अरुण देव
युवा कवि और आलोचक
क्या तो समय , कविता संग्रह ज्ञानपीठ से २००४ में प्रकाशित
पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख
ई पत्रिका समालोचन का संपादन
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सम्प्रति- सहायक प्रोफेसर
साहू जैन कालेज,नजीबाबाद (बिजनौर,उ.प्र.)
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ई.पता- devarun72@gmail.com
अरुण देव की कविताएँ
(फर्गुदिया के कार्यक्रम में २३/७/२०१२., इण्डिया गेट, नई दिल्ली में पढ़ी गईं)
1-हत्या
उसकी हत्या हुई थी.
सड़क से गाँव के रास्ते का एक हिस्सा सुनसान था.
खेतों से होकर गुजरता था. वही से वह गायब हुई.
वही गन्ने के खेत के पीछे उसका शव मिला,
कई दिनों बाद. चेहरा झुलसा हुआ. कपड़ो से पहचानी गई.
पिता ने ज़ोर देकर कहा कपड़ो से पता चलता है उसके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ है.
लड़की ने मरते मरते भी कुटुंब की लाज़ बचाई.
कहीं बाहर नौकरी करता भाई आया था.
चेहरे पर थकान.
जैसे किसी झंझट में पड़ गया हो.
घर के लोग अब जो हो गया सो गया का भाव लिए कुछ आगे करने के बारे में संशय में थे.
एक पड़ोसी ने यह भी कहा कि क्या जरूरत थी जवान लड़की को पढाने की.
वह सिपाही बनना चाहती थी.
कोचिंग करने समीप के नगर में जाती थी.
अन्त समय उसने मोबाईल से जिनसे बातें की वे भी उसके मौसरे भाई,
चचेरे भाई थे. ऐसा उस लड़की की जाति-बिरादरी के लोग कह रहे थे. बार-बार
अगर लड़की किसी के प्रेम में होती और तब उसकी हत्या होती
तो इसे स्वाभाविक माना जाता,
उसके इस स्वेछाचार का अन्त यही होना था,
इसी किस्म से कुछ कहा जाता.
और कुटुंब के लिए यह बदनामी की बात होती.
उसकी बस हत्या हुई थी.
उसका किसी से प्रेम या शारीरिक सम्बन्ध नहीं था.
यही राहत की बात थी.
एक लड़की जो स्त्रीत्व की ओर बढ़ रही थी
इसी के कारण मार दी गई
उसके लंबे घने काले केश जो इसी दुनिया के लिए थे
उसका चमकता चेहरा
जिसकी रौशनी में कोई न कोई अपना दिल जलाता
वह एक उम्मीद थी
उसे अपना भी जीवन देखना था
अगर वह प्रेम में होती, बिनब्याही माँ बनने वाली होती,
उसके बहुत से प्रेमी होते
या वह एक बेवफा महबूब होती
तो क्या उसकी हत्या हो जानी चाहिए थी
क्या अब हम हत्या और हत्या में भी फर्क करेंगे.
2-मेरे अंदर की स्त्री
तुम्हारे अंदर जो अँधेरा है
और जो जंगल है घना, भीगा सा
उबड खाबड से बीहड़ हैं जो दु:स्वप्नों के
उसमें मैं एक हिरन की तरह भटकता हूँ
कोई गंध मुझे ढूंढती है
किसी प्यास को मैं खोजता रहता हूँ
यहाँ कुछ मेरा ही कभी मुझसे अलग होकर भटक गया था
मैं अपनी ही तलाश में तुम्हारे पास आया हूँ
कब हम एक दूसरे से इतने अलग हुए
की तुम स्त्री बन गई और मैं पुरुष
क्या उस सेब में ऐसा कुछ था जो तुमने मुझे पहली बार दिया था
उस सेब के एक सिरे पर तुम थीं
मुझे अनुरक्त नेत्रो से निहारती हुई और दूसरी तरफ मैं था आश्वस्त...
कि उस तरफ तुम तो हो ही
तब से कितनी सदियाँ गुज़री
कि अब तो मेरी भाषा भी तुम्हें नहीं पहचानती
और तुम्हारे शब्द मेरे ऊपर आरोप की तरह गिरते हैं
तुमने भी आखिरकार मुझे छोड़ ही दिया है अकेला
अपने से अलग
हालाकि तुम्हारी ही अस्थि मज्जा से बना हूँ
तुमसे ही बनकर तुम्हारे बिना कब खड़ा हो गया पता ही नहीं चला
तुम्हारे खिलाफ खड़ा हुआ
यह मेरा डर था या शायद मेरी असहायता
कि मेरा प्रतिरूप तुम तैयार कर देती थी
जैसे कोई जादूगरनी हो
देवि.... दुर्गा.... असीम शक्तियों वाली
सुनो !. तुम्हारे कमजोर क्षणों को मैंने धीरे धीरे एकत्र किया
जब मासिक धर्म से भींगी तुम नवागत की तैयारी करती
मैं वन में शिकार करते हुए तुम्हें अनुगामी बनाने के कौशल सीखता
जब तुम मनुष्य पैदा कर रही थी मेरे अंदर का पुरुष तुम्हें स्त्री बना रहा था
और आज मेरे अंदर का स्त्रीत्व संकट में है
मैं भटक रहा है जंगल-जंगल अपनी उस आधी स्त्री के लिए जो कभी उसके अंदर ही थी.
_________
अरुन जी की दोनों कविताएं अद्वितीय हैं, पहली कविता जहाँ हमारी सोंचों पर शब्द शब्द करारा प्रहार करती है
ReplyDeleteपिता ने ज़ोर देकर कहा कपड़ो से पता चलता है उसके साथ दुष्कर्म नहीं हुआ है. लड़की ने मरते मरते भी कुटुंब की लाज़ बचाई.
वहीं दूसरी कविता हमें गहरे चिंतन में खींचती है
कि अब तो मेरी भाषा भी तुम्हें नहीं पहचानती
और तुम्हारे शब्द मेरे ऊपर आरोप की तरह गिरते हैं
तुमने भी आखिरकार मुझे छोड़ ही दिया है अकेला
अपने से अलग
हालाकि तुम्हारी ही अस्थि मज्जा से बना हूँ...
शुक्रिया शोभा जी ..एक बार फिर से इन कविताओं में होकर गुजरना अच्छा लगा !
अगर वह प्रेम में होती, बिनब्याही माँ बनने वाली होती, उसके बहुत से प्रेमी होते
ReplyDeleteया वह एक बेवफा महबूब होती
तो क्या उसकी हत्या हो जानी चाहिए थी
क्या अब हम हत्या और हत्या में भी फर्क करेंगे.
Bahut hi Maarmik..
और आज मेरे अंदर का स्त्रीत्व संकट में है
ReplyDeleteमैं भटक रहा है जंगल-जंगल अपनी उस आधी स्त्री के लिए जो कभी उसके अंदर ही थी.
Excellent..
ReplyDeletesuperb poems...
ReplyDeleteअरुण की कविताएँ नर-नारी के रिश्तों की कविताएँ नहीं , उनके बीच के प्रेम की कविताएँ हैं. वह केवल पूरकता और सामंजस्य की बात नहीं करती बल्कि उससे आगे जाती हैं. विघटन के इस समय में ऐसी कविताएँ आश्वस्त करती हैं, भरोसा दिलाती हैं.
ReplyDeleteजो बाते पूर्व में कही गईं हैं वही मेरे द्वारा भी कही गई मान ली जाएं...क्यो कि, मै रचनाओं के बारे में कुछ भी कहने मे शब्दाभाव महसूस कर रहा हूँ।
ReplyDeleteअरुण जी बहुत ही संवेदनशील कवि हैं। दोनों कविताएं मानवीय संवेदना से भरपूर हैं।
ReplyDelete"हत्या" कविता भीतर तक हिला देती है पर समाज का यही सोच है। समाज के नियमों में बंधकर प्रेम करना ही प्रेम है, इससे बाहर जाना अपराध जिसकी सजा सामाजिक कानूनों के मुताबिक हत्या ही है।
अरुण जी ने इसे कविता में गहराई से परखा है और मार्मिकता से व्यक्त किया है।
"मेरे अंदर की स्त्री" कविता की पंक्तियां "जब तुम मनुष्य पैदा कर रही थी मेरे अंदर का पुरुष तुम्हें स्त्री बना रहा था" बहुत ही धारदार हैं।
अरुण जी को इन संवेदनाओं से भरी और गहरी कविताओं के लिये साधुवाद।
क्या अब हम हत्या और हत्या में भी फर्क करेंगे....बेहद गहन सवाल उठाया है आपने, सच से रूबरू कराती रचना ...
ReplyDeleteहालाकि तुम्हारी ही अस्थि मज्जा से बना हूँ
तुमसे ही बनकर तुम्हारे बिना कब खड़ा हो गया पता ही नहीं चला
तुम्हारे खिलाफ खड़ा हुआ....
अद्भुत लेखन है ....नमन आपकी लेखनी को अरुण जी ...
These poems of Arun Dev are a creative signal, flagged towards his poetical-destinations! Thanks ARUN!
ReplyDeleteसंवेदनाओं को स्पंदित करती दोनों ही रचना अद्भुत हैं.
ReplyDeleteसंवेदनाओं को स्पंदित करती दोनों ही रचना अद्भुत हैं.
ReplyDeleteBaat hai!
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