Sunday, August 26, 2012

"कठपुतलियाँ" - कहानी संग्रह , मनीषा कुलश्रेष्ठ

: मनीषा कुलश्रेष्ठ
एम.फिल (हिंदी साहित्य), विशारद (कथक)
पाँच कहानी संग्रह (बौनी होती परछाई, कठपुतलियाँ, कुछ भी तो रूमानी नहीं,केयर ऑफ़ स्वात घाटी, (गंधर्व-गाथा)
दो उपन्यास (शिगाफ़, शालभंजिका )
अनुवाद - 'माया एँजलू की आत्मकथा' वाय केज्ड बर्ड सिंग' के अंश, लातिन अमरीकी लेखक मामाडे के उपन्यास 'हाउस मेड ऑफ़ डान' के अंश , बोर्हेस की कहानियों का अनुवाद
पुरस्कार व सम्मान: 
चंद्रदेव शर्मा पुरस्कार - 1989 (राजस्थान साहित्य अकादमी ),
कृष्ण बलदेव वैद फेलोशिप -२००७, डॉ घासीराम वर्मा सम्मान -2009 ,
रांगेय राघव पुरस्कार वर्ष -2010 (राजस्थान साहित्य अकादमी) , कृष्ण प्रताप कथा सम्मान- 2012
शिगाफ़' का हायडलबर्ग (जर्मनी) के साउथ एशियन मॉडर्न लेंग्वेजेज़ सेंटर में वाचन
स्वतंत्र लेखन और हिंदी वेबपत्रिका 'हिंदीनेस्ट' का दस वर्षों से संपादन .



altकठपुतलियाँ : मनीषा कुलश्रेष्ठ 



सुगना जब-जब कोठरी के अंदर-बाहर जाती, दरवाज़े के पीछे लटकी कठपुतलियां उससे टकरा जातीं... उसे रोकतीं अपनी कजरारी, तीखी, फटी-फटी आंखों से, चमाचम गोटे के लहंगों वाली रानियां, नर्तकियां और अंगरखे-साफे वाले, आंके-बांके, राजा-महाराजा और घोड़े पर सवार सेनापति। ढोलकी वाला विदूषक और सारंगी वाली उसकी साथिन। दीवाना मजनूं और नकाब वाली उसकी लैला। कभी सुगना उदास होती तो इन कठपुतलियों का एक साथ ढेर बनाकर ताक पर रख देती और सांकल लगाकर गुदड़ी पर ढह जाती। कभी गुस्सा होती तो ज़ोर से झिंझोड़ देती सबके धागे। कुछ मटक जातीं, एक दूसरे में अटक जातीं। किसी नर्तकी की गर्दन उसी के हाथों में उलझ जाती। कोई राजा डोर से टूट मुंह के बल गिरा होता। ढीठ मालिन टोकरी समेत उसके ऊपर। प्यार आता तो उनके धागे सुलझाती, टूटे जेवर ठीक करती, उधड़े गोटे-झालर सींती या नए कपड़े बनाती।
कभी-कभी वह अपने हाथ-पैर देखती तो उसे लगता उनमें भी एक अदृश्य डोर बंधी है। उसे महसूस होता कि ये जो वक्त है न, नौ से चार बजे का, वह दो प्रस्तुतियों के बीच परदा डाल के मंच के पीछे लटका दी गई कठपुतली के आराम का समय है। अब होती हैं कुछ दीवानी कठपुतलियां, देह के साथ-साथ मन भी पसारने वाली। वह भी वैसी ही एक बावरी कठपुतली है... जो डोरों से मन को विलग कर नया खेल रचती है। सूत्रधार की समझ से परे का खेल। कुछ मौलिक कुछ अलग जो जीवन का विस्तार दे जिसमें उसकी अलग भूमिका हो, इंतज़ार करती बीवी, बच्चे पालती मां से एकदम अलग। अपनी देहगंध से बौराती, अपने मन से संसर्ग का साथी चुनती एक आदिम औरत की सी भूमिका। वह इन अनचाहे रिश्तों के डोरों से उलझकर थक गई है। ये रिश्ते जो उसके ख़ून तक के नहीं हैं। उसके ख़ून के रिश्ते तो कहीं दूर छिटक कर गिर गये हैं। छोटका भाई याद आता... किसी और ड्योढ़ी नाते बैठी मां याद आती। ऐसी ड्योढ़ी जहां से उसे कभी कोई बुलावा नहीं आने वाला। बापू होता तो उसकी कोई तीज यूं सासरे में बीतती?
कितना हंसी थी उसकी सहेलियां, जब उन्हें पता चला था कि उसका ब्याह गांव-गांव जाकर, स्कूलों, मेलों और त्यौहारों, शादी-ब्याह में कठपुतली का खेल दिखाने वाले के साथ तय हुआ है। `तुझे भी नचाएगा वो लंगड़ा कठपुतली बनाकर।' कहकर उसकी पक्की सहेली रूनकी हंसते-हंसते रो पड़ी थी।
धाक धिना धिन धा... चीं... चीं... चीं... अब आ रही है तुर्क के तैमूरलंग की सवारी... चूं च्यू धिन धिन धा...!
बापू तो कहीं और बात तय कर गये थे, वो जोगेन्दर था... दसवीं फेल था। जीन्स की पेन्ट और लाल कमीज पहनता और धूप का चश्मा लगाता। सब जोगी कहते। पर उनके आंखें मूंदते ही लेन-देन की बात पर बाई ने तीन साल पुराना रिश्ता तोड़ दिया। रिश्ता टूट गया तो जहन में गूंजता नाम भी पीछे छूट गया। तेरह साल की सुगना बाई का ब्याह तीस बरस के अपाहिज और विधुर कठपुतली वाले रामकिसन से हो गया। सुगना के सपने में पैर कटी कठपुतलियां आने लगीं। बापू के मरने के दो साल के अन्दर ही, उसकी बाई ख़ुद जाके पास के गांव के एक खेती-किसानी वाले दूसरी जात के आदमी के घर नाते बैठ गयी थी और अपने संबंध की जल्दी में सुगना का गौना पन्द्रह साल की होने से पहले ही कर दिया, बिना सगुन-सात, लगभग खाली हाथ भेज दिया सासरे। ज़मीन-घर सब बेच के छोटके को लेकर वह चली गयी।
घूंघटे में से ऊंटगाड़ी से उतर कर चलते हुए रामकिसन को देखा था... बलिष्ठ देह के होते हुए भी एक पैर पोलियो की मार ने पतला कर दिया था सो एक हाथ गोड़े पे टिका के हचक-हचक कर चलता था। यूं साइकिल भी चला लेता था... एक पैर से तेज़-तेज़ पैडल मारता, दूसरा पैर सहारे के लिए दूसरे पैडल पर बस ज़रा-सा टिकाता... यह छोटा पैर पहुंचता भी नहीं था दूसरे पैडल तक, पर सायकिल की गति में कमी नहीं आती।

पन्द्रह बरस की सुगना, सात और चार बरस के बंसी और नंदू, जिनकी वो मां बन गई थी। तोते की तरह `मां   , `बाई  ' रटते नंदू-बंसी। वह सोचती कि वो और उसका छोटका भाई तो बाई के सगे बालक थे... जब वो बाई के आगे-पीछे `मांए' या `बाई ए' कहते हुए घूमते तो बाई कितना रीस जाती... चिल्लाती... `चोप!' सुगना खीजती नहीं थी, पर सुनती भी नहीं थी। वह सोचती कि यह मुझे नहीं, बादलों के पार जा के बसी अपनी मां को पुकारते हैं अभागे।

सहज और अनुभवी रामकिसन ने कोई जल्दबाज़ी नहीं की... इस उन्मुक्त आत्मा को बांधने में। रामकिशन कठपुतलियों के डोरे कसने में माहिर था पर यह कठपुतली तो अद्भुत ही थी। दिन भर तो सोती, रात में भी आठ बजे ही सो जाती... रीत के चलते सात-आठ दिन तो सास ने घर का काम संभाला। नवें दिन मेंहदी फीकी होते ही सास चली गयी अपनी ढाणी पे। सुगना पर पूरी गृहस्थी का भार आ पड़ा। किसी तरह वह कच्चा-पक्का खाना बनाती, हाथ जलाती, छाछ ढोलती, साबुन दो दिन में खतम कर डालती। टाबरों को देर में चाय मिलती तो स्कूल छूट जाता। रामकिसन ने धैर्य नहीं खोया। ख़ुद जल्दी उठकर आधे काम निपटा देता। दोनों टाबरों को स्कूल छोड़कर अपना खाना बांध के, नई कठपुतलियों के सुलझे डोर साइकिल में लटकाता और लंगड़ाते हुए सायकिल पर उचक के बैठता और नौ बजे किसी गांव, मेले या फिर सम की ढाणी में टूरिस्टों के डेरों की राह लेता।

सुगना की हंसी बहुत मोहक थी। उसकी हंसी को डंस लिया था, शतरंज के घोड़े की तरह टेढ़ी चाल चलने वाले सर्प ने। सुगना अपने आप में एक प्राकृतिक मरुस्थलीय सौन्दर्य से भरा-पूरा दृश्य थी। रेतीले धोरों से उठती-ढहती देह की लहरें। लम्बी कद-काठी, सुता हुआ पेट। उस पर गहरे कुएं सी नाभि। मीलों दूर से, सिर पर एक के ऊपर एक तीन गगरियां उठा कर लाने के अभ्यास से चाल की धज देखते बनती थी। लंबी-पतली आंखों में काजल की खिंची हुई लकीर जहां जाकर खत्म होती थी, वहीं टिके थे गोदने के तीन नीले बिंदु। रूखे भूरे केशों में लगी चमकीली रंगीन चिमटियां। आगे के बालों में चोटी में गूंथा गया लाख का बोरला। पीछे चोटी में गिलट की चेन और घुंघरू वाली चोटी पिन। कस के बंधे बालों को भी उड़ा लिये जाती थी मरूधरा की बावरी हवा। चेहरे पर आ जाते बाल। वह खीज जाती।

बात देह की ही तो नहीं थी। मन भी उसका हरा-भरा नखलिस्तान था। कम बोलती, हंसती ज़्यादा। अतिरिक्त संवेदना उसके मन को आर्द्र करती थी, इसलिए बात-बात पर आंसू की झड़ी लग जाती। इसी अतिरिक्त संवेदना के चलते वह रूंखड़ों, पंछियों और डांगरों से बातें करती। उसे चिड़ियों की आवाज़ पार्श्व का स्वर नहीं लगती थी, दृश्य का मुख्य स्वर लगती थी और वह जब-तब इस लोक से कट जाती। आकाश के रंग देख वह भूल जाती कि वह धरती पर खड़ी है। घर उसे काटने को दौड़ता। वह हर दो मिनट में खुले की ओर भागती, कोठरी और रसोई से निकलकर। घर की रसोई से भला उसे घर के आंगन में लगा इकलौता खेजड़े का पेड़ लगता। वह आटे की परात, काचरियों-फलियों और हरी साग और दंराती लेकर वह पेड़ के नीचे बने इस चौतरे पर आ बैठती और खाना बनाने की पूरी तैयारी यहीं करती। लगन के तुरंत बाद, मेंहदी छूटते ही, पहला जो काम उसने किया, वह यही था कि एक पक्की, एक कच्ची कोठरी वाले घर के आंगन में लगे इस खेजड़े के पेड़ को चारों तरफ भाटे लगाकर, चूना-गारा थोप कर, ऊपर से लीप कर उसने गोल सुघड़ चौतरा बना लिया था। खेजड़े पर पंछी आते तो वह खुश हो जाती। मटके के टूटे पेंदे में पानी भर के टांग दिया था, खेजड़े की एक डाल पर प्यासे पंछियों के लिये। मुट्ठी भर बाजरा आंगन में बिखेर देती तो वे चहचहाते हुए नीचे उतर आते।

बंसी का बापू हंस दिया था, उसकी इस हरकत पर। तब उसने उसकी तरफ पहली बार घूंघट हटाकर, उसकी ओर देखकर, हंस कर कहा थाज्ञ् `इस घर को अपना बना रही हूं।' उसी रात उसने अपना आप, बिना नखरों के उस तीस बरस के मनख को सौंप दिया था। सुगना बहुत डरपोक थी। वह मां बनने से डरती थी, उसकी चिन्ता का समाधान रामकिसन ने कर दिया था, `बंसी की पहली मां के सामने ही ढाणी में जैसलमेर के डाकदर-नरस आए थे, कैम्प लगा था। जिस-जिस के दो-दो टाबर थे, सबकी नसबंदी कर दी, जोर-जबर करके, पुलिस का डर दिखा के।'

`और आप...?'

`हां, पर डाकदर साब कहते थे कि आप्रेसन उलट भी सकता है।'

`ना, मत उलटवाना, बंसी-नंदू हैं तो। बच्चे दो ही अच्छे।' सुगना हंसी तो उसकी नाभि में एक गहरा भंवर पड़ गया।

सुगना और रामकिसन की गृहस्थी पटरी पर आ गयी थी। रामकिसन गांव-गांव भटकता तब कहीं गिरस्ती का और बालकों के स्कूल का खर्चा चलता। उसे ऐसा लगता जैसे वह काठ की पुतली बन गई है और अदृश्य डोरे रामकिसन ने सुघड़ता से, बिना उसे महसूस करवाए बांध ही दिये हैं। गृहस्थी के कामों को अब वह एक लय में कर डालती है। वह अब छाछ कम ढोलती। हाथ कम जलाती। साबुन बचा-बचाकर इस्तेमाल करती। धरती की बहुमूल्य देन से विहीन इस गांव में आकर पानी के छपाकों से मुंह धोने की आदत छोड़ दी, बूंद-बूंद पानी बचाती। टाबर `मां ए' बुलाते तो बिना चिहुंके, यंत्रवत समझ लेती। टाबरों को समय पर बाजरे के रोट और गुड़ का नाश्ता करा, उनके दिन का खाना कागज में लपेट कर, स्कूल का बस्ता थमा कर वह घर से भेजती और किवाड़ मूंदती तो ऐसा लगता कि अब जाके उसके डोरे ढीले हो गये हैं, अब सुगना नाम की कठपुतली के शान्त लटके रहने का समय है, दो प्रस्तुतियों के बीच का समय।
वह धम्म से गुदड़ी पर सुन्न होकर पड़ जाती। अपने वजूद को, अपनी देह को हाथ से टटोलती। सोचती-उलझती लेकिन समझ नहीं आताज्ञ् रात किस मुहाने पर जाकर उफन पड़ी थी वह कि रामकिसन एकदम कुंठित हो गया और छिटक गया उससे दूर। पहले देह जब शांत, नदी-सी पड़ी रहती थी तो वह मीलों तैर जाता था। अब वह नैसर्गिक आकांक्षाआें से भरपूर नदी में बदल जाती है और इन्हीं आकांक्षाआें की पूर्ति हेतु प्रसन्न-प्रछन्न क्षमताआें से परिपूर्ण होकर बहती हैज्ञ् प्रबल-प्रगल्भ, तो रामकिसन के लिये मुश्किल हो जाता है इस उफनती नदी को बांहों में भर कर तैरना। बहुत डरपोक थी सुगना, इस बात से भी डर गयी। उसने खुद को काठ कर लिया। अब रामकिसन चाहे जैसे नचाये। वह जब तृपित की डकार लेता, तो वह जूठन के इधर-उधर गिरे टुकड़े समेट, भूखी उठ जाती। फिर भी ज़िन्दगी तो चल ही रही थी। रामकिसन अपने कर्त्तव्यों से कहीं पीछे न हटा। न सुगना ही ने हार मानी। बंसी-नंदू उसे सगी मां से ज़्यादा चाहने लगे थे।
सब कुछ ठीक ही चलता तो कठपुतली वाले रामकिसन की लुगाई सुगना की कहानी चार दिशाआें में क्यों भागती? धणी-धोरे, टाबरों और सासरे वालों के चलते, सुगना यूं अकेली पड़ जाती? वो गयी ही क्यों कुलधरा के उन खण्डहर मकानों और मन्दिरों की तरफ? उस दिन भी टाबर स्कूल भेजकर, सुगना धम्म से कठपुतलियों वाले कोने में गुदड़ियों के ढेर पर ढह गई थी। ऊपर कठपुतलियां हिलती-डुलती, लटकती रहीं। इन कठपुतलियों का पहरा नहीं मानती वह। बाकी वक्त तो एक पहरा सा वह स्वयं पर महसूस करती ही थी, उसे लगता कि उसकी आत्मा तक पर कुछ जोड़ी आंखें गड़ी हैं। लेकिन यहां इस कोने में कठपुतलियों की फटी-फटी कई जोड़ी आंखों से स्वयं को ढंक कर वह अपनी कांचली ढीली करती और देह के इस स्वस्थ मरूस्थल के बियावां धोरों की लहरों पर आंख मूंदकर भटकती। अजीब-अजीब सपने देखती। जब आंख खुलती तो धूप आंगन के बीचोंबीच खड़ी उसे पुकार रही होती।
`बींदणी पाणी!'
धापू री बाई! उस दिन उसे देर लग गयी किवाड़ खोलने में, कांचली के उलझी डोरी सुलझा कर कसते-कसते।
`आंख लग गई थी मां सा। आज तो पाणी खत्म...'
`गैला हो गया रामकिसन जो इस जोबन की मारी को ब्याह लाया। दिन चढ़े कोठरी बन्द कर पता नहीं क्या करती है। एक वो थी, कोसल्या... पांच बजे ही तीन कोस दूर पानी के लिये निकल जाती।'
बुढ़िया की गालियां खाती, वह इडोणी, चरू-चरी, मटका लेकर अकेली भागी। पानी मिलने के अनजान लक्ष्य की तरफ। अपनी ढाणी का कुआं और ट्यूबवेल तो पिछले बरस ही सूख चुका था। पास की ढाणी में लगा सरकारी नल कब से बन्द हो गया होगा। वह भागी पिछले दिन जहां धापू उसे साथ लेकर पानी लेने ले गयी थी, कुलधरा के खण्डहरों की तरफ, उस सूनी बावड़ी की दिशा में। पानी से छलछल करती उस चार मील दूर की बावड़ी की तरफ तो मुसीबत आने पर ही गांव की कोई ही लुगाई जाती है। वो भी इतनी धूप चढ़े तो कोई नहीं।
जल्दी-जल्दी पैर बढ़ा, वह हड़बड़ाती हुई बावड़ी पर पहुंची। दोनों चरू-चरी, मटका भर लिये। ठंडा पानी देख नहा लेने का मन हो आया। तीन दिन हो गये थे नहाये। रामकिसन तो बहुत कहा-सुनी होने पर सात दिन में एक बार रात के बचे दो लोटे पानी से नहाता है। कहता हैज्ञ् सुगनी, पानी मत ढोलते ज़्यादा। यहां हमारी ढाणी में रेत से ही इन्सान का रिवाज है।
बताया न, सुगनी बहुत डरपोक है, बात-बात पर ठंडा पसीना बहाती है, सर पर सांय-सांय करते बड़ के पेड़ और उसकी लटकती जटाआें से डर गई। जैसे-तैसे लुगड़ा हटाकर, लहंगा और कुर्ती पहने-पहने, एक चरू अपने ऊपर उलटा और नहा ली। पानी पर पड़ते, अपने हिलते-डुलते प्रतिबिम्ब को देखकर उसे मालन कठपुतली याद आई। मेरा नाम है चमेली... मैं हूं मालन अलबेली, चली आई हूं अकेली बीकानेर से!... रामचन्दर उस शोख कठपुतली को नचाता हुआ बड़ी सुरीली तान में गाता है। वह भी गुनगुनाने लगी। प्रतिबिम्ब फिर हिला। उजाले में अपनी देह देखे बरसों-बरस हो गये। घाघरा ऊंचा कर पैर देखे, गेहुंआ पैर, सुनहरे रोआें वाली पिंडलियां। पानी की धाराआें से टपकती देह को सुखाने पेड़ के नीचे रखे पत्थर पर बैठ गयी। पल भी तो न बीता था कि धप्प से पीठ पीछे कोई गिरा। सुगनी की चीख हलक में... अर् र् र... डाकी बन्दर है कि कोई भूत? उसका कलेजा छाती फाड़कर बाहर ही आने को था।
`ओळखे कोनी कई?' (पहचानती नहीं है क्या?)
मनख-माणस की भारी आवाज़ सुन सुगना ने झट गीला घूंघट काढ़ लिया।
`कुण?'
`ऐ सुगना... भूलगी कै? जोगी, जोगीन्दर।'
अब वह उठ खड़ी हुई। हठात् घूंघट हटा दिया। वही जीनस की पैन्ट। गोरा चेहरा। बलिष्ठ बाजू।
`यहां?'
`अंग्रेजों को कुलधरा दिखाने लाना था न। गाइड की लाइन पकड़ ली है। जैसलमेर किल्ला में अपणा ओफिस है। दूर से पैचाण लिया था मैं ने... पर तू ने नई पैचाणा। हैं!'
सुगना ने मुण्डी हिला दी। भीगी हुई देह पर चिपके लुगड़े को बार-बार खींच रही थी।
`और घर में सब ठीक... टाबर-टूबर?' उसकी देह पर बार-बार तितली सी जा बैठती नज़र को हटाकर, मुंह फेरकर औपचारिक हो गया जोगी।
`हां!'
`तू नहीं बदली... वैसी च है...। मैं...?'
सुगना ने ध्यान से जोगी को देखा। गबरू! एक ही शब्द निकलकर आत्मा पर जा बिंधा। वह उठ गयी और चरू-मटका उठाने के लिए हल्का घूंघट खींच सर पर ईडोणी रखकर जोगी को उठवाने के लिए इशारा किया। जोगी ने मटका, कलसी और चरू सुगना के सिर पर रखी इडोनी पर आहिस्ता से एक-एक कर रखे। वह नाक ते घूंघट निकाले, पलके झुकाए एक सुनिश्र्चित ताल में लहराती सीढ़ियां चढ़ गई। जोगी हतप्रभ देखता रह गया। रेतीले टीबों वाला छोटा रास्ता पकड़ने को उसके पैर जितना जल्दी चलना चाहते, मन उतना पीछे को लौटता।
बाई गाली-गलौज के साथ झगड़ी न होती, लेन-देन की बात पर जोगी का बाप न अटका होता तो जोगी उसका पति होता। उसकी पक्की सहेली रूनकी ने कहा तो था, `सुगनी मैंने सुना रामकिसन ने दो हजार उलटे तेरी बाई के ही हाथ पे रखे हैं।' तभी तो जोगी जैसा बांका जवान छुड़ा के लंगड़ा रामकिसन... उसे स्वयं पर गुस्सा आया विरोध क्यों नहीं किया मां का? काठ की पुतली ही रही रे तू सुगनी।
`अंग्रेजों को बस में बिठा के मिलता हूं।' वह पीछे दौड़कर आया।
सुगना का चेहरा तटस्थता से पथरीला हो रहा था। वह कुछ नहीं बोली तो नहीं ही बोली। बस एक नज़र भर उस ओर देखा और गहरी सांस ली। जोगी की आंखों की परिधियों से कोई जंगल शुरू हो रहा था। एक छवि उभरी, किराए की तलवार लटकाए, मोेड़ बांध कर घोड़े पे बैठा जोगी। या फिर दूध-हल्दी भरी परात में अंगूठी खोजते दो जोड़ी हाथ, उसके घूंघट पर पड़ती उस उद्दाम पौरुष की छांह। पुराने तेल पिये काले काठ के पलंग पर रेशमी बिछौना... आले में रखा दिया, बालों भरी छाती जो उसकी सफेद कमीज के खुले बटन से झांकती बस अभी देखी है। रेगिस्तान की जलती रेत पर तीन गागर उठाए चल रही थी वह और मन की केसरिया क्यारियों में अपूर्ण इच्छाआें के जामुनी फूल एक-एक कर खिले जा रहे थे। चांदनी बिछ गयी थी पैरों में, सर पर जैसे बादल रखे थे।
उसकी गेहुंआ देह अपने ही पसीने से लथपथ हो गयी थी, आधा कोस चलकर ही। अचानक पश्र्चिम की तरफ से आसमान का कोना धुंधलाया। उसी कोने की धरा से रेत ऊपर को उठी, मानो नीले आसमान ने जबरन धरा को बाजुआें में भरना चाहा हो और महज़ गुबार हाथ आए हों। जब वह बावड़ी से चली थी तो आंधी के कोई आसार नहीं थे। साफ आसमान से देह को झुलसाती धूप बरस रही थी। हवाआें की चीख से रेत में जाने कहां जड़ धंसाए खड़े खेजड़े के पेड़ कांपे। कुलधरा गांव के दूर तक फैले खण्डहरों के पत्थर तक सहम गये। बौरा गई थी हवा। बगूले ही बगूले गोल-गोल चक्कर काटते। धापू सही कहती थी, ये जगह भुतहा है। आंखें किरकिरी हुइंर्, फिर चेहरा, होंठ यहां तक कि सांसें और भीगी हुई जुबान तक किरकिरा गई। सुगना एक ठूंठ से खेजड़े के नीचे ठिठक गई। चरू-कलशी नीचे मोटे भाटे के सहारे टिका दिये। सर से लुगड़ा उखड़ कर फरफराने लगा। कुर्ती-कांचली में अटका छोर छूट गया। बस घाघरे में अटका छोर छुड़ा पाता तो यह लुगड़ा तेज़ हवाआें के साथ कहीं परदेस ही जा उड़ता। गुलाबी छींट का लुगड़ा। किसी मूमल का या किसी मारू का! उसने उसे खींच कर मुंह पर लपेट लिया, पेड़ से चिपक कर खड़ी हो गयी। सामने वाले धोरे से दो ऊंटवाले आनन-फानन में उतर रहे थे, सुगना ने मुंह फेर लिया। एक भेड़ चरानेवाला किशोर चरवाहा, उसी के पास आ खड़ा हुआ। उसकी भेड़ के पास गोल झुण्ड बनाकर, गोले के केन्द्र में मेमनों को रख, मुंह छिपा कर अनुशासित हो बैठ गई। तेज़ चक्रवात से, रेत की लहरों में हुई उथल-पुथल में न जाने कितने रेतीले रेंगने वाले जानवर निकल कर लम्बी घास की तरफ भागे। एक टेढ़ा-मेढ़ा रेंगने वाला, लहराकर चलता, रेत का पीला सर्प भेड़ों के झुण्ड की तरफ बढ़ा। भेड़ों का शान्त झुण्ड उठकर मिमियाने लगा। किशोर चरवाहा आंधी में ही अपनी भेड़ों को पुकारता इधर-उधर भागने लगा। वो दोनों ऊंट वाले न केवल उस मासूम पर हंसने लगे, उसे लेकर भी अश्लील बातें करने लगे। वह स्तब्ध खड़ी थी। बुरी तरह आशंकित।
अचानक दो बाजुआें ने उसे खींचकर उसे पेड़ से दूर किया। वह पीला सर्प खेजड़े की डाल पर अटका हुआ लटक रहा था। उसकी चीख निकल गयी।
`चलो यहां से।' धुंधलके में उसने देखा, जोगी था।
`जोगी! पर कहां?'
`कहीं भी...'
`नहीं, आंधी थमते ही घर का रास्ता लेना है।'
`अरे! गैली हुई है क्या? इन ऊंटवाले स्मगलरों के साथ, यहां अकेली तूफान में क्या करेगी?'
वह उसके चरी मटके उठाकर चलता गया। सुगना पीछे पीछे। अनजान पगडंडियों पर चलते-चलत, वे ढेर सारे नीम के पेड़ों से ढंके, सुनसान पड़े एक भैरूं बाबाजी के मंदिर के खण्डहर तक पहुँचे।
`यह जगह ठीक है सुगना? चल यहीं इंतजार करें आंधी थमने का।' वह उसका हाथ थाम ऊंची-ऊंची सीढ़ियां चढ़ने लगा। `मैं अंग्रेजों को बस में बिठा ही रहा था कि आंधी सुरू... मैं समझ गया कि तू फंसी होगी इस पीली आंधी में।' सुगना की सांस अब तक तेज़ चल रही थी।
जोगी की आंखों का जंगल करवटें ले रहा था। जहां घनी लताएं थीं, बहता पानी था, भागते कस्तूरी मृग थे। एक अपनी खुश्बू थी जंगल की। भूख जग आई थी। सुबह से खाया ही क्या था?
पास के झाड़ से टीमरू तोड़ने लगी। जोगी तूफान से नीचे गिर पड़े शहद के छत्ते की तरफ बढ़ा। मक्खियां अब तक भिनभिना रही थीं।
`ऐ मत खा ये जंगली फल, ले यह शहद।' जोगी के हाथ में एक टूटे छत्ते का खोखल था जिसमें से शहद टपक रहा था। `खा न, ये वनमाखी का काढ़ा हुआ नीम का शहद है। वनमाखी जितना तेज़ काटती है उतना मीठा शहद बनाती है। पर यह मीठा शहद पीछे से एक तीतापन छोड़ जाता है।'
आंधी तो रुक गयी थी मगर शहद और तुर्शी दोनों के मिश्रित स्वाद के लालच की एक ही डोर से दोनों बंधे रह गये। सुगना के अन्दर की कठपुतली सांस लेने लगी थी। जोगी ने वह छत्ते का टूटा खोखला हाथ से ऊंचा किया और सुगना के सूखे होंठों पर शहद की टपकती धार डालने लगा। उसके होंठ शहद से भीग गये थे। खोखल से शहद जगह-जगह से टपक रहा था। चेहरा, गर्दन, कांचली के गले की काट का वह छोर जहां से फिर जंगल। जोगी बेशर्मी से हंसने लगा। शहद का छत्ता, एक घना जंगल, गले में किरकिराती रेत, अनगिनत पगडंडियां, घने जंगल में छिपा झरना। खुल कर भूख लगी थी। फिर टिमरू तोड़ के खा लिए सुगना ने पास की झाड़ से। जहरीले थे या नहीं वे जंगली फल, नशीले ज़रूर थे। सुगना का होश खोने लगा।
उसके बिवाई फटे पैर के अंगूठे को चूम ही रहा था जोगी कि उसे ज़ोर की उबकाई आई। जोगी ने घबराकर उसके गले में अपनी दो उंगलियां डाल उल्टी करवा दीज्ञ्
`मना किया था न, टीमरू - जंगली टीमरू में फरक होता है।'
`तुझे सूग (घिन) नहीं आती कभी पैर का अंगूठा, कभी मेरी उल्टी...'
`तुझसे सूग? तू तो केवड़े का झड़ है। कंटीला मगर महकता हुआ सुगन्ध से। एक बार सुगनी बस गलती हो गई कि तुझे भगा के नहीं ले जा सका, अब तुझे नहीं छोड़ना है।'
`क्यों तेरा भी तो ब्याव-गौना हुआ है, मैंने सुना।'
`वो अपनी जगह रहे। सासरे में। तुझे जैसलमेर रखूंगा।'
कसके, घने बालों वाली छाती से उसे चिपकाता रहा जोगी। जिसके छाती के बालों के डंक पूरी देह पर लेकर लौटी थी सुगना। शहद और डंक, दंश की एक तीक्षणता देह दुखा रही थी। वहीं शहद का तीतापन, दंश लगे हिस्सों पर जलन पैदा कर रहा था।
जब वह घर पहुंची रास्ता ढूंढती हुई और रेत से किरकिराता हुआ पानी मटकों में लेकर, तो बहुत देर हो चुकी थी। सांझ ढलने को आई थी। दोनों टाबर बस्ता बाहर ही छोड़कर भूखे-प्यासे रेत में खेल रहे थे। उसे देखते ही `बाई!' कहकर लिपट गये। साइकिल बाहर खड़ी थी, जिसके हैंडिल में उलझी हुई, रेत भरी कठपुतलियां यूं ही लटकी हुई थीं, उन्हें उतार कर कोठरी तक में नहीं रखा गया था। रामकिसन आंगन के चूल्हे से जूझता हुआ, हांडी में बाजरे की राबड़ी पका रहा था। बहुत ठंडी आवाज़ और लाल आंखों से उसने पूछाज्ञ् कहां रह गई थी?
`कुलधरा की तरफ पानी लेने गई थी। रास्ते में तूफान आ गया। फिर रस्ता भी भूल गयी।'
`सच में ही तूफान आ गया और रास्ता भूलगी? (उसके कहे में, सच में व्यंग्य था या सुगना ही दूसरा व्यंजित अर्थ पकड़ रही थी।) कुलधरा! वो भुतैली बावड़ी? पागल हुई क्या? किसने बताया तुझे उधर का रस्ता?'
`धापू...'
`धापू! वाह री धापू की बहना! किस तूफान में फंस गी जाके तू?' फिर व्यंग्य! सुगना का मन हल्के-हल्के कांप रहा था। किसी ने देखा क्या? इसको कुछ कहा क्या?
रामकिसन की अप्रत्याशित चुप्पी या फिर व्यंग्य से सने दो-एक वाक्य सुनते-सहते, स्वयं को भुलाकर, उसने आंधी से बिखरा पूरा घर बुहारा-समेटा। भीतर से वह अपने आपको भी समेटने का असफल यत्न कर रही थी। रात को टाबरों को खाट पे सुला कर, हाथ-मुंह धोकर कपड़े बदलने को हुई तो देखा जहां-जहां शहद गिरा था, वहां-वहां कुर्ती का रंग उड़ गया था। कांख चिपचिपा रही थी, कान तक के अन्दर चिपचिप! तीन-चार लोटे पानी के भी कम थे उस चिपचिपाहट के लिये।
`इतना पानी क्यों ढोल री है? रेत ही तो है, कीचड़-कादा थोड़े है।' अपनी सूखी ओढ़नी से अच्छी तरह से कान के अंदर तक पोंछ कर आंगन की लालटेन धीमी कर, कोठरी के आले में रखा दिया बुझाकर, दरवाजों की दरारों में कपड़े ठूंस कर वह रामकिसन की बगल में ज़मीन पर बिछी गुदड़ी पर जा लेटी। तमाम व्यंग्य बाणों के बीच भी रामकिसन का नीचे बिस्तर बिछाना उसे समझ नहीं आया। जब टाबरों को ऊपर प्यार से सुला, रामकिसन नीचे उसकी गुदड़ी बिछा कर लेटता है तो उसका मंतव्य सुगना तुरंत समझ जाती है। उस रात रामकिसन उसके प्रति निर्मम था। उसी दौरान दो जोड़ी शहद के रंग की आंखें और मुड़ी हुई पलकों की वह अधखुली चिलमन उस पर बिना झंपे तारी न हो गई होतीं तो वह उस एक जंगल से कैसे गुज़रती? न गुज़रती उस जंगल से तो यह सरासर बलात्कार होता। सह गई वह रामकिसन की सारी निर्ममता, अपने भीतर करवटें लेते जंगल के चलते। उसने कब देखा था घनेरा जंगल। बस मीलों-मील फैले मरूस्थल देखे थे। पीली और काली आंधियों में भी उन पर टिके पुराने खण्डहर जैसे-तैसे सांस लेते थे। और इन खण्डहरों में लटके वनमाखी के मीठे शहद भरे छत्ते। `मीठा तो होता है इसका शहद पर तीतापन पीछे छोड़ जाता है।' यही कहता था न जोगीड़ा!
रामकिसन का गांव-गांव जाकर कठपुतली का खेल दिखाना नहीं रुका, कुलधरा से उसका पानी लाना नहीं रुका। जोगी का विदेशी और देसी टूरिस्टों को कुलधरा रोज लाना कैसे रुकता? कुलधरा के रहस्यमय खण्डहर, अंग्रेज हैरानी से देखते, कैसे पूरा का पूरा गांव एक ही रात में गायब हो गया था। जलते चूल्हे, चलती चक्कियां छोड़, दरवाजे खुले छोड़, अनाज भरे कुठार यूं के यूं छोड़ गांव का गांव गायब हो गया। कहां? पता नहीं। बहुत रहस्यमय है जैसलमेर जिले का यह कुलधरा गांव। जोगी टूटी-फूटी अंग्रेजी और पर्यटन विभाग के छपे पन्नों से उन्हें बताताज्ञ् सर... लुक हियर मैडम... दोज विलेजर्स वर राजपूत वॉरियर्स... वन डे सडनली दे लेफ्ट द विलेज... इन सेम कण्डीसन, सेम एज यू आर लुकिंग हियर...
जल्दी ही गर्भवती होने का अहसास... चींटीयों सा उसे काटने लगा था। रामकिसन के पार्श्व में लेटे हुए उसे लगता गर्म रेत पर लेटी है वह। देह के आकार का वाष्प और तरल भरा गड्ढा भर है वह। पण्डित का फिकरा गूंजाज्ञ् `विधवा, गाभण, रितुमती औरतां, छोड़ी हुई लुगायां हवन सूं आप ही उठ के चली जावो... बुरो मत मानजो सा... भगवान री बनाई रीत है। आरती में कोई भेदभाव नी। आरती के टेम वापस आ सको, अपनी-अपनी श्रद्धा सूं भेंट चढ़ा सको।' अनवरत चल रही आहुतियों के यज्ञ में पति के वामांग बैठी सुगना ठिठकी, सुगना के पेट में चक्रवात उठा। रामकिसन ने मासूम मगर धारदार होने की हद तक ईमानदार बड़ी-बड़ी आंखों से प्रश्न किया और पैर के अंगूठे से उसकी जांघों को कुरेद कर पूछा `क्या हुआ?' वह ढीठ बन गई और रामकिसन के बलिष्ठ हाथ पर अपना हाथ रखकर, यज्ञ में आहुतियां दे आई। बाबा रामदेवजी के मंदिर की ही बात है वह यज्ञ। बाबा रामदेवजी का मेला भरा था। मन्नत पूरी हुई थी रामकिसन की। रामकिसन को जयपुर के एक लोक कला केन्द्र में कठपुतली के खेल दिखाने वाले की स्थायी, सरकारी नौकरी मिल गई थी। वह गांव छोड़ के जाने का मन बना चुका था। सुगना की आत्मा कटघरे में खड़ी थी, अपने आप से दरियाफ्त करती हुई। सुन्न चेतना क्या उत्तर देती? हालातों की क्या समीक्षा करती? जोगी का कई दिनों से कुछ पता नहीं था। वह कई बार कुलधरा जाकर खाली हाथ लौट आई। चींटियों का कोई एक गहरा बिल खुल गया था। कहीं कच्ची, पोली निष्ठा में। वे दिन रात उसकी आत्मा और देह पर रेंगा करतीं।
क्या उत्तर देगी पति को? तीसरा महीना चढ़ गया है। कैसा आलस घेरता है, आजकल उसे। ज़रा चल कर थक जाती है। मन कहीं गहरे गर्त में डूब गया है जाके पर देह यंत्रवत लगी रहती है काम में, जो खाती वह तुरंत उलट देती। पड़ोसन धापू कुछ-कुछ समझ रही थी, कुछ रामकिसन भी। दोनों के दोनों उसकी तुलना में अनुभवी!
`तो ये तूफान था? ऐसी गैल भूलगी थी तूं। धापू अच्छा कुलधरा के खण्डहरों वाली बावड़ी का रास्ता बताया तूने! अब तू ही इसे इसकी मां के घर पटक आ। इस ढोलकी का अब मैं क्या करूं?'

`वहां कौन बैठा है इसका? तेरा ही बच्चा है ये, कभी प्रेसन खराब हो जाते हैं। इसके मायके में कौन है अब? मां तो खुद नाते बैठी है किसी के। कहां जायेगी रामकिसन ये?'

`इसे भी बिठा दे नाते किसी के, कहना, रखले बच्चे समेत। बोल दे, इसे कि चली जाए उसके पास जिससे ये ढोल गले में बंधा के लाई है। ये कौव्वे और कोयल वाली कहानी खेलने को रामकिसन कठपुतली वाले का ही घर बचा था रांड?' लंगड़ा कर वह घिसटा सुगना की तरफ, हाथ भी उठे रामकिसन के सुगना की पीठ पर बरसने को पर अगले पल ही गिर गये, `साले रामकिसन... लंगड़े... तू आग नहीं बुझा सका इस रांड की?' कहकर रामकिसन क्रोध में मेंड़ की झरती दीवार पर अपना हाथ मारने लगा, आंख से आंसू बहते थे... मुंह से लार।

बात छिपी नहीं। ससुराल की ढाणी तक पहुंची। वहां आकर बवंडर उठा दिया सास ने। सुगना कहती रही यह बच्चा रामकिसन का ही है, तो जाति के पंचों को इकट्ठा करके अग्नि परीक्षा की बात करने लगी सास। रामकिसन जितना चाहता था कि यह मामला तूल न पकड़े, उतनी ही बात घर से बाहर आग की तरह फैल गयी थी। किसी का भी हो चाहे सुगना के गर्भ का बच्चा, वह सुगना को नहीं छोड़ सकता। यह निश्र्चित था कि बच्चा उसका नहीं है, लेकिन कठपुतली नचाते-नचाते रामकिसन जान गया था कि उसकी यह जो मायाविनी-जीवंत कठपुतली है `सुगना'। वह मुक्त भी है, अनुरक्त भी। उसमें त्याग भी है, मोह भी। न सही सती धर्म, लेकिन सेवा है, सहिष्णुता है। उसमें जीवन है, जीवन की हलचल है। मादकता है तो अथाह ममता भी।

वह अंत तक कहता रहा, `बाई, रहने दे मेरा घर उजड़ जायेगा दूसरी बार।' पर सास अडिग थी अग्नि परीक्षा को लेकर। राजस्थान के मरूस्थलीय इलाकों के, अन्दरूनी हिस्से में जहां जातिगत पंचायत ही समस्त कानून व्यवस्था का काम करती है, वहां पुलिस या घरेलू अदालत का क्या काम? समाज को इकट्ठा कर अग्नि-परीक्षा का यह प्रपंच सास के इशारों पर था। रामकिसन कठपुतली वाला तो आज स्वयं कठपुतली था। सास चाहती थी कि फैसले के बाद ही रामकिसन नौकरी पर जाये। टाबरों की चिन्ता न करे, वह संभाल लेगी। ऐसी कौन-सी रूपसी है सुगना, छोड़ देना। मरद है, नाते रख लेना किसी को। बस उस रांड के प्रेमी का पता चल जाये। उससे धरवाएंगे हरजाना, पूरे चार हज्जार!

फैसला होने तक सुगना को पंचायत के एक झोंपड़े में अकेले रहना था तीन दिन, शायद पश्र्चाताप के लिये या ठंडे दिमाग से बिना किसी प्रभाव के अपने निर्णय पर सोचने के लिये। दिन में तो धापू खाना रख जाती। रात को वह उपवास रखती। मटके का ठंडा पानी पीती। दिन भर जैसे वह सुन्न-सी, पालथी मार बैठी रहती, वैसे ही गर्भ का पंछी भी शांत रहता। लेकिन झांेपड़े में रात का अंधेरा जब गहरा और नीरव होता जाता और फूस के फर्श पर खेस बिछा कर लेटे हुए उसकी चेतना जाग उठती, तो गर्भ में वह नन्हा चूजा हल्के-हल्के पंख फड़फड़ाता। एक नन्हीं बच्ची की तमन्ना हौले से जागती, फिर उसे रामकिसन की नई रची कहानी की कठपुतलियां याद आतीं, जो उसने बनाई थीं। जेल में पड़ी देवकी और जोगमाया की कठपुतलियां। कितना भोला चेहरा जोगमाया का!

रात की नीरवता में बाहर और भीतर के स्पन्दन और सजग हो जाते। कभी दूर कहीं झाड़ी में मादा गोडावण की चूज़ों को दी गई पुचकार भरी झिड़की तक सुनाई देती तो कभी विषधर की सरसराहट स्पष्ट सुनाई पड़ती और रोंगटे खड़े हो जाते। दूर कहीं किसी ढाणी में रात्रि-उत्सव में बजतीं थालियां और अलगोजे की टेर यूं लगती जैसे पास से आ रही हो। रात की सूक्ष्मग्राही निस्तब्धता से उसका यह पहला परिचय था। वह रात भर जाग कर सब कुछ सुनतीज्ञ् शराब पीकर लौटे गांव के छोरों का शोर, किसी आवारा बंजारन की कामुक हंसी, सियारों की हूक।

नवम्बर माह की फीकी-सी सुबह थी। झोंपड़े के बाहर सारा ढोली समाज इकट्ठा था, धापू उसके साथ थी। वह हैरान रह गयी जब धापू ने बताया कि जोगी भी भीड़ में खड़ा है। उसने एक छेद से झांका। पति की आहत नज़र, प्रेमी का भयभीत चेहरा। नंदू-बंसी के कुम्हलाये बदन।

ससुराल के लोगों की हिकारत भरी मुद्राएं। कुतुहल से तमाशा देखते, कानाफूसियां करते, मज़ाक उड़ाते उसकी ही जाति के लोग-लुगाई।
`धापूड़ी, जाके कह दे उस जोगी को, भग जाये यहां से। किसी को अन्दाज भी पड़ गया तो%%%? हरजाने की बात तो है ही, कूट भी डालेंगे उसे मेरे सासरे वाले।'
फैसला जो होना हो, हो। वह लगातार यही कहेगी कि बच्चा रामकिसन का ही है, और किसी का हो ही नहीं सकता। सुगना की आंख फिर एक छेद से होकर जोगी पर जा टिकीं। वह ढीठ तो धापू के साथ इधर ही आ रहा था और रामकिसन आशंकित हो लगातार उस जोगी को घूरे जा रहा है। माजरा समझ रहा है क्या?
`यहां से चला जो... जोगीड़ा!' उसने जोगी के भारी पैरों की आहट सुनते ही, झोंपड़ी के अन्दर से ही, खड़े होने की कोशिश में, देह के बोझ तले डूबते हुए कहा।
`तू बैठ जा अभी। थक जायेगी। पंच मसवरा कर रहे हैं कि अग्निपरीक्षा कैसे लें। जोगी तू बाहर ही रुक।' धापू ने उसके साथ भीतर आते जोगी को हाथ से ठेल दिया।
`सुगना! सुन, मैं हरजाने के चार हजार लाया हूं, दो हजार में छीनी थी न तू मुझसे उसने, मैं दुगना हरजाना भरूंगा। उसे बोल छाती ठोक के कह दे कि बच्चा तेरा - मेरा है। कोई ज़रूरत नहीं गरम तेल में हाथ डालने की या गरम इंर्ट पकड़ने की। ये पंच अपना फायदा देखते हैं ऐसी चीजों में। औरत का चरितर खराब निकले तो भी पंचों की चांदी, न निकले तो भी उसकी चांदी। दोनों तरफ का पैसा उनको तो मिलता ही है।' वह दरवाजे पर मुंह रख फुसफुसाया सुगना का मुंह कसैला हो गया। वह कुछ नहीं बोली, पर जोगी, वह तो तन-मन-धन का जोखिम उठाकर उसे लेने आया है, न सही धर्म पर उसका राग बंधा था सुगना से। वह फिर तड़फड़ायाज्ञ् `बाहर फटफटी खड़ी है, रोड पे... चुपचाप बाहर आ जा, झोंपड़ी के पीछे लंबी घास है, छिपकर पहुंच रोड पे। सुगना, ए%% सुगनी%% क्या कहती है? क्या कहेगी पंचों से?'
`हां, जा-जा, जा के तू अपना काम देख। मुझे जो कहना होगा, कह दूंगी। अच्छा तो यह है कि रामकिसन और उसके घरवाले तुझे पैचाणे उससे पहले ही चला जा।'
`मैं नहीं डरता उस लंगड़े और उसके घरवालों से। अब भी कह रहा हूं।'
`जोगी तू जा, देख पंच तैयार खड़े हैं, फैसले के लिये।'
`सुगनी, मत पकड़ना रे गरम इंर्ट... फफोले तो पड़ेंगे ही। चाहे तू सही हो के गलत।' चीखते जोगी को धापू ने दूर तक ठेल दिया।
`इतनी बड़ी बातें बता रहा है, अब तक कहां था रे तू?'
`अरे गाईड हूं, आज यहां तो कल टूरिस्ट जहां ले जावे उसके साथ।'
तभी बंसी भागता हुआ आया, `बाई तू हमारे साथ चल न। नंदू तो खाना नहीं खाता तेरे बिना रोता रहता है। एक मां भगवान ने छीनी अब ये दूसरी ये रांड दादी। इसी की करतूत है, बापू तो तुझे चाहता है बाई, रात को रोता था दादी के आगे।' सुगना ने अपना चेहरा घुटनों में छिपा लिया। `बाई, देख न इधर, ये बापू ने भेजा है। तेल है ये, कब्रों पर उगने वाले ग्वारपाठे और रेत की छिपकली का तेल, मल ले हाथ पे, हाथ नहीं जलेगा, न फफोले होंगे। परसों चार घंटे सायकिल चलाकर सीमा पार के नजदीक डटे हुए गाड़िया लोहारों से लाया है, बापू।'
लंबी शीशी के मुंह में ठुंसा कपड़ा खोल के ढेर सारा भूरा बदबूदार तेल सुगना की दोनों हथेलियों पर मलने लगा, बारह बरस का किशोर बंसी। आंधी में अपनी भेड़ें टेरता वो चरवाहा याद आ गया, यही कातरता थी स्वर में। सुगना की आंख भर आयी।
पंचों ने आवाज़ लगाई। गर्भभार से क्लान्त, पीले चेहरे वाली सुगना को देख रामकिसन सिसक उठा। सास उसे लानत भेजती रही।
पंचों ने सुगना को गरम इंर्ट पकड़ाने से पहले दरियाफ्त किया, `सुगना बाई कठपुतली वाले रामकिसन के घरवालों का कहना है कि यह बच्चा उसका नहीं है, तुम क्या कहती हो?'
`यह बच्चा बंसी का ही भाई या बहन है। मुझे बंसी के बापू के साथ ही रहना है और आप ही कहो क्या कहूं?' सुगना ने दम बटोरकर कहा। रामकिसन ने गहरी सांस ली। जोगी ने सर को झटका दिया, और बड़बड़ाता हुआ बड़े-बड़े डग भरता हुआ पीछे को चला गया, जहां उसकी काली राजदूत फटफटी खड़ी थी, सुगना को ले जाने के लिये।
`कहो कि `मैंने जो कहा वह सच है, मुझे मंजूर है अग्नि परीक्षा।' सुगना बाई यह अग्नि परीक्षा औरत की मर्जी से ही ली जाती है।' एक पंच बोला।
`बाई, अब नहीं करनी अग्नि परीक्षा, मैं मानता हूं, यह बच्चा मेरा ही होगा।' रामकिसन बीच में आ खड़ा हुआ।
`चुपकर रे... रामकिसना... आप्रेसन के बाद कोई बच्चा होता है? अग्नि परीक्षा तो होने दे। हाथ पे फफोले पड़ें तो इसके मायके वाले या इसके प्रेमी या तो इसे ले जायें या चार हजार जुर्माना दें।' सास ने रामकिसन को यूं धकियाया कि वह गिरते-गिरते बचा।
`तो मंजूर है सुगना बाई?'
सुगना ने उत्तर में तेल मले हाथ आगे कर दिए। एक पंच ने पान का एक-एक पत्ता उन नाजुक हथेलियों पर रखा और उन पर लाल, गरम इंर्ट रख दी गई। एक दो तीन पूरे सात मिनट। आठवें मिनट पर इंर्ट ज़मीन पर फेंक कर सुगना नीचे बैठकर उलटियां करने लगी। पान का पत्ता जल कर काला हो गया था। पास पड़ी पानी की बाल्टी में पांच मिनट डुबो कर हथेलियां ऊपर उठा दीं उसने। फफोले नहीं पड़े थे, पर हथेलियां ताजी रची मेंहदी की तरह लाल सुर्ख थीं।
रेत का गुबार उड़ाती भीड़, शोर के साथ लौटने लगी। पंच फटकार रहे थे सास को।
बाई-बाई करके नंदू और बंसी आकर उसकी पीठ से चिपक गये। धीरे-धीरे हचक कर चलता हुआ रामकिसन उसकी ओर बढ़ रहा था। रोड पर रफ्तार से जाती फटफटी की आवाज़ सुगना के कानों में देर तक गूंजती रही।

4 comments:

  1. बहुत ही बढ़िया ,अंतर्मन को छूती कहानी ........

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  2. समूचा रेगिस्तान उभर आया ..बहुत बढ़िया कहानी ..

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  3. Maine aap ki likhi kahaani Kuchh bhi to nahi Roomani Padhi. Bahut sundar lagi. haan kuchh aisa hua ki do baar padhi.

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  4. इस संकलन की संक्षिप्त जानकारी अब पाठक 'कला-प्रयोजन' के ओनलाइन पेजों पर शीघ्र देख पाएंगे

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