Tuesday, February 24, 2015

जो स्त्रियां सच लिखती हैं, उन पर लांछन लगते ही हैं!- रमणिका गुप्ता


बात-चीत 20.11.2014


१. कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बराबरी से बड़ी कोई बराबरी नहीं हो सकती. दुनिया भर के जनतांत्रिक आंदोलनों का अंतिम आदर्श भी यही अभिव्यक्ति की बराबरी रहा है.हिंदी जगत में स्त्रियों द्वारा रचे जा रहे साहित्य की प्रचुरता और विपुलता के मद्देनज़र क्या आपको लगता है कि आज एक स्त्री के लिए अभिव्यक्ति के समान अवसर हैं और वह निर्द्वंद हो कर मनचाहा रच और अभिव्यक्त कर पा रही है?

२. साहित्य को स्त्री,दलित,पिछड़ा जैसे खांचों में रख कर पढना और समझना मुझे उन्हें मुख्यधारा से परे धकेलने का एक षड्यंत्र ज्यादा लगता है. मगर, कुछ लोग अनुभवों और यथार्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से वर्गीकरण और रेखांकन को युक्तिसंगत भी ठहराते हैं. आप अपने लेखन पर चस्पां 'स्त्री लेखन' के लेबल से कितनी सहज या असहज महसूस करती हैं?

३.आधुनिक स्त्री रचनाधर्मिता में जाहिर तौर पर 'कॉमन थ्रेड' पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष और प्रतिरोध है. हिंदी साहित्य में लेखिकाओं ने भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न, उसकी प्रविधियों और उसके पाखंडों का उद्घाटन और उदभेदन बहुत कुशलता से किया है. यहाँ तक की स्त्री यौन शुचिता की खोखली अवधारणाओं की भी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं.मगर, कुटिल पितृसत्ता जिस प्रकार आज भी राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लक्ष्मण रेखाएं खींच रही है, उससे हिंदी जगत की लेखिकाएं आँखें फेरे क्यों दिखाई देती हैं?

४.व्यापक स्त्री हित से जुड़े राजनीति और अर्थनीति के ज्वलंत प्रश्न, जैसे विधायिका में महिला आरक्षण, मंत्रिमंडलों, नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व, इत्यादि महिलाओं के रचनात्मक सरोकारों में अपेक्षित स्थान क्यों हासिल नहीं कर पाते हैं?

५. 'मातृत्व' एक ऐसा गुण है, जो स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है. सो, स्वाभाविक रूप से दुनिया भर के स्त्री-साहित्य में इसे 'सेलिब्रेट' किया जाता रहा है. मगर कुछ पश्चिमी नारीवादियों(फेमिनिस्ट्स) ने यह महसूस किया है कि मातृत्व के प्रति भावुक सम्मोहन को बढ़ावा देना   किसी स्तर पर मर्दवादी राजनीति का एक आयाम भी हो सकता है. आप इस निष्कर्ष से कितनी सहमत हैं?

६.समाज में स्त्रियों के संगठित दमन चक्र के कमजोर पड़ने और स्त्री स्वातंत्र्य की सशक्त छवियों के समानांतर इर्ष्या और कुंठा की लहरें भी दिखाई पड़ रही हैं. इस का नतीजा है कि यौन हमलों और हिंसा की बाढ़ सी आ गई है और कार्य स्थलों पर और अन्यत्र स्त्री-पुरुष रिश्ते असहज होते चले जा रहे  हैं..समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिंतित करती है?

७.आज पारंपरिक साहित्य की तुलना में सोशल मीडिया  का स्त्री-लेखन ज्यादा चर्चाएँ बटोर रहा है. सोशल मीडिया की अराजकता, उसका औसतपन, उसकी क्षणभंगुरता और उसके आभासी चरित्र की आलोचनाएँ और आक्षेप  अपनी जगह हैं, मगर अब उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है. साहित्य में सोशल मीडिया के विवादास्पद हस्तक्षेप को गंभीर लेखन और साहित्य में कहाँ देखती हैं आप?

८.साहित्य के बारे में शुरू से एक मासूमियत भरी स्थापना रही है कि स्तरीय साहित्य अपने बूते जिंदा रहता है. मगर हकीकत यह है कि आज जो रचना साहित्यिक परिचर्चा, गोष्ठी, जलसा, विमोचन, समीक्षा, पुरस्कार के जुगाड़ तंत्र में अपनी जगह नहीं बना पाती, पाठक उस तक पहुँच भी नहीं पाता, चाहे वह जितनी भी उच्च कोटि की हो. एक स्त्री के नजरिये से साहित्य की यह धक्कम-पेल आपको हताशाजनक लगती है या चुनौतीपूर्ण?



९. एक सवाल जो मुझे हमेशा परेशान करता है कि आखिर हिंदी के स्त्री लेखन से 'हास्य' और 'विनोद' लगभग निष्कासित क्यों है? कटाक्ष और व्यंग अगर है तो उसकी प्रकृति हास्य-मूलक नहीं है. ऐसा क्यों?


१०.अपनी आगामी लेखकीय योजनाओं के बारे में बताएं.





1-
उत्तर:



मैं तो ये मानती हूँ कि अभिव्यक्ति की ताकत ने ही जानवर से मनुष्य को मनुष्य बनाया ! अगर उसमें अभिव्यक्ति की ताकत नहीं होती तो वह जानवर की तरह ही रहता! आज भी हमारे देश में बहुत से ऐसे लोग हैं, जो जानवर की तरह ही रहने को अभिशप्त हैं। ऐसी स्थिति में समाज ने उन्हें रख छोड़ा है या रहने पर मजबूर कर दिया है कि वे जो बोल कर अपनी पीड़ा भी बता नहीं पाते । जहां तक स्त्रियों का सवाल है, कुछ टेक्नॉलॉजी की बढ़त, कुछ मानवता के मुद्दों पर ज्यादा जोर देने, कुछ विश्व की स्थिति या फिर विश्व भर में लोकतान्त्रिक संस्थाओं के आ जाने के कारण, स्त्रियों की अभिव्यक्ति के अवसर बढ़ने की मुहिम चली है। पर यह दृष्टिकोण बदलने के लिए प्रयाप्त नहीं है । यह कितनी कामयाब हुई है, इसके तोलने या विवेचन की दरकार है ! अलग-अलग देशों से अलग-अलग स्थितियां हो सकती हैं। भारत के सन्दर्भ में मध्यमवर्गीय समाज व दलित समाज की स्त्रियां भी अब बोलने लगी हैं। शिक्षा के चलते वे लिखने भी लगी हैं !
अभिव्यक्ति को दो तरह से बांटना होगा! एक तो है बोलना और दूसरा है लिखना ! लिखने वाली स्त्रियों का प्रतिशत बहुत कम है, फलतः उनकी अभिव्यक्ति की ताकत भी उस अनुपात में बहुत कम है। ऐसे भी हर वह औरत, जो लिखती-पढ़ती है जरुरी नहीं कि वह लिखती ही हो। हर पुरुष भी जो पढ़ा-लिखा है, जरुरी नहीं कि लिखना जाने या लेखक हो। जैसे लेखकों की संख्या कम है, उसी तरह लेखिकाओं की संख्या भी कम है! उसके दो कारण हैं - एक तो स्त्रियों में अशिक्षा, दूसरा राजनीती और तीसरा समाज की वर्जनाएं व प्रतिबंन्ध। हमारे संविधान को अभी समाज ने स्वीकार नहीं किया है! उसने स्त्री को पुरुष के बराबर नहीं माना है, भले संविधान में बराबरी का प्रावधान दर्ज है । और फिर जो स्त्रियां लिख भी रही हैं, उन पर लांछन लगते हैं ! मैत्रोयी पुष्पा पर लांछन लगा दिया गया! उनके लिए ‘छिनाल’ शब्द का इस्तेमाल किया गया ! स्त्री जब आत्मकथा लिखती है, तो सच लिखती है ! जब कोई स्त्री कई पुरुषों के बिस्तर में आने की बात लिखती है, तो उसमें पुरुष भी तो शामिल होता है ना ? फिर केवल स्त्री को ही छिनाल क्यों कहा जाता है ? ऐसे भी सच बोलने वाली स्त्री को लोग पसंद नहीं करते फिर हिंदी में तो आत्मकथाएं लिखने की परम्परा ही नहीं रही । यह तो माहात्मा गांधी ने सत्य से हमारा साक्षात्कार कराया । अभी दलितों और स्त्रियों ने आत्मकथाएं लिखनी शुरू की हैं! पहले अगर किसी ने लिखा भी तो उसमें अपने ऐश्वर्य, सामर्थ्य, वर्चस्व का ही चित्राण किया। ऐसी रचना आत्मकथा नहीं होती । आत्मकथा सच्चे मायने में वही होती है, जिसमें आपकी पीड़ा के साथ-साथ,आपने जो भोगा है, आपका जो शोषण हुआ, उसे सच्चाई से चित्रित किया जाय! जिसमें आपकी कमजोरियां भी दर्ज हों और संघर्ष भी, जैसे महात्मा गांधी ने किया । इसलिए जो स्त्रियां सच लिखती हैं, उन पर लांछन लगते ही हैं! जब तक वे पति के आने का इंतज़ार करती स्त्रियों की ऐसी ही कहानियाँ लिखती रहीं, गृहिणी होने के नाते अपने फर्जों को गिनाती या दर्शाती रहीं अथवा माँ के नाते ममता का ढिंढोरा पीटती रहीं .. किसी ने आपत्ति नहीं की । लेकिन जैसे ही वे सच लिखने लगी, आपत्ति होने लगी ! उन पर अघोषित प्रतिबन्ध लगने लगे! संविधान में प्रतिबंध नहीं है लेकिन समाज ने तो लगा रखा है प्रतिबन्ध। स्त्रियां भी स्त्रियों को क्रिटीसाइज करने लगती हैं क्योकि वे स्वयं भी पुरूष अनुकूलित ही नहीं पुरुष वर्चस्व से आतंकित भी हैं । इसलिए मेरी राय में अभिव्यक्ति के समान अवसर होने के बावजूद अभी भी औरत निर्द्वन्द होकर, मनचाहा रच या लिख नहीं पा रही । विरले ही कुछ लेखिकाएं लिख रही हैं और झेल रही हैं चुनौतियां ।








2-

उत्तर:
इसमें मैं कुछ डिफर करती हूँ । ऐसे मैं केवल स्त्री पर ही नहीं विभिन्न विषयों और मुद्दों   पर लिखती हूं । फिर भी स्त्रीवादी कहलाने में मुझे कोई दिक्कत नहीं । मुझे अपने स्त्री होने पर गर्व है, इसलिए मेरे लेखन पर स्त्री का लेबल लगने पर शर्मिंदा होने का सवाल ही नहीं उठता । स्त्री होने के कारण स्त्री –व्यथा और स्त्री -समस्या का विशेष जानकार होना अच्छी बात है वह उपलब्धि है मेरी । ऐसे इसका एक और पहलू भी है । पुरूष लेखकों को यह भ्रम आज तक है कि कोई स्त्री उनके समकक्ष लिख ही नहीं सकती,जैसे कि लेखन केवल उन्हीं का अधिकार है। उन्हें हमारे लेखन पर स्त्री लेखन का लेबुल लगा कर संतोष मिलता है कि स्त्रियां उनकी टक्कर में नहीं हैं । यह कि उनका लेखन अलग कैटेगरी का है । इस भ्रम को तोड़ना जरूरी है । यदि साहित्य मानवता का दर्पण है और मानवता ही दलित, अदलित आदिवासी,स्त्री -पुरूष, काला-गोरा ऊंचा-नीचा में बंटी है, तो साहित्य एक जैसा कैसे होगा ? उनकी समस्यायें तो तथाकथित मुख्यधारा, जिसमें केवल उच्च जाति, वर्ण या वर्ग के लोग ही हैं से भिन्न ही होगीं । उनकी दृष्टि भी अलग होगी । इस तथाकथित मुख्यधारा के लोग जो 10 प्रतिशत हैं, पढ़ते-लिखते आए हैं सदियों से और 90 प्रतिशत जो अवर्ण हैं, उन्हें इन 10 प्रतिशत सवर्णों ने तो पढ़ने ही नहीं दिया। आबादी में आधी आबादी की भी शामिल है। फिर 10 प्रतिशत मुख्यधारा कैसे हुई? वह तो अल्पधारा हैं! मुख्यधारा तो 90 प्रतिशत वे लोग हैं, जिन्हें अनपढ़ रखा गया इस देश में । अब वे लिखने लगे हैं! फिर उनकी पहचान तो अलग होगी ही न । एक बात और कहना चाहूंगी, "समुद्र बहुत बड़ा होता है, जो नदियों से मिलने से बनता है! नदी मिल जाती है समुद्र में, तब वह भी समुद्र बन जाती है, लेकिन नदी की अपनी पहचान तो बनी रहती है है न जहां वह बहती है? नदी तो खत्म नहीं हो जाती ? नदी न हो, तो समुद्र भी नहीं होगा।" जब मानवता में दलित, अदलित, अवर्ण-सवर्ण या लिंग भेद के खाचों वाली सोच मिट जाएगी, तो साहित्य में भी भेद खत्म हो जाएंगें । सारी धाराओं, विभिन्न नस्लों, जातियों, पिछड़ों, दलितों से मिलकर ही तो मानवता बनती है। इनकी अपनी पहचान कायम रखते हुए अगर ये सब मानवता में मिलते हैं, तो ज्यादा भाईचारा कायम हो सकता है ! अगर कोई षड़यंत्र रचा गया है, तो वह तथाकथित सवर्ण निर्मित मुख्यधारा ने रचा है । उन्होंने मानवता के नाम पर षड़यंत्र करके गैर सवर्णों को पहचान तक नहीं दी। स्त्रियों के लेखन को आप स्त्री का लेबल लगा दीजिये या कुछ लगा दीजिये, है तो वह मानवता का साहित्य ही न ! मानवता का वह पक्ष, जिसे आपने स्त्री कहकर निग्लेक्ट किया, लेखिकाएं उसे उभारती हैं! वह साहित्य नहीं तो क्या है ? स्त्रियां अपनी पहचान का साहित्य लिख रहीं हैं और पुरुषों से बढ़कर लिख रही हैं ! कोई भी पुस्तक आती है, तो पुरुष लेखक की तुलना पुरूष लेखक से तो की जाती है पर लेखिकाओं से नहीं। मुझे लेबल लगने में कोई एतराज़ नहीं है । मैं दलित साहित्य पर भी काम करती हूँ और आदिवासी साहित्य पर भी। स्त्री के मुद्दे पर लिखती हूँ और पूरी वंचित जमातों पर भी, जिन्हें मुख्याधारा ने नेग्लेक्ट किया, उपेक्षित किया । मैं उन्हें आगे लाने का प्रयत्न कर रही हूँ ! उस पर आप कोई भी लेबुल लगाएं, क्या फर्क पड़ता है ? बात तो मानवता की ही होती है न ।








3-
उत्तर:
मेरे विचार से यह आरोप सही नहीं है । स्त्रियां पितृसत्ता के विरुद्ध भी लिखती हैं और उससे इतर सामाजिक सरोकारों, सामाजिक अन्याय व अन्य विविध विषयों पर भी लिखतीं हैं! ये कहना गलत होगा कि वे केवल पितृसत्ता के विरुद्ध ही लिख रहीं हैं। स्त्रियों ने अपने लेखन में आदिवासी, दलित और वंचित समाज के मुद्दों पर लिखा है । सच्चाई यह है कि चूंकि वह साहित्य स्त्रियों द्वारा सृजित है, इसलिए उसे स्त्री -साहित्य कह दिया जाता है। इससे इतर वे प्रेम, प्रकृति, परस्पर रिश्ते, ट्रेड यूनियन, विदेश गए भारतीयों के सांस्कृतिक द्वंद्व, राजनीतिक आर्थिक विभेद, धार्मिक संकीर्णताओं, पुरानी परंपराओं व अंधविश्वासों की जकड़न के खिलाफ या नई पीढ़ी की सोच आदि कई विषयों पर भी लिखती हैं । यह सच है कि पुरूषों की तुलना में लेखिकाएं कम है पर जो हैं उनका दायरा व्यापक है, आयाम बड़ा है। स्त्री मुद्दे पर जो लिखा हो उसे ही आप स्त्री - साहित्य कह सकतें हैं। मैंने पहले भी कहा - लोग स्त्री को अपने बरक्स लेखक के रूप में स्वीकारनें को तैयार नहीं हैं। इसी लिए यह प्रश्न उठाए जाते हैं ।राजनीति को देखें तो अभी तक महिला - आरक्षण का बिल पास नहीं हुआ है। स्त्री को पुरुष मानसिकता किसी भी क्षेत्रा में आगे बढ़ने नहीं दे रही । मैत्रोयी पुष्पा, स्त्रियों पर भी लिख रहीं हैं और दूसरे मुद्दों पर भी। उनकी आत्मकथा कबूतरी पूरे आदिवासी समाज की कथा है। चित्रा मुदद्गल अपने आपको स्त्रीवादी नहीं कहती हैं । वे दूसरे मुद्दों पर लिख रहीं हैं और स्त्रियों पर भी। ट्रेड यूनियन संघर्ष के विभिन्न पहलुओं पर उन्होंने लिखा है । कृष्णा सोबती, नासिरा शर्मा, निर्मला पुतुल, मृदुला गर्ग, कुसुम अंचल, अनिता भारती, अर्चना वर्मा, अनामिका, मृदुला गर्ग, सरोजनी श्रीवास्तव, जय वर्मा, सुधा ओंम ढींगरा, सुधा अरोड़ा, जाकिया जुबैरी, ग्रेस कजूर, मीरा आदि लेखिकाएं स्त्री मुद्दों के साथ - साथ तमाम और दूसरे मुद्दों पर भी लिख रहीं हैं! सुषुम बेदी,कविता वाचनकवि दिव्या, विदेश में रहकर लिख रही हैं! लेखिकाएं अनुवाद भी कर रहीं हैं! उनके लेखन का मूल्यांकन न करना भी पुरुषों की एक राजनीती है। ये पितृसत्ता स्त्री का वर्चस्व है! किसी भी क्षेत्र में पुरुष स्त्रियों को आगे नहीं बढ़ने देना चाहता ! ये बात ठीक है कि का स्त्री मुद्दे पर लिखना उनके ज्यादा नज़दीक पड़ता है, इसलिए वे स्त्री मुद्दों पर ज्यादा लिख रही हैं और पाठकों का भी ध्यान उनकी उन रचनाओं पर ज्यादा जाता है। सच तो यह है कि पुरूष मानसिकता उन्हें स्त्री तक ही सीमित कर देना चाहती है । स्त्री मुद्दा सब में एक कॉमन थ्रेड होने का अर्थ यह नहीं कि दूसरे मुद्दे उनके लिए वर्जित हैं । वे उन पर लिख रही हैं। लिख सकती हैं और लिखेंगी भी ..! .. और लिखा भी है .. लेखिकाओं ने आँखें नहीं फेरी हैं .. आप उनकी चर्चा और मूल्यांकन नहीं कर रहे हैं। मैं किस किस का नाम लूं? मैंने खुद भी स्त्री के अतिरिक्त हर मुद्दे पर लिखा है। हाशिए के वंचित समाज पर, प्रेम समाज, राजनीति और प्रकृति पर भी लिखा है। अधिकारों से वंचित समाज पर भी लिखा है ।








4-
उत्तर:
कौन नहीं कर पातीं हैं ? कौन ? स्त्रियां नहीं कर पाती हैं या पुरुष उन्हें हासिल करने नहीं देते ? सवाल तो फिर वहीं आ जाता है ! इसके लिए संगठन की दरकार है! भारत में अधिकांश स्त्रियां गृहिणी हैं, वे सही नागरिक भी नहीं बन पाईं हैं । उनके लिए सारा संसार सिर्फ उनका घर ही होता है । घर के बाहर क्या हो रहा है, उन्हें नहीं मालूम ! ज्यादातर स्त्रियां वोट भी डालने जाती हैं, तो पति से पूछ कर कि किसे वोट दें ? अभी तक पढ़ी-लिखी स्त्रियां भी अंधवश्वासों से मुक्त नहीं हो पायी हैं ! पढ़ी-लिखी डॉक्टर बनी महिलाओं की भी यही स्थिति है । अगर उन्हें बेटा नहीं हुआ है, तो वे पूजा -पाठ या जादू-टोना का सहारा लेने लग जाती हैं, जबकि तथ्य यह है कि लड़का होने के लिए पुरुष के 'Y' का होना जरुरी है! यानी उस डॉक्टरनी की पढ़ाई - लिखाई बेकार गयी! पुरुष भी ये जानते हुए कि बेटा उन्हीं के कारण होता है, तब भी दूसरा विवाह करने के बारे में सोचते हैं । सामाजिक, राजनितिक, वैज्ञानिक चेतना का अभाव और अन्धविश्वास के प्रभाव और रूढि़वादी मानसिकता से स्त्रियां तो क्या, पुरुष भी मुक्त नहीं हो पाएं हैं ! कया यह समाज की, विशेषकर जागरूक व पढ़े लिखे पुरूषों की जिम्मवारी नहीं बनती कि वे
स्त्रियों को जागरूक करें, नागरिक बनने में उनके सहायक, सहयोगी बनें ? दरअसल पुरुष अपनी सत्ता को गंवाना नहीं चाहता । फलतः वह स्त्रियों को नौकरी में आरक्षण नहीं देने में कोताही करता है । अभी तक आरक्षण का बिल लटका पड़ा है ! अनुपात में स्त्रियां कम संगठित हैं, उनका संगठित होना बहुत जरुरी है और गृहिणियों को नागरिक बनाना भी बहुत जरुरी! स्त्री यह नहीं चाहती है कि वह पुरुष की जगह ले ले । स्त्री तो चाहती है कि वह पुरुष के कंधे से कंधा मिलाकर, अपना कर्त्तव्य निभाते हुए, अपना हक हासिल करे। पुरुष चाहता है कि वह उसकी दासी बनी रहे और जो वह कहे, वही करती रहे । हर पुरुष के बारे में मैं यह नहीं कहती, लेकिन हज़ार में कोई एक पुरुष ही होगा, जो चाहेगा कि स्त्री आज़ाद रहे, शायद दस घर में एक ही हो ! संगठन के अभाव और चेतना के अभाव में इन मुद्दों पर संगठित रूप से प्रदर्शन, आंदोलन, जो कभी पहले शुरू हुए थे, आज नहीं हो रहे। सरकार भी ध्यान नहीं दे रही । सरकारें बदल रहीं हैं लेकिन बदलाव की राजनीति नहीं कर रहीं । बदलाव की राजनीति होगी और समाज भी बदलाना चाहेगा, तो ही स्त्री की स्थिति में सुधार आएगा ! इसलिए स्त्रियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता, स्त्रियों की इस स्थिति के लिए समाज दोषी है ।








5-
उत्तर:
काफी हद तक यह सही है । मातृत्व के इस गुण को कब सराहा है पुरुष ने ? स्त्री का माँ बनना उसका एक स्पेशल गुण है, जो पुरुष में नहीं है ! लेकिन वह माँ के इस गुण का ही सर्वाधिक गुहादोहन करता है ! स्त्री के मातृत्व को पुरुष के साथ नत्थी कर दिया गया है । मातृत्व के गुण को सराहे जाने का मतलब होता है बच्चा पैदा करने को सराहा जाना, न कि किस विशेष रिश्ते में बंधे पुरूष से बच्चा पैदा होने पर ही इस गुण को सराहना ! अन्यथा उसे नकारना और धिक्करना। गुजरात के एक आदिवासी क्षेत्र में, बिना शादी के बच्चा पैदा हो जाता है । उसे नाजायज़ नहीं माना जाता ! मातृसत्ता का एक प्रदेश है मेघालय, वहाँ बच्चा नाजायज़ नहीं होता । हमारे समाज में विवाह से इतर पैदा होने वाले बच्चे को नाजायज़ माना जाता है, जिसमें बच्चे का कोई दोष नहीं होता । तब पुरूष और समाज स्त्री के मातृत्व गुण को क्यों नहीं स्वीकार करता ? दरसल मातृत्व के गुण को पुरुष समाज ने कभी सराहा ही नहीं । जब सराहा तो अपनी ही पैदा की हुई औलाद के संदर्भ में । दूसरा यह कि पुरूष माँ की ममता को ब्लैकमेल करता है! तलाक लेने पर बच्चे का क्या होगा, इसका डर स्त्री को सताता रहता है! जबकि बच्चा, माँ - बाप दोनों की जिम्मेदारी होता है! बच्चे को नौ महीने पेट में रखने के कारण बच्चे के प्रति माँ में ममता ज्यादा होती है। यह स्वाभाविक भी है। स्त्री की इसी ममता को भंजाता है पुरुष । यह मर्दवादी चाल है। वह स्त्री को ममता का हवाला देकर आज़ाद नहीं होने देता । बहुत सी स्त्रियां सिर्फ यह सोचकर पुरूष से अलग नहीं हो पातीं कि बच्चों का क्या होगा ? इस सोच को पश्चिम या पूरब की राजनीति कह कर खारिज नहीं किया जा सकता ! यह विश्व-पुरूष की सोच है । पश्चिम की राजनीति के अनुसार आज सुप्रीम कोर्ट ने बिना ब्याह के साथ रहने और उस रिश्ते से पैदा बच्चों को भी मान्यता दे दी है । बिन ब्याह वाले बच्चों को भी भारत में मुवावजा देने की बात हो रही है । यह अच्छी बात है । बच्चों के मोह में पड़कर औरत उसकी दासी बने रहना कबूल करती रही है! बच्चे के प्रति भावुक सम्मोहन तो दरअसल स्त्री-पुरूष दोनों में होता है, पर पुरूष ने चूंकि स्त्री को घर तक सीमित कर दिया, उसे अपने पर आश्रित बना दिया, इसलिए वह स्त्री को ममता का बार-बार अहसास दिला कर डराता रहता है । यह साजिश आज की नहीं, जब आदिम समाज ने कृषि को अपनाया, तभी से चली आ रही है । ऐसी भी अगर पश्चिम का कोई विचार अच्छा हो, तो उसे सिर्फ इसलिए ही नकारना नहीं चाहिए कि वह पश्चिम से आया है ! हमारे देश का कोई संस्कार बुरा है, तो सिर्फ इसलिए स्वीकारना नहीं चाहिए कि वह हमारे देश का है! जातिवादी प्रथा हमारे देश की है, हम इसे नकार रहे हैं , संविधान ने भी उसे नकारा है । पश्चिम ने हमे डेमोक्रेसी सिखाई, तो क्या वह बुरी है  ? तो अगर पश्चिम का नारीवादी आन्दोलन यह कहता है कि मर्दवादी समाज स्त्री की ममता को भुनाता है, तो वह सही कहता है! मैं सहमत हूँ इससे !








6-
उत्तर:
आज हमारा ट्रासीजनशन का समय है । पुरानी संस्कृति नए युग की मानवतावादी बराबरी भाईचारे और आज़ादी की नव संस्कृति को पचा नहीं पर रही है । समाज का जो वर्ग इस व्यवस्था से सुविधाएं लेते रहा है वह वर्ग कटुता पैदा कर रहा है । उनका जो शिकार था, आज वह जाग रहा है । इसलिए द्वन्द्व तो होगा ही । यह एक चुनौती है। आज कटुता चिंता का नहीं बल्कि बहस का विषय है। इसका कारण पुरूष है समाज है, स्त्री नहीं । स्त्री को लिंग के आधार पर हमने दोयम दर्जा दे रखा है, भारत में यह भेदभाव केवल
स्त्रियों के प्रति ही नहीं है। दलितों के लिए भी हमारा सभ्य समाज ईष्र्या और कुंठा से ग्रस्त है ! हाशिये के समाज या कमज़ोर समाज को ऊपर लाने या बराबरी का दर्जा देने की बात होगी, तो जो समाज इस व्यवस्था में फायदा उठता आ रहा है, ईष्र्या करेगा ही! उस ईष्र्या की परवाह करके क्या हम न्याय के लिए लड़ना छोड़ दें ? लैंगिंग कटुता भी वंचित समाज यानी स्त्री नहीं लाती । पुरूष जिसकी सुविधाएं छिन रही हैं, वह पैदा करता हैं । स्वीडेन की स्त्रियों ने कहा कि हम खाना बनाते हैं, हमारा भी मूल्यांकन करो और वहां मूल्यांकन हुआ। वहां घरेलू स्त्रियां अपने हक की लड़ाई लड़ रही हैं । वे अपने घरेलू काम का मूल्यांकन और मुआवज़ा मांग रही हैं । हमारी स्त्री घर के सारे कपडे धोती है, तो धोबी का काम करती है । खाना बनती है, तो दाई का काम करती है । बच्चे पालती है तो आया का काम करती है और सौदा लाती है तो छोटे मुंडू  का काम करती है । पति के साथ रात को बिस्तर में सोती है, तो वेश्या का काम भी करती है । इतने सारे काम करने के बाद किसी स्त्री से पूछो कि क्या करती हो, तो कहेगी ”कुछ नहीं !“ वह नौकरी करेगी, तभी उस ‘कुछ नहीं’ को काम करना मानेगी । आज यदि वह इस ‘कुछ नहीं’ से ‘कुछ’ बनना चाहती है, तो घर में कटुता बढ़ जाती है । इसमें स्त्री का क्या दोष ? वह क्या करे ? वह तो अपना हक मांग रही है ! इसलिए लैंगिग कटुता मुझे चिंतित नहीं करती है ! बहुत बड़ी चुनौती है यह स्त्रियों के लिए । स्त्रियों को स्वीकार करके, अपने अधिकारों की लड़ाई लड़नी पड़ेगी ! और यह उन पुरुषों के लिए भी चुनौती है, जो सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे हैं। पुरुष स्त्रियों को अधिकार दिलाने के लिए उनका साथ दें और समाज में बराबरी दिलायें तो कटुता दूर होगी । पुरुष भी कंधे से कंधा मिलाकर स्त्रियों के साथ चलें ताकि उस मुक्त स्त्री के साथ मिलकर एक नयी संस्कृति की रचना की जा सके और बराबरी की नई दुनिया कायम हो ।
मनुष्य बेसिकली एक जानवर है और उसमें ईष्र्या और छीनने की प्रवृत्तियाँ रहती हैं ! सभ्य मनुष्य में ये प्रवृत्तियाँ नहीं होतीं ! अगर पुरुषों को, सभ्य मनुष्य बनना है तो उन्हें इस कटुता और ईष्र्या को त्यागना होगा !








7-
उत्तर:
सोशल मीडिया से प्रचार बहुत हो जाता है, इसलिए लोग उसकी तरफ ज्यादा झुक रहे हैं ! सोशल मीडिया से ज्यादा गंभीर लेखन नहीं हो सकता, मुझे ऐसा लगता है, उसके लिए पुस्तक पढ़ना बहुत जरुरी है ! आप एकांत में पुस्तक पढ़ते हैं, तो उस पर कुछ सोचते हैं । कंप्यूटर पर बैठकर पढ़ने या लिखने और पुस्तक पढ़ने या लिखने में बहुत अंतर है । लेकिन आज लेखक भी प्रचार चाहता है और प्रचार के लिए सोशल मीडिया का सहारा लेता है । प्रचार हेतू वह भी इलीट समाज के प्रचार का यह सक्षम माध्यम जरूर बन रहा है । सोशल मीडिया कई बार अराजक भी हुआ है, अराजक इस मायने में कि - कई ऐसी बहसें हुई हैं, जो दुखद हैं! पहले सीनियर लेखकों के प्रति आदर होता था । जूनियर लेखक उनसे सीखने की कोशिश करते थे ! आज बढ़े-बढ़े लेखकों पर सोशल मीडिया के माध्यम से आक्षेप लगाए जा रहे हैं ! अरे.. इन सीनियर लेखकों ने भी तो अपने समय में बदलाव के लिए संघर्ष किया है, दिशा दी है । भले आज का समय उनसे भी आगे निकल आया है पर उनका निरादर तो नहीं करना चाहिए । किसी का आप के विचारों से मतभेद हो सकता है लेकिन अपनी बात तो तर्क पूर्ण तरीके से रखें । मन भेद की हद तक तो मत जाइये। अनामिका पर ही बहस चलाई लोगों ने ! मैं उसका सख्त विरोध करती हूँ! अनामिका ने कैंसर की पीडि़त एक औरत के बारे में कविता के माध्यम से अपनी संवेदनाएं व्यक्त की । उस पर बहस चली, जो अर्थपूर्ण नहीं लगी । गोष्ठियों में आमने-सामने बहस कीजिये, वह अधिक सार्थक और जीवन्त होती है । उन गोष्ठियों में जिन्हें कम्प्यूटर चलाना नहीं आता या जिनके पास कम्प्यूटर नहीं है, वे भी भागीदारी कर पाते
है । कम्प्यूटर पर बहस केवल इलीट की बहस बन कर रह जाती है । सोशल मीडिया की बहस हमें किसी नतीजे पर नहीं ले जा रही । आपस में बैठकर जो बहस होती है, उससे संगठन बनता है । कहीं एसी बहसें चन्द लोगों का शगल न बन कर रह जाएं, इनसे इस खतरे की संभावना भी है ।








8-
उत्तर:
केवल स्त्री के नज़रिये से ही क्यों ? यह तो स्त्री -पुरूष दोनों के लिए एक समान समस्या है । एक स्त्री के नजरिये से नहीं, एक मनुष्य के नज़रिये या एक लेखिक के नज़रिये से इस पर बात होनी चाहिये । ये सही है कि आज सामाज में समय के अभाव के चलते लोगों के पास मिलने जुलने का समय नहीं है ! इसलिए लोग टेक्नॉलॉजी का सहारा लेते हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से बहुत सारे काम करते हैं । पहले वाला सोशल मीडिया का प्रश्न और ये प्रश्न दोनों एक दूसरे के कहीं जुड़े भी है और अलग भी ! हकीकत यह है कि पहले बहुत कम लोग लिखते थे। दरबारों या साहित्य प्रेमी धन्ना सेठों के द्वारा आयोजित साहित्य गोष्ठियों में साहित्य पनपता था या फिर लोक में । आज लेखक व पाठक गोष्ठियों में मिलते है । वहां एक-दूसरे को लोग जान पाते है । लेकिन अब लिखने वाले बहुत ज्यादा हो गए हैं! विमोचन होता है तो उसमे लोग जुट जाते हैं। गोष्ठियों में, जलसों में इनकी समीक्षा होती है, तो लोग जान जाते है कि फलां पुस्तक आई है और कैसी है ! कई बार महँगी पुस्तकें लोग खरीद नहीं पाते! पहले भी अप्राप्त होती थीं पुस्तकें ! कइयों की तो पांडुलिपियों पर ही चर्चा होती थी ! गोष्ठियां होना लेखक और पाठक दोनों के लिए अच्छा है । प्रत्यक्षतः यह कोई बुरी बात नहीं लगती । लेकिन इसमें प्रायोजित प्रसार ( Projectid Publicity) का खतरा भी है, जो जेनुयिन रचनाओं को पछाड़ सकता है । स्तरीय लेखन अपने बलबूते लेखक के घर में, जिन्दा तो रह जाता है लेकिन जब उसे कोई पढ़ेगा ही नहीं, तो वह स्तरीय है या नहीं ये कोई कैसे जानेगा ? जानने के लिए पुस्तक का व्यापक रूप से पढ़ा जाना जरुरी है! और पढ़े जाने के लिए पुस्तक का सस्ता तथा उपलब्ध होना भी जरुरी है ! सस्ता होने के लिए सरकार या प्रकाशकों के स्तर पर एक नीति निर्धारण की जरूरत होगी। वे ही पुस्तकों के दाम घटा सकते हैं । ये सारी इन्टरकनैक्टिड चीज़ें हैं ! इसलिए शॉर्टकट करके लेखक व प्रकाशन गोष्ठियों में उसकी समीक्षा या विमोचन करा के लोगों को सूचना दे देते हैं । ये सब सूचना के आदान-प्रदान का एक ढंग है ! और आज के भीड़-भाड़ के जमाने में यह जरुरी हो गया है ! अच्छा है या बुरा मैं इस पर कोई कमैन्ट नहीं करुँगी । आप इसे नसैसरी ईविल (Necessary Evil ) कह सकते हैं ।
जैसे आज मोबाइल जरुरी हो गया है ! रिक्शेवाले के लिए भी मोबाइल जरुरी है ! कुछ लोग कहते हैं मोबाइल के ज्यादा इतेमाल से कान में कैंसर हो जाता है लेकिन फिर भी उसका इस्तेमाल होता है ! बिजली जरुरी है! करंट लग जाने के डर से बिजली का इस्तेमाल तो बंद नहीं कर सकते ! कहने का मतलब है विकल्पहीनता की स्थिति में किसी भी प्रक्रिया को एहतियात के साथ इस्तेमाल करना पड़ता है। रही पुरस्कार की बात ! इसमें कोई शक नहीं कि पुरस्कार भी एक जुगाड़ू तंत्र बन रहा है । मेरे ख्याल में पुरस्कार या तो उत्साह बढ़ाने के लिए अथवा अच्छी रचना के लिए देने चाहिए ! आजकल लोग गुटबाजी करके भी पुरस्कार दे रहे हैं ! इसके खिलाफ लड़ना पडे़गा ! पुरस्कार अपने में गलत नहीं होते, उन्हें देने वाले गलत हो सकते हैं । इसी तरह से गोष्ठी कराना, परिचर्चा कराना, विमोचन कराना, समीक्षा कराना .. ये अपने में गलत नहीं हैं ! इसका कौन इस्तेमाल करता है, कैसे इस्तेमाल करता है उस पर डिपेंड करता है ! आज कि तारीख़ में ये सब जरुरी हैं ! ये चुनौतियां हैं, हताशा नहीं है ! स्त्री क्यों हताश होगी ? वह भी उस चुनौती का मुकाबला करेगी ! जब स्त्री बराबरी चाहती है,तो उसे हक के लिए लड़ाई लड़नी ही पड़ेगी बराबर की चुनौतियां भी स्विकारनी होंगी स्त्री होने के नाते प्रिबेलेज (Priveldge) नहीं ।








9-
उत्तर:
लगता है हमारी जिंदगी से ही हास्य और विनोद खत्म हो गया है । दरअसल हिंदी लेखन में हास्य इस हद तक नीचे गिर गया है कि कवियों और शायरों ने बीबी को भी हास्य की पात्र बना दिया । कवि सम्मेलनों और गोष्ठियों में कभी बीवी, तो कभी साला और कभी-कभी शौहर और ब्याह भी प्रायः हंसाने के विषय बनाकर प्रस्तुत किए जाते हैं । आज के हास्य और व्यंग में स्वाभाविकता नहीं रही । जबरन हँसाने की कोशिश की जाती है। कटाक्ष और व्यंग ऐसा हो जो हँसाये भी और दिल पर चोट भी करे ! हँस कर बिखर नहीं जाए ! आज हंस कर या हंसी में बिखरने वाला , हँस कर खत्म होने वाला साहित्य लिखा जा रहा है! शरद जोशी जी, परसाई जी, जन्मजेय जी जैसा लेखन नए लोगों में नज़र नहीं आता । मंचीय लोगों में तो बिलकुल नज़र नहीं आता । वे तो केवल तालियां बजवाकर अपना या रिश्तों का मज़ाक उड़ाते हैं! हंसी कभी कभी खटकती जरूर है ।








10-
उत्तर:
हमारी कई योजनाएं हैं ! हमारा संगठन है रमणिका फॉउन्डेशन ! यह एक ट्रस्ट है । इसी की दूसरी अनुषगी ईकाई है । आखिल भारतीय आदिवासी साहित्यिक मंच All India Tribal Literary Foram ( AITLF) उसके माध्यम से हम आदिवासियों की लोककथाएं , लोकगीत , शौर्यगाथाएं और समकालीन लेखन जमा कर अनुवाद करवा रहे हैं ! कई किताबें छप गईं और कई आने वाली हैं! कई सेमीनार हुएं हैं, उनकी दस्तावेज़ी रिपोर्टें तैयार हो रही हैं कि हमारे संगठन ने कितने आदिवासी दलित और स्त्री सम्मलेन करवाए तब से लेकर आज तक आदिवासी, स्त्री, दलित साहित्य ने कहां तक कितनी यात्रा तय की इसका दास्तावेजीकरण भी हो रहा है। रमणिका फाउंडेशन ने साहित्य अकादमी के सहयोग से दिल्ली में हुए 2 जून 2002 को संपन्न आखिल भारतीय आदिवासी लेखक सम्मिलन में आदिवासी-साहित्य का नामकरण किया था । उसमें नौ राज्यों के आदिवासी लेखक शामिल हूए थे । तब से दलित-साहित्य की तरह आदिवासी-साहित्य भी जाना जाने लगा है । इससे पहले आदिवासियों का साहित्य आदिवासी - साहित्य के नाम से नहीं जाना जाता था । इधर 2003 से हम लोग एक परियोजना के तहत स्त्री -मुक्ति, स्त्री सशक्तिकरण की कथाओं का चालीस भाषाओं से हिंदी में अनुवाद भी करवा रहे हैं ! उसमें आदिवासी महिलाओं के साथ-साथ हर जाति व वर्ग की, हर उम्र की महिलाओं की रचनाओं शामिल हैं। हमारी एक वेबसाइट युद्धरत आम आदमी की www.yuddhrataamaadmi.com के नाम से हैं । दूसरी रमणिका फाउंडेशन नाम से पुनः बनवाई जा रही है। युद्धरत आम आदमी की वैवसाइट पर पत्रिका की सारे अंक अपलोड हैं, ताकि शोधार्थी या पाठक पत्रिका को निशुल्क डाउनलोड करके पढ़ सकें । लेखन में मेरी दूसरी आत्मकथा छपने के लिए चली गई है और तीसरी आत्मकथा हजारीबाग से दिल्ली तक लिखनी शुरू की है । झारखण्ड के 17 आदिवासी कवि जो हिंदी में लिखते हैं की पाण्डुलिपि तैयार कर के हम छपने के लिए भेज चुके हैं । भारत के और दूसरे आदिवासी कवि, जो हिंदी में लिखतें हैं और ऐसे कवि भी, जो अपनी भाषा में भी लिखते हैं, हिंदी में अनुवाद करवा रहे हैं । अब तक हम टोटल 44 भाषाओं में अनुवाद करवा चुके हैं ! ‘हाशिए उलांघती औरत: कहानी’, परियोजना के तहत हम कुल मिलाकर आठ खंड निकाल चुके हैं ! बाकी 22 खंड अभी आने हैं । पांच भाषाओं के खण्ड आ चुके हैं । अभी तमिल बंगाली, मलयालम, नार्थ-ईस्ट की 15 भाषाओं की तथा उडि़या भाषा की कथाओं के हिन्दी अनुवाद के खण्ड मार्च 2015 तक आ जाएंगे । इधर मेरी दो कविता पुस्तकें भी आ रही हैं ‘मैं हवा को पढ़ना चाहती हूँ’ और ‘कोयले की चिंगारी’ के नाम से । मेरी रचनावली भी प्रकाशनार्थ जा चुकी है। मेरी कुछ किताबों के अंग्रेजी में अनुवाद हुए हैं, वे भी सम्पादित हो रही हैं । मेरा लेखन जारी है । हमारी संस्था के माध्यम से कहानियों, कविताओं, लोक-कथाओं, सृजन मिथकों, शौर्यगाथाओं, लिजिन्द्रियों यानी आदिवासी और लोक विरासत के संकलन, चयन, संपादन, अनुवाद व प्रकाशन का काम जारी है । एक आदिवासी लाइब्रेरी की स्थापना का प्रयास भी हो रहा है ।







परिचय
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नाम : रमणिका गुप्ता
जन्म- २२ अप्रैल, १९३०, सुनाम (पंजाब);
शिक्षा- एम.ए., बी.एड.।
कार्यक्षेत्र- बिहार/झारखंड की पूर्व विधायक एवं विधान परिषद् की पूर्व सदस्या। कई गैर-सरकारी एवं स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्बद्ध तथा सामाजिक, सांस्कृतिक व राजनैतिक कार्यक्रमों में सहभागिता। आदिवासी और दलित महिलाओं-बच्चों के लिए कार्यरत। कई देशों की यात्राएँ। विभिन्न सम्मानों एवं पुरस्कारों से सम्मानित।

प्रकाशित कृतियाँ-
कविता संग्रह- पातियाँ प्रेम की, भीड़ सतर में चलने लगी है, तुम कौन, तिल-तिल नूतन, मैं आजाद हुई हूं, अब मूरख नहीं बनेंगे हम, भला मैं कैसे मरती, आदिम से आदमी तक, विज्ञापन बनता कवि, कैसे करोगे बंटवारा इतिहास का, प्रकृति युद्धरत है, पूर्वांचल : एक कविता-यात्रा, आम आदमी के लिए, खूँटे, अब और तब तथा गीत-अगीत।
उपन्यास- सीता, मौसी।
कहानी-संग्रह- बहू-जुठाई।
आत्मकथा- हादसे।
साक्षात्कार संग्रह- साक्षात्कार।
स्त्री विमर्श- कलम और कुदाल के बहाने, दलित हस्तक्षेप, निज घरे परदेसी, साम्प्रदायिकता के बदलते चेहरे।
दलित चेतना पर- साहित्यिक और सामाजिक सरोकार, दक्षिण-वाम के कटघरे और दलित-साहित्य, असम नरसंहार एक रपट, राष्ट्रीय एकता, विघटन के बीज (गद्य-पुस्तकें)।
अन्य- छह काव्य-संग्रह, चार कहानी-संग्रह एवं बारह विभिन्न भाषाओं के साहित्य की प्रतिनिधि रचनाओं का संकलन सम्पादन। शरणकुमार लिंबाले की पुस्तक दलित साहित्य का सौंदर्यशास्त्रा का मराठी से हिन्दी में अनुवाद। इनके उपन्यास मौसी का अनुवाद तेलुगू में पिन्नी नाम से और पंजाबी में मासी नाम से हो चुका है। जहीर गाजीपुरी द्वारा उर्दू में अनूदित इनका कविता-संकलन- 'कैसे करोगे तकसीम तवारीख को' प्रकाशित। इनकी कविताओं का पंजाबी अनुवाद बलवीर चन्द्र लांगोवाल ने किया जो बागी बोल नाम से प्रकाशित हो चुकी है।

सम्प्रति : सन् १९८५ से युद्धरत आम आदमी (त्रौमासिक हिन्दी पत्रिका) का सम्पादन।
संपर्क- ramnika01@hotmail.com

Tuesday, February 17, 2015

हमारी झुटपुट अभिव्यक्ति में ही इन्द्र जनों का आसन डोलने लगता है- किरन सिंह


"स्त्री को अक्सर अपनी अभिव्यक्ति के लिए तिनके की ओट लेनी पड़ती है। मीरा ने जिस कृष्ण को ढोल बजा कर खरीदा वह ईश्वर न होकर मनुष्य होता तो ? महादेवी की पीडा किसी अज्ञात के लिए नहीं बल्कि किसी इंसान के लिए होती तो ? राणा जी के जहर के प्याले और हाथी के पाँव के नीचे से मीरा बच पाती ? ‘बंग महिला’, ‘एक विधवा की आत्मकथा’ इत्यादि इस बात के उदाहरण हैं कि स्त्रियाँ अपनी रचनाओं के अन्त में अपना नाम तक नहीं लिख पाती थीं। "
---- किरन सिंह



'लमही' जनवरी - मार्च अंक  'स्त्री का कहानी पक्ष ' में  पत्रिका  द्वारा आयोजित   परिचर्चा के दस  प्रश्नों  के उत्तर  के माध्यम  से वरिष्ठ  और  युवा  स्त्री -कथाकारों  ने अपने विचार बहुत बेबाकी से रखें हैं ! कुछ लेखिकाओं के विचार आप फरगुदिया पर पढ़ सकतें हैं !
लेखिका किरन सिंह जी ने 'संझा' कहानी के माध्यम से  किन्नर समाज की समस्याओं का मार्मिक चित्रण किया है !   हंस कथा सम्मान और रमाकांत स्मृति सम्मान से सम्मानित
किन्नर समाज की समस्याओं पर आधारित 'संझा' कहानी से चर्चा में आई लेखिका  किरन सिंह जी के विचार आप सभी के लिए ...



१.
कहा जाता है कि अभिव्यक्ति की बराबरी से बड़ी कोई बराबरी नहीं हो सकती. दुनिया भर के जनतांत्रिक आंदोलनों का अंतिम आदर्श भी यही अभिव्यक्ति की बराबरी रहा है.हिंदी जगत में स्त्रियों द्वारा रचे जा रहे साहित्य की प्रचुरता और विपुलता के मद्देनज़र क्या आपको लगता है कि आज एक स्त्री के लिए अभिव्यक्ति के समान अवसर हैं और वह निर्द्वंद हो कर मनचाहा रच और अभिव्यक्त कर पा रही है?

२.
साहित्य को स्त्री,दलित,पिछड़ा जैसे खांचों में रख कर पढना और समझना मुझे उन्हें मुख्यधारा से परे धकेलने का एक षड्यंत्र ज्यादा लगता है. मगर, कुछ लोग अनुभवों और यथार्थ की प्रमाणिकता की दृष्टि से वर्गीकरण और रेखांकन को युक्तिसंगत भी ठहराते हैं. आप अपने लेखन पर चस्पां 'स्त्री लेखन' के लेबल से कितनी सहज या असहज महसूस करती हैं?

३.
आधुनिक स्त्री रचनाधर्मिता में जाहिर तौर पर 'कॉमन थ्रेड' पितृसत्ता के विरुद्ध संघर्ष और प्रतिरोध है. हिंदी साहित्य में लेखिकाओं ने भावनात्मक, शारीरिक, सामाजिक और आर्थिक स्तरों पर पितृसत्ता की जकड़न, उसकी प्रविधियों और उसके पाखंडों का उद्घाटन और उदभेदन बहुत कुशलता से किया है. यहाँ तक की स्त्री यौन शुचिता की खोखली अवधारणाओं की भी धज्जियाँ उड़ाई गई हैं.मगर, कुटिल पितृसत्ता जिस प्रकार आज भी राजनीति और संस्कृति के क्षेत्र में महिलाओं के लिए लक्ष्मण रेखाएं खींच रही है, उससे हिंदी जगत की लेखिकाएं आँखें फेरे क्यों दिखाई देती हैं?

४.
व्यापक स्त्री हित से जुड़े राजनीति और अर्थनीति के ज्वलंत प्रश्न, जैसे विधायिका में महिला आरक्षण, मंत्रिमंडलों, नौकरियों और शैक्षिक संस्थाओं में सानुपातिक प्रतिनिधित्व, इत्यादि महिलाओं के रचनात्मक सरोकारों में अपेक्षित स्थान क्यों हासिल नहीं कर पाते हैं?

५.
'मातृत्व' एक ऐसा गुण है, जो स्त्री को श्रेष्ठ कृति बनाता है. सो, स्वाभाविक रूप से दुनिया भर के स्त्री-साहित्य में इसे 'सेलिब्रेट' किया जाता रहा है. मगर कुछ पश्चिमी नारीवादियों(फेमिनिस्ट्स) ने यह महसूस किया है कि मातृत्व के प्रति भावुक सम्मोहन को बढ़ावा देना   किसी स्तर पर मर्दवादी राजनीति का एक आयाम भी हो सकता है. आप इस निष्कर्ष से कितनी सहमत हैं?

६.
समाज में स्त्रियों के संगठित दमन चक्र के कमजोर पड़ने और स्त्री स्वातंत्र्य की सशक्त छवियों के समानांतर इर्ष्या और कुंठा की लहरें भी दिखाई पड़ रही हैं. इस का नतीजा है कि यौन हमलों और हिंसा की बाढ़ सी आ गई है और कार्य स्थलों पर और अन्यत्र स्त्री-पुरुष रिश्ते असहज होते चले जा रहे  हैं..समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिंतित करती है?

७.आज पारंपरिक साहित्य की तुलना में सोशल मीडिया  का स्त्री-लेखन ज्यादा चर्चाएँ बटोर रहा है. सोशल मीडिया की अराजकता, उसका औसतपन, उसकी क्षणभंगुरता और उसके आभासी चरित्र की आलोचनाएँ और आक्षेप  अपनी जगह हैं, मगर अब उसे नज़रअंदाज़ करना नामुमकिन है. साहित्य में सोशल मीडिया के विवादास्पद हस्तक्षेप को गंभीर लेखन और साहित्य में कहाँ देखती हैं आप?

८.
साहित्य के बारे में शुरू से एक मासूमियत भरी स्थापना रही है कि स्तरीय साहित्य अपने बूते जिंदा रहता है. मगर हकीकत यह है कि आज जो रचना साहित्यिक परिचर्चा, गोष्ठी, जलसा, विमोचन, समीक्षा, पुरस्कार के जुगाड़ तंत्र में अपनी जगह नहीं बना पाती, पाठक उस तक पहुँच भी नहीं पाता, चाहे वह जितनी भी उच्च कोटि की हो. एक स्त्री के नजरिये से साहित्य की यह धक्कम-पेल आपको हताशाजनक लगती है या चुनौतीपूर्ण?

९. एक सवाल जो मुझे हमेशा परेशान करता है कि आखिर हिंदी के स्त्री लेखन से 'हास्य' और 'विनोद' लगभग निष्कासित क्यों है? कटाक्ष और व्यंग अगर है तो उसकी प्रकृति हास्य-मूलक नहीं है. ऐसा क्यों?

१०
.अपनी आगामी लेखकीय योजनाओं के बारे में बताएं.



                   
1-
     हमारी झुटपुट अभिव्यक्ति में ही इन्द्र जनों का आसन डोलने लगता है। एक मुसलमान अपने अभिव्यक्ति में आजाद हुआ तो उसे ‘संदिग्ध’ कह देंगे। दलितों ने हमारे कुकर्म याद दिलाए तो वे हुए ‘कुंठित’ । और औरत ने जरा पूछ लिया कि साहब, आइना दिखा रही हूँ बताइए वहाँ नर दिखाई दे रहा है या नरभक्षी तो वह साबित हुई- ‘अश्लील।’
      स्त्री को अक्सर अपनी अभिव्यक्ति के लिए तिनके की ओट लेनी पड़ती है। मीरा ने जिस कृष्ण को ढोल बजा कर खरीदा वह ईश्वर न होकर मनुष्य होता तो ? महादेवी की पीडा किसी अज्ञात के लिए नहीं बल्कि किसी इंसान के लिए होती तो ? राणा जी के जहर के प्याले और हाथी के पाँव के नीचे से मीरा बच पाती ? ‘बंग महिला’, ‘एक विधवा की आत्मकथा’ इत्यादि इस बात के उदाहरण हैं कि स्त्रियाँ अपनी रचनाओं के अन्त में अपना नाम तक नहीं लिख पाती थीं।
 मैं मौजूदा समय को स्त्री-अभिव्यक्ति का स्वर्ण काल मानती हूँ। यह सच है कि इस लेखन का एक हिस्सा आरोप-पत्र है। इस लेखन पर प्रति-आरोप है कि,‘वही रोना-धोना वही स्यापा।’’ यह स्यापा नहीं है, शहादत पर मर्सिया गायन है। यह शोक-गीतों का उत्सव है।
  ‘गहने बनवाओ-गहने तुड़वाओ,’ के निर्देश के दरकिनार, परंपराएँ टूट-बन रही हैं। राज्य हिंसा के विरोध में मणिपुर में महिलाएँ नग्न होकर प्रदर्शन के लिए निकल पडी। बलात्कार के विरोध में जगह-जगह महिलाओं ने चादर लपेट कर प्रदर्शन किया। दमन के खिलाफ स्त्रियों ने कविता,कहानी, लेख लिखे। लेकिन राज्य और पितृसत्ताओं की निगाह में, हमारी चरम और परम अभिव्यक्ति भी, पीडित का भड़ास निकलना भर है। वे हमारा विरोध नहीं करते। क्योंकि विरोध करने पर मामला तूल पकड़ेगा। विरोध के प्रति स्वयंभूओं का ठंडा रुख, हमारी अभिव्यक्ति को ठंडा कर देने की योजना के तहत  है। ए.ओ. ह्यूम ने ‘प्रेशर रिलीज थ्योरी’ के तहत कांग्रेस की स्थापना की थी। शुरु में प्रार्थना पत्र ही भेजे जाते रहे। धीरे-धीरे ये प्रार्थना पत्र, गरम दल के दस्तावेज और सरफरोश गीतों में बदल गए।
ताजा चलन में औरत की अभिव्यक्ति को खामोश करने के लिए, महान भारतीय परंपरा और परिवार को बचाने की दुहाई देकर नैतिकता के डंडाधारी लामबन्द हो रहे हैं। ‘लव जेहाद’, औरत के चयन और प्रेम की अभिव्यक्ति पर कंुडली मारने, उसे दिमाग न समझ कर सिर्फ जिस्म समझने की फासीवादी-खाप मानसिकता का ताजा उदाहरण है।
पहरा हुआ करे। जेल में सुरंग बन चुकी है।


 2-
स्त्री, दलित, पिछड़ा... आपसे अल्पसंख्यक छूट गया है।
 तमाम दुश्वारियों के बावजूद, आज स्त्री को अपने स्त्रीत्व पर गर्व है। तुलनात्मक रुप से, स्त्री एक बेहतर इंसान है।
 ‘स्त्री लेखन’ अनुभाग में रखने से औरत को एक आरक्षित और सुरक्षित घेरा मिल जाता है। इससे मूल्यांकन का दायरा छोटा हो जाता है और स्त्री की चुनौतियाँ कम हो जाती हैं। यह ‘स्त्री लेखन’ का लेबिल औरत को ‘कम्फर्ट जोन’ में डाल देगा और स्त्री के विकास को खतरनाक स्तर तक बाधित करेगा।
मेरा दिल औरताना है और संघर्ष मर्दाना। मैं बरसों से बन्द दरवाजे, पाजेबों वाले लात से मार कर चरमरा देना चाहती हूँ। मेरे चेहरे पर अपने आप ऐसा भाव रहता है जैसे मैं ही ‘मित्रो मरजानी’ या ‘सारंग’ हूँ। ऐसे में तो ‘पुरुष लेखन’ को असहज महसूस करना चाहिए।

3-
.महिलाएँ अभी स्वयं के साथ, माँ, दादी, चाची, सहेलियों के साथ जो देखी-सुनी हैं, बहुतायत से उसे लिखने में व्यस्त हैं। कुटिल पितृसत्ता की बंदिशों के बावजूद स्त्रियों ने जब खूब लिखना शुरु कर दिया है तो भविष्य में राजनीति और संस्कृति के क्षेत्रों में जाएँगी।


4-
आपका सवाल वाजिब है और तीसरे प्रश्न का विस्तार है। राजनीति और अर्थनीति, दोनों ही हमारे समाज को गहरे तक प्रभावित करते हैं। लेखक को ‘पैसिव एक्टिविस्ट’ माना जाता है। किन्तु अब लेखक-लेखिकाओं को यह मानना होगा कि लेखन और आन्दोलन एक ही काम की दो विधियाँ हैं।
स्त्री को दूसरों के लिए प्रशिक्षित करके तैयार किया जाता है। फिलहाल वह यह नहीं समझ पा रही है कि अपने बारे में सोचना आत्मकेन्द्रित होना या स्वार्थी होना नहीं है बल्कि अपने माध्यम से स्त्री जाति के बारे में सोचना है। अनुभव की सीमा, संस्कार और आत्मविश्वास की कमी के कारण भी राजनीति आदि विषयों पर कम लिखा जा रहा है।


5-
मातृत्व की विशेषता के कारण स्त्री में जन्मजात रचनात्मकता का गुण आ जाता है। चालीस की उम्र के बाद औरत को अपने स्वतन्त्र तरीके से जीना चाहिए। बच्चों का हाल-चाल लेकर उन्हें अपना निर्णय लेने के लिए छोड़ देना चाहिए। लेखन में हम क्या लाते हैं, यह व्यक्ति के समय और रुचि के हिसाब से बदलता रहता है।
6.
समाज में गहराती लैंगिक कटुता क्या आपको चिन्तित करती है ? क्या मतलब ? स्त्रियों पर बढती हिंसा को लेकर गहरा शोक रहता है, उदासी रहती है, अवसाद रहता है  भयानक क्रोध और घृणा रहती है। मोहनलालगंज में, मैं घटनास्थल पर गई थी। उसके बाद  मुझे कुछ दिन नींद नही आई। मैं यही सोचती रहती थी कि मरने से पहले उस विधवा स्त्री की आँखों के आगे इंतजार करते उसके दो बच्चे घूम रहे होंगे। वह अपनी जिन्दगी के लिए बलात्कारी-हत्यारों से कितना गिड़गिड़ाई होगी। ज्यादातर हत्याओं में प्रेमी और परिचित शामिल रहते हैं। अपने प्रेमियों और परिचितों को अपनी हत्या में शामिल देख कर  औरतों पर मरने से पहले क्या बीतती होगी ?


7-
सोशल मीडिया का सदुपयोग भी हुआ है। जन आन्दोलन, सम्पादन, कार्यक्रमों के प्रचार, सूचना प्राप्त करने में इसकी भूमिका रही है। लेकिन ज्यादातर मामलों में यह सस्ती लोकप्रियता बटोरने, प्रपंच करने, चापलूसी करने और बेशर्म आत्मप्रचार का माध्यम है। मुझे डर है कि रिश्तों के आधार पर बरसाया गया अतिरिक्त पानी और पूर्वाग्रह से ग्रसित होकर की गई अनावश्यक काँट-छाँट, हमारे रचनाकारों के एक बड़े वर्ग को बोनसाई न बना दे।
     सोशल मीडिया को नजरअंदाज करना नामुमकिन क्यों है भाई ? सोशल मीडिया न हुआ बंबइया  डॉन हो गया।


8-
सभी प्रश्न बहुत अच्छे हैं। किन्तु प्रश्न आठ, प्रेमचन्द, निराला और मुक्तिबोध की परंपरा का नहीं है। प्रश्न का उत्तर न देना प्रश्नकर्ता की शान में गुस्ताखी होगी इसलिए कह दूँ कि बूढ़ा समय जब शाम को झाड़ू-बूहारू करेगा तो ग्लिटर से लिखे पन्नों को कूड़ा डम्प करने वाले गड्ढे में पाट देगा। साहित्य का इतिहास  इस बात की तस्दीक करता है।

9-
 या तो दीवाना हँसे या तू जिसे तौफीक दे’ स्त्रियों में जहर के प्रति इम्यून विकसित हो जाता है। इसलिए वो दीवाना होने से बच जाती हैं। और हमारा ही बनाया, वो कल का ईश्वर, हम पर कभी मेहरबान नहीं रहा। तो हम कैसे हँसे ? फिलहाल तो स्त्रियों का लेखन सामूहिक रुदन है। वे हँसती भी हैं तो गम छिपाने की तर्ज पर। अभी आने वाले कई वर्षो तक स्त्रियों का हास्य-लेखन नहीं आएगा।


10-
मैं पाण्डुलिपि तैयार कर रही हूँ। यह कहानी की मेरी पहली किताब होगी।

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किरन सिंह
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3/2शिक्षा: एम्. ए. ( हिंदी, प्राचीन भारतीय इतिहास ) बी. एड., पी -एच. डी.रचनाएँ: "सूर्यांगी" पर उ.प्र. हिंदी संस्थान से 'महादेवी वर्मा पुरस्कार' ,
मुजफ्फर अली द्वारा निर्देशित 'शाल' एवं 'मंगला' तेली फिल्मों में अभिनय.
आकाशवाणी, दूरदर्शन, लखनऊ में आकस्मिक समाचार वाचिका एवं उदघोषिका.

सम्प्रति: अध्यापन, स्वतंत्र लेखन .26 विश्वास खण्ड
गोमती नगर, लखनऊ



         


Sunday, February 15, 2015

जीवन के सच और उसकी भयावह विचित्रता की कहानी: "अनोखा" - स्वाती ठाकुर

जीवन के सच और उसकी भयावह विचित्रता की कहानी: "अनोखा" - स्वाती ठाकुर 
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'अनोखा' यह शीर्षक हठात ही ध्यान आकर्षित करता है और पाठकीय मन जाने कौन कौन से  बोध तैयार कर लेता है। मेरे भीतर के पाठक पर भी शीर्षक का कुछ ऐसा ही प्रभाव पड़ा। सबसे पहले हिन्दी भाषा में जो लिंगभेद व्याप्त है, उस दृष्टि से भी इस शीर्षक ने ध्यान खींचा। 

अनोखेपन को हम दो रूपों में ले सकते हैं। ज़िंदगी के स्याह सफ़ेद दोनों ही पक्षों में इसे व्यवहृत किया जा सकता है। हालांकि यह सच है कि अनोखेपन को मानव मन सामान्यत: सकारात्मक रूप में ही ग्रहण करने का अभ्यस्त हो चुका है। और इस लिहाज़ से जब हम इस कहानी से गुजरते हैं तो कहानी कई जगहों पर हमें हौंट करती है, कई जगहों पर हमसे सवाल करती है, कई जगहों पर हमें ठहर कर सोचने को विवश करती है। किसी पाठ का मूल्यांकन उस पाठ के भीतर से ही किया जाना चाहिए। इस आधार पर जब हम ‘अनोखा’ कहानी को देखते हैं तो कहानी का भाव पक्ष, उसका विषय हमसे कई प्रश्न करता है और ये प्रश्न अनदेखा कर दिए जाने वाले कतई नहीं हैं. यह अलग बात है कि प्रश्न को प्रस्तुत करने वाली शैली भी प्रश्न के प्रभाव को तय करती है। पर हम पहले उस शैली पर न जाते हुए यदि भाव की बात करें तो कहानी का नायक एक स्त्री है जिसका नाम अनोखा है पर जिसके जीवन में तनिक भी अनोखापन नहीं है, उसके जीवन को क्रूर कहना गलत न होगा... व्यक्ति के नाम से उसके व्यक्तित्व या जीवन के किसी न किसी पहलू की संगति की अपेक्षा स्वाभाविक रूप से कर ली जाती है, पर इस तरह की अपेक्षा अनोखा के सन्दर्भ में हमें निराश ही अधिक करती है: “करीब पाँच फुट लम्बी, साँवला रंग, छोटी निर्जीव आँखें, भूरे सूखे बाल, ऊपर के चारो दांत कुछ आगे को निकले हुए, उसके पास से आती पसीने की असहनीय गंध और शरीर में लिपटे हुए पुराने कहीं-कहीं से फटे हुए कपड़े” यह है ‘अनोखा’ कहानी के केन्द्रीय चरित्र ‘अनोखा’ का परिचय, जिसमें कहीं कोई विलक्षणता, कोई अनोखापन नहीं है।

किसी भी व्यक्ति की कहानी उसका जीवन सिर्फ उसी तक सीमित नहीं  रहता। अनोखा के जीवन की कहानी में भी कई अन्य पात्र हैं, जो अलग-अलग किरदार निभाते हैं और उसके जीवन को प्रभावित करते हैं। बेटे को विशेष महत्त्व देने वाली उसकी माँ रामरती है, जो दूसरों के घर चौका-बासन और लिपाई-पुताई कर अपना घर चलाती है, जिसने बेटे की आकांक्षा में पांच बेटियाँ जनी हैं। यह स्थिति भी अपने आप में कोई अनोखी स्थिति नहीं है, हमारे समाज में आज भी बेटे की चाह में जाने कितनी अनचाही लड़कियां जन्म लेती हैं और जाने कितनी मार दी जाती हैं। और बेटे की आकांक्षा को समाज के बड़े तबके ने स्वाभाविक रूप में स्वीकार भी कर लिया है। पर कहानी में व्यक्त समाज का यह सच, जो सही नहीं है, जो अपने आप में बेहद क्रूर और भयानक है, बड़े सवाल खड़े करता है: स्त्री में पुरुष को जनने की ऐसी आकांक्षा क्यों? जबकि कहानी में ही यह स्पष्ट कर दिया गया है कि पति के रूप में अनोखा की माँ के जीवन में जो पुरुष है, उसने उसके जीवन को और अधिक यंत्रणामय ही बनाया है। हालांकि कहानी स्वयं इस प्रश्न का जवाब इस रूप में देती है कि रामरती को यह उम्मीद है कि बेटे के रूप में पुरुष उसे उन कष्टों/यंत्रणाओं से उबार लेगा, जो उसे पति रूपी पुरुष से मिले हैं। “एक लड़के की चाह में पाँच बेटियाँ जनी थीं उसने, दबाव किसी का नहीं था उसे खुद ही बेटा चाहिए था अपने बुढ़ापे को सँवारने के लिए  पर क्या वास्तव में यह उम्मीद भर ही उस प्रश्न का पूरा जवाब हो सकता है?

कहानी का विषय उस वक़्त अपने महत्वपूर्ण मोड़ (टर्निंग प्वाइंट) पर पहुंचता है जब अनोखा  चौदह वर्ष की हो चुकी है। उसका शरीर स्वाभाविक रूप से विकसित हो रहा है। कभी कभी ऐसा भी लगता है स्त्री के शरीर में होने वाला यह स्वाभाविक विकास ही क्या उसका अनोखापन नहीं है? जहां पुरुष अपने जीवन में किसी भी तरह के अनोखेपन को स्वयं गढ़ता या निर्मित करता है, वहां स्त्री में एक ख़ास तरह का नैसर्गिक अनोखापन होता है, जिसकी उसे इस सभ्य समाज के अति सभ्य पुरुषों द्वारा सजा भी मिलती है। अनोखा को भी इसकी सजा मिली है, जिसे वह समझ नहीं पाई।  अनोखा के विकसित होते शरीर को देख स्त्री को भोगने के आकांक्षी उसके परिवेश के पुरुषों की जीभ लपलापाई हुई है, ये वही पुरुष हैं, जो ऊपर से भद्रता की सफ़ेद चादर ओढ़े हुए हैं, ये वही पुरुष हैं जिन्हें अनोखा चाचा-भैया कहती है, ये उन्हीं घरों के पुरुष हैं, जिनमें अनोखा की माँ काम करती है। 

अनोखा, जो अपने घर में हर स्नेह-सुविधा से वंचित रही, जिसका कारण उसकी गरीबी और माँ रामरती का पक्षपातपूर्ण व्यवहार था, को अपने शरीर के ये बदलाव अच्छे लग रहे थे क्योंकि उसने गौर किया था कि इन्हीं की वजह से अब:“जब भी वो घर में रहती तो चचेरे भाई भी उसे बड़े ध्यान से निहारते और जब भी बाहर जाती 
गाँव के चाचा-ताऊ सब उसे अपने पास बुलाते, उसके हाल पूछते और बिना किसी काम के ही दो – चार रुपए भी पकड़ा देते कि रख लो कुछ अपनी पसंद का ले लेना”इन्हीं चाचाओं में से एक हैं रज्जन काका, जिनकी उम्र है ४६ वर्ष और जिन्होंने अपनी ११ वर्षीय बेटी का अभी हाल ही में विवाह किया है, और अब उनका मन रम गया है अनोखा के शरीर पर और इस आकांक्षा में वे उसे नित नए तोहफे देते हैं और एक दिन कहानी के शब्दों में उसका कौमार्यभंग कर देते हैं, अनोखा समझ नहीं पाती कि: “अच्छा क्या लगा रज्जन का साथ या अपने पैरों में चाँदी की पायल” और यह सिलसिला तब तक चलता है जब तक अनोखा गर्भवती नहीं हो जाती, फिर अपमान और यंत्रणा का दौर और फिर गर्भपात। रामरती अपनी इस बेटी, जिसकी शुचिता भंग हो चुकी है 
उससे मुक्ति पाने के लिए उसकी शादी तीन बेटियों के बाप से कर देती है जो ‘ब्याह की ही रात बिना किसी वार्तालाप के वसूल लेता है अपने पति होने का अधिकार’ परिणामस्वरूप अनोखा फिर गर्भवती होती है। बेटे के आकांक्षी उसके पति पक्ष द्वारा लिंग जांच कराई जाती है, जिसमें पेट में पल रहे बच्चे के बेटी पाए जाने पर अनोखा का फिर से गर्भपात कराया जाता है, पर यह सिलसिला थमता नहीं है, डॉक्टर के शारीरिक संबंध से मना करने के बावजूद अनोखा फिर गर्भवती होती है, पर इस बार उसके गर्भ में पुरुष पल रहा है, जिसे उसका परिवार जन्म देना चाहता है, बेशक अनोखा के जीवन की कीमत पर ही, क्योंकि “डॉक्टर से बच्चा बचाने के लिए ही कहा गया था माँ तो नई भी आ जाएगी लेकिन लड़का,  इतनी मुश्किल से तो घर का चिराग मिला है इसलिए बच्चा हर हाल में बचना चाहिए” यह कहानी अनोखा की कहानी भर नहीं यह उस मरे हुए समाज की कहानी है, जहां स्त्री, पुरूषों की भूख मिटाने तथा पुरुष जात को पैदा करने के लिए ही है। और स्त्री की भूख, उसके जीवन का कोई मोल नहीं है इस सभ्य समाज के लिए। एक स्थान पर जब अनोखा का शराबी बाप 
हरिप्रसाद अपनी भूख मिटाने के लिए अपनी बीवी रामरती पर टूट पड़ता है, और थक कर सो जाता है तो रामरती सोचती है अपनी भूख के बारे में और खुद ही कहती है: “ उसकी भूख? उसे भूख है ही नहीं. ज़िंदगी ने इतना भर दिया है उसे कि वो भूख को ही भूल चुकी है. कई बार तो उसे खुद के जीवित होने पर भी शक हो उठता है” यह कहानी एक ऐसे सच को हमारे सामने लाती है, जो नया कतई नहीं है, पर स्वाभाविक भी 
नहीं कि आँखें मूँद ली जाए। हमें इस बात को मानना ही पड़ेगा कि आज हमारे समाज में ऐसी बहुत सी चीजें/व्यवहार प्रचलन में हैं जो एक तरह से सच/समय के सच के रूप में व्यवहृत/स्वीकृत होती हैं, पर वे सही किसी भी लिहाज से नहीं है। हमें सच और सही के इस फांक को मिटाने की ज़रूरत है। कला का कोई भी रूप समस्या का समाधान नहीं देता। कुछ सच की कड़वाहट को थोड़ा कम करने के लिए एक सुखद आदर्श प्रस्तुत कर देते हैं। और कुछ उस कड़वाहट को उसके यथार्थ रूप में ही व्यक्त कर देते हैं। इस विद्रूप समय में किसी भी तरह 
के मुलामियत के आवरण की आवश्यकता भी नहीं है। ज़रूरत है सच को सही बनाने की। किसी का जीवन अनोखा हो या न हो, पर हर किसी को एक सामान्य गरिमापूर्ण जीवन तो मिलना ही चाहिए, बिना किसी वर्ग, जाति और लिंग के भेद के। यह कहानी कोई अनोखी बात नहीं करती, अनोखी समस्या नहीं उठाती, इसकी शैली में भी कोई अनोखापन नहीं है, पर यह कहानी समस्या  की क्रूरता से हमें झकझोड़ती है, हममें एक अकुलाहट भरती है और यही इसकी खासियत है, यही 

इसका अनोखापन है।

साभार लमही

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स्वाती ठाकुर
शोधार्थी, हिंदी विभाग 
दिल्ली विश्वविद्यालय

Friday, February 13, 2015

अनोखा - इंदु सिंह





अनोखा


जैसा कि नाम कुछ अलग है अनोखा वैसी वो अलग बिलकुल भी नहीं थी बस न जाने क्यूँ उसका नाम अनोखा था . करीब पाँच फुट लम्बी, साँवला रंग ,छोटी निर्जीव आँखें ,भूरे सूखे बाल , ऊपर के चारो दांत कुछ आगे को निकले हुए, उसके पास से आती पसीने की असहनीय गंध और शरीर में लिपटे हुए पुराने कहीं-कहीं से फटे हुए कपड़े ये थी अनोखा की रूपरेखा !

एक बेहद गरीब नाई
 हरी प्रसाद की बेटी थी वो और इकलौती नहीं बल्कि चार छोटी बहने और पाँचवा एक भाई भी था जिसकी माँ की भूमिका अनोखा ही निभा रही थी!  अनोखा की माँ रामरती लोगों के घर चौका-बासन और लिपाई-पुताई करके किसी तरह अपने बच्चों के लिए रोटी जुटा पाती थी ! एक लड़के की चाह में पाँच बेटियाँ जनी थीं उसने !  दबाव किसी का नहीं था उसे खुद ही बेटा चाहिए था अपने बुढ़ापे को सँवारने के लिए !  खुद की उम्र अभी तीस पार न थी पर देखने में किसी पिछली सदी सी दिखती थी रामरती,  रंग इतना काला कि उसके दाँत चूने जैसे सफ़ेद चमकते थे , शरीर सिर्फ हड्डियों का ढांचा मात्र बचा था कई बार खेतों की फसल बचाने के लिए खड़े किये गए बिजुका भी उससे भले दिखते थे ! अनोखा के पिता हरी प्रसाद को मिर्गी के दौरे पड़ते थे  आए दिन यही सुनने में आता कि आज यहाँ तो कल वहाँ हरी प्रसाद गिरा पड़ा है और मुंह से झाग फेंक रहा है !  यही बीमारी उसकी सबसे बड़ी दुश्मन थी पूरे गाँव में कोई भी उससे अपने बाल या दाढ़ी ( हजामत ) नहीं बनवाता था कि कहीं उसकी साँसों से ये बीमारी उन्हें भी न लग जाए. पास के गाँव में सप्ताह में दो दिन सब्जी और मवेशी का बाज़ार लगता था अतः हरी प्रसाद वहीँ जाकर किसी पेड़ की  छाँव तले अपनी पिटारी खोल उस्तरे को चमकाता हुआ बैठ जाता और कोई दो-चार लोग जो उसे नहीं पहचानते थे अपने बाल कटवा लेते थे या हजामत बनवा लेते थे  बस यही उसकी कमाई थी !  .खेती बाड़ी न के बराबर थी एक बिसुआ उसरहा खेत उसे मिला था अपने भाइयों से बँटवारे के बाद जिसमे मुश्किल से धान की फसल हो पाती थी और थोड़े बहुत गेंहूं भी मिल जाते थे . बीमारी के चलते दूसरे लोग उसे अपनी खेती भी बटाई पर नहीं देते थे  उसके पास अपने बैल या हल भी नहीं था जुताई आदि के लिए. बामुश्किल वो अपने भाइयों से बैल और हल ले पाता था अपने खेत की जुताई के लिए इसके बदले वो उनके खेतों में फसल की कटाई - ढूआई करा देता था !  इतनी सब कठिनाइयों के बीच जो दो-चार रूपए कमाता भी तो रोज तो नहीं पर हाँ महीने में एकाध बार देसी दारु में डुबो देता था उसका कमज़ोर शरीर झेल भी न पाता और वो पड़ा रहता  कभी किसी मेड़ पर ,कभी किसी तालाब के किनारे बेसुध ! . गाँव का कोई न कोई बच्चा या बड़ा ये ख़बर उसके घर पंहुचाता कि हरी प्रसाद यहाँ या वहाँ पड़ा है दारु पीकर !  तब रामरती और अनोखा एक साथ आते और उसे घसीटते हुई दोनों घर तक ले जाती .रामरती के मुँह से गालियाँ बरसतीं , अपनी किस्मत को कोसती और सारा गुस्सा अपनी बेटियों पर निकालती ,उन्हें पीट डालती लेकिन इस सब का हरी प्रसाद पर कोई असर न होता और अनोखा बचपन से ही आदी थी इस सबकी,  इसलिए कभी कुछ नहीं कहती,  बस अपने पिता को घर तक ले जाने में चुपचाप रामरती की  मदद करती थी !

रामरती रोते हुए बेटे अनूप को कलेजे से लगा के चिल्ला – चिल्ला के कहती कि बस मेरा बेटा बड़ा हो जाए तो मुझे इस नरक की दुनिया से मुक्ति मिले न जाने इन पाँच-पाँच बोझ की गठरियों से कब पीछा छूटेगा
, मुझे मार कर ही मरेंगी ये सब ! और उस पर ये दारु बाज खसम न मरता है न मरने देता है !  घर में अनाज की कमी इतनी कि न जाने कितनी रातें रामरती ने सिर्फ पानी पर गुज़ारीं थीं !  दिन में तो फिर भी जिस घर में काम करती कोई न कोई उसे बासी रोटी -आचार या खराब हो रहा खाना खिला ही देता  हाजमा इतना मज़बूत हो चुका था उसका कि सब कुछ  हजम हो जाता !

अनोखा अब चौदह वर्ष की हो चुकी थी और उसका शरीर अब उन फटे कपड़ों से छुप नहीं रहा था ! रामरती के लिए सबसे बड़ी मुसीबत यही हो रही थी की सब गाँव वालों की नज़रों से कैसे बचाए अपनी बेटी के विकसित हो रहे शरीर को !  रामरती ने अपनी समस्या जिन घरों में काम करती थी उनकी मालकिनो से बताई तो कुछ भली औरतों ने अपनी पुरानी फटी ब्रा रामरती को दे दी
कि इसे सिल कर वो अनोखा को पहनाये और अनोखिया से बोल कि दुपट्टे से ढँक कर रखा करे ठीक से अपना शरीर ज़्यादा बाहर आने – जाने की ज़रुरत नहीं है घर पर ही रहे और घर सम्हाले बाहर कमाने के लिए तो तुम हो ही !  पुरानी साडी को फाड़ कर रामरती ने अनोखा के लिए दुपट्टा भी बना दिया और फटी ब्रा की मरम्मत करके अनोखा को पहना दी इस हिदायत के साथ अब तू बड़ी हो रही कायदे से रहा कर पर भला कब तक और कहाँ तक ढँक पाती ये पुरानी अंगिया और पुरानी ओढ़नी अनोखा के नित नए विकसित हो रहे शरीर को !  आखिर उसे भी तो अच्छा लगता था अपने शारीर का बदलता हुआ यह रूप क्यों कि अब जब भी वो घर में रहती तो चचेरे भाई भी उसे बड़े ध्यान से निहारते और जब भी बाहर जाती गाँव के चाचा-ताऊ सब उसे अपने पास बुलाते, उसके हाल पूछते और बिना किसी काम के ही दो – चार रुपए भी पकड़ा देते कि रख लो कुछ अपनी पसंद का ले लेना !

आज तो जैसे ही बिसात खाने वाले की आवाज़ सुनकर अनोखा घर से बाहर भागी और उसके पास बैठ के सामान देख रही थी कि तभी गाँव के रज्जन काका वहाँ आ गए और उन्होंने बिसात खाने वाले से उसे पूरे ९ रूपये के कान के बुँदे और ३ रुपए की नाखूनी दिलवाई साथ ही बड़े प्यार से बोले अनोखा कल यह बुँदे पहन कर इसी वक़्त मेरे ट्यूबवेल पर आना जरा मैं भी तो देखूं कि कैसी दिखती है तू इन बूंदों में . अनोखा ने पहली बार कान में बुँदे पहने थे आठ बरस की थी जब उसने शौक में कान छिदवाए थे लेकिन आज तक सिवाए नीम की सूखी डंडी के कोई जेवर उसे न मिला था . हरा नग था उन बुन्दो का और उसमे तीन छोटे – छोटे घुंघरुओं की लटकन भी थी उन्हें पहन कर अपने छोटे- छोटे  घिसे हुए नाखूनों में नाखूनी लगा कर अनोखा इतरा रही थी और सोच रही थी कि माँ बस यूँ ही परेशान रहती है और सब को कोसती है जबकि सब लोग कितने अच्छे हैं गाँव में ख़ास कर रज्जन काका!


शाम को घर आते ही रामरती की नज़र जैसे ही अनोखा पर पड़ी वह दंग रह गई और जोर से उसके बाल खींचते हुए बोली कलमुही कहाँ से लाई ये सब और नाखूनी लगाकर क्यूँ बैठी है ? अनोखा घबरा कर – डर कर रोने लगी . माँ को पता चलेगा तो मार ही डालेगी सोचकर उसने झूठ बोला कि रज्जन काका की बेटी बेबी जिज्जी ने दिए हैं हमें वो कह रही थीं कि हमारी शादी हो गई है और अब हम सोने के गहने पहनते हैं इनका कोई काम नहीं है इन्हें अब तू रख ले और ये नाखूनी भी उन्होंने ही दी ये सुनकर रामरती कुछ शांत हुई और बोली  ठीक है लेकिन आइंदा कभी कोई तुझे कुछ सामान दे तो मुझे बताना और ये नखूनी-अखूनी शादी के बाद लगाना अभी कायदे से रह ! चल अब रात के लिए रोटी सेंक भूख लगी है आज रामसरन कक्कू के यहाँ से माठा मिला है उसी से सब खा लेंगे और हाँ देख ये थोडा गुड़ है इसे अनूप के मट्ठे में डाल देना कहकर रामरती चली जाती है घर के बाहर बैठकर पंचायत कर रही अपनी जिठानियों और देवरानियों के पास और शामिल हो जाती है गाँव के सभी ठाकुरों की ठकुरई के बारे में बात करने और दबीं जुबान से उन्हें गरियाने के लिए तभी मौका देखते ही उसकी जिठानी हमेशा की तरह उसे छेड़ती है ,"  अरे रामरती अनोखा सयानी हो गई है कोई लड़का देख भी रही है या नहीं ? मेरी मान जल्द उसकी शादी कर दे कहीं कुछ ऊँच-नीच हो गई तो क्या करेगी !  तू कहे तो अपने बड़े भाई से बात चलाऊँ कोई दान-दहेज़ भी नहीं देना पड़ेगा  बस मेरे भईया को एक लड़का दे दे और फिर क्या, राज करे पूरा जीवन !"  तीन बेटियां है बस चौथे बच्चे के समय भौजाई ख़तम हो गई तब से उनका घर सूना है खाने पीने की भी कोई कमी न है मेरे भईया के पास वैसे भी तू कहाँ से कर पायेगी अनोखिया की शादी !

रामरती वहाँ से बिना कुछ बोले हुए चली आती है और मन ही मन सोचती है कि सही तो कह रही है उसकी जिठानी आखिर कैसे होगी अनोखा की शादी . खाने के बाद खाट पर लेटी हुई रामरती इंतज़ार करती है नींद का
रात चढ़ आई लेकिन नींद उसकी आँखों से कोसों दूर है दिमाग में वही सवाल कि कैसे जीवन कटेगा लडकियाँ बड़ी हो रही हैं और यहाँ तो खाने तक के लाले हैं ऐसे में शादी ? तभी हरी प्रसाद आता है और एक झटके में उसके ऊपर टूट पड़ता है ये कहते हुए कि मट्ठा खट्टा था बहुत मेरी भूख अभी बाकी है. निष्प्राण,निर्जीव रामरती से अपनी वासना की भूख शांत कर हरीप्रसाद सो जाता है , और रामरती, उसकी भूख ? उसे भूख है ही नहीं . ज़िंदगी ने इतना भर दिया है उसे कि वो भूख को ही भूल चुकी है. कई बार  तो उसे खुद के जीवित होने पर भी शक हो उठता है रात बीत जाती है और सुबह होते ही रामरती चल पड़ती है उन घरों की ओर जहाँ वो चौका-बासन करती है ,सुबह की चाय उसे वहीँ नसीब हो जाती है हालांकि दूध नहीं होता उस चाय में बची हुई उबली हुई पत्तियों में ही पानी डाल कर उबाल कर दे दिया जाता है उसे पीने को पर शक्कर खूब होती है क्यूंकि मालकिन अक्सर ही कहती हैं कि इन काम वालों को मीठा बहुत पसंद होता है इनकी चाय में शक्कर खूब होनी चाहिए बस . सही तो कहती हैं मालकिन, हमारे जीवन की मिठास इसी चाय की ही तरह तो है न पत्ती, न दूध,बस दिखावे की चाय जिसका बस रंग गाढ़ा है हमारे गाढ़े जीवन की तरह!

उधर घर में अनोखा जल्दी-जल्दी सारे काम निपटाती है अपने छोटे भाई अनूप को नहला-धुला कर ,उसकी आँखों में मोटा सा कानो तक फैला हुआ काजल लगाकर उसे अपनी छोटी बहनों के हवाले कर खुद नहा कर तैयार हो जाती है !  अनोखा को ब्रा पहनना पसंद नहीं रोज ही रामरती की डाँट से पहन लेती है पर आज वो ब्रा पहनना नहीं भूलती . आज उसे अपने बदन पर ये कसाव अच्छा लग रहा था कानो में हरे बुँदे खूब जँच रहे थे . अब रज्जन काका से मिलने कैसे जाए बस यही सोचते हुए वो हाँथों में लोटा उठा कर चल देती है ताकि कोई सवाल न करे कि वो कहाँ जा रही है क्योंकि उसकी चाची और ताई सब अपनी मोटी नज़र उस पर रखते हैं कि कब वो कोई गलती करे और वो रामरती को नीचा दिखा सके . ट्यूबवेळ पर रज्जन पहले से ही मौजूद था अनोखा को देखते ही उसकी धमनियों का प्रवाह तेज़ हो गया लेकिन खुद को नियंत्रित करते हुए सामान्य स्वर में बोला अरे आओ अनोखा मै तेरी ही राह देख रहा था.  अनोखा ये कहते हुए कि काका आपने कहा था न कि बुँदे पहन कर दिखाना चुप – चाप जमीन की ओर निहारने लगती है . हाँ ! रज्जन बोला, थोड़ा पास तो आ ,मेरे पास आ कर बैठ कहते हुए रज्जन अनोखा को  अपने पास खींच लेता है. अनोखा डर जाती है लेकिन कहती कुछ नहीं, हिम्मत ही नहीं उसमे बस नीचे ज़मीन को ही निहारती रहती है. रज्जन चुप्पी तोड़ता है ,कितनी अच्छी लग रही है तू ,किसी फिलम कि हीरोइन माफक . अनोखा शरमा जाती है और दुपट्टे से मुंह ढँक लेती है .रज्जन की नज़र सीधे अनोखा के कसे हुए शरीर पर जाती है . देख अनोखा मै तेरे लिए और भी बुँदे, माले और नया सूट भी ला दूँगा या तू अपनी पसंद का ले लेना मै तुझे पैसे दे दूँगा अब शरमाना छोड़ और खुश रह बस ! अनोखा  कहती है काका आज तक मैंने कभी नया कपड़ा नहीं पहना ,घर में कुछ नई साड़ियाँ हैं माँ के बक्से में लेकिन उन्हें माँ भी नहीं पहनती, कहती है कि मेरे ब्याह में मुझे देगी पता नहीं सच कहती है या झूठ क्यूंकि प्यार तो वो सिर्फ अनूप को ही करती है आप कितने अच्छे हो रज्जन काका कहते हुए वो  थोड़ा सहज हो जाती है .  देख मै तेरे लिए क्या लाया हूँ कहते हुए रज्जन अपने कुरते की जेब से अख़बार कि एक पुड़िया निकालता है और उसकी ओर बढ़ा देता है जिसमे चिपकी होती हैं तीन-चार जलेबियाँ .अनोखा खुश होकर कहती है, "जलेबी !"  रज्जन कहता है, "हाँ तेरे लिए ही लाया हूँ !"  और अनोखा झट से अखबार लेकर  जलेबियाँ खाने लगती है . रज्जन ध्यान से अनोखा के होठों को निहारता है और एकदम से उसका मुँह पकड़ कर अपने मुँह में भर लेता है . काका आप क्या कर रहे हैं कहते हुए अनोखा खुद को छुड़ाती है . कुछ नहीं तूने जलेबियाँ खाई तो मैंने सोचा मै भी मुँह मीठा कर लूं रज्जन कहता है . तू डर क्यूँ रही है अनोखा देख तुझे कुछ भी नहीं हुआ , मुझे अच्छा लगा क्या तुझे अच्छा नहीं लगा कहकर रज्जन अनोखा की कमर में हाँथ डालकर उसके पेट को दबाता है . मुझे डर लग रहा है काका यदि माँ को पता चला तो मुझे मार ही डालेगी कहते हुए अनोखा अपनी ओढ़नी को फैला लेती है . रज्जन कहता है मै तुझे प्यार करने लगा हूँ अनोखा और मैं  तेरा पूरा ख्याल रखूँगा किसी को भी कुछ नहीं पता चलेगा तुझे किसी से भी डरने की कोई ज़रुरत नही है , मै हूँ ना . तू रामरती को भी मत बताना कहते हुए रज्जन खुद को अनोखा के शरीर से पूरी तरह सटा देता है . अनोखा उम्र के जिस मोड़ पर है उसे ये सब किसी सपने और सतरंगी दुनिया के सामान लगता है . रज्जन धीरे-धीरे अनोखा के शरीर को सहलाता है वो डरती है और साथ ही शरमाती भी है लेकिन मना नहीं करती आखिर अभी-अभी जलेबियाँ खाई थीं उसने और फिर नया सूट भी तो मिलगा तभी किसी की आवाज़ आती है रज्जन ओ रज्जन ! रज्जन चौकन्ना होता है अनोखा को एक झटके से अलग कर झट से खड़ा होता है, कल फिर आना कहते हुए उसे कोठरी के पीछे के दरवाजे से निकल जाने को कहता है और खुद को सँभालते हुए कोठरी के बाहर आता है वहाँ गाँव के प्रधान होते हैं . अरे प्रधान साहब आप यहाँ, बताइए कैसे आना हुआ . अनोखा चली जाती है और आज पहली बार वो अपने शरीर में कुछ पिघलन महसूस करती है. जल्दी से घर पहुँच कर बुँदे उतार देती है और घर के कामो में जुट जाती है लेकिन आज उसे अपना शरीर हवा की तरह उड़ता हुआ सा लगता है. माँ कभी भी जलेबी नहीं लाई !  हाँ  एक बार किसी ने दो जलेबियाँ दी थीं उसे वो भी माँ ने अनूप को खिला दी थीं, उसकी बची ज़रा सी चाशनी ही मुझे चाटने को मिली थी और आज पूरी चार जलेबियाँ खाईं मैंने !  कितना अच्छा लगा था अनोखा सोचती है . इसी तरह पूरा दिन बीत जाता है और रात आते ही अनोखा सुबह की प्रतीक्षा में बेचैन हो रही है कि कल भी उसके लिए कुछ तो ज़रूर ही लायेंगे रज्जन काका .आज रात खुद से ही शरमा रही है और खुद को ही सहला भी रही है . ये सब उसे अच्छा लग रहा है पर क्यूँ ,क्या ये तो उसे खुद भी नहीं पता लेकिन ये सच है कि इतना खुश इससे पहले वो कभी नही हुई . हरी नाई रोज ही निकल जाता कि शायद आज कोई उससे बाल बनवा ले और रामरती घरों के चौका-बासन करने चली जाती उनके जाते ही अनोखा भी फटाफट सारे काम निपटा कर निकल जाती किसी न किसी बहाने से अपने रज्जन काका से मिलने ! 

रज्जन काका की उम्र करीब ४८ की होगी और उनकी बेटी
, बेबी जो कि १९ की है इसी साल उसकी शादी हुई है . अनोखा अभी चौदह की पूरी हो पंद्रहवीं की दहलीज में कदम रख रही है. रज्जन रोज ही अनोखा के लिए मिठाई लाता,कभी कोई अँगूठी तो कभी नगद रूपए भी देता . आज तो उसने अनोखा को पचास रूपए दिए ये कहकर कि अपने लिए एक नई ब्रा खरीद ले जिसमे लाल रंग की लेस लगी हो अनोखा रोज एक ही उधड़ी सी कुछ मटमैले रंग की ब्रा पहने रहती है यह जानने के लिए रज्जन को कभी उसकी कमीज़ नहीं उतारनी पड़ी क्यूंकि अनोखा के घिसे पारदर्शी कुरते के ऊपर से दुपट्टा हटाते ही रज्जन की ललचाई नज़रें सीधा वहीँ ठहरती हैं . ये रज्जन का रोज का काम था वो अनोखा की ओढ़नी दूर रखवा देता कि मुझसे क्या शर्म मै तो तेरा ही हूँ और जी भर निहारता उसके अधखुले,अधढंके कसे शरीर को. अगले ही दिन पैसे को सलवार के नारे में खोंस कर अनोखा बाज़ार से खरीद लाती है अपने जीवन का पहला नया कपड़ा वो भी अंतरंग और मचल पड़ती है सोचकर ही कि कल वो नया कपड़ा पहनेगी . पर माँ ! सोचते ही डर जाती है कि माँ को पता चलेगा तो मार ही डालेगी . मारे डर के नई ब्रा को भी खोंस लेती है सलवार के नारे के ही बीच में ताकि किसी कि नज़र न ही पड़े . खुश थी क्यूंकि पूरे दस रूपए भी बच गए थे जिसकी उसने आइसक्रीम खा ली थी . सब कितना अच्छा लग रहा है वो सोचती है कि बड़े होने के कितने फायदे हैं. माँ तो घर में रोटी और नमक ही देती है या कभी-कभी मठ्ठा या चटनी बस ! रज्जन काका उसे रोज ही उसकी पसंद की चीज़े खिलाते हैं और माँ कहती है किसी से बात न करो ,खुद नहीं करती बात किसी से तभी कोई माँ को कुछ नहीं देता . मै खुश हूँ और मुझे माँ जैसा नहीं बनना . अगले दिन नई ब्रा पहन कर ऐसे इतराती है खुद पर जैसे कोई सोने का हार पहन लिया हो. घर के छोटे से मटमैले शीशे में खुद को निहारती है मटक-मटक कर और जा पँहुचती है अपनी खुशियों के भगवान् रज्जन काका के पास .अनोखा को देखते ही रज्जन ताड़ जाता है फिर भी सवाल करता है कुछ लिया या नहीं ? अनोखा नज़रें नीचे कर शरमा जाती है और रज्जन उसकी ओढ़नी हटा देता है धीरे से उसे बांहों में जकड़ लेता है उसके कानो में बोलता है, "ऐसे दिख नहीं रहा ज़रा ठीक से दिखा, देखूं तो सही,  कहते हुए अनोखा का कुर्ता उतारने लगता है !  अनोखा डर जाती है पर मना नहीं कर पाती आखिर रज्जन काका ने ही तो दिलवाई है !  रज्जन हटा देता है उसके शरीर से कुर्ता और धीरे-धीरे उसके करीब जाकर जकड़ लेता है उसे और कर देता है अनोखा का कौमार्य भंग ! अनोखा तेज़ दर्द से कराह उठती है ,उठ भी नहीं पाती . नीचे खून देख कर डर कर रोने लगती है ,रज्जन उसे समझाता है मै हूँ तेरे साथ और पहली बार में होता है ऐसा, तू थोड़ी देर आराम कर फिर उठना सब ठीक हो जायेगा. अनोखा धीरे-धीरे सुस्त कदमो से खुद को संभालती हुई घर आ जाती है . आज उसे कुछ अच्छा नहीं लगा,बहुत थक गई है वो घर आकर भी कोई काम नहीं करती बस लेटी रहती है पूरा दिन.शाम को रामरती से डांट भी खाती है पर उठती नहीं,पेट दर्द का बहाना बना कर लेटी रहती है अगले दिन सुबह उसे ठीक लगता है ,लेकिन कुछ मीठा खाने की चाह नही रही अब और न ही रज्जन काका से मिलने की . दो-तीन दिन वो घर से नहीं निकली तो रज्जन खुद दोपहर उसके घर आकर उसकी तबियत पूछता है और साथ ही कल आना कुछ ज़रूरी बात करनी है कहकर चला जाता है. रज्जन के इस तरह से आने और उसका का हाल पूछने से अनोखा को अच्छा लगता है और वो खुद को ठीक महसूस करती है !  अगले दिन फिर वो रज्जन से मिलने जाती है रज्जन उसे पकड़ कर सब जगह चूमने लग जाता है ये कहते हुए कि अनोखा अब मैं तेरे बिन नहीं रह पाऊंगा! तू क्यों नहीं आई तीन दिनों से क्या मै तुझे पसंद नहीं और जवाब की प्रतीक्षा किये बिना कुरते की जेब से पाजेब निकल कर खुद ही उसे पहनाने लगता है !  अनोखा कुछ बोल नहीं पाती बस एक बार फिर रज्जन के साथ खुद को रज्जन का कर देती है ,इस बार उसे भी अच्छा लगता है !  पर ज्यादा अच्छा क्या लगा रज्जन का साथ या अपने पैरों में चाँदी की पायल ये न समझ पाई वो खुद भी !
धीरे-धीरे ये मुलाकातें बढ़ती गईं और फिर एक रोज़ रामरती की नज़र पड़ी कि अनोखा का शरीर पहले से अधिक गठा और स्वस्थ नज़र आ रहा है इस फर्क को वो समझ पाती कि अनोखा की उबकाइयों ने सब बता दिया !  रामरती अनोखा को बुरी तरह पीटती है और उसके कुछ न बताने पर उसकी तलाशी लेती है तलाशी लेने पर उसे पायल मिलती है जो अनोखा ने छप्पर के अन्दर छुपा रखी थी जब रामरती जोर से उसका गला दबाती है तब जाकर वो रज्जन का नाम लेती है !  रामरती वही आँगन में लड़खड़ा जाती है ये कहते हुए कि कहाँ से लाए ज़हर की पुड़िया जो खिला सके अनोखा को और खुद को भी. हरीप्रसाद को कोसते हुए
,  अनोखा को गालियाँ बकते हुए वो सीधे रज्जन के घर जाती है . रज्जन घर में नहीं था और उसकी दुल्हिन से कुछ कहने की हिम्मत ही नहीं हुई आखिर उनके घर ही काम करती है रामरती और यदि काम से निकाल दिया तो ? कहाँ से पेट भरेगी सबका उधर अनोखा भाग कर खेत में रज्जन के पास जाकर सब बताती है कि माँ कह रही है तू पेट से है और मुझे बहुत मारा तो मैंने आपका नाम बता दिया ! रज्जन कोई बात नहीं अनोखा तू चिंता मत कर और अपनी माँ को बोल कल तुझे लेकर दूसरे गाँव के अस्पताल में मिले ,जो भी खर्चा होगा मै दूंगा बस एक बात का ध्यान रहे ये बात किसी और को पता नहीं चलनी चाहिए ! अगले दिन रामरती अनोखा को लेकर अस्पताल पहुँचती है रज्जन उसे पैसे और साथ ही धमकी देकर कि ये बात कहीं और नहीं निकलनी चाहिए वहाँ से चला जाता है !  पंद्रह वर्ष की अनोखा का उसकी जान के रिस्क पर कराया जाता है गर्भपात! इस उम्र में गर्भ में नया जन्म और फिर उसकी हत्या अनोखा को ज्यादा कुछ फर्क नहीं पड़ता सिवा इसके कि माँ बहुत गुस्सा है, जबकि रामरती नहीं समझ पाती कि वो जिन्दा है या मर गई !  गाँव में भला कब ऐसी बातें छुपती हैं आग की तरह ये बात भी फ़ैल गई और अब तो हर जवान-बूढ़ा पुरुष अनोखा से मिलना चाहता  सिवाय रज्जन काका के !  अनोखा को रामरती ने घर में बंद कर दिया था और वो कहीं आ जा न सके ये जिम्मेदारी उसकी छोटी चारों बहनों की थी ! पूरे गाँव में हर घर में हर एक की जुबान पर बस एक ही बात थी कि फूटी किस्मत है रामरती की पति मिर्गी वाला मिला और लड़की ने तो नाक ही कटा दी,हमारी होती तो ज़हर खिला कर मार डालते ऐसी कुल्टा लड़की को अरे रज्जन का क्या दोष आदमी है,  इसी से न संभाली गई होगी अपनी जवानी पूरे गाँव के मुँह पर कालिख पोत दी इसने !  इस गंदगी को जल्दी से जल्दी गाँव से फेंक देना चाहिए,हर कोई समझाता रामरती को !  रामरती की जुबान चिपक चुकी थी और आँखे रेगिस्तान से भी अधिक सूखी हो चली थीं !  कोई राह नज़र नहीं आ रही थी उसे ! कई ठाकुरों ने तो यहाँ तक समझाया कि अनोखा को मेरे पास भेज दिया कर तेरे दिन भी बहुर जायेंगे आखिर और भी तो चार बेटियाँ हैं तेरे !  रामरती बस यही सोचती कि पैदा होते ही गला क्यूँ न घोंट दिया मैंने इन लड़कियों का ! लड़कियां होती ही हैं भार !  कहते हुए बस अनूप को गले से चिपका लेती है ! शाम का वक्त है रामरती की जिठानी आती है और बेहद दया भाव से कहती है जो होना था हो गया तू कहे तो अब भी बात बन सकती है मै अपने भईया को कुछ नहीं बताउंगी अनोखा की शादी जल्दी से उनके साथ करवा सकती हूँ तेरे सर से मुसीबत भी हट जाएगी और मेरे भाई का घर भी बस जायेगा . लेकिन जिज्जी तुम्हारे भईया की उम्र तो चालीस पार है और अनोखा अभी पंद्रह की भी पूरी नहीं हुई रामरती कहती है. ये सुनते ही जिठानी गरम तवे सी छन्ना के बोली हाँ !और रज्जन तो बस अभी सोलह बरस का ही है न ! जब अड़तालीस साल के आदमी के साथ सोना आता है तुम्हारी बेटी को तो हमारे भईया तो अभी चालीस के ही हैं.सही कहते हैं भला करने चलो और अपना ही हाँथ जलाओ जिठानी जोर से कहती है . रामरती कुछ सोच नहीं पाती कि क्या करे ,किससे मदद ले,कैसे अनोखा की शादी कर जल्द से जल्द उसे गाँव से अपने जीवन से निकल फेंके  इसी उधेड़बुन में बैठी है कि तभी अनूप रोते हुए आता है , कहता है मम्मी मेरे पापा मर गए ! चलो देखो चल कर सब कह रहे हैं वो मर गए.
‘अच्छा हो की मर गया हो तेरा बाप कम से कम कहीं से तो मुक्ति मिले ’ कहते हुए रामरती भागती है गाँव के बड़े तालाब की ओर वहीँ किनारे हरिप्रसाद पड़ा है भीड़ लगी हुई है कोई कह रहा है कि इसे मिर्गी आई है, कोई कह रहा है कि दारु पी है इसने .सब दूर खड़े हैं कोई उसके पास नहीं जाता . रामरती उसे छूती है ,ठंडा है उसका पूरा शरीर और दारू की तेज़ दुर्गन्ध आ रही है , मुंह से लेकर कान के अन्दर तक झाग फैला है, मृत्यु एक साथ सारे ही ऐबों को ले जाती है. एक जोर की चीख गूँज जाती है पूरे गाँव में अनूप के पापा ” ! रामरती वहीँ हांथों को पटक कर चूड़ियाँ तोड़ देती है और कहती है अच्छा हुआ मर गए, मुक्ति तो मिली . चूड़ियों के टूटने से हांथों से खून बहने लगता है और उन्ही खून भरे हांथों से मिटा देती है अपना सिन्दूर . हरी प्रसाद का क्रिया कर्म जैसे-तैसे उसके भाई कर देते हैं .रामरती कई दिनों तक  घर से नहीं निकलती एक सन्नाटा पसरा है उसके चारों ओर . शाम का वक्त है अनोखा आती है और सन्नाटे को तोड़ती हुई कहती है माँ घर में कुछ भी खाने को नहीं है . सब तो खा गई , अब मै ही बची हूँ, आ मुझे भी खा ले कहते हुए रामरती अपनी चुप्पी तोड़ती है तभी अनूप रोते हुए आता है माँ, मुझे भूख लगी है. रामरती उसे चुप कराती है और घर में तलाशती है कि कुछ खाने को मिल जाये लेकिन घर में  सिवाय ख़ाली बर्तनों के कुछ भी नहीं मिलता . रामरती भाग कर ठाकुर के घर जाकर रोती है और वहाँ से अनूप के लिए खाना लाती है, ठकुराइन उसे खाना तो दे देती हैं लेकिन साथ ही कल से काम पर आने कि हिदायत भी  कि यदि काम नहीं करेगी तो उसके बच्चों के लिए खाना कौन देगा इस  तरह जितना शोक करना था कर लिया,वैसे भी क्या करता था तेरा पति, अब तू आगे की सोच और कल से काम पर आना शुरू कर. रामरती घर जाकर अपने कलेजे के टुकड़े को खाना खिलाती है और लड़कियों को खुद परोस के खाने के लिए कह देती है अगले दिन से ही रामरती  घरों में काम के लिए जाने लगती है अभी एक महीना भी नहीं बीता कि फिर से जमींदार उसे नए-नए बहानों से परेशान करने लगे कि वो अनोखा को उनके पास भेज दे. रामरती बेहद डर चुकी थी अतः सीधा अपनी जिठानी से अनोखा की शादी कि बात करती है कि क्या वो अब भी अपने भाई के साथ अनोखा की शादी कर सक सकती है .जिठानी अपनी ख़ुशी को दबाते हुए कहती है अब इतना अहसान तो करना ही पड़ेगा तुझ पर पहले ही मान जाती तो इतनी बेईज्ज़ती तो नहीं उठानी पड़ती अब देखती हूँ मै भैया से बात कर के. एक महीने के अन्दर साधारण ढंग से अनोखा कि शादी हो जाती है. बारात में दूल्हा और उसकी तीन बेटियाँ थी. दूल्हा अनोखा को देख किसी बांके छोरे की तरह लालायित था जबकि अनोखा इतनी शांत कि तालाब का शांत पानी भी उसके समक्ष कोलाहल करता नज़र आये .बेटियाँ उसे मम्मी-मम्मी पुकार रही थीं .बड़ी लड़की की उम्र तो १० या ११ की ही होगी . अनोखा की शादी संपन्न हो गई और विदाई में उसे मिली थीं तीन बेटियाँ . वैसे भी अपने घर में अपनी चार बहनों और भाई अनूप की माँ तो वही थी बस फर्क ये था कि उसी उम्र के उसके भाई-बहन उसे दीदी बुला रहे थे जबकि वो बेटियाँ उसे मम्मी बुला रही थीं . अनोखा की विदाई में सभी आँखें शून्य थीं सिवाय अनूप के वो सबसे छोटा था और अनोखा खुद से ज्यादा अनूप का ख्याल रखती थी इसलिए अनूप को दीदी का जाना बिलकुल अच्छा नहीं लग रहा था विदाई में रामरती अनोखा को गले लगाते हुए कहती है अब मेरी जिम्मेदारी ख़तम अब वही तेरा घर है जी या मर बस यहाँ मत आना . ससुराल में अनोखा का स्वागत करने के लिए भी कोई न था सिवाय अनोखा की विधवा सास के और वो थी भी तो दूसरी पत्नी, इसलिए सास को भी कोई उत्साह नहीं था कि वो अनोखा का स्वागत धूम धाम से करे . पूरा दिन गुज़र गया शाम होते ही तीनो लड़कियों को दादी के पास भेज कर अनोखा का पति कांतिलाल कमरे में आता है और बिना किसी वार्तालाप के वसूल लेता है अपने पति होने का अधिकार .शादी के दूसरे ही महीने अनोखा गर्भवती हो जाती है सास और पति दोनों को लड़का ही चाहिए इस लिए तीन महीने पूरे होते ही वो उसकी जांच करवाते हैं. गर्भ में लड़की है पता चलते ही अनोखा का गर्भपात करा दिया जाता है. पंद्रह की उम्र और दो-दो बार गर्भपात, अनोखा पीली पड़ जाती है ,उसका शरीर निष्प्राण सा दीखता है. अभी कच्ची उम्र है अनोखा की कहते हुए डॉक्टर कांतिलाल को कुछ वक्त अनोखा से संबंध न रखने की सलाह देता है लेकिन कांटी लाल को इंतज़ार नहीं है और कुछ ही महीनो में फिर से अनोखा की कोख हरी हो जाती है, कर दी जाती है.  तीन महीने पूरे होते ही एक बार फिर से जाँच,लेकिन इस बार लड़का है कि खबर से सास और पति उसे भर पेट खाना भी खिलाते हैं और उसका ख्याल भी रखते हैं. अनोखा का कमज़ोर शरीर टूट चुका है अब तक वो सिर्फ लेटी रहती है उससे ठीक से चला भी नहीं जाता. कम उम्र कमज़ोर शरीर का नतीजा आठवें महीने में ही उसे प्रसव का दर्द उठ जाता है और बच्चा जनने में ही निकल जाती है अनोखा की जान ! बड़ी मुश्किल से बच्चा बचता है क्यूंकि डॉक्टर से बच्चा बचाने के लिए ही कहा गया था माँ तो नई भी आ जाएगी लेकिन लड़का  इतनी मुश्किल से तो घर का चिराग मिला है इसलिए बच्चा हर हाल में बचना चाहिए . कांतिलाल और उसकी माँ खुश है कि लड़का हुआ है उनके वंश का वंशज मिल गया है, पालने के लिए माँ तो मिल ही जायेगी .  अनोखा बिलकुल शांत हो चुकी है क्योंकि उसे जीवन से मुक्ति मिली है हालाँकि क्या यही जीवन था क्या यही होना चाहिए था.... क्या यही मुक्ति है ....अनोखा में कुछ खास या अलग भले ही न रहा हो किन्तु उसका जीवन उसके नाम की तरह अनोखा ही गुज़रा ….!
 ( त्रैमासिक पत्रिका ‘ लमही ’ में प्रकाशित ! )

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