Saturday, January 05, 2013

एक समाधान की प्रतीक्षा, भाग चार- स्वाती ठाकुर


स्वाती ठाकुर                                                                                    

शोधार्थी , कवयित्री
दिल्ली विश्विद्यालय - हिंदी विभाग 


(दिल्ली विश्विद्यालय की   हिंदी विभाग की  शोधार्थी , कवयित्री स्वाती ठाकुर के कुछ सवाल हैं, समाज से और व्यवस्था से | १६ दिसंबर को दिल्ली में हुई घटना के लिए स्वाती प्रशासनिक व्यवस्था से ज्यादा समाज की मानसिकता को दोषी मानती हैं ..)







कुछ सवाल…   



साल खत्म होने ही को है, पटाखों के शोर सुनाई दे रहे है, सड़कों पर भीड़ है रौनक वाली- क्या ये इन सबका समय है?
 
किस बात की खुशी मनाई जा रही है?
भयानक शर्मनाक हादसों से भरा साल अपने अवसान पर है, क्या इस बात की?

परंतु अवसान पर जो है, वह समय है, जो कभी थिर नहीं रहता, उसे गुजरना ही है किंतु उन हादसों की पीड़ा का क्या?

 क्या हमारे भीतर जरा-सा भी इंसान ज़िदा नहीं रह गया है?

व्यवस्था को दो दिन गाली दे देने से क्या पीड़ा कम हो जाती है या वे सवाल, जो उठे थे हर मन में वे दब गए हैं समय के साथ हर बार की तरह?

कुछ सवाल हैं जो इस घटना के बाद से मुझे भयानक तौर पर परेशान कर रहे हैं। यह समाज जिसमें हम रह रहे हैं क्या वह किसी खास वर्ग की सम्पत्ति है?

 किसका देश है यह, हमारा तो बिल्कुल भी नहीं !!

तसलीमा नसरीन अपने उपन्यास ‘फ़्रेंच लवर’ में कहती हैं-" Do I have a land of my own? If your land spells shelter, security, peace and joy, India is not my own land. "

इस समाज के संसाधनों पर क्या सबका समान अधिकार है?  ऐसा लगता तो नहीं। यहां इन सभी को किसी खास वर्ग की बपौती मान लिया गया है। तभी तो एक दूसरा वर्ग, जो एक लिहाज से पीड़ित तबका भी है, की पीड़ाओं के निदान के रूप में भी समाज और व्यवस्था उसी को नियंत्रण में रहने के फ़तवे जारी करती है। हम सड़क पर इस वक्त चल नहीं सकते, अपनी पसंद के कपड़े पहन नहीं सकते, हम हँस नहीं सकते… ये पाबंदियां किस लिए?

हमारे प्रतिनिधि कहे जाने वाले नेतागण के बयान भी इन फ़तवों का समर्थन करते हैं। कुछ दिनों पहले आंध्र प्रदेश के किसी कांग्रेसी नेता ने कहा कि आधी रात में हमें आज़ादी इसलिए नहीं मिली कि स्त्रियां रात में सड़कों पर घूमें। यह सोच ही सबसे बड़ी समस्या है। देवी और दानवी- स्त्रियों का ये दो रूप ही देख पाया है हमारा समाज क्योंकि वह चाहता ही यही है। अपना वर्चस्व बनाए रखने की कितनी बड़ी साजिश है यह! स्त्रियों को यहां पूरा इंसान कभी माना ही नहीं गया। उसे पुरुषों की जरूरतों को पूरा करने वाला, रिप्रोडक्शन का माध्यम समझा गया है। निपुणिका (बाणभट्ट की आत्मकथा) की तरह मैं नहीं मान सकती कि स्त्री होना ही मेरे सारे अनर्थों का मूल है। निपुणिका की इस तकलीफ का कारण भी हमारी यह सड़ी व्यवस्था है। आखिर दुनिया ऐसी क्यों है? प्रोवोक्ड फिल्म का एक दृश्य याद आ रहा है, जिसमें नंदिता दास डॉक्टर से कहती हैं- "यह कैसी दुनिया है जहां औरत को न्याय पाने के लिए पागल होना पड़ता है और पुरुष का सिर्फ गुस्सा होना काफी है।"

पर वास्तव में तो पागल होकर भी स्त्रियों को न्याय नहीं मिलता। यही आज का सच है, जो सही के बिल्कुल विपरीत है। सच और सही के द्वंद्व से मैं लगातार जूझ रही हूं। दिल्ली में हुई यह घटना एकमात्र घटना नहीं है, ऐसी कई घटनाएं रोज हो रही हैं, घर के भीतर भी हो रही हैं। घर के भीतर होने वाली इस तरह की घटनाओं को तो लोगों ने सहज ही मान लिया है। 


बीते दिनों एक अखबार में तो पढ़ा भी कि पति यदि पत्नी का बलात्कार करता है तो उसे महज एक या दो वर्ष सजा होती है, क्यों? 
क्या इसका कोई जवाब है हमारी न्यायपालिका के पास
एक और प्रश्न है ‘मेल इगो’ को इतना बड़ा किसने बनाया? क्या हमारी पितृसत्तात्मक व्यवस्था और परिवार ने नहीं? 
कैसे बचपन से ही हावी होना लड़कों की आदत हो जाती है?
हम स्त्रियां व्यवस्था या फिर इस पितृसत्तात्मक समाज की ‘प्रायरिटी लिस्ट’ में कहां आती हैं?

ऐसे बहुत से प्रश्न हैं, जो मिलकर एक बड़ा सा प्रश्न चिह्न बनाते हैं… यहां बुद्धिजीवी नेतागण प्रमोशन में आरक्षण पर तो बात करते हैं पर स्त्रियों पर, उनकी समस्याओं पर चुप्पी ओढ़ लेते हैं। इससे ही पता चलता है कि हमारी व्यवस्था स्त्रियों को कितना इंसान मानती है!

‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ की बात कर रही है हमारी सरकार। क्या किसी लड़की के साथ रेप हो तो उसे रेपिस्ट से यह कहना चाहिए कि इस केस को ‘रेयरेस्ट ऑफ रेयर’ बनाने के लिए मेरे साथ और भी बुरा करो ताकि मुझे इंसाफ मिलने की थोड़ी सम्भावना भी रहे?? ये सब बहाने हैं चीजों को यथावत बनाए रखने के, अन्याय को शह देने के…

कुछ और सवाल भी हैं, जिन पर सोचे जाने की जरूरत है। ये ‘इज्जत’ क्या शब्द है, जिसकी वजह से बार-बार स्त्रियों को कमजोर किया जाता है, ये शुचिता क्या होती है, ये शील क्या होता है? शुचिता नष्ट हो जाना, शील का हरण हो जाना, इज्जत लूट लिया जाना… आए दिन अखबारों में पढ़ रही हूं। लड़कियां अपने शौक के हिसाब से कपड़े पहने तो लोगों को अश्लीलता नजर आती है, फिर ऐसी भाषा को क्या कहेंगे? मीडिया भी संवेदनशून्य हो चुका है, बाजार उस पर बुरी तरह हावी है। तभी तो देश में ऐसी घटना घटती है, और उसी बीच में एक फिल्म के प्रचार के लिए एक निहायत ही स्त्री विरोधी गीत बजाए जाते हैं। बाजार के प्रभाव को मैं नकार नहीं रही, पर इस बाजार का संवेदनाओं को लील लेना एक भयावह स्थिति है।

इन समस्याओं के समाधान के रूप में हमारी पंगु व्यवस्था और हमारे तथाकथित बौद्धिक समाज के कुछ लोग स्त्रियों पर नियंत्रण करना चाहते हैं। कुछों का कहना है कि शादी की उम्र घटा देनी चाहिए। इन्हीं में से कुछ लोग हैं जो कहते रहे कि उस लड़की को मर जाना चाहिए, अब वो जी कर करेगी भी क्या, कौन उससे शादी करेगा? मैं कुछ कहूं तो लोग याद दिलाने लगते हैं कि मैं अमेरिका में नहीं, भारत में रहती हूं, माने कि भारत हमेशा ऐसा ही रहेगा। आजादी की बात करूं, क्रोध जाहिर करूं तो लोग कहेंगे कि कितनी आजादी चाहिए? इतना चीख रही हो, क्या ये आजादी नहीं है?

एक और बात यह कहना चाहती हूं कि पुरुषों को यदि शादी की इतनी जल्दी है, तो उनकी शादी करा दी जाए। पर इसके लिए स्त्रियों की कम उम्र में शादी क्यों हो? क्या शादी सुरक्षा है? हम शायद भूल गए हैं या मानना नहीं चाहते कि शादी और परिवार के घेरों में भी ऐसे कई घिनौने अपराध होते हैं। मेरी बातें कइयों को अश्लील लग सकती हैं, मेरे मन की बेचैनी, मेरे सवालों को मेरे आचरण की कमी बताया जा सकता है, पर मैं औरों की नजर में सच्चरित्र होने के लिए अपनी बेचैनी को दबा नहीं सकती। और एक बात हम सब जिस समय में जी रहे हैं, उसकी घटनाओं से ज्यादा अश्लील कुछ नहीं हो सकता।

0 comments:

Post a Comment

फेसबुक पर LIKE करें-