Tuesday, September 24, 2013

ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ ? -विवेक मिश्र

ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ ?
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            चर्चित कहानीकार विवेक मिश्र की  कहानी 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ? ' अप्रैल 12 हंस में प्रकाशित हुई थी ..ये कहानी  "स्वामी रामानन्द तीर्थ- मराठ वाड़ा विश्वविद्यालय" के  बी.ए., बी.काम. और बी.एस.सी. के प्रथम वर्ष के हिन्दी पाठयक्रम की पुस्तक- ''साहित्य भारती'' में शामिल की गयी है .. आप सभी ये कहानी फरगुदिया पर पढ़ सकते हैं .. विवेक मिश्र जी को बहुत बधाई !!



     
गंगा पूरे वेग से बह रही थी। गाड़ी उससे उलटी दिशा में दौड़ रही थी, जिससे गंगा का वेग वास्तविक्ता से अधिक प्रतीत हो रहा था। बिना इंजन और डिब्बों के भी गंगा किसी तेज़ दौड़ती रेल के जैसी ही लग रही थी, जो सदियों से एक अनवरत यात्रा में थी। उसका वेग भले ही कम या ज्यादा हुआ हो, पर वह कभी किसी स्टेशन पर ठहरी नहीं थी। सदियों के इस सफ़र में उसके साथ बहे जा रहे पत्थरों और रजकणों को नहीं पता था कि उसके किनारों पर बने घाटों ने कितने मिथक गढ़ कर उसमें बहा दिए हैं। उसकी उछलती-कूदती लहरें भी नहीं जानती थी कि वह कितनी सच्ची-झूठी कहनियाँ अपने सिर पर ढोए लिए जा रही हैं। धीरे-धीरे रेल की पटरियाँ गंगाकी ओर मुड़ गईं।


            अब ट्रेन गंगा के ऊपर से गुज़र रही थी। पुराना लोहे का पुल, उसकी आड़ी-टेड़ी शहतीरें, ट्रेन की गति के साथ नगाड़े-सी बज रही थीं। लोग सिक्के, फूल-मालाएं खिड़की से बाहर उछाल कर नदी में फेंक रहे थे। मौसम की नमी प्रतिभा की आँखों में सिमट आई थी। बनारस पीछे छूट गया था, पर घाट पर जलती चिताओं का धुआँ अभी भी प्रतिभा के भीतर घुमड़ रहा था। गाड़ी गंगा को सीधी रेखा में काटती, पुल पर धड़धड़ाती हुई, दूसरे किनारे की ओर बढ़ रही थी। नदी के प्रवाह और गाड़ी की गति का शोर आपस में मिलकर अपने चरम पर पहुँच गया था, पर इस शोर में भी कुछ शब्द प्रतिभा के कानों में गूँज रहे थे,''ये शूद्र हैं''……''ये शूद्र हैं''।

      प्रतिभा ने खिड़की के सींकचों को कस कर पकड़ लिया। वह जिस गाड़ी पर सवार थी उसे रोका जा सकता था, पर पुल के नीचे बहती गंगा को रोककर नहीं पूछा जा सकता था कि क्यूँ ढोती हो तुम अपने सिर पर ऐसी नापाक कहानियाँ। वह चीख-चीख कर कहना चाहती थी कि हाँ मैं शूद्र हूँ। शूद्र माने पैर। सभ्यताओं के पैर, जिनपर चलकर पहुँची हैं वे यहाँ तक। वह अपने हाथों से पानी उलीचकर धो डालना चाहती थी एक-एक घाट। वह पछीट-पछीट कर धोना चाहती थी संस्कृतियों और संस्कारों पर चढ़ी सदियों की धूल। वह चलती ट्रेन से नदी में छलाँग लगा देना चाहती थी। पर वह स्वयं को संयत करती हुई, गंगा के प्रवाह को देखने लगी । उसे लगा जैसे गंगा की लहरों पर रणवीर की कही बातें तैर रही थीं। सच ही कहा था रणवीर ने ‘वे नहीं बदलेंगे, वे नहीं समझेंगे’’। यह तो बस उसी की ज़िद थी जो वह रणवीर के साथ अपने तीन साल के बेटे आशीष को लेकर रणवीर के पिता के अन्तिम संस्कार के लिए बनारस आई थी, पर यहाँ आकर उसने जो कुछ भी देखा-सुना था, उसने उस ज़मीन को हिला कर रख दिया था, जिस पर उसका और रणवीर का रिश्ता खड़ा था, जिस पर उसके छोटे से परिवार की नींव रखी थी।
      प्रतिभा को आज भी वह दिन याद था जब रणवीर के घरवालों तक यह खबर पहुँची थी कि वह अपने साथ पढ़नेवाली एक ऐसी लड़की से प्यार करता है और उसी से शादी भी करना चाहता है, जो जाति से शूद्र है। सुनकर उसके घर वालों को जैसे साँप सूंघ गया था। अनायास ही उनकी आने वाली कई पीढ़ियों की मोक्ष प्राप्ती संकट में पड़ गई थी। ठाकुर परिवार के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब उनके कुल के किसी लड़के ने अपनी जाति से बाहर की किसी लड़की से शादी करने की बात सोची थी। रणवीर को तुरन्त बनारस बुला लिया गया था। वहाँ रणवीर के साथ क्या हुआ प्रतिभा नहीं जानती थी। उसने कानपुर आकर प्रतिभा को बस इतना ही बताया था कि उसके चाचा और बड़े भाइयों का कहना है कि लड़की अगर बामन या बनिया होती तो सोच भी सकते थे, पर शूद्र? यह तो हो ही नहीं सकता। पर रणवीर अपने निर्णय पर अड़े रहे और उन्होंने प्रतिभा के साथ अपने विवाह की तारीख निश्चित कर, अपने घर सूचना भेज दी थी।

       उन दोनो का विवाह कानपुर के एक आर्य समाज मंदिर में कुछ मित्रों और प्रतिभा के रिश्तेदारों की उपस्थिति में संपन्न हुआ था। रणवीर के घर से कोई भी नहीं आया था, पर उस दिन जब वे मंदिर से निकल ही रहे थे कि रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह मंदिर पहुँच गए थे। प्रतिभा ने उन्हें पहली बार देखा था। उन्हें वहाँ देखकर उसका मन कई आशंकाओं से भर गया था, पर क्षण भर में ही उनके सरल व्यक्तित्व और वात्सल्य भरी मुस्कान ने उसकी सारी आशंकाओं को दूर कर दिया। रणवीर और प्रतिभा ने जब आगे बढ़कर उनका आशीर्वाद लिया, तो उन्होंने दोनो को गले लगा लिया। वह बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के पढ़ाते थे। रणवीर ने प्रतिभा को पहले ही बताया था कि उसके परिवार में एक वही हैं जिन्होंने बदलते समय में पुरानी मान्यताओं को तोड़कर नए मूल्यों को अंगीकार किया था वर्ना उसके परिवार में बाकी सभी लोग आज भी सदियों पुराने खूंटे से बंधे, सड़ी-गली मान्यताओं की जुगाली कर रहे थे। उन्होंने उस दिन चलते हुए प्रतिभा और रणवीर से बस इतना ही कहा था, ‘‘बहुत कठिन राह चुनी है तुम दोनो ने, पर एक दूसरे का साथ देने के अपने संकल्प को कभी डिगने मत देना। अभी मैं चलता हूँ, तुम्हारी माँ को समझाऊँगा। उनके मानते ही, मैं तुम्हें पत्र लिखूँगा। तुम दोनो घर आना।’’ रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह से हुई इस छोटी–सी मुलाकात से प्रतिभा को अपनी शादी पूर्ण लगने लगी थी।

      उसके बाद चार साल बीत गए, ना तो रणवीर के परिवार वाले माने और ना ही रणवीर के पिता का अपने बेटे और बहू को घर बुलाने के लिए कोई पत्र ही आया। हालाँकि इस बीच जब उनके बेटे आशीष का जन्म हुआ तो प्रतिभा का रणवीर के परिवार वालों से मिलने का बहुत मन था। यह अपने बेटे को उसकी जड़ों से जोड़ने की एक नैसर्गिक ईच्छा थी या कुछ और वह नहीं जानती थी, पर उसने एक बार बनारस चलकर रणवीर से अपने भाइयों, चाचाओं और माँ से मिलकर, उन्हें मनाने की बात की थी, जिसपर रणवीर ने यही कहा था, ‘’वे नहीं समझेंगे, वे नहीं बदलेंगे। तुम उन लोगों का मनोविज्ञान नहीं समझतीं। वे हमारी तरह नहीं सोचते।  हम कुछ भी कर लें वे नहीं मानेंगे।’’ उस समय प्रतिभा रणवीर की बात सुनकर चुप हो गई थी, पर वह उसके जवाब से संतुष्ट नहीं थी। इन वर्षों में प्रतिभा के मन में कई प्रश्न डूबते-उतराते रहे। परन्तु जब एक दिन अचानक ही रणवीर को उसके एक मित्र ने आकर सूचना दी कि उसके पिता का हृदय गति रुकने से देहान्त हो गया है तथा यह सूचना उसे फोन पर उसके ही घर वालों ने दी है और यह भी कहा है कि यदि रणवीर चाहे तो अपने पिता के अन्तिम संस्कार में शामिल हो सकता है, तब रणवीर के मना करने पर भी प्रतिभा ने उसके साथ जाने का निश्चय कर लिया था। उसके सामने रणवीर के पिता की मुस्कान तैर रही थी। उसे लग रहा था मानो वह कह रहे हों कि तुम चिन्ता मत करना मैं तुम्हें घर बुलाने के लिए पत्र ज़रूर लिखूँगा। रणवीर के लाख समझाने पर भी प्रतिभा नहीं मानी। रणवीर और प्रतिभा अपने बेटे आशीष के साथ रात में ही बनारस के लिए चल दिए थे।

     बनारस पहुँचने पर उन्हें पता चला कि पिता जी को अंतिम संस्कार के लिए गंगा किनारे घाट पर ले जाया जा चुका है इसलिए उनके अंतिम दर्शन के लिए उन्हें सीधे घाट पर ही पहुँचना होगा। उन्होंने वैसा ही किया। वे सीधे घाट पर पहुँचे। उस घाट पर, जहाँ विशेष लोगों के दाह संस्कार की विशेष व्यवस्था थी। वहाँ पहले से ही कुछ चिताएं जल रही थीं। हवा में नमी होने के कारण लपटें कम और धुआँ ज्यादा था। लोग लाख और देशी घी चिताओं पर डाल कर आग भड़का रहे थे। मंत्रों की गूँज और चिताओं की तपिश में वहाँ उपस्थित लोगों के चेहरे लाल हो गए थे। चिताओं से उठते धुएं के बादलों के बीच, पंडितों के मुँह से निकले मंत्र बिजली से तड़क रहे थे।

         रणवीर के पिता की चिता लगाई जा रही थी। उनका शव अर्थी समेत पृथ्वी पर रखा था। उनका चेहरा शान्त और निर्लिप्त था, पर होंठ खुले हुए थे। आखिरी बार अपने इन होंठो से उन्होंने क्या कहा होगा। क्या उन्होंने रणवीर और प्रतिभा को याद किया होगा। यही सोचते हुए प्रतिभा ने रणवीर के साथ  उनके आगे  हाथ जोड़े और अपनी आँखें बन्द कर लीं। प्रतिभा को रणवीर के पिता से हुई अपनी पहली और आखिरी मुलाकात याद हो आई। उन्होंने स्वयं आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया था।
 रणवीर के बड़े भाई पिंडदान कर रहे थे।

       प्रतिभा को लग रहा था जैसे उनके वहाँ पहुँचने पर मंत्रोच्चार और तेज़ हो गया था, पर इस सब की ओर ध्यान ना देते हुए वह एकटक रणवीर के पिता को ही देख रही थी। वह रणवीर की ही तरह लम्बी-चौड़ी कद-काठी के आदमी थे। अनायास ही प्रतिभा का ध्यान उनके लिए बनाई जा रही चिता पर गया। उसकी लम्बाई उनके कद से बहुत कम थी। उसे वह चिता बहुत छोटी लग रही थी। प्रतिभा के लिए यह सब बिलकुल नया और अपरिचित था। वह दुख और कौतुहल से भरी थी। फिर भी उसका मन एक व्यर्थ  जान पड़ते प्रश्न से उलझ रहा था। बार-बार उसे यही लग रहा था कि इतनी छोटी चिता पर इतने बड़े व्यक्ति के शव को कैसे लिटाया जा सकेगा।

        तभी पंडितों ने मंत्रोच्चार रोक दिया, रणवीर के बड़े भाई ने कुछ लोगों की सहायता से शव को चिता पर लिटा दिया। पिताजी के पैर घुटनों से मुड़े हुए, चिता से बाहर लटक रहे थे। उनके शरीर को धीरे-धीरे लकड़ियों से ढका जाने लगा। चिता को अग्नि दे दी गई। पर पैर? वे अब भी बाहर लटक रहे थे।

       चिता के आग पकड़ते ही, चिता से बाहर लटकते पैरों की त्वचा का रंग बदलने लगा। वे पहले पीले,…फिर भूरे और धीरे-धीरे काले होने लगे। वही पैर जो जीवन भर पूरे शरीर का बोझ उठाते रहे, जो पूरे व्यक्तित्व को ज़मीन से ऊँचा किए रहे। वही पैर अपनी ही देह से तिरस्कृत, चिता से बाहर झूल रहे थे। झुलस रहे थे। चमड़ी के जलने की गंध चारों ओर फैलने लगी। घी के पड़ते ही चिता से लपटें उठने लगीं। तभी एक पैर घुटने से टूटकर ज़मीन पर खिसक गया। दूसरा भी टूटकर ज़मीन पर गिर पाता कि अंतिम क्रिया कर रहे रणवीर के भाई ने दो लम्बे बांसों की कैंची बनाकर पैरों को पकड़ा और एक –एक कर चिता में झोंक दिया। प्रतिभा के मुँह से चीख निकल गई। वह थर-थर काँप रही थी। चिता के ऊपर पड़े दोनो पैर धूँ-धूँ करके जल रहे थे।

        प्रतिभा की चीख सुनकर अंतिम संस्कार करा रहे पंडित ने बड़े ही कड़े स्वर में कहा, ‘पैर जीवन भर धरती पर चलते हैं। यह शुद्ध-अशुद्ध हर तरह की वस्तु और स्थान के संपर्क में आते हैं। ये शरीर का बोझ उठाने के लिये बने हैं। आगे की यात्रा में पैरों की आवश्यकता नहीं होती।’  बोलते हुए उनकी आँखों में चिता की लपटें चमकने लगी थीं।

        प्रतिभा की आँखों से गंगा छलछला रही थी। पंडित ने बादलों की तरह फिर गर्जना की, ‘एक व्यक्ति को अपने जीवन में कई प्रकार के कर्म करने होते हैं। वह अपने सिर से ब्राह्मण का कर्म करता है, भुजाओं से क्षत्रियों का, उदर के लिए उसे वैश्य का कर्म करना पड़ता है। पर पैर? ये शूद्र हैं।…इन्हें बाकी शरीर के साथ नहीं जलाया जा सकता। जब सिर, भुजाएं और उदर जल जाता है, जब आत्मा शरीर के मोह से मुक्त होकर अनंत यात्रा पर निकल जाती है, तब इन्हें भी बिना स्पर्श किए लकड़ी की सहायता से अग्नि में डाल दिया जाता है।’

         रणवीर ने अपने बेटे को गोद में लेकर उसका मुँह दूसरी ओर फेरा और आँखें मूंद लीं। फिर भी उसकी आँखों में पिता के पैर बार-बार कौंध रहे थे। उसने उन पैरों को आखिरी बार अपनी शादी के समय छुआ था। जीवन में कितने सफ़र तय किए थे, इन्हीं पैरों के निशानों का पीछा करते हुए। रणवीर ने अपनी आस्तीन से आँसू पौंछते हुए प्रतिभा की ओर देखा। वह अभी भी रणवीर का हाथ पकड़े काँप रही थी, फिर भी उसने हिम्मत बटोरकर रणवीर के कान में फुसफुसाते हुए कहा, ‘पर मैंने तो ऐसा कहीं नहीं देखा’।

           पंडित ने ऊँचे स्वर में आगे कहना शुरू किया, ‘बहुत से लोगों ने संसार में बहुत कुछ नहीं देखा, इसी कारण वे अज्ञान के अंधकार में अपना जीवन बिता रहे हैं। उन्हें नहीं पता वे अपना लोक ही नहीं, परलोक भी नष्ट कर रहे हैं’। उन्होंने रणवीर की ओर देखते हुए कहा, ‘शूद्र की छाया भर पड़ने से वैतरणी पार करने में बाधा पड़ जाती है। भवसागर को पार करना कोई नदी-नाला पार करना नहीं है। उसे पार करने के लिए कोई पुल, कोई गाड़ी, कोई साधन नहीं है, सिवाय अपने धर्म पालन के, सारे कर्मकांड पूरे करने के और अंतिम संस्कार? यह तो वह संस्कार है जिसमें रत्तीभर चूक से, व्यक्ति की आत्मा युग-युगान्तर तक प्रेतयोनि में भटकती रहती है। पूरे ब्रह्माण्ड में कोई उसे वैतरणी पार नहीं करा सकता। कोई उसे मोक्ष नहीं दिला सकता। यह तो इसी स्थान की महिमा है, जहाँ इतने विधि-विधान पूर्वक यह संस्कार संभव है’।

प्रतिभा की आँखों में गंगा जैसे ठहर गई थी। उसकी लहरों का कोलाहल शान्त हो गया था।

        घाट पर सदियों से जलती चिताओं की राख धीरे-धीरे आसमान से गिरकर सबके चेहरों पर बैठती जा रही थी। लोगों के मुँह काले हो रहे थे। उनकी आँखें चारों ओर फैले काले धुएँ और चमड़ी के जलने की गंध के बीच, स्वर्ग में खुलने वाले किसी दरवाज़े को तलाश रही थी, पर उस धुंध में वे कोई रोशनी नहीं खोज पा रही थीं।

 गंगा अब भी वही जा रही थी-निर्लिप्त-सी। किसी समारोह में प्रतिभा को अपना ही गाया हुआ, भूपेन हजारिका का वह गीत याद आ रहा था- ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूं…? विस्तीर्ण दोनो पाट, …असंख्य मनुष्यों का हाहाकार सुनकर भी, बही जा रही हो। इतने अन्याय-अविचार पर तुम सूख क्यों नहीं जातीं?

       गाड़ी गंगा के दूसरे छोर पर पहुँच गई, लोहे का पुल पीछे छूट गया। गाड़ी ने कुछ ही समय में ही गंगा पार कर ली थी। पर वैतरणी?
    प्रतिभा ने ज़ोर से सिर को झटका।   
               
      सामने की बर्थ पर रणवीर और उसका बेटा आशीष दोनो ही गहरी नींद में थे। उसे रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह की मुस्कान बार-बार याद आ रही थी। उन्होंने उसे कितने स्नेह से गले लगा लिया था। उनकी मुस्कान में जैसे पूरा बनारस सिमट आया था, जिसे देखकर उसकी पकड़ लोहे के सींकचों पर ढीली पड़ गई। उसके चेहरे की माँसपेशियों का तनाव कम होने लगा। आँखों की नमी धीरे से गालों पर उतर आई। प्रतिभा ने बैग से चादर निकाली और एक दूसरे से चिपटकर सो रहे अपने पति और बेटे को ओढ़ा दी। अब प्रतिभा अपनी सीट पर बैठी मुस्करा रही थी।

      नदी के पीछे छूट जाने पर, हवा में नमी कुछ कम हो गई थी। दूर तक खुले आसमान के नीचे हरी ज़मीन फैली थी, जिसके पार प्रतिभा की अपनी एक दुनिया थी, जिसमें अपने परिवार के साथ रहते हुए उसे कभी मोक्ष पाने और वैतरणी पार करने की चिन्ता नहीं करनी पड़ती थी।

         ……तभी उसने देखा था। सामने की सीट पर गहरी नींद में सो रहे रणवीर और आशीष के ऊपर फैली सफेद चादर पर रणवीर के पिता हृदयनाथ सिंह की मुस्कान निषप्रभ भाव से धूप के छोटे से फूल की तरह खिली हुई, विश्राम कर रही थी।परिचय
विवेक मिश्र
विज्ञान में स्नातक, दन्त स्वास्थ विज्ञान में विशेष शिक्षा, पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नात्कोत्तर। एक कहानी संग्रह-‘हनियाँ तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित। 'हनियां', 'तितली', 'घड़ा', 'ऐ गंगा तुम बहती हो क्यूँ?' तथा 'गुब्बारा' आदि चर्चित कहानियाँ। लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं व कहानियाँ प्रकाशित। साठ से अधिक वृत्तचित्रों की संकल्पना एवं पटकथा लेखन। 'light though a labrynth' शीर्षक से कविताओं का अंग्रेजी अनुवाद राईटर्स वर्कशाप, कलकत्ता से तथा कहानिओं का बंगला अनुवाद डाना पब्लिकेशन, कलकत्ता से प्रकाशित।

                                  विवेक मिश्र,123-सी,पाकेट-सी,मयूरविहार फेस-2,

दिल्ली-91,मो:-9810853128                                                   vivek_space@yahoo.co

Wednesday, September 18, 2013

सौरभ राय की कवितायें

सौरभ राय 

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भौतिकी
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याद हैं वो दिन संदीपन

जब हम

रात भर जाग कर

हल करते थे

रेसनिक हेलिडे

एच सी वर्मा

इरोडोव ?


 
हम ढूंढते थे वो एक सूत्र

जिसमे उपलब्ध जानकारी डाल

हम सुलझा देना चाहते थे

अपनी भूख

पिता का पसीना

माँ की मेहनत

रोटी का संघर्ष

देश की गरीबी !


 
हम कभी

घर्षणहीन फर्श पर फिसलते

दो न्यूटन का बल आगे से लगता

कभी स्प्रिंग डाल कर

घंटों ऑक्सिलेट करते रहते
 
और पुली में लिपट कर

उछाल दिए जाते

प्रोजेक्टाइल बनाकर !


 
श्रोडिंगर के समीकरण

और हेसेनबर्ग की अनिश्चित्ता का

सही अर्थ

समझा था हमने |

सारे कणों को जोड़ने के बाद

अहसास हुआ था -

“अरे ! एक रोशनी तो छूट गयी !”

हमें ज्ञात हुआ था

इतना संघर्ष

हो सकता है बेकार

हमारे मेहनत का फल फूटेगा

महज़ तीन घंटे की

एक परीक्षा में |


 
पर हम योगी थे

हमने फिज़िक्स में मिलाया था

रियलपॉलिटिक !

हमने टकराते देखा था

पृथ्वी से बृहस्पति को |

हमने सिद्ध किया था

कि सूरज को फ़र्क नहीं पड़ता

चाँद रहे न रहे |


 
राह चलती गाड़ी को देख

उसकी सुडोलता से अधिक

हम चर्चा करते

रोलिंग फ़्रीक्शन की |

eiπ को हमने देखा था

उसके श्रृंगार के परे
 
हमने बहती नदी में

बर्नोली का सिद्धांत मिलाया था

हमने किसानों के हल में

टॉर्क लगाकर जोते थे खेत |


 
हम दो समय यात्री थे

बिना काँटों वाली घड़ी पहन

प्रकाश वर्षों की यात्रा

तय की थी हमने

‘उत्तर = तीन सेकंड’

लिखते हुए |


 
आज

वर्षों बाद

मेरी घड़ी में कांटें हैं

जो बहुत तेज़ दौड़ते हैं

जेब में फ़ोन

फ़ोन में पैसा

तुम्हारा नंबर है

पर तुमसे संपर्क नहीं है |

पेट में भूख नहीं

बदहज़मी है |

देश में गरीबी है |


 
सच कहूँ संदीपन

सूत्र तो मिला

समाधान नहीं ||


सिनेमा
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सूरज की आँखें
टकराती हैं
कुरोसावा की आँखों से
सिगार के धुंए से
धीरे धीरे
भर जाते हैं
गोडार्ड के
चौबीस फ्रेम ।
 
हड्डी से स्पेसशिप में
बदल जाती है
क्यूब्रिक की दुनिया
बस एक जम्प कट की बदौलत
और चाँद की आँखों में
धंसी मलती है
मेलिएस की रॉकेट ।
 
इटली के ऑरचिर्ड में
कॉपोला के पिस्टल से
चलती है गोली
वाइल्ड वेस्ट के काउबॉय
लियॉन का घोड़ा
फांद जाता है
चलती हुई ट्रेन ।
 
बनारस की गलियों में
दौड़ता हुआ
नन्हा सत्यजीत राय
पहुँचता है
गंगा तट तक
माँ बुलाती है
चेहरा धोता हुआ
पाता है
चेहरा खाली
चेहरा जुड़ा हुआ
इन्ग्मार बर्गमन के
कटे फ्रेम से ।
 
फेलीनी उड़ता हुआ
अचानक
बंधा पता है
आसमान से
गिरता है जूता
चुपचाप हँसता है
चैपलिन
फीते निकाल
नूडल्स बनता
जूते संग खाता है ।
 
बूढ़ा वेलेस
तलाशता है
स्कॉर्सीज़ की टैक्सी में
रोज़बड का रहस्य ।
 
आइनस्टाइन का बच्चा
तेज़ी से
सीढ़ियों पर
लुढ़कता है ।
सीढ़ियाँ अचानक
घूमने लगती हैं
अपनी धुरी पर
नीचे मिलती है
हिचकॉक की
लाश !
 
एक समुराई
धुंधले से सूरज की तरफ
चलता जाता है ।
हलकी सी धूल उड़ती है ।
स्क्रीन पर
लिखा हुआ सा
उभरने लगता है -
‘ला फ़िन’
‘दास इंड’
‘दी एन्ड’
 
रील
घूमती रहती है ।


संतुलन
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मेरे नगर में
मर रहे हैं पूर्वज
ख़त्म हो रही हैं स्मृतियाँ
अदृश्य सम्वाद !
किसी की नहीं याद -
हम ग़ुलाम अच्छे थे
या आज़ाद ?
 
बहुत ऊँचाई से गिरो
और लगातार गिरते रहो
तो उड़ने जैसा लगता है
एक अजीब सा
समन्वय है
डायनमिक इक्वीलिब्रियम !
 
अपने उत्त्थान की चमक में
ऊब रहे
या अपने अपने अंधकार को
इकट्ठी रोशनी बतलाकर
डूब रहे हैं हम ?
 
हमने खो दिये
वो शब्द
जिनमें अर्थ थे
ध्वनि, रस, गंध, रूप थे
शायद व्यर्थ थे ।
शब्द जिन्हें
कलम लिख न पाए
शब्द जो
सपने बुनते थे
हमने खोए चंद शब्द
और भरे अगिनत ग्रंथ
वो ग्रंथ
शायद सपनों से
डरते थे ।
 
थोड़े हम ऊंचे हुए
थोड़े पहाड़ उतर आए
पर पता नहीं
इस आरोहण में
हम चल रहे
या फिसल ?
हम दौड़ते रहे
और कहीं नहीं गए
बाँध टूटने
और घर डूबने के बीच
जैसे रुक सा गया हो
जीवन ।
 
यहाँ इस क्षण
न चीख़
न शांति
जैसे ठोकर के बाद का
संतुलन ।


भारतवर्ष
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वो किस राह का भटका पथिक है ?
मेगस्थिनिस बन बैठा है
चन्द्रगुप्त के दरबार में
लिखता चुटकुले
दैनिक अखबार में |
सिन्कदर नहीं रहा
नहीं रहा विश्वविजयी बनने का ख़्वाब
चाणक्य का पैर
घांस में फंसता है
हंसता है महमूद गज़नी
घांस उखाड़कर घर उजाड़कर
घोड़ों को पछाड़कर
समुद्रगुप्त अश्वमेध में हिनहिनाता है
विक्रमादित्य फ़ा हाइन संग
बेताल पकड़ने जाता है |
वैदिक मंत्रो से गूँज उठा है आकाश
नींद नहीं आती है शूद्र को
नहीं जानता वो अग्नि को इंद्र को
उसे बारिश चाहिए
पेट की आग बुझाने को |
सच है-
कुछ भी तो नहीं बदला
पांच हज़ार वर्षों में !
वर्षा नहीं हुई इस साल
बिम्बिसार अस्सी हज़ार ग्रामिकों संग
सभा में बैठा है
पास बैठा है अजातशत्रु
पटना के गोलघर पर
कोसल की ओर नज़र गड़ाए |
कासी में मारे गए
कलिंग में मारे गए
एक लाख लोग
उतने ही तक्षशिला में
केवल अशोक लौटा है युद्ध से
केवल अशोक लड़ रहा था
सौ चूहे मार कर
बिल्ली लौटी है हज से
मेरा कुसूर क्या है ?-
चोर पूछता है जज से |
नालंदा में रोशनी है
ग़ौरी देख रहा है
मुह्हमद बिन बख्तियार खिलजी को
लूटते हुए नालंदा
क्लास बंक करके
ह्वेन सांग रो रहा है
सो रहा है महायान
जाग रहा है कुबलाई ख़ान |
पल्लव और चालुक्य लड़ रहें हैं
जीत रहा है चोल
मदुरै की संगम सभा में कवि
आंसू बहाता है
राजराज चोल लंका तट पर
वानर सेना संग नहाता है |
इब्न बतूता दौड़ा चला आ रहा है
पश्चिम से
मार्को पोलो दक्षिण से
उत्तर से नहीं आता कोई उत्तर
आता है जहाँगीर कश्मीर से
गुरु अर्जुन देव को
मौत के घात उतारकर |
नहीं रही
नहीं रही सभ्यता
सिन्धु – सताद्रू घाटी में
अमृतसर के स्वर्ण मंदिर से
चीखता है भिंडरावाले
गूँज रहा है इन्द्रप्रस्थ
सौराष्ट्र
इल्तुतमिश भाला लेकर आता है
मल्ल देश के आखिरी पड़ाव तक
चंगेज़ ख़ान की प्रतीक्षा में |
कोई नहीं रोकने आता
तैमूर लंग को |
बहुत लम्बी रात है
सोमनाथ के बरामदे में
कटा हुआ हाथ है |
लड़ रहें हैं राजपूत वीर
आपस में
रानियाँ सती होने को
चूल्हा जलाती हैं |
चमक रहा है ताजमहल
धुल रहा है मजदूरों का ख़ून
धुल रहा है
कन्नौज
मथुरा
कांगरा |
कृषि कर हटाकर
तुगलक रोता है-
“पानी की किल्लत है
झूठ है
झूठ है सब
केवल राम नाम सत् है”
वास्को डि गामा ढूंढ रहा है
कहाँ है ?
कहाँ है भारतवर्ष ?

इंजीनियर्स मैनिफेस्टो
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हमने तो
खड़े किये हैं
लाखों मीनार,
बनाए हैं महल
शीशों के,
रोका है
नदियों का
विराट प्रवाह !
क्या नहीं रोक सकते
छोटुआ के छत का टपकना ?
ताकि वो
अपने घर के अँधेरे में
चैन से
सो सके ?
 
हमने तो बनायीं हैं
लम्बी कारें
पानी के भव्य जहाज़
दुनिया को सिखाया है
उड़ना !
क्या छोटुआ के बापू की
छह हज़ार साल पुरानी
बैल गाड़ी में हम मिलकर
लकड़ी का
एक ऐसा टुकड़ा नहीं जोड़ सकते
जिससे रात को उनका
पीठ दरद
कम हो जाए ?
 
हमने तो बनाएं हैं
असंख्य सॉफ्टवेअर
एक बटन दबा कर
बदल सकते हैं दुनिया,
हमने पिरो दिए हैं
दूर देशों को
एक तार में !
क्या नहीं जोड़ सकते हम मिलकर
डब्बे में बंद पड़ा
छोटुआ की इस्कुल का
सरकारी कंप्यूटर ?
 
हमने तो ईजाद किये हैं
नयी दवाइयां,
नए नुस्खे
ज़िन्दगी जीने के,
हमने बकरियों के
क्लोन खड़े कर दिए हैं !
क्या नहीं ला सकते
पिछली की हमशक्ल
छोटुआ के लिए
एक और माँ
जिसे वो
बुखार से मरने से
बचा सके ?
 
पूरी दुनिया को
चाँद पर चलाने वाले हम मिलकर
क्या छोटुआ को नहीं सिखा सकते
उसकी अपनी ही ज़मीन पर
खड़ा रहना ?


कित- कित--------------
मैट्रिक के इम्तेहान
ख़त्म होते ही
दोपहर में
बच्चों के साथ
आँगन में
कित-कित खेलती
लड़की से कहा जाता है -
अंदर जाओ ।

बाहर तार पर सूखते
लड़की के हाथों से
कढ़ाई किये गए
फूलों वाले चादर पर
एकाएक धँसे मिलते हैं
चोरकट्टे ।
लड़की की जटाएँ
मोहल्ले भर में
आग की लपट होती 
कित कित खेलती 
लड़की की
गर्दन पर अटकी
पसीने की बूंद हफ्ते भर बरसती
मुहल्ले भर में ।
घर की वृद्धाएँ
अचानक भुला देती घंटों लम्बी तेल मालिश
ऊंची सुनती दादी से
चिल्ला चिल्लाकर की गई
प्यार भरी बातें ।
कित-कित के खेल में
सबसे लम्बी छलांग भरती लड़की
नहीं लाँघ पाती
अपनी ही परछाई ।
  

आज्ञाकारी बेटी
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ब्लाऊज़ सिलते वक्त 
औरत कोशिश करती है
अपनी पीठ के
दरारों को भरने की ।
गर्भनिरोधक गोलियाँ
तकिये के नीचे छिपाते वक्त 
औरत डरती है
कोई देख न ले ।

पति से मार खाकर
औरत झट से घुस जाती है
रसोई में
आज लकड़ी गीली है
धुआं तनी ज्यादा हो रहा है न -
बड़बड़ाती है
रोटी सेंकते हुए ।

औरत की आँखों में 
अब सपने नहीं चुभते
औरत मुस्कुराती सी लेटी है
औरत अपने पति की
आज्ञाकारी बेटी है ।


सिक्यूरिटी गार्ड
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सड़क पर इन दिनों
हर मोड़ चौराहे पर
खड़े हैं
सिक्यूरिटी गार्ड्स
घनी रौबदार मूंछें 
हाथ में डंडा
पैनी नज़र
तैनात 
हर गुज़रते 
आदमी को देख 
वाकी टॉकी पर बड़बड़ाते -
"सूट वाला 
अच्च्छा आदमी लगता है
चीथड़े वाले की 
तलाशी लो !
उसके पास झोला है
चेक करो बम तो नहीं ?"

सड़क पर
इन दिनों 
लोगों से ज़्यादा
सिक्यूरिटी गार्ड्स हैं ।

परिचय -

नाम - सौरभ राय
वर्ष 1989 में एक शिक्षित बंगाली परिवार में जन्म, झारखण्ड में निवास 
शिक्षा - इंजीनियरिंग में स्नातक , वर्तमान में विधि में स्नातकोत्तर की पढ़ाई 
सम्प्रति - वर्तमान में बैंगलोर में ब्रोकेड नामक कंपनी में इंजीनियर 
तीन काव्य संग्रह प्रकाशित - 'अनभ्र रात्रि की अनुपमा', 'उत्थिष्ठ भारत' एवं 'यायावर'
हिंदी की कई पत्र पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित - हंस, वागर्थ, कृति ऒर इत्यादि 
हिंदी काव्य के अलावा अंग्रेजी में भी गद्य लेखन, जिन्हें souravroy.com में पढ़ा जा सकता है

पता - 

Sourav Roy, 
T3, Signet Apartment,
1st main, IIM Post,
Behind HSBC,
Sarvabhowma Nagar,
Bannerghatta Road,
Bangalore - 560076,
Karnataka
फ़ोन - 09742876892

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