Sunday, August 12, 2012

चेतना की 'मशाल' रोशन करती रितुर्पणा मुद्राराक्षस


रितुर्पणा मुद्राराक्षस
फ्रीलांस राईटिंग
कवयित्री, ब्लॉगर
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में लेख और कविताएँ प्रकाशित


छेड़-छाड़, मोलेस्‍टेशन और रेप जैसी घृणित अपराधों के जितने भी मामले सामने आते हैं उनमें कई बार आरोपियो की पहचान और उनके विरुद्ध कार्रवाई में बेवजह देरी से पीडि़ता की परेशानियां बढ़ती हैं... समाज भी ऐसे मामलों पर चुप्‍पी साध लेता है... पीडि़ता और उसका परिवार अकेले ही कोर्ट-कचहरी का झमेला झेलते हैं ओर दबंग फिर से किसी और को अपनी दबंगठ्र दिखाने के लिए मजे से बाहर घूमते हैं...
न्‍याय की यह प्रक्रिया इतनी लंबी होती है पीडित स्‍त्री के लिए यातना ही साबित होती है... जबकि, इस तरह के मामलों का तुरत-फरत निपटान होना चाहिए... लेकिन कैसे....? मेरा सुझाव है कि...

1. कंज्‍यूमर कोर्ट की ओर से स्‍त्री-उत्‍पीड़न के सभी मामलें एक विशेष कोर्ट में चलें..
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2. यदि सार्वजनिक स्‍थलों पर ऐसी घटना हो जहां चश्‍मदीद गवाह हैं तो फिर FIR कतई जरूरी ना हो... यानि आरोपियों को सीधे सजा हो...

3. इन मामलों में आरोपियों को (अग्रिम) जमानत हरगिज नहीं दी जाए..
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4 .छेड़-छाड़ जैसे मामलों के लिए भी न्‍यूनतम सजा की अवधि 7 साल या अधिक हो... और, इससे मुमकिन बनाने के लिए हमें मिलकर बदलाव की बयार लानी होगी ताकि शोषक को सजा मिले ना कि शोषित को...
दूसरी बात जिसे मैं यहां उठाना चाहती हूं वो सोशल मीडिया में पनप रहे मर्दवादी सोच की मुखालफत में है.. इन सोशल साईट्स पे स्‍त्री या पुरुष के भेद से परे अपनी बात कहने का हक सभी को है... होना चाहिए... लेकिन होता क्‍या है... आप को हमारे प्रोफाइल फोटो बदलने... हमारी पोस्‍ट पर आने वाले लाइक्‍स और कमेंट्स की संख्‍या पर आपत्ति है... क्‍योंकि हम स्‍त्री हैं... क्‍योंकि हम अपनी खूबसूरत प्रोफाइल फोटो लगाती हैं और उसे हम बार-बार बदलती रहती हैं... इसलिए हमारी पोस्‍ट पर लोग लाइक्‍स या कमेंट करने के लिए टूटे पड़ते हैं... यह आप के भीतर ऊनती पुरुषवादी, सामंती मानसिकता का नमूना भर है...क्‍यों भई... आप को आपत्ति क्‍यों है... चेहरा हमारा... फोटो हमारी... हमारा मन करेगा हम दिन में 24 बार अपनी प्रोफाइल पिक बदलेंगी...
आप के पेट में क्‍यूं दर्द होता है... और अगर 'so called intellectuals' पुरुष भी इस तरह की हीन-ग्रंथि से ग्रसित हों तो क्‍या कहा जाए... आप खुद ही सोचिए...

रितु  जी ने अपने इस वक्‍तव्‍य के बाद हमारे आग्रह पर अपनी दो कविताओं को हमसे शेयर किया...


1.
अपना आसमान खुद चुना है मैंने
आकांक्षाओं की पतंग का रंग भी
मेरी पसंद का है
डोर में बंधी चाहना की कलम से लिखी
इबारत में करीने से
'निजता' और 'खुदमुख्तारी' बुना है.
बुर्जुआ चश्मे पहन जिसे
'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
और घोषित करते हो सरेआम
कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
और रुग्ण सोच का
अमलगम
क्यों मेरी मनःस्विता पर गोदते हो?
बताओ तो!



 2. 'औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों...'

औरतें लिखती हैं कविताएँ इन दिनों
अंतरिक्ष के दायरे से बाहर फैले
अपने व्यक्तित्व के हिज्जे
कविताओं की स्लेट पर उड़ेलती हैं
कलम की नोंक पर
आसमान सिकुड़ आता है.

शब्दों की दहकती आंच में
मक्का के दानों सी भूंजती हैं अनुभव
फूटते दानों की आवाज़
स्त्री-विमर्श के आंगन में
गौरय्या सी फुदकती है.

पृथ्वी के केंद्र में
दरकती चट्टानों सी विस्फोटक है
औरतों के ह्रदय की उथल-पुथल
उनकी कविताओं की इबारतों में
यह लावा बनकर बहती है.

1 comments:

  1. 'स्वछंदता' और 'उद्दंडता' ही पढ़ते हो तुम
    और घोषित करते हो सरेआम
    कि खज़ाना और ज़नाना पर पर्देदारी वाजिब है.
    बर्बर शब्दों की पगडण्डी में दुबके चोटिल अर्थ
    और रुग्ण सोच का
    अमलगम
    क्यों मेरी मनःस्विता पर गोदते हो?
    बताओ तो!

    रितुपर्णा जी को सुनना एक सुखद अनुभव रहा उनकी बेबाकी और मुद्दे दोनों बहुत जरूरी हैं आज की स्त्री के लिए !

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