Wednesday, August 29, 2012

जनम ले रहा है एक नया पुरुष : अनामिका










जनम ले रहा है एक नया पुरुष : अनामिका

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१.

सृष्टि की पहली सुबह थी वह !

कहा गया मुझसे

तू उजियारा है धरती का

और छीन लिया गया मेरा सूरज !

कहा गया मुझसे

तू बुलबुल है इस बाग़ का


और झपट लिया गया मेरा आकाश !

कहा गया मुझसे

तू पानी है सृष्टि की आँखों का

और मुझे ब्याहा गया रेत से

सुखा दिया गया मेरा सागर !

कहा गया मुझसे

तू बिम्ब है सबसे सुन्दर

और तोड़ दिया गया मेरा दर्पण |




बाबा कबीर की कविता की माटी की तरह नहीं,

पेपर मैशी की लुगदी की तरह

मुझे "रूंदा" गया,

किसी-किसी तरह मैं उठी,

एक प्रतिमा बनी मेरी,

कोई था जिसने दर्पण की किरचियाँ उठाई

और रोम-रोम में प्रतिमा के जड़ दी !

एक ब्रह्माण्ड ही परावर्तित था

रोम-रोम में अब तो !

जो सूरज छीन लिया था मुझसे

दौड़ता हुआ आ गया वापस

और हपस कर मेरे अंग लग गया !

आकाश खुद एक पंछी -सा

मेरे कंधे पर उतर आया |




वक़्त सा समुन्दर मेरे पाँव पर बिछ गया,

धुल गयी अब युगों की कीचड़ !

अब मैं व्यवस्थित थी !

पूरी यह कायनात ही मेरा घर थी अब !

अपने दस हाथों से

करने लगी काम घर के और बाहर के !

एक घरेलू दुर्गा

भाले पर झाड़न लपेट लिया मैंने

और लगी धूल झाड़ने

कायदों की, वायदों की, रस्मों की, मिथकों की,

इतिहास की मेज भी झाड़ी !

महिषासुर के मैंने काट दिए नाख़ून,

नहलाकर भेज दिया दफ्तर !

एक नयी सृष्टि अब

मचल रही थी मेरे भीतर !







२.

महाकाल सृष्टि का नौवां महीना है, छत्तीसवाँ महीना

मेरे भीतर कुछ चल रहा है

षड़यंत्र नहीं, तंत्र-मंत्र नहीं,

लेकिन चल रहा है लगातार !

बढ़ रहा है भीतर-भीतर

जैसे बढती है नदी सब मुहानों के पार !

घर नहीं, दीवार नहीं और छत भी नहीं

लेकिन कुछ ढह रहा है भीतर :

जैसे नयी ईंट की धमक से

मानो ख़ुशी में

भहर जाता है खँडहर !

देखो, यहाँ ... बिलकुल यहाँ

नाभि के बीचो बीच

उठते और गिरते हथौड़ों के नीचे

लगातार जैसे कुछ ढल रहा है

लोहे के एक पिंड सा



थोडा-सा ठोस और थोड़ा तरल

कुछ नया और कुछ एकदम प्राचीन

पल रहा है मेरे भीतर,

मेरे भीतर कुछ चल रहा है

दो-दो दिल धड़क रहें हैं मुझमें,

चार-चार आँखों से

कर रही हूँ आँखें चार मैं

महाकाल से !

थरथरा उठें हैं मेरे आवेग से सब पर्वत,

ठेल दिया है उनको पैरों से

एक तरफ मैंने !

मेरी उसांसों से काँप-काँप उठतें हैं जंगल !

इन्द्रधनुष के साथ रंगों से

है यह बिछौना सौना-मौना !

जन्म ले रहा है एक नया पुरुष

मेरे पातालों से __

नया पुरुष जो कि अतिपुरुष नहीं होगा __

क्रोध और कामना की अतिरेकी पेचिस से पीड़ित,

स्वस्थ होगी धमनियाँ उसकी

और दृष्टि सम्यक __

अतिरेकी पुरुषों की भाषा नहीं बोलेगा __

स्नेह-सम्मान-विरत चूमा- चाटी वाली भाषा,

बन्दूक-बम-थप्पड़-घुडकी- लाठी वाली भाषा ,

मेरे इन उन्नत पहाड़ों से

फूटेगी जब दुधैली रौशनी

यह पिएगा !

अँधियारा इस जग का

अंजन बन इसकी आँखों में सजेगा,

झूलेगी अब पूरी कायनात झूले-सी

फिर धीरे-धीरे खड़ा होगा नया पुरुष _

प्रज्ञा से शासित संबुद्ध अनुकूलित,

प्रज्ञा का प्यारा भरतार,

प्रज्ञा को सोती हुई छोड़कर जंगल

इस बार लेकिन नहीं जाएगा |




३.

मृत्यु का क्या !

वह तो मुहल्ले की लड़की है !

आगे नाथ, न पीछे पगहा !

काली माई की तरह बाल खोले हुए

घूमती रहती है इधर से उधर

दूअर - टापर |

एक बड़ी झाड़ू लिए

घूमती है वह

और झुककर बुहारती है

कौशल से पूरी सड़क

आकाश एक बड़ी बोरी है

उसकी ही पीठ पर पड़ी !

झाड़ू लगाती- लगाती

धम्म बैठ जाती है

वह तो कभी-भी कहीं

और देखते-देखते

घेर लेते हैं उसको

शूशी-शूशी खेलते

पिल्ले-बिलौटे और चूजे

वृद्धाएँ उसको बहुत मानती हैं ;

टूटी हुई खाट पर

टूटी हुई देह

और ध्वस्त मन लेकर

पड़ी हुई वृद्धाएँ

बची हुई साँसों की पोटली

और एक टूटी मोबाइल

तकिये के नीचे दबाए

करती हैं इसकी प्रतीक्षा

कि वह किलकती हुई

कहीं से आए,

जमकर करे तेल मालिश,

कहीं ले जाये !

उसके लिए छोड़ देती हैं वे

एक आटे की लोई !

खूब झूर - झूर सेंकती है

वह जीवन की रोटी !

साँसों की भट्ठी के आगे

छितराई हुई

धीरे - धीरे तोड़ती है

वह अपने निवाले तो

पेशानी पर उसके

एक बूँद चमचम पसीने की

गुलियाती तो है जरूर

पर उसे वह नीचे टपकने नहीं देती

आस्तीन से पोंछ देती है ढोल ढकर कुरते के !

कम- से- कम पच्चीस बार

हमको बचाने की कोशिश करती है

हमारे टपकने के पहले !

बड़े रोब से घूमती है

इस पूरे कायनात में यों ही !

आपकी परछाईं है न वह,

आप उसे बाँध नहीं सकते

हाँ, लाँघ सकते हैं सातों समुन्दर,

पर अपनी परछाईं लाँघ नहीं सकते !

डरना क्या !

वह तो रही,

वह रही -

मृत्यु ही तो है न,

मृत्यु - मुहल्ले की लड़की !




: कवयित्री अनामिका
१७ अगस्त १९६१, मुजफ्फरपुर (बिहार)
दिल्ली विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम. ए, पी.एचडी.
कविता संग्रह : गलत पते की चिट्ठी, बीजाक्षर, अनुष्टुप, समय के शहर में, खुरदुरी हथेलियाँ,डूब धान             .
आलोचना : पोस्ट -एलियट पोएट्री, स्त्रीत्व का मानचित्र , तिरियाचरित्रम, उत्तरकाण्ड, मन मांजने की जरुरत, पानी जो पत्थर पीता है .
शहरगाथा: एक ठो शहर, एक गो लड़की
कहानी संग्रह: प्रतिनायक
उपन्यास :अवांतरकथा, पर कौन सुनेगा, दस द्वारे का पिंजरा, तिनका तिनके पास
अनुवाद: नागमंडल (गिरीश कर्नाड), रिल्के की कवितायेँ , एफ्रो- इंग्लिश पोएम्स, अटलांट के आर-पार (समकालीन अंग्रेजी कविता), कहती हैं औरतें ( विश्व साहित्य की स्त्रीवादी कविताएँ )
सम्मान: भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार, राष्ट्रभाषा  परिषद् पुरस्कार , गिरिजाकुमार माथुर पुरस्कार,
ऋतुराज सम्मान और  साहित्यकार सम्मान
सम्प्रति: अंग्रेजी विभाग, सत्यवती कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय


इण्डिया गेट पर फर्गुदिया समूह द्वारा स्त्री विमर्श के लिए आयोजित गोष्ठी  'मशाल' में अपने विचार रखते हुए सुप्रसिद्ध कवयित्री अनामिका जी ने कहा " स्त्री देह बहुत ही नाजुक और कोमल होती है उसे पुरुष द्वारा ढोल की तरह नहीं पीटा जाना चाहिए ... ऐसा करने पर बन्दरघाव की तरह उसकी देह दभकेगी  ..उसकी मनः स्थिति को समझते हुए वीणा के तार की तरह छूना चाहिए तभी एक मधुर ध्वनि उत्पन्न होगी".  उन्होंने "जनम ले रहा है एक नया पुरुष " कविता का पाठ भी किया




Tuesday, August 28, 2012

" मुझे देना और प्रेम " तसलीमा नसरीन

प्रेम, प्रकृति, प्रवास , निर्वासन ... सभी भाव उनकी कविताओं में भरपूर दिखतें है .  चाहे वो प्रेम में डूबी स्त्री हो या ईंट तोड़ती स्त्री या देश से निष्काषित स्त्री हो ...  हर वर्ग की स्त्री की पीड़ा को बखूबी उन्होंने अपनी कविताओं में उकेरा है.
प्रस्तुत है हाल ही में वाणी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित  कवयित्री, कथाकार तसलीमा नसरीन का  कविता संग्रह  " मुझे देना और प्रेम " की कुछ कविताएँ.  कवी, कथाकार, निबन्धकार, कला-समीक्षक , अनुवादक प्रयाग शुक्ल द्वारा अनुवादित संग्रह .


 



































1.मैं तो नहीं कोई ऐसी चमत्कारी 

करते हो बात प्रेम की इतनी अधिक, कि बीच-बीच में
सचमुच मैं भूलवश कर लेती इस पर विश्वास कि
तुम करते  हो मुझे प्रेम |
समझना  उचित   था  मुझको  कि अनर्गल  कोई
 कुछ कह दे तो वह होता नहीं  सच  |
प्रेम केवल बात करने कि चीज़ नहीं,
प्रेम तो है निमग्न होने में, त्याग में |
तुम हो कितना निमग्न ?

मैं तो ऐसी कोई चमत्कारी नहीं कि मुझसे
करना ही होगा प्रेम |
मत करना प्रेम |
हजारो मनुष्य करते नहीं प्रेम,
तो क्या गयी मैं मर ?
मत करो प्रेम - यह  ज्यादा अच्छा है, मुझे
मिथ्या के जल में डुबोकर मेरी सांस रोक देने से !





2. चरित्र ही ऐसा है आदमी का
 चरित्र ही ऐसा है आदमी का
बैठो तो कहेगा बैठो नहीं
चलने को हो तो कहेगा क्या होगा
घूम फिरकर इधर-उधर, अरे बैठो

सो जाओ तो ताना --- न सोने पर भी
नहीं निश्चन्त,
कहेगा अच्छा रहेगा कुछ देर सो लेना |

उठक बैठक करते हुए नष्ट हुए जाते हैं दिन
मरने जाओ तो कह उठेगा ---जियो |
पता नहीं कब देखकर जीते हुए कह उठे -- अरे मरो |
बड़े भय से रहती हूँ जीती हुई गुपचुप |



3. ईंट तोड़ने वाली लड़की

रास्ते के किनारे बैठ लड़की एक तोड़ती ईंट
लाल  साड़ी    पहने    लड़की     तोड़ती   ईंट
धूप में तपती तोड़ती लड़की   तोड़ती     ईंट 
तांबे के  रंग   वाली   लड़की    तोड़ती    ईंट
उम्र है इक्कीस की, लगती है
चालीस  से  ज्यादा |

घर में एक नहीं दो नहीं, हैं संतानें सात |
सारा दिन तोड़ती जाती ईंट लड़की |
दिन भर के बाद देगा महाजन
गिनकर रुपये देगा दस |

दस रुपये से नहीं चलता उसका काम
नहीं जुटता सात पोषितों का भरपेट खाना |
लड़की फिर भी तोड़ती जाती ईंट रोज |
पास बैठा जो पुरुष तोड़ता ईंट,
वह तोड़ता है एक छतरी तले बैठा,
दिन बीतने पर उस पुरुष को मिलते रुपये बीस
पुरुष होने से भी मिलता उसे दोगुना |

लड़की की है गोपन इच्छा  एक, बैठे वह भी
धूप में नीचे छतरी के
उसकी है इच्छा एक और भी गोपन
हठात बन जाए वह पुरुष किसी भोर बेला में
पुरुष होने पर बीस, पुरुष होने पर दोगुना |

करती अपेक्षा वह, किन्तु कहाँ हो पाती
किसी छूमन्तर से पुरुष वह
एक मलिन छतरी भी जुटती नहीं भाग्य में उसके |
लड़की की तोड़ी हुई ईंट से बनता नया रास्ता ,
उठती इमारतें बड़ी-बड़ी शहर में |
इधर उड़ गया है छप्पर लड़की के घर का,
अंधड़ में पिछले साल हुए उसमें कई छेद,
उस पर जो टाट जड़ा छू दे यदि उसको तो
झर-झर झरने लगता जल |
चाहती है खरीदना वह पाउडर का डिब्बा एक,
रखती नहीं गोपन इसे
जोर से सुनाकर कहती है वह खरीदेगी पाउडर,
सुनकर हँसते लोग,कहते अहा ! चाहिए उसको
केशों में तेल, पाउडर मुख में |
सात पोषितों के घर, तपती लड़की
धूप में, होती रहती ताम्बई
दिन-दिन अंगुलियाँ उसकी होती जाती
ईंटों की तरह सख्त |
लड़की खुद भी होती रहती है ईंट
होते होते होती वह ईंट से अधिक मजबूत,
हथौड़ी से टूटती  है ईंट,
लड़की टूटती नहीं |
धूप में तपती, खाली मन खाली पेट रहना,
पाउडर न मिलना - कष्ट ये
सब करते नहीं अब उसे स्पर्श !


5.परवास

किसके कारन किस दोष में
आज मैं हूँ परवास में
उत्तर नहीं मालूम |
जानती केवल यह जीवन की नदी में उत्ताल
वर्षा की ऋतु में,
परती गयी है बिछ |

Sunday, August 26, 2012

"कठपुतलियाँ" - कहानी संग्रह , मनीषा कुलश्रेष्ठ

: मनीषा कुलश्रेष्ठ
एम.फिल (हिंदी साहित्य), विशारद (कथक)
पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछाई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं,केयर ऑफ़ स्वात घाटी, (गंधर्व-गाथा)
दो उपन्यास (शिगाफ़, शालभंजिका )
अनुवाद - 'माया एँजलू की आत्मकथा' वाय केज्ड बर्ड सिंग' के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास 'हाउस मेड ऑफ़ डान' के अंश , बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
पुरस्कार व सम्मान: 
चंद्रदेव शर्मा पुरस्कार - 1989 (राजस्थान साहित्य अकादमी ),
कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप -२००७, डॉ घासीराम वर्मा सम्मान -2009 ,
रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष -2010 (राजस्थान साहित्य अकादमी) , कृष्ण प्रताप कथा सम्मान- 2012
शिगाफ़' का हायडलबर्ग (जर्मनी) के साउथ एशियन मॉडर्न लेंग्वेजेज़ सेंटर में वाचन
स्वतंत्र लेखन और हिंदी वेबपत्रिका 'हिंदीनेस्ट' का दस वर्षों से संपादन .



altकठपुतलियाँ : मनीषा कुलश्रेष्ठ 



सुगना जब-जब कोठरी के अंदर-बाहर जाती, दरवाज़े के पीछे लटकी कठपुतलियां उससे टकरा जातीं... उसे रोकतीं अपनी कजरारी, तीखी, फटी-फटी आंखों से, चमाचम गोटे के लहंगों वाली रानियां, नर्तकियां और अंगरखे-साफे वाले, आंके-बांके, राजा-महाराजा और घोड़े पर सवार सेनापति। ढोलकी वाला विदूषक और सारंगी वाली उसकी साथिन। दीवाना मजनूं और नकाब वाली उसकी लैला। कभी सुगना उदास होती तो इन कठपुतलियों का एक साथ ढेर बनाकर ताक पर रख देती और सांकल लगाकर गुदड़ी पर ढह जाती। कभी गुस्सा होती तो ज़ोर से झिंझोड़ देती सबके धागे। कुछ मटक जातीं, एक दूसरे में अटक जातीं। किसी नर्तकी की गर्दन उसी के हाथों में उलझ जाती। कोई राजा डोर से टूट मुंह के बल गिरा होता। ढीठ मालिन टोकरी समेत उसके ऊपर। प्यार आता तो उनके धागे सुलझाती, टूटे जेवर ठीक करती, उधड़े गोटे-झालर सींती या नए कपड़े बनाती।
कभी-कभी वह अपने हाथ-पैर देखती तो उसे लगता उनमें भी एक अदृश्य डोर बंधी है। उसे महसूस होता कि ये जो वक्त है न, नौ से चार बजे का, वह दो प्रस्तुतियों के बीच परदा डाल के मंच के पीछे लटका दी गई कठपुतली के आराम का समय है। अब होती हैं कुछ दीवानी कठपुतलियां, देह के साथ-साथ मन भी पसारने वाली। वह भी वैसी ही एक बावरी कठपुतली है... जो डोरों से मन को विलग कर नया खेल रचती है। सूत्रधार की समझ से परे का खेल। कुछ मौलिक कुछ अलग जो जीवन का विस्तार दे जिसमें उसकी अलग भूमिका हो, इंतज़ार करती बीवी, बच्चे पालती मां से एकदम अलग। अपनी देहगंध से बौराती, अपने मन से संसर्ग का साथी चुनती एक आदिम औरत की सी भूमिका। वह इन अनचाहे रिश्तों के डोरों से उलझकर थक गई है। ये रिश्ते जो उसके ख़ून तक के नहीं हैं। उसके ख़ून के रिश्ते तो कहीं दूर छिटक कर गिर गये हैं। छोटका भाई याद आता... किसी और ड्योढ़ी नाते बैठी मां याद आती। ऐसी ड्योढ़ी जहां से उसे कभी कोई बुलावा नहीं आने वाला। बापू होता तो उसकी कोई तीज यूं सासरे में बीतती?
कितना हंसी थी उसकी सहेलियां, जब उन्हें पता चला था कि उसका ब्याह गांव-गांव जाकर, स्कूलों, मेलों और त्यौहारों, शादी-ब्याह में कठपुतली का खेल दिखाने वाले के साथ तय हुआ है। `तुझे भी नचाएगा वो लंगड़ा कठपुतली बनाकर।' कहकर उसकी पक्की सहेली रूनकी हंसते-हंसते रो पड़ी थी।
धाक धिना धिन धा... चीं... चीं... चीं... अब आ रही है तुर्क के तैमूरलंग की सवारी... चूं च्यू धिन धिन धा...!
बापू तो कहीं और बात तय कर गये थे, वो जोगेन्दर था... दसवीं फेल था। जीन्स की पेन्ट और लाल कमीज पहनता और धूप का चश्मा लगाता। सब जोगी कहते। पर उनके आंखें मूंदते ही लेन-देन की बात पर बाई ने तीन साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया। रिश्ता टूट गया तो जहन में गूंजता नाम भी पीछे छूट गया। तेरह साल की सुगना बाई का ब्याह तीस बरस के अपाहिज और विधुर कठपुतली वाले रामकिसन से हो गया। सुगना के सपने में पैर कटी कठपुतलियां आने लगीं। बापू के मरने के दो साल के अन्दर ही, उसकी बाई ख़ुद जाके पास के गांव के एक खेती-किसानी वाले दूसरी जात के आदमी के घर नाते बैठ गयी थी और अपने संबंध की जल्दी में सुगना का गौना पन्द्रह साल की होने से पहले ही कर दिया, बिना सगुन-सात, लगभग खाली हाथ भेज दिया सासरे। ज़मीन-घर सब बेच के छोटके को लेकर वह चली गयी।
घूंघटे में से ऊंटगाड़ी से उतर कर चलते हुए रामकिसन को देखा था... बलिष्ठ देह के होते हुए भी एक पैर पोलियो की मार ने पतला कर दिया था सो एक हाथ गोड़े पे टिका के हचक-हचक कर चलता था। यूं साइकिल भी चला लेता था... एक पैर से तेज़-तेज़ पैडल मारता, दूसरा पैर सहारे के लिए दूसरे पैडल पर बस ज़रा-सा टिकाता... यह छोटा पैर पहुंचता भी नहीं था दूसरे पैडल तक, पर सायकिल की गति में कमी नहीं आती।

पन्द्रह बरस की सुगना, सात और चार बरस के बंसी और नंदू, जिनकी वो मां बन गई थी। तोते की तरह `मां   , `बाई  ' रटते नंदू-बंसी। वह सोचती कि वो और उसका छोटका भाई तो बाई के सगे बालक थे... जब वो बाई के आगे-पीछे `मांए' या `बाई ए' कहते हुए घूमते तो बाई कितना रीस जाती... चिल्लाती... `चोप!' सुगना खीजती नहीं थी, पर सुनती भी नहीं थी। वह सोचती कि यह मुझे नहीं, बादलों के पार जा के बसी अपनी मां को पुकारते हैं अभागे।

Saturday, August 18, 2012

"इन्द्रधनुष और बच्चे"

"इन्द्रधनुष और बच्चे"

दिनांक १४/८/२०१२ को फर्गुदिया समूह द्वारा कला और लेखन प्रतियोगिता का थाना कीर्ति नगर नयी दिल्ली में आयोजन किया गया | प्रतियोगिता में सर्वोदय विद्यालय मानसरोवर गार्डेन के करीब पैंतीस बच्चों ने भाग लिया | स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर आयोजित इस कार्यक्रम में बच्चों को किसी विषय विशेष की सीमा में न बांधकर अपनी अभिरुचि के अनुरूप स्वतंत्र रूप से कला चित्रण के लिए प्रेरित किया गया | प्रतिभागियों में से अधिकांश ने प्रकृति व अपने आस-पास की घटनाओं का चित्रण किया तथा अपने चित्रण से सम्बंधित प्रभावशाली पंक्तियाँ भी लिखीं | कार्यक्रम का मुख उद्देश्य कला और लेखन से जुड़ी छिपी हुई प्रतिभा को बाहर लाना था , हमने जितनी उम्मीद की थी उससे भी कहीं ज्यादा होनहारी का परिचय देते हुए बच्चों ने बहुत ही अच्छी चित्रकारी की ,अधिकतर बच्चों ने कला और लेखन के माध्यम से पर्यावरण की रक्षा का नेक सन्देश दिया , कुछ ने वर्गों में विभाजित असमानता को अपनी कला के माध्यम से व्यंग के रूप में चित्रित किया , बालमन से निकली अद्भुत चित्रकारी ने सभी का मन मोह लिया , तीसरी कक्षा की एक प्यारी सी नन्ही परी जिसका नाम "चाँद" था कार्यक्रम का आकर्षण बनी रही | चाँद को उनकी सुन्दर चित्रकारी के लिएप्रोत्साहन पुरस्कार भी दिया गया |



कार्यक्रम में उपस्थित चंद्रकांता ,आनंद जी , निरुपमा जी लगातार बच्चों को प्रोत्साहित करते रहे ,वंदना ग्रोवर जी और भरत जी ने जिस तरह से पूरे कार्यक्रम को संचालित किया और पैंतीस बच्चों में से पाँच प्रतिभागियों के चयन के लिए निर्णायक मंडली का गठन किया उनकी रचनात्मक क्षमता और उससे जुड़े अनुभव तारीफ के काबिल हैं, श्री अनिल कुमार जायसवाल जी ने निर्णायक मंडली में मुख्य भूमिका निभाई , सर्वश्रेष्ठ छः प्रतिभागियों को पुरस्कृत भी उन्होंने ही किया | उन्होंने बहुत से बच्चों को बाल्पत्रिका नंदन उपहार स्वरुप भेंट की | स्वर्णकांता , रितुपर्णा , श्रीमती मंजू दीक्षित , श्री महेश दीक्षित जी ने कार्यक्रम में न सिर्फ अपनी गरिमामय उपस्थिति दर्ज कराई कार्यक्रम में भरपूर सहयोग भी दिया | ज्योत्सना तिवारी , अरुशी तिवारी और प्रगति मिश्रा ने " इन्द्रधनुष" के रंगों को और भी ज्यादा रंगीन कर दिया |



करीब दो घंटे तक चली इस अनोखी प्रतियोगिता के ख़त्म होने के बाद प्रतिभागी बच्चों के साथ कार्यक्रम में उपस्थित सभी मित्रों ने कुछ खुशनुमा पल बिताये , कुछ देर के लिए हम सभी भूल गए की हमारी उम्र क्या है , उन मासूमों के साथ हँसते खिलखिलाते हम सभी को यूँ लगा कि मानों हम भी अपने बचपन में पहुँच गएँ हों |





निर्णायक मंडल में सम्मिलित श्रीमती वंदना ग्रोवर, श्री अनिल कुमार जायसवाल ( बाल पत्रिका नंदन के मुख्या कापी संपादक ), श्री भरत तिवारी, श्री आनंद द्विवेदी ,श्रीमती निरुपमा सिंह व श्रीमती स्वर्णकांता ने सर्वसम्मति से छः प्रतिभागियों को पुरस्कृत किया , जिनके नाम हैं ..



सूरज कुमार - प्रथम पुरस्कारचंचल सिंह - द्वितीय पुरस्कारबिट्टू - तृतीय पुरस्कार चाँद , चन्द्र प्रकाश और अंकित को सांत्वना व् प्रोत्साहन पुरस्कार से पुरस्कृत किया गया |



कार्यक्रम में कीर्ति नगर थानाध्यक्ष की विशेष सहभागिता के लिए उनका बहुत धन्यवाद !

शोभा मिश्रा

Sunday, August 12, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करती रितुर्पणा मुद्राराक्षस


रितुर्पणा मुद्राराक्षस
फ्रीलांस राईटिंग
कवयित्री, ब्लॉगर
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताएँ प्रकाशित


छेड़-छाड़, मोलेस्‍टेशन और रेप जैसी घृणित अपराधों के जितने भी मामले सामने आते हैं उनमें कई बार आरोपियो की पहचान और उनके विरुद्ध कार्रवाई में बेवजह देरी से पीडि़ता की परेशानियां बढ़ती हैं... समाज भी ऐसे मामलों पर चुप्‍पी साध लेता है... पीडि़ता और उसका परिवार अकेले ही कोर्ट-कचहरी का झमेला झेलते हैं ओर दबंग फिर से किसी और को अपनी दबंगठ्र दिखाने के लिए मजे से बाहर घूमते हैं...
न्‍याय की यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है पीडित स्‍त्री के लिए यातना ही साबित होती है... जबकि, इस तरह के मामलों का तुरत-फरत निपटान होना चाहिए... लेकिन कैसे....? मेरा सुझाव है कि...

1. कंज्‍यूमर कोर्ट की ओर से स्‍त्री-उत्‍पीड़न के सभी मामलें एक विशेष कोर्ट में चलें..
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2. यदि सार्वजनिक स्‍थलों पर ऐसी घटना हो जहां चश्‍मदीद गवाह हैं तो फिर FIR कतई जरूरी ना हो... यानि आरोपियों को सीधे सजा हो...

3. इन मामलों में आरोपियों को (अग्रिम) जमानत हरगिज नहीं दी जाए..
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4 .छेड़-छाड़ जैसे मामलों के लिए भी न्‍यूनतम सजा की अवधि 7 साल या अधिक हो... और, इससे मुमकिन बनाने के लिए हमें मिलकर बदलाव की बयार लानी होगी ताकि शोषक को सजा मिले ना कि शोषित को...
दूसरी बात जिसे मैं यहां उठाना चाहती हूं वो सोशल मीडिया में पनप रहे मर्दवादी सोच की मुखालफत में है.. इन सोशल साईट्स पे स्‍त्री या पुरुष के भेद से परे अपनी बात कहने का हक सभी को है... होना चाहिए... लेकिन होता क्‍या है... आप को हमारे प्रोफाइल फोटो बदलने... हमारी पोस्‍ट पर आने वाले लाइक्‍स और कमेंट्स की संख्‍या पर आपत्ति है... क्‍योंकि हम स्‍त्री हैं... क्‍योंकि हम अपनी खूबसूरत प्रोफाइल फोटो लगाती हैं और उसे हम बार-बार बदलती रहती हैं... इसलिए हमारी पोस्‍ट पर लोग लाइक्‍स या कमेंट करने के लिए टूटे पड़ते हैं... यह आप के भीतर ऊनती पुरुषवादी, सामंती मानसिकता का नमूना भर है...क्‍यों भई... आप को आपत्ति क्‍यों है... चेहरा हमारा... फोटो हमारी... हमारा मन करेगा हम दिन में 24 बार अपनी प्रोफाइल पिक बदलेंगी...
आप के पेट में क्‍यूं दर्द होता है... और अगर 'so called intellectuals' पुरुष भी इस तरह की हीन-ग्रंथि से ग्रसित हों तो क्‍या कहा जाए... आप खुद ही सोचिए...

रितु  जी ने अपने इस वक्‍तव्‍य के बाद हमारे आग्रह पर अपनी दो कविताओं को हमसे शेयर किया...


1.
अपना आसमान खुद चुना है मैंने
आकांक्षाओं की पतंग का रंग भी
मेरी पसंद का है
डोर में बंधी चाहना की कलम से लिखी
इबारत में करीने से
'निजता' और 'खुदमुख्तारी' बुना है.
बुर्जुआ चश्मे पहन जिसे
'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
और घोषित करते हो सरेआम
कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
और रुग्ण सोच का
अमलगम
क्यों मेरी मनःस्विता पर गोदते हो?
बताओ तो!



 2. 'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों
अंतरिक्ष के दायरे से बाहर फैले
अपने व्यक्तित्व के हिज्जे
कविताओं की स्लेट पर उड़ेलती हैं
कलम की नोंक पर
आसमान सिकुड़ आता है.

शब्दों की दहकती आंच में
मक्का के दानों सी भूंजती हैं अनुभव
फूटते दानों की आवाज़
स्त्री-विमर्श के आंगन में
गौरय्या सी फुदकती है.

पृथ्वी के केंद्र में
दरकती चट्टानों सी विस्फोटक है
औरतों के ह्रदय की उथल-पुथल
उनकी कविताओं की इबारतों में
यह लावा बनकर बहती है.

Thursday, August 09, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करते भरत तिवारी



भरत तिवारी 
आर्किटेक्ट और इंटीरियर डिजाईनर
लेखन के साथ-साथ संगीत और फोटोग्राफी में भी विशेष रूचि रखतें हैं.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में गज़लें प्रकाशित हैं.
मुंबई के प्रसिद्ध पृथ्वी थियेटर में एकल कविता पाठ.



 'मशाल' कार्यक्रम में भरत तिवारी जी अपनी कविता  "घटिया ओछे नाकारा हम" के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया ..

घटिया ओछे नाकारा हम

इक अनहोनी घट गयी
के सारा आलम सोते से जाग गया
अबला का शारीरिक शोषण
टी.वी. ने दिखाया
और तब !!! सबको पता चल गया कि
अभद्रता कि सीमा क्या होती है
नेताओं के बिगुल
स्त्री समाज की मुखिया
जिन पर खुद आरोप हैं
शोषण करवाने के
नए नए तरीके के व्याख्यान देने लगे
अरे ! हाँ !
वो क्या हुआ राजस्थान वाले केस का

रोना आता है इस समाज के खोखलेपन पर
जहाँ हर घड़ी
घर के आँगन से शहर के चौक तक
रोज़ ये हो रहा होता है
और समाज आँख खोले
सो रहा होता है,
और जो उबासी आये तो पुलिस को गरिया दिया
... भई ये सब तो शासन ने देखना है ना !!!
हम  क्या करें ?
... अब इन्तिज़ार है सबको
ऐसा कोई वी.डी.ओ
सामूहिक बलात्कार का भी आ जाए
तो थोडा और जागें ..
या फ़िर रेप के वी.डी.ओ का इन्तेज़ार है
( जाओ बेंडिट क्वीन देख लो अगर व्यस्क हो गए हो )

किसको बहला रहे हो मियाँ

अन्दर जो आत्मा ना मार डाली हो
तो झाँक लेना ...
फ़िर सो जाना
सच सुनकर नींद अच्छी आती है

घटिया ओछे नाकारा 


Tuesday, August 07, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करते आशुतोष कुमार जी

आशुतोष कुमार
हिंदी विभाग में सहायक प्रोफ़ेसर
दिल्ली विश्वविद्यालय
जन संस्कृति मंच  के राष्ट्रीय पार्षद
इससे पहले अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में..
सहायक प्रोफ़ेसर रह चुकें हैं.
सामाजिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक ..
मुद्दों पर गहरी जानकारी रखतें हैं.


 'मशाल' कार्यक्रम में  आशुतोष कुमार जी ने अपने प्रभावशाली वक्तव्य में कहा कि हर स्त्री जो अपने अन्दर की ताकत पहचानकर खड़ी हो जाती है, वो स्त्री मुक्त है .स्त्री सिर्फ स्त्री के पक्ष में न खड़ी होकर समूची मनुष्यता के पक्ष में खड़ी होती है तभी बदलाव संभव है. उन्होंने सोनी सोरी पर लिखी अपनी एक मार्मिक कविता का भी पाठ किया .

राष्ट्र /देश

एक

निष्कवच स्त्री - देह पर

नुकीले पत्थरों से

एक वर्दीवाला गुंडा


अंकित

करता है

जिस की वीरगाथा


राष्ट्र

वह तुम्हारा है .


देह को हथियार में बदलतीं

स्त्रियाँ जहां लिखतीं हैं

अपने रक्त से

सच की बारहखड़ी

स से सोनी सोरी

च से चानू इरोम शर्मिला

देश

वह

हमारा है.


दूसरे दिन फेसबुक पर उन्होंने 'मशाल' कार्यक्रम के पक्ष में महिला अपराध में संलिप्त हमलावरों को आगाह करते हुए पूरे स्त्री समाज की तरफ से उन्हें कुछ इस तरह चेतावनी दी _______

"फरगुदिया तेजस्वी लेखिकाओं का फेसबुक समूह है .आज इस समूह ने एक तारीखी पहल ली. इंडिया गेट पर स्त्री उत्पीडन के विरुद्ध प्रतिवाद गोष्ठी. चर्चा हुई , कवितायेँ पढ़ी गयीं , संकल्प लिए गए .प्रतिरोध की यह छोटी सी घटना एक बड़ा सन्देश है . हमलावरों,, सम्हल जाओ कि अब हम खुद खुले में आ रहीं हैं . घिरे अँधेरे में हमला करना और बच निकलना आसान होता है . उत्पीडित का निर्भय खुले में आ जाना ही हमलावर के भयभीत हो कर अँधेरे में छुप जाने के लिए काफी है."





आशुतोष जी के वक्तव्य का विडियो लिंक नीचे है 


http://www.youtube.com/watch?v=xKfB9ndu5N0





Monday, August 06, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करती उमा गुप्ता

उमा गुप्ता

सहायक प्रोफ़ेसर

इन्द्रप्रस्थ कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय

(अखिल भारतीय प्रगतिशील महिला संगठन जी कार्यकारिणी की सदस्या)


नारी स्वातंत्र्य पर बात करते हुए उमा जी ने कहा कि स्त्रियों को अपने अधिकारों के लिए सजग होना होगा. इसमें सम्पत्ति का अधिकार शामिल है. नारी की सुरक्षा को लेकर बने कानूनों पर बात करते हुए उन्होंने कहा कि वे उतने व्यापक नहीं हैं जितने होने चाहिए. बलात्कार और मोलेस्टेशन को हमारा कानून जिस तरह परिभाषित करता है उसमें नारी को जैसा न्याय मिलना चाहिए, नहीं मिल पाता.

उमा जी ने इस बात पर जोर दिया कि स्त्रियों की सुरक्षा और स्वतंत्रता पर बात करने वाले, उनका समाधान
ढूंढने वाले स्त्री संगठनों की अपरिहार्यता पर पुनर्विचार करना जरूरी है. संगठन हैं, लेकिन उन तक पहुँचने की
जागरूकता का अभाव है.जिस उद्देश्य से स्त्रियों के लिए संगठन बनाये गएँ हैं उसके लिए वो ईमानदारी से प्रयास कर रहें हैं या नहीं
 .
     
घर, बाहर और 
राजनीति के क्षेत्र में हर जगह स्त्रियों का उत्पीड़न हो रहा है.. स्त्रियों के साथ हो रहे
अपराधों को रोकने के लिए 'मशाल' जैसे आयोजन के माध्यम से विरोध प्रदर्शन बहुत जरुरी है, स्त्रियों के

 हित में आगे भी  ऐसे आयोजन होते रहने चाहिए.





Sunday, August 05, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करती अंजू शर्मा

अंजू शर्मा
कवयित्री, लेखिका, ब्लॉगर
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख प्रकाशित होतें रहतें हैं
कविता पाठ के आयोजन में बतौर कवि और आयोजक सक्रिय भूमिका



अंजू की अधिकतर कविताएँ ही अपने आप में एक सम्पूर्ण स्त्री विमर्श है , 'मशाल' कार्यक्रम में उन्होंने अपनी एक  प्रभावशाली कविता "पब से निकली लड़की"  का पाठ किया ..


पब से निकली लड़की

पब से निकली लड़की
नहीं होती है किसी की माँ, बेटी या बहन,
पब से निकली लड़की का चरित्र
मोहताज हुआ करता है घडी की तेजी से
चलती सुइयों का,
जो अपने हर कदम पर कर देती हैं उसे कुछ और काला,

पब से निकली लड़की के पीछे छूटी
लक्ष्मणरेखाएं हांट करती हैं उसे जीवनपर्यंत,
जिनका लांघना उतनी ही मायने रखता है जितना कि
उसे नैतिकता का सबक सिखाया जाना,

पब से निकली लड़की अभिशप्त होती है एक सनसनी में
बदल जाने के लिए,
उसके लिए गुमनामी की उम्र उतनी ही होती है
जितनी देर का साथ होता है
उसके पुरुष मित्रों का,

पब की लड़की के कपड़ों का चिंदियों में बदल जाना
उतना ही स्वाभाविक है कुछ लोगों के लिए,
जैसे समय के साथ वे चिन्दियाँ बदल जाती हैं
'तभी तो', 'इसीलिए' और 'होना ही था' की प्रतिक्रियाओं में,

पब से निकली लड़की के,
ताक पर रखते ही अपना लड़कीपना,
सदैव प्रस्तुत होते हैं 'कचरे' को बुहारते 'समाजसेवी'
कचरे के साथ बुहारते हुए
उसकी सारी मासूमियत अक्सर
वे बदल जाते हैं सिर्फ आँख और हाथों में,

पब से निकली लड़की की आवाजें,
हमेशा दब जाती हैं
अनायास ही मिले
चरित्र के प्रमाणपत्रों के ढेर में,
पब से निकली लड़की के ब्लर किये चेहरे पर
आज छपा है एक प्रश्न
कि उसका ३० मिनट की फिल्म में बदलना
क्या जरूरी है समाज को जगाने के लिए,
वह पूछती है सूनी आँखों से
क्या जरूरी है ....उसके साथ हुए इस व्याभिचार का सनसनी में बदलना
या जरूरी है कैमरा थामे उन हाथों का एक सहारे में बदलना.........

Saturday, August 04, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करती अरुण देव जी की कविताएँ




अरुण देव
युवा कवि और आलोचक
क्या तो समय , कविता संग्रह ज्ञानपीठ से २००४ में प्रकाशित
पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख
ई पत्रिका समालोचन का संपादन
www.samalochan.blogspot.com

सम्प्रति- सहायक प्रोफेसर
साहू जैन कालेज,नजीबाबाद (बिजनौर,उ.प्र.)
मोब.- 09412656938
ई.पता- devarun72@gmail.com

अरुण देव की कविताएँ

(फर्गुदिया के कार्यक्रम में २३/७/२०१२., इण्डिया गेट, नई दिल्ली में पढ़ी गईं)



1-हत्या
उसकी हत्या हुई थी.
सड़क से गाँव के रास्ते का एक हिस्सा सुनसान था.
 खेतों से होकर गुजरता था. वही से वह गायब हुई.
वही गन्ने के खेत के पीछे उसका शव मिला,
कई दिनों बाद. चेहरा झुलसा हुआ. कपड़ो से पहचानी गई.

पिता ने ज़ोर देकर कहा कपड़ो से पता चलता है उसके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ है.
 लड़की ने मरते मरते भी कुटुंब की लाज़ बचाई.

कहीं बाहर नौकरी करता भाई आया था.
चेहरे पर थकान.
जैसे किसी झंझट में पड़ गया हो.

घर के लोग अब जो हो गया सो गया का भाव लिए कुछ आगे करने के बारे में संशय में थे.
 एक पड़ोसी ने यह भी कहा कि क्या जरूरत थी जवान लड़की को पढाने की.

वह सिपाही बनना चाहती थी.
कोचिंग करने समीप के नगर में जाती थी.
अन्त समय उसने मोबाईल से जिनसे बातें की वे भी उसके मौसरे भाई,
चचेरे भाई थे. ऐसा उस लड़की की जाति-बिरादरी के लोग कह रहे थे. बार-बार



अगर लड़की किसी के प्रेम में होती और तब उसकी हत्या होती
तो इसे स्वाभाविक माना जाता,
उसके इस स्वेछाचार का अन्त यही होना था,
इसी किस्म से कुछ कहा जाता.
और कुटुंब के लिए यह बदनामी की बात होती.

उसकी बस हत्या हुई थी.
उसका किसी से प्रेम या शारीरिक सम्बन्ध नहीं था.
यही राहत की बात थी.

एक लड़की जो स्त्रीत्व की ओर बढ़ रही थी
इसी के कारण मार दी गई

उसके लंबे घने काले केश जो इसी दुनिया के लिए थे

उसका चमकता चेहरा
जिसकी रौशनी में कोई न कोई अपना दिल जलाता

वह एक उम्मीद थी
उसे अपना भी जीवन देखना था

अगर वह प्रेम में होती, बिनब्याही माँ बनने वाली होती,
उसके बहुत से प्रेमी होते
या वह एक बेवफा महबूब होती
तो क्या उसकी हत्या हो जानी चाहिए थी
क्या अब हम हत्या और हत्या में भी फर्क करेंगे.







2-मेरे अंदर की स्त्री

तुम्हारे अंदर जो अँधेरा है
और जो जंगल है घना, भीगा सा
उबड खाबड से बीहड़ हैं जो दु:स्वप्नों के
उसमें मैं एक हिरन की तरह भटकता हूँ
कोई गंध मुझे ढूंढती है
किसी प्यास को मैं खोजता रहता हूँ

यहाँ कुछ मेरा ही कभी मुझसे अलग होकर भटक गया था
मैं अपनी ही तलाश में तुम्हारे पास आया हूँ

कब हम एक दूसरे से इतने अलग हुए
की तुम स्त्री बन गई और मैं पुरुष
क्या उस सेब में ऐसा कुछ था जो तुमने मुझे पहली बार दिया था

उस सेब के एक सिरे पर तुम थीं
मुझे अनुरक्त नेत्रो से निहारती हुई और दूसरी तरफ मैं था आश्वस्त...
कि उस तरफ तुम तो हो ही

तब से कितनी सदियाँ गुज़री
कि अब तो मेरी भाषा भी तुम्हें नहीं पहचानती
और तुम्हारे शब्द मेरे ऊपर आरोप की तरह गिरते हैं
तुमने भी आखिरकार मुझे छोड़ ही दिया है अकेला
अपने से अलग
हालाकि तुम्हारी ही अस्थि मज्जा से बना हूँ

तुमसे ही बनकर तुम्हारे बिना कब खड़ा हो गया पता ही नहीं चला
तुम्हारे खिलाफ खड़ा हुआ
यह मेरा डर था या शायद मेरी असहायता
कि मेरा प्रतिरूप तुम तैयार कर देती थी
जैसे कोई जादूगरनी हो
देवि.... दुर्गा.... असीम शक्तियों वाली
सुनो !. तुम्हारे कमजोर क्षणों को मैंने धीरे धीरे एकत्र किया

जब मासिक धर्म से भींगी तुम नवागत की तैयारी करती
मैं वन में शिकार करते हुए तुम्हें अनुगामी बनाने के कौशल सीखता
जब तुम मनुष्य पैदा कर रही थी मेरे अंदर का पुरुष तुम्हें स्त्री बना रहा था

और आज मेरे अंदर का स्त्रीत्व संकट में है
मैं भटक रहा है जंगल-जंगल अपनी उस आधी स्त्री के लिए जो कभी उसके अंदर ही थी.

_________

Friday, August 03, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करतीं सुमन केशरी जी

सुमन केशरी
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से ।
कविता संग्रह : याज्ञवल्क्य से बहस
संपादन : जे.एन.यू में नामवर सिंह

आजकल नेशनल डिज़ास्टर मनेजमेंट ऑथोरिटी में डाईरेक्टर हैं , कवि एवं शोधकारी , सामाजिक विषयों में बेबाक राय रखने वाली, स्त्री विमर्श में सर्वदा अलग विचार रखने वाली |





वरिष्ठ कवयित्रीसुमन केशरी अग्रवाल ने अपनी एक कविता 'धुंध में औरत' और  'औरत' के साथ अपनी बात रखी। अपने प्रभावशाली वक्तव्य  में सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने कहा ...यूं तो समाज में हर स्तर पर असहिष्णुता और इसके फलस्वरूप हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं पर आधी आबादी कही जाने वाली औरतों के विरुद्ध हिंसा की घटनाओं और उनके स्वरूपों में जो बढ़ोतरी हुई है उनसे तो रोंगटे ही खड़े हो जाते हैं. आज औरतें घर की चारदीवारी से लेकर बाजार के चौक तक कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. और यह सब तब हो रहा है जब विकास की गाड़ी में स्त्रियाँ बराबर के पहियों की तरह हिस्सेदारी निभाने के लिए न केवल तैयार हो रही हैं बल्कि वे अपने पूरे वजूद के साथ अपने दायित्वों का घर और बाहर -दोनों धरातलों निर्वाह कर रही हैं. हर साल आने वाले बारहवीं के रिजल्ट और यहाँ तक कि सिविल सर्विसेज के रिजल्ट यही तो दिखा रहे हैं कि अब औरतें बराबरी से कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं , चल रही हैं.

तो फिर स्त्री के शरीर को एसिड से जला देने से लेकर जननांगो में पत्थर भर दिए जाने , सामूहिक बलात्कार और सरेआम एक साथ कई दरिंदों द्वारा मारपीट और नोच-खसोट तक की घटनाएं क्यों ? और इन सबके साथ ऐसे फरमान क्यों कि स्त्रियाँ जींस नहीं पहनेंगी, माथा ढकेंगी , मोबाईल का इस्तेमाल नहीं करेंगी और भाई, पिता, पति या पुत्र के साए तले ही घर से बाहर कदम रखेंगी .

ये सब घटनाएं और फ़रमान पितृसत्तात्मक मानसिकता के किस स्तर की सूचना देते हैं? ऐसा क्यों है कि जो समाज लड़कियों को पढ़ाने और उन्हें आर्थिक स्तर पर आगे आने के लिए रास्ता बनाता है वही उस स्त्री के तन और मन दोनों पर काबिज रहना चाहता है और उसे खुदमुख्तार नहीं बनने देना चाहता?


1-
धुंध में औरत


----------------



चीरती धुंध को
निकलती है एक अस्पष्ट आकृति
खुद को समेटे
चौकन्नी सी
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
बढ़ती है औरत
धुंध से धुंध तक
चीरती हुई
धुंध।

कुछ आहटें हैं पास
कहकहे लगातीं, आवाजें कसतीं
बुलातीं, मनुहार करतीं


काँपता है तन
पत्ते सा पतझर में

मन को समेटती
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
जा छिपती है औरत
धुंध में।


2-'औरत'

------------------

रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा,
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटिय़ाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।

Wednesday, August 01, 2012

चेतना की "मशाल" रोशन करतीं अपर्णा मनोज

अपर्णा मनोज :
कवयित्री , कहानीकार,अनुवादक
'मेरे क्षण ' कविता संग्रह प्रकाशित
कत्थक, लोकनृत्य में विशेष योग्यता, ब्लागिंग में सक्रिय
संपादन : 'आपका साथ साथ फूलों का '


स्त्री की स्वतंत्रता आज भी एक मिथ है.

एक विधवा, परित्यक्ता, बलात्कार की विक्टिम और वैश्या अभी भी अछूत स्त्रियों की श्रेणी में हैं..क्यों?

राष्ट्रव्यापी स्त्री आन्दोलन कम हुए हैं. संथाल परगनों में होने वाले अत्याचारों को देखते हुए ये न्यून ही हैं.

स्त्रियों को स्व-सुरक्षा के लिए हम क्या सिखा रहे हैं? मार्शल आर्ट उनकी फेमिनिटी को बचाए रखने के भ्रम में अभी भी लड़कियों से दूर है.

स्कूल से ही विद्यार्थियों को क़ानून की शिक्षा देनी चाहिए. उसका सिलेबस में कहीं स्थान नहीं....

स्त्री हित में कुछ महत्वपूर्ण मुद्दों को उठाते हुए अपर्णा मनोज जी ने अपने प्रभावशाली व्यक्तव्य में कहा कि हमारे स्कूली शिक्षा में मानवाधिकार शामिल नहीं है | साथ ही साथ उन्होने महिलाओं से संबन्धित समस्याओं के प्रति जागरूकता प्राथमिक स्तर से ही नदारद है | बागपत काण्ड का उदाहरण देते हुये हुये उन्होने इस बात कि तरफ संकेत किया कि हमारे समाज में लड़कियों का अनुकूलन दोषपूर्ण है | आज के समय और समाज को देखते हुये उन्होने मंटो की कहानियों की प्रासंगिकता को रेखांकित किया। उन्होने कहा की आज 'सकीना' जगह जगह पायी जाती है |

तमिलनाडु में "सम्मान " जैसे अपमान को चिह्नित करते हुए कहा कि आज भी बलात्कारी स्त्री को अपमान से बचाने के लिए उसका विवाह अपराधी से कराये जाने की प्रथा है, जो एक स्त्री के लिए जीवनभर का गरल है.
एक परित्यक्ता, स्पिंस्टर ,विधवा, पागल स्त्री,बलात्कार की विक्टिम, बिनब्याही माँ और वैश्या अस्पृश्य हैं. उनका शोषण भी समाज को दिखाई नहीं देता. इन्हें लेकर स्वतंत्र भारत में विशेष आन्दोलन नहीं हुए. ये एक विघटनकारी और अप्रगतिशील समाज के द्योतक हैं.

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