Sunday, January 27, 2013

मनीषा कुलश्रेष्ठ से एक आत्मीय मुलाकात में हुई बातचीत....

मनीषा कुलश्रेष्ठ       
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'कठपुतलियाँ' 'शालभंजिका' 'केयर ऑफ़ स्वात घाटी' ' बौनी होती परछाई ' , 'गन्धर्व-गाथा' शिगाफ' जैसे कहानी संग्रह , लघु उपन्यास और 'शिगाफ़' जैसे चर्चित उपन्यास से साहित्य जगत में बहुत ही कम समय में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी सहज,सरल, सहृदय और विनम्र कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से कहीं ना कहीं कविता-पाठ में अक्सर मुलाकात हो जाती है. कथाकार के साथ-साथ वो एक कुशल गृहिणी, कवयित्री ... और चित्रकार भी हैं. 

अक्सर जब भी उनसे फ़ोन पर बात होती तो वो मुझे बहुत ही आत्मीय भाव से अपने घर आमंत्रित करतीं , एक दिन उनसे मिलने उनके घर भी गयी , एक अद्भुत अनुभव था उनसे मिलना , जैसा संवेदनशील उनका लेखन है वैसी ही वो स्वयं भी हैं.

कुछ देर उनके घर उनके साथ समय बिताकर उन्हें बहुत करीब से जानने का मौका मिला, उन्होंने मेरे लिए चाय स्वयं ही बनायीं , चाय बनाते समय वो अपनी मेड की बेटी छुटकनी का जिक्र करते हुए भावुक हो गयीं थी, छुटकनी की कहानी भी 'फर्गुदिया' की जैसी थी .

बालकनी में चाय की चुस्कियों का मज़ा लेते हुए वो अपनी शादी का जिक्र करते हुए बिलकुल छोटी बच्ची सी लग रहीं थी, शादी के पहले मनीषा ने अंशु जी से मजाक में जिक्र किया होगा कि 'मुझे तो बिना सास वाली ही ससुराल चाहिए थी' वो वाकया सुनाते हुए उनके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान दौड़ गयी थी लेकिन दूसरे ही पल सासू माँ के ना होने पर शादी के बाद उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया वो सब याद करके ... अपनी सासू माँ को याद करके उनकी आँखें भीग गयीं थीं.

अभी हाल ही में उनके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला, 
जनवरी 2013  का 'लमही' अंक मनीषा कुलश्रेष्ठ  पर आधारित है.


उन्हें स्वयं लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली, लेखन विधा सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण सुझाव गृहणियों के लिए, और भी बहुत कुछ है उनसे हुई इस बातचीत में ...
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जब भी आपसे मिलती हूँ , आपकी आँखों को पढ़ती हूँ, आपकी आँखें हर किसी के चेहरे और आँखों की कहानी पढने को आतुर नज़र आतीं हैं. ऐसा है क्या ?

मनीषा कुलश्रेष्ठ -
थोडा मुस्कुराते हुए .. – “ हाँ .. ऐसा है .. यहाँ दिल्ली कैंट के सदर में मैंने कल एक समोसे वाले को देखा, उसे देखकर मुझे ये लगा कि वो पूरा का पूरा एक कहानी का पात्र है, क्योंकि इतने बड़े और आधुनिक दिल्ली शहर के छोटे मोहल्ले में आस – पास के विकास से बेखबर, अमिताभ बच्चन जैसे बाल रखे समोसे बना रहा है और बड़ी लगन से बना रहा है. उसका लोगों को बड़े प्यार से खिलाना, मानो दुनियावी शातिरी उसे छू भी न गई हो. उसे देखकर मुझे लगा कि मैं अपने कस्बे में लौट आई हूँ. मै ने उसके पीछे एक कहानी का पात्र देखा और उत्सुकतावश दुबारा गई.

हाँ ..ऐसा है मैं हर व्यक्ति के पीछे की कहानी ढूँढने की कोशिश करती हूँ , मुझे मज़ा आता है, मुझे जो ऊपर दिखता है या दिखाया जाता है उसमें बहुत कम रूचि रहती है, मुझे बर्फ के नीचे के जीवन में ज्यादा रूचि रहती है. मेरे सामने मुखौटे चलते नहीं हैं, मैं प्यार से हटा कर कहती हूँ , “ हाँ अब बात करो.”


-आस-पास की घटनाओं और संगी-साथियों से जुडी बातों को लेकर क्या  हर समय कथा-कहानी-उपन्यास का एक खाका मन में तैयार होता रहता है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं .. ऐसा तो नहीं है कि हर समय मन में एक खाका ही तैयार होता रहे .. ज़िन्दगी में और भी चीज़ॆं हैं करने को. हाँ किसी भी कहानी का या नॉवल का एक प्रस्थान बिंदु होता है, वह जब सामने आता है तो जरुर उसके बाद वह कुलबुलाहट मेरे अन्दर रहती है, और तब उस पर कलम को चलना होता है, तो ज़रूर सोते-उठते हर समय वो खाका मेरे दिमाग में रहता है.


-शादी के पहले से लिख रहीं हैं, शादी के बाद ( जाहिर सी बात है ) कुछ समय के लिए लिखना छूटा होगा, एक लम्बे अंतराल के बाद फिर लेखन शुरू करने में किस तरह की दिक्कतें आई ..?
परिवार वालों खासतौर पर अंशु जी ने किस तरह आपका साथ दिया ..? या फिर जैसा कि आमतौर पर होता है " छोडो न यार ये सब करके अब ..क्या करोगी " ऐसा कहकर समझाने की कोशिश की ..? 

मनीषा कुलश्रेष्ठ - शादी से पहले भी लिखती थी लेकिन पहचान एक छोटे स्तर पर ही मिली थी, आज जो इतनी बड़ी पहचान है वो नहीं बनी थी, हाँ ... शादी के बाद लम्बे अंतराल तक सब छूट गया था लेकिन मैंने मेरे नवजात बच्चों पर ..उनकी मुस्कान पर या प्रतीक्षा पर कविताएँ लिखकर अपनी उँगलियों को मैंने हरकत में रखा .. मैं डायरियां भी लिखती थी ..लेकिन लिखने को मैंने तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक बच्चे स्कूल नहीं जाने लगे, जब वो स्कूल जाने लगे तब मैंने वेबसाइट शुरू की .. वेबसाइट शुरू की तो संपादकीय हमेशा मुझे ही लिखना होता था ... संपादकीय के साथ दोबारा से लिखना शुरू हुआ .


जहां तक अंशु की बात है तो हिंदी की पहली वेबसाइट बनाने में ही जिस व्यक्ति ने मेरा साथ दिया हो .. मेरे आगे कप्यूटर पर हिंदी की संभावनाओं की खिड़की ही जिस व्यक्ति ने खोली हो तो वो फिर पीछे कैसे हट सकता है ...उन्होंने मुझसे कभी नहीं ये कहा कि "छोडो न यार" बल्कि वो हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे पहले पाठक और आलोचक भी.



- अब तक जितना भी मैंने आपको पढ़ा है उसके अनुसार कह सकतीं हूँ कि आप अपनी कहानियों में महिलापात्र को मर्यादित,संस्कारिक ढंग से पेश करती हैं , समकालीन लेखन और फ़िल्में पाश्चात्य संस्कृति को फ़ॉलो कर रहा है लिव-इन-रिलेशनशिप को कहानियों और फिल्मों में जायज ठहराना कहाँ तक उचित है , परिवार जैसी संस्थाएं वैसे ही टूट रहीं हैं, आने वाली पीढ़ी को ऐसी कहानियों और फिल्मों से क्या संदेश जा रहा है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - जहां तक मेरी नायिकाओं की बात है ..उस संकीर्ण अर्थ में मर्यादित तो नहीं हैं वे ! मेरा अर्थ मतलब उन्होंने मर्यादा ओढ़ी हुई नहीं है! वे जैसी हैं वैसी हैं. फिर कोई मैं आदर्श कथाएँ या प्रेरक गाथाएँ तो लिखने नहीं बैठी हूँ ना ! दरअसल नैतिकता और मर्यादा , गरिमा .. इन तीनों चीज़ों को अलग तौर पर देखतीं हूँ.. मर्यादा मेरे लिए ओढ़ी हुई चीज़ है, इसके आगे गरिमा मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण है ..एक स्त्री की गरिमा क्या है ... नैतिकता के मापदण्ड सबके अपने अपने. हर समाज, हर व्यक्ति के. तो मेरी नायिकाएँ ओढ़ी हुई मर्यादाएं , नैतिकता नहीं लिए हुए हैं ... लेकिन हाँ .... परिवार संस्था में उनका विश्वास है ... क्योकि मेरा स्वयं का विश्वास है .. मुझे लगता है कि हम इतनी गुफाओं के आदिम जीवन और आरंभिक समूहों से लेकर आज तक न जाने कितनी सभ्यताओं को पार करके परिवार की इकाई तक पहुंचे हैं तो इस परिवार के होने में कितनी सारी सुरक्षाएं जुडी हैं, स्त्री और बच्चों की और स्वयं पुरुष की भी ... मैं इस परिवार की सुरक्षा में पुरुष को अलग नहीं कर सकती ....मैं पाती हूँ कि पुरुष भी घर में आकर परिवार की तरफ लौटकर स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता है .

लिव-इन-रिलेशनशिप और सिंगल मदर्स के कॉंसेप्ट के बारे में कहना चाहूंगी कि लिव-इन-रिलेशनशिप वापस जंगल की ओर, आदिम जीवन की ओर लौटना है, जंगल जहाँ एक बाघिन या एक चिड़िया अकेले बच्चे पालती है ... और उसकी मज़बूरी होती है अकेले बच्चे पालना ... आपने देखा होगा कि मादा को अकेले बच्चे पालने होतें हैं और या फिर बंदरों के झुण्ड को भी देखा जाए तो हमेशा उसमें मादाओं के साथ ज्यादती होती है ...उनके बच्चों के साथ ज्यादती होती है .. तो जब हम इतनी सभ्यताएँ पार करके आज हम समाज की विकसित अवधारणा तक पहुंचे हैं, परिवार की अवधारणा तक पहुंचे हैं तो वापस से हम अकेले क्यों हो जाएँ ...? और हम क्यों अकेले बच्चे पालें .. जब बच्चा पुरुष का और स्त्री दोनों का है ... तो स्त्री अकेले बच्चे क्यों पाले ... ? तो मेरे ख़याल से लिव-इन-रिलेशनशिप में स्त्री की ही अस्मिता की हानि है.

मैंने पढ़ी हैं वे कहानियाँ शोभा, इस विषय को एक कहानी की तरह प्रस्तुत करना ठीक है, कहानियों में समाधान और संदेश नहीं होते, कहानियाँ वहाँ पर ख़त्म हो जातीं हैं, जहां से संदेश शुरू होतें हैं, कहानी को बस कहानी की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए . कहानियाँ तो एक दृश्य, एक स्थिति प्रस्तुत करती हैं, उनके पक्ष में तो पैरवी करता हुआ कोई लेखक लेखिका नज़र नहीं आता. बल्कि इस तरह की कहानियाँ लिखना तो एक तरह से चेताना ही हुआ समाज को. कहानीकार तट्स्थ होकर लिखता है, वह कोई पैरवी या समाधान नहीं देता. हाँ स्यूडो बोल्ड्नेस और दिखावटी आज़ादी से मुझे आपत्ति होती है.

और रही इस तरह की कहानियों और फिल्मों का आने वाली पीढ़ी के ऊपर प्रभाव पड़ने का तो पहले हम ये तो जान लें नई पीढ़ी कितना इन कहानियों को पढ़ती हैं... फिल्में जरूर देखती है.
 देखो शोभा हमने भी सब कुछ देखते, पढ़ते जीवन जिया...बने कि बिगड़े नहीं पता, फिर हर बच्चे के पास अपने एक पारिवारिक संस्कार होतें हैं, अगर वो संस्कार अच्छे हैं, बच्चे सुरक्षित हैं तो कहानी और फिल्मों का बच्चों पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है, वे ऑबजेक्टिव हो कर सब देखते चलते हैं. और ये बनना – बिगड़ना रिलेटिव है. मेरी माँ के समय में बिगड़ने की परिभाषाएँ और थीं और हमारे समय में और, आजकल और...

मेरे घर में ही बहुत सारी बातों पर हम बच्चों से खुलकर बात करतें हैं ..जो कि अपने समय में सोच नहीं सकती थी कि अपने पिता से मैं ये बातें कर सकती थी ! मेरे पिता टी टोटलर थे, शादी के बाद घर में सजी हुई बार देख कर मुझे अजीब लगता था  लेकिन इस तरह सामने रखे होने पर भी मेरे बच्चों की इसमें कोई रूचि नहीं है, उनको पता है कि पापा भी सोशियली ड्रिंक करतें हैं.. कहने का मतलब ... सब कुछ संस्कारों पर डिपेंड करता है. मेरी बेटियों को आज़ादी है कि बाहर या छुप कर लड़कों से बात करने की जगह, हमारी उपस्थिति में घर पर आएँ उनके क्लासमेट या मित्र. इसलिए मुझे लगता है जितना चीज़ें ‘टैबू’ होंगी उतना उनकी ललक बढ़ेगी. इसलिए मेरे अनुसार युवाओं को सन्देश – देखो यह सब ज़माना है..अच्छा – बुरा. आप क्या चुनते हो यह आपके संस्कार !



- अक्सर शीर्ष पर बैठे लेखकों की उपलब्धियों के पीछे उनकी मेहनत,लगन और त्याग का जिक्र होता है ... वहीँ लेखिकाओं की उपलब्धियों के बारे में उन्ही शीर्ष पर बैठे लेखकों के कंधों की सीढ़ी का जिक्र किया जाता है ... आज आप स्वयं शीर्ष प़र बैठी लेखिकाओं में से हैं .. कैसा लगता है ऐसा सुनकर ... ?


मनीषा कुलश्रेष्ठ –  लेखन में शीर्ष – वीर्ष नहीं होता, आप होते हो आपके पाठक और लोकप्रियता होती है. फिर भी जो भी हूँ , जहाँ भी हूँ, मुझे परोक्षत: तो किसी ने नहीं कहा कि मैंने किसी के कंधों का सहारा लिया. सच भी यही है कि मेरी कहानियों ने ही सहारा दिया, मेरी लेखनी ने पहचान. लेखन के मामले में मेरा कोई गॉडफादर नुमा आलोचक – लेखक नहीं है. मेरी लेखनी में अपना दम है. मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ ..दरअसल जब आपको लोग बार-बार पढतें हैं तो जान जाते हैं आप कितने पानी में हैं, आपका एक सिग्नेचर स्टाईल होता है और आपका एक वैचारिक स्तर होता है जो आप लोगों से बात करतें हैं तब झलकता है. जब आप वैचारिक लेखन कर रहें होतें हैं , तो कहीं न कहीं आपने अन्दर की बुद्धिमत्ता को सत्यापित कर रहें होतें हैं. हिन्दी में नाम जोड़ना तो कॉमन है, मगर मेरे लेखन को किसी ने खारिज नहीं किया ... एक दो बार लोगों ने कोशिश की भी है तो सबको समझ आ गया कि ये व्यर्थ प्रयास है. बेवजह तो ऐसा होता नहीं है कि किसी के लेखन को, उसकी मौलिकता को ख़ारिज किया जाता हो , अंततः सच सामने आता ही है कोई भी ऐसे ही लोकप्रिय नहीं हो जाता है , कहीं न कहीं कंसिस्टेंट तौर पर आपके लिखे हुए की कीमत होती है. और जिन लेखिकाओं पर ये आरोप लगता है कि उनका लेखन मौलिक नहीं है तो मेरी उनको ये सलाह है कि वो वैचारिक लेखन करें... मंच पर बोलने से न बचें, शास्त्रार्थ करें ,बात करें लोगों से.. लोगों से मिले तो एक सच्चाई सामने आती है.

- अक्सर आपसे बात होती है तो आप परिवार,बच्चों और रसोई का जिक्र जरुर करतीं हैं , खाना अब भी स्वयं ही बनातीं हैं..? इतनी व्यस्तता के बाद परिवार के लिए समय कैसे निकाल पातीं हैं ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ -
खाना मैं खुद ही बनाती हूँ, हाँ मेड से हेल्प जरुर लेतीं हूँ क्योकि अक्सर मुझे बाहर जाना होता है तो थोड़ी - सी हेल्प तो चाहिए ही होती है, खाने में मैं बहुत सारी विविध चीज़ें बनाती हूँ , मुझे रूटीन की सब्जी-रोटी बनाना पसंद नहीं है. मन होता है तो मैं बहुत तरह की चीज़ें बनातीं हूँ और बच्चों की और अंशु की रूचि का बहुत ख़याल रखतीं हूँ. दाल-बाटी-चूरमा हमारे यहाँ हर संडे को बनता है, शनिवार और रविवार को मैं अंशु और बच्चों के लिए कुछ स्पेशल बनातीं हूँ , मुझे ऐसा करना बहुत अच्छा लगता है. कभी कभी यह भी होता है कि मूड नहीं होता या कहानी लिखने का बहाना कर मैं अंशु से भी सब्ज़ियाँ या कोई व्यंजन बनवा लेती हूँ. उनके हाथों में भी कुकिंग का हुनर है. 

 -मुझे आज भी याद है अपने खुद को चैट पर एक "निशाचर लेखिका" कहा था , लिखने का इतना जूनून कहाँ से लातीं हैं.

मनीषा कुलुश्रेष्ठ
- निशाचर लेखिका मैंने खुद को इसलिए कहा था कि दिन बहुत व्यवधान भरा रहता है, धोबी, दूध, राशन, और फोन्स कॉल्स ..... दिन भर बच्चों और परिवार में भी व्यस्त रहती हूँ और दिन का समय मैं किताबें पढ़कर बितातीं हूँ और मुझे लगता है कि मैं रात के सन्नाटे में ही लिख सकती हूँ , दूध वाले की घंटी या किसी भी तरह के डिस्टरबेंस में मैं नहीं लिख सकती , मुझे लिखने में एकाग्रता चाहिए वो मुझे रात में ही मिलता है इसलिए मैं रात में जागकर लिखती हूँ ... इसलिए मैंने खुद को "निशाचर लेखिका" कहा .. तो जूनून नहीं है इसमें .. जब मैं लिखती हूँ तो मुझे जूनून आता है तो फिर मैं रात भर जागती हूँ , फिर मेरी बॉडी -क्लॉक है वो बदल जाती है .. दिन में सोती हूँ .. रात में लिखती हूँ ... तो ये जूनून नहीं है .. मेरी मज़बूरी है .. रात में जागकर लिखना.

-अभी हाल ही में आपके उपन्यास 'शिगाफ' को ' इण्डो फ्रेंचगीतांजलि लिटरेरी ज्यूरी एवार्ड’ मिला .. पुरस्कार लेते समय कैसा महसूस करतीं हैं ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ -
तात्कालिक तौर पर बहुत अच्छा लगता है पर मैं उस अहसास को अपने कन्धों पर ढोकर नहीं चलती , मैं ये नहीं मानकर चलती कि शिगाफ़ अल्टीमेट है या मैंने कोई महान कृति रच दी .. मुझे अगर कभी ऐसा लगेगा तो खुद ही मुझे बहुत दुःख होगा और मैं अपने अन्तरंग साथी अंशु से कहूँगी कि मुझे इस घमंड से नीचे लेकर आओ ताकि मैं आगे बढ़ सकूँ , मैं अपने दोस्तों से भी कहतीं हूँ कि कृति लिख ली .. उसे एवार्ड मिल गए .. उस पर बात हो गयी .. उसे छोड़ दें .. फिर वो बाद में लोगों की हो जाती है .. इसलिए शायद अब मेरे कान शिगाफ़ सुनकर बहुत खुश नहीं होते .. मैं और आगे बढ़ना चाहती हूँ .. क्योकि मैं लेखन में सिर्फ उपलब्धियों के लिए ही नहीं आयीं हूँ .. आत्मसंतुष्टि के लिए भी आयीं हूँ .


 -कहानी और कथा लेखन के बारे में युवा लेखिकाओं खासतौर पर गृहणियों को कुछ टिप्स दीजिये , गृहिणियां परिवार और अपनी क्रियेटिविटी में कैसे सामंजस्य बैठाये रखें ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं खुद एक गृहिणी हूँ .. और अपनी चॉईस से हूँ क्योंकि मेरी माँ,बहन,ताई सभी बड़े बड़े पदों पर कार्यरत रही हैं , सभी ने बच्चे भी पाले और अपने परिवार की ज़िम्मेदारी को भी कन्धों पर उठाया है, बल्कि नौकरी न करने के लिए मुझे डाँटा भी है. मेरे और अंशु दोनों की सहमती से हमने ये तय किया था कि मुझे नौकरी नहीं करनी है और हमने पैसों की जगह साथ रहना चुना, क्योंकि मैं नौकरी करती तो अलग रहना होता बहुत सारे समय. और ऎसा भी नहीं है कि अंशु ने मुझे अकेले केवल घर सँभालने के लिए कभी बाध्य किया , ये हम दोनों की सहमति से था, हम नहीं चाहते थे कि बच्चे स्कूल से घर वापस आयें तो उन्हें दरवाजे पर ताला लगा लगा मिले ..क्योकि मुझे हमेशा घर लौटने पर ताला लगा मिला और मैंने सदा माता – पिता, दीदी – जीजाजी और ताऊजी – ताई जी को अलग – अलग शहरों में पोस्टेड देखा. 

 मैंने अपने संस्मरण में भी लिखा है कि स्कूल से लौटने के बाद बैग पटककर मैं पूरे मोहल्ले में घूमती रहती थी, कभी बीमार होती तो माँ नहीं होतीं थीं, कभी पिता. मैं चाहती तो नौकरी कर सकती थी, दूरदर्शन और आकाशवाणी में मेरे लिए आप्शन था , मेरा और अंशु दोनों का साझा निर्णय था कि मैं नौकरी नहीं करुँगी. अलग रह कर तो कतई नहीं. और मैं संतुष्ट हूँ. मैं ने बहुत सी रुचियों को परिष्कृत किया, मैंने शादी के बाद कथक में विशारद किया, हिन्दी की पहली वेबसाईट की संपादित की, तैरना सीखा, लिखना दुबारा शुरु किया. एक सम्पूर्ण, संतुष्ट जीवन जिया, जिसमें पैसे की भूमिका को अहमियत हम दोनों ने नहीं दी. दो बच्चे, एक ठीक तनख्वाह, आपस में एक दूसरे के लिए बहुत सारा वक्त. एक छोटा सा घरोंदा. बेवजह हर शहर में घर, ज़मीन हथियाने की हाय हमने नहीं पाली. एक शांत क्रिएटिव जीवन जिया. 

गृहिणियों के लिए यही कहूँगी कि उनके पास बहुत संवेदनाएं होती हैं, वो अपने आस-पास के समाज को और उनके अँधेरे कोनों को भीतर बैठ कर देख पाती हैं .. वो अपनी नज़र खुली रखें और बहुत सारा समकालीन लेखन पढ़ें ... क्योकि मेरा ये मानना है कि बिना पढ़े तो आप छायावादी कविता से आगे देख ही नहीं पाएंगी.

मैंने देखा है कि बहुत सारी गृहणियां आज भी प्रियतम मैं तुम्हारी मीरा या वीणा, या मेरे विरही दिन मेरे आँसू.....ऐसा ही लिखती है, या एकदम घर गृह्स्थी की या प्रेम की अतिभावुक, चलताऊ कहानियाँ, तो इस से ऊपर उठने के लिए सबसे पहले उन्हें समकालीन लेखन जरुर पढना चाहिए.

मैं भी शुरू में
बहुत दाम्पत्य की कहानियाँ लिखती थी , मेरा सबसे पहला कहानी संग्रह है 'बौनी होती परछाई' .. वो मुझे इसलिए ही ज्यादा पसंद नहीं है क्योकि उसमें बहुत सारी कहानियाँ घरेलू सी हैं ... तो जब तक हम समकालीन लेखन नहीं पढेंगें तब तक हम समकालीन लेखन जान नहीं पायेंगें और हम उसकी नब्ज़ नहीं पकड़ पायेंगें .. और हम वही लिखतें रहेंगें जो हमारी कल्पनाओं में है और जो हमने साहित्य के नाम पर कॉलेज में पढ़ा है. इस सबके बावजूद् अपने लेखन में अपनी मौलिकता बनाये रखें .

जैसा कि शोभा मैंने तुममे ही देखा कि तुम्हारे लेखन में मौलिकता है .. मैं नहीं मानती कि तुमने 'फर्गुदिया' शुरू करने से पहले समकालीन लेखन में कुछ पढ़ा होगा ...? मैंने नहीं में गर्दन हिलाकर जवाब दिया .. उन्होंने कहा " मैंने भी नहीं पढ़ा था .. पर मेरा अपना एक मौलिक लेखन था ... तुम्हारे पास भी एक मौलिकता है .. " तो उस नितांत अपनी मौलिकता और समकालीन ट्रेंड दोनों को मिलाकर चलतें हैं तो एक अच्छी चीज़ सामने आती है
.


-आजकल उपन्यास और आत्मकथाओं पर आधारित किताब प्रकाशित होने से पहले लेखकों की मिलीभगत से किताब पापुलर करने के लिए कंट्रोवर्सी खड़ी की जाती है , उसके बारे में क्या कहेंगी ...?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - मैं उसके विरोध में हूँ, मैंने देखा है कि किताब अभी आई नहीं होती है और उसकी तीन-तीन समीक्षाएं आ जातीं हैं लोगों की, तो यही धड़ेबाजी है और मुझे बिलकुल अच्छी नहीं लगती ,पर उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. जिस लेखन कृति को सामने आना होता है वह आती है , जैसे नीलेश रघुवंशी की किताब ‘एक कस्बे के नोट्स’ बिना किसी धडेबाजी के पॉपुलर हुआ. 'शिगाफ़' एक साल तक बक्से में बंद रहा मेरे प्रकाशक ने कोई प्रयास किया नहीं, और लोगों ने पढ़ा भी नहीं , लेकिन मेरे लिखे धीरे- धीरे शब्द बाहर आये , और नावेल बाहर आया .. और धीमी गति से पॉपुलर हो गया. तो जो ये किताबें छपने से पहले चर्चाएँ शुरू हो जातीं हैं ... उससे कोई फर्क नहीं पड़ता, असल कसौटी जो है वो पाठक हैं  और जब पाठक पढतें हैं तो अपने आप उस किताब मूल्यांकन नीर – क्षीर होकर हो जाता है, फिर पता चल जाता है कि कौन कितने पानी में है .


 -लिखने की प्रेरणा कब और किससे मिली ....?


मनीषा कुलश्रेष्ठ - लिखने की प्रेरणा दो-तीन जगह से मिली, सबसे पहले तो माँ से ही प्रेरणा मिली,शिक्षा विभाग राजस्थान की एक पत्रिका निकलती थी 'शिविरा' , उसमें मेरी माँ कविताएँ लिखती थी , वो बहुत कुछ गद्य में भी लिखती थी,मैं छिप-छिपकर उनकी डायरी पढ़ती थी, उसके बाद बचपन के एक दोस्त से प्रेरणा मिली, वो बहुत अच्छी कविताएँ लिखता था, आज वो फिल्मों के लिए लिखता है उससे सीखा.
लेकिन जब मैंने हिंदी में एम्.ए करने का निर्णय लिया तब मैं साहित्य से सीधे-सीधे जुड़ गयी, राजस्थान साहित्य अकादिमी से एक प्रतियोगिता 'नवोदित प्रतिभा' का आयोजन किया गया था , उसमें मैंने छोटी सी उम्र में देवदासी प्रथा पर एक एकांकी नाटक लिखा, उसको राजस्थान साहित्य अकादिमी एवार्ड मिला, उसके बाद विवाह और बच्चे चार-पांच साल तक के लिए लेखन छूट गया .
लेकिन जब मैंने हिंदी में एम्.ए करने का निर्णय लिया तब मैं साहित्य से सीधे-सीधे जुड़ गयी, राजस्थान साहित्य अकादिमी से एक प्रतियोगिता 'नवोदित प्रतिभा' का आयोजन किया गया था , उसमें मैंने छोटी सी उम्र में देवदासी प्रथा पर एक एकांकी नाटक लिखा, उसको राजस्थान साहित्य अकादिमी एवार्ड मिला, उसके बाद विवाह और बच्चे चार-पांच साल तक के लिए लेखन छूट गया .
 जब कारगिल युद्ध चल रहा था ,उसके लिए मैंने राजेंद्र जी को एक चिट्ठी लिखी थी कि इधर कारगिल का युद्ध चल रहा है और उधर लोग वर्ल्ड कप को चीयर -अप कर रहें हैं, कारगिल की तरफ कोई ध्यान नहीं दे रहा था,मुफ्त में पेप्सी - कोला बांटे जा रहें थे. मगर राजस्थानी दूध वालों ने एक ट्रक भरकर दूध कारगिल भेजा था .'किसकी रक्षा के लिए' शीर्षक से वह चिट्ठी बीच-बहस में छपी, उस पर प्रतिक्रिया स्वरूप रोज़ दस – बारह चिट्ठियाँ मेरे पास आती थी, तब मुझे लगा की लोगों के ऊपर मेरे शब्द असर करतें हैं, तब मैंने हिंदी नेस्ट साईट शुरू की  और लिखना शुरू किया .

 -लेखन की दोनों विधाएँ कविता और कहानी में आपको महारथ हासिल है, कविताएँ छिपाकर क्यों रखती हैं ..? भविष्य में कोई कविता-संग्रह निकलने का भी इरादा है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - जब मैंने शुरू में जब कविताएँ लिखी तो मुझे लगा कि ये मेरी बिलकुल निजी अभिव्यक्ति है नितांत वैयक्तिक, यह साहित्य नहीं मेरा मन है .. बाद में मैंने अपनी कविताओं को छिपाकर तो नहीं रखा, यहाँ हिन्दीनेस्ट पर और अन्य वेबसाईट्स और ब्लॉग्स पर प्रकाशित हुईं. हाँ पर मैंने उनको पत्रिकाओं में छपवाया नहीं .. मेरा मानना है कि दो विधाओं का होकर रहने में कहीं कोई कमीं आती है ...ये मेरा मानना है. मेरे वरिष्ठ और समकालीन बहुत से दोनों विधाओं में लिखते हैं. उदय प्रकाश जी दोनों विधाओ में लिखतें हैं ... पर मैं सिर्फ उनकी कहानियाँ ही पढ़ती हूँ. कविताओं में मैं उनसे प्रभावित नहीं. कविताओं में बहुत सीमित लोगों को पसन्द करती हूँ. कविता संग्रह ..भविष्य में शायद !

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मनीषा कुलश्रेष्ठ से एक आत्मीय मुलाकात में हुई बातचीत....                                                                          



साक्षात्कार प्रस्तुति

:शोभा मिश्रा        संचालिका:  फर्गुदिया समूह 

11 comments:

  1. शोभा जी आपने इस मुलाकात को ऐसे व्यक्त किया है जैसे हमारे सामने ही बात हुयी हो ………बहुत बढिया संस्मरण

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  2. बहुत बढ़िया साक्षात्कार है.... प्रश्न बहुत गहराई लिए हुए हैं और उसके जवाब भी.... साक्षात्कार के माध्यम से मनीषाजी के विचारों को जानने का मौका मिला... उनके प्रति श्रद्धा पहले से और भी अधिक बढ़ गई है... शोभा जी इतने बढ़िया साक्षात्कार के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद...

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  3. 'निशाचर लेखिका 'मनीषा जी ने इस साक्षात्कार में परिवार, लिव इन रिलेशन्स, रचना प्रक्रिया, अपने पत्रों की बुनावट तथा घरेलू जीवन के विषय में जिस प्रकार से अपने विचार व्यक्त किये हैं, उससे उनकी सरलता, सहजता और आडंबरहीनता प्रकट होती है। शोभा जी ने इस साक्षात्कार के माध्यम से मनीषा जी से उन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर सफलतापूर्वक प्राप्त किये हैं, जिनसे आज हमारा समाज जूझ रहा है। शोभा जी को इस महत्त्वपूर्ण आयोजन के लिए बधाई।

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  4. 'निशाचर लेखिका 'मनीषा जी ने इस साक्षात्कार में परिवार, लिव इन रिलेशन्स, रचना प्रक्रिया, अपने पत्रों की बुनावट तथा घरेलू जीवन के विषय में जिस प्रकार से अपने विचार व्यक्त किये हैं, उससे उनकी सरलता, सहजता और आडंबरहीनता प्रकट होती है। शोभा जी ने इस साक्षात्कार के माध्यम से मनीषा जी से उन महत्त्वपूर्ण प्रश्नों के उत्तर सफलतापूर्वक प्राप्त किये हैं, जिनसे आज हमारा समाज जूझ रहा है। शोभा जी को इस महत्त्वपूर्ण आयोजन के लिए बधाई।

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  5. बहुत ही अच्छा लगा ये साक्षात्कार, उसे इतना सार्थक और रोचक बनाने के लिए आप दोनों बधाई की पात्र हैं, मनीषा दी, से जब भी बात होती है, इसी तरह की बातें सामने आती हैं। उन्हें और अधिक जानने में अपने जो मदद की उसके लिए शुक्रिया, और मनीषा दी को अनंत शुभकामनायें। मेरी वाल पर कल से है ये रोचक बातचीत ..............

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  6. हर शब्द मुखर ! यूँ लगा कि आप-दोनों की सीधी बात हमारे कानो से होकर ह्रदय तक पंहुच रही है।अच्छा लगा मनीषा दी के बारे में और अधिक जानकर ,उनके विचारों ने मन-मस्तिष्क पर दस्तक करी है। शोभा दी धन्यवाद आपका कि आपने अपनी इस मुलाकात से हम सबका परिचय करवाया। निश्चित रूप से मनीषा दी का लेखन,आपके विचार प्रेरणा देते हैं।

    सादर

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  7. जय शंकर तिवारीTue Jan 29, 10:14:00 pm 2013

    मनीषा जी मौजूदा समय की बेहतरीन लेखिका हैं । शोभाजी ने उनका सुंदर साक्षात्कार प्रस्तुत किया है । उम्मीद है वे लगातार लिखती रहेंगी ।

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  8. आदरणीया मनीषा जी से आपकी यह मुलाक़ात बहुत अच्छी लगी।


    सादर

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  9. सुमन केशरीWed Feb 06, 01:40:00 pm 2013

    मनीषा के बारे में बहुत सी बातें बेहद आत्मीय ढंग से उजागर हुई हैं इस साक्षात्कार में...और मनीषा का लेखन और उनकी चुनौतियाँ भी बखूवी उभर के आईं हैं यहाँ...

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  10. यूं लगा आदरणीय शोभा जी कि मैंने खुद मनीषा जी से बात-चीत की हो।
    आपको बहुत आभार हमें मनीषा जी से इतनी अंतरंगता से मिलवाने के लिए।
    सादर

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