Wednesday, January 30, 2013

'हिंदी सराय - अस्त्राखान वाया येरेवान' - प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल

पुरुषोत्तम अग्रवाल      
जन्म: 25 अगस्त 1955
जन्म स्थान: ग्वालियर, मध्य प्रदेश, भारत
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सत्रह वर्ष तक अध्यापक रहने के बाद वर्तमान में संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं. वे संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य के तौर पर नियुक्त होने वाले हिन्दी के पहले विद्वान हैं।

आलोचक, विचारक प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की पुस्तक 'हिंदी सराय - अस्त्राखान वाया येरेवान' इन दिनों बहुत चर्चा में है , प्रस्तुत है पुस्तक के  कुछ रोचक अंश आप सभी के लिए ... 




और फिर, तेरह सितंबर को.. ..यह अस्त्राखान से मास्को की फ्लाइट थी, शाम की शुरुआत। यह पहला मौका था इस तरह के मजेदार अकेलेपन का। इकानामी क्लास के सारे यात्रियों के जाने के बाद अचानक अहसास हुआ कि बिजनेस क्लास में अकेला यात्री मैं ही हूँ। भरी होतीं तो सीटों का स्याह इकरंगापन कपड़ों के और लोगों के भी रंग-बिरंगेपन से ढंक जाता। काली रैगजीन से मढी सीटें आरामदेह तो थीं लेकिन उनकी स्याही इक्ट्ठी हो कर हल्की हल्की दूधिया रोशनी पर भारी सी पड़ रही थी। जिन एयर-होस्टेसों ने विमान में घुसते ही स्वागत किया था, उनकी यूनिफॉर्म के शोख नारंगी रंग के आस-पास होने के अहसास ने जरूर सीटों के रंग की स्याही को कुछ कम किया। लैपटाप लगेज-लाकर के हवाले कर, बैठ ही रहा था कि मेरी नजर एकाएक बाहर की ओर गयी, सूरज छुट्टी कर धीरे धीरे घर जाने के मूड में... हवाई जहाज की खिड़की से सूर्यास्त कुछ अलग दिखता है। लगता है जैसे आप यहाँ दौड़ रहे हैं और कुछ दूर दौड़ रहा है कोई दोस्त सारी दीवार पर ब्रश से केसरिया रंग करता हुआ। सूरज का रंग किसी एक जगह डूबता हुआ लगता ही नहीं, एक लंबी सी लकीर के समानांतर चले जाते हैं आप। वह क्षितिज यदि दीवार हो और नारंगी रंग की यूनिफॉर्म पहने एयर-होस्टेस उसके समानांतर दौड़ रही हो तो भी शायद दूर से ऐसी ही लकीर दीवार पर खिंचती दिखेगी।
मेनू में एयरोफ्लोट की एक स्पेशल वाइट वाइन का जिक्र था, सोचा पता नहीं इतनी कम दूरी की घरेलू उड़ानों में सर्व करते भी होंगे या नहीं... वैसे भी आप मानें ना मानें आलम अभी तक यही है कि फाइव स्टार होटल हो या हवाई जहाज...बंदे को ठेठ मध्यवर्गीय कस्बाई किस्म का डर लगता है, एग्जीक्यूटिव क्लास में तो और भी ज्यादा। पता नहीं अपनी कौन सी बात गुस्ताखी मान ली जाए और एयर होस्टेस बहनजी उड़ते हवाई जहाज का दरवाजा खोल कर अपन को बाहर का रास्ता दिखा दें। साठ के दशक की फिल्म ‘ राम और श्याम’ में दिलीपकुमार देहाती राम के अवतार में शहर के एक रेस्त्रां में जाते हैं और भर्राई कांपती आवाज में खाने को कुछ मांगते है, उसी तरह अपन ने कहा, ‘क...क...कैन आई हैव दिस वाइट वाइन....

‘ऐंड वाय नॉट, सर...यू आर अवर स्पेशल गेस्ट टुडे...दि ऑनली पैसेंजर इन दिस क्लास...’

मेरी घबराहट उसकी अनुभवी निगाहों से छुपी थोड़े ही रही होगी। वह थी कोई चालीस साल की महिला। देह एकदम कसी हुई, उम्र का अहसास केवल त्वचा से जिसे जबरन कमउम्र दिखाने की कोशिश नहीं की गयी थी। पकते बालों को रंगने की कोई कोशिश नहीं की थी उसने । नारंगी रंग की ट्यूनिक के नीचे से झांकता सफेद शर्ट का गला, जिसके ऊपर स्कार्फ के कोने में धागे से कढ़ा ‘एयरोफ्लोट’ पढ़ा जा सकता था, टाइट स्कर्ट।

आत्म-विश्वास छलकाती फुर्तीली देह। मेकअप बहुत ही कम बोलता हुआ।
मेरी घबराहट ने आत्म-विश्वास से भरी उस महिला को मन ही मन हँसाया तो होगा ही...

इस भोंदू से यात्री को उसकी माँगी वाइन सर्व कर पाने का सुख, इतनी हिचक के साथ कुछ माँग रहे मनुष्य को कुछ दे पाने का सुख उसकी अतिरिक्त फुर्ती में बदला। गयी, वाइन लेकर आयी, मेरी टेबल पर रखने को झुकी और उसी अतिरिक्त चपलता से सीधी हो ही रही थी कि... सर का पिछला हिस्सा लगेज लाकर से टकराया, ज्यादा चोट तो खैर नहीं लगी, फिर भी...मुँह से सिसकारी तो निकल ही गयी....

मेरा हाथ बस अपने आप उसके सिर के चोटिल हिस्से पर जा पहुँचा, हौले हौले उसे दबाते हुए, राहत देने की कोशिश करते हुए...बहुत मुलायम थे उसके बाल, उनके घनेपन का पार करता मेरा स्पर्श उसे शायद जितनी राहत दे रहा था, उससे कहीं ज्यादा दे रहा था, अपरिभाषित दोस्ती का अहसास । मैं सोच-समझ कर कुछ नहीं पहुंचा रहा था। ना कोई सभ्य संकेत ना कोई भद्दा इशारा। मेरा हाथ तो बस सहज अधिकार से, बचपन की किसी दोस्त के दीवार से जा टकराए सर को दबा रहा था कि चल कोई खास चोट नहीं है, ले यह ठीक हो गया दर्द, आ फिर से शुरु करें खेल... दो पल वैसे ही झुकी खड़ी रही, मेरे स्पर्श को लेती हुई, उन दो पलों में होंटों से केवल मुस्कान के जरिए कहती हुई... थोड़ा सा और दबाओ न प्लीज अच्छा लग रहा है, फिर खेलते हैं...

मेरा हाथ जिस पल उसके सर की ओर बढ़ा, उस पल बुरा या अटपटा लगा हो उसे शायद। हो सकता है उसने ट्रेनिंग के सबक याद किए हों कि अनावश्यक दोस्ती गाँठने की कोशिश करने वाले यात्रियों को सभ्य और संयत तरीके से कैसे निपटाया जाए...

लेकिन मेरी आँखों में कुछ रहा होगा, मेरी सकुचाई हुई सी मुस्कान में कुछ रहा होगा कि उसके होंटों पर भी वैसी ही निश्छल मुस्कान खिल गयी। उसी मुस्कान ने तो कहा उसकी देह से कि झुकी रह और मुझ से कि दो पल और रखे रहो अपनी अंगुलियों का स्पर्श मेरे सर पर...

जो वाइन वह दे कर गयी थी वह कहने को वाइट वाइन थी, लेकिन असल में उसकी रंगत सुनहली थी। सीटों के जिस स्याह रंग से कुछ ऊब हुई थी, उस पर जैसे सुनहली टुकड़ियों ने हल्ला सा बोल दिया था। खिड़की के बाहर सूर्यास्त का रंग, एयर-होस्टेस की यूनिफॉर्म का रंग और अब इस वाइन का रंग....और स्वाद सचमुच अनोखा, ऐसा कि जीभ पर रखे रहने का ही मन करे, हलक के नीचे उतारने का जी न करे...

दो घंटे की फ्लाइट के बाद उस महिला को कभी नहीं देखा, देखूंगा भी कहां और क्योंकर...सच यह है कि देखूं भी तो पहचान नहीं पाऊंगा। वह भी मुझे नहीं पहचान पाएगी। चेहरा नहीं; याद है तो, केवल वह दोस्ती भरी, अधिकार भरी झुकन याद है, केवल वह कृतज्ञ मुस्कान याद है, और ताउम्र रहेगी। उसके चोटिल सर का स्पर्श याद है। मेरी अंगुलियों के हल्के दबाव से जो राहत उसे पहुँची होगी, उस राहत की कल्पना याद है। राहत पहुंचाने की कोशिश और उस कोशिश को लिए जाने की सहजता का स्पर्श अभी भी अनामिका और मध्यमा पर कौंध जाता है बीच बीच में।

मेरे भोंदूपन को, वाइन माँगने में मेरी हिचक को प्यार से समझा तुमने... शुक्रिया.. शुक्रिया कहा था मैंने अपनी इन दो उंगलियों से। मेरी उंगलियां तुम्हारे सर पर जा पहुँची सहज भाव से...इसके लिए शुक्रिया कहा था तुम्हारी मुस्कान ने...एक शब्द भी न तुम्हारे मुँह से निकला था न मेरे मुँह से...

उसके दर्द को थोड़ा सा कम कर पाने का, दर्द के पल में किसी के साथ हो पाने का यह संतोष रोजमर्रा की जिंदगी के धुंधले विस्तार में चमक उठता है कभी कभी--- जुगनुओं की सुनहली कौंध के मानिंद...जब बहुत घिर जाता हूं अपने और दूसरों के छोटेपन, खुंदकों, झल्लाहट और ट्रेड-ऑफ रिश्तों के अंधेरों से तो ये जुगनू चमक कर याद दिलाते हैं वह मुस्कान.., वह चेहरा जो वैसे याद में नहीं है, इन जुगनू पलों में अपनी याद आप रच लेता है, अंधेरा कुछ तो कम लगता है, मन करता है इन अंगुलियों पर, इन हाथों पर इन यादों में और भी जुगनू झिलमिलाएं...

आसमान में खामोश, मुस्कराती आँखों से सुनी आवाज आसमानी आवाज बन कर गूंज उठती है मेरे मन के मौन में—स्पासीबा...

और वहीं से, मेरे मन के उसी मौन से आता है जबाव भी- स्पासीबा, दस्वीदानिया...
                                 
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