सुमन केशरी
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से ।
कविता संग्रह : याज्ञवल्क्य से बहस
संपादन : जे.एन.यू में नामवर सिंह
आजकल नेशनल डिज़ास्टर मनेजमेंट ऑथोरिटी में डाईरेक्टर हैं , कवि एवं शोधकारी , सामाजिक विषयों में बेबाक राय रखने वाली, स्त्री विमर्श में सर्वदा अलग विचार रखने वाली |
वरिष्ठ कवयित्रीसुमन केशरी अग्रवाल ने अपनी एक कविता 'धुंध में औरत' और 'औरत' के साथ अपनी बात रखी। अपने प्रभावशाली वक्तव्य में सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने कहा ...यूं तो समाज में हर स्तर पर असहिष्णुता और इसके फलस्वरूप हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं पर आधी आबादी कही जाने वाली औरतों के विरुद्ध हिंसा की घटनाओं और उनके स्वरूपों में जो बढ़ोतरी हुई है उनसे तो रोंगटे ही खड़े हो जाते हैं. आज औरतें घर की चारदीवारी से लेकर बाजार के चौक तक कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. और यह सब तब हो रहा है जब विकास की गाड़ी में स्त्रियाँ बराबर के पहियों की तरह हिस्सेदारी निभाने के लिए न केवल तैयार हो रही हैं बल्कि वे अपने पूरे वजूद के साथ अपने दायित्वों का घर और बाहर -दोनों धरातलों निर्वाह कर रही हैं. हर साल आने वाले बारहवीं के रिजल्ट और यहाँ तक कि सिविल सर्विसेज के रिजल्ट यही तो दिखा रहे हैं कि अब औरतें बराबरी से कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं , चल रही हैं.
तो फिर स्त्री के शरीर को एसिड से जला देने से लेकर जननांगो में पत्थर भर दिए जाने , सामूहिक बलात्कार और सरेआम एक साथ कई दरिंदों द्वारा मारपीट और नोच-खसोट तक की घटनाएं क्यों ? और इन सबके साथ ऐसे फरमान क्यों कि स्त्रियाँ जींस नहीं पहनेंगी, माथा ढकेंगी , मोबाईल का इस्तेमाल नहीं करेंगी और भाई, पिता, पति या पुत्र के साए तले ही घर से बाहर कदम रखेंगी .
ये सब घटनाएं और फ़रमान पितृसत्तात्मक मानसिकता के किस स्तर की सूचना देते हैं? ऐसा क्यों है कि जो समाज लड़कियों को पढ़ाने और उन्हें आर्थिक स्तर पर आगे आने के लिए रास्ता बनाता है वही उस स्त्री के तन और मन दोनों पर काबिज रहना चाहता है और उसे खुदमुख्तार नहीं बनने देना चाहता?
1-
धुंध में औरत
----------------
चीरती धुंध को
निकलती है एक अस्पष्ट आकृति
खुद को समेटे
चौकन्नी सी
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
बढ़ती है औरत
धुंध से धुंध तक
चीरती हुई
धुंध।
कुछ आहटें हैं पास
कहकहे लगातीं, आवाजें कसतीं
बुलातीं, मनुहार करतीं
काँपता है तन
पत्ते सा पतझर में
मन को समेटती
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
जा छिपती है औरत
धुंध में।
2-'औरत'
------------------
रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा,
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटिय़ाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।
शिक्षा : दिल्ली विश्वविद्यालय, जेएनयू और यूनिविर्सिटी आफ वेस्टर्न आस्ट्रेलिया से ।
कविता संग्रह : याज्ञवल्क्य से बहस
संपादन : जे.एन.यू में नामवर सिंह
आजकल नेशनल डिज़ास्टर मनेजमेंट ऑथोरिटी में डाईरेक्टर हैं , कवि एवं शोधकारी , सामाजिक विषयों में बेबाक राय रखने वाली, स्त्री विमर्श में सर्वदा अलग विचार रखने वाली |
वरिष्ठ कवयित्रीसुमन केशरी अग्रवाल ने अपनी एक कविता 'धुंध में औरत' और 'औरत' के साथ अपनी बात रखी। अपने प्रभावशाली वक्तव्य में सभी महिलाओं का प्रतिनिधित्व करते हुए उन्होंने कहा ...यूं तो समाज में हर स्तर पर असहिष्णुता और इसके फलस्वरूप हिंसा की घटनाएं बढ़ी हैं पर आधी आबादी कही जाने वाली औरतों के विरुद्ध हिंसा की घटनाओं और उनके स्वरूपों में जो बढ़ोतरी हुई है उनसे तो रोंगटे ही खड़े हो जाते हैं. आज औरतें घर की चारदीवारी से लेकर बाजार के चौक तक कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं. और यह सब तब हो रहा है जब विकास की गाड़ी में स्त्रियाँ बराबर के पहियों की तरह हिस्सेदारी निभाने के लिए न केवल तैयार हो रही हैं बल्कि वे अपने पूरे वजूद के साथ अपने दायित्वों का घर और बाहर -दोनों धरातलों निर्वाह कर रही हैं. हर साल आने वाले बारहवीं के रिजल्ट और यहाँ तक कि सिविल सर्विसेज के रिजल्ट यही तो दिखा रहे हैं कि अब औरतें बराबरी से कंधे से कंधा मिला कर चलने में सक्षम हैं , चल रही हैं.
तो फिर स्त्री के शरीर को एसिड से जला देने से लेकर जननांगो में पत्थर भर दिए जाने , सामूहिक बलात्कार और सरेआम एक साथ कई दरिंदों द्वारा मारपीट और नोच-खसोट तक की घटनाएं क्यों ? और इन सबके साथ ऐसे फरमान क्यों कि स्त्रियाँ जींस नहीं पहनेंगी, माथा ढकेंगी , मोबाईल का इस्तेमाल नहीं करेंगी और भाई, पिता, पति या पुत्र के साए तले ही घर से बाहर कदम रखेंगी .
ये सब घटनाएं और फ़रमान पितृसत्तात्मक मानसिकता के किस स्तर की सूचना देते हैं? ऐसा क्यों है कि जो समाज लड़कियों को पढ़ाने और उन्हें आर्थिक स्तर पर आगे आने के लिए रास्ता बनाता है वही उस स्त्री के तन और मन दोनों पर काबिज रहना चाहता है और उसे खुदमुख्तार नहीं बनने देना चाहता?
1-
धुंध में औरत
----------------
चीरती धुंध को
निकलती है एक अस्पष्ट आकृति
खुद को समेटे
चौकन्नी सी
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
बढ़ती है औरत
धुंध से धुंध तक
चीरती हुई
धुंध।
कुछ आहटें हैं पास
कहकहे लगातीं, आवाजें कसतीं
बुलातीं, मनुहार करतीं
काँपता है तन
पत्ते सा पतझर में
मन को समेटती
अपने पूरे वजूद से आहटों को सुनती
बेआवाज तेज कदम उठाती
जा छिपती है औरत
धुंध में।
2-'औरत'
------------------
रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा,
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटिय़ाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।
this is such a powerful poem that speaks of unfailing strength of a WOMAN. Who can make life out of every hardship with their determination, willingness and confidence.
ReplyDelete'औरत'
रेगिस्तान की तपती रेत पर
अपनी चुनरी बिछा,
उस पर लोटा भर पानी
और उसी पर रोटिय़ाँ रख कर
हथेली से आँखों को छाया देते हुए
औरत ने
ऐन सूरज की नाक के नीचे
एक घर बना लिया।
चंद्र स्त्री तत्व को इतनी गहनता के साथ समझने के लिए बहुत बहुत शुक्रिया
Deleteऐन सूरज की नाक के नीचे
ReplyDeleteएक घर बना लिया।
... क्रांति का आवाहन है !
कल 05/08/2012 को आपकी यह बेहतरीन पोस्ट http://nayi-purani-halchal.blogspot.in पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
आपका ब्लॉग बहुत अच्छा लगा.
Deleteवक्त की जरूरत है अब ये क्रांति, ये आवाज़ उठनी ही चाहिये।
ReplyDeleteदेखो तो कितनी हैरानी की बात है कि आज इन कमेंट्स को देख रही हूँ...सच में... आवाज़ को सराहने के लिए शुक्रिया
Deleteshukriya Yashwant ...
ReplyDeleteगहन भावों को लिए दोनों रचनाएँ ..... आभार
ReplyDeleteचिंतननोन्मुख करती रचनाएँ...
ReplyDeleteसादर।
शुक्रिया...मन वहीं रमता है मेरा...आपने जान लिया
Deletemarmik sashakt rachna .badhai aapko
ReplyDeleteशुक्रिया शशि जी, आपकी बात ध्यान में रहेगी लिखते हुए
Deleteइतनी सार्थक और मन को छू जाने वाले कमेंट दिए हैं आपने दोस्तों कि भीतर तक अभिभूत हूँ...मैं अपने लेखन में इन बातों का ध्यान रखूंगी...यह वादा रहा!
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