Sunday, May 10, 2015

माँ की दुनिया की कहानियाँ- संतोष दीक्षित



माँ की दुनिया की कहानियाँ

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एक: पहला चाँटा
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चार वर्ष का होने तक मैं माँ का दूध पीता रहा था। जैसी कि उन दिनों घर की हालत थी, माँ भी ठीक वैसी ही थी। यानी कि दुबली पतली और पीली सी। पेट भर अनाज भी नसीब नहीं होता था उसे हर दिन। दूध, मलाई की जगह दूध वाली चाय पी लेती थी सुबह शाम, सबके साथ। फिर भी माँ हमेशा हँसती रहती। ‘‘अरे मेरे लाल ऽ... मेरा बच्चा ऽऽ ...’’ कहकर सदैव पुचकारती रहती। मेरे ज्यादा रोने या जिद करने पर पाँच मिनट सुस्ताने के नाम पर बाहर बारामदे में बैठ जाती और मुझे छाती से चिपका लेती। तीन चार मिनट बीतते न बीतते माँ की छातियों से दूध रिसना बन्द हो जाता। लेकिन मैं भी इतना सीधा सादा और संतोषी था कि दुबारा दूध रिसने के इन्तजार में माँ के स्तन से ही खेलने लगता। तभी तो माँ ने बहुत सोच विचारकर ‘धीरज’ नाम रखा था मेरा।
मैं माँ के स्तन पर मुँह से बुदबुदाती ध्वनि निकालते हुए ऊंगलियों से बना स्कूटर दौड़ता तो कभी मोटरकार। हवाई जहाज तक उड़ाने और उतारने का मजा ले लेता मैं यूंही खेलते हुए। माँ को फुर्सत में बैठी देख अबतक दो एक पड़ोसिनें बारामदे में जम ही जातीं। तब तो मेरी चाँदी हो जाती। इधर मैं अपने खेल की विधिवता में निमग्न हो जाता उधर माँ बतकही और निन्दा रस मंे आकंठ डूब जाती। कुछ धूल उड़ती रहती, कुछ कारवां बढ़ता रहता।
लेकिन बीच-बीच में मुझे ऐसा लगता जैसे माँ थोड़ी असहज हो जाती हो। उसकी आरामदायक स्थिति में थोड़ा विध्न पड़ता और तब वह मुझे झकझोरकर मेरी यथास्थिति से बाहर ढ़केल देती। फिर सबकुछ सामान्य हो जाता।
इसी क्रम में एक दिन जाने क्या हुआ कि माँ ने मुझे अकस्मात एक चांटा जड़ दिया। नहीं ... चांटा जड़ने से पहले उई माँऽ ... की हल्की चीख भी निकली थी माँ के कंठ से। चांटा जड़ने के बाद एकदम से बड़बड़ाते हुए मुझे अपनी गोद से परे जमीन पर लुढ़का दिया और मेरे लिए कुछ कठोर शब्दों की वर्षा करने लगी। यह सब कुछ अकस्मात ही घटित हुआ। मैं अचानक हुए इस आघात से हतप्रभ तो था ही माँ द्वारा यूं कठोरता बरतने पर और भी विचलित हो उठा और लगा पैर पटक-पटक कर रोने और चीखने चिल्लाने।
मेरे इस कृत्य से माँ का गुस्सा और भी भड़का दिया और उसने ‘‘यह ले ... और ले ... शैतान... हरामी कहीं काऽ...’’ की क्रुद्ध वाणी के साथ दो चार हाथ मेरी पीठ और कमर पर भी जड़ दिये।
लेकिन उन दिनों मैं धीरज कुमार के साथ-साथ जिद्दी कुमार भी था। ‘‘दुध्धु उ ...
दुध्धु उ उ ...’’  की रट तब भी लगातार लगाए जा रहा था। हाथ पैर पटकना भी बदस्तूर जारी था। थक हारकर उस दिन माँ ने पुनः मुझे अपनी छाती से सटा लिया।
इसके अगली बार से माँ ने पता नहीं क्या किया कि मैं मुँह लगाता नहीं कि फौरन हटा लेता। इतना कडु़वा और कसैला। अमृत की जगह विष। नहीं, विष नहीं, मुसब्बर! माँ अपनी एक पड़ोसन की सलाह पर मुसब्बर का इस्तेमाल करने लगी। इसके बाद तो मैं भी पीतल की छोटी गिलसिया से दूध पीना सीखकर माँ का राजा बेटा बन गया।
आप सोचते होंगे, इतना सब मुझे याद कैसे है ? ... इतनी कम उम्र की बातें !
दरअसल यह सारी राम कहानी स्वयं माँ ने ही सुनायी थी मुझे और सुनकर मेरा सारा गुस्सा और तनाव एक क्षण में काफूर हो गया था। दरअसल उस दिन खेलकर लौटने में थोड़ी देर हो जाने के कारण बाबूजी ने गाल पर तमाचा जड़ दिया था क्योंकि मेरी सालाना परीक्षा सर पर थी। इसके चलते मैं बहुत क्रोध और तनाव में था कारण कि मेरा रिजल्ट अब तक कभी खराब नहीं हुआ था।
आज यह सब याद करते हुए तब से ये यही सोच रहा हूँ कि आखिर कितनी समृद्ध थी माँ कि उसके पास हर बुरे और खुरदरे वक्त के लिए गहरी आत्मीयता से भरा एक कोमल सा किस्सा होता था।



दो: पहला प्यार
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पता नहीं माँ का स्वभाव ऐसा क्यों था ? वह बाबूजी से अपने लिए कभी कुछ नही मांगती। बाबूजी को कभी-कभी क्रोध भी आ जाता इस बात पर-’’साड़ी में चार जगह पैबन्द लगाकर पहन लेगी, मगर होंठ से दो बोल नहीं निकालेगी हरमजादी ...।’’
लेकिन हम बच्चों की किसी वाजिब जरूरत पर माँ क्रुद्ध शेरनी की तरह भिड़ जाती थी बाबूजी से और अपनी बात मनवा कर ही दम लेती। ऐसे ड्रामें का अंत यही होता कि बाबूजी जेब से रूपये निकाल फर्श पर फेंक देते और फर्श पर गिरे इन्हीं रूपयों के बीच माँ की क्षत-विक्षत देह भी भू लुंठित पड़ी मिलती।
ऐसी ही एक शाम जब मैं खेल के मैदान से घर पहुँचा, माँ फर्श पर लुढ़की पुढ़की पड़ी मिली। उसकी कलाइयों से खून रिस रहा था और फर्श पर रूपयों के साथ-साथ माँ की चूडि़यों को टुकड़े भी छितराए पड़े थे।
मैंने बड़ी मुश्किल से माँ को उठाकर चैकी पर बिठाया। फिर उसकी कलाई पर रूई के फाहे से डेटाॅल लगाया। माँ की चोट अंदरूनी थी। मारे दर्द के वह बोल तक नहीं पा रही थी।
मैंनेझट स्टोव जलाकर चाय का पानी चढ़ाया। फिर दौड़कर बगल की मौलवी की दुकान से दो डंडा बिस्कुट और वेदना निग्रह रस की एक पुडि़या ले आया।
स्कूल जाने के रास्ते में जगह-जगह दिवारों पर लिखा पढ़ता जाता था-वेदना निग्रह रस, दर्द से फौरन निजात पाने के लिए।
चाय के साथ वेदना निग्रह रस की पुडि़या, डंडा बिस्कुट और एक गिलास ठंडा पानी भी।
माँ के लिए आज अभी मैंने वही सब कुछ बिल्कुल उसी तरह किया था, जैसे औरों के लिए रोज रोज कई कई दफे करती थी मां। सिर्फ वेदना निग्रह रस की पुडि़या एक अतिरिक्त प्रयास था मेरी ओर से।
चाय के साथ डंडा बिस्कुट और दवा लेने के कोई पन्द्रह मिनट बाद माँ के बोल फूट सके-‘‘तुझे कैसे मालूम इस दवा के बारे में ?’’-माँ के चेहरे पर एक सुखद आश्चर्य का भाव था।
‘‘पढ़ के जानाऽ ... और कैसे जानता ?... जगह-जगह दिवालों पर लिखा रहता है इसके बारे में।’’ मैंने पूरी सावधानी से यह वाक्य पूरा किया नहीं कि माँ ने एकदम फौरन से पेश्तर ‘‘हाय रे मेरा पढ़ा लिखा लाल...’’ कहकर मुझे अपनी छाती से भींच लिया।
सच कहता हूँ, जो स्थिति थी माँ की, घर की, मैं प्यार पाकर उतना खुश नहीं था, जितना कि प्यार लुटाकर माँ खुश और संतुष्ट नजर आ रही थी।


तीन : पहला पाठ 
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उस मोहल्ले में माँ बहुत लोकप्रिय थी, जहाँ वह किरायेकी एक कोठरी लेकर बाबूजी के संग रहती थी। पास-पड़ोस की तमाम नववधुएँ एवं उनकी ननदें, सब दोपहर के बाद माँ के इर्द-गिर्द ही जमी रहतीं। पाक कला, सिलाई, कढ़ाई से लेकर बोलने का सउर तक, सबकुछ सिखलाती उन्हें माँ हँसते बोलते और बतकही के रस में डूबते उतराते।
लेकिन एकदम अकेले में अजीब तरह की ठंडी सांसे छोड़ते हुए, कलपते देखा है कइ्र्र कई बार माँ को। खीरी लखीमपुर, लखनऊ और कानपुर जैसे शहरों के लिए ... जहाँ बचपन से लेकर युवा होने तक का समय गुजारा था माँ ने। हरदोई से लेकर बनारस के बीच के सारे शहर उसे मुंहजबानी याद थे। हर शहर में कोई न कोई रिश्तेदार और उनके यहाँ अवसर विशेष पर माँ के जाने और चन्द दिन गुजारने के वो तमाम खुशगवार पल। इन तमाम स्मृतियों को अपने आँचल की खूंट में बांधकर लायी थी माँ अपने मायके से। यही उसका स्त्री धन था ... उसके अतीत का चलचित्र ...।
माँ के पास इन तमाम शहरों से जुड़े इतने दिलचस्प यात्रा स्ंस्मरण थे कि इन्हें बीसियों दफा सुनते सुनते ये तमाम शहर मेरी स्मृतियों में किसी धरोहर की तरह बस चुके थे। इनमें से अधिकांश शहरांे में मैं कभी नहीं गया, लेकिन जानता हूँ स्टेशन से बाहर का नजारा कैसा होगा, क्या सब मिलेगा देखने को और एक खास मोहल्ले में जाने का रास्ता क्या होगा ... इसके बीच क्या क्या पड़ेगा ... वगैरह ... वगैरह।
माँ जिस दिन भी अपनी इन सघन स्मृतियों की छांह में विचरती रहती हम सभी भाई बहन कहते रहते-‘‘माँ आज यूपिआई हुई हैं।’’
लेकिन याद है एक घटना कानपुर की। माँ अपने मायके आयी हुई और अपने भाइयो, बहनों और सहेलियों के साथ सारे दिन मगन रहती थी। तरह-तरह के किस्से, हंसी मजाक, खाना-पीना ... बस यही दिनचर्या थी माँ की। इन सबों के बीच मैं अपनी बोली बानी के साथ ‘बिहारी राजा’ का खिताब पता और अगल-बगल के जिस घर में भी जाता, ‘आ गवा बिहारी’ कहकर मेरा जोरदार स्वागत होता। माँ को यह अच्छा नहीं लगता फिर भी मुस्कुराती। लेकिन सच तो यह है कि विशेष तवज्जो दिये जाने के कारण मैं भीतर से फ£ महूसस करता।
ऐसे ही सौहाद्रपूर्ण पारिवारिक माहौल के बीच एक दोपहर यूपी और बिहार को लेकर थोड़ी छींटाकशी हो गई। थोड़ी कहासुनी बढ़ी और देखते ही देखते यह एक तीखी बहस में बदल गई।
और उस दिन मैंने आश्चर्य और श्रद्धा के साथ माँ का एक नया रूप देखा। अपने तमाम ठोस तर्कों के साथ विपक्षियों को तुर्की ब तुर्की जवाब देती बिहार की यह बहू खड़ी थी बिहार के पक्ष में। बिहार राज्य के बारें में इनती ढेर सारी सूचनाएँ और पटना शहर के बारें में इतनी ठोस जानकारियाँ ... मैं सचमुच दंग था माँ की ऐसी प्रतिभा देखकर।
उस दिन तमाम उपस्थित लोगों नेे अंत में एक ही वाक्य कहा-‘‘बिटिया अब परायी हो चुकी हैं।’’
मैंने आश्चर्य से गर्दन घुमाकर माँ की ओर देखा। वह ऐसा ताना सुनने के बाद भी खुश थीं।

चार: माँ के साथ खेल
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जब मैं छोटा था तभी से माँ मुझे दुनिया की सबसे खूबसूरत औरत लगती थी। जब किशोर वय का हुआ, तब भी मेरे खयालात कुछ कुछ ऐसे ही थे। बल्कि कहूँ कि थोड़े विशिष्ट संस्कार ले चुके थे। जैसे कि मेरी माँ की नाक मुझे बहुत लुभाती। लेकिन सबसे ज्यादा आकर्षित माँ के पैरों की पूरी बनावट करती। खासकर पर्व त्योहार के दिन जब माँ अपने इन गोरे सुडौल पैरों का बिछिया आलता और पायल के साथ श्रृंगार करती। तब मैं अक्सर माँ को उलाहना देता-‘‘एक तेरा पैर है ... इतना सुडौल ... एक मेरा है।’’
तब माँ ध्यान से मेरे पैरों को देखती जिसकी कई कई ऊंगलियाँ ठेस लगते रहने से थोड़ी विकृत और खुरदरी थीं। बायें पैरे के अंगूठे का नाखून तो और भी भद्दा था।
‘‘तेरे पैर सच में मर्द के पैर है।’’
माँ तारीफ करती तो मैं उसे मुंह चिढ़ाकर भाग जाता-‘‘नहीं ... मर्द नहीं बनना है मुझे ... खबरदार जो मर्द कहा मुझे ...!’’
जब मैं काॅलेज आने जाने लगा, किसी खूबसूरत लड़की पर नजर पड़ती नहीं कि फिसलकर फौरन उसके पैरों पर चली जाती। पैर अगर माँ के पैरों की बनावट के कहीं आस पास भी टिकते, तभी दुबारा उसका चेहरा देखता अन्यथा सर झुकाकर आगे बढ़ जाता।
अपने ट्यूशन की पहली आमदनी से मैं माँ के लिए एक खूबसूरत सैंडिल खरीद लाया। माँ कैसी तो बेढं़गी किस्म की चप्पलें पहना करती थी जिससे मुझे काफी खीझ होती थी। सैंडिल देखकर माँ बहुत खुश हुई। बोली कि रख लेती हूँ इसे बहुरिया के लिए। आएगी तो दाद देगी तुम्हारे पसंद की।
‘‘यह तुम्हारे लिए है य’’-मैंने ... दृढ़ शब्दों में कहा।
‘‘अरे मैं कहाँ ... इसके लायक सूट भी तो चाहिए या कोई अच्छी साड़ी।’’
अगले महीने मैं सूट का कपड़ा ले आया। फिर मेरी नौकरी हो गयी। मैं माँ से दूर चला गया, दूसरे शहर। फिर मेरी शादी की बात चलने लगी लेकिन इसके पहले ही माँ अचानक चल बसी। चल बसी तो क्या ? कोई दूर थोड़े न चली गयी थी। और करीब आ गया था उसका गोल सा चेहरा और खड़ी नाक। और उसके वह पैर ... जिनपर अपना सर टिकाकर मैंने उसे अंतिम विदाई थी, उसकी वह
लम्बी पतली ऊँगलियाँ और उनकी बगल में थोड़ा मोटा और नाटा सा, किसी सेठ की कोठी के बाहर खड़े गोरखा पहरेदार सा वह अंगूठा ... यह सब मेरी जेहन में ज्यों के त्यों सुरक्षित पड़़े थे।
मेरी शादी के लिए रिश्ते लगातार आ रहे थे। तस्वीर देखकर मैं किसी लड़की को पसंद कर लेता। लकिन जब प्रत्यक्ष देखता तो ...! तीन सुन्दर लड़कियाँ मैंने केवल इसलिए छाँट दी, क्योंकि मुझे उनके पैर जरा भी नहीं जँचे। फिर मैंने एक लड़की पसंद कर ली। उसके पैर माँ के पैरों से भी ज्यादा गोरे, सुडौल और आकर्षक थे। उसके दाहिने पैर के अंगूठे के नीचे काजल के टीके की तरह एक काला दाग था। जैसे प्रकृति ने ही बुरी नज़र से बचने को उपाय रच दिया हो। मैं मुग्ध भाव से सर झुकाए इन पैरों को निहारता ही रहागयाथा ...। मैं इतराता और मटकता फिर रहा था अपनी इस पसंद पर।
बहू के घर आने पर महिलाओं के बीच चल रही बतकट्टी के कुछ अंश मेरे कानों तक भी पहुँचे। मेरी मौसी मेरी बुआ से कह रही थी-‘‘अभी कमला (मेरी माँ) रहती तो क्या ऐसी ही
बहुरिया इस घर में आती ? बेचारा टूअर ... जाने क्या देखा इसमें जो सीधेे हाथ पकड़ घर ले आया।
अचानक मेरी नजर कमरे की दिवाल पर अंटक गई। वहाँ माँ की तस्वीर थी ‘‘उसकी जवानी का मुस्कुराता खिलखिलाता चित्र। मुझे लगा उस चित्र में मौजूद मेरी माँ मुझे जीभ बिराकर चिढ़ा रही है। ठीक वैसे ही जैसे बचपन में गर्मियों की लम्बी दोपहर मंे लूडो के खेल में मेरे हार जाने पर माँ मुझे जीभ बिराकर चिढ़ाती थी। और तब मैं दांत पर दांत चढ़ाकर किटकिटाते हुए चैलेंज करता कि अच्छा अबकी बार जीतकर दिखलाओ तो जानूं। ओर इस तरह यह खेल वर्षो चालू रहा। कभी माँ मुझे चिढ़ाती कभी मैं।
‘‘ठीक है कहने दो लोगों को कुछ भी लेकिन उसके पैर तुम्हारे पैरों से ज्यादा खूबसूरत हैं ... समझी।’’ उस एकांत कमरे में माँ को सम्बोधित करते हुए मैंने भी उसे जीभ बिराकर चिढ़ाया।
माँ के साथ खेल का अंत यहीं पर हो गया।

पाँच:  माँ के रूप हजार
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माँ का यह रूप मेरे लिए सर्वथा अकल्पनीय था।
पूरे सात वर्ष गुजर चुका था माँ के साथ।उसके तमाम दब्बूपन और आज्ञाकारिता का मैं सबसे बड़ा गवाह था। गवाह था उसके पिटकर रोने और फिर आँसू पोंछ झटपट रसोई घर में सक्रिय हो जाने का।
लेकिन आज उसी माँ के इस नए संस्करण को देख मैं भांैचक था।
‘‘नया नहीं है ये बुद्धू ... यही पुराना है। पुराना और स्वाभाविक रूप। दरअसल यही और ऐसी ही एक मुक्कमल लड़की थी मैं जो तुम्हारे पिता के घर एक पत्नी, बहू और जाने क्या क्या बन कर कई कई टुकड़ों में बँट गई हूँ।’’
यह माँ ने उस रात बताया था। अपने पिता के घर में। मैं नानी की गोद में बैठा था। नानी स्नेह और लाड़ मिश्रित स्वर में माँ को बुरा भला कहती हुई मेरी कमर में सरसों तेल की मालिश भी करती जा रही थी।
माँ दिन भर साइकिल के आगे के डंडे पर मुझे बिठाकर जाने किन-किन सहेलियों के घर घुमाती रही थीं। हर जगह भरपूर प्यार, दुलार और टाॅफी मिठाई। सारे दिन मस्ती करता रहा मैं। लेकिन रात में मामूली से कमर दर्द की शिकायत पर माँ का पुरा कुनबा जुट गया था मेरी तीमारदारी में।
और माँ ... वह बगल में बैठे भाई बहनों से गप्पें लड़ाने में मशगूल थीं। बीच बीच में नकली गुस्सा भी करतीं मुझपर-‘‘एक नम्बर का पाजी है यह और अव्वल बहाने बाज भी। इतनी सेवा हो तो किसकी कमर में दर्द न उठे भला .......... ? अब कल से बैठना तुम घर में ही, नानी माँ के पास ...मैं नहीं लेकर जानेवाली तुमको कहीं।’’
‘‘दस वर्ष की उम्र से ही निगोड़ी सायकिल चलाने लगी थी। डी.ए.वी. स्कूल में जब नाम लिखाया गया इसका तो यही शत्र्त थी इसकी कि एक सायकिल भी मिलनी चाहिए। तब से जो पाँव में पहिए लगेइसके ... अब भी छूटी नहीं है आदत।’’
नानी माँ यह सब बखान रही थी और मैं अपने शहर के बारे में सोच रहा था, जहाँ आज भी कोई छोटी या बड़ी लड़की सायकिल चलाते हुए नहीं दिखती। दिखती क्या दरअसल वह ऐसा सोच भी नहीं सकती। इस लिहाज से माँ का यह रूप मेरे भीतर माँ के प्रति एक अतिरिक्त सम्मान जगा रहा था।
जबकि माँ थी कि हंस हंसकर बताए जा रही थी कि कैसे वह कांग्रेस के जुलूस, सत्याग्रह, पिकेटिंग आदि में स्कूल से भागकर अपनी सायकिल से फौरन पहुँच जाती। उस दिनों कानपुर की डाॅ0 लक्षमी सहगल माँ की आदर्श थी। वह उनसे कई-कई बार मिली थी और उन जैसी ही बनना चाहती थी। माँ के पैरों पर अंग्रेजों की लाठी के दाग भी थे।

आज माँ नहीं है। उसकी पूरी जिंदगी मर्दों की इस दुनिया में एक औरत के टूटकर बिखर जाने की उसी पुरानी कहानी की तरह है। लेकिन माँ से जुड़ी यह छोटी छोटी कहानियाँ किसी अनमोल विरासत की तरह दफन थी मेरे जेहन में। आज यह तमाम कहानियाँ खुद ब खुद बाहर निकलकर पूरी सृष्टि में छा जाना चाहती हैं। कारण है मेरे शहर का बदलता परिवेश। आज मेरे शहर की हजारों-हजार स्कूली बच्चियां सायकिल की पैंडल मारते हुए जीवन पथ पर रफ्तार से उड़ी जा रही हैं। इन्हें देखते ही बरबस माँ की याद हो आती हैं। लगता है माँ हजारो-हजार रूपों में एक बार फिर से जिंदा होकर मुझे गहरे सुकून और आनन्द से भर रही हैं।
माँ की दुनिया की यह कहानी इन बच्चियों की दुनिया की कहानी बनने जा रही है।

तुम्हें शत-शत प्रणाम मेरी हजारो-हज़ार नन्ही मुन्नी माताओं !







संतोष दीक्षित
दुली घाट, दीवान मोहल्ला
पटना सिटी, पटना-800 008
मोबाइल -9334011214


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