- अंजू शर्मा
अंजू शर्मा ने इधर हिन्दी कविता संसार में अपनी ऐसी उपस्थिति दर्ज की है जिसे लगातार रेखांकित किया जा रहा है, एक कार्यकर्ता के रूप में वह 'डायलाग' , लिखावट’ आदि कई संस्थाओं से जुड़कर दिल्ली की साहित्यिक सक्रियता में शामिल हैं जिसकी अनुगूँज अक्सर दूर तक सुनाई दे जाती है, हाल ही में अंजू को 'इला त्रिवेणी सम्मान २०१२' से सम्मानित किया गया है। फर्गुदिया द्वारा आयोजित "अनुगूंज" कार्यक्रम में अंजू शर्मा द्वारा प्रस्तुत कविताएँ .
जूते और विचार----------------------
कभी कभी
जूते छोटे हो जाते हैं
या कहिये कि पांव बड़े हो जाते हैं,
छोटे जूतों में कसमसाते पाँव
दिमाग से बाहर आने को आमादा विचारों
जैसे होते हैं,
दोनों को ही बांधे रखना
मुश्किल और गैर-वाजिब है,
ये द्वन्द थम जाता है जब
खलबली मचाते विचार ढूँढ़ते हैं एक
माकूल शक्ल
और शांत हो जाते हैं,
वहीँ पाँव पा जाते हैं एक नया जूता.......
(2)
जूते और आदमी
कहते हैं आदमी की पहचान
जूते से होती है
आवश्यकता से अधिक
घिसे जाने पर स्वाभाविक है
दोनों के ही मुंह का खुल जाना,
बेहद जरूरी है
आदमी का आदमी बने रहना,
जैसे जरूरी है जूतों का पांवों में बने रहना,
जूते और आदमी दोनों ही
एक खास मुकाम पर भूल जाते हैं याददाश्त
आगे के चरण में
आदमी बन जाता है मुन्तज़र अल जैदी,
और जूते भूल जाते हैं पांव और हाथ का
बुनियादी फर्क..........
हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज
----------------------------------------
सोचती हूँ मुक्ति पा ही लूँ
अपने नाम के पीछे लगे इन दो अक्षरों से
जिनका अक्सर स्वागत किया जाता है
माथे पर पड़ी कुछ आड़ी रेखाओं से
जड़ों से उखड़ कर
अलग अलग दिशाओं में
गए मेरे पूर्वज
तिनके तिनके जमा कर
घोंसला ज़माने की जुगत में
कभी नहीं ढो पाए मनु की समझदारी
मेरी रगों में दौड़ता उनका लहू
नहीं बना मेरे लिए
पश्चाताप का कारण
जन्मना तिलक के वाहक
त्रिशंकु से लटकते रहे वर्णों के मध्य
समय समय पर
तराजू और तलवार को थामते
वे अक्सर बदलते रहे
ब्रह्मा के अस्पर्श्य पाँव में
सदा मनु की विरासत नकारते हुए
वे नहीं तय कर पाए
जन्म और कर्म के बीच की दूरी का
अवांछित सफ़र
कर्म से कबीर और रैदास बने
मेरे परिजनों के लिए
क्षीण होती तिलक की लालिमा या
फीके पड़ते जनेऊ का रंग
नहीं छू पाए चिंता के वाजिब स्तर को
हाशिये पर गए जनेऊ और शिखा
नहीं कर पाए कभी
दो जून की रोजी का प्रबंध,
क्योंकि वर्णों की चक्की से
नहीं निकलता है
जून भर अनाज
निकलती है तो
केवल लानतें
शर्म से झुके सर
बेवजह हताशा और
अवसाद
बोझ बनते प्रतीक चिन्हों को
नकारते और
अनकिये कृत्यों का परिणाम भोगते
केवल और केवल कर्मों पर आधारित
उनके कल और आज ने
सदा ही प्रतिध्वनित किया
हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज ....
एक स्त्री आज जाग गयी है
------------------------------
(1)
रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी,
डूबी थी सारी दिशाएं आर्तनाद में,
चक्कर लगा रही थी सब उलटबांसियां,
चिंता में होने लगी थी तानाशाहों की बैठकें,
बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप,
घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू,
एक स्त्री आज जाग गयी है.............
(2)
कोने में सर जोड़े खड़े थे
साम-दाम-दंड-भेद,
ऊँची उठने को आतुर थी हर दीवार
ज़र्द होते सूखे पत्तों सी कांपने लगी रूढ़ियाँ,
सुगबुगाहटें बदलने लगीं साजिशों में
क्योंकि वह सहेजना चाहती है थोडा सा प्रेम
खुद के लिए,
सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी,
कितना अनुचित है ना,
एक स्त्री आज जाग गयी है......
(3)
घूंघट से कलम तक के सफ़र पर निकली
चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती
पाप और पुण्य की नयी परिभाषा की तलाश में
घूम आती है उस बंजारन की तरह
जिसे हर कबीला पराया लगता है,
तथाकथित अतिक्रमणों की भाषा सीखती वह
आजमा लेना चाहती है सारे पराक्रम
एक स्त्री आज जाग गयी है.............
(4)
आंचल से लिपटे शिशु से लेकर
लैपटॉप तक को साधती औरत के संग,
जी उठती है कायनात
अपनी समस्त संभावनाओं के साथ,
बेड़ियों का आकर्षण,
बन्धनों का प्रलोभन
बदलते हुए मान्यताओं के घर्षण में
बहा ले जाता है अपनी धार में न जाने
कितनी ही शताब्दियाँ,
तब उभर आते हैं कितने ही नए मानचित्र
संसार के पटल पर,
एक स्त्री आज जाग गयी है.............
(5)
खुली आँखों से देखते हुए अतीत को
मुक्त कर देना चाहती है मिथकों की कैद से
सभी दिव्य व्यक्तित्वों को,
जो जबरन ही कैद कर लिए गए
सौपते हुए जाने कितनी ही अनामंत्रित
अग्निपरीक्षाएं,
हल्का हो जाना चाहती हैं छिटककर
वे सभी पाश
जो सदियों से लपेट कर रखे गए थे
उसके इर्द-गिर्द
अलंकरणों के मानिंद
एक स्त्री आज जाग गयी है...........
अंजू की कविताएँ इधर लगातार प्रौढ़ हुई हैं। जूते सिरीज़ पसंद आई। बहुत शुभकामनाएँ अंजू आपको .
ReplyDeleteजूतों में छुपे विचारों का द्वंद, नाम के पीछे शब्दों की तड़फ, स्त्री की परिभाषा सभी उम्दा.
ReplyDelete'जूते और विचार', 'हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज' और 'एक स्त्री जाग गयी है', तीनों ही कविताएं एक सजग और संवेदनशील स्त्री के संकल्प को अपने समग्र ऐतिहासिक और सांस्कृतिक बोध के साथ व्यक्त करती हैं। इन कविताओं में अपने समय की चिन्ताएं और मानवीय समझ की गहरी व्यंजनाएं हैं, जो इनके संवेदनात्मक असर को और गहरा करती हैं। बधाई।
ReplyDeleteसभी रचनायें गहन व संवेदनशील ……बधाई अंजू
ReplyDelete