Thursday, November 29, 2012

बदलती सरगम - नन्द भारद्वाज जी की कहानी


  घर और परिवार जैसी सुरक्षित संस्था में भी स्त्री का जीवन घुटकर रह जाता है ..  एक स्त्री का जीवन कहाँ सुरक्षित है .. ? रिश्तों के बीच अकेलेपन की कहानी - बदलती सरगम



          कहानी 

                बदलती सरगम
                 ·        नन्‍द भारद्वाज

           मन की जिस अनबन और आकुलता को लेकर आज आपके सामने आई हूं, संभव  है कि आपके लिए यह कोई नयी बात न हो और ऐसे नयेपन के पीछे भटकने की आपको फुरसत भी नहीं हो! फिर भी इतनी-सी बात जरूर कहना चाहती हूं कि मैं जिस घर-परिवार में पैदा होकर इनसानों की दुनिया में आई, उसमें जब मेरी कोई जरूरी भूमिका मानी ही न गई हो तो उसके आगत-अनागत पर मेरे असर की अकारथ चिन्ता क्यों की जा रही है? मैं इस घर-परिवार या जाति-बिरादरी के नियम-कायदों के साथ रहना-जीना सही मानती हूं या नहीं, जब मुझे इस चुनाव की छूट कभी मिली ही नहीं, तो कोई कैसे इस बात का उलाहना मेरे नाम रख सकता है कि मैं उनकी इस दशा-अवस्था को सुधारने-संवारने के लिए कुछ करती क्यों नहीं? उनकी अच्छी-बुरी अवस्था में मेरी भागीदारी तो वैसे भी नहीं के बराबर जानी जाती है। एक बात आप निश्चित जान लीजिये कि मुझे एक सहज  के इंसान रूप में जो कुछ करना जरूरी लगता है, वह तो मैं करती आई हूं और आगे भी करती रहूंगी, बिना किसी से कुछ उम्मीद रखे, लेकिन किसने मुझसे कब-क्या उम्मीद बांध ली और मैं उस पर खरी उतरी या नहीं उस बात का प्रमाण आप मुझसे ही क्यों चाहते हैं? दिखती बात है कि यदि मनुष्य के रूप में कोई आराम और खुशी के साथ  जीना चाहता है तो उसके लिए पुख्ता  इंतजाम तो उसे खुद ही करना होगा न - आराम और खुशी न कहीं मांगे मिलती है, न कोई आकर हाथ में सौंपता है और न किसी और का हक मार कर हासिल किया जा सकता है। 
    गाने-बजाने के जरिए अपनी रोजी कमाने वाले परिवार में औलाद, और वह भी लड़की, अपनी लड़कीपने की अवस्था में पहुंचने पर घर-परिवार और मां-बाप से आखिर क्या अपेक्षा रखती है? वे उसे इस अवस्था तक लाने में उससे जो कुछ चाहते-कराते रहे, उसको लेकर उनसे कुछ पूछने या उस पर ऐतराज उठाने की गुंजाइश ही कहां होती थी? अपने अधिकार और कर्तव्य के इस अंधे खेल में कौन कहां अपने अधिकार या कर्तव्य की मर्यादा लांघ जाता है, इसका कौन कितना  हिसाब रख सकता है? दीखती बात है कि ऊपर हाथ तो हमेशा मां-बाप का ही होता है, इसलिए निवारण करने का हक भी उन्हीं के पक्ष में जाता है। यह तो दिखती बात है कि मां-बाप ऐसे मौकों पर अमूमन अपनी सुविधा और सहूलियत पहले देखते हैं और वही व्यवहार उनकी आदत बन जाता है।
    उस घर में जन्म लेने के बाद हम पांच भाई-बहनों को, जिनमें चार तो हम बहने ही थीं, कब क्या करना है, यह बात न कभी किसी को बतानी समझानी पड़ी और न किसी ने इस बारे में कुछ पूछा। पिता अपनी जवानी के दिनों में अच्छे सारंगीवादक और गायक रहे थे, जिसकी वजह से कई बरसों तक ठाकुर परिवारों और रईसों के बुलावों पर उनके वैवाहिक-मांगलिक अवसरों पर वेे रजवाड़ी गीत गाने के लिए जाते रहे, लेकिल पिछले सालों में ऐसे बुलावे गिनती के ही रह गये थे, इसलिए उन्होंने अपनी सारंगी को उतार कर कमरे की लटान पर रख दिया था और पीने की आदत के कारण स्वर में भी वह सुरीलापन नहीं रह गया था। इन्हीं बरसों में आम घरों में विवाह-सगाई के मौकों पर मां के गीतों की मांग जरूर बढ़ती रही और बड़ी वाली दोनों बहनें यशोदा और गौरी अपना स्वर सम्हालते ही मां के साथ संगत में लग गईं थीं। तीसरे क्रम पर गर्भ में आए भाई गनपत ने बचपन से ही कुछ अलग रुझान रखा और इस पुश्तैनी पेशे में उसका मन कम ही रमा, लेकिन अपनी मन-मरजी के मुताबिक ढोल जरूर अच्छा बजा लेता था।
     मुझे तो लगता है कि एक के पीछे एक जिस तरह हम सभी बच्चे इस घर में आते रहे और अपना आपा सम्हालते रहे, इस बारे में हमारे मां-बाप को यह सोचने की फुरसत  कभी मिली ही नहीं कि हमारी जिन्दगी किस आकार में ढलनी चाहिये। यदि हुई होती तो वे इतना तो अवश्य ध्यान रखते कि हमें एक इंसान के रूप में जिन्दा रखने के लिए अपने पास कुछ गुंजाइशें और हौसला तो सहेज कर रखा ही होता। सभी के लिए रहने लायक घर, दोनों वक्त की पूगती रोटी, पहनने-ओढ़ने के लिए जरूरत भर के कपड़े और देने के लिए एक अच्छा-सा भविष्य, क्या कभी इन जरूरी बातों पर उन्होंने ठहर कर विचार किया होगा? मुझे तो नहीं लगता। मानो मां एक निरपेक्ष मानवीय मशीन थी और हम उस सांचे में स्वतः ढलते स्पंदित साज, जो आकार लेते ही अपने सुर-ताल में बजने लगते। मैं इस बिखरती-बदलती सरगम का चौथा स्वर-साज थी - वाधू! शायद लोगों के सुझाव पर मां-बाप ने मेरा यही नाम तय किया। जब तक मुझे इसका बोध होता, समूचे गांव और जान-पहचान के दायरे में मेरा यही नाम चलन में आ चुका था। आज सोचती हूं, यदि बाकी बहनों की तरह मैं भी छिपी-दबी जी लेती, तो न यों चर्चा में आती और न किसी को उम्मीद होती या शिकायत - नाम ही के अनुरूप अनजान वाधू (अतिरिक्त) ही रह जाती। यों मुझसे छोटी बहन बीना के बाद भी एक जिन्दगी के आने की उम्मीद और जगी थी, पर वह अधबीच में ही लुप्त हो गई और उसका जाने-अनजाने उलाहना भी बीना पर ही मंढ़ा गया कि वह आने वाले भाई को खा गई! बहाना यह कि उसने मां के गर्भवती हो जाने के बाद तक उसका दूध पीना छोड़ा ही नहीं, उसकी देह का सारा कस तो वही पी गई। भाई तो गया सो गया ही, पांच महीने बाद मां भी पीछे-पीछे सिधार गई। यों बीना का नाम भी मेरी ही तर्ज पर आयचुकी सुझाया गया था, लेकिन मां ही अड़ गई कि लड़कियों का नाम न बिगाड़ा जाए, जो नक्षत्र के हिसाब से आता है, वही रखा जाए और इस तरह उसे बीना नाम नसीब हो गया। हम छोटी बहनों में तो इस बात की चेतना कभी पैदा ही नहीं हुई कि मां का होना या न होना क्या मायने रखता है। हमारे लिए तो बड़ी बहन यशोदा ही मां समान थी। यदि गोद और कांधे का कोई मान-महत्व होता है तो उन दिनों वही हम छोटी बहनों और भाई का सबसे बड़ा सहारा थीं। वह जब तक शादी करके अगले घर नहीं पहुंच गई, हमेशा हमारी ढाल बनी रहीं।
     यशोदा ने बचपन से ही मां के साथ रहते हुए वे सारे काम अपने जिम्मे सम्हाल लिये थे, जो घर चलाने के लिए जरूरी थे। वह औरतों के बीच बैठकर ढोल पर अकेली अच्छा गा-बजा लेती थी। रतजगे और विवाह की सारी रस्में वह जानती थीं। हम बहनों को भी वह अपने साथ जोड़ लेती थीं। एक विवाह में हमको साथ गाते देखकर स्कूल के मास्टर गिरिजाशंकर न जाने क्यों यशोदा को यह सलाह दे गये कि उसे हम छोटी बहनों को पढ़ने के लिए स्कूल जरूर भेज देना चाहिए। वह खुद तो बाप, भाई और गौरी के साथ सारे समय घर में और गांव में अपनी वृत्ति के काम में लगी रहतीं, लेकिन हम छोटी बहनों को मास्टरजी के कहे अनुसार गांव की स्कूल में अवश्य भेजना शुरू कर दिया। शुरू में तो यह उसकी परेशानी ही रही होगी कि उसे सारा दिन घर में हम छोटी बहनों और इकलौते भाई की सार-संभाल करनी होती थी, ऐसे में मास्टरजी की इस सलाह में एक तरह से उसे राहत ही दिखी होगी कि स्कूल में बच्चे दो अक्षर सीख भी लेंगे और उसे भी घर संभालने में थोड़ा आराम रहेगा। मेरे साथ गनपत और बीना भी स्कूल तो अवश्य जाते लेकिन उनका पढ़ाई में मन कुछ कम ही लगता था।
     स्कूल मास्टर गिरिजाशंकर मेरे लिए तो समूची सृष्टि में एक ही आला दरजे के इंसान बनकर सामने आए। अपने नाम के अनुरूप ही नेक और संगीत के अच्छे जानकार। हारमोनियम बजाने में तो उनकी जोड़ का आस-पास कोई मिलना ही असंभव था। इस लिहाज से वे समूचे हलके में बहुत सधे हुए कलाकार के रूप में जाने जाते थे। गांव में किसी के यहां रात्रि-जागरण होता तो उन्हें बहुत आदर से बुलाया जाता था। जितना मधुर स्वर उतनी ही असरदार वाणी के पाठ की व्याख्या। अच्छे-अच्छे भागवतकारों को पीछे बिठाते थे, लेकिन वे पूजा-पाठी पंडित नहीं थे। वे तो सरकारी स्कूल में हिन्दी और संगीत के सर्वप्रिय अध्यापक थे। स्कूल में बच्चों को अक्षर-ज्ञान तो कराते ही थे, जिस बच्चे में रुझान दिखाई देता, उसे अलग छांटकर घंटों उससे संगीत का अभ्यास भी कराते। मुझे तो उन्होंने शुरू से ही अपनी देखरेख में रख लिया था। पहली बार जब उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कोई गीत सुनाने को कहा तो मैं तो इतना घबरा गई कि एकबारगी तो जैसे मेरा स्वर ही बंद हो गया, लेकिन फिर उन्होंने धीरे-धीरे मेरा हौसला बढ़ाया और जाने उन्हें मेरे स्वर में ऐसा क्या मिल गया कि उन्होंने तो स्कूल में गाने वाले बच्चों में मुझे जैसे हमेशा के लिए अलग ही छांट लिया। स्कूल में जो भी आयोजन होता, और कोई बच्चा गाये या न गाये मेरा गाना तो तय ही होता था। वे घंटों मुझे अभ्यास में लगाये रखते, गाना ही जैसे मेरी पढ़ाई थी। मुझे भी सूखी पढ़ाई की बनिस्पत इसमें ज्यादा आनंद आता और पगली की तरह रागोलियां करती रहती। गीत तो हम बचपन से ही सांझ-सवेरे गाया ही करती थीं और विवाह-सगाइयों में बहन यशोदा को सहारा देती ही थीं, लेकिन गांव की अन्य लड़कियों की देखा-देखी थोड़े हाथ-पांव भी घुमाना सीख गई तो सगाई-ब्याह के बुलावों में घोल की अच्छी उवांरगी (न्यौछावरी की राशि) भी मिलने लग गई। स्कूल से पांचवें दर्जे तक आते-आते तो सारे गांव और आस-पास के हलके में यह हल्ला मच गया कि वाधूड़ी के जोड़ की गाने वाली और नाचने वाली लड़की सारे जिले में मिलनी मुश्किल है। पांचवां दर्जा पास करने से पहले मास्टरजी ने मुझ पर एक अहसान और किया - उन्होंने स्कूल रिकार्ड में मेरा नाम वाधू से बदलवा कर वसुधा करवा दिया, ‘वसुधा पंवार’, और इसी नये नाम से स्कूल में और बाहर कई अच्छे कार्यक्रम भी करवा दिये। आयोजनों में इनाम-इकरार भी मिलने लग गये। इससे निश्चय ही मेरे हौसले में अपूर्व बढ़ोत्तरी हुई।
    स्कूल और बाहरी जलसों में भले ही मेरे गाने की सराहना होती रही हो, घर में बापू की मानसिकता पर इसका ज्यादा अनुकूल असर नहीं पड़ा। अच्छी उवांरगी और नेग के लालच में उनकी पूरी कोशिश यही रहती कि मेरे स्कूल पहुंचने में भले ही विघ्न पड़ जाय, लेकिन गांव में और बाहर से ब्याह-सगाइयों में गाने-नाचने के लिए आने वाले बुलावों में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए, जिससे उनको होने वाली आमदनी में भी इजाफा हो। मुझे ऐसे बुलावों पर जाना कभी अच्छा नहीं लगता, जो मेरे स्कूल पहुंचने में बाधा बनते हों। कई बार तो ऐसे बुलावों पर बापू के हामी भर लेने के बाद भी जाना टाल देती, जिसका नतीजा यह होता कि बापू अगले दिन मेरे साथ बेतरह गाली-गलौच करते और कभी-कभी तो मुझे उनकी मार भी झेलनी पड़ती। उनका मानना था कि मैं ब्याह-सगाइयों के बुलावों में अपने गायन और नृत्य-कला में जितना निखार ला सकती हूं, उतना स्कूल में नहीं। स्कूल तो उनकी नजर में हम पेशेवर कलाकारों का एक तरह से वक्त ही बरबाद करता है और पढ़ाई के नाम पर फालतू की चीजें सिखाता है, जिनका हम लोगों के जीवन में कहीं-कोई उपयोग नहीं होता, जबकि मैं जानती थी कि आज मैं जो कुछ सीखी-समझी हूं, वह सारा इसी स्कूल की बदौलत ही सीख पाई हूं। मैंने कई बार अपने गुरूजी को भी अपनी परेशानी बताई, लेकिन वे मेरे घरेलू मामलों में ज्यादा दखल देने की स्थिति में नहीं थे। मेरी परेशानी को देखते हुए उन्होंने इतनी मदद जरूर कर दी कि पांचवें दर्जे की परीक्षा के दौरान ही उन्होंने मेरी ओर से एक आवेदन नवोदय विद्यालय में दाखिले के लिए अवश्य पहुंचवा दिया।
     यह उनकी सीख और स्नेह का ही सुफल रहा कि पांचवी पास करते ही मेरा नवोदय के लिए चयन हो गया, जहां गांव के चुनिन्दा जरूरतमंद बच्चों को सरकार की ओर से सारी सुविधाओं के साथ स्कूल के हॉस्टल में रखकर पढ़ाया जाता है, ऊपर से सरकार कुछ जरूरतमंद बच्चों को वजीफा भी देती है। मुझे नहीं मालूम कि मुझमें कोई प्रतिभा थी या नहीं, लेकिन मुझे ये सारी सुविधाएं मिल गई और मेरे लिए तो यह व्यवस्था एक तरह से वरदान ही साबित हुई, लेकिन मेरे बापू को यह कतई पसंद नहीं आई। वे तो अड़कर ही बैठ गये कि वे मुझे घर से बाहर कहीं नहीं जाने देंगे। गिरिजाशंकरजी ने उन्हें बहुत समझाया कि इससे लड़की का भविष्य सुधरेगा, लेकिन उनके तो दिमाग में बात बैठी ही नहीं। आखिर मुझे यशोदा का सहारा लेना पड़ा। शुरू में तो वह भी बापू की ही तरह थोड़ी अनमनी और उदासीन बनी रही। असल में बापू और यशोदा की सबसे बड़ी चिन्ता यही थी कि मेरे घर से दूर जाते ही जिन ब्याव-सगाइयों के बुलावांे में मेरे जाने से उन्हें अच्छी उवांरगी और उपहार मिल जाते थे, उस पर निश्चय ही फर्क पड़ सकता था, क्योंकि दूसरी किसी बहन के पास यह हुनर  नहीं था। पिछले दो-तीन सालों में मेरे नाच-गानों से ऐसे पारिवारिक आयोजनों में उन्हें अच्छी-खासी आमदनी होने लगी थी और अब मेरे दूर जाने की बात से उनके कलेजे में यह डर बैठ गया था कि उनकी कमाई में कमी हो सकती है। लेकिन बड़ी बहन होने के नाते यशोदा यह कभी नहीं चाहती थी कि हम छोटी बहनों के साथ कोई जोर-जबरदस्ती की जाय। जब मैंने उसे अपना पक्का इरादा बता दिया कि मेरे नवोदय जाने का यदि ज्यादा विरोध किया गया तो मैं सभी को छोड़कर कहीं निकल जाऊंगी और फिर भले ही देखते रहना, तो मेरी यह धमकी काम आ गई और उसने रात को बापू से बात कर उन्हें एक बार तो राजी कर ही लिया। दूसरे ही दिन वह खुद गनपत को साथ लेकर मुझे पावटा के नवोदय विद्यालय पहुंचा आई। 
     नवोदय में जब मैं आई तो मेरी उम्र शायद बारह-तेरह के बीच की रही होगी, लेकिन कद-काठी ठीक होने से मैं खासा बड़ी लगती थी। पहने-ओढे़ तो जैसे पूरी युवती ही। रंग-रूप में भी दिनो-दिन निखार आता जा रहा था। नवोदय के पहले बरस में जब दो-चार स्कूली आयोजनों में मुझे भी गाने का अवसर मिला तो अपने मीठे स्वर और बेहतर प्रस्तुति के कारण तुरंत ही मेरी गिनती अच्छा गाने वाले बच्चों में होने लगी और स्कूल के अध्यापकों की नजर भी मुझ पर टिक गई। संगीत की अध्यापक अनीताजी यों तो मुझे पहले कार्यक्रम से ही पसंद करने लगी थी, लेकिन एक बार जयपुर में गिरिजाशंकरजी से हुई मुलाकात के दौरान जब उन्हें यह जानकारी मिली कि लोक-गायन और नृत्य में मैं अच्छी तैयारी रखती हूं, तो उन्होंने जयपुर से वापस लौटते ही मुझे अपने संरक्षण में ले लिया। वे खुद भी कत्थक के जयपुर घराने की अच्छी नर्तक रह चुकी थीं। नृत्य के साथ शास्त्रीय संगीत का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था, जबकि मेरा तो पारंपरिक लोक-गायन और लोक-नृत्य में ही थोड़ा-बहुत अभ्यास था। लोग कहते हैं, मेरी देह में गजब की लोच थी। साथी नृत्यांगना के साथ लूहर लेने में तो मैं स्टेज पर फिरकी की तरह घूमने लगती थी। इससे कई बार साथ देने वाली नृत्यांगना संतुलन बिगड़ जाने के डर से घबरा उठती थीं। आने वाले पांच-छः वर्षों में मैंने अनीताजी की संगत और निर्देशन में इस कला में जो कुछ सीखा उसमें लोगों को लोक-शैली और कत्थक का एक नया समन्वय देखने को मिला, जिसे चारों ओर अच्छी सराहना मिली।
    इन पांच-छः वर्षों में मुझे पढ़ने और अपनी कला प्रस्तुत करने के जो अवसर मिले, उनमें मैं ऐसी मगन रही कि कब मैंने हाई स्कूल और सीनियर सेकेण्डरी पास कर ली और कब एक नयी कलाकार के रूप में मैं चर्चित हो गई, उसकी ओर तो मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया। इन वर्षों में मेरी प्रस्तुतियों से स्कूल का नाम और रुतबा तो बढ़ा ही, प्रदेश और देश के बाहरी मंचों पर भी मेरी लोक-गायकी और नृत्य-कला को अच्छी इमदाद मिली। जिन दिनों मैं सीनियर सेकेण्डरी में पढ़ रही थी, उन्हीं दिनों ऑल इंडिया रेडियो से स्वर परीक्षा के लिए बुलावा आने पर मैं उसमें भी शामिल हुई और बाद में उसका परिणाम आने पर मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे सीधे बी-हाई ग्रेड में पास किया गया है। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था और उसके कारण रेडियो, टी.वी., पर्यटन विभाग के आयोजनों और बाहर के कार्यक्रमों में मुझे लगातार बुलावे आने लगे। इसी स्वर-परीक्षा के कुछ अरसे बाद जब मुझे दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में आकाशवाणी के सालाना उत्सव में अपना एकल-नृत्य प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया, तो मैंने इस अवसर के लिए बहुत मेहनत से तैयारी की, हालांकि मैं बहुत आशंकित भी थी, लेकिन अनीताजी की हौसला-अफजाई और उनके साथ से मैंने उस आयोजन में अपने लोक-नृत्य और भवाई के अलग-अलग रूपों में ऐसे करतब दिखाए कि लोगों की आंखें खुली की खुली रह गईं। दूसरे ही दिन दिल्ली के सारे राष्ट्रीय समाचार पत्रों में मेरी नृत्य मुद्राओं की ऐसी रंगीन तस्वीरें छपीं कि मैं तो जैसे रातों-रात सारे मुल्क में चर्चित हो गई। मैं अनीताजी की बहुत अहसानमंद हूं कि ऐसी तमाम जगहों पर वे मेरी संरक्षक की तरह हर जगह मेरे साथ खड़ी रहीं और मेरी हरेक प्रस्तुति को उन्होंने खुद अपनी देखरेख में तैयार करवाया और संवारा।
     शुरू में मैं यह नहीं जानती थी कि कामयाबी और अच्छी जिन्दगी में क्या फर्क है। अपने गुरूजी और अनीताजी से इतना जरूर जान गई थी, कि अपनी ओर उठने वाली निगाहों से अपने को कैसे बचाकर रखा जा सकता है। अनीताजी ने तो बल्कि ऐसी नजरों के बारीक फर्क को भी समझाया। उन्होंने यह भी समझाया कि मुझ जैसी लड़की को अपने पांवों पर खड़ा होने के लिए आगे पढ़ना भी बहुत जरूरी है और फिलहाल मुझे अपनी पढ़ाई और नृत्य-गायन के लिए नियमित अभ्यास के अलावा किसी ओर ध्यान नहीं भटकने देना चाहिये। मुझे उनकी बातों में बहुत अपनापन लगता था और अपने प्रति एक सच्ची चिन्ता भी। नवोदय से सीनियर सेकेण्डरी पास करने के बाद मेरे पास इतनी गुंजायश भी बन गई थी कि मैं जयपुर में कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्वतंत्र रूप से यह निर्णय ले सकती थी। खुद अनीताजी ने मेरे साथ जयपुर आकर कॉलेज में दाखिला दिलवाया और लड़कियों के हॉस्टल में मेरे लिए रहने का पूरा बंदोबस्त करवा दिया।  जयपुर में उनका अपना घर भी था, जिसमें उनकी मां और बड़े भाई का परिवार रहता था। पढ़ाई के साथ एक पेशेवर कलाकार के रूप में मेरा जुड़ाव संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन विभाग, संगीत नाटक अकादमी और रेडियो-टी.वी. से पहले ही हो चुका था, जिसकी वजह से उनके कार्यक्रमों में मेरी हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही थी। इन्ही आयोजनों की वजह से मेरी आर्थिक जरूरतें भी आराम से पूरी हो जाती थी। यों पं. गिरिजाशंकरजी, अनीताजी, संगीत नाटक अकादमी की अध्यक्षा सुधाजी और कई बड़े कलाकारों की सलाह और संरक्षण तो मेरा पुख्ता आधार था ही।
    कॉलेज के इन वर्षों में घर से मेरा संपर्क बहुत कम रह गया था। जयपुर आने के बाद दो-तीन बार बीना के बुलावे पर जब भी जाना पड़ा, उसे लगातार किसी न किसी परेशानी में ही पाया। यों नवोदय में दाखिले के दो बरस बाद यशोदा और गौरी के विवाह के अवसर पर तो गांव आना हुआ ही था, उससे अगले बरस गनपत की सगाई के मौके पर भी आना हुआ, लेकिन जितनी बार भी गांव आई, बापू की एक ही राग रहती कि पढ़ाई पूरी कर तुरन्त वापस गांव आ जाऊं। वे मेरा और बीना का भी जल्दी से जल्दी विवाह कर देना चाहते थे। मुझे एक तरह से उनसे चिढ़-सी होने लगी थी। अजीब पिता हैं, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि मैं एक अच्छे स्कूल में उन पर बिना कोई बोझ रखे अपनी पढ़ाई करने में लगी हुई हूं, या कि प्रदेश में एक नयी कलाकार के रूप में अपना नाम कमा रही हूं। एक शिकायत उन्हें यह भी थी कि इन वर्षों में मैंने कलाकार के रूप में जो कुछ कमाया है, वह उन्हें क्यों नहीं सौंप दिया। यह सही है कि बाहर के आयोजनों में मुझे कुछ आर्थिक लाभ जरूर होता था और वह सारी बचत मैं एक बैंक खाते में अपनी भावी जरूरतों के लिए संचित कर रही थी। मैं यह बात अच्छी तरह जानती थी कि आने वाले दिनों में कॉलेज और यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के समय मुझे इस बचत की बहुत आवश्यकता रहेगी।
    बापू और भाई के अटपटे व्यवहार के कारण घर से मेरी दूरी लगातार बढ़ती जा रही थी। इन वर्षों में मेरा घर में आना-जाना काफी कम हो गया था। यशोदा और गौरी के विवाह के बाद तो घर की हालत और भी बिगड़ गई थी। मुझसे छोटी बहन बीना बापू और भाई को दो समय की रोटी तो बनाकर खिला देती, पर घर की बिगड़ती दशा पर उसका कोई वश नहीं था। यशोदा बड़ी होने के कारण भाई और बापू को जरूरत पड़ने पर उनके निकम्मेपन को लेकर कुछ खरी-खोटी सुना भी देती थी, लेकिन गनपत के एकाध बार के उद्दंड व्यवहार के कारण उसने भी अब मायके आना कम कर दिया है। बीना तो हम सब से थी ही छोटी, सो उसकी परवाह भला कौन करता।
    घर में शुरू से ही दो ओरे (छोटे कमरे), रसोई और एक बाहर की ओर खुलती तिबारी (बैठक) थी, जिसमें बापू और बाहर से आने वाले लोग बैठते थे। ओरों के आगे एक लंबा बरामदा था, जिसके एक कोने में टिमची पर घर के रजाई-गद्दे और ओढ़ने बिछाने की चद्दरें वगैरह रखे रहते थे, जो अब फटकर और भी बुरी अवस्था में पहुंच गये थे। जो कपड़ा फट जाता या उधड़ जाता तो कोई टांका लगाने वाला नहीं था। इन बरसों में घर की लिपाई -पुताई न होने के कारण दीवारों का पलस्तर उखड़ने लगा था, आंगन की हालत तो और भी खराब थी। बाहर वाले मुख्य दरवाजे का फाटक टूट गया था, लेकिन उसे ठीक करवाने की जैसे इच्छा ही नहीं रह गई थी।
    पिछली बार मैं गनपत की शादी में घर से बुलावा आने के समय गई थी। उन दिनों मेरी बी.ए. की परीक्षा सिर पर थी, इसलिए सिर्फ शादी के मुख्य आयोजन में शरीक होकर दो दिन बाद ही वापस जयपुर लौट आई थी। बड़ी बहनें और बाकी रिश्तेदार भी आए थे और मेरे पहनावे को देखकर सभी ऐसे घूर रहे थे, जैसे मैंं कोई अजूबा होऊं। दबे स्वर में कुछ लोगों ने मुझे अपने कब्जे में लेने के लिए बापू को ललचाने वाले प्रस्ताव भी दिये, ऐसे में जल्दी ही मेरा वहां से मन उचट गया और शादी की रस्म पूरी होने के दूसरे दिन ही मैं अपनी परीक्षा का बहाना लेकर वहां से लौट आई थी। लेकिन इन दो दिनों में भी घर की दुर्दशा मुझसे छिपी नहीं रह सकी।
    गनपत की शादी के डेढ़ बरस बाद इस बार सिर्फ बीना की चिन्ता को लेकर गांव आई हूं, सो भी बिना बुलाए। जबकि इसी डेढ़ बरस में बापू ने कई बार बुलावा भिजवाया था, एकबार तो स्वयं गनपत लेने भी आया, लेकिन मेरी घर आने की कोई इच्छा नहीं रह गई थी। मैंने उसे पढ़ाई की व्यस्तता का बहाना बनाकर वापस भेज दिया था। मैं जानती थी कि मुझे गांव क्यों बुलाया जा रहा है, जबकि मेरी बापू के प्रस्तावों और उस माहौल में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। लेकिन इन्हीं दिनों जब मुझे बीना के साथ हुए एक हादसे की उड़ती-सी जानकारी मिली, तो मुझे लगा कि उसकी मदद के लिए मुझे जरूर जाना चाहिए। मुझे दो बातें जानकर बेहद तकलीफ हुई - पहली तो यह कि बापू जरूरत से ज्यादा पीने लगे हैं और दूसरी उससे भी बड़ी चिन्ता की बात यह कि बीना का चाल-चलन गांव वालों के लिए चर्चा का विषय बनता जा रहा था। घर पहुंचकर जब मैंने उसे अकेले में अपने पास बिठाकर वास्तविकता जाननी चाही तो पहले तो वह इसी बात पर बिफर गई कि मैं भी गांव वालों की सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके उससे बात करने आई हूं और अगर उसके साथ कुछ बुरा हुआ है तो मैं उसकी क्या मदद कर सकती हूं? जब मैंने बहुत जोर देकर कहा कि मैं किसी के कुछ कहने से कोई धारणा नहीं बना रही हूं, मैं तो स्वयं उसी के मुंह से उसकी परेशानी समझना चाहती हूं, मदद क्या कर पाऊंगी, इसका फैसला तो सारी बात जानने के बाद ही किया जा सकेगा। मेरी हमदर्दी से आखिर उसका कठोर चेहरा थोड़ा नर्म पड़ा और कुछ ही क्षणों में उसकी आंखों से आंसू बह निकले। उसकी शिकायत थी कि घर में कोई उसकी परवाह नहीं करता, घर में अगर खाने-पीने का सामान निवड़ जाए तो उसी को भाग-दौड़ करके इंतजाम करना पड़ता है, बाप और भाई दोनों छककर दारू पीते हैं और कभी-कभी तो उस पर हाथ भी उठा देते हैं। ऐसी हालत में पड़ौस में हमारी चाची के पास जाकर रात बितानी पड़ती है।
    और फिर उसने ज्यादा कुरेदने पर वह वाकया भी बताया, जिसने उसकी सारी उम्मीदें हिलाकर रख दी हैं। उसने बताया कि पिछले दिनों एक परिचित सेठ के घर उनकेे लड़के की शादी के समय रतजगे की रस्म में गीत गाने के लिए वह भी चाची के साथ उनके घर गई थी। वहीं रात को गीत गाने दौरान ही किसी ने उसे चाय या शरबत में कुछ ऐसा पिला दिया कि उसे चक्कर आने लगे। जब उसकी तबियत बिगड़ने लगी तो सेठ के लड़के ने यह कहकर कि वह उसे घर पहुंचा देगा, उसे वहां से अपनी गाड़ी में बिठाकर निकल गया। रास्ते में कब उसे बेहोशी ने घेर लिया, उसे इसकी कुछ जानकारी नहीं रही। शायद दो-ढाई घंटे बाद जब उसे होश आया तो वह एक अनजान जगह पर किसी और लड़के के साथ सोई हुई थी। कमरे में लैंप की मद्धिम-सी रोशनी थी। उसने लड़के की ओर देखा तो वह बेशर्मी से हंस रहा था। उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों और शरीर की दुर्दशा से स्पष्ट था कि उसके साथ जो अकाज होना था, वह हो चुका था। वह उसे परे धकेलकर पलंग से उठ खड़ी हुई और जगह को पहचानने की कोशिश की। ज्यों ही लड़के ने उससे बात करनी चाही, उसने पलटकर एक चांटा उसके गाल पर जड़ दिया और उसे गालियां देती हुई वहां से बाहर निकल आई। बाहर आते ही वह इलाके को पहचान गई थी, यह उसी सेठ का फार्म-हाउस था, जो गांव के पास ही एकान्त में पड़ता था। खुद सेठ का लड़का भी बाहर ही खड़ा था। बाहर निकलने पर सेठ के लड़के ने भी उसे राजी करने की पूरी कोशिश की, उसे हर तरह के प्रलोभन दिये गये, फिर यह भी कहा कि वह उसे उसके घर के पास छोड़ देगा लेकिन वह उसे हिकारत से देखती हुई बिना ज्यादा वक्त गंवाए, नंगे पांव पैदल ही आधी रात को अपने घर की ओर रवाना हो गई। जब घर पहुंची तो देखा कि बाप और भाई दोनांे नशे में बेहोश पड़े थे, ऐसे में वह किसके आगे फरियाद करती। सुबह जब देर से उसकी आंख खुली, तब तक उनका कहीं अता-पता नहीं था। दूसरे दिन किसी ने उनके आगे न जाने क्या बात बना कर बहका दिया कि वे दोनों उल्टे उसी पर लांछनों की बौछार लेकर आ चढ़े, उसके साथ वास्तव में क्या-कुछ घटित हुआ, यह जानने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। कोई कह रहा था कि सेठ ने उन्हें प्रलोभन देकर पहले ही अपने वश में कर लिया था और तब से लगातार उल्टे उसी को बदनाम करने की कोशिशें की जा रही हैं। ऐसे में उसका गांव में जीना दूभर हो गया है।
    ‘‘अब तू ही बता, मैं किसके आगे पुकार करूं? और यहां कौन है मेरा धणी-धोरी? मैं तो लाठी और भींत के बीच में आ गई हूं, जीने के लिए जो जरूरी लगता है वह काम कर लेती हूँ , हालांकि ऐसे जीने में कोई सार है नहीं, पर तू विश्वास रख, मैं अपनी जांण में ऐसा कोई उल्टा काम नहीं करती, जिससे खुद मुझे ही शर्म आने लगे, लोगों को तो चौंकाऊ बातें करने का मौका मिलना चाहिए...! यों घर में मुझे कोई खाता नहीं, लेकिन इन बाप-भाई के नाम से तो मुझे चिढ़ ही हो गई है। ज्यादा भली चाची भी नहीं हैै... वह भी अपनी सारी बेगारें निकलवा कर ही पीछा छोड़ती है, लेकिन इन दोनों से तो वही ठीक है... कम-से-कम रात-विरात उसके पास डर तो नहीं है!’’
    ‘‘पर तेरी तो सगाई भी हो रखी थी न, फिर शादी का क्या हुआ? गनपत के साले से ही तो होनी थी?’’ उसकी इस हालत पर मुझे यही एक उपाय सूझ रहा था।
    ‘‘लड़का तो तैयार है, पर उसके बाप को रोकड़े चाहिएं। उनकी बेटी की शादी हो गई, सो अब वह गरज भी मिट गई। इन बाप-बेटों की हालत तू देख ही रही है! अगर किसी के ब्याह-सगाई में कुछ गा-बजाकर बचा लूं, तो ये मुझे पकड़ कर लूम जाते हैं। बीरे के पीछे जो भाभी आई है वह इनसे भी आगे निकलने को तैयार बैठी है, उसे तो मैं फूटी आंख नहीं सुहाती! ब्याह-सगाइयों में आजकल सब कैसटों से काम चलाते हैं, अब रीत-रस्म के गानों का समय नहीं रहा। अव्वल तो बुलावे आते ही कम हैं और महीने में दो-चार आते हैं तो अब मैंने भी उनकी परवाह करनी छोड़ दी है। कोई बुलाता है तो टाल ही जाती हूं, क्या फायदा है कहीं जाने का?’’ उसने हारे हुए स्वर में उत्तर दिया था।
     घर में पहली बार लगा कि बीना को वाकई मेरी मदद की सख्त जरूरत है। मैं इस घर के लिए और कुछ कर पाऊं या न कर पाऊं, बीना की मदद तो मुझे करनी ही होगी। मैंने उसी दिन अपने गुरू गिरिजाशंकरजी को उनके घर जाकर बीना की सारी परेशानी बताई, उन्होंने अगले दिन सुबह ही मेरे साथ रामगढ़ चलकर लड़के के बाप से बात करने  का आश्वासन दिया और मुझे वापस घर भेज दिया। रात को घर में बापू और भाई ने मुझसे कोई बात नहीं की। अगले दिन सुबह ही मैंे गुरूजी को साथ लेकर रामगढ़ चली गई। संयोग से बाप-बेटे घर में ही थे। लड़का भी गुरूजी का शिष्य रह चुका था। यों भी गिरिजाशंकरजी का इस हलके में सभी बहुत आदर-सम्मान करते थे। लड़का चूरू में एक बैंड-बाजे के समूह में ट्रम्पेट बजाने का काम कर रहा था, बीना को भी वह खूब पसंद करता था, बीना यों दीखने में थी भी खूबसूरत। मेरे पास पंद्रह-बीस हजार तक खर्च करने की गुंजाइश थी, जो मैंने गुरूजी को पहले ही बता दी थी। गुरूजी ने समधी जी से एक महीने बाद शादी की तारीख पक्की कर ली, क्योंकि मेरे पास बीना के लिए और कोई रास्ता नहीं बचा था। उनसे बात पक्की कर हम उसी शाम फतहपुर वापस आ गये।
    शाम को घर के कमरे में बैठकर बाप, भाई और भोजाई को जब मैंने यह खबर दी कि मैं बीना की शादी की तारीख पक्की कर आई हूं, तो बापू तो कुछ नहीं बोले, लेकिन भाई गनपत बुरी तरह से झुंझला गया। उसे यह अपना अपमान लग रहा था। बात सुनकर भोजाई भी मुंह बिचकाए उल्टी घूमकर बैठ गई थी। एतराज यही कि उनसे बगैर पूछे या बिना सलाह किये मैं तारीख पक्की करने वाली कौन होती हूं। उनका यह रवैया देखकर उन्हें यह याद दिलाना व्यर्थ था कि मैं भी उनकी सगी बहन हूं और बीना का भला-बुरा सोचने का मुझे भी उतना ही हक है जितना कि उनको। पर यह बात मेरे मुंह पर आने से पहले ही गनपत अपने आपे से बाहर आ गया। वह चिढ़ते हुए बोला, ‘‘तूने जब घर से कोई तालमेल रखना ही छोड़ दिया तो यह फैसला लेने का अधिकार तुझे किसने दिया कि तू बीना के मामले में कोई पंचायती करे?’’
     ‘‘क्यों भाई, मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया, बीना की सगाई तो तुम्हीं लोगों की करी हुई थी न! फिर मैंने यदि समधी जी को शादी के लिए राजी कर लिया तो तुम्हें कहां कष्ट हो गया?’’ मैंने ठंडे स्वर में उत्तर दिया।
     ‘‘तूने तो यों ही बिरादरी में हमारा जीना हराम कर रखा है, हर कोई हमें भौंडता फिर रहा है कि तुम्हारी बहन तो सारी दुनियां में मंचांे पर नाचती-गाती फिर रही है, न कोई लाज-शर्म और न घर-परिवार की चिन्ता!’’ उसने गुस्से में आते हुए मुझ पर पहला आरोप ताना।
    मैंने उसका भी धैर्य से उत्तर दिया, ‘‘लोगों के कहने और घर-परिवार की चिन्ता को तो एकबारगी अलग रख, वह तो तू भी जानता है कि कौन-कितनी-क चिन्ता रखता है, मुझे तो यही समझा दे कि मंचों  पर गाना और नाचना तुम्हारे लिये लाज-शर्म की बात कब से हो गई। अपने बाप-दादा का तो यह खानदानी पेशा रहा है, जबकि मैंने तो बहुत इज्जत के साथ यह कला अपनाई है और इसके जरिये सभ्य समाज में अच्छी इज्जत और इमदाद भी पाई है, फिर तुम्हारे लिए यह लाज-शर्म की बात कैसे हो गई।’’
    ‘‘मैं तुझसे ज्यादा बहस नहीं करना चाहता... मुझे तो यही कहना है कि तू जब हमारी वाधू रही ही नहीं, तू तो वसुधा बन गई है... खुद इतनी मन-मरजी करने लगी है कि बाप और भाई को तो किसी गिनती में ही नहीं रखती तो फिर घर में पंचायती किस नाम की करना चाहती है.... तू अपना ही भला-बुरा देख न... बीना का ब्याह कब होना है, इससे तुझे क्या लेना-देना है... वह हम जानें और यह जाने...’’
    मैं गनपत के इतने सपाट और रूखे बोल सुनकर एकबारगी तो अचरज में अबोली रह गई.... मन में गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन उससे भी अधिक चिन्ता इस बात की हो रही थी कि कहीं बनी हुई बात बिगड़ न जाए... मैं इसी दुविधा में बैठी कुछ जवाब सोच ही रही थी कि इतने में गुस्से से भरी हुई बीना फुंफकार उठी, ‘‘तो अब तू रह गया है मेरा भला-बुरा देखने वाला, ये मेरी मां-जाई बहन है और कुछ भला करने लायक है तो इसके करने से तो तेरी इज्जत उतर रही है.... जिन बहनों के तुझ जैसे भाई और वैसा ही पीछे बाप हो तो उन्हें तो जल्दी ही कोई गहरा कुआं या खाड देख लेनी चाहिए! आया बड़ा मेरा भला सोचने वाला... इन पिछले बरसों में देखी नहीं क्या तुम्हारी भलाई.... घर में दो टंक रोटी तो और बात है, इज्जत से दो घड़ी आंगन में खड़ी रह जाएं वही बहुत बड़ी बात है... तुम लोग मुझे कितना सहारा देने वाले हो, वह मैंने अच्छी तरह जान लिया है... मेरी जुबान मत खुलवाओ... मुंह छुपाने को गली नहीं मिलेगी...!’’ गुस्से और अवसाद में बीना की सांस धौंकनी की तरह बजने लगी थी और उसकी आंखों में आंसू छलछला आए थे, उसका गला अवरुद्ध हो रहा था। मैं कुछ बात संभालना चाह रही थी, उससे पहले ही गनपत उठा और गुस्से से पैर पटकता हुआ घर से बाहर निकल गया। बापू वैसे ही नशे में संज्ञाहीन-से बैठे थे और भोजाई भी उठकर कमरे के भीतर चली गई थी।
     यों बात को बीच ही में छोड़कर चले जाने के उपरान्त यह तो स्पष्ट था कि भाई से इस स्तर पर बात करने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। बापूजी की हालत को देखते  हुए और कुछ सोचने की गुंजायश बची ही नहीं थी। ओरे की लटान पर खंख से भरी उनकी सारंगी में अब कोई तार-स्वर बाकी नहीं रह गया था, ब्याव-सगाइयों में कोने में रखे जिस ढोल पर मां और यशोदा के स्वर परवान चढ़ते थे, उसकी मंढ़ी हुई खाल अब जगह-जगह से फट गई थी और पास में मौन बैठी बीना के स्वर की थकान और उसका उफान घर के अंधेरे कोनों में अब भी गूंज रहा था.... मैं जानती थी कि इस बिखरी हुई सरगम का अब आमूल बदल जाना लाजिमी हो गया है, उसकी स्वर-ताल को उन्हीं खंडित साजो के माध्यम से साधना अब संभव नहीं रह गया था.... मैं यह भी जानती थी कि भाई की यह उफनती रीस उसकी अपनी कमजोरियों को ढकने का मिथ्या बहाना बनकर रह गई हैं - न वह तय की हुई तारीख में कोई विघ्न डाल सकता है और न होते हुए काम में कोई सहारा दे सकता है। मैं उससे कोई सहारा मांग भी नहीं रही.... मैंने पहले तो बीना को ही यह समझाने का यत्न किया कि वह धीरज रखे और यह समझ ले कि जिन लड़कियों के मां-बाप और भाइयों में अपनी जिम्मेदारी उठाने की ऊर्जा नहीं होती, उन पर ज्यादा निर्भरता या असन्तोष दिखाने से कुछ नहीं होता। उन्हें अपना आपा खुद संभाल लेना चाहिए और यदि कोई अनावश्यक दबाव पड़ता हो तो हिम्मत से उसका सामना करना चाहिए। यों बात-बात पर कुँए-खाड की बात सोचना तो एक तरह से अपनी ही कमजोरी उजागर करना है....!
     बस, इसी ऊहापोह और आकुलता में रात से मेरा कलेजा भीतर-ही-भीतर छटपटा रहा है कि आज घर और परिवार नाम की संस्था में कमजोरियां इतनी गहरी कैसे पैठ गईं? यह कितनी दुखद बात है कि वह आपस के रिश्तों की इतनी-सी मर्यादा को भी बचाकर नहीं रख पा रहा है ! अपने परिवार और समाज में ही यदि मनुष्य इतना अकेला और अनसुहाता हो जाए तो फिर हम किस तरह के भविष्य की उम्मीद रखते हैं.....!

***




-          नन्‍द भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग,
मानसरोवर, जयपुर – 302020
nandbhardwaj@gmail.com

 राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर के माडपुरा गाँव में फागुन वदी अष्टमी, वि. संवत् २००५ (२० मार्च १९४९) को जन्म, लेकिन राजकीय दस्तावेज में १ अगस्त १९४८ दर्ज। हिन्दी और राजस्थानी में कवि, कथाकार, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी के रूप में सुपरिचित। सन् १९६९ से कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संवाद और अनुवाद आदि विधाओं में निरन्तर लेखन और प्रकाशन। जन संचार माध्यमों विशेषत; पत्रकारिता, आकाशवाणी और दूरदर्शन में सम्पादन, लेखन, कार्यक्रम नियोजन, निर्माण और पर्यवेक्षण के क्षेत्र में पैंतीस वर्षों का कार्य अनुभव।

Tuesday, November 27, 2012

हेमा दीक्षित की कविताएँ


वर्तमान समय की रेखांकित कवयित्री हेमा दीक्षित  की कविताओं में स्त्री जीवन से जुड़े यथार्थ को बहुत सहजता से व्यक्त किया गया है, पुरुष प्रधान विचारों वाले  समाज का अभिन्न अंग होते हुए भी स्त्री आज भी उपेक्षित है, हेमा दीक्षित की कविताएँ जहां बहुत ही सरल शब्दों में स्त्री मन की पीड़ा  दर्शाती हैं वहीँ पुरुष प्रधान समाज पर एक करारा व्यंग भी करतीं हैं , प्रस्तुत है भीड़ से अलग अपनी कविताओं के माध्यम से हेमा दीक्षित का अनोखा, नया अंदाज़ ...






हेमा दीक्षित

२१ जुलाई को कानपुर में जन्म.कानपुर विश्वविद्यालय से,
अंग्रेजी साहित्य में स्नातक एवं विधि स्नातक. हिन्दी साहित्य एवं
अंग्रेजी साहित्य लेखन में रूचि. विधिनय प्रकाशन, 
कानपुर द्वारा प्रकाशित द्विमासिक विधि पत्रिका 'विधिनय'
की सहायक संपादिका. कानपुर से प्रकाशित ‘कनपुरियम’
एवं ‘अंजुरि’ पत्रिकाओं में कवितायें प्रकाशित. नव्या ई पत्रिका, 
खरी न्यूज ई पत्रिका, पहली बार ब्लॉग, 
आपका साथ-साथ फूलों का ब्लॉग, नई-पुरानी हलचल 




1- दिउता ... चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातो तक ...





छुटपन से पायी सीख , 

संझा बाती में

बिजली के लट्टू को करो प्रणाम ,

बालसुलभ, उचक जिज्ञासा ने

पाया था जवाब,

"धूरी संझा के दिउता है

जेई रातन की आँखी है"

आँखी मीचे करा भरोसा

ज्यों-ज्यों बढ़े दिन और राती

त्यों-त्यों बढ़े दिउता और दिया-बाती

धीमे-धीमे खुली प्रपंच पाती

गुम होशों ने जगने पर पाया, कि

बिजली के लट्टू को चमकाने का

बिल भरना पड़ता है

दिउता माखन चोर है

दिउता रिश्वतखोर है

उनकी झलक पाने को

लाइन हाज़िर होना पड़ता है

असंख्य दशाननों के अनगिन हाथों

मिलती है अनचाही भिक्षा

कोमल गालो से आर-पार

भालों का टैक्स चुकाना पड़ता है

उपवासी जीभो का चरणामृत

उन्हें चढाना पड़ता है

बेचैन मनौतियों की फूटी थरिया में

दर्शन की प्यासी बेसुध सुधियों को

रीती आँखों की सहियों से

एक मूक रसीद कटानी पड़ती है...


-२- 


दिउता की खातिर रखनी होती है

चुप्पे मुँह अंधियारों से जगरातों तक

घर-आँगन और अपनी साज सँवार,

माटी के मोल चुके सौदों में

जम कर बैठे 'बनियें' को

अपने मोल चुकाना पड़ता है,

नियमाचारों,पूजा-पाठों,निर्जल उपवासो के

ठौर-ठिकाने घर-घर कहना होता है

अर्द्ध-रंगों के झूठे वेशों

दिशाहीन स्वास्तिकों का

खेल रचाना पड़ता है

दिउता की क्षुधाओं के

अपूरित कलसे भरने को

एक मुट्ठी बरकत का

आटा,चीनी और गुम पइसा रखना पड़ता है

इन सब से बच कर

खूंटे की चिड़िया को

भण्डार कक्ष के एक जँगहे पीपे मे

अपने गाँठ-गठूरे लटकी

खारी बारिश रखनी पड़ती है

और दिउता ....

उनका तो ऐरावत है

उन्मुक्त विचरता है

सोमरस सिंचित

तैतीस कोटि आकाशों में ...



2- अपने से अजनबी ....फुलगेंदवा


(अस्पताल का यह संवाद रूपी दृश्य एक स्त्री जीवन की अनावधानता में उस पर

गुजरी कहानी उसी की जबानी कहता है ....)



नाम बताओ ?

"फुलगेंदवा "

फुलगेंदवा ?

किसने रक्खा यह नाम ?

"हम्मै पता नाय,

पर कौन रखिये , अम्मै रक्खिन हुईये"

शादी को कितने साल हो गये ?

"हुई गई दुई-चार बरसे"

रजिस्टर पर कैटवॉक करती कलम की चाल कुछ परेशान हुई ,"दुई कि चार ?

"तीन लिखि लेव"

उम्र बताओ ?

"हुईये बीस-बाईस बरस "

इस बार लिखती कलम ने आँखे उठाई

और वाक्य ने घुड़का- "ठीक से बताओ

बीस-इक्कीस या बाईस ...?"

फुलगेंदवा का जवाब रिरियाया ,"हम कैसे बतावें, अम्मा कबहूँ बताईनय नाई,



अउर हम्मैं उमर से कछु कामऔ नाय परौ"

खीझी हुई कलम ने

घसीट मार उम्र दर्ज की

बीच की इक्कीस बरस .

महीना कब आया था ?

उसने साथ वाली स्त्री का मुँह ताका,"काय जिज्जी तुम्हे कछु याद है "

साथ वाली जिज्जी मुँह दबा के हँसी ," हमें कईसे याद हुईये,

तुमाई तारीख तुमई बतावो"

कलम की घिसी

और खूब मंझी हुई

जबान से सवाल कूदता है,"होली से पहले कि बाद में ?"

एक-दो मिनट सोचा जाता है

और गहरे सूखे कुएँ की तली से

खँगाल कर निकाला

जवाब गिरता है," होली जली थी ताकै दुई रोज बाद "

तारीख दर्ज हो जाती है .

पति का नाम बताओ ?

अबकी फुलगेंदवा मुँह दबा कर हँसती है

अपना सर ढँक लेती है

कलम डपटती है,"जल्दी बताओ ..."

"अरे वोई मोरपंख वाले मुरलीबजैया..."

कलम अटकल लगाती है ,"कृष्ण ..."

"नाई ...

जाई को कछु बदिल देवो

और जाई मे चंद्रमऔ जोड़ दिऔ"

कैटवॉक के परास्त हाथों ने अपना पसीना पोंछा ,

कलम ने रजिस्टर पर अपना सर धुना

ठंडी साँसे छोड़ी

और अटकलपच्चू नाम उचारा ,"किसनचंद"

तेज घाम में झुरा गई

फुलगेंदवा खिल उठी

चटक-चमक ,

जामुनी रंगत में

जैसे सफ़ेद बेले फूल उठे ," हाँ बस जेई तो है हमारे वो"

कलम ने परचा तैयार करा

मार खाने की अभ्यस्त

घंटी को थपड़ियाया

और सधे हाथों ने परचा

डॉक्टर की मेज पर ले जा कर

एक अजनबी वजन के नीचे दबा दिया ...





3- . सुंनो ये उठती ध्वनियाँ

यह प्रारंभ के दिवस है

धूप फेंकी है सूरज ने

मेरी जड़ी खिड़की पर छपाक,

चौड़ी मुसी सफेदी

किनारी पतली लाल

अंध केशो पर टिकी

तुमको कैसे मालुम

अन्दर बेचैन अंधेरो में

रौशनी की भूख

जाग आई है

सुनो, देखो

उतार फेंको

कमल के फूलो का खूबसूरत

यह आबनूसी चोला

सुनो-

इस हलकी चमक से

उठती ध्वनियाँ

स्थगित मत कर निरखना

धूप की मुस्कान

साध तू व्याप्त आज्ञापकों का अराध्य

यह प्रारंभ के दिवस है

तुमको नहीं मालुम

यह मेरे - तुम्हारे

वशीकरण के दिन है !!


4- कोई तो बताए


क्या बाँध कर रक्खूं
अपनी चोटी के फीतों में
कमरों से झाड़ी धूल
तोड़े हुए
मकड़ी के घर या
कुचली हुई उनकी लाशें
रसोई में पकते
खाने की महक
या बेकार में पढ़ी
कानून की किताबो की धाराए
बताओगे नहीं कभी क्या
बाँध कर रक्खू क्या
अपनी चोटी के
फीतों में !!



~हेमा~

Sunday, November 25, 2012

जयश्री रॉय की कहानी, काली-कलूटी



हाल के वर्षों में हिन्दी कथा साहित्य को समृद्ध करने वालों में जयश्री राय एक जाना पहचाना है। गोवा विश्वविद्यालय से अध्ययन एवं कुछ वर्षों तक अध्यापन करने के बाद वह वर्तमान में स्वतंत्र लेखन कर रहीं हैं । बतौर अभिनेत्री उन्होने कुछ बांग्ला फिल्मों में अभिनय भी किया है । लेखन में उनके आगमन ने अपनी विशिष्ट भाषा के कारण जहां लोगों को आकर्षित किया है वहीं अपने समकालीनों से अलग पहचान भी दी है । उनकी कहानियाँ जहां एक तरफ लंबी रूहानी कविता सी लगती हैं वहीं दूसरी तरफ अभिव्यक्ति की स्पष्ट और निःसंकोच दृष्टि के कारण उन्हें बोल्ड कहानीकार के रूप में भी स्थापित करतीं हैं । आलोचक परमानंद श्रीवास्तव के शब्दों में "जयश्री राय की दुनिया प्रेम की, देह-राग की, नींद की, रात की, रतजगे की दुनिया है। उनकी कथा भाषा निर्मल वर्मा, कृष्णा सोबती, गीतांजलि श्री के आसपास है। वह बिम्बों की फन्तासियों की, भोर के धुंधलके की दुनिया है।" हिन्दी साहित्य की लगभग समस्त पत्र-पत्रिकाओं में जयश्री की कहानियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं। बेहद ही कम समय में उनका रचना-कर्म "तुम्हारे लिए" (कविता-संग्रह), "अनकही" व "तुम्हें छू लूं जरा" (कहानी-संग्रह) और "औरत जो नदी है" (उपन्यास) के रूप में प्रकाशित हो चुका है ।



काली-कलूटी 
___________

       बाथरूम का दरवाजा अंदर से बंद करके उसने अपने कपडे उतारकर खूंटी पर टांग दिये थे . छोटे-से बाथरूम में ठीक से खडे होने के लिए भी पर्याप्त जगह नहीं थी . एक कोने को घेरकर बडा चहबच्चा था और दीवार पर कुछ कीलें गढी थीं . ऊपर एक छोटा रोशनदान था जिसपर साबुन, तेल, दंत मंजन जैसी चीजें रखी रहती थीं . उसके पीछे घर की चार दीवारी के पार एक बहुत बडा नीम का पेड था जिसपर दिनभर कौए बोलते रहते थे .

बाथरूम में दाखिल होते समय उसे शैम्पू के साथ साबुन की बट्टी थमाते हुए बडी भाभी ने विनोदपूर्ण अंदाज में उससे कहा था- खूब रगडकर नहाना लाडो, फिर देखना, तुम भी फिल्म तारिकाओं की तरह फेयर एंड लबली हो जाओगी . कहते हुए यथासंभव गंभीर रहने के बावजूद उनकी आँखों में गहरा व्यंग्य छलक आया था . आंगन में कुएँ के जगत पर बैठकर बर्तन मांजती हुई महरी मुँह दबाकर अपनी हँसी रोकने का प्रयत्न करती रही थी .
वह देखने में सुंदर नहीं है . उसका रंग गहरा साँवला है . इस कारण अबतक उसकी शादी नहीं हो पायी है . उम्र तीस पार कर रही है . पूरा घर उसकी शादी न हो पाने की वजह से परेशान है . अब तक न जाने कितने रिश्ते आये और टूट गये . किसी को उसका रूप पसंद नहीं आता तो किसी को उसका रंग ! पढाई-लिखाई में भी वह हमेशा से साधारण ही रही थी . किसी तरह पास क्लास में बी. ए. पास करने के बाद स्थानीय कचहरी में उसे टाईपिस्ट की नौकरी मिल गयी थी . यही गनीमत है . इस नौकरी की वजह से भैया-भाभी का रबैया उसके प्रति कुछ ठीक हो चला है, वर्ना वे तो उससे कटे-कटे ही फिरते थे .

उन सबके बीच में माँ थीं- अपनी मजबूरियों के सलीब में लटकी हुई . एक तरफ उनकी व्यस्क, विवाह योग्य बेटी थी तो दूसरी ओर उनकी बहू और बेटा जिनका मन रखकर चलना अब उनकी व्यावहारिकता ही नहीं, विवशता भी बन थी . अपनी अन्य दो बेटियों का विवाह कर अब वे रातदिन अपनी छोटी बेटी के विवाह को लेकर परेशान रहा करती थीं .

आज सुबह जब वह ऑफिस के लिए निकल रही थी, बडे भैया ने यह कहकर रोक लिया था उसे कि आज लडकेवाले उसे देखने आयेंगे . उन्होंने शायद अपने आने की सूचना अचानक ही दी थी . घर में एकदम से हडबडी मच गयी थी . भैया बाजार से खाने-पीने का सामान ले आये थे . माँ ने जल्दी-जल्दी दरवाजे, खिडकियों पर धुले हुए पर्दे डालकर मेज पर फूलकारीवाला सफेद मेजपोश बिछा दिया था . उसके द्वारा सीले गये तकिया के गिलाफ, चादर, मेजपोश आदि भी निकालकर बैठक में नुमाइश के लिए करीने से सजा दिए गये थे .

बडी भाभी ने बडे बेमन से अपनी लाल बार्डरवाली तसर सिल्क की साडी और मोतियों का सेट निकाल दिया था . कटाक्ष करने से भी नहीं चुकी थीं- इस बार अगर ऊपरवाले की कृपा से तुम्हारी शादी पक्की हो गयी तो तुमसे गिन-गिनकर दस ड्रार्ई क्लीन के पैसे लूंगी ननदजी ! फिर महरी की तरफ मुडकर हल्के से अपनी बायीं आँख दबायी थी- इसे देखने-दिखाने के चक्कर में अबतक न जाने मेरी कितनी साडियों का सत्यानाश हो चुका है...

भैया ने उन्हें घुरकर देखा था और वह अपनी हँसी दबाती हुई दूसरे कमरे में चली गयी थी . माँ ने उसकी बात न सुनने का एक बार फिर अभिनय किया था . इसी तरह वह अपनी बेटी के अपमान और बहू के कोप भाजन बनने से स्वयं को बचाये रखती हैं .

सबकुछ सुन-समझकर भी वह अनजान बनी अपने नाखून तराशती रही थी . बीते कई वर्षों में वह अपने अंदर एकदम भोंथरा, कुंद हो आयी है . अब हर बात पर उसे दुख नही होता, एक तरह से उन्हें इनकी आदत-सी पड गयी है .

उसके हाथ-पाँव सूखे और असुंदर हैं . गाँठ पडी अंगुलियों पर की त्वचा ढीली और झुर्रियोंदार है . पाँव की अंगुलियाँ भी मोटी और ऊपर की तरफ से एक अनुपात में छँटी हुई हैं . मैनीक्योर, पैडिक्योर की तो कोई गुंजाइश नहीं थी, किसी तरह नाखूनों को गोलाई में काटकर उन पर हल्के मोतिया रंग की नेल पॉलिश की लीपा-पोती कर दी गयी थी .

माँ ने बेसन, मलाई का लेप तैयार कर सुबह ही उसके चेहरे पर लगा दिया था . वह बिना कुछ कहे सबका कहा किये जा रही थी . माँ को कभी-कभी अपनी बेटी की इस चुप्पी से बहुत डर लगता है . उन्हें लगता है, उसकी बेटी के अंदर कभी बहनेवाली जीवन की उजली नदी धीरे-धीरे मरती जा रही है . वह उन्हीं के सामने चुपचाप ऊसर होती जा रही है . कितनी जीवंत, प्रांजल हुआ करती थी कभी . हँसी में किसी अल्हड नदी का-सा किल्लोल हुआ करता था... गहरी साँस लेकर वह आकाश की तरफ देखती हैं- ईश्वर ने उसे कैसा उजला मन दिया है, मगर कोई उसे देखना नहीं चाहता . सबको रूप चाहिए, गोरा रंग चाहिए... अपनी बेटी को तिल-तिलकर घुटते-मरते हुए देखने के लिए वह विवश भी है और अभिशप्त भी . उसके सूने, क्लांत चेहरे की तरफ देखकर वह एकांत में अपनी आँखें पोंछती है और भगवान् के उद्देश्य में हाथ जोडती हैं .

मलाई, बेसन का उबटन लगाकर भी उसके रूखे चेहरे पर कोई निखार नहीं आता . बल्कि चेहरा और ज्यादा पीला और त्वचा रूक्ष लगने लगता है . न जाने क्यों उसके माता-पिता ने उसका नाम लावण्य रख दिया था . यह एक बहुत बडी विडंबना हो गयी थी उसके साथ . लोग उसका नाम सुनते ही कौतुक से मुस्कराते- लावण्य...! अच्छा !

‘बांझ धरती पर कभी फूल नहीं खिलते...‘ आईने में अपने चेहरे की तरफ देखकर उसे कहीं बहुत पहले पढी किसी कविता की यह पंक्ति याद आती और वह अपना मुँह फेर लेती . सुबह उठकर आईने में अपना चेहरा देखने से भी वह कतराती है .

बडी भाभी कामकाज के बीच उसे बहुत हिकारत से देख रही थी . वह स्वयं बहुत खूबसूरत है . गोरी और सुडौल . दो बच्चों के जन्म के बाद शरीर और भी भरकर खिल आया है . सोने के आभूषण उनके शरीर पर झलमलाते हैं . गहरे, चटकीले रंग की साडियों और मांगभर सिंदूर में सूरजमुखी की तरह दर्प और गुमान से दपदपाती फिरती हैं . भैया पूरी तरह उनके वश में हैं . ऊपर से उनका मायका भी सम्पन्न है . अपने साथ घरभर कर दहेज लायी हैं . सभी पर उनका रौब जमा हुआ है .

उनके भव्य व्यक्तित्व के सामने लावण्य का पहले से ही दबा-ढँका स्वभाव और भी दयनीय होकर रह गया है . भाभी भी उसे उसकी तुच्छता, हीनता का बोध कराने का एक भी अवसर हाथ से जाने नहीं देतीं . उनके रातदिन के ताने, उलाहने और ह्यदयहीन कटाक्ष से लावण्य के अंदर का रहा-सहा आत्म विश्वास भी एक तरह से समाप्त हो गया था . वह किसी योग्य नहीं . उसे कभी कोई नहीं अपनायेगा . अक्सर वह बाथरूम में नहाते हुए रोती है, इतना धीरे कि कोई सुन न सके- मुझे भी प्यार चाहिएऽ, अपना घर, परिवार चाहिए...

वह जहाँ भी जाती है, उसका अभी तक विवाह न हो पाना ही मुख्य मुद्दा बना रहता है . पहले-पहले इनके जबाव में जो बहाने गढे जाते थे वे अब उसे स्वयं ही हास्यास्पद प्रतीत होने लगे थे . इसलिए अब वह अधिकतर सामाजिक, धार्मिक कार्यप्रमों जैसे शादी, मुंडन, जनेऊ आदि में जाने से कतराने लगी थी ...

उसके साथ की लडकियाँ अबतक एक-एककर ब्याही जा चुकी थीं . शादी के कुछ महीनों बाद ही वे अक्सर गर्भवती होकर अपने मायके लौट आती थीं . उनके निखरे चेहरे, सुहाग-राग की कहानियाँ, गर्व, तुष्टि से आप्लावित रूप... इन बातों से एक तरह से उसे वितृष्णा ही हो गयी है . उसे लगता है मानो सब जान-बुझकर उसका दिल दुखाने के लिए ही अपने सौभाग्य और भरी-पूरी गृहस्थी की कहानी उसके सामने सुनाते रहते हैं . अपने सुख की ढेर सारी बातें बताकर वे चेहरे पर सहानुभूति के कृतिम भाव ओढकर उससे पूछते- और... तेरा कुछ हुआ ?

जो जग जाहिर है, उसका जबाव देना वह जरूरी नहीं समझती थी . चुपचाप उठकर वहाँ से चली आती थी . उसे लगता था, उसे देखते ही यकायक लोग चुप हो जाते हैं या उसके पीछे कानाफूसियाँ तेज हो जाती हैं .

सभी से किनारा करते-करते आज वह पा्न्नयः निसंग हो आयी है . दफ्तर में अपने काम से काम रखती है और घर में फुर्सत के क्षणों में अपने में डूबी अकेली पडी रहती है . शामें उसकी अधिकतर छत के एकांत में खडी-खडी कट जाती हैं .

अफ्नैल की उल्टी-पल्टी चलती हवा में सहजन के फूल झरते रहते हैं, दूर डैम के शांत बँधे हुए पानी में पूरा आकाश तैरता रहता है . वह मौसम की करवटें देखती है, धरती का हर पल बदलता रूप भी . बस एक वह है जो वही की वही रह गयी है- अपनी ठहरी हुई किस्मत के साथ . एक साँवले शरीर की कैद में मन का सारा उजलापन भी धीरे-धीरे धूसर पडता जा रहा है . गुजरते हुए समय के साथ मन का सोना देह की माटी में दवा पडा अपनी चमक, अपना रंग खोता जा रहा है... मगर इस माटी की दुनिया को माटी का ही मोह है, स्नेह, संवेदना जैसी चीजों का कोई मोल नहीं... कोई उसे अपनाने, मांजने को तैयार नहीं होता .

मगर अपनी मैली त्वचा के नीचे वह भी उतनी ही इंसान है जितनी गोरी रंगतवाली लडकियाँ . उसके सपने, उसकी इच्छाएँ, उसका मन सिर्फ काली होने से दूसरों से अलग नहीं हो जाता . कोई उसे छूकर क्यों नहीं देखता, उसके परस में उतनी ही कोमलता है जितनी किसी खूबसूरत लडकी के स्पर्श में होती है . उसकी साँसों में वही हरारत है, वही चाहना जो एक सुंदर शरीर की मालिक के पास होती है . कोई उसकी आँखों में झाँके तो ! सुने तो उसकी मूक चावनी की भाषा... वह प्यार देना चाहती है- स्वयं को उजाडकर- ढेर-ढेर सारा... कोई बस ले ले उसे, सब रह गया है उसके भीतर- पहाड बनकर- स्नेह, करूणा, कामनाएँ, इस मैले-कुचैले, असुंदर शरीर के भीतर वह दबकर रह गयी है, मकबरा बन गया है यह साँवला रूप उसकी आत्मा का, जिसका कोई रंग नहीं होता, होती है बस अरूप संवेदनाएँ, जिसका कहीं कोई दाम नहीं...

वह अकेले में पडी-पडी सोचती है, जिंदगी अब बाजार में पडी हुई एक वस्तुमात्र है, उसी के हाथों रेहन चढकर रह गया है . इंसान को कैसा होना चाहिए, यह यही बाजार तय करता है . दुनिया कैसी है, यह बात नहीं, दुनिया कैसी होनी चाहिए, यह बात अहम् हो गयी है . और यह बात बताती है लोगों को कोई और नहीं, यही बाजार- बडी-बडी बहु राष्‍ट्रीय कम्पनियाँ- अपने तरह-तरह के उत्पादों के विज्ञापन के जरिये . यह कम्पनियाँ तय करती है, इंसान को कैसा दिखना चाहिए, कैसे उठना-बैठना चाहिए, कैसे जीना चाहिए... सुबह से लेकर राततक- हर बात, हर काम के लिए इनका मशविरा लेकर चलना जरूरी हो गया है . वर्ना आज के दौर में पिछड जाने का डर है और यह कोई भी नहीं चाहता . सभी को अप टु डेट और टेंड्री बने रहना है .

यह सह्यदय, अच्छी प्रसाधन कम्पनियाँ बताती हैं, आज की औरत को गोरी, खूबसूरत, जीरो फिगर की होनी चाहिए, जिसके बाल रेशमी, मुलायम और रंगीन हो, पलके मसकारा लगाकर घनी, लंबी हों, होंठ इस रंग के हों और गाल उस रंग के हों . वह डिजाइनर अंतर वस्त्र पहने और सुबह अमूक कम्पनी का कार्न फ्लैक अमूक स्किमड् मिल्क के साथ करे . तभी उसकी शादी होगी, तभी उसे कार्पोरेट कम्पनियों में ग्लैमरस् नौकरी मिलेगी, उसके बच्चे गोल-मटोल और हाई आई क्यूवाले पैदा होंगे तथा पति मिलेगा गुड लूकिंग, हैंडसम और बेहद प्यार करनेवाला जो उसे अक्षय तृतीया तथा धन तेरस के अवसर पर हीरों का हार दिलवायेगा तथा मॉरिसस में हॉली डे करवाते हुए प्न्नेम के लिए चाकलेट फ्लेवरवाले कंडोम का इस्तेमाल करेगा . इसे वे एक्स फैक्टर का नाम देते हैं . यह एक्स फैक्टर का होना सबके लिए बहुत जरूरी हो गया है .

वह उदास हो जाती है . सोचती है, वह तो सबकुछ इस्तेमाल करती है- गोरेपन की क्निम, शैम्पू, साबुन, टुथ पेस्ट... सबकुछ ! फिर भी वह अबतक वही की वही क्यों बनी हुई है- साँवली, सपाट, असुंदर...

विज्ञापन तो चिल्ला-चिल्लाकर यही बताता है कि किसी के पास अपना कुछ भी होने की जरूरत नहीं . सबकुछ बाजार में उपलब्ध है, बस जाओ और उठाकर ले आओ- चेहरा, फिगर, प्नेम और भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति, रिश्ते और रिश्तों की जमापूंजी... कोई चाय लोगों को अन्याय, भ्न्नष्टाचार के खिलाफ लडने की प्नेरणा देती है तो कोई सुगंध इंसान में प्न्नेम और इच्छा जगाती है . उसने तो उनकी सारी बातें मानी- माननी पडी, उनपर अमल भी किया, इन सबके बावजूद... सब मृग मरीचिका ही तो निकली- सोने का हिरण !

आकाश में मौसम का एक टुकडा नया चाँद उगता है, तुलसी पर हर सिंगार के उजले फूल अलस झरते हैं, वह देखती है और देरतक देखती रहती है . अंदर धीरे से एक पूरे आकाश का सुनापन घिर आता है .

कभी गिरती हुई सांझ में घर लौटते पक्षियों की काले मनकों की-सी कतारें यहाँ-वहाँ से टूटती हुई साँवली हवा में अस्पष्ट बिला जाती है, दूर कहीं अकेली पड गयी किसी टिटहरी की अनवरत पुकार उसे अनाम दुख से भर देती है...

कभी-कभी माँ पास आ खडी होती है . अपनी पीठ पर रखा उनका हाथ वह महसूस करती है, उससे निसृत होती संवेदना भी, मगर कुछ कह नहीं पाती . इच्छा नहीं होती . एक मौन संवाद बहुत कुछ कहता-सुनता देरतक दोनों के बीच बना रहता है . अंत में रह जाती है दो जोडी गीली आँखें और कुछ उच्छ्वास- लंबी और गहरी... यही माँ-बेटी के साझ का है, बाकि वही अजनबीपन और पथराया हुआ अछोर मौन...

छत से उतरते हुए माँ अपना मुखौटा तलाशने लगती हैं, उन्हें अभी जिंदगी निभानी है . उनका साथ देती हुई वह भी अपनी उदासी तह करके रख लेती है .अभी इनके लिए अवकास नहीं . फिर कभी फुर्सत के किसी महफूज-से क्षण में इन्हें ओढ-बिछा लेगी .

इन दिनों माँ कुछ अजीब-सी हरकतें करने लगी हैं . रोज कोई न कोई नया टोटका, किसी मंदिर या थान का प्रसाद, भभूति, मंत्रपुत ताबीज आदि लाकर उसे थमाती रहती है . उस दिन फेयर एंड लबली का बडा ट्यूब खरीद लायी थी . साथ में पैडेट ब्रांड  और शरीर के अनचाहे बाल उठाने का महंगा क्रीम ...एक दिन स्वयं ही फैशन टी. वी. का चैनल लगाकर उससे कहने लगीं- कैसी सीधी-सादी रह गयी रे तू लावण्य . दूसरी लडकियों को देख, उनका उठना-बैठना, चाल-चलन... नये जमाने का कुछ सीखेगी नहीं तो दूसरों की नजर में पडेगी कैसे . कहते हुए वह स्वयं उसे मॉडलों की तरह चलने का तरीका सीखाने लग पडी थीं . ऐसा करते हुए कितना दयनीय, कितनी भद्दी लगने लगी थीं वे... उसने संकोच से अपनी आँखें मूँद ली थी .

पहले यही माँ-बाबूजी उन्हें टी. वी. पर ऐसा-वैसा कार्यप्रम तक देखने से रोकते थे . बचपन में एकबार ’’हम तुम एक कमरे में बंद हों...‘ गाने के लिए बडे भैया को पिताजी से मार पडी थी . माँ उन्हें अक्सर अजीब नजरों से घूरने लगती हैं . दूसरों की नजर से देखते हुए उन्हें भी अपनी बेटी में खोट ही खोट नजर आती हैं- साँवली, ठींगनी है उनकी बेटी . हिन्दी माध्यम से पास क्लास में बी. ए. पास . अंग्रेजी बोलनी नहीं आती... वह उसकी सूखी देह देखती है और मन मसोसकर रह जाती है . न जाने किस अकाल की पैदाइश है ! जी चाहता है, हाथ में कैंची लेकर उसे खुद हीं काँट-छाँटकर बराबर कर दें, कहीं से ज्यादा तो कहीं से कम कर दें .

पडोस की सकालो देवी का का भतीजा हाल ही में अमेरिका से कॉस्मेटिक सजर्न बनकर लौटा है . वह दूसरे ही दिन अपना सारी लाज, शरम ताक पर धरकर उसके पास चली गयी थी और प्लास्टिक सर्जरी के बाबद सारी जानकारी लेकर आयी थी . मगर बाद में खर्चे की बात सुनकर उनका सारा उत्साह एकदम से ठंडा पड गया था . दो अदद सुडौल स्तनों का मूल्य डेढ लाख रूपये... ! उन्होंने आखिर लावण्य की खुराक में एक कप दूध अतिरिक्त जोड दिया था . हो सकता है शरीर के भरने के साथ उसके वक्ष भी भर आये .

उनकी बातों से त्रस्त होकर लावण्य घंटों अपने कमरे का दरवाजा बंदकर पडी रहती है . अवसाद की धूसर, मटमैली अनुभूतियों में उसका अंतस बोझिल हो उठता है . एकबार उसने किसी लडके की माँ से कहा था, आप मुझे स्वीकार लो माँजी, मैं अपने हाथ-पाँव तराश लूंगी... उनके ठिंगने बेटे से वह लंबी निकली थी . तरह-तरह के अपमान, तिरस्कार उसे मँथता रहता है . किसने उसके साधारण रूप, रंग का मजाक नहीं उडाया, उसकी उपेक्षा नहीं की . सोचते हुए उसे आलोक की याद आती है . अनायास ही अंदर जैसे कोई कच्ची दीवार-सी गिरती है . वह सुलगते हुए तीखे काँटों से आपाद-मस्तक बिंधकर रह जाती है.

आलोक थोडे दिनों के लिए उसके ऑफिस में काम करने के लिए आया था . उसका विभाग अलग था, मगर आते-जाते रास्ते में उनका आमना-सामना हो जाता था . पहली बार अपने जन्मदिन का केक देने वह उसके कैबिन में आया था .वह देखने में जितना आकर्षक था, स्वभाव से भी उतना ही भला था . पहली बार उससे बात करके उसे बहुत अच्छा लगा था . उसदिन शाम को घर जाते हुए उसने उसे बस स्टैंड तक अपनी स्कूटर में लिफ्ट दी थी . इसके बाद वह अक्सर उसे घर जाते हुए रास्ते में मिल जाता था . कईबार वह उसके स्कूटर में लिफ्ट भी ले लेती थी . एकबार उसके आग्रह  पर उसके साथ रेस्तरां भी चली गयी थी . उसदिन दोनों ने साथ लंच किया था .

धीरे-धीरे दोनों का औपचारिक परिचय घनिष्ठता में बदल गयी थी . उसने शायद पहली बार किसी पुरूष की आँखों में अपने लिए प्रशंसा और कामना के भाव देखे थे . आजतक किसी ने उसे इस तरह से महत्वपूर्ण महसूस नहीं कराया था . वह उससे मिलने के लिए आग्रह  करता था, उसकी प्रतीक्षा में देरतक खडा रहता था, उसकी छोटी-छोटी बातों, कामों की तारीफ करता था . लावण्य के ऊसर, बंजर जीवन में जैसे यकायक फूल खिल उठे थे . वह आलोक के प्रेम में सारा दुनिया-जहान भूला बैठी थी .

आलोक ने उसे बताया था, उसपर उसके पूरे परिवार की जिम्मेदारी है, दो बहनों की शादी भी उसे ही करनी है . इस समय यदि उसने अपने घरवालों से उसकी बात की तो वे परेशान हो जायेंगे, इसलिए बहनों की शादी के बाद ही वह घर में उसकी बात करे सकेगा . उसे थोडा-सा इंतजार करना पडेगा . वह इसके लिए खुशी-खुशी तैयार हो गयी थी .

इसके बाद आलोक उसे अपने फ्लैट में ले जाने लगा था . एक रूम का छोटा-सा फ्लैट था उसका, किराये पर लिया हुआ . वहाँ कभी वे सारा-सारा दिन पडे रहते थे . आलोक की बाँहों में सिमटकर वह सबकुछ भूल जाया करती थी . एक मरू की तरह वह न जाने कितने जन्मों से तृषित थी . किसी के प्यार के लिए, छुअन के लिए आकुल, अधीर... आलोक के प्यार का स्पर्श पाकर वह किसी तटबंध टूटी नदी की तरह ही उद्दाम आवेग से बह आयी थी, सारा कूल-किनारा तोडते हुए, सीमाएँ लांघते हुए . उमर की पहली उठान से जो कामनाएँ अंदर ही अंदर बेआवाज परवान चढती रही थी, वे यकायक गहरे-गहरे तक तुष्ट हो आयी थी.

किसी जलभरे मेघ-सा आलोक उसपर बरसा था, प्यास से दरकी जमीन की तरह वह उसे बूँद-बूँद पीती रही थी, रेत पड गयी देह से अँखुआती, सब्ज होती रही थी . पहली बार उसने जाना था, प्यार किसे कहते हैं, चाहना क्या होती है . अपनी ही देह में इतना सुख छिपा होता है, यह भी उसे मालूम नहीं था . वह भी एक स्त्री है, कमनीय और इच्छित है, इसका अहसास जीवन में पहली बार आलोक ने ही दिलाया था उसे . वह किसी बाढ चढी नदी की तरह अपने कूल-किनारों तक भर आयी थी, छलकी पड रही थी रह-रहकर...

उनदिनों नेह के मृदुल छुअन से उसका अंग-अंग भर आया था . अंदर की खुशी लावण्य की धार बनकर चेहरे पर रिस आयी थी . लोगबाग उसे मुडकर देखने लगे थे, और भाभी ने भी नोटिस किया था . माँ भी उसमें आये इस आकस्मिक् परिवर्तन से आश्चर्य चकित थीं . कई बार उससे घुमा-फिराकर जानने की कोशिश भी की थी, मगर वह चुप रह गयी थी . उनसे इस विषय में कुछ कहने की हिम्मत नहीं हुई थी .

गर्मियों की छुट्टियों में जब कचहरी बंद हुई थी, आलोक अपने घर चला गया था महीने भर के लिए . उसके बाद उसकी कोई खबर नहीं आयी थी . वह चिट्ठियाँ लिखकर हार गयी थी, फोन भी किया था . मगर आलोक ने किसी भी तरह का जबाव उसे नहीं भेजा था . छुट्टियाँ खत्म हुईं तो उसने पाया आलोक दफ्तर में भी नहीं आया है . पूछताछ करने पर उसे बताया गया था आलोक की शादी हो गयी है और वह नयी नौकरी लेकर किसी और शहर में चला गया है .

सुनकर वह चुपचाप अपनी मेज पर आकर बैठ गयी थी . उससे ठीक तरह से टाईप भी नहीं किया गया था, हजार गलतियाँ होती रही थीं और इसके लिए अच्छी-खासी ढाँट भी पडी थी उसे . तो इसलिए आलोक उसके पत्रों के जबाव नहीं दे रहा था ! कचहरी के गंदे, पान के पिक से भरे हुए टॉयलेट में वह खडी-खडी लंच ब्रेक  के दौरान रोती रही थी . बाहर से लगातार दरवाजा खटखटाया जा रहा था और आखिरकार जब उसने हारकर दरवाजा खोला था, बाहर एक अच्छी-खासी भीड जुट गयी थी . नीला अंदर आकर उसका चेहरा धुलाकर उसे सहारा देकर बाहर ले आयी थी .

रिक्शा में बैठते हुए उसने देखा था, लगभग पूरी अदालत ही बाहर खडी होकर उसे देख रही थी . रास्ते में उसे अपना रूमाल देते हुए नीला ने कहा था- तुझे तो मैंने कितनी बार समझाने की कोशिश की थी लावण्य . मगर तू तो उसके प्यार में ऐसी पागल हुई थी कि... खैर जाने दे . पता है, अरूण क्या कह रहा था, आलोक उसे कहा करता था, ऐसी उपेक्षित और कुरूप लडकियों को जाल में फंसाना बहुत आसान होता है . वे हीनभावना  की शिकार होती हैं . अरूण उसकी शादी में भी शामिल हुआ था, कह रहा था, उसकी पत्नी बहुत खूबसूरत हुई है- दूध-सी गोरी...

इसके बाद कई महीनों तक उसका ऑफिस जाना दुर्भर हो गया था . उसे लगता था हजार जोडी आँखें उसे हिकारत, उपहास और कौतूहल से हर समय घूर रही हैं . उसे उसके कपडों के पार देख रही हैं . विवस्त्र हो जाने की-सी मनःस्थिति में हो आती थी वह . उस भयानक और अकल्पनीय पीडा को वह सह नहीं पा रही थी . कई बार जी चाहा था, अपनी जान दे दे, मगर हिम्मत नहीं हुई थी . वह जीना चाहती थी, इस सब के बाद भी...

प्रेम  के नाम पर छल,  तिरस्कार... उसकी भावनाओं का निरंतर उपहास ! यह बलात्कार ही था, देह के साथ मन का भी, मगर इसकी कोई सजा नहीं हो सकती... वह किससे शिकायत करती और क्या !

सोचते हुए न जाने कितनी अनझिप रातें उसने पलकों पर काट दी हैं . जिस शरीर में कभी आलोक ने सुख के इतने गहरे उत्स ढूँढे थे, इच्छाओं के जीवित पराग बोये थे, उसमें आज घुन लग गया है, क्षर रहा है हर क्षण दीमक लगे दरख्त की तरह . कभी उसे स्वयं से घिन आती है, कभी ग्लानि के बहाव से मन आप्लावित हो जाता है . दुर्बलता के विरल क्षणों में कस्तूरी मृग की भाँति अपनी ही देह में आलोक का स्पर्श ढूँढती फिरती है . यातना और आत्मदंश का एक लंबा, भयावह दौर...

आईना के सामने कभी खडी होती तो प्रतीत  होता, किसी शवगृह में खडी होकर अपनी ही मृतदेह का शिनाख्त कर रही है . बहुत डर जाती थी वह . अपने में सिमट-सिकुडकर दिनों तक पडी रहती थी .

आलोक के स्पर्श  से जो सोने के पानी की तरह लावण्य की परतें चढी थीं देह पर, वे समय के साथ धीरे-धीरे उतर गयी थीं . बची रह गयी थी वही पुरानी लावण्य- अपनी रूखी-सूखी काया और टूटे हुए स्वप्न के साथ .

इसके बाद भी कई रिश्ते आये थे उसके लिए, मगर कहीं कोई बात नहं बन पायी थी . बार-बार सज-धजकर वह नुमाईश पर बैठती और बार-बार नापसंद कर दी जाती . ठुकरा दिए जाने की जिल्लत में रातदिन जीते हुए वह एक पथराये हुए मौन से दिन पर दिन घिरती जा रही थी . यही उसका अपने बचाव के लिए ढाल और कवच था .लोगों से वही पुरानी टिप्पणियाँ सुनने को मिलतीं- लडकी बहुत काली है, स्वास्थ्य भी गिरा हुआ है, नाक-नक्श भी खास नहीं...

वह रंग-रोगन ले लीपी-पुती आँखें झुकाये बैठी रहती और लोग खाते-पीते हुए उसे देखते-परखते रहते . कोई उसे उठकर खडी हो जाने के लिए कहता तो कोई चलकर दिखाने के लिए कहता . दूसरे कमरे में ले जाकर घर की बडी-बूढियाँ उसके कपडे हटाकर देह का मुआयना करतीं, अशोभनीय प्रश्न  करतीं . इन सबको झेलते हुए वह किसी तरह अपने आँसू जब्त किये रहती . जाते हुए सभी यही कहते कि हम जाकर आपलोगों को सूचितकरेंगे .

यह सुनकर सभी समझ जाते कि इसबार भी लावण्य को नापसंद कर दिया गया है . माँ चुपचाप बिस्तर पर जाकर लेट जाती, भैया घर से बाहर निकल जाते और भाभी बडबडाती हुई अपनी साडी, गहने समेटने लगती . लावण्य अपने कमरे या एकमात्र आश्रय छत के कोने पर जाकर खडी रहती . आदत हो जाने के बावजूद न जाने क्यों हर बार वह रोती है और देरतक उदास रहती है . उसे लगता है, वह किसी अदालत के कठघरे में खडी है और लोग उससे उस गुनाह का जबाव मांग रहे हैं, जो उसने कभी किया ही नहींहै .

कभी उससे उसकी इच्छा पूछी नहीं जाती, पसंद-नापसंद भी नहीं . मोटे, ठिंगने, काले, कदर्य पुरूष उसके रूप-गुण पर निःसंकोच टिप्पणी करते, उसका उपहास उडाते और वह गूंगी-बहरी बनी बैठी रहती .

न जाने क्य-क्या सोचती हुई वह देर तक बाथरूम के फर्श पर बैठी हुई थी . भाभी ने एकबार फिर बाहर से दरवाजा पीटा तो उसे होश आया . जल्दी-जल्दी देह पर साबुन रगडते हुए ख्याल आया था उसे कि काश साबुन के इन झागों के साथ अपने रंग की मैल भी वह उतार फेंक पाती ! चेहरे पर थोडा लावण्य और चाक्-चिक्य ला पाती !

दीवार पर टंगी आईने के धुंधलाये हुए शीशे में वह अपनी आकृति देखती रही थी - यहाँ-वहाँ से झांकती हडिड्याँ, नीर्जिव, रूखी त्वचा, हाड-मांस एक हुआ शरीर...अपनी अपुष्ट, अविकसित वक्षों को दोनों हथेलियों में भरकर वह सोच उठी थी, काश उसके पास डेढ लाख रूपये होते... होते तो वह अंदर शिलिकॉन डलवाकर दो सुडौल उरोज वनवा लेती, बटक्स के इंजेक्शनस् से अपने माथे की झुर्रिया सँवार लेती, त्वचा की सलवटें खींचवाकर सोलह साल की लडकी की तरह उन्हें सतर, दुरूस्त कर लेती, नितंबों की मांस पेशियों में हवा भरवाकर उन्हें गुब्बारे की मानिंद फुला लेती... आजकल तो रूप-रंग बाजार के शो केस में पडी हुई चीज है, जिसके पास पैसे हों, खरीद ले...

अपनी उश्रृंखल होती सोच पर वह सायास अंकुश लगाती है और जल्दी-जल्दी कपडे पहनकर बाथरूम से बाहर निकल आती है . भाभी लगातार उससे जल्दी से तैयार हो लेने के लिए ताकीद किये जा रही है . लडकेवालों के आने का समय लगभग हो चुका है .

भाभी के सवालों का कोई जबाव दिये बिना वह अपने कमरे बंद हो गयी थी . भाभी अभी तक पूरा घर सर पर किये हुए थी . माँ भी हर दो मिनट में आदतन आकर उसका दरवाजा खटका जाती थी .

थोडी देर बाद भैया ने आकर सूचना दी थी, लडकेवाले आ चुके हैं . भाभी रसोई में नाश्ते का बंदोबस्त देखने दौड गयी थी . भैया बैठक का मोर्चा सँभाले हुए थे . माँ अधैर्य होकर फिरसे उसका दरवाजा ही पीटने लगी थी . एक छोटे-से अंतराल के बाद अचानक लावण्य दरवाजा खोलकर बाहर निकल आयी थी और उसपर नजर पडते ही आंगन में खडी माँ के मुँह से अनायास चीख निकल गयी थी . शर्बत की ट्रे हाथ में लिए भाभी भी रसोई की दहलीज पर स्तब्ध खडी रह गयी थी . बैठक से निकलकर भैया ने लावण्य पर नजर पडते ही अपनी आँखों पर हाथ रख लिया था .

पूरी देह में गोरेपन का कोई क्रीम  चूने की तरह पोतकर लावण्य लाल, चमकीली साडी में किसी मॉडल की-सी अद्भुत भंगिमा में खडी मुस्करा रही थी . उसके होंठों पर लाल लिप्सटिक लिसरा हुआ था, आँखों में काजल... तरह-तरह के रंगों से अपने पूरे शरीर को सजाकर उसने स्वयं को कार्निवाल ही बना लिया था . ब्लाउज में भी चिथडे ढूँसकर उसने अपने सीने पर दो छोटे-मोटे भद्दे, बेढप पहाड उगा लिए थे...

देखने में वह भयावह लग रही थी . उसकी आँखों में अजीब तरह का उन्माद भरा हुआ था . हंसी की भंगिमा में रोती हुई-सी वह सबसे पूछ रही थी- मैं अच्छी लग रही हूँ न..? देखो अब मैं गोरी भी हो गयी हूँ, स्मार्ट भी... अंग्रेजी  भी बोल लेती हूँ- ए बी सी डी... आई एम फाइन, थैंक यु... गुडनाइट... इसबार तो मैं जरूर पसंद कर ली जाऊंगी माँ !

बरामदे में अचेत पडी अपनी माँ को हिलाती हुई लावण्य लगातार बोले जा रही थी . साथ में रो भी रही थी, हंस भी रही थी . मगर यह सब कहते हुए उसके चेहरे पर या आवाज में कोई उम्मीद नहीं थी... शायद यह गहरी निराशा या अवसाद से आगे की कोई चीज थी जहाँ आज वह पँहुचा दी गयी थी .

भैया जल्दी-जल्दी अपने मोबाइल पर डॉक्टर का फोन नम्बर मिला रहे थे . भाभी अचेत पडी माँ के चेहरे पर पानी के छींटे मार रही थी . उधर ड्राईंग रूम  में मिठाई खाते हुए लडकीवाले लडकी के इंतजार में अधीर हुए जा रहे थे . उन्हें आज यहाँ से निबटकर एक दूसरी जगह भी लडकी देखने जाना था . उन्हें बताया गया है, वहाँ शानदार लंच का बंदोबस्त किया गया है .
                                                                 **********



जयश्री रॉय
जन्म : 18 मई, हजारीबाग़ ( बिहार)
शिक्षा : एम.ए हिंदी (गोल्ड मेडलिस्ट), गोवा विश्वविद्यालय
प्रकाशन :  विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाओं का प्रकाशन
                अनकही, ... तुम्हें छू लूँ जरा (कहानी संग्रह)
                 औरत जो नदी है ( उपन्यास)
                 तुम्हारे लिए (कविता संग्रह)
 प्रसारण : आकाशवाणी          से रचनाओं का नियमित प्रसारण
  सम्मान : युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012
  संक्षिप्त अवधि के लिए अध्यापन कार्य
   सप्रति : स्वतंत्र   लेखन
   संपर्क : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा-403517
    मो. : 09822581137
    ई -मेल :  jaishreeroy@ymail.com



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Thursday, November 22, 2012

रूपा सिंह की कविताएँ



  कवयित्री रूपा सिंह की मुखर कविताएँ, स्त्री पक्ष को बहुत ही सहजता और आत्मविश्वास से रखती हैं, पहली बार आपके लिए प्रस्तुत है 'फर्गुदिया' पर रूपा सिंह जी की कविताएँ ..







1- हत्या 

कभी- कभी कमरे स्तब्ध होते है
और दरवाज़े चौकन्ने,
जब मोहल्ले से थोड़ी दूर
पर होते हैं दंगे.
मारा जाता है कोई बेहद परिचित अपना.

आग के चारों तरफ बैठे बच्चे
घुटनों को मोड़े, हथेलियों में चेहरा
टिकाए, माँ दादियों से सटकर
बैठते हैं और पिता से दूर
खिसकते हुए
लोहे के चिमटे से भी खाते हैं.

वीरान दिशाओं की बारूदी गंध
भर जाती है फेफड़ों के अंदर
युवा लड़कियां सख्त रंध्रयुक्त  सीनों में
धड़कते एक यंत्र पर अपना
चेहरा टिका सोचती हैं
आवाज़ आवाज़ में कितना फर्क है
और कितनी नजदीकियां भी ?

जब एक कड़ी तपती आवाज़
सदियों से महकती गर्म वाष्पी
सुरों को बदल देती है                        
पल भर में, एक मृत  सन्नाटे  में?

2- सब से खतरनाक समय 

सब से खतरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं कर लूंगी खुले आम प्यार
निकल पडूँगी अर्ध रात्रि दरवाज़े से
नदियों में औंटती, भीगती, अघाती
लौट आऊँगी अदृश्य दरवाज़े से
घनघोर भीतर.

अब तक देखे थे जितने सपने
सबों को बुहार कर  करूंगी बाहर
सीझने दूंगी चूल्हे पर सारे  तकाजों को

पकड़ से छूट गए पलों को
सजा लूंगी नई हांडी में और
कह दूंगी अपनी कौंधती इन्द्रियों से
रहें वे हमेशा तैयार
मासूम आहटों के लिये

संसार की दिग्विजय पर निकली हूँ मैं
स्त्रीत्व के सारे हथियार साथ लिये

सब से खतरनाक समय शुरू हो रहा है
जब मैं करने लगी हूँ खुद से ही प्यार.


3-भय 

कहीं एक बिच्छू है
जो दौड़ता है धमनियों में
रात की कालिमा को मिचमिचाता हुआ
डंक मारने के  फिराक में.

कहाँ जी पाएंगे अब हम अपनी
पूर्ण आयु?
भूकंप, सड़क दुर्घटना या किसी
आतंकवादी हमले में बिना
बतियाए किसी से
चल चुके होंगे बेबस यात्रा पर.

किसी  को जी भर देखने की  कशिश
और बांहों  की  कसन के  मार्मिक
अहसासों को बिना जिए
दौड़ा दिए जाएंगे अनजान दिशाओं में
जीते जीते हम अयोग्य हो जाएंगे
विश्वासों के
जो  कोंच रहे होंगे हमारी पसलियों को.
उन्हें खत्म  करने की  कोई  गुज़ारिश
कहाँ सफल होगी बिना सौहार्द्र  के
पड़ोसियों के यहाँ कटोरियों के लेन-देन
और उसमें भरे दूधिया बताशों के?

बिच्छू भागेगा सरपट...
हम बाकी बची रात
लम्हात चूम चूम  कर बिताएंगे


4-पिनकोड 

एक किताब हूँ मैं
रैक पर सजी
सुंदर रैपर
सुनहरे अक्षरों में चमकती.

मेरे साथी सभी पढ़े गए हैं
कभी न कभी

अभ्यस्त उँगलियाँ छूती
निकलती हर बार
पढ़ी ही नहीं गई बस किसी बार

अब सोची गई हूँ उपहार में  भेजने को
रौंद रौंद कर उकेरा गया है नया पता

डाकिये के झोले में दिनों खदबदाती
नई छुअन सहती, सोचती
पिनकोड नहीं भरा गया
तो क्या                                                                  
एक दिन झोले से उझकूंगी जरूर 
भले बीच चौराहे पर
चिंदी चिंदी हो बिखर जाऊँ.


5-माँ बेटी 

जब भी कोई छाया
मेरे पास आती है
और करना चाहती है
चुंबनों की बौछार
मैं ठिठक  जाती हूँ  माँ...

सीता सावित्री अनुसूया
फुसफुसाने लगती है कानों में
रेंगती हैं चींटियाँ
शापग्रस्त कोलाहल के भाप से...

माँ,
मुक्त कर दे मुझे
किसी अच्छेपन की तलाश से.
एक कहानी गढ़ लेने दे
किसी अंधे कुँए के पास में...


6-लड़की 

कुछ देर में बदल जाएगी तू
भूल जाएगी कहकहे किताबें और कविता

बन जाएगी पृथ्वी
और भूल जाएगी आकाश
संपूर्ण वेग आवेश और ताकत
लगा देगी तू बीज खिलाने में

भूल जाएगी पत्तियों के शबनम
और फूलों  की सुगंध को
फल चखना भी भूल जाएगी

कुछ देर में बदल जाएगी तू.

बन जाएगी कहानी
और भूल जाएगी कहकहे, किताब और
कविता.

7-प्रणय 

तेरी नसों में जो कुछ भी
उबल रहा हो
खूब, पानी, जोश, जवानी का दरिया,
थपेड़े मुझ तक आ जाते हैं.

नौ बित्ते के बिस्तरे पर
छटपटाती मैं उतार देती हूँ
कागज़ों पर खुद को...
जैसे किसी को अंदर तक
समोकर
एक नये को उंडेल देती है औरत


रूपा सिंह
सुपरिचित युवा हस्ताक्षर. तीन आलोचना पुस्तकें अस्मिता की तलाश’,
स्वातंत्र्योत्तर स्त्री-विमर्श और स्त्री-अस्मिता’ तथा स्त्री अस्मिता और कृष्णा सोबती
 प्रकाशित व दलित लेखकों की आत्मकथाएँ- समाजशास्त्रीय आलोचना’ तथा एक कविता संग्रह शीघ्र प्रकाश्य. पंजाबी में भी सृजनरत.  विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा कई परियोजनाओं में पुरस्कृत.  कनाडा सरकार द्वारा भी पुरस्कृत. जन्म: 16 मई. एम.फिल, पी.एच.डी. ज.ला.ने. विश्वविद्यालय से असोशिएट प्रोफ़ेसर. दिल्ली विश्वविद्यालय से डी.लिट. संप्रति: राष्ट्रपति निवासउच्च शिक्षा अध्ययन संस्थान शिमला में एसोशिएट. संपर्क: D-10 राजौरी गार्डन, नई दिल्ली – 1100 15. मो. 09654223543, rupasingh1734@gmail.com.

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