगी के भाव को दूर कर किसी भी परिस्थिति से लोहा लेने के लिए सक्षम बनाना होगा। मेंटली काउंसलिंग और मार्शल आर्ट दोनों ही आप्शन आज जरूरी है .
8. महिलाओं को भी उपभोग की वस्तु जैसी मानसिकता से अब ऊपर उठना होगा, अस्मिता के दोहरे मापदंड को नकारना होगा, चाहे आप स्वयं हो या अन्य कोई महिला!
लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होगी, आप लोगों के विचार करने पर ढेरों बिंदु जुड़ सकते हैं, लेकिन इनकी सार्थकता इनके विचार-मात्र न रहकर क्रियान्वित होने पर ज्यादा है!"
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कवयित्री
गृहिणी
"उसे जिन्दगी से प्यार था..उम्मीद उसकी आँखों में की रोशनी की तरह झिलमिलाती थी..उसमें जीने, का जीतने का जज्बा था..मौत से भी दो दो हाथ करने का हौसला था..बस,उसके जिस्म ने ही उसके हौसलों का साथ छोड़ दिया..उम्मीद की वो रोशनी अब करोड़ों आँखों मे मशाल की तरह धधक रही है..उसका हौसला उबाल बन कर खून में गर्दिश कर रहा है.. ये मौत नहीं एक सवाल है..हर पुरूष से, क्या सचमुच तुमने कभी किसी स्त्री को,सिर्फ देह की तरह नहीं देखा ? हर स्त्री से, क्या सच में तुमने अपने सम्मान के लिए, समझौतों की बजाय ईमानदार संघर्ष की राह चुनी..ऐसे हजार सवाल और हैं..जवाब एक का भी नहीं..इल्जाम किसी और पर रख कर खुद को पवित्र समझ लेना कायरता है..अपने भीतर झांकिए और खुद से पूछिये? क्या सचमुच आप इस कुर्बानी से नजर मिलाने के काबिल हैं ? अगर हाँ,तो जरूर वो आपको देख कर मुस्कुरा रही होगी..आप ही उसकी उसके हौसले को जिन्दा रखेंगें..तो वादा कीजिए खुद से कि आप इस समाज की मौजूदा तस्वीर को बदलने की राह पर हैं.."
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"कुछ कहने सुनने से आगे बढना होगा अब..ये एक लडकी का मामला नहीं है मेरे लिए,मैं आहत हूँ हर उस स्त्री के लिए जिसका आत्मसम्मान बेरहमी से कुचला जा रहा है.जिसके प्रतिरोध की आवाज ताकत के जोर से दबा दी जाती है,और हमें कोई फर्क नहीं पड़ता तब तक जब तक कि वो हमारे घर की देहरी तक ना आ पहुँचे..हम स्त्रियाँ बुरी तरह फेल हुए हैं अगर हम ऐसी संतानो की माताएं है..और उन्हे स्त्री का सम्मान करना नहीं सिखा पाए है.."
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"हम छोटी छोटी मुसीबतों से घबरा कर मर जाने की इच्छा करते हैं कई बार... आज इस बच्ची ने सशक्त तरीके से सिखाया कि जिजीविषा क्या होती है..और जीवन कितना अनमोल.. उस माँ के लिए हृदय श्रद्धा से भरा है,जिसने उसमे ऐसा अदम्य साहस भरा.. उसकी पीड़ा मेरे अंतस में भरी है.."
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"दिल्ली में जब धरना प्रदर्शन और न्याय की माँग का जवाब सरकार आँसू गैस,वाटर कैनन से दे रही है..ठीक उसी वक्त प्ले स्कूल में जाने वाली एक साढे तीन साल की बच्ची को सेक्सुअली एसाल्ट किए जाने की घटना हुई है.. एक अफ्रीकी 25 वर्षीय छात्रा के साथ 2 व्यक्तियों द्वारा रेप की वारदात हुई है..सरकार अपनी ताकत प्रयोग अपने नागरिकों की सुरक्षा के लिअ क्यों नहीं कर पाती..क्या यह प्रत्यक्ष रूप से अपराधियों को बढावा देना नहीं माना जाना चाहिए...."
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आराधना चतुर्वेदी
Post-doc researcher · Delhi, India · December 2009 to present
a research fellow of ICSSR at JNU---doing research work on the topic---
"Women related provisions of Manusmriti and Yajnavalkyasmriti and its impact on women empowerment "--मनुस्मृति और याज्ञवल्क्यस्मृति के नारी-सम्बन्धी प्रावधानों का नारी-सशक्तीकरण पर प्रभाव .
"क्या ये मात्र संयोग है कि देश के जिस इलाके में सबसे अधिक भ्रूण-हत्या होती है, सबसे अधिक दहेज का प्रचलन है, सबसे कम सेक्स-रेशियो है, वहीं स्थित राजधानी में सबसे अधिक बलात्कार की घटनाएँ होती हैं?
इन घटनाओं का सम्बन्ध जहाँ एक ओर कानून-व्यवस्था की संवेदनहीनता से है वहीं इस मानसिकता से भी है कि औरतें सिर्फ एक भोग की वस्तु होती हैं, इंसान नहीं.
ये बात सच है कि अपराधी, अपराधी होता है, पर दिल्ली-एन.सी.आर. में औरतों के प्रति बढ़ती हिंसा और भी सवाल खड़े करती है. ये वही इलाका है जहाँ के पुलिस अधिकारी तक यह बयान देते पाए जाते हैं कि लड़कियों के साथ बलात्कार और छेड़खानी का कारण उनका पहनावा या पुरुष मित्र के साथ देर रात घूमना होता है. जहाँ छेड़खानी को इतने हलके में लिया जाता है जैसे वो कोई आम घटना हो. जहाँ छेड़खानी की रपट लिखाने जाने पर पुलिस कहती है 'कुछ हुआ तो नहीं, रिपोर्ट क्या दर्ज करें?'"
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"मैं दिल्ली में रहती हूँ. अकेले बाहर आती-जाती हूँ. शाम को जल्दी आने की कोशिश करती हूँ, पर सर्दियों में तो छः बजे अँधेरा हो जाता है.
अभी तक शॉक्ड हूँ कल की घटना से. बार-बार लग रहा है कि ये घटना मेरे साथ भी हो सकती है. सोच रही हूँ वेंटीलेटर पर गंभीर हालत में पड़ी उस लड़की के बारे में. "
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"घटनाओं का सरलीकरण बंद करें प्लीज़. घटना दिल्ली के पॉश इलाके में ज़रूर हुयी है, लेकिन लड़की भी उच्च वर्ग से हो ये ज़रूरी नहीं. उच्चवर्गीय लोग बस स्टैंड पर नहीं खड़े हुआ करते.दिल्ली विश्वविद्यालय का नॉर्थ कैम्पस, मुनीरका, लक्ष्मीनगर आदि ऐसे कई इलाके हैं, जहाँ सुदूर भारत के ग्रामीण इलाकों से आयी लड़कियाँ उच्चशिक्षा या प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए पी.जी. या हॉस्टल में रहती हैं. रात नौ-दस बजे लौटना उनके लिए आम बात है. हमारे इलाके से ही अक्सर लड़के-लड़कियाँ खाना खाने कैम्प तक चले जाते हैं और दस बजे तक लौटते हैं. इसके अतिरिक्त कोचिंग, नौकरी या बाज़ार से कुछ लेने भी अक्सर इतनी रात में निकलना मजबूरी हो जाती है. क्योंकि यहाँ उनके साथ उनके बाप-भाई नहीं रहते, वो ये सब काम अकेले करती हैं.
ये लड़कियाँ समाज को बदल रही हैं, दिल्ली विश्वविद्यालय में ही लड़कियों का प्रतिशत लड़कों से ज्यादा है, तो बाहर से पढ़ने आयी लड़कियों के कारण ही. मेरी चिन्ता सिर्फ इस बात की नहीं है कि उस लड़की से साथ ऐसा हुआ, मुझे डर इस बात का है कि मेरी भतीजी और ऐसे ही उच्च शिक्षा के लिए गाँवों से आयी बहुत सी लड़कियों को उनके घरवाले वापस न बुला लें.
बात सिर्फ सुरक्षा की नहीं है, बात लड़कियों की शिक्षा की, उनके आत्मनिर्भर होने की भी है. कहीं समाज का ये माहौल हमें वापस अठारहवीं सदी में न खींच ले जाय, जब सदियों से घर से बाहर निकलने से वंचित लड़कियों को शिक्षा के लिए बाहर निकालने के लिए समाज सुधारकों को कड़ी मेहनत करनी पड़ी थी. कहीं हम लड़कियों को वापस घरों में न भेज दें."
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कवयित्री
गृहिणी
Still I Rise
Still I Rise
By Maya Angelou b. 1928 Maya Angelou
You may write me down in history
With your bitter, twisted lies,
You may trod me in the very dirt
But still, like dust, I'll rise.
Does my sassiness upset you?
Why are you beset with gloom?
Cause I walk like I've got oil wells
Pumping in my living room.
Just like moons and like suns,
With the certainty of tides,
Just like hopes springing high,
Still I'll rise.
Did you want to see me broken?
Bowed head and lowered eyes?
Shoulders falling down like teardrops,
Weakened by my soulful cries?
Does my haughtiness offend you?
Don't you take it awful hard
Cause I laugh like I've got gold mines
Diggin’ in my own backyard.
You may shoot me with your words,
You may cut me with your eyes,
You may kill me with your hatefulness,
But still, like air, I’ll rise.
Does my sexiness upset you?
Does it come as a surprise
That I dance like I've got diamonds
At the meeting of my thighs?
Out of the huts of history’s shame
I rise
Up from a past that’s rooted in pain
I rise
I'm a black ocean, leaping and wide,
Welling and swelling I bear in the tide.
Leaving behind nights of terror and fear
I rise
Into a daybreak that’s wondrously clear
I rise
Bringing the gifts that my ancestors gave,
I am the dream and the hope of the slave.
I rise
I rise
I rise.
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दुनिया की तमाम औरतें सुंदर हैं ..उनसे सुंदर और कुछ नहीं
सुन्दरता स्त्री का मेरुदंड है जिसे उसका मस्तिष्क संचालित करता है और मस्तिष्क मुक्त है -कोई सुनहरा पिंजर या कारावास उसे डरा नहीं सकता, तब तक ..जब तक कि वह सचेत है .....
दामिनी ( guts )
दामिनी स्वस्थ होना है तुम्हें
और सुन्दर
मजबूत
मेरी बेटी , मेरे प्यार
क्योंकि
दुनिया की तमाम औरतें
जिन्दा हैं तुम्हारी आँत में
1
औरत होना
ये मेरा कानून है
कोई दफा-धारा नहीं
मेरे वजूद पर
2
मैंने इंकलाब की तरह
अपना औरत होना जिया
अगले जनम मोहे औरत ही कीजे
3
मैं औरत नहीं रीढ़ हूँ
दरिंदो के सामने खड़ी
अपने शब्दकोश को दुरुस्त करो तुम
4
मेरे देश
निकल के आ तो अपनी कब्र से
निकल के आ तो अपने कफ़न से
निकल तो आ ..
मैंने हिलाकर देखा तुझे
चंद सांस हैं
या मुर्दा मेरे ग़ालिब
बोल मैं क्या अता करूँ
तेरी अतील लाश को
5
मैंने अपनी आत्मा
कर दी है नग्न
इसका जख्म खुला रहे
और खून का हर छींटा तुम्हारी सफ़ेद शर्ट पर
दर्द बनकर लिपटे
... ... ...
इस बार मैं अकेली नहीं
तुम भी चीखकर
नग्न कर दो अपनी आत्मा
आओ सड़कों पर लाश की तरह नहीं
आदमी की तरह चलें साथ
आओ कि दर्ज करें अपना इंसान होना
आओ कि रोकर नहीं
आदमी की तरह करें विरोध
आओ कि बदल लें हम इस बार
अपनी-अपनी आत्मा
6
ओ मेरी जान
ओ मेरी औरत
इस बार तू अपनी पसली से
बना पुरुष
इस बार तू मेरी जान
अल्लाह हो जा
7
अगर मेरी स्मृति में कोई रक्तरंजित क्रांति का बीज बचा है
तो उसे मैं अपनी पुत्री को सौंपती हूँ
जा बिखेर दे इसे उस जंगल में
शेर को मचान से नहीं
मार सामने से .
8
अपनी हर कथा से
कविता के हर शब्द से
स्मृति के पहले पन्ने से
वर्तमान के कान पर चीखना
मेरी औरत
मेरी बेटी
और मेरी माँ
इस बार होने देना उसके कान
लहूलुहान
... रिसने देना उसका भविष्य
दुनिया की सबसे कमज़ोर औरत
तुम्हें कर रही है सावधान
अपनी कमजोरियों का
कर दिया है वध
अब तुम निशाने पर हो ......
9
मेरी हथेली इतनी कमज़ोर नहीं
कि आग हाथ में हो
और हाथ जले
मैं आग से निबटना जानती हूँ
सूरज से मेरी दोस्ती
सावधान ..
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स्वर्ण कांता
Worked at self Freelancer
"किसी स्त्री के साथ हुए बलात्कार को उसके इज्जत का या जीने-मरने का प्रश्न नहीं बनाया जा सकता...
यहां एक गंभीर अपराध हुआ है जिसकी गंभीर सजा मिलनी चाहिए...
किसी की इज्जत नहीं गयी, क्योंकि मैं नहीं मानती कि एक स्त्री की इज्जत उसके स्तन और जांघों और योनि से ही जुड़ी हुई है..."
काश यही सोच हमारे समूचे समाज की होती तो बलात्कार के बाद कम से कम पीड़िता का जीवन तो नष्ट नही होता ! साथ ही, हर पीड़ित लड़की समाज की वजह से चुप रहने की बजाय दोषियों के खिलाफ खुलकर आवाज उठाती !"
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"आफ्टर ऑल, ईट्स ए मैन्स वर्ल्डस् , बेबी’ जैसे जैसे एक मनुष्य की हैसियत पाने की स्त्री की जिद बढ़ती जा रही है, वैसे वैसे उसे उसकी पारंपरिक भूमिका तक सीमित करने के लिए दमन की धार तेज होती जा रही है...
कभी फेशनेबल कपड़ों को लेकर फजीहत, कभी पब-डिस्को थेक का ताना, कभी वक्त-बेवक्त निकलने पर हंगामा...
असम की वह 17 वर्षीय बाला हो, या 23 साल की यह मेडिकल स्टूतडेंट या और कोई... अब यह साबित हो चुका है कि...
बलात्कार किसी तीसरी टांग की कामुकता नहीं, उसका आहत अहम है जो किसी स्त्री को शोषित पीडि़त देखकर संतुष्ट होता है और उसके फैलते कद को देख हीन भावना से ग्रस्त हो उसे जलील करने में ही अपना पौरुष समझता है..
यह मैन्स् वर्ल्ड कब ‘ह्यूमैन्स् वर्ल्डे’ बनेगा..."
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अच्छा संयोजन है. आग को जगाए रखने में मददगार होगा. आभार.
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