Friday, September 28, 2012

दुष्यन्त- प्रेम का अन्य


भारत-पाक सीमा पर बसे केसरीसिंहपुर कस्बे में (श्रीगंगानगर जिले में ) 13 मई 1977 को जन्मे दुष्यन्त इतिहास में बीए ऑनर्स, एमए, यूजीसी- नेट, जेआरएफ, पीएच.डी. हैं। अपनी बुनियादी बुनावट में वे लेखक हैं तो इतिहास लिखना भी प्रिय है और कहानियां, कविताएं भी। कुछ साल पढाया भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद् (दिल्ली) के फैलो रहे, पिछले कुछ सालों से पेशे से लेखक और पत्रकार हैं। फिल्म एवं टीवी इंस्टीटयूट ऑफ इंडिया (FTII, Pune) में कुछ समय सिनेमा की तमीज सीखने की कोशिश की ।

हिंदी की श्रेष्ठ पत्रिकाओं- नया ज्ञानोदय, वागर्थ, कथादेश, परिकथा, पाखी, बया, वसुधा आदि में कहानियां, कविताएं और अनुवाद लगातार प्रकाशित और चर्चित हुए हैं। 
कृत्या के इंटरनेशनल कविता उत्सव (International Poetry Festival -मैसूर, 2010 और नागपुर,2011) में आमंत्रित, उनकी अनेक रचनाओं का अनुवाद कई भारतीय और विदेशी भाषाओं में हुआ है। 
दो कविता संग्रह-उठै है रेतराग (2005) और प्रेम का अन्य (2011) और एक रूसी कविताओं के अनुवाद की पुस्तक-भोर अजैं मेपल बिरछ रै हाथां (2011) उनके नाम दर्ज है, इसके अलावा दर्जन भर यूरोपीय और लेटिन अमेरिकन कवियों की कविताओं का भी हिंदी अनुवाद किया है।
2011 में उन्हें कविता लेखन के लिए दुनिया के सबसे बडे ऑनलाइन संग्रह कविताकोश की ओर से पहला कविताकोश सम्मान दिया गया था,  इसी साल (2012) उन्हें कला और लेखन में योगदान के लिए पं. गोकुलचंद राव सम्मान भी दिया गया है। उनके पहले कविता संग्रह ''उठै है रेतराग'' को 2012 के लिए राजस्थानी अकादमी से प्रतिष्ठित सावर दइया अवॉर्ड मिला। 
नॉन-फिक्शन में इतिहास की किताब 'स्त्रियां : पर्दे से प्रजातंत्र तक' राजकमल प्रकाशन, दिल्ली से इसी साल (2012) आई है।
पहला कहानी संग्रह प्रतिष्ठित एवं इंटरनेशनल प्रकाशक पेंगुइन से अगले साल आ रहा है |

दुष्यन्त इन दिनों अपने पहले उपन्यास को अंतिम रूप दे रहे हैं और राजकमल प्रकाशन, दिल्ली के लिए कस्तूरबा गांधी की जीवनी लिख रहे हैं।  फरगुदिया की शुभकामनाएँ हमेशा उनके साथ हैं ।
आगे ...."प्रेम का अन्य" से कुछ रचनाएँ ... आपके लिये  । 






 









माउण्‍ट आबू से प्रेम कविताएं

__________________________


1-

एक अकेली दोपहर

स्मृति तुम्हारी

पहाड़ के निचले हिस्से में

उस पल पहाड़ से ऊंची हो जाती है

जैसे तुम्हारा गुस्सा पहाड़ होता था कभी

मेरी प्रिया
!
2-
पहाड़ की ओट में भी तुम्हारी स्मृति

साथ मेरे

पहाड़ सी उतिष्ठ और दृढ़

सचमुच तुम्हारे प्रेम सी… मेरी प्रिया!

3-
ए ऊंचे परबत सुन तो ! 

मैदान में जा

पुकार मेरी पहुंचा

हृदय मेरा फूट रहा है

तेरे सोते सा उसकी स्मृति में

एक पहाड़ सी

परेशान होती मेरी प्रिया के लिए !

सुनो मेरी प्रिया!



Monday, September 24, 2012

शैलजा पाठक की जीवंत कवितायेँ

शैलजा कहती है “कवितायेँ मेरे मन के ख़ामोश वक्त का आइना हैं / जो शायद मैं बोल ना सकूँ वो कवितायेँ बोलती हैं/ महानगर में अपने मन को बाहरी आडंबर से बचाये रखा / सो कवितायेँ भी बची हुई हैं / लिखती और गाती हूँ दोनों अपने ही तरीके से


शैलजा पाठक  एम.ए (हिन्दी) मूलतः बनारस से हैं और मुंबई में जीवन यापन कर रही है 





शैलजा पाठक की जीवंत कवितायेँ 

एक दर्द भरा हसीन नयापन है उनके लेखन और इस नयेपन में इतनी शक्ति है कि पढ़ने वाला उनकी लिखी दुनिया में पहुँच जाता है और उनके साथ रुक कर देख और समझ लेता है उस दुनिया को, शायद पाठक को उसका अपना संसार दिखा देती हैं शैलजा की सीधी सरल कविताएँ .




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░१░░░░░

सौ बार बोला था
तुम्हे
की कह भी दो 
जो मन में है 
तुम रेत पर लिखती रही 

तुम नही बोली 
तुम्हे जब बोलना था 
आज मैं बैठा हुआ हूं 
उस जगह पर 

मौसमों की मार सह कर 
पानियों के साथ बहकर 
कुछ थके से शब्द 
औंधे मुह गिरे थे 

हाथ से उनको उठाकर 
भिचकर सिने से अपने 
सुन रहा था 
वो बयां करते रहे 
जान जो पाया नही था 

बावला सा दौड़ पड़ता हूं 
तुम्हारी ओर मैं 
हाथ में अपने सहेजे 
प्यार तेरा जो पड़ा था 
रेत पर इतने बरस से 





प्यार के कुछ रंग 
░░░░░२░░░░░




पता है कितना खुश हूँ ?
कितना ??
सच बहुत 
कभी नही लगा 
ऐसा जैसे लग रहा है 
अभी 

हम्म अच्छा है ना 

हाँ अचानक मन के 
सूने दरवाजे पर 
खूबसूरत कविता 
देने लगी है दस्तक 

घर की दीवारों का रंग 
इतना भी बुरा नही लगता 
शाम की उदासी को भी 
नही पीता 
घूंट घूंट 

पड़ोस से आने वाली 
आवाजों पर 
मुस्कुरा 
भर देता हूँ 

पुराने रखे कपड़ों को 
नए अंदाज से पहनता हूँ 
आईने में कमाल का 
साफ़ धुला लगता है चेहरा 

पुराने गानों की धुन पर 
जिंदगी को 
नई परिभाषा के साथ 
सुन रहा हूँ 

तुम्हारा होना 
...बादल है 
...धूप है
...गीत है 
...संगीत है 
मैं 
इनकी तरंगों पर सवार 
अपने जीवन की 
सभी अनछुई दिशाओं में 
बह रहा हूँ ....

हमेशा साथ रहोगी ना ????




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░३░░░░░




मुझे जब आती है 
तुम्हारी याद 

मैं सब भूल जाती हूँ 

पुरानी तस्वीरों से 
निकालती हूँ तुम्हें 

पिछली डायरी में 
सुरक्षित हैं कुछ 
मरते से अहसास 
उनके पन्ने खोलती हूँ 
और अक्षर अक्षर 
बोलती हूँ 

एक चूड़ी है लोहे की 
जो पहनाई थी तुमने 
मुस्कुरा कर कहा था 
सोने की भी लाऊंगा एक दिन 

आज सोने की चूडियों में 
सबसे कीमती यही है 
मैं पहनती हूँ इसे 
पुरानें दिनों को याद करते हुए 
ये सोने से ज्यादा चमकती हैं 

वो लाल बिंदी याद है 
जो गली के मोड़ से 
खरीदी थी तुमने 
पता नही 
क्या सोच के दी थी 
कभी लगाने को क्यों नही कहा था ??

मैं अपने सारे काम खत्म कर के 
तुम्हारी यादों के साथ 
बातें करती रहती हूँ 
कई बार तो जवाब में 
बोल पड़ते हों तुम 
मन के किसी कोने से 

मैं आँखें बंद किये 
सुनती हूँ तुम्हारी आवाज 
जो लगातार 
एक बेहद लंबे रास्ते पर 
चलती हुई 
दूर हों रही है मुझसे 

तुम अगले मोड़ से मुड़ गए हो .......




प्यार के कुछ रंग 
░░░░░४░░░░░


सड़क के 
उस रिक्शा स्टैंड पर 
देखना तुम्हें 
पहली बार 
भीड़ को ओझल मान 
तुम्हें गले लगाना 

तुम्हारे हाथ को 
मजबूती से थामना 
तुम्हारी आँखों में पढ़ना 
दूर होने की टीस

जल्दी से 
एक कागज़ का 
आदान प्रदान 
जिसमे दोनों ने लिखा है 
एक ही शब्द 
प्यार 

एक जरा सी देर में 
बीते बरसों की 
कहानियां 
जल्दी जल्दी बताना 

पहाड़ी को देख 
गुनगुनाना 
एक पुरानी गज़ल 

हाथ में सकुचाते से देना 
वो जूट का छोटा सा पर्स 
छीन कर लेना तुमसे वो १० रुपया 

तुम्हारा जाना 
हाथ को जोर से भीचना 
रिक्शे में 
तुम ले कर फिर चले गए 
मेरा प्यार 
इंतजार 
मेरा गीत 
मेरी खुशी 

भींगती बारिश में 
मैंने बचा लिया वो कागज 
बचा लिया प्यार ......



प्यार के कुछ रंग 
░░░░░५░░░░░



मुझे कुछ नही चाहिए तुमसे 

बस कभी रो दूँ तो 
तुम्हारा रुमाल 

परेशां रहूँ तो 
तुम्हारा ख्याल 

कहना हों बहुत कुछ 
तो वक्त जरा सा 

थक जाऊ तो 
तुम्हारी बाहों का सहारा 

दूर जाते हुए 
बस आँखों का इशारा 
कि मैं साथ हूँ ना 

मेरी खामोश होती 
दुनियां को अर्थ दो 

मैंने समेटी है 
तुम्हारी दुनिया 

बस तुम भी मेरे 
मन को जान लो 

ज्यादा ना सही 
जरा सा ही 
मुझे भी पहचान दो ......





जिंदगी की आवाज़ें 
-१-

रात के अँधेरे में
गाँव के पीछे रस्ते पर
दरिंदों की 
गाड़ी रुकती है
परिंदे 
बेचे जाते हैं
माँ बाप की मुट्ठी में
कुछ गरम सी
रकम है
बरफ सा ठंडा
पड़ रहा है कलेजा
घुर घुराती सी चल
पड़ती है गाड़ी
मासूमों के रुदन से 
चीत्कार उठती है
गरीबी बेबसी लाचारी
परिंदे फड़फड़ा रहे है
नुचे पंख सी आहें उनकी 
फैली पड़ी है रास्तों पर ….
गरीबी और भूख इंसान का दिमाग निचोड़कर रख देती है ..सोचने समझने की शक्ति ऐसी ख़त्म होती है कि वो अपने शरीर का हिस्से को भी दांव पर लगा देता है .. अभिशप्त जीवन जीने को मजबूर है गरीब है या दोनों ही इंसान हैं .... एक भूख  और गरीबी से मजबूर और लाचार है ... दूसरा उसकी बेबसी का फायदा उठाकर आबाद है ... जिस तरह शैलजा ने गरीबी और लाचारी को कविता के माध्यम से व्यक्त किया है .. उसे पढ़कर अंतरात्मा काँप उठती है .. लिखने वाले ने अंतस से महसूस किया .. तभी ऐसा लिख सका )


जिंदगी की आवाज़ें 
-२-

वो अपनी दोनों मुट्ठियाँ
एक जादूगर की तरह
हवा में लहराता
और कहता
एक चुन ले
मैं चुन लेती
कभी पास फे़ल का निर्णय
कभी खेलने पढ़ने का
कभी गद्दे तकिये का
ऐसे तमाम उलझन
झट से सुलझ जाते
वो बता देता जैसा उसे बताना होता
मैं मान जाती
एक दिन वापस बिना बात ही
उसने अपनी बंद मुट्ठियाँ
हवा में लहराई
मुझे चुन लेने को कहा
मैंने पूछा क्या है इनमें ?
उसने कहा किस्मत
मैंने पूछा बस इतनी सी?
उसने कहा
हाँ हाँ ..मेरी भी तो इतनी ही
मैंने चुन ली एक मुट्ठी
वो मुस्करा पड़ा
और चिढाने लगा
मेरी तो मेरे पास ही है
अब तेरी भी 
मेरे पास ……
मेरी मुट्ठी में ………



जिंदगी की आवाज़ें 
-३-

हाथ में पूरे दिन की
कमाई मसलती है
कलेजा कसमसाता है
आँख भर भर ढरकाती है
पर नही खरीद पाती
जिदिद्याये बच्चे की खातिर
वो लाल पिली गाड़ी
जिसे रोज 
शीशे के पार
देखकर बिसूरता है वो 
देर तक
जबसे देखी है वो गाड़ी
बच्चे के सपने के साथ
उसके सपनों में भी
आती है सीटियों की आवाज
अगले दिन 
फिर खड़ी हों जायेगी 
घड़ी भर को
दुकान के इस पार
फिर मसलेगी पैसे
कसमसायेगी
बच्चा 
इंच भर की दूरी पर पड़ी 
गाड़ी को निहारेगा
और रख देगा 
अपनी नन्हीं हथेलियाँ 
उसके उपर
अपने हाथो में फोटो सी उतार लाएगा
खूब भागेगी गाड़ी सपने में
आएगी सीटियों की आवाज
बच्चा हथेलियों को
आँख पर रखकर
सो जायेगा …….




जिंदगी की आवाज़ें 
-४-


कान्हां ,
नींद से जागने पर
तुम्हारे कितने नखरे
यशोदा उठाती थी
दुलारती थी पुचकारती थी
पर हम… 
समय की लात खा कर
आँखें मिचमिचाये
जाते हैं काम पर
खोजते है 
कचरे के ढेर पर जिंदगी
पर वापस कभी घर नही आते कन्हैया ..
रास्तों पर छोड़ दिए गए हैं हम 
गाड़ियों के पीछे जीने 
और
मरने का संघर्ष करते हैं
बंदी हैं एक ऐसी जेल के
जहाँ का कानून 
कभी हमे
जिंदगी नही देता
तुम्हारे जन्म लेने पर क्या कहें
मत आओ धरती पर
बदल गया है रूप रंग
कंस की संख्या भी बढ़ रही है
और जो जन्मों कान्हां
तो हमारा भी जन्म करा दो
हमे यशोदा से मिला दो
गोकुल में करने दो मौज मस्ती
दूध दही की चोरी करवाओ
या की मिट्टी हुई दुनिया को
एक मुट्ठी में उठाओ 
मुँह में धरो
उद्धार करो ……..


जिंदगी की आवाज़ें 
-५-

सूखे पत्तों पर खड़खड़ाती है
तुम्हारी
आहट
तुम पास
आ रहे हों पेड़ को ठूंठ करने ……..



जिंदगी की आवाज़ें 
-६-


मैं मिलूंगी तुमसे
समय के उस हिस्से में
जब सांसे खोजती है
अपना एकांत मन खंघालता है
अपनी उलझनें
और सोच की स्याही
सफ़ेद पड़ जाती है
लिखने से पहले
मिलने पर कुछ नही होता
मुझे पता है
कहने सुनने से परे हम 
साथ होने के
यकीन को निहारते हैं
कुछ लम्हों के लिए
और बिछड़ने की
रस्में आँखें निभाती हैं 
सांसें दुरूह चलती हैं
हाथ जड़ हों जाते हैं
और हमारी 
अलग अलग जिन्दगियां 
हमे घसिटती हैं
अपनी अपनी तरफ
और हमारे बीच का शून्य
अपलक निहारता है
बीच की दूरी को
मिलने पर बिछड़ जाते हैं
हम बार बार ……..




जिंदगी की आवाज़ें 

-७-

मैं साथ हूं उसके
मुझे होना ही चाहिए
ये तय किया 
सबने मिलकर 
मैंने सहा 
जो मुझे नही लगा भला 
कभी
पर उसका हक था
मैं हासिल थी 
रातों की देह पर
परतों को उधेड़ती
उजालों की नज्म
को अपने अंदर
बेसुरा होते सुनती
इरादों से वो भी किया
उसके लिजलिजे इरादों
की बली चढ़ी
व्रत उपवास करती हैं
सुहागिने मैंने भी किया
थोपने को रिवाज बना लिया
जो ना करवाना था
वो भी करवा लिया
पाप पुण्य के
चक्र में ..
इस जनम उस जनम
के खौफ ने
मैंने बेंच दिया अपना होना
तुमने खरीद लिया …….










Friday, September 14, 2012

कहानी - बिगड़ैल बच्चे - मनीषा कुलश्रेष्ठ

bharat tiwari Manisha Kulshreshtha shobha mishra hindi kahani
जैसा कि हाल ही में मुझे विदित हुआ है और मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि इस कहानी को मॉस्को विश्वविद्यालय में बी.ए. अंतिम वर्ष के छात्र पढ रहे हैंयह मेरी शुरुआती कहानी है, 2004 में वागर्थ नवलेखन विशेषांक में छ्पी थी और हिन्दी साहित्य में मेरे नाम की सुगबुगाहट शुरू कराने में इस कहानी का नाम भी शामिल है "बिगड़ैल बच्चे "मेरे युवा पाठकों की प्रिय कहानी है. हमेशा इस कहानी को सुनने की माँग करते रहते हैं. आज इसे फरगुदिया में प्रकशित होता देख प्रसन्नता हो रही है ...  मनीषा  कुलश्रेष्ठ 14.9.2012 , नई दिल्ली 



bharat tiwari Manisha Kulshreshtha shobha mishra hindi kahaniवे तीन युवा पिंक सिटी ट्रेन से सुबह-सुबह छ: बजे मेरे बाद चढ़े थे। रेल के इस सबसे पीछे वाले, सुनसान पड़े डिब्बे की मानों रुकी हुई सांसें एकाएक चल पड़ी हों... तेज़ स्वर में बातचीत, छेड़छाड़ करते हुए तीनों सामान स्वयं लादे, विदेशी पर्यटकों की नकल में ये पर्यटक साफ-साफ देसी नज़र आ रहे थे। बात-बात में... फकिन... फकअप... फकऑल...! मुझे बहुत नागवार गुज़र रहा था। 

आते ही धम्म से उन्होंने सारा सामान सामने की सीट पर पटक दिया था। एक खुल्लम-खुल्ला सी, मध्यवर्गीय मगर आधुनिक किस्म की लापरवाही उनकी हर बात से झलक रही थी, चाहे वह बातचीत का लहजा, सामान फेंकने का ढंग, चाल-ढाल या कि बाल हों, चप्पलें हों, चाहे बिना मोजों वाले जूते हों या... फेडेड जीन्स हो। वे जो कर रहे थे उनकी नज़र में फैशन था, आधुनिकता थी। इस आधुनिकता में उनका मध्यवर्गीय अभाव कुछ ढंक रहा था तो कुछ उघड़ रहा था। 

पिंक सिटी दिल्ली के सरायरोहिल्ला स्टेशन से सीधे छ: बजे चलती है और दोपहर तीन बजे जयपुर पहुंचती है, सो सुबह साढ़े पांच बजे ही मुझे मेरा बेटा ट्रेन में बिठाकर, सामान व्यवस्थित कर, एक कप एस्प्रेसो कॉफी सामने के स्टाल से लाकर मुझे पकड़ाकर चला गया था। 


पहले से बैठा... बल्कि खाली बैठा भारतीय यात्री... उस पर महिला यात्री... और फिर मेरे जैसा कल्पनाशील यात्री, हर नये चढ़ने वाले यात्री के वेशभूषा, शक्ल, बातचीत के लहजे, नामों के चलन के अनुसार उसका प्रदेश-परिवेश भांपने का प्रयास करता है, यकीन मानिए बस वैसा ही कुछ मैं भी कर रही थी। अजीब किस्म का शौक है ना... दूसरों के मामले में नाक घुसाने का नितान्त भारतीय शौक! 

निश्चित रूप से तीनों गोआ के निवासी लग रहे थे, केवल शक्लो-सूरत से ही मैंने यह निश्र्चय नहीं किया था... क्योंकि लड़की ने जो टी-शर्ट पहनी थी उस पर सामने ही लिखा था, `माय गोआ, द हैवन ऑन द अर्थ।' गले में काले धागे में चांदी का बड़ा-सा क्रॉस लटका हुआ था। यही नहीं वे कभी अंग्रेजी में और कभी कोंकणी भाषा में बात कर रहे थे। अपना गिटार, कैमरा, वॉकमैन के अलावा तीन पुराने से बैग, ढेर सारे चिप्स और कोल्ड ड्रिंक की बॉटल्स और कुछ पत्रिकाएं लेकर वे तीनों चढ़े थे... और अब वे मेरे एक दम सामने वाली सीटों पर अस्त-व्यस्त से जम गये। एक लड़की तो थी ही, बाकी दो लड़के थे। एक छोटा, एक बड़ा। 

तीनों उत्तर भारत के टूरिस्ट मैप पर सर से सर जोड़कर नज़र गड़ाकर कुछ कार्यक्रम बना रहे थे... कोंकणी में। लापरवाही से उनका कैमरा सीट के कोने में रखा था, मैं मन ही मन कुनमुनायी लगता है इन्हें उत्तर भारत... खासतौर पर दिल्ली के जेबकतरों-उठाईगीरों का कोई अनुभव ही नहीं है या कभी कुछ सुना भी नहीं। मैंने सोचा आगाह करूं... पर मेरी तरफ डाली गयी उनकी उदासीन दृष्टि अब तक मुझे चिढ़ा गई थी सो मैंने सोचा, “हंह मुझे ही क्या पड़ी है!' 

मैप देखने के बाद तीनों अपनी-अपनी जगह पर खिसक गये। बैग ऊपर वाली बर्थ पर लापरवाही से फेंक दिये गये थे। गिटार बड़े वाले लड़के ने अपने पास गोद में बहुत प्यार से रख लिया, जैसे कोई पालतू जानवर हो। वॉकमैन छोटे से ने कान पर लगा लिया, खाने-पीने का सामान लड़की ने अपने पास के बैग में डाल लिया था। 

लड़की सांवली होने के बावजूद आकर्षक थी। दरम्याने कद की, पतली और प्यारी सी। हां बाल बेढंगे से थे... घुंघराले काले कालों में, कत्थई और सुनहरे रंग की कई लटें रंगा रखी थीं। ऐसा लग रहा था कि सफेद बालों को घर पर मेंहदी लगाकर छुपाने की कोशिश हो। मुझे अपने कॉलेज की मिसेज बतरा याद आ गईं, वो अपने खिचड़ी बालों में मेंहदी लगाकर ऐसी ही लगा करती थी, पर यह फैशन है आजकल का, बेढंगा फैशन! मेरे अन्दर की प्रौढ़ होती महिला किचकिचाई! 

लड़कों में से छोटा लड़का चेहरे-मोहरे से उसका भाई लग रहा था, (हां भई... उसकी नाक और होंठों की बनावट बिलकुल लड़की जैसी ही थी... वह लड़की ज़रा लुनाई लिये हुए सांवली थी और यह बिलकुल काला) वही... जिसने कानों में अब वॉकमैन के इयर प्लग लगा रखे थे और पैर हिलाते हुए गुनगुनाता जा रहा था...। कभी-कभी वह आस-पास के वातावरण से बेखबर ज़रा ऊंची आवाज़ में गाने लगता था... तब लड़की उसे कोहनी मार देती थी। 

बड़े लड़के के हाथ गिटार के तारों को हल्के-हल्के सहला रहे थे, वह कोई अंग्रेजी गीत गुनगुना रहा था और मीठी नज़रों से लड़की को देख रहा था, लड़की ने मुस्कुराकर नज़रें खिड़की के बाहर दौड़ा दीं। स्टेशन पर चहल-पहल बढ़ गई थी। जिस खिड़की के पास वह लड़की बैठी थी... वहां दो-चार सड़क छाप मनचले मंडराने लगे थे। ठेठ सड़कछाप हिन्दी के कुछ गन्दे फिकरे कसे गये जो लड़की को समझ नहीं आये पर वह लड़की होने की छठी इन्द्री से समझ गई कि उसके कपड़ों पर कुछ कहा गया है। 

उसने आधी खुली पीठ वाला, छोटा सा, बड़े गले का नाभिदर्शना टॉप पहना हुआ था। नाभि में चांदी की बाली पहनी हुई थी। बड़ा लड़का उसका असमंजस तुरन्त समझ गया, आवेश की हल्की परछाईं उसके चेहरे पर आई। उसने उसे बैग में से निकालकर एक लम्बी बांह की शर्ट पकड़ा दी थी। फिर छोटे लड़के को खिसकाकर खिड़की के पास बिठा दिया था। लड़की को बीच में बिठाकर वह उसके एकदम करीब उसके कंधों पर अपनी बांह का सहारा देकर बैठ गया। लड़की ने लापरवाही से उसकी दी हुई शर्ट को पहन लिया था, लेकिन बिना बटन लगाये। 

अब तक ट्रेन ने सीटी दे दी थी। जिन्हें इस ट्रेन में चढ़ना था... चढ़ गये थे और अपनी-अपनी जगह खोजने लगे थे। यह एक सेकेण्ड क्लास का डब्बा था। मेरे बगल में एक अधेड़ सज्जन आ बैठे थे... और उनकी पत्नी भी। छोटा लड़का अब एकदम मेरे सामने था... उसने हरा बरमूडा और फूलों की छींट वाली पीली शर्ट पहन रखी थी। सामने के कुछ खड़े बाल सुनहरे होने की हद तक ब्लीच किये हुए थे। ट्रेन चलते ही इस छोटे लड़के ने वॉकमैन की आवाज़ बढ़ा दी थी। इतनी कि मैं तक सुन पा रही थी। एक घना शोर और बीच-बीच में किसी पॉप गायिका की आवाज़। एक मिनट बाद जब मुझसे शोर सहन नहीं हुआ तो मैंने उसके पास थोड़ा झुककर पूछ ही लिया, `मैडोना है ना!' मैंने सोचा वह बात में छिपे व्यंग्य को समझेगा और आवाज़ धीमी कर देगा। 

`हह...।' उसने कहा। 


Tuesday, September 11, 2012

श्री अशोक वाजपेयी ('मशाल' आयोजन इण्डिया गेट पर)


:  श्री अशोक वाजपेयी जी 

इण्डिया गेट पर 'मशाल' आयोजन में श्री अशोक वाजपेयी जी ने स्त्री हित में अपनी बात रखते हुए कहा “जब तक समाज नहीं बदलता तब तक सरकार, पुलिस और संस्थाएं भी नहीं बदलती हैं 

अपने परिवार का उदहारण देते हुए अशोक जी ने कहा “हमारा संयुक्त परिवार है, हमारी बहने और मेरी पत्नी तय करतीं हैं कि हमारे परिवार में क्या कैसे होगा,मेरे बेटों ने जब शादी की बात सोची तो अपनी बहनों और बुआओं के पास गया, जब बेटी ने अपनी शादी के बारे में सोचा तो वो भी अपनी बुआओं के पास गयी जब उन्होंने कहा कि हाँ सब ठीक है  उनकी सहमती, संतुष्टि और ख़ुशी से ही सब तय होता है 



अपने इस प्रभावशाली वक्तव्य के बाद उन्होंने अपनी पुत्री के लिये लिखी कविता “तोतों से बची पृथ्वी“ का पाठ भी किया 

bharat tiwari भरत तिवारी shobha mishra shajar shayar kavi lekhak hindi urdu delhi yuva young शोभा मिश्रा , शजर, शायर, कवि, लेखक, हिन्दी, उर्दू, दिल्ली, युवा

अशोक वाजपेयी
(पूर्व भारतीय प्रशासनिक सेवा अधिकारी)

साहित्यकार, कवि, आलोचक

साहित्य अकादमी से पुरुस्कृत 

पूर्व अध्यक्ष ललित कला अकादमी
तोतों से बची पृथ्वी
तोतों के रास्ते पर पड़ता है हमारा घर
जिस रास्ते वे जंगल जाते 
और वहाँ से लौटतें हैं
उस रास्ते पर । 


अनगिनत तोतों की हरी लकीरें
आती-जाती हैं हमारे ऊपर के आकाश में
और उनमें से कुछ 
हमारे पेड़ों पर भी ठहरतें हैं । 
हम शहर में रहतें हैं,
पता नहीं किस जंगल से किस जंगल को,
किस बसेरे से कहाँ काम को 
तोते रोज़ जातें हैं –

कई बार मैं और मेरी बेटी
ये खेल खेलतें हैं शर्त लगाने का कि 
तोतों का कौन-सा दल
हमारे पेड़ों पर ठहरेगा या नहीं ठहरेगा । 

तोते हमें नहीं देखते
क्योकि उनकी नज़रें हमेशा ही
पेड़ों और उन पर लगे फलों पर होती हैं । 
तोते 
एक हरा आकाश बनकर 
छा जातें हैं पृथ्वी पर । 
तोते छोड़ देतें हैं 
अधखाये फल की तरह पृथ्वी को । 

मेरी बेटी 
भाग-भागकर उड़ाती है तोतों को,
बचाती है फलों को,
पृथ्वी को । 

आकाश में, अँधेरे में,
दूरियों में अदृश्य हो जातें हैं तोते । 

हरीतिमा से चमकती 
खड़ी रहती है मेरी बेटी
पृथ्वी को सहेजकर दुलराते हुए । 
अशोक वाजपेयी, शोभा मिश्रा, भरत तिवारी, फरगुदिया
bharat tiwari भरत तिवारी shobha mishra shajar shayar kavi lekhak hindi urdu delhi yuva young शोभा मिश्रा , शजर, शायर, कवि, लेखक, हिन्दी, उर्दू, दिल्ली, युवा

फेसबुक पर LIKE करें-