Wednesday, January 30, 2013

'हिंदी सराय - अस्त्राखान वाया येरेवान' - प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल

पुरुषोत्तम अग्रवाल      
जन्म: 25 अगस्त 1955
जन्म स्थान: ग्वालियर, मध्य प्रदेश, भारत
जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में सत्रह वर्ष तक अध्यापक रहने के बाद वर्तमान में संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य हैं. वे संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य के तौर पर नियुक्त होने वाले हिन्दी के पहले विद्वान हैं।

आलोचक, विचारक प्रोफ़ेसर पुरुषोत्तम अग्रवाल जी की पुस्तक 'हिंदी सराय - अस्त्राखान वाया येरेवान' इन दिनों बहुत चर्चा में है , प्रस्तुत है पुस्तक के  कुछ रोचक अंश आप सभी के लिए ... 




और फिर, तेरह सितंबर को.. ..यह अस्त्राखान से मास्को की फ्लाइट थी, शाम की शुरुआत। यह पहला मौका था इस तरह के मजेदार अकेलेपन का। इकानामी क्लास के सारे यात्रियों के जाने के बाद अचानक अहसास हुआ कि बिजनेस क्लास में अकेला यात्री मैं ही हूँ। भरी होतीं तो सीटों का स्याह इकरंगापन कपड़ों के और लोगों के भी रंग-बिरंगेपन से ढंक जाता। काली रैगजीन से मढी सीटें आरामदेह तो थीं लेकिन उनकी स्याही इक्ट्ठी हो कर हल्की हल्की दूधिया रोशनी पर भारी सी पड़ रही थी। जिन एयर-होस्टेसों ने विमान में घुसते ही स्वागत किया था, उनकी यूनिफॉर्म के शोख नारंगी रंग के आस-पास होने के अहसास ने जरूर सीटों के रंग की स्याही को कुछ कम किया। लैपटाप लगेज-लाकर के हवाले कर, बैठ ही रहा था कि मेरी नजर एकाएक बाहर की ओर गयी, सूरज छुट्टी कर धीरे धीरे घर जाने के मूड में... हवाई जहाज की खिड़की से सूर्यास्त कुछ अलग दिखता है। लगता है जैसे आप यहाँ दौड़ रहे हैं और कुछ दूर दौड़ रहा है कोई दोस्त सारी दीवार पर ब्रश से केसरिया रंग करता हुआ। सूरज का रंग किसी एक जगह डूबता हुआ लगता ही नहीं, एक लंबी सी लकीर के समानांतर चले जाते हैं आप। वह क्षितिज यदि दीवार हो और नारंगी रंग की यूनिफॉर्म पहने एयर-होस्टेस उसके समानांतर दौड़ रही हो तो भी शायद दूर से ऐसी ही लकीर दीवार पर खिंचती दिखेगी।
मेनू में एयरोफ्लोट की एक स्पेशल वाइट वाइन का जिक्र था, सोचा पता नहीं इतनी कम दूरी की घरेलू उड़ानों में सर्व करते भी होंगे या नहीं... वैसे भी आप मानें ना मानें आलम अभी तक यही है कि फाइव स्टार होटल हो या हवाई जहाज...बंदे को ठेठ मध्यवर्गीय कस्बाई किस्म का डर लगता है, एग्जीक्यूटिव क्लास में तो और भी ज्यादा। पता नहीं अपनी कौन सी बात गुस्ताखी मान ली जाए और एयर होस्टेस बहनजी उड़ते हवाई जहाज का दरवाजा खोल कर अपन को बाहर का रास्ता दिखा दें। साठ के दशक की फिल्म ‘ राम और श्याम’ में दिलीपकुमार देहाती राम के अवतार में शहर के एक रेस्त्रां में जाते हैं और भर्राई कांपती आवाज में खाने को कुछ मांगते है, उसी तरह अपन ने कहा, ‘क...क...कैन आई हैव दिस वाइट वाइन....

‘ऐंड वाय नॉट, सर...यू आर अवर स्पेशल गेस्ट टुडे...दि ऑनली पैसेंजर इन दिस क्लास...’

मेरी घबराहट उसकी अनुभवी निगाहों से छुपी थोड़े ही रही होगी। वह थी कोई चालीस साल की महिला। देह एकदम कसी हुई, उम्र का अहसास केवल त्वचा से जिसे जबरन कमउम्र दिखाने की कोशिश नहीं की गयी थी। पकते बालों को रंगने की कोई कोशिश नहीं की थी उसने । नारंगी रंग की ट्यूनिक के नीचे से झांकता सफेद शर्ट का गला, जिसके ऊपर स्कार्फ के कोने में धागे से कढ़ा ‘एयरोफ्लोट’ पढ़ा जा सकता था, टाइट स्कर्ट।

आत्म-विश्वास छलकाती फुर्तीली देह। मेकअप बहुत ही कम बोलता हुआ।
मेरी घबराहट ने आत्म-विश्वास से भरी उस महिला को मन ही मन हँसाया तो होगा ही...

इस भोंदू से यात्री को उसकी माँगी वाइन सर्व कर पाने का सुख, इतनी हिचक के साथ कुछ माँग रहे मनुष्य को कुछ दे पाने का सुख उसकी अतिरिक्त फुर्ती में बदला। गयी, वाइन लेकर आयी, मेरी टेबल पर रखने को झुकी और उसी अतिरिक्त चपलता से सीधी हो ही रही थी कि... सर का पिछला हिस्सा लगेज लाकर से टकराया, ज्यादा चोट तो खैर नहीं लगी, फिर भी...मुँह से सिसकारी तो निकल ही गयी....

मेरा हाथ बस अपने आप उसके सिर के चोटिल हिस्से पर जा पहुँचा, हौले हौले उसे दबाते हुए, राहत देने की कोशिश करते हुए...बहुत मुलायम थे उसके बाल, उनके घनेपन का पार करता मेरा स्पर्श उसे शायद जितनी राहत दे रहा था, उससे कहीं ज्यादा दे रहा था, अपरिभाषित दोस्ती का अहसास । मैं सोच-समझ कर कुछ नहीं पहुंचा रहा था। ना कोई सभ्य संकेत ना कोई भद्दा इशारा। मेरा हाथ तो बस सहज अधिकार से, बचपन की किसी दोस्त के दीवार से जा टकराए सर को दबा रहा था कि चल कोई खास चोट नहीं है, ले यह ठीक हो गया दर्द, आ फिर से शुरु करें खेल... दो पल वैसे ही झुकी खड़ी रही, मेरे स्पर्श को लेती हुई, उन दो पलों में होंटों से केवल मुस्कान के जरिए कहती हुई... थोड़ा सा और दबाओ न प्लीज अच्छा लग रहा है, फिर खेलते हैं...

मेरा हाथ जिस पल उसके सर की ओर बढ़ा, उस पल बुरा या अटपटा लगा हो उसे शायद। हो सकता है उसने ट्रेनिंग के सबक याद किए हों कि अनावश्यक दोस्ती गाँठने की कोशिश करने वाले यात्रियों को सभ्य और संयत तरीके से कैसे निपटाया जाए...

लेकिन मेरी आँखों में कुछ रहा होगा, मेरी सकुचाई हुई सी मुस्कान में कुछ रहा होगा कि उसके होंटों पर भी वैसी ही निश्छल मुस्कान खिल गयी। उसी मुस्कान ने तो कहा उसकी देह से कि झुकी रह और मुझ से कि दो पल और रखे रहो अपनी अंगुलियों का स्पर्श मेरे सर पर...

जो वाइन वह दे कर गयी थी वह कहने को वाइट वाइन थी, लेकिन असल में उसकी रंगत सुनहली थी। सीटों के जिस स्याह रंग से कुछ ऊब हुई थी, उस पर जैसे सुनहली टुकड़ियों ने हल्ला सा बोल दिया था। खिड़की के बाहर सूर्यास्त का रंग, एयर-होस्टेस की यूनिफॉर्म का रंग और अब इस वाइन का रंग....और स्वाद सचमुच अनोखा, ऐसा कि जीभ पर रखे रहने का ही मन करे, हलक के नीचे उतारने का जी न करे...

दो घंटे की फ्लाइट के बाद उस महिला को कभी नहीं देखा, देखूंगा भी कहां और क्योंकर...सच यह है कि देखूं भी तो पहचान नहीं पाऊंगा। वह भी मुझे नहीं पहचान पाएगी। चेहरा नहीं; याद है तो, केवल वह दोस्ती भरी, अधिकार भरी झुकन याद है, केवल वह कृतज्ञ मुस्कान याद है, और ताउम्र रहेगी। उसके चोटिल सर का स्पर्श याद है। मेरी अंगुलियों के हल्के दबाव से जो राहत उसे पहुँची होगी, उस राहत की कल्पना याद है। राहत पहुंचाने की कोशिश और उस कोशिश को लिए जाने की सहजता का स्पर्श अभी भी अनामिका और मध्यमा पर कौंध जाता है बीच बीच में।

मेरे भोंदूपन को, वाइन माँगने में मेरी हिचक को प्यार से समझा तुमने... शुक्रिया.. शुक्रिया कहा था मैंने अपनी इन दो उंगलियों से। मेरी उंगलियां तुम्हारे सर पर जा पहुँची सहज भाव से...इसके लिए शुक्रिया कहा था तुम्हारी मुस्कान ने...एक शब्द भी न तुम्हारे मुँह से निकला था न मेरे मुँह से...

उसके दर्द को थोड़ा सा कम कर पाने का, दर्द के पल में किसी के साथ हो पाने का यह संतोष रोजमर्रा की जिंदगी के धुंधले विस्तार में चमक उठता है कभी कभी--- जुगनुओं की सुनहली कौंध के मानिंद...जब बहुत घिर जाता हूं अपने और दूसरों के छोटेपन, खुंदकों, झल्लाहट और ट्रेड-ऑफ रिश्तों के अंधेरों से तो ये जुगनू चमक कर याद दिलाते हैं वह मुस्कान.., वह चेहरा जो वैसे याद में नहीं है, इन जुगनू पलों में अपनी याद आप रच लेता है, अंधेरा कुछ तो कम लगता है, मन करता है इन अंगुलियों पर, इन हाथों पर इन यादों में और भी जुगनू झिलमिलाएं...

आसमान में खामोश, मुस्कराती आँखों से सुनी आवाज आसमानी आवाज बन कर गूंज उठती है मेरे मन के मौन में—स्पासीबा...

और वहीं से, मेरे मन के उसी मौन से आता है जबाव भी- स्पासीबा, दस्वीदानिया...
                                 
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Sunday, January 27, 2013

मनीषा कुलश्रेष्ठ से एक आत्मीय मुलाकात में हुई बातचीत....

मनीषा कुलश्रेष्ठ       
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'कठपुतलियाँ' 'शालभंजिका' 'केयर ऑफ़ स्वात घाटी' ' बौनी होती परछाई ' , 'गन्धर्व-गाथा' शिगाफ' जैसे कहानी संग्रह , लघु उपन्यास और 'शिगाफ़' जैसे चर्चित उपन्यास से साहित्य जगत में बहुत ही कम समय में अपनी एक अलग पहचान बना चुकी सहज,सरल, सहृदय और विनम्र कथाकार मनीषा कुलश्रेष्ठ से कहीं ना कहीं कविता-पाठ में अक्सर मुलाकात हो जाती है. कथाकार के साथ-साथ वो एक कुशल गृहिणी, कवयित्री ... और चित्रकार भी हैं. 

अक्सर जब भी उनसे फ़ोन पर बात होती तो वो मुझे बहुत ही आत्मीय भाव से अपने घर आमंत्रित करतीं , एक दिन उनसे मिलने उनके घर भी गयी , एक अद्भुत अनुभव था उनसे मिलना , जैसा संवेदनशील उनका लेखन है वैसी ही वो स्वयं भी हैं.

कुछ देर उनके घर उनके साथ समय बिताकर उन्हें बहुत करीब से जानने का मौका मिला, उन्होंने मेरे लिए चाय स्वयं ही बनायीं , चाय बनाते समय वो अपनी मेड की बेटी छुटकनी का जिक्र करते हुए भावुक हो गयीं थी, छुटकनी की कहानी भी 'फर्गुदिया' की जैसी थी .

बालकनी में चाय की चुस्कियों का मज़ा लेते हुए वो अपनी शादी का जिक्र करते हुए बिलकुल छोटी बच्ची सी लग रहीं थी, शादी के पहले मनीषा ने अंशु जी से मजाक में जिक्र किया होगा कि 'मुझे तो बिना सास वाली ही ससुराल चाहिए थी' वो वाकया सुनाते हुए उनके चेहरे पर एक शरारती मुस्कान दौड़ गयी थी लेकिन दूसरे ही पल सासू माँ के ना होने पर शादी के बाद उन्होंने किन कठिनाइयों का सामना किया वो सब याद करके ... अपनी सासू माँ को याद करके उनकी आँखें भीग गयीं थीं.

अभी हाल ही में उनके उपन्यास 'शिगाफ' को 'गीतांजलि लिटरेरी' एवार्ड मिला, 
जनवरी 2013  का 'लमही' अंक मनीषा कुलश्रेष्ठ  पर आधारित है.


उन्हें स्वयं लिखने की प्रेरणा कहाँ से मिली, लेखन विधा सम्बन्धी कुछ महत्वपूर्ण सुझाव गृहणियों के लिए, और भी बहुत कुछ है उनसे हुई इस बातचीत में ...
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जब भी आपसे मिलती हूँ , आपकी आँखों को पढ़ती हूँ, आपकी आँखें हर किसी के चेहरे और आँखों की कहानी पढने को आतुर नज़र आतीं हैं. ऐसा है क्या ?

मनीषा कुलश्रेष्ठ -
थोडा मुस्कुराते हुए .. – “ हाँ .. ऐसा है .. यहाँ दिल्ली कैंट के सदर में मैंने कल एक समोसे वाले को देखा, उसे देखकर मुझे ये लगा कि वो पूरा का पूरा एक कहानी का पात्र है, क्योंकि इतने बड़े और आधुनिक दिल्ली शहर के छोटे मोहल्ले में आस – पास के विकास से बेखबर, अमिताभ बच्चन जैसे बाल रखे समोसे बना रहा है और बड़ी लगन से बना रहा है. उसका लोगों को बड़े प्यार से खिलाना, मानो दुनियावी शातिरी उसे छू भी न गई हो. उसे देखकर मुझे लगा कि मैं अपने कस्बे में लौट आई हूँ. मै ने उसके पीछे एक कहानी का पात्र देखा और उत्सुकतावश दुबारा गई.

हाँ ..ऐसा है मैं हर व्यक्ति के पीछे की कहानी ढूँढने की कोशिश करती हूँ , मुझे मज़ा आता है, मुझे जो ऊपर दिखता है या दिखाया जाता है उसमें बहुत कम रूचि रहती है, मुझे बर्फ के नीचे के जीवन में ज्यादा रूचि रहती है. मेरे सामने मुखौटे चलते नहीं हैं, मैं प्यार से हटा कर कहती हूँ , “ हाँ अब बात करो.”


-आस-पास की घटनाओं और संगी-साथियों से जुडी बातों को लेकर क्या  हर समय कथा-कहानी-उपन्यास का एक खाका मन में तैयार होता रहता है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - नहीं .. ऐसा तो नहीं है कि हर समय मन में एक खाका ही तैयार होता रहे .. ज़िन्दगी में और भी चीज़ॆं हैं करने को. हाँ किसी भी कहानी का या नॉवल का एक प्रस्थान बिंदु होता है, वह जब सामने आता है तो जरुर उसके बाद वह कुलबुलाहट मेरे अन्दर रहती है, और तब उस पर कलम को चलना होता है, तो ज़रूर सोते-उठते हर समय वो खाका मेरे दिमाग में रहता है.


-शादी के पहले से लिख रहीं हैं, शादी के बाद ( जाहिर सी बात है ) कुछ समय के लिए लिखना छूटा होगा, एक लम्बे अंतराल के बाद फिर लेखन शुरू करने में किस तरह की दिक्कतें आई ..?
परिवार वालों खासतौर पर अंशु जी ने किस तरह आपका साथ दिया ..? या फिर जैसा कि आमतौर पर होता है " छोडो न यार ये सब करके अब ..क्या करोगी " ऐसा कहकर समझाने की कोशिश की ..? 

मनीषा कुलश्रेष्ठ - शादी से पहले भी लिखती थी लेकिन पहचान एक छोटे स्तर पर ही मिली थी, आज जो इतनी बड़ी पहचान है वो नहीं बनी थी, हाँ ... शादी के बाद लम्बे अंतराल तक सब छूट गया था लेकिन मैंने मेरे नवजात बच्चों पर ..उनकी मुस्कान पर या प्रतीक्षा पर कविताएँ लिखकर अपनी उँगलियों को मैंने हरकत में रखा .. मैं डायरियां भी लिखती थी ..लेकिन लिखने को मैंने तब तक गंभीरता से नहीं लिया जब तक बच्चे स्कूल नहीं जाने लगे, जब वो स्कूल जाने लगे तब मैंने वेबसाइट शुरू की .. वेबसाइट शुरू की तो संपादकीय हमेशा मुझे ही लिखना होता था ... संपादकीय के साथ दोबारा से लिखना शुरू हुआ .


जहां तक अंशु की बात है तो हिंदी की पहली वेबसाइट बनाने में ही जिस व्यक्ति ने मेरा साथ दिया हो .. मेरे आगे कप्यूटर पर हिंदी की संभावनाओं की खिड़की ही जिस व्यक्ति ने खोली हो तो वो फिर पीछे कैसे हट सकता है ...उन्होंने मुझसे कभी नहीं ये कहा कि "छोडो न यार" बल्कि वो हमेशा मेरे साथ रहे, मेरे पहले पाठक और आलोचक भी.



- अब तक जितना भी मैंने आपको पढ़ा है उसके अनुसार कह सकतीं हूँ कि आप अपनी कहानियों में महिलापात्र को मर्यादित,संस्कारिक ढंग से पेश करती हैं , समकालीन लेखन और फ़िल्में पाश्चात्य संस्कृति को फ़ॉलो कर रहा है लिव-इन-रिलेशनशिप को कहानियों और फिल्मों में जायज ठहराना कहाँ तक उचित है , परिवार जैसी संस्थाएं वैसे ही टूट रहीं हैं, आने वाली पीढ़ी को ऐसी कहानियों और फिल्मों से क्या संदेश जा रहा है ..?

मनीषा कुलश्रेष्ठ - जहां तक मेरी नायिकाओं की बात है ..उस संकीर्ण अर्थ में मर्यादित तो नहीं हैं वे ! मेरा अर्थ मतलब उन्होंने मर्यादा ओढ़ी हुई नहीं है! वे जैसी हैं वैसी हैं. फिर कोई मैं आदर्श कथाएँ या प्रेरक गाथाएँ तो लिखने नहीं बैठी हूँ ना ! दरअसल नैतिकता और मर्यादा , गरिमा .. इन तीनों चीज़ों को अलग तौर पर देखतीं हूँ.. मर्यादा मेरे लिए ओढ़ी हुई चीज़ है, इसके आगे गरिमा मेरे लिए सबसे महत्वपूर्ण गुण है ..एक स्त्री की गरिमा क्या है ... नैतिकता के मापदण्ड सबके अपने अपने. हर समाज, हर व्यक्ति के. तो मेरी नायिकाएँ ओढ़ी हुई मर्यादाएं , नैतिकता नहीं लिए हुए हैं ... लेकिन हाँ .... परिवार संस्था में उनका विश्वास है ... क्योकि मेरा स्वयं का विश्वास है .. मुझे लगता है कि हम इतनी गुफाओं के आदिम जीवन और आरंभिक समूहों से लेकर आज तक न जाने कितनी सभ्यताओं को पार करके परिवार की इकाई तक पहुंचे हैं तो इस परिवार के होने में कितनी सारी सुरक्षाएं जुडी हैं, स्त्री और बच्चों की और स्वयं पुरुष की भी ... मैं इस परिवार की सुरक्षा में पुरुष को अलग नहीं कर सकती ....मैं पाती हूँ कि पुरुष भी घर में आकर परिवार की तरफ लौटकर स्वयं को बहुत सुरक्षित महसूस करता है .

लिव-इन-रिलेशनशिप और सिंगल मदर्स के कॉंसेप्ट के बारे में कहना चाहूंगी कि लिव-इन-रिलेशनशिप वापस जंगल की ओर, आदिम जीवन की ओर लौटना है, जंगल जहाँ एक बाघिन या एक चिड़िया अकेले बच्चे पालती है ... और उसकी मज़बूरी होती है अकेले बच्चे पालना ... आपने देखा होगा कि मादा को अकेले बच्चे पालने होतें हैं और या फिर बंदरों के झुण्ड को भी देखा जाए तो हमेशा उसमें मादाओं के साथ ज्यादती होती है ...उनके बच्चों के साथ ज्यादती होती है .. तो जब हम इतनी सभ्यताएँ पार करके आज हम समाज की विकसित अवधारणा तक पहुंचे हैं, परिवार की अवधारणा तक पहुंचे हैं तो वापस से हम अकेले क्यों हो जाएँ ...? और हम क्यों अकेले बच्चे पालें .. जब बच्चा पुरुष का और स्त्री दोनों का है ... तो स्त्री अकेले बच्चे क्यों पाले ... ? तो मेरे ख़याल से लिव-इन-रिलेशनशिप में स्त्री की ही अस्मिता की हानि है.

मैंने पढ़ी हैं वे कहानियाँ शोभा, इस विषय को एक कहानी की तरह प्रस्तुत करना ठीक है, कहानियों में समाधान और संदेश नहीं होते, कहानियाँ वहाँ पर ख़त्म हो जातीं हैं, जहां से संदेश शुरू होतें हैं, कहानी को बस कहानी की तरह ही पढ़ा जाना चाहिए . कहानियाँ तो एक दृश्य, एक स्थिति प्रस्तुत करती हैं, उनके पक्ष में तो पैरवी करता हुआ कोई लेखक लेखिका नज़र नहीं आता. बल्कि इस तरह की कहानियाँ लिखना तो एक तरह से चेताना ही हुआ समाज को. कहानीकार तट्स्थ होकर लिखता है, वह कोई पैरवी या समाधान नहीं देता. हाँ स्यूडो बोल्ड्नेस और दिखावटी आज़ादी से मुझे आपत्ति होती है.

और रही इस तरह की कहानियों और फिल्मों का आने वाली पीढ़ी के ऊपर प्रभाव पड़ने का तो पहले हम ये तो जान लें नई पीढ़ी कितना इन कहानियों को पढ़ती हैं... फिल्में जरूर देखती है.
 देखो शोभा हमने भी सब कुछ देखते, पढ़ते जीवन जिया...बने कि बिगड़े नहीं पता, फिर हर बच्चे के पास अपने एक पारिवारिक संस्कार होतें हैं, अगर वो संस्कार अच्छे हैं, बच्चे सुरक्षित हैं तो कहानी और फिल्मों का बच्चों पर ज्यादा असर नहीं पड़ता है, वे ऑबजेक्टिव हो कर सब देखते चलते हैं. और ये बनना – बिगड़ना रिलेटिव है. मेरी माँ के समय में बिगड़ने की परिभाषाएँ और थीं और हमारे समय में और, आजकल और...

मेरे घर में ही बहुत सारी बातों पर हम बच्चों से खुलकर बात करतें हैं ..जो कि अपने समय में सोच नहीं सकती थी कि अपने पिता से मैं ये बातें कर सकती थी ! मेरे पिता टी टोटलर थे, शादी के बाद घर में सजी हुई बार देख कर मुझे अजीब लगता था  लेकिन इस तरह सामने रखे होने पर भी मेरे बच्चों की इसमें कोई रूचि नहीं है, उनको पता है कि पापा भी सोशियली ड्रिंक करतें हैं.. कहने का मतलब ... सब कुछ संस्कारों पर डिपेंड करता है. मेरी बेटियों को आज़ादी है कि बाहर या छुप कर लड़कों से बात करने की जगह, हमारी उपस्थिति में घर पर आएँ उनके क्लासमेट या मित्र. इसलिए मुझे लगता है जितना चीज़ें ‘टैबू’ होंगी उतना उनकी ललक बढ़ेगी. इसलिए मेरे अनुसार युवाओं को सन्देश – देखो यह सब ज़माना है..अच्छा – बुरा. आप क्या चुनते हो यह आपके संस्कार !



- अक्सर शीर्ष पर बैठे लेखकों की उपलब्धियों के पीछे उनकी मेहनत,लगन और त्याग का जिक्र होता है ... वहीँ लेखिकाओं की उपलब्धियों के बारे में उन्ही शीर्ष पर बैठे लेखकों के कंधों की सीढ़ी का जिक्र किया जाता है ... आज आप स्वयं शीर्ष प़र बैठी लेखिकाओं में से हैं .. कैसा लगता है ऐसा सुनकर ... ?

Friday, January 25, 2013

कहानी - ताजमहल, चंद्रकांता






कहानी - ताजमहल     

"प्रेम, छल,समझौता,कायरता, समर्पण और साहस के भाव-बांधों में गुंथी हमारी कहानी 'ताजमहल' .मन की टूटन से अंतरात्मा के उद्घोष तक की एक अनवरत यात्रा है 'ताज़महल' हममें से बहोतों के चिर-परिचित अनुभवों/चरित्रों का प्रेषण है.खोजेंगे तो आपको अपनें निजी जीवन के कुछ सूत्र इसमें बिखरे मिल जायेंगे."
चंद्रकांता   

अपने रूठे हुए सपनों को मनाकर घर ले जाने आई हूँ ..चलो अब..सब ठीक हो जाएगा. हम साथ मिलकर समझायेंगे ना सबको ..प्रेम से..ये सब हमारे अपने हैं, समझेंगे हमें.
तुम सुन रहे हो ना ! कुछ तो कहो! अगर तुम्हें लखनऊ पहुंचना ही था तब बताया क्यूँ नहीं ! मेरे दस हज़ार रूपए बेकार करवा दिये. मैं यहाँ गोरखपुर से दिल्ली आ गया हूँ और तुम मेरे घर पहुँच गयी हो ! दूसरी तरफ से आक्रोश जाहिर करती बेतरतीब..डांटती सी, एक आवाज़ आई..और एक मौन ठहर गया सब तरफ़ ..मौन, जिसने वक्त को अपाहिज़ बना दिया था ..कुछ पल के लिए ही सही ..

हैरान प्रभा ने बुझी हुई आवाज़ में, कांपते होठों से कहा पैसा तो फिर आ जायेगा ब्रिज लेकिन जिंदगी नहीं..सवाल जिंदगी का है. और यह कहते वक्त, पिछले कुछ दिनों से समेट कर रखे गए बहुत से प्रश्न ..घुटन....टूटन....अजब सी बेचैनी और एक चिर-परिचित सी अजनबियत प्रभा के चेहरे पर एकजुट होकर बिखर आया सब. मानो उसकी छ-ट-प-टा-ती आशाओं को उसकी हिम्मत को वक्त अपने असामयिक दाँव-पेचों से ढहा देना चाहता हो.
प्रभा का मन सोफे की चारदीवारी तक सिमट गया. उसकी गहरी हरी कत्थई आँखों से पतझड़ टूटकर बरस रहा था..और मन को बचपन में एन.सी.ई.आर.टी की भूगोल की पुस्तक में पढ़े सदाहरित पर्णपाती ..आर्द्र..शुष्क वन ..कंटीली झाडियाँ..तूफ़ान-  झंझावात...मृदा अपरदन सब याद हो आया था. वक्त अपने पन्ने खुद पलट रहा था शायद उसे भी जिंदगी की परीक्षा में पास होने के लिए सब याद रखना पड़ता होगा ! .
पार्श्व में कहीं धीमे-धीमे रफ़ी की आवाज़ गूँज रही थी..आज कल में ढल गया दिन हुआ तमाम तू भी सो जा सो गयी रंग भरी शाम..’जीने की राह’ फिल्म का यह गीत हजारों बार ब्रिज से सुना था प्रभा ने, सुनती थी तो लगता था अब कोई आ गया है जो उसे हारने नहीं देगा उसके अधूरे रह गए सपनों को प्रीत के गुलाल में रंग देगा, लेकिन आज वह फिर से उसी मोड पर थी जहाँ से कभी ब्रिज ने उसका हाथ थामा था.

अपलक खुद ही को ताक रही थी..खुद के भीतर..चु-प-चा-प टपक रही थी वह ..महुआ सी. जैसे दूब में नहाई हुई मुलायम घास को किसी जानवर ने नोच-नोच कर उखाड़ डाला हो..कुछ इसी तरह उधड़ा हुआ सा महसूस रही थी वह खुद को. अब किसकी प्रतीक्षा करूँ??? ना कोई आवाज़ भीतर तक सुनाई दे रही थी और ना मन की तड़प बाहर आ रही थी. उसने अपनी ही एक गुमशुदा दुनिया बना ली थी वहाँ ..पुराने सोफे के उस कटे-फटे छिले हुए कोने पर..आपस में गुंथी हुई उसकी नाज़ुक हथेलियाँ ना मालूम कौन सी व्यथा बुन रही थीं..
रात की ख़ामोशी में डूबा चाँद खिड़की से टुकुर-टुकुर झाँक रहा था दो दिन हुए थे प्रभा को लखनऊ से वापस आये अब तक सुध-बुध ना थी. फिर से तोड़ दिये जाने की पीड़ा कागज़ पर उतार रही थी स्याही खत्म हो गयी लेकिन मन इतना भरा था की खाली ही नहीं होता था. वह लिखती ही जा रही थी बस..ये क्या किया ब्रिज! खुद को जहीन दिखने के लिए तुमने हमारी दुनिया को तमाशा बना दिया और उन खूबसूरत लम्हों को व्यभिचार जिन्हें मैंने तुममें जिया था..एक स्त्री के विश्वास का. उसकी निश्छल भावनाओं का बलात्कार किया है तुमने. तुम्हें खुद को सौंपा था संभाल कर रखने के लिए और तुम्हीं ने छल किया. और उस चाहना को भी घुन लगा दिया जिसकी अनुपस्थिति में तुमने हर बार मुझे उस अपराध का दोषी करार दिया जो मैंने किया ही नहीं था. तुम तो कहते थे की मैं तुम्हें नहीं समझती..तुम्हारे प्यार को नहीं समझती..आह! कितना सच कहते थे तुम.

बातों के कच्चे तो तुम थे ही ..चिढ़कर मैं तुम्हें हवाबाज़ कहती और जवाब में तुम अपनी परिचित सी हंसी हंस देते..कितना अविश्वास पैठा था तुम्हारी उस हंसी में ..तुमने प्रेम को ही शर्मसार नहीं किया कच्ची मिटटी से गढ़े गए उन सपनों को भी जूठा कर दिया जिन्हें ताजमहल की उस अल्हड़ बारिश में संग-ए-मरमर के श्वेत स्निग्ध मखमली पर्दों से छानकर कभी खुद तुम् ही ने आलिंगन किया था. तमाम कोशिशों के बाद भी हमारे तुम्हारे दरम्यां वो टूटी हुई कड़ियाँ कभी जोड़ ही नहीं पायी जिनके सूत्र तुम्हारे पास थे.


रात भर जलते-जलते नहीं मालूम आँखें कब बुझ गयीं प्रभा की. फ़रवरी के आखिरी बुधवार की शाम को ब्रिज से मिलना तय हुआ था लखनऊ से वापसी के दिन. तीन महीने जिस पल का इंतज़ार किया वह आया भी लेकिन आज उसका आना ठीक वैसा ही था जैसे फरियादी के मर जाने पर उसके केस की सुनवाई होना!
शाम भी आखिर आ ही गयी जब वक्त के इस पार अकेली वह थी और उस पार पद-प्रतिष्ठा के रथ पर सवार उसके सपनों को कुचल देने वाला शख्स ब्रिजेन्द्र चौधरी जो आज भारतीय प्रशासनिक सेवा का राजस्व अधिकारी बनकर आया था, जब-तब उससे प्रेम के दावे करने वाला ब्रिज नहीं.. कैसी हो प्रभा ! ब्रिजेन्द्र ने पूछा. इस वक्त उसके चेहरे पर पछतावे की एक भी रेखा नहीं थी.

तुम नहीं जानते, तुमने प्रेम की एक खूबसूरत इमारत को कब्रगाह कर दिया. एक बार कहा होता कि पैसा तुम्हारी जरुरत है; यकीन जानो, तुम्हारे विश्वास पर कभी दाग नहीं लगने देती. और तुम्हें, खुद ही सौंप देती उन हाथों में जिनमें चूडियों की धानी खनक नहीं नोटों से भरा वह संदूक था. मैं इंतज़ार करती रही..खुद को समझाती रही कि सब ठीक है..भर्राई हुई आवाज़ में, मन के आरोह-अवरोह को रोकते हुए प्रभा ने कहा..लेकिन कोई प्रतिउत्तर नहीं आया. पूरे चालीस मिनट की इस आधी अधूरी मुलाकात में बस यही बात हुई दोनों के बीच.
‘मेरी हसरतों का ताज एक करोड़ में बिक गया..’ कितने ही बसंत आये..कितने ही पतझड़ ठहरे और चले भी गए..लेकिन उन अजन्मे सपनों का चुराया जाना अब भी टीसता है. तुम्हारी इतनी हैसियत तो नहीं की तुम्हारे लिए मन की स्याही को घिसा जाए, तुम व्योम का वह हिस्सा भी नहीं कि जहां तलक पहुंचकर वापस ना आया जा सके..फिर भी, कुछ तो बात है तुममें ! तुम खास हो, ठीक वैसे ही जैसे किसी कहानी को आगे बढ़ने के लिए एक अंतराल पर कुछ घिसे पिटे डायलॉग की जरुरत पड़ती है और इसलिए जीवन के कुछ पन्नों पर तुम्हें दर्ज होना ही था.
... ... ...

चंद्रकांता      

Tuesday, January 22, 2013

नित्यानंद गायेन की कवितायें



नित्यानंद गायेन         

20 अगस्त 1981 को पश्चिम बंगाल के बारुइपुर , दक्षिण चौबीस परगना के शिखरबाली गांव में जन्मे नित्यानंद गायेन की कवितायेँ और लेख सर्वनाम, कृतिओर ,समयांतर , हंस, जनसत्ता, अविराम ,दुनिया इनदिनों ,अलाव,जिन्दा लोग, नई धारा , हिंदी मिलाप , स्वतंत्र वार्ता , छपते –छपते , समकालीन तीसरी दुनिया , अक्षर पर्व, हमारा प्रदेश , ‘संवदिया’ युवा कविता विशेषांक , कृषि जागरण आदि पत्र –पत्रिकाओं में प्रकशित .
इनका काव्य संग्रह ‘अपने हिस्से का प्रेम’ (२०११) में संकल्प प्रकाशन से प्रकशित .कविता केंद्रित पत्रिका ‘संकेत’ का नौवां अंक इनकी कवितायों पर केंद्रित .इनकी कुछ कविताओं का नेपाली, अंग्रेजी,मैथली तथा फ्रेंच भाषाओँ में अनुवाद भी हुआ है . फ़िलहाल हैदराबाद के एक निजी संस्थान में अध्यापन एवं स्वतंत्र लेखन. 


१.मैं भी पर्वत होना चाहती हूँ          




जारी है तुषारापात निरंतर

फिर हौसला न पस्त हुआ

पर्वत का

मैं भी पर्वत होना चाहती हूँ

हिम, बिजली और आंधियों से

लड़ते रहना है मुझे |






२. ताड़ का पेड़        

तालाब के किनारे

एक पेड़ है ताड़ का


जल दर्पण में दिखती है


परछाई ...


फैला कर अपने विशाल पत्तों को


वह करता है इजहार


अपनी खुशी का


क्यों दुखी है आइना देखकर


तमाम इंसान ?




३. साईकिल मरम्मत वाला     

साईकिल के हर पुर्जे से

वाकिफ़ है याकूब भाई


हथौड़ी, छैनी,पेचकस, ग्रीस


सब पहचानते हैं


उसके हाथों को


कभी नही करते नखरे


याकूब भाई


चेन कसता है


ग्रीस लगता है


मेरी बीमार साईकिल


स्वस्थ होकर शुक्रिया अदा करता है


साईकिल डाक्टर याकूब को ......||


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4- किन्तु फीका पड़ चुका है मेरा चेहरा ....


उन्होंने कहा

हम हैं भारतवासी

हमें गर्व है ..

मैंने कहा

मैं भी हूँ भारतवासी

और मुझे दुःख है देखकर

कुपोषण के शिकार बच्चों की तस्वीरें

सूखे शरीर ,चहरे पर झुर्रिओं के साथ

ज़हर के नीले रंग ढका हुआ

या फिर फंसी पर लटकता किसान 

होगा तुम्हें गर्व

पर मुझे खेद है

सीखनेखेलने की उम्र में

मजदूरी करता बचपन

मेरे देश में 

चमकता होगा

तुम्हारा राज्य
 ,
और देश

किन्तु फीका पड़ चुका है

मेरा चेहरा .....


5-

शिक्षक दिवस पर ..

हे गुरुवर




नित्यानंद गायेन
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Tuesday, January 15, 2013

"अनुगूंज" कार्यक्रम में अंजू शर्मा द्वारा प्रस्तुत कविताएँ


  • अंजू शर्मा            

       अंजू शर्मा ने इधर हिन्दी कविता संसार में अपनी  ऐसी उपस्थिति दर्ज की है जिसे लगातार रेखांकित किया जा रहा है, एक कार्यकर्ता के रूप में वह 'डायलाग' , लिखावट’ आदि कई संस्थाओं से जुड़कर दिल्ली की साहित्यिक सक्रियता में शामिल हैं जिसकी अनुगूँज अक्सर दूर तक सुनाई दे जाती है,  हाल ही में अंजू को 'इला त्रिवेणी सम्मान २०१२' से सम्मानित किया गया है। फर्गुदिया द्वारा आयोजित "अनुगूंज" कार्यक्रम में अंजू शर्मा द्वारा प्रस्तुत कविताएँ .



    जूते और विचार 
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    कभी कभी
    जूते छोटे हो जाते हैं
    या कहिये कि पांव बड़े हो जाते हैं,
    छोटे जूतों में कसमसाते पाँव
    दिमाग से बाहर आने को आमादा विचारों
    जैसे होते हैं,
    दोनों को ही बांधे रखना
    मुश्किल और गैर-वाजिब है,
    ये द्वन्द थम जाता है जब
    खलबली मचाते विचार ढूँढ़ते हैं एक
    माकूल शक्ल
    और शांत हो जाते हैं,
    वहीँ पाँव पा जाते हैं एक नया जूता.......

    (2)

    जूते और आदमी

    कहते हैं आदमी की पहचान
    जूते से होती है
    आवश्यकता से अधिक
    घिसे जाने पर स्वाभाविक है
    दोनों के ही मुंह का खुल जाना,
    बेहद जरूरी है
    आदमी का आदमी बने रहना,
    जैसे जरूरी है जूतों का पांवों में बने रहना,
    जूते और आदमी दोनों ही
    एक खास मुकाम पर भूल जाते हैं याददाश्त
    आगे के चरण में
    आदमी बन जाता है मुन्तज़र अल जैदी,
    और जूते भूल जाते हैं पांव और हाथ का
    बुनियादी फर्क..........



    • हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज
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      सोचती हूँ मुक्ति पा ही लूँ
      अपने नाम के पीछे लगे इन दो अक्षरों से
      जिनका अक्सर स्वागत किया जाता है
      माथे पर पड़ी कुछ आड़ी रेखाओं से

      जड़ों से उखड़ कर
      अलग अलग दिशाओं में
      गए मेरे पूर्वज
      तिनके तिनके जमा कर
      घोंसला ज़माने की जुगत में
      कभी नहीं ढो पाए मनु की समझदारी

      मेरी रगों में दौड़ता उनका लहू
      नहीं बना मेरे लिए
      पश्चाताप का कारण
      जन्मना तिलक के वाहक
      त्रिशंकु से लटकते रहे वर्णों के मध्य
      समय समय पर
      तराजू और तलवार को थामते
      वे अक्सर बदलते रहे
      ब्रह्मा के अस्पर्श्य पाँव में

      सदा मनु की विरासत नकारते हुए
      वे नहीं तय कर पाए
      जन्म और कर्म के बीच की दूरी का
      अवांछित सफ़र
      कर्म से कबीर और रैदास बने
      मेरे परिजनों के लिए
      क्षीण होती तिलक की लालिमा या
      फीके पड़ते जनेऊ का रंग
      नहीं छू पाए चिंता के वाजिब स्तर को

      हाशिये पर गए जनेऊ और शिखा
      नहीं कर पाए कभी
      दो जून की रोजी का प्रबंध,
      क्योंकि वर्णों की चक्की से
      नहीं निकलता है
      जून भर अनाज
      निकलती है तो
      केवल लानतें
      शर्म से झुके सर
      बेवजह हताशा और
      अवसाद

      बोझ बनते प्रतीक चिन्हों को
      नकारते और
      अनकिये कृत्यों का परिणाम भोगते
      केवल और केवल कर्मों पर आधारित
      उनके कल और आज ने
      सदा ही प्रतिध्वनित किया
      हमें बक्श दो मनु, हम नहीं हैं तुम्हारे वंशज ....

      • एक स्त्री आज जाग गयी है
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        (1)
        रात की कालिमा कुछ अधिक गहरी थी,
        डूबी थी सारी दिशाएं आर्तनाद में,
        चक्कर लगा रही थी सब उलटबांसियां,
        चिंता में होने लगी थी तानाशाहों की बैठकें,
        बढ़ने लगा था व्यवस्था का रक्तचाप,
        घोषित कर दिया जाना था कर्फ्यू,
        एक स्त्री आज जाग गयी है.............

        (2)
        कोने में सर जोड़े खड़े थे
        साम-दाम-दंड-भेद,
        ऊँची उठने को आतुर थी हर दीवार
        ज़र्द होते सूखे पत्तों सी कांपने लगी रूढ़ियाँ,
        सुगबुगाहटें बदलने लगीं साजिशों में
        क्योंकि वह सहेजना चाहती है थोडा सा प्रेम
        खुद के लिए,
        सीख रही है आटे में नमक जितनी खुदगर्जी,
        कितना अनुचित है ना,
        एक स्त्री आज जाग गयी है......

        (3)
        घूंघट से कलम तक के सफ़र पर निकली
        चरित्र के सर्टिफिकेट को नकारती
        पाप और पुण्य की नयी परिभाषा की तलाश में
        घूम आती है उस बंजारन की तरह
        जिसे हर कबीला पराया लगता है,
        तथाकथित अतिक्रमणों की भाषा सीखती वह
        आजमा लेना चाहती है सारे पराक्रम
        एक स्त्री आज जाग गयी है.............

        (4)
        आंचल से लिपटे शिशु से लेकर
        लैपटॉप तक को साधती औरत के संग,
        जी उठती है कायनात
        अपनी समस्त संभावनाओं के साथ,
        बेड़ियों का आकर्षण,
        बन्धनों का प्रलोभन
        बदलते हुए मान्यताओं के घर्षण में
        बहा ले जाता है अपनी धार में न जाने
        कितनी ही शताब्दियाँ,
        तब उभर आते हैं कितने ही नए मानचित्र
        संसार के पटल पर,
        एक स्त्री आज जाग गयी है.............

        (5)
        खुली आँखों से देखते हुए अतीत को
        मुक्त कर देना चाहती है मिथकों की कैद से
        सभी दिव्य व्यक्तित्वों को,
        जो जबरन ही कैद कर लिए गए
        सौपते हुए जाने कितनी ही अनामंत्रित
        अग्निपरीक्षाएं,
        हल्का हो जाना चाहती हैं छिटककर
        वे सभी पाश
        जो सदियों से लपेट कर रखे गए थे
        उसके इर्द-गिर्द
        अलंकरणों के मानिंद
        एक स्त्री आज जाग गयी है...........

      Friday, January 11, 2013

      'इनकी भी सुनें ' कार्यक्रम की रिपोर्ट



      ये घरों में साफ़ - सफाई और दूसरे कई तरह के घरेलू काम करतीं हैं,आमतौर पर हर रोज सुबह ऑफिस जाने वाले लोग सैर पर या एक्सरसाईज के लिए घर से बाहर जातें हैं उस समय ये अपने घर का काम ख़त्म करके इनके घरों में काम कर रहीं होतीं हैं, इनके खुद के बच्चे भी स्कूल जातें हैं, लेकिन ये रोजी-रोटी के लिए दूसरों के बच्चों का टिफिन तैयार करने के लिए अपने बच्चों को छोड़कर दूसरों के घरों में काम करने आ जातीं हैं | घरों में काम करने वाली इन महिलाओं की बहुत सारी समस्याएँ होती हैं, शारीरिक रूप से तो ये कमजोर होतीं ही हैं, मानसिक रूप से भी इन्हें अपने मालिकों के तानों या काम से वापस घर लौटने पर पति द्वारा की हुई पिटाई करके प्रताड़ित की जाती हैं, आर्थिक तंगी .. सरकार द्वारा मिले अधिकारों से अनभिज्ञ अपनी जीविका चलाने के लिए ये महिलाऐं मजूबर हैं कम वेतन में अथक परिश्रम करने के लिए .

      विगत दिनों ४ नवम्बर को   नयी दिल्ली के कीर्ति नगर पुलिस स्टेशन के पास एक पार्क में इनकी इन्ही समस्याओं को सुनने के लिए और इन्हें समझने के लिए फर्गुदिया समूह द्वारा एक आयोजन 'इनकी भी सुनें '
        किया गया, लगभग चालीस से भी अधिक घरों में काम करने वाली महिलाओं ने इस आयोजन में भाग लिया, सबकी अपनी अलग-अलग समस्यें थीं.

      उनमें से एक महिला ने बताया की अगर थोड़ी भी देर हो जाए तो मालकिन उसे अपमानित करती है, बीमारी-हजारी में छुट्टी करने पर निर्धारित तनख्वाह में से पैसे काट लिए जातें हैं .

      वेतन और मालिक की परेशानी से अलग परेशानी का जिक्र एक महिला ने किया, उसने बताया कि इतनी महंगाई में वो झुग्गी का किराया बारह सौ रुपये देती है, ब्लैक में सिलेंडर भी बारह सौ रुपये का ही लेना पड़ता है जबकि महीने भर की आमदनी होती है तीन हजार रुपये.

      पूनम और बहुत सारी महिलाओं की एक सामान समस्या थी, उन सभी के राशन कार्ड नहीं थे, न ही उन्हें ये जानकारी थी कि राशनकार्ड कैसे और कहाँ बनतें हैं.

      आर्थिक तंगी तो थी ही कुछ ने अपनी घरेलू समस्याओं का भी जिक्र किया, जैसे_ पति शराब पीता है और शराब के नशे में उनकी पिटाई भी करता है .

      कुछ महिलाओं को स्वास्थ्य सम्बन्धी ऐसी समस्याएँ थी जिनकी तरफ हमने उनका ध्यान खिंचा, दाँतों से सम्बंधित गंभीर बीमारी से ग्रसित महिलाओं की उसके घातक परिणाम के बारे में बताया गया , ( विदित हो की साधारण समझी जाने वाली दांतों की बीमारी से रोगी की जान भी जा सकती है ) 

      घरों में काम करने वाली करीब चालीस महिलाओं की समस्या हमने सुनी ... उनकी समस्या सुनते हुए जब हमने उनसे ये कहा कि "हम भी आपकी ही तरह हैं .. हम भी काम करतें हैं .. आपसे अलग नहीं हैं " तब उन महिलाओं के चेहरों पर आया आत्मविश्वास वहां उपस्थित सभी लोगों ने देखा, छोटे - छोटे उपहार पाकर ये सभी बहुत खुश थीं .

      कुछ की समस्याओं का समाधान उसी समय सलाह और सुझाव देकर कर दिया गया, कुछ महिलाऐं जिनके पास राशनकार्ड नहीं हैं उन्हें राशनकार्ड बनवाकर दिए जायेंगें, झुग्गी में रहने वाली कुछ घरेलू महिलाएं जो सिलाई सीखना चाहती हैंउन्हें सिलाई सिखवाया जायेगा . फर्गुदिया समूह के सदस्य मिलकर उनके लिए और भी कई योजनाएं बना रहें हैं जिससे वे आर्थिक रूप से समृद्ध होंगी .. शिक्षित होंगी .. अपने अधिकारों के प्रति जागरूक होंगी .


      फर्गुदिया संचालिका
      शोभा मिश्रा

      Tuesday, January 08, 2013

      'एक समाधान कि प्रतीक्षा' भाग-चार , उपासना सैग


      उपासना  सैग                  

      समाज बदल रहा है ... मानसिकता बदल रही है ... लेकिन दामीनी जैसी लड़कियों को स्वीकारने के सवाल पर लड़कों ने गोल-मोल जवाब क्यों दिए ...?? 






      दामिनी के साथ घटी दुर्घटना और उसका चले जाना ...सारे भारत को झंझोड़ कर रख दिया। लेकिन मुझे लगता है कि सिर्फ झंझोड़ा ही है , नींद से जागना अभी बाकी है शायद,नहीं तो हर रोज़ ऐसी ही घटना फिर से सुनने में नहीं आती। 
      मैंने मेरे आस -पास की महिलाओं - लड़कियों और कुछ पढ़े लिखे लड़कों से भी बात की,जिसके  संदर्भ में अधिकतर महिलाओं का यही कहना है कि लड़कियों का इस तरह रात को बाहर निकलना सही नहीं है। वे अपनी बेटियों को कदापि ऐसे बाहर नहीं जाने देगी , जब तक वे उनके सामने है,और जब बाहर पढने भेजेंगी तो भी एक बार यही सख्त ताकीद करेगी के वे बाहर ना निकले।
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      नीलम सीकरी ने कहा कि  उनको 16 दिसम्बर की घटना टीवी से मालूम हुई  और उनको जान कर बहुत दुःख हुआ कि  कोई कैसे इस तरह की दरिंदगी कर सकता है।

      छेड़खानी की घटना के बारे में नीलम कहती है कि  महिलाओं को ऐसी स्थिति से दो-चार होना पड़ता है तो सबसे बेहतर यही है कि इग्नोर कर दिया जाये, बात बढाने  में कोई फायदा नहीं है,उनके अनुसार लोग बात ही बनाते है औरत में ही नुक्स ढूंढते है तो चुप्पी ही बेहतर है।

      वह सेक्स-एजुकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल करने के  विरोध में है, क्यूंकि जो प्रकृति प्रद्दत है उसका समय से पहले ज्ञान क्यूँ।

      जहाँ तक लड़के - लड़कियों की परवरिश में भेद -भाव की बात है वह नीलम नहीं जानती क्यूंकि वह स्वयं दो बहने रही है और उनके खुद के दो बेटे हैं।

      नीलम का मानना है कि  कोई भी लड़की जब ऐसी घटना से गुजरती है तो उसे मानसिक तौर से सहारे की ज्यादा जरूरत होती है तो वह उसकी सहायता जरुर करेगी।

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      पूजा सहारण , जो कि  एक ग्रामीण क्षेत्र के सरकारी स्कूल की प्रिंसिपल है , ने बताया के उन्होंने यह खबर अखबार में पढ़ी और ज्यादा गौर नहीं किया क्यूंकि ऐसी घटनाये बहत आम हो गयी और आम भारतीयों की तरह उसकी भी संवेदनाये मर चुकी है,लेकिन जब बहुत हंगामा हुआ तो उसने भी ध्यान दिया। वह इस घटना की बहुत निंदा करते हुए कहती है की हम भारतीयों  में अब जान ना रही।

      छेड़खानी की घटना के बारे में उसका कहना है कि यदि उसकी नज़रों के सामने कोई ऐसी घटना होती है तो वह उसका विरोध करेगी और जो लोग देख रहें  हों उनको भी अपने साथ विरोध में शामिल होने को कहेगी,क्यूंकि ऐसे तो किसी की भी बेटी सुरक्षित नहीं रहेगी।

      सेक्स-एजुकेशन को पाठ्यक्रम में शामिल करने की बात करने पर वह सहमत नहीं है, वह कहती है कि जितना ज्ञान आज कल के बच्चों में है वह बड़ों से भी ज्यादा है, वह कहती है कि रोज़ उसे सुबह आकर स्कूल के शौचालय की दीवारें साफ करवानी पड़ती है क्यूँ कि उन दीवारों पर बहुत सारा ज्ञान चित्रों के माध्यम से उकेरा होता है,उन्होंने यौन-शिक्षा की बजाय नैतिक शिक्षा देने पर अधिक जोर दिया है।

      उसके एक बेटी और एक बेटा है वह दोनों में कोई भेदभाव नहीं रखती और सामान व्यवहार और शिक्षा देने पर ही जोर देती है, लेकिन यह भी मानती है की लड़कियों को सावधान तो रहना ही चाहिए।

      पूजा ने कहा कि वह पीड़ित लड़की के लिए कोई भी सहायता करने को तैयार है,उसको यह भी समझाने की कोशिश करेगी के जो हुआ उसमे उसका कोई 
      दोष नहीं था।

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      गृहिणी संतोष सियाग का कहना है , उसे यह खबर टीवी और समाचार पत्र दोनों से मिली। उसे यह सब जान कर बहुत दुःख हुआ और उसकी मांग है के दुराचारियों को सख्त सजा मिले।

       वह   कहती है कि  अगर उनके  सामने ऐसी कोई घटना घटती है तो वह पूरी कोशिश करके रोकने की कोशिश करेगी और जो गलत हरकत करेगा उसे समझाएगी और ना समझे तो थप्पड़ भी लगा सकती है।

      वह अपने बच्चों में लिंग भेद नहीं करती,सामान रूप से प्यार और शिक्षा का समर्थन करती है।

      संतोष को भी सेक्स- एजुकेशन पाठ्यक्रम में लगाये जाने का विरोध है।

      दामिनी जैसी किसी भी लड़की को वह मानसिक संबल देने को तैयार है और उसके परिवार को भी समाज से कट कर ना रहने का सुझाव देतीं हैं ।

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      बी . ए . प्रथम वर्ष की छात्रा विभु को इस  घटना  का टीवी के माध्यम से पता चला, उसे बहुत दुःख हुआ।

      वह महीने में लगभग दो बार अपने  घर जाती है तो बस से सफर के दौरान छेड़खानी की समस्या से दो-चार होती ही रहती है। उसका कहना है, लोगों के पास इतने तरीके हैं छेड़ने के , शरीर को स्पर्श करने के , कि  उसे सोच कर भी हैरानी होती है। उसने बताया , एक तरफ तो बेटा  कहेंगे और दूसरी तरफ शरीर को स्पर्श करने का कोई मौका नहीं चूकेंगें  , जैसे पेंट की जेब से कभी रुमाल तो कभी मोबाईल या पैसे ही निकालने लगेंगे, जिस कारण अंकल जी की कोहनी उनके शरीर को छू ही जाती है चाहे कितनी भी सिकुड़ कर बैठो। 
      हालांकि घर आकर माँ को बताते हैं तो माँ कहती है जब कोई ऐसे करे , अंकल जी की तरफ के हाथ को कमर पर रख लिखा करो और लगे कि उनकी कोहनी आपको छूने वाली है तो जोर से उनकी कमर पर अपनी कोहनी मार दो वह बोलने लायक भी नहीं रहेगा और समझ भी जायेगा।

      विभु के भाई को ही डांट पड़ती  है विभु और उसकी बहन के कारण।

      विभु भी यौन - शिक्षा को पाठ्यक्रम के 
      लागू करने को सही नहीं मानती।


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      यह तो थी महिलाओं की बातें और उनके सुझाव और चिंताए। 

      यही  कुछ सवाल पुरुषों से भी किये गए तो कुछ जवाब तो सकारात्मक थे लेकिन छेड़खानी और रेप जैसी घटनाओं के सवाल का कोई जवाब नहीं मिला,पाठ्यक्रम में सेक्स-एजुकेशन यहाँ भी पसंद नहीं की गयी। 

      अमित सियाग जो अभी बी . टेक . की पढाई कर रहे हैं , उनसे  जब पूछा गया कि  अगर कोई बलात्कार पीड़ित लड़की हो और आपको उससे विवाह करना पड़े तो ..., उनका जवाब था मेरे माता -पिता चाहेंगे तो शायद ....यानि की गोल माल जवाब ...लेकिन जब उनसे पूछा गया की अगर आप पिता हो तो अपने बच्चे के लिए क्या फैसला लेंगे ...जवाब सच में लाजवाब करने वाला था , अगर उसका बच्चा चाहेगा तो जरुर शादी कर देगा। जवाब यहाँ भी गोल माल ही था लेकिन ईमानदारी भरा तो मिला ,यह नयी पीढ़ी की सकारात्मक सोच है।

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      उपासना सियाग 
      गृहिणी
      कवयित्री
      निवास : जयपुर
       प्रकाशित रचनाएँ: बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक,
       "स्त्री होकर सवाल करती है" और विभिन्न ब्लॉग पर,
      कविताएँ,कहानियाँ  प्रकाशित हो चुकीं हैं 



      Saturday, January 05, 2013

      'अनुगूँज ' कार्यक्रम में वंदना ग्रोवर द्वारा प्रस्तुत कविताएँ

       वंदना ग्रोवर    
        उर्दू शायरा
      कवयित्री

      हिंदी और पंजाबी में लिखी वंदना ग्रोवर जी की कविताएँ सहजता और सादगी से भरपूर हैं, इनकी कविताओं में शब्दों के स्वर बहुत धीमें और खूबसूरत होतें हैं ,  फर्गुदिया द्वारा आयोजित 'अनुगूँज' कार्यक्रम में वन्दना ग्रोवर द्वारा प्रस्तुत कविताएँ ...







      वे सुण        

      वे    
      सुण

      बड़ा रिस्की ज्या हो गिया ऐ
      सारा मामला
      हाल माड़ा ऐ मिरा
      जित्थे वेखां
      तूं दिसदा एं
      गड्डी दे ड्रेवर विच
      होटल दे बैरे विच
      दफ्तर दे चपरासी विच

      वे
      सुण

      एस तरां चल नी होणी
      जे आणा है ते आ फेर
      कदे लफ्जां दा सौदागर बण के
      उडीक रईं आं
      कदे पढ़ेंगा ते कहेंगा फखर नाल
      जिस्म औरत दा
      नीयत इंसान दी ते ज़हन कुदरत दा
      लेके जम्मी सी
      हक दे नां ते ज़ुल्म नई कीत्ता
      फ़र्ज़ दे नां ते ज़ुल्म सिहा नई

      वे
      सुण

      ना कवीं कदे जिस्म मैनू
      ना कवीं कदे हुस्न
      ना रुबाई ना ग़ज़ल कवीं
      बण जावांगी कुज वी तेरी खातिर

      वे
      सुण

      तेरे वजूद नू अपना मनया
      इश्क़ लई इश्क़ करना सिखया
      घुटदे साहां नाल
      क़ुबूल करना सिखया
      ते पत्थर हिक्क रखना सिखया

      वे
      सुण

      तू मैंनू मगरूर कैन्ना एं
      मैं तैंनू इश्क़ कैंनी आं

         **********

      आँखें बंद होती और  
      दुनिया के दरवाज़े खुल जाते
      आम बहुत ख़ास हो जाता
      अलफ़ाज़ सजे-धजे ,नए -नए
      खूबसूरत लिबास में
      ज़हन पर दस्तक देते
      वो अधमुंदी आँखों से पकडती ,
      दिल के करीब लाती
      महसूस करती
      साँसें रफ़्तार पकडती
      ज़हन जज़्बात बेकाबू हो जाते
      आँखें खुल जाती
      तब
      न अह्सास न अलफ़ाज़

      एक औरत
      बिस्तर पर दम तोड़ रही होती ..


           **********

      उबासी ने अंगडाई लेते हुए कहा
      कितने दिन हुए तुम्हे
      आँख बंद किये
      अपने दिल की सुने
      कितने अच्छे थे वो दिन
      जब शब्दों की दुनाली से
      ख्यालों को ज़मीनोंदाज़ कर दिया जाता
      अँधेरे मौसमो
      गहराते सायों को
      नेस्तनाबूद किया जाता
      तुम्हारे आत्म-समर्पण ने
      अलसा दिया है सपनों को
      अब ढूंढ रहे हैं
      आँखों की छाँव
      भटक रही हैं आँख
      भटक रहे हैं सपने
      ठहरी आँख को नहीं है कोई इंतज़ार
      न देखती हैं बाहर
      न देखती हैं भीतर
      अलसाए से लम्हे
      वक़्त से नज़रें चुराते
      दामन से लिपटे
      मासूम बच्चे की मानिंद बेखबर
      बैठे हैं देहरी पर
      तकते हैं राह
      कि बजेगा घड़ियाल
      और चल देंगे आगे
      कुछ भी तो नहीं होता
      रुक गया है सब
      सुनो !
      पलक को झपकने दो
      आँख को सोने दो
      सपनों को आने दो
      दुनिया को चलने दो
      फर्क पड़ता है
      तुम्हारे होने,
      न होने से



      *********

      घुटता है दम
      लरजता है कलेजा
      दरवाजे खोल दो

      मेरी सुबह को अन्दर आने दो

      खंजर लो
      उतार दो
      मेरे सीने में

      मुझे जीने दो


            *******

      अन्दर दा शोर एहना वध गिया है
      बाहर दीयां वाजां सुणाई नईं देंदीयाँ

      ओह कोल वी हैं ते हैं दूर वी बहुत
      उसदे आन दीयां आहटां सुणाई नईं देंदीयाँ

      मरण नूं जी ते नईं करदा हुन मिरा
      मैंनू आप्नियां सावां सुणाई नईं देंदीयाँ

      ज़ख्म दे रई है ज़द्दो-ज़हद आपणे नाल
      क्यूं किसे नूं कुरलाहटाँ सुणाई नईं देंदीयाँ

      ओ इश्क है मेरा, ओ ही रब्ब है मेरा
      क्यूं मेरियाँ फ़रियादां सुणाई नईं देंदीयाँ

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