Friday, January 25, 2013

कहानी - ताजमहल, चंद्रकांता






कहानी - ताजमहल     

"प्रेम, छल,समझौता,कायरता, समर्पण और साहस के भाव-बांधों में गुंथी हमारी कहानी 'ताजमहल' .मन की टूटन से अंतरात्मा के उद्घोष तक की एक अनवरत यात्रा है 'ताज़महल' हममें से बहोतों के चिर-परिचित अनुभवों/चरित्रों का प्रेषण है.खोजेंगे तो आपको अपनें निजी जीवन के कुछ सूत्र इसमें बिखरे मिल जायेंगे."
चंद्रकांता   

अपने रूठे हुए सपनों को मनाकर घर ले जाने आई हूँ ..चलो अब..सब ठीक हो जाएगा. हम साथ मिलकर समझायेंगे ना सबको ..प्रेम से..ये सब हमारे अपने हैं, समझेंगे हमें.
तुम सुन रहे हो ना ! कुछ तो कहो! अगर तुम्हें लखनऊ पहुंचना ही था तब बताया क्यूँ नहीं ! मेरे दस हज़ार रूपए बेकार करवा दिये. मैं यहाँ गोरखपुर से दिल्ली आ गया हूँ और तुम मेरे घर पहुँच गयी हो ! दूसरी तरफ से आक्रोश जाहिर करती बेतरतीब..डांटती सी, एक आवाज़ आई..और एक मौन ठहर गया सब तरफ़ ..मौन, जिसने वक्त को अपाहिज़ बना दिया था ..कुछ पल के लिए ही सही ..

हैरान प्रभा ने बुझी हुई आवाज़ में, कांपते होठों से कहा पैसा तो फिर आ जायेगा ब्रिज लेकिन जिंदगी नहीं..सवाल जिंदगी का है. और यह कहते वक्त, पिछले कुछ दिनों से समेट कर रखे गए बहुत से प्रश्न ..घुटन....टूटन....अजब सी बेचैनी और एक चिर-परिचित सी अजनबियत प्रभा के चेहरे पर एकजुट होकर बिखर आया सब. मानो उसकी छ-ट-प-टा-ती आशाओं को उसकी हिम्मत को वक्त अपने असामयिक दाँव-पेचों से ढहा देना चाहता हो.
प्रभा का मन सोफे की चारदीवारी तक सिमट गया. उसकी गहरी हरी कत्थई आँखों से पतझड़ टूटकर बरस रहा था..और मन को बचपन में एन.सी.ई.आर.टी की भूगोल की पुस्तक में पढ़े सदाहरित पर्णपाती ..आर्द्र..शुष्क वन ..कंटीली झाडियाँ..तूफ़ान-  झंझावात...मृदा अपरदन सब याद हो आया था. वक्त अपने पन्ने खुद पलट रहा था शायद उसे भी जिंदगी की परीक्षा में पास होने के लिए सब याद रखना पड़ता होगा ! .
पार्श्व में कहीं धीमे-धीमे रफ़ी की आवाज़ गूँज रही थी..आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम तू भी सो जा सो गयी रंग भरी शाम..’जीने की राह’ फिल्म का यह गीत हजारों बार ब्रिज से सुना था प्रभा ने, सुनती थी तो लगता था अब कोई आ गया है जो उसे हारने नहीं देगा उसके अधूरे रह गए सपनों को प्रीत के गुलाल में रंग देगा, लेकिन आज वह फिर से उसी मोड पर थी जहाँ से कभी ब्रिज ने उसका हाथ थामा था.

अपलक खुद ही को ताक रही थी..खुद के भीतर..चु-प-चा-प टपक रही थी वह ..महुआ सी. जैसे दूब में नहाई हुई मुलायम घास को किसी जानवर ने नोच-नोच कर उखाड़ डाला हो..कुछ इसी तरह उधड़ा हुआ सा महसूस रही थी वह खुद को. अब किसकी प्रतीक्षा करूँ??? ना कोई आवाज़ भीतर तक सुनाई दे रही थी और ना मन की तड़प बाहर आ रही थी. उसने अपनी ही एक गुमशुदा दुनिया बना ली थी वहाँ ..पुराने सोफे के उस कटे-फटे छिले हुए कोने पर..आपस में गुंथी हुई उसकी नाज़ुक हथेलियाँ ना मालूम कौन सी व्यथा बुन रही थीं..
रात की ख़ामोशी में डूबा चाँद खिड़की से टुकुर-टुकुर झाँक रहा था दो दिन हुए थे प्रभा को लखनऊ से वापस आये अब तक सुध-बुध ना थी. फिर से तोड़ दिये जाने की पीड़ा कागज़ पर उतार रही थी स्याही खत्म हो गयी लेकिन मन इतना भरा था की खाली ही नहीं होता था. वह लिखती ही जा रही थी बस..ये क्या किया ब्रिज! खुद को जहीन दिखने के लिए तुमने हमारी दुनिया को तमाशा बना दिया और उन खूबसूरत लम्हों को व्यभिचार जिन्हें मैंने तुममें जिया था..एक स्त्री के विश्वास का. उसकी निश्छल भावनाओं का बलात्कार किया है तुमने. तुम्हें खुद को सौंपा था संभाल कर रखने के लिए और तुम्हीं ने छल किया. और उस चाहना को भी घुन लगा दिया जिसकी अनुपस्थिति में तुमने हर बार मुझे उस अपराध का दोषी करार दिया जो मैंने किया ही नहीं था. तुम तो कहते थे की मैं तुम्हें नहीं समझती..तुम्हारे प्यार को नहीं समझती..आह! कितना सच कहते थे तुम.

बातों के कच्चे तो तुम थे ही ..चिढ़कर मैं तुम्हें हवाबाज़ कहती और जवाब में तुम अपनी परिचित सी हंसी हंस देते..कितना अविश्वास पैठा था तुम्हारी उस हंसी में ..तुमने प्रेम को ही शर्मसार नहीं किया कच्ची मिटटी से गढ़े गए उन सपनों को भी जूठा कर दिया जिन्हें ताजमहल की उस अल्हड़ बारिश में संग-ए-मरमर के श्वेत स्निग्ध मखमली पर्दों से छानकर कभी खुद तुम् ही ने आलिंगन किया था. तमाम कोशिशों के बाद भी हमारे तुम्हारे दरम्यां वो टूटी हुई कड़ियाँ कभी जोड़ ही नहीं पायी जिनके सूत्र तुम्हारे पास थे.


रात भर जलते-जलते नहीं मालूम आँखें कब बुझ गयीं प्रभा की. फ़रवरी के आखिरी बुधवार की शाम को ब्रिज से मिलना तय हुआ था लखनऊ से वापसी के दिन. तीन महीने जिस पल का इंतज़ार किया वह आया भी लेकिन आज उसका आना ठीक वैसा ही था जैसे फरियादी के मर जाने पर उसके केस की सुनवाई होना!
शाम भी आखिर आ ही गयी जब वक्त के इस पार अकेली वह थी और उस पार पद-प्रतिष्ठा के रथ पर सवार उसके सपनों को कुचल देने वाला शख्स ब्रिजेन्द्र चौधरी जो आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का राजस्व अधिकारी बनकर आया था, जब-तब उससे प्रेम के दावे करने वाला ब्रिज नहीं.. कैसी हो प्रभा ! ब्रिजेन्द्र ने पूछा. इस वक्त उसके चेहरे पर पछतावे की एक भी रेखा नहीं थी.

तुम नहीं जानते, तुमने प्रेम की एक खूबसूरत इमारत को कब्रगाह कर दिया. एक बार कहा होता कि पैसा तुम्हारी जरुरत है; यकीन जानो, तुम्हारे विश्वास पर कभी दाग नहीं लगने देती. और तुम्हें, खुद ही सौंप देती उन हाथों में जिनमें चूडियों की धानी खनक नहीं नोटों से भरा वह संदूक था. मैं इंतज़ार करती रही..खुद को समझाती रही कि सब ठीक है..भर्राई हुई आवाज़ में, मन के आरोह-अवरोह को रोकते हुए प्रभा ने कहा..लेकिन कोई प्रतिउत्तर नहीं आया. पूरे चालीस मिनट की इस आधी अधूरी मुलाकात में बस यही बात हुई दोनों के बीच.
‘मेरी हसरतों का ताज एक करोड़ में बिक गया..’ कितने ही बसंत आये..कितने ही पतझड़ ठहरे और चले भी गए..लेकिन उन अजन्मे सपनों का चुराया जाना अब भी टीसता है. तुम्हारी इतनी हैसियत तो नहीं की तुम्हारे लिए मन की स्याही को घिसा जाए, तुम व्योम का वह हिस्सा भी नहीं कि जहां तलक पहुंचकर वापस ना आया जा सके..फिर भी, कुछ तो बात है तुममें ! तुम खास हो, ठीक वैसे ही जैसे किसी कहानी को आगे बढ़ने के लिए एक अंतराल पर कुछ घिसे पिटे डायलॉग की जरुरत पड़ती है और इसलिए जीवन के कुछ पन्नों पर तुम्हें दर्ज होना ही था.
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चंद्रकांता      

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