Sunday, December 30, 2012

"एक समाधान की प्रतीक्षा" -भाग दो, कुछ अनछुए पहलू,कुछ सवाल --- सरोज सिंह ,


सरोज सिंह         

माँ !! उसका जीवित बचना उचित था या मर जाना ? ---- कुछ अनछुए पहलू,कुछ सवाल                

दामिनी की दारुण मृत्यु की खबर मिलते ही विचार शून्य थी. बस शोक ,शर्मिंदगी,बेबसी और लाचारी के भाव ही उभरे .....कुछ सत्ताधारियों ने उसे शहीद और बलिदानी कहकर इस समस्या से पल्ला झाड़ने की चेष्टा की . ये बलिदान नहीं, नृशंस बलि है , उसका जिस्म जरुर ख़त्म हुआ है, पर उसकी रूह हम सभी के जेहन में तब तक भटकेगी,झकझोरती रहेगी ,जब तक इन्साफ नहीं होता .

मेरी 13 साल की बेटी शुभि, जो टी वी पर कार्टून शो देखना पसंद करती है, पिछले तेरह दिनों से केवल न्यूज़ चेनल ही देखती रही , उसके जाने की खबर सुनते ही मुझसे कहने लगी मम्मी अच्छा ही हुआ न दामिनी मर गयी, अगर जिन्दा रहती भी तो फिजिकली और मेंटली सोसाइटी को कैसे फेस करती ? उसकी बात बड़ी क्रूर लगी मुझे, कैसे सपाट उसने कह दिया ......पर बात में सत्यता तो थी ही .....शारीरिक तकलीफ से ज्यादा लोगों की दया दृष्टि उसके लिए कष्टकर होती .

हमारे समाज में एक नहीं ,ऐसी कई दामिनियाँ है ,जिसके बारे में हम नहीं जानते कि वो किस गर्त में गई . इस घटना के बाद लोगो के हुजूम और जन जागृति देखकर कुछ उम्मीद तो बंधी है ,शायद अब वो समय आ गया है जब समाज एक वैचारिक क्रांति चाहता है ,जहाँ सेक्स शब्द को अपराध से न जोड़ा जाये ......पीड़ितों को समाज में स्थान और सम्मान मिले.....महिलाएं खुलेआम वक़्त बेवक्त बेख़ौफ़ बाहर निकल सकें ! समानता व स्वतंत्रता हो .

इस दुर्घटना ने जेहन में कुछ प्रश्न उजागर किये हैं, जिनका हल ढूँढना और समझना चाहती हूँ ...        

• हमारे समाज में चर्चा का विशेष मुद्दा बाहर महिलाओं का पहनावा क्योँ बनता है जबकि मुद्दा बलात्कार का होता है.
• ऐसे माहौल में क्या हम बेहिचक अपने बच्चों को पढने या नौकरी करने दूसरे शहरों में भेज सकते हैं ?

• .हमारे समाज में क्योँ "प्यार" शब्द, "रेप" शब्द से भी अधिक अप्रतिष्ठित है ?

• हमारे कानून व्यवस्था में अभी भी पुरातन व अप्रासंगिक नियमों का अनुपालन क्योँ हो रहा है ?

• हमारे समाज के कुछ लोग अब भी यह मानते हैं कि महिलाओं का देर रात निकलना उचित नहीं है ?

• क्योँ बाज़ार में एसिड कहीं भी आसानी से ख़रीदा जा सकता है जबकि अल्कोहल खरीदने के लिए परमिट की जरुरत होती है ?

• यदि बलात्कार पीड़ित बच भी जाए तो क्या समाज उसे पुरवत उसी सम्मान के साथ अपनाता है ?

• हम सेक्स की सही परिभाषा अपने बच्चो के समक्ष रखने में क्योँ झिझकते हैं ...नतीजा यह होता है कि वो इधर- उधर से और सस्ती पत्रिकाओं से गलत जानकारी हासिल करते हैं जिसका नतीजा आज हम भुगत रहे हैं .

• गर्भ से लेकर गृह तक समाज से लेकर संसार तक महिलायें क्योँ सुरक्षित नहीं है ?

जारी .............                                                             

सरोज सिंह     

निवास : जयपुर
नैनीताल से भूगोल विषय स्नातकोत्तर एवं बी एड 
बास्केटबाल उत्तर प्रदेश राज्य स्तर पर सहभागिता 
विवाहोपरांत कुछ वर्षों तक सामाजिक विज्ञानं की शिक्षिका रहीं.  
सी आई एस ऍफ़ " के परिवार कल्याण केंद्र की संचालिका के तौर पर कार्यरत 
 "स्त्री होकर सवाल करती है" (बोधि प्रकाशन) ,युग गरिमा और कल्याणमयी पत्रिका और विभिन्न ई पत्रिका में कविताएँ प्रकाशित हैं

Thursday, December 27, 2012

एक समाधान की प्रतीक्षा

वंदना ग्रोवर   

16 दिसंबर दामिनी/निर्भया /पीडिता की ज़िन्दगी के साथ साथ बहुत सारी जिंदगियों में बदलाव लाया है ..बदलाव के नाम पर भय ,आक्रोश और कहीं कहीं हताशा भी नज़र आई ..

इनसे बात करने पर इन युवा बच्चियों ने जिनमे एक बी बी ए की छात्रा ,एक दिल्ली विश्वविद्यालय में बी कॉम (ऑनर्स ) के साथ साथ छात्र संघ की वाइस प्रेजिडेंट ,एक ग्राफिक डिज़ायनर ,एक 12 वीं और एक दसवीं की छात्रा हैं, अलग अलग बातचीत करने पर पहली बात सभी ने यही की कि वे सब बहुत असुरक्षित महसूस कर रहे हैं .

दसवीं में पढने वाली मुस्कान घर से अकेले बाहर निकलने में डरने लगी है ,बोलती भी कम है .उनकी माँ का कहना था कि शाम को रोज़ उन्हें बच्ची को टयूशन से लेने जाना पड़ रहा है ..

ग्राफिक डिज़ायनर अदिति को उनके पिता सुबह उनके ऑफिस छोड़ने जाते हैं और शाम को लेकर आते हैं और इनकी अपनी छोटी बहन ,जो सी ए कर रही हैं और आक्रामक स्वभाव की है ,को सख्त हिदायत है कि फब्ती कसने वालों को अनसुना किया जाए .

बी बी ए की छात्रा अनामिका के मन में काफी आक्रोश तो है ,पर असहाय होने का भाव भी है .उन्हें हर नज़र बलात्कारी लगने लगी है .अनामिका ने तो यहाँ तक कहा कि वो पीडिता का दर्द महसूस करती हैं एक बुरा सपना सा है ये ,लेकिन उनके लिए कोई भविष्य नहीं देखती .

छात्र संघ की वाइस प्रेजिडेंट अनिला कहती हैं कि असुरक्षा की भावना बढ़ी है और साफ़ तौर पर मानती हैं कि ऐसी स्थिति में कुछ भी करना संभव नहीं है .वह दिन में भी सुरक्षित महसूस नहीं कर रही हैं .

12वीं की छात्रा वेरोनिका कहती हैं कि उनकी माँ नहीं चाहती कि फब्ती कसने वालों को पलट कर जवाब दिया जाए और अपनी मां की इस सलाह से बहुत हैरान नज़र आती हैं क्योंकि उनकी नज़र में उनकी माँ हमेशा बहुत साहसी महिला रही हैं .और अब मां के दृष्टिकोण में आया बदलाव वेरोनिका समझ नहीं पा रही हैं

सभी युवतियाँ यौन शिक्षा पाठ्य-क्रम में शामिल करने के पक्ष में हैं ,सख्त क़ानून की मांग तो करती हैं लेकिन अनिला मृत्यु दण्ड के विरोध में अपनी यह दलील देती हैं कि बतौर सज़ा मृत्यु दण्ड की स्थिति में पीडिता की ह्त्या करने की संभावना बढ़ जायेगी क्योंकि एक हत्या करने पर भी समान दण्ड का प्रावधान होने की स्थिति में बलात्कारी सबूत मिटाने के लिए पीडिता की हत्या कर सकता है .

अनामिका कहती हैं कि मानसिकता और सोच में बदलाव बहुत ज़रूरी है ,अब वो फब्तियों को अनसुना करने लगी हैं जबकि अनिला पलट कर जवाब देने की अपनी जिद पर कायम हैं जबकि उनकी मित्र ऐसी स्थिति में चुप रहना पसंद करती हैं .

अनामिका कहती हैं कि कड़े क़ानून के बावजूद सोच न बदलने पर स्थिति में ज्यादा परिवर्तन की आशा नहीं दिखाई देती .पहले वो छेड़-छाड़ को लेकर भयभीत नहीं थी ,पर अब उन्हें लगता है कि यह कब एक दूसरी स्थिति में बदल जाए ,अब विश्वास नहीं किया जा सकता .काफी रोष से उन्होंने कहा कि आक्रान्ता की हिम्मत भी इसीलिए होती है क्योंकि वह जानता है कि उसे सज़ा नहीं होगी ,लोकतंत्र है ,क़ानून है पर उसका क्रियान्वयन ठीक से नहीं हुआ है

अनिला,अदिति,वेरोनिका ,अनामिका सभी का कहना था कि लड़कों के पालन-पोषण और शिक्षा पर शुरू से ध्यान दिया जाना चाहिए जिससे एक मानसिक रूप से रुग्ण युवा बनने की संभावनाएं न्यूनतम हो ..कैसे ? यह जवाब इन युवतियों ने अपनी अपने ढंग से दिया और परिवार, विशेष रूप से माता-पिता की भूमिका को महत्वपूर्ण माना .

 अभिवावक के विचार: युवा बेटियों की माँओँ से बात करने पर लगभग यही असंतोष दिखाई दिया कि इस सब के लिए प्रशासन ज़िम्मेदार है .अदिति की माँ काफी हद तक फ़ोन और इन्टरनेट को भी दोषी मानती हैं जबकि अनिला और अनामिका की माएँ कहती हैं कि इस स्थिति को नए सिरे से देखे जाने की आवश्यकता है बच्चियों को ,उनके पहनावे को दोषी ठहराना गलत है ,जब छोटी बच्चियां और उम्रदराज़ महिलायें इन हमलों की शिकार हो रही हैं ,तब पहनावे पर प्रश्न-चिह्न लगाना उचित नहीं .

सब एक बात पर सहमत थे कि अब वे भयभीत हैं ,असुरक्षा की भावना बढ़ी है ,कानून और व्यवस्था में उनकी आस्था कम हुई ,लेकिन ख़त्म नहीं हुई है और एक समाधान की प्रतीक्षा है उन्हें .....

जारी है .......

Monday, December 24, 2012

बलात्कार और आत्मा _ अंजू शर्मा

अंजू  शर्मा     

दिल्ली में हुई बलात्कार की घटना से आज  पूरा देश सकते की स्थिति में है ... इंसाफ की मांगें जायज है ...  .. लेकिन अंजू शर्मा द्वारा धैर्य से लिखा ये आलेख पढना बहुत जरुरी है ...  क़ानूनी जानकारी  और भी बहुत से महत्वपूर्ण तथ्यों को उजागर करता आलेख ... धन्यवाद अंजू  !!! 





मेरी नौ वर्षीया बेटी ने कल मुझसे पूछा कि रेपिस्ट का क्या मतलब होता है। पिछले कई दिनों से वह बार-बार रेपिस्ट, रेप, बलात्कार, फांसी, दरिन्दे, नर-पिशाच जैसे शब्दों से दो-चार हो रही है। रेप की विभत्सता पर बात करते हुए, या आक्रोश जताते हुए, उसके आने पर बड़ों का चुप हो जाना या विषय बदल देना उसे समझ में आता है। वह पूछती है कि आखिर ऐसा क्या हुआ है जो वह नहीं जानती, और उससे छुपाया जा रहा है। मैं अक्सर उससे अजनबियों से सावधान रहने या सुरक्षा के उपायों पर ध्यान देने सम्बन्धी बातें करती रहती हूँ, ऐसे में मैं अक्सर 'किडनैप' शब्द का प्रयोग करती हूँ। कल भी मैंने उसे बताया कि एक बच्ची को कुछ लोगों ने अकेले बाहर निकलने पर किडनैप कर मारा और ज़ख़्मी कर दिया। मेरी बच्ची यह नहीं समझ पाती है कि आखिर उसे ज़ख़्मी क्यों किया गया, ये भी नहीं कि हर बार ये बात करते हुए मेरी आखें क्यों भर आती है। दुखद है कि हम एक ऐसे युग का निर्माण कर रहे हैं, जहाँ बच्चे समय से पहले परिपक्व हो रहे हैं, जहाँ रेप, रेपिस्ट जैसे शब्द उनकी दिनचर्या का अवांछनीय पर अटूट हिस्सा बन रहे हैं और हम लोग मुंह बाये कानून की ओर आशा से देखते हैं।

बलात्कार और आत्मा : हम दरअसल एक ऐसे देश के वाशिंदे हैं जहाँ परम्पराएँ मज़बूत हैं और कानून कमज़ोर। हमारे यहाँ बलात्कार का सीधा-सीधा सम्बन्ध आत्मा से जोड़ा जाता है। एक युवती की अस्मिता उसके 'कौमार्य' या 'शील' के 'अक्षत' रहने में निहित मानी जाती है। उसके स्वतः इसे 'खो' देने में भी वही दोषी मानी जाती है और ज़बरन छीन लेने में भी वही दोषी है। ऐसे लोगों की कमी नहीं हैं जो पीडिता के दोष गिनने में ज्यादा रूचि दिखाते हैं, "आदमी का क्या है, करके अलग हो गया, जिंदगी तो उसकी ख़राब हुई न" या फिर "ये सारी उम्र का कलंक तो उसे घरवाले ढोयेंगे ना" जैसे जुमलों की कहीं कोई कमी नहीं होती। मानसिकता बदलने की बजाय समझाने वाले लोगों को व्यावहारिक होने का उपदेश देना भी आम बात है। हमारे समाज में रेप से पीड़ित स्त्री का समाज में सामान्य जीवन जी पाना बहुत बड़ी बात है। कदम कदम पर कुत्सित मानसिकता से लडती वह लगभग हर रोज़ बलत्कृत होती है, घर में, समाज में, थाने में, अदालत में और आम जिंदगी में भी। जबकि उसे न तो किसी की सहानुभूति की दरकार होती है और न ही वह दया का पात्र बनना चाहती है, इस घटना को एक दुर्घटना या दुस्वप्न मानकर जीवन में आगे बढ़ना ही सबसे जरूरी कदम होता है, जिसमें उसके परिजन, परिचित, समाज और कानून को अपनी अपनी भूमिका सुनिश्चित करना जरूरी है।

बलात्कार क्या सेक्स है? : बलात्कार को सेक्स से जोड़ने में भी हम गलती करते हैं। आज सेक्स के लिए सर्वथा अनुपयुक्त महिला वर्ग ही इसका ज्यादा शिकार हो रहा है। अबोध छोटी, मासूम बच्चियों से लेकर 70 साल वृद्धा तक बलात्कारियों का शिकार हो रही हैं, जो सेक्स करने में या शारीरिक सम्बन्ध स्थापित करने जैसी चीज़ से कोसो दूर हैं। जाहिर है ऐसे बलात्कार शारीरिक न होकर मानसिक ज्यादा होते हैं। एक स्त्री के अधिकार क्षेत्र में जबरन अतिक्रमण के अतिरिक्त इसमें कुत्सित मानसिकता, कुंठा या दम्भी पौरूष के झूठे तुष्टिकरण की भूमिका अहम् है। गौहाटी वाली घटना के विरोध में 'फर्गुदिया' द्वारा आयोजित विरोध-गोष्ठी में अपनी बात रखते हुए वरिष्ठ कवयित्री डॉ अनामिका ने कहा था कि एक स्त्री का अपनी देह पर पूरा अधिकार है, इसे देने या न देने का निर्णय भी उसी का होना चाहिए। यदि एक स्त्री की इच्छा के विरुद्ध उसे छुआ भी जाता है तो यह बलात्कार है। ऐसे में महिला के सर्वाधिक कोमल देह-क्षेत्र के शोषण के बाद उसे क्षत-विक्षत कर देने या मार-पीट करने की मानसिकता भी इसी बात की पुष्टि करती है कि सेक्स से कहीं अधिक जबरन आधिपत्य जमाकर अपनी कुंठा का स्खलन ही बलात्कारी का लक्ष्य होता है।

बलात्कार के बढ़ते मामले : CNN के अनुसार पिछले 40 सालों में रेप केसों में 875% की वृद्धि हुई है। 1971 में जहाँ यह संख्या 2487 थी, 2011 में 24406 मामले सामने आये हैं। अकेले नई दिल्ली में 572 केस पिछले साल सामने आये और 2012 में 600 से अधिक मामले सामने आये हैं। गौरतलब है इन आंकड़ों में उन मामलों का जिक्र नहीं है जो दबा दिए गए या सामने नहीं आये।

बलात्कार और क़ानून : भारतीय कानून रेप को एक अपराध मानता है और इस पर क्रिमिनल लॉ लागू होता है। इंडियन पैनल कोड (IPC) का तहत किसी भी महिला के साथ उसकी इच्छा के विरुद्ध जानबूझकर, गैरकानूनी तरीके से जबरदस्ती किया गया सेक्स रेप की श्रेणी में आता है। इसमें कम से कम 7 साल से लेकर अधिकतम 10 साल तक की सजा और फाइन का प्रावधान है। कस्टडी में, एक गर्भवती महिला या 12 साल से छोटी महिला या गैंग रेप में कम से कम 10 साल की सजा का प्रावधान है। हालाँकि इस कानून का एक दुखद पहलू है कि अप्राकृतिक सम्बन्ध को रेप न मानकर इसके लिए अलग धारा का प्रावधान है। यहाँ ये बात ध्यान देने योग्य है आखिर रेप के बाद कितने फरार अपराधी पकड़ में आते है, कितनों पर रेप साबित होता है और कितनो को सज़ा मिलती है। अधिकांश पहले ही ज़मानत पर छूट कर पीडिता और उसके परिवार को आतंकित करते हैं। एक अपराधी सात या दस साल की सजा के बाद समाज में वापिस आजाद होता है फिर से अपनी जिंदगी शुरू करने के लिए जबकि पीडिता पूरी उम्र उस अपराध की सजा भुगतने के लिए अभिशप्त होती है जो उसने किया ही नहीं।


हाल ही में फेसबुक या ट्विटर जैसी सोशल साइट्स पर इसके लिए बखूबी स्टैंड लिया गया है। लोग खुलकर अपना आक्रोश जाहिर कर रहे हैं, और एकजुट होकर प्रदर्शन या कैंडल मार्च जैसी गतिविधियों को भी अंजाम दे रहे हैं। गुजरात चुनावों के परिणाम आने के दौरान मीडिया ने भले ही विषय बदल दिया हो, सोशल साइट्स अपना काम बखूबी कर रही हैं, लोग जुड़ रहे हैं, बात कर रहे है, सभी प्रशासन भी हरकत में आया और गिरफ्तारियां हुई। ऐसे में कुछ बिन्दुओं पर विचार करना जरूरी है :

1. इस लौ को जलाए रखिये, साथ ही कोई स्थायी और सार्थक हल भी ढूँढा जाना चाहिए।

2. जो लोग समर्थ हैं आगे आयें, ऐसे मामलों में कम से कम त्वरित न्याय होना भी बहुत संतोषजनक रहेगा, ताकि बलात्कारियों के हौंसले पस्त हों! कानून में बदलाव, यानि सज़ा का उम्रकैद में बदलना और रेप के साथ साथ शारीरिक उत्पीडन के सभी मामलों को भी रेप की श्रेणी के अंतर्गत लाये जाने पर विचार किया जाना चाहिए।

3. उस लड़की और ऐसी अन्य लड़कियों को सामान्य जीवन जीने में न केवल मदद करनी चाहिए, अपितु उन्हें प्रेरित कर हर तरह के व्यर्थ के ग्लानि भाव से मुक्त करना होगा, क्योंकि वे दोषी या अपराधी नहीं हैं।

4. समाज सुधार का कार्य अपने घर से शुरू करना होगा, अपने जीवन से जुड़े पुरुषों चाहिए वे पिता, भाई, पति, पुत्र या फिर मित्र हों, को स्त्री जाति के सम्मान और सुरक्षा के लिए प्रेरित करना होगा, ताकि बलात्कारी मानसिकता का ह्रास हो।

5. ऐसी दुर्भाग्यपूर्ण परिस्थितियों में आगे भी इसी तरह एकजुटता दिखानी होगी, चाहे कोई भी जगह हो दिल्ली या सुदूर के क्षेत्र, स्त्री हर जगह स्त्री है।

6. समर्थ लोग किसी बड़े आयोग के बजाय छोटी छोटी इकाइयों पर ध्यान दें, जहाँ पीड़ित महिलाओं की जल्द सुनवाई हो।

7. महिलाओं को अपनी बेटियों को मज़बूत बनाना होगा, मन से भी और शरीर से भी। उनके मन से बेचारगी के भाव को दूर कर किसी भी परिस्थिति से लोहा लेने के लिए सक्षम बनाना होगा। मेंटली काउंसलिंग और मार्शल आर्ट दोनों ही आप्शन आज जरूरी है .

8. महिलाओं को भी उपभोग की वस्तु जैसी मानसिकता से अब ऊपर उठना होगा, अस्मिता के दोहरे मापदंड को नकारना होगा, चाहे आप स्वयं हो या अन्य कोई महिला!

लिस्ट यहीं ख़त्म नहीं होगी, आप लोगों के विचार करने पर ढेरों बिंदु जुड़ सकते हैं, लेकिन इनकी सार्थकता इनके विचार-मात्र न रहकर क्रियान्वित होने पर ज्यादा है!

Sunday, December 23, 2012

'दामिनी प्रकरण' से बेहद आहत लेकिन बुलंद हौंसलों के साथ

चंद्रकांता        

Delhi, India






'स्त्री देह के लिए उन्मांदी' इस भीड़ का यह चरित्र हम सबनें मिलकर तैयार किया है।.."

स्त्री का 'स्त्री होना' हमारे समाज की संकीर्ण सोच को 'बर्दाश्त नहीं होता'.दामिनी केस में पुलिस और प्रशासन की चूक बहस का विषय है और निसंदेह धिक्कार का भी। जाति या वर्ग का समीकरण जो भी रहा हो समाज और युवाओं की संगठित और सक्रिय प्रतिक्रिया बेहद प्रशंसनीय है।लेकिन इन तमाम प्रायोजित या स्वतः प्रेरित गतिविधियों के बीच एक प्रश्न हम सभी से है -

क्या हमारे समाज के पुरुष वर्ग को पुलिस और प्रशासन या संसद सामजिक और व्यक्तिगत संस्कार दे रही हैं?हमारी स्त्रियाँ क्या केवल इसलिए असुरक्षित है की कानून और प्रशासन का चरित्र और स्वभाव उनके अनुकूल नहीं है ??

सच तो यह है की 'स्त्री देह के लिए उन्मांदी' इस भीड़ का यह चरित्र हम सबनें मिलकर तैयार किया है।तब, जब-जब हमनें अपनें भाइयों,अपनें पतियों,पुरुष मित्रों और अपनें लड़कों को अपने आचार-विचार-व्यवहार और रीति-संस्कारों से यह सीख दी की स्त्री और उसकी आकर्षक देह पर उनका एकाधिकार है; और बहिन,पत्नी,मित्र, सहकर्मी और पुत्री किसी भी रूप में उसका अस्तित्व स्वतंत्र नहीं है।क्यूंकि हमारे समाज नें इस बात के लिए कोई स्पेस नहीं रखा की बहनें अपनी रक्षा खुद कर सकें तो उनकी 'सुरक्षा की जमींदारी' भाइयों पर छोड़ दी गयी।चूंकि स्त्री को 'पराया धन' कहा गया इसलिए जिस घर-परिवार में उसनें जनम लिया उनकी भूमिका केवल उसके ब्याह तलक सीमित रह गयी; वर की योग्यता-अयोग्यता और उसके चुनाव का अधिकार भी स्त्री को नहीं दिया गया।फिर मंगलसूत्र-सिन्दूर जैसे उपबंधों का अधिभार डालकर स्त्री की सीमा-भूमिका तय कर दी।समाज-परिवार में स्त्री की भूमिका को लेकर आधुनिक होने को लेकर हम आज भी भयभीत हैं।
हममें से अधिकाँश का रवैया स्त्री को लेकर यही है।और हमारी यही अपाहिज मानसिकता स्त्री के सन्दर्भ में हमारा व्यवहार तय करती है।इसलिए ऐसी किसी भी दुर्घटना की पहली जिम्मेदारी हमारी है।

और हाँ, बलात्कार या स्त्री गरिमा हनन का कोई केस केवल इसलिए सहनीय नहीं हो जाता की पीड़िता आदिवासी या तथाकथित निम्न-उच्च कही जाने वाली किसी जाति /वर्ग से है या फिर अपराधी नें अधिक हिंसा और अधिक अमानवीय व्यवहार का इस्तेमाल नहीं किया।कम से कम इस बेहूदा मानसिकता से बाहर आइये तब स्त्री पक्ष की बात कीजिये।

जो भी पाठक इस लेख की संवेदना को साझा कर पा रहे हैं उनसे लेखिका का निवेदन है कि, समाज और घर-परिवार में स्त्री को अपनी भूमिका खुद तय करने दीजिये।। हम सभी जब तलक अपनी और अपने समाज की जिम्मेदारियों को आँख-भींचकर अनदेखा करते रहेंगे 'दामिनी' असुरक्षित रहेगी बस में, कार में, पब में, स्कूल-कालेज में, सड़क पर और घर की चारदीवारी में भी ..

'दामिनी प्रकरण' से बेहद आहत लेकिन बुलंद हौंसलों के साथ
चंद्रकांता

Friday, December 21, 2012

सवाल सबके है और वाजिब हैं .....जवाब ???

वंदना ग्रोवर            

यूँ हर सवाल अपने आप में पूरा जवाब है .. फिर भी इन सवालिया जवाबों पर समाज के सवाल खड़े हो जाते हैं ..क्यों ? क्यों कि आपका दर्ज़ा एक औरत का है जिसे कुछ भी माना जाता हो ..पर इंसान तो हरगिज़ नहीं माना जाता ... सवाल सबके है और वाजिब हैं .....जवाब ???







मैं क्यों दिन भर सोचती रहूँ 
क्यों मैं रात भर जागती रहूँ
मैं क्यों थरथरा जाऊं आहट से
क्यों मैं सहम जाऊं दस्तक से
मैं क्यों चुप रहूँ
मैं कुछ क्यों न कहूं

मैं क्यों किसी के बधियाकरण की मांग करूं
क्यों मैं किसी के लिए फांसी की बात करूं
मैं क्यों न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाऊँ
क्यों मैं जा जाकर आयोगों में गुहार लगाऊं
मैं क्यों न जीऊँ
मैं क्यों खून के घूंट पियूं

मैं क्यों खुद अपने मित्र तय न करूं
क्यों मैं घर से बाहर न जाऊं
मैं क्यों अपनी पसंद के कपडे न पहनूं
क्यों मैं रात को फिल्म देखने न जाऊं
मैं क्यों डरूं
मैं क्यों मरूं

मैं क्यों अस्पतालों में पड़ी रहूँ वेंटिलेटरों पर
क्यों मैं मुद्दा बनूँ कि चर्चा हो मेरे आरक्षणों पर
मैं क्यों इंडिया गेट के नारों में गूंजती रहूँ
क्यों मैं विरोध की मशाल बन कर जलती रहूँ
मैं क्यों न गाऊं
मैं क्यों न खिलखिलाऊं

मैं क्यों धरती-सी सहनशीलता का बोझ ढोऊँ
क्यों मैं मर मर कर कोमलता का वेश धरूं
मैं क्यों दुर्गा,रणचंडी ,शक्तिरूपा का दम भरूं
क्यों न मैं बस जीने के लिए ज़िन्दगी जियूं
मैं क्यों खुद को भूलूं
मैं क्यों खुद को तोलूँ

मैं क्यों अपने जिस्म से नफरत करूं
क्यों मैं अपने होने पर शर्मिंदा होऊं
मैं क्यों अपने लिए रोज़ मौत मांगूं
क्यों मैं हाथ बांधे खड़ी रहूँ सबसे पीछे
मैं क्यों होऊं तार तार
मैं क्यों रोऊँ जार जार

मेरे लिए क्यों कहीं माफ़ी नहीं
क्यों मेरा इंसान होना काफी नहीं

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Monday, December 17, 2012

सोनरूपा विशाल की कविता 'टिप'

सोनरूपा विशाल       

पश्चिमी उत्तरप्रदेश का एक छोटा सा ज़िला है बदायूँ | इल्तुतमिश,अमीर खुसरो ,हज़रत निजामुद्दीन, इस्मत चुगताई ,फानी बदायूँनी ,शकील बदायूँनी ,दिजेंद्र नाथ'निर्गुण ',मुंशी कल्याण राय ,पद्म विभूषण उस्ताद गुलाम मुस्तफ़ा खां ,पद्म श्री उस्ताद राशिद खां ,ओज कवि डॉ.ब्रजेन्द्र अवस्थी ,राष्ट्रीय गीतकार डॉ.उर्मिलेश जैसे मूर्धन्य साहित्यकारों एवं संगीतकारों की जन्मभूमि बदायूँ में मैं भी जन्मी हूँ ,यहाँ की मिट्टी में ही संगीतिकता,साहित्यकता,सांस्कृति  कला  की सुगंध मिली हुई है |

अँग्रेज शासित समय में निर्मित 'बदायूँ क्लब 'जो कि पहले यहाँ के कलेक्टर 'एलन' के नाम पर 'एलन क्लब' के नाम से जाना जाता था ,बदायूं के इतिहास में बड़ा एतिहासिक महत्व रखता है उसकी महिला विंग की विगत दो वर्षों से मैं सक्रेटरी रही हूँ |बहुत से सांस्कृतिक आयोजन हम समय -समय पर करते रहे हैं समय -समय पर क्लब सदस्यों की श्रीमतियाँ एकत्रित होती हैं 'गेट टुगेदर' के लिए ,वहाँ बड़ी खुशमिज़ाजी से एक बारह साल का बच्चा जो कि क्लब के एक employee का बेटा है.....चाय,पानी इत्यादि की service कर देता है इस उम्र में भी एक अक्षर लिखना उसके लिए भारी है , स्कूल का मुँह उसने देखा ही नहीं .......

उसका शुष्क बचपन मेरी 'टिप' से कुछ पल के लिए हरा हो जायेगा ,इसी लोभ में वो मेरे पास मंडराता रहता है (ऐसा मुझे महसूस होता है ) ज़रा सोचने की आदत ज़्यादा है इसीलिए घर जाकर भी उसका चेहरा आँखों के सामने बार बार आता रहता है जब अपने बच्चों को उसी टिप वाले नोट को एक बस एक chocolate के स्वाद में ही उड़ता हुआ देखती हूँ | किसी के लिए 'कुछ' इतना ज्यादा और किसी के लिए 'कुछ 'इतना कम...... ख़ैर 'इसे कहते हैं'क़िस्मत' ...इस सेंटेंस को डिफाइन करने में काम आते होंगे ये कुछ और ज़्यादा जैसे लफ्ज़ ...........
कुछ सोचा तो कुछ लिखा भी.............कुछ लिखा कुछ मिटाया हुआ आज आप के साथ.........

मेरी ये रचना समाज के कुछ ऐसे लोगों ( जिनमें मैं भी शामिल हूँ )केंद्रित है जो जागरूक होने का दंभ तो भरते हैं लेकिन उनकी जागरूकता सिर्फ स्वयं के सुकून लिए है ,लेकिन ये भी माना जाये कि अगर हमारे मन में संवेदनाएं हैं तो संवेदनाएं होना भी आज के यांत्रिक युग में एक उपलब्धि ही कही जायेगी लेकिन अपनी अपनी व्यस्तताओं में घिरे हम सब ऐसे बच्चों की शिक्षा के प्रति उदासीनता दूर करने की कोशिशों को गंभीरता से नहीं लेते और लेते भी हैं तो समय के अभाव का रोना रोकर कतराए हुए से रहते हैं या इनके विकृत हो चुके बचपन जिसका कारण मैं इनकी नासमझ परवरिश को ही मानती हूँ , को सुधारना इतना जटिल होता है कि कोशिशें इनके सामने नाकाम सी होती देख उन्हें उसी हाल में छोड़ कर अपनी जिंदगी में हम फिर लौट आते हैं जहाँ वो अपने जीवन की विडंवनाओं से अनजान हैं लेकिन मस्त हैं .....इनके लिए हमारा पहला कदम ये भी होना चाहिए कि ये किताबें उठायें उसमें दर्ज अक्षरों को पढ़ने के लिए नहीं बल्कि समझने के लिए भी!

टिप                   
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वो बचपन
जी हाँ
सिर्फ़ कम उम्र ही वजह है
कि बचपन कहा जाये
वरना कहाँ है बचपन ?

मैले कुचले कपड़ों में सिमटी दुर्गंधित देह में
साँस लेता बचपन
सफाई जिसके लिए अभिशाप जैसी है
बड़ी चुस्ती फुर्ती से ,सफाई से प्लेट्स चमका रहा है
किसी लोभ में

वही बचपन
जिसकी सूखी जीभ
प्लेटों में सजे स्वाद
बार बार गीली कर रहे हैं

उसी बदरंग से बचपन पर
न जाने कितनी बार
सार्वजानिक तौर पर संवेदनाएं जताती रही हूँ ,
व्यक्तिगत रूप से अपनी संवेदनाओं को
कुछ जरूरत भर की चीज़ें ,कपड़े,किताबें देकर
संतुष्ट हो जाती हूँ

आज जब किसी से सुना
कि मेरे दिए कपड़े
इतवार के बाज़ार में बिकने वाले उतरन कपड़ों के साथ बिकते हैं
और किताबें चूल्हे की आग तो तेज़ करती हैं
बाक़ी चीजों को बेचने के बाज़ार का रास्ता भी वो जानता है
क्यों कि ज़रूरी है बेचना
जुआ खेलने के लिए

तब से
अपनी नाम मात्र की संवेदनाएं को
मैंने पर्स में संभाल कर रख लिया हैं

लेकिन पता नहीं क्यों मैं
कुछ आश्वस्त सी हूँ
भले ही ये 'छोटू ' जाहिल बना रहे, अनपढ़ रहे
लेकिन ऊपर वाले की बक्शी हुई साँसों को खींच ही लेगा
इन चालाकियों से आज के समय के लिए
क़ाबिल सा लगने लगा है मुझे
अब ये बचपन ,

लेकिन
मैं
मैं क्या
सिर्फ
लिखूँ
जताऊँ.........

और इतिश्री ?



सोनरूपा विशाल  


शिक्षा - एम.ए (पूर्वार्द्ध) संगीत -दयालबाग विश्वविद्यालय,आगरा
एम.ए (हिंदी)पी .एच . डी -एम.जे.पी रूहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली
प्रयाग संगीत समिति इलाहाबाद द्वारा 'संगीत प्रभाकर ' की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण

सम्प्रति-
आई सी सी आर एवं इंडियन वर्ल्ड कत्चरल फोरम (नयी दिल्ली ) द्वारा गजल गायन हेतु अधिकृत
दिल्ली दूरदर्शन से समय समय पर कवितायेँ प्रसारित
रामपुर आकाशवाणी से ग़जल गायन हेतु विगत ९ वर्षों से अधिकृत
लखनऊ एवं बरेली आकाशवाणी से गायन का प्रसारण'संस्कार' चैनल से भजन प्रसारित
अखिल भारतीय कविसम्मेलनों में काव्य पाठ
बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संग्रह 'स्त्री होकर सवाल करती है ' में रचनायें प्रकाशित
हिंदी की ख्यातिलब्ध पत्र -पत्रिकाओं एवं ब्लॉगस पहली बार, नव्या,सरस्वती सुमन ,आधारशिला,परिंदे ,गगनांचल,पांखी,वटवृक्ष,सृजन गाथा इत्यादि में रचनाएँ प्रकाशित

कृति - 'आपका साथ' (डॉ.उर्मिलेश की गजलों और गीतों की आडियो सी.डी सस्वरबद्द

सम्मान -मॉरिशस में आधारशिला फाउंडेशन द्वारा आयोजित विश्व हिंदी सम्मलेन में 'कला श्री सम्मान'
'उदभव विशिष्ट सम्मान ' डॉ.अशोक वालिया द्वारा ( पूर्व वित्त मंत्री भारत सरकार)
'बदायूँ गौरव सम्मान' तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मुलायम सिंह यादव (उ.प्र.) द्वारा
उ.प्र के पूर्व राज्यपाल श्री मोतीलाल वोहरा द्वारा सम्मान

डॉ.उर्मिलेश जन चेतना समिति की आजीवन सदस्य
संपर्क - डॉ.सोनरूपा

'नमन 'opp. राजमहल गार्डन

प्रोफेसर्स कॉलोनी , 'बदायू'(उ .प्र) २४ २६०१

Sunday, December 16, 2012

"एक कली मुस्काई "




उपासना सियाग   इधर कविताओं के साथ-साथ कहानियाँ भी लिख रहीं हैं, जीवन में दुःख और सुख धूप-छाँव  की तरह आते-जाते रहतें हैं , उपासना सियान जी की कहानियाँ बनते-बिगड़ते  रिश्तों में सामंजस्य बैठाये रखने का संदेस देतीं हैं. प्रस्तुत है उनकी अप्रकाशित कहानी "एक कली मुस्काई".







सोनाली हर बार यानि पिछले आठ वर्षों से अपना जन्म -दिन , घर के पास के पार्क में खेलने वालों बच्चों के साथ ही मनाती है। उनके लिए बहुत सारी  चोकलेट खरीद कर उनमे बाँट देती है।आज भी वह पार्क की और ही जा रही है।उसे देखते ही बच्चे दौड़ कर  पास आ गए।और वह ...! जितने बच्चे उसकी बाँहों में आ सकते थे , भर लिया। फिर खड़ी हो कर  चोकलेट का डिब्बा खोला और सब के आगे कर दिया।बच्चे जन्म-दिन की बधाई देते हुए चोकलेट लेकर खाने लगे।
 " एक बच्चा इधर भी है ,  उसे भी चोकलेट मिलेगी क्या ...?" सोनाली के पीछे से एक आवाज़ आई।
सोनाली ने अचकचा कर मुड़  कर देखा।उसे तो वहां कोई बच्चा नज़र नहीं आया। उसके सामने तो एक सुंदर कद -काठी का एक व्यक्ति खड़ा था। हाँ , उसके चेहरे पर एक बच्चे जैसी शरारती मुस्कान जरुर थी।
" कहाँ है बच्चा ...? मुझे तो नज़र नहीं आ रहा।" सोनाली थोड़ी सी चकित हुयी सी बोली।
" वह बच्चा मैं ही हूँ , मैं अपनी माँ का सबसे छोटा बेटा  हूँ और अभी मेरे कोई बच्चा  नहीं है तो मैं खुद को बच्चा ही मानता हूँ ...!"उस अजनबी ने हँसते हुए कहा।
" लेकिन मैं दो चोकलेट लूँगा ...!" उसने बच्चों की तरह की कहा।
" लेकिन क्यूँ ...! दो किसलिए ? सभी बच्चों ने एक -एक ही तो ली है ...!" सोनाली ने भी उसके सेन्स ऑफ़ ह्यूमर को समझते हुए ,थोडा सा डांटते हुए कहा।
" लो कर लो बात , मैं बड़ा भी तो हूँ एक चोकलेट से कैसे काम चलेगा मेरा ...!" वह फिर बच्चों की तरह ही मुस्कुरा कर बोला।
" लीजिये आप जितनी  मर्ज़ी हो उतनी ही चोकलेट लीजिये ..." हंस पड़ी सोनाली। उसके आगे डिब्बा ही कर दिया।
" शुक्रिया ...! मैं दो ही लेता हूँ। मेरा नाम आलोक है। मैं यहाँ आगरा में एक सेमिनार में आया हूँ। मैं लखनऊ से हूँ और बोटनी का लेक्चरर हूँ। शाम को घूमने  निकला तो यह पार्क दिख गया और यहाँ आ गया।यहाँ आपको चोकलेट लिए देखा तो मुझसे रहा नहीं गया।
 "आप यहीं की रहने वाली है क्या ? " आलोक ने पूछा।
" जी हाँ ...मैं यहाँ सरकारी स्कूल में हिंदी पढाती हूँ। " कह कर सलोनी चल दी।
सलोनी घर आ कर चुप चाप कुछ देर कुर्सी पर बैठी रही। फिर उसकी माँ का कानपुर  से फोन आ गया।
थोड़ी ही देर में बाहर  का अँधेरा गहराने लगा था।सोनाली को अब उठाना ही पड़ा। लाइट्स जलाते हुए सोच रही थी , घर में तो रौशनी हो गयी पर मन के अन्दर जो अँधेरा है वह कैसे दूर होगा।
कहने को जन्म-दिन था पर ऐसा भी कभी मनाना होगा कब सोचा था।ऐसे तो लगभग दस सालों से होता आ रहा है।जब से वह आगरा आयी है।
रसोई में गयी कुछ बनाया कुछ फ्रिज से निकाला, गर्म किया और खा लिया।खाते हुए सोच रही थी कि इस बार छुट्टियों में घर जा कर आएगी।
फिर अपना लेपटोप लेकर बैठ गयी। 
आज कल लोगों में सोशल साइट्स भी काफी लोकप्रिय हो चुका है। उसका भी एक एकाउंट था। उसी में थोड़ी बिजी हो गयी। तभी उसकी नज़र एक  दिलचस्प वक्तव्य पर पड़ी।साथ ही में उस पर की गयी रोचक टिप्पणी पर भी।पढ़ कर उसे हंसी आ गयी।गौर से देखा के वह कौन है। उसे याद आया शायद ये वही है जो उसे आज शाम को पार्क में मिला था।
"अरे हां ...!लगता तो वही है नाम भी वही है आलोक , आलोक मेहरा ...!" उसने उस को मित्रता का निवेदन भेज दिया।

सुबह फिर से वही दिनचर्या ....जल्दी उठो , नाश्ता बनाओ , स्कूल जाओ फिर घर। उसे इंतजार होता था शाम का , जब वह पार्क में जा कर कुछ देर बच्चों के साथ बतिया लेती और मन में ख़ुशी सी महसूस करती थी।
और फिर रात का काला अँधियारा शरू होता तो उसे लगता शायद रात उसके मन के अंधियारे से अँधेरा  और ले लेती है।
रात के खाने से निबट कर वह अपना लेपटोप लेकर बैठी और अपना सोशल नेटवर्क पर अपना अकाउंट खोल कर देखा तो आलोक का मेसेज आया हुआ था।
" अच्छा जी आप सोनाली है ...,आपने नाम तो बताया ही नहीं था उस दिन , ये तो आपकी सूरत  कुछ याद रह गयी थी तो  आप पहचान में आ गयी।"
सोनाली ने बताया , वह कानपुर की रहने वाली है और यहाँ आगरा में पिछले दस सालों से हिंदी की टीचर है। परिवार के बारे में पूछा तो वह बात टाल  गयी।
आलोक ने बताया वह चार भाई -बहन है और  वह सबसे छोटा है। सभी लोग साथ ही रहते हैं और ' वेल सेटल्ड ' है। उसने अभी शादी नहीं की हालाँकि वह 45 साल का है।क्यूँ नहीं की , क्यूँ की उसे कोई मिली ही नहीं उसके मन के मुताबिक।जब मिलेगी वह शादी जरुर करेगा।
थोड़ी देर  इधर -उधर की बात कर वह  रात हो गयी कह कर बंद कर के सोने चली गयी।
सोनाली सोच रही थी के वह आलोक को उसके बारे में क्या बताती ...!
क्या यह बताती वह कि उसके 25 वर्ष की एक बेटी और 20 वर्ष का बेटा है। वह तलाक शुदा है।आलोक ही क्यूँ वह किसी भी को क्यूँ बताये अपनी कहानी के बारे में।

सोनाली बचपन से ही बहुत शान -शौकत से पली थी।पिता जिला स्तरीय एक उच्चाधिकारी थे।बहुत रौबिला व्यक्तित्व था उनका। मजाल थी के कोई उनके आगे कोई आवाज़ भी ऊँची  कर सके। अपने पिता की बेहद लाडली सोनाली पढाई में  भी बहुत अच्छी  थी। माँ के तो आँखों का तारा और भाई की बहुत अच्छी और ज्ञानवान दीदी थी वह।
वह रविवार ही था जिस दिन उसके पिता भानु प्रताप किसी से फोन पर बात कर रहे थे। बात बंद कर के उसकी माँ नीलिमा को आवाज़ दी। वह बता रहे थे के उनके और उनकी बिटिया के तो भाग्य ही खुल गए। एक बहुत बड़े और प्रतिष्ठित व्यवसायी के यहाँ से सोनाली के लिए रिश्ता आया है।माँ ने बात का विरोध करते हुए कहा के अभी तो सोनाली सिर्फ दसवी कक्षा में ही है मात्र अठारह वर्ष की ही तो है। पर पिता को उसकी पढाई से मतलब नहीं एक अच्छा रिश्ता हाथ  से ना चला जाये , यह ज्यादा चिंता थी। उनके विचार से वह पढाई तो शादी के बाद भी कर सकती है लेकिन ऐसा अच्छा रिश्ता निकल जायेगा तो फिर क्या मालूम मिले या नहीं।सोनाली की मनस्थिति कुछ अजीब सी थी।ना तो उसने सहमती जताई और ना ही विरोध।वैसे भी उससे पूछा भी किसने था।जन्म कुंडली भी मिल गयी।
फिर आनन - फानन रिश्ता तय हो गया। उनके दूसरे रिश्ते दारों के लिए यह बहुत इर्ष्या का विषय बन गया और तब तो और भी जब उसकी सगाई में हीरे की अंगूठी और बहुत कीमती जेवर और कपडे आये।यह एक किवदंती की तरह कई दिन तक चर्चा का विषय बना रहा।
दोनों की जोड़ी कोई खास जच  भी नहीं रही थी।यह जलने वालों को कुछ सुकून भी दे रही थी।सोनाली बहुत सुंदर , सुन्दर कद , जो भी देखता एक बार बस देखता ही रह जाता। सुमित साधारण रंग रूप , कद में ज्यादा लम्बा नहीं था।तिस पर थोडा मोटा भी था।पर लड़के का रूप कौन देखता है बस उसमे गुण ही होने चाहिए ....रूप का क्या वह एक बार ही दिखता है गुण तो सारी  उम्र काम आते है। लेकिन कुछ तो बराबरी का होना चाहिए था। लेकिन यह सभी  सारे सवाल   हीरे की अंगूठी की चमक में दब कर रह गए।
सोनाली की सास तो उस पर बलिहारी जा रही थी उसके सर पर बार-बार ममता से हाथ फिराए जा रही थी।आखिर क्यूँ नहीं ममता लुटाती। उसकी सबसे बड़ी ख्वाहिश पूरी होने जा रही थी।बहू लाने  की ...हर माँ की इच्छा होती है एक चाँद सी बहू लाने की।
दसवीं का रिजल्ट आने के बाद सोनाली की शादी कर दी गयी। वहां भी बहुत स्वागत हुआ उसका। सास सच में ही बहुत ममतामयी माँ ही साबित हुयी।आखिर उनके एकलौते बेटे की बहू जो थी।ससुर भी बहुत अच्छे थे।और पति सुमित का व्यवहार ठीक -ठाक ही था।सुबह घर से निकलता शाम को ही घर आता ...पिता के साथ काम तो संभालता था पर ..

अब सोनाली को समझ आगया था कि उन्होंने अपने बिगडेल बेटे के पैरों में लगाम डालने के लिए इतनी जल्दी शादी की है।उसके साथ कोई दुर्व्यवहार भी नहीं था तो कोई लगाव भी नहीं था सुमित को। इसी दौरान उसकी सास ने उसको बाहरवीं की परीक्षा देने के लिए फार्म भरवा दिया। बीच में पढाई और साथ ही पति के साथ हनीमून भी दोनों चल रहा था। और हनीमून भी क्या था बस घर वालों को भुलावा ही  देना था।वहां भी काम के बहाने से सुमित दिन भर गायब ही रहता। कई-कई दिन बाहर रहने के बाद घर  वे दोनों लौट आते। 
इतना पैसा -रुतबा हौने के बाद भी सोनाली का मन एक बियाबान सा ही था।कोई फूल खिलने की उम्मीद नहीं थी वहां पर।
लेकिन एक दिन उसकी गोद में फूल खिलने की खबर से बहुत खुश  थी वह और सारा परिवार भी। यहाँ तो सुमित भी खुश था। बेटी हुई थी उसके ....सभी बहुत खुश थे। रूबल नाम रखा गया उसका।
सोनाली की पढाई भी साथ ही में चल रही थी।इस दौरान उसने  बी .ए . भी कर लिया था। सास ने सुमित और उसको कुछ दिनों के लिए गोवा भेज दिया, बेटी को अपने पास रख लिया। दो महीने का प्रोग्राम बना कर गए थे लेकिन बीच में ही लौटना पड़ा दोनों को ...कारण था सोनाली के गर्भवती होना।
अब वह बेटे की माँ बनी।नामकरण  , रोहन किया गया।
सब ठीक -ठाक ही चल रहा था।एक दिन सुबह -सुबह एक फोन आया और समय एक बारगी ठहरा हुआ लगा सभी को। समाचार था सुमित के चाचा -चाची का एक एक्सीडेंट में निधन हो गया। उनकी बेटी करुणा ही बची थी।
करुणा अब उनके साथ ही रहने लगी।देखने में सुंदर और तेज़ - तर्र्रार करुणा ने सबके मनो को जीत लिया और बेटी के से अधिकार जताने लगी। सुमित के तो अधिक ही नज़दीक रहती थी। वो भी उससे बात कर के खुश होता था। जबकि कई बार सोनाली को करुणा के सामने झिडक भी दिया करता था।
लगभग एक साल बाद उसके ससुर का ह्रदयघात से निधन हो गया।अब तो सुमित के हाथों में सारा कारोबार आ गया था।वह भी एक कुशल व्यवसायी था। लेकिन एक अव्वल दर्जे का अय्याश  भी था।माँ की कोई परवाह नहीं थी। धीरे -धीरे वह निरंकुश होता जा रहा था। वह किसी की नहीं सुनता पर करुणा की लच्छेदार बातों  का बहुत आज्ञाकारी था। उसका कहा कभी नहीं टालता था। सोनाली की सास भी मानसिक रोगी जैसे होती जा रही थी।दिन में कई-कई बार कह उठती ये मौत उसे क्यूँ नहीं आती, क्यूँ नहीं कोई बस - ट्रेन ही उसके उपर से गुजर जाती।सोनाली को बात  बहुत हैरान करती और माँ के पास बैठ उनको समझाने की कोशिश करती। लेकिन माँ के आंसू थमते ही नहीं थे।
दोनों को एक दुसरे  ही का सहारा था।
एक रात को जब वह माँ के पास बैठी थी तो उन्होंने उसका हाथ पकड लिया , रोने लगी और बोली, " बेटी मैने तुम्हारे साथ बहुत अन्याय किया , मैं बहुत बड़ी अपराधी हूँ तुम्हारी ,मैंने सोचा था , सुन्दर बहू लाऊंगी  तो इसके बहकते कदम थम जायेंगे। अब तो मुझे मर के भी चैन नहीं आएगा।"
ना जाने कितनी देर रोती  रही दोनों। सोनाली ने माँ को अपने बाँहों के घेरे में ले कर  खड़ा किया और बिस्तर पर सुला दिया। माँ ने हाथ नहीं छोड़ा जब तक वह सो ना गयी।
अगले दिन माँ उठी ही नहीं ,वह तो सो चुकी थी हमेशा के लिए।सोनाली को लगा जैसे उसकी अपनी ही माँ चली गयी।अब कौन सहारा था उसका।
अब शुरू हुआ सोनाली का मानसिक और शारीरिक प्रताड़ना का दौर। बहन करुणा दोगली राजनीती खेल रही थी। उसके सामने कुछ और सुमित के सामने कुछ और।और तो और बच्चों को भी भुआ जी का साथ भाने  लगा।ना जाने करुणा की मीठी  जुबान में क्या जादू था की हर कोई उसके वश में हुआ जाता था।
उन्ही दिनों सोनाली ने बी . एड . करने के लिए फार्म भी भर दिया। इतने तनावपूर्ण माहौल के बावजूद वह अपना मानसिक संतुलन बनाये हुए थी। वह सोच रही थी अपने पैरों पर खड़ा हो कर अपने बच्चों  को लेकर यहाँ से दूर चली जाएगी।
अब उसके माता -पिता को भी अपनी गलती महसूस हो रही थी।पर उसे ही संयम बनाने को कह रहे थे।
एक दिन बच्चों के स्कूल जाने के बाद उसे बाज़ार जाना था ,उसने सुमित से कहा की वह भी उसके साथ चले ,उस दिन वह घर ही था।पीठ में दर्द का कह इनकार कर दिया।वह अकेली ही चल दी।कुछ दूर जाने पर उसको याद आया के उसका केमरा भी थोडा ठीक करवाने देना था। अपनी गाडी को घर की और मोड़ ली। अपना कमरा खोलना चाहा तो अन्दर से बंद था।खटखटाया तो सामने करुणा थी , सोनाली की हैरानी की कोई सीमा नहीं थी।मुहं से कुछ बोला नहीं गया। करुणा का चेहरा भी सफ़ेद पद गया , वह जल्दी से बाहर  की और भागी।सोनाली ने 
सवालिया नज़र से सुमित की और देखा तो वह बेशर्मी से बोला , "मेरी पीठ पर बाम मल रही थी।"
उसे तो वहां कोई बाम तो क्या उसकी महक भी नहीं मिली , हाँ उसके नाक और मन तो कुछ और ही सूंघ रहे थे।वह जल्दी से बाहर आ गयी और सीधे लान की तरफ चली।घर में तो उसका दिल घुट रहा था।कैसे ही कर के अपनी साँसों को संयत कर रही थी। अपनी ही बात पर विश्वास नहीं कर रही थी।
" ठीक है सुमित एक अय्याश इन्सान है ,पर अपने ही घर में  ऐसा व्यभिचार तो नहीं करेगा ,लेकिन कमरा बंद करके बाम लगाने का क्या मतलब ...! "
अब उसे याद आ रहा था के क्यूँ उसकी सास रो-रो कर मौत माँगा करती थी।शायद उनको पता चल ही गया होगा।

आखिर उसे घर में तो आना ही था।लेकिन उस दिन के बाद से सुमित की प्रताड़ना और भी बढ़ गयी।उसे खर्च देना भी बंद कर दिया। कभी मांगती तो हाथ भी उठा दिया करता। एक दिन तो बहस इतनी बढ़ गयी के सुमित ने सोनाली की कनपटी  पर पिस्तौल ही रख दी और जान से मारने की धमकी देने लगा। करुणा ने कैसे बीच बचाव किया और उसे उसके कमरे में छोड़ आयी। वह सोनाली को बहुत हिकारत भरी नज़रों से देख रही थी।

वह हार मानने वालों में से नहीं थी सोनाली ।उसने पुलिस -स्टेशन जा कर अपनी शिकायत दर्ज करवा दी।पुलिस ने कार्यवाही तो की लेकिन वह शाम को जमानत पर वापस आ गया।यह सब उसके बच्चों के सामने ही हुआ था।और बाकी की कसर  करुणा ने पूरी कर दी।इस लिए वह भी सोनाली को ही दोषी मान रहे थे।वह दिन प्रति दिन बच्चों को उससे दूर तो किये ही जा रही थी और उस दिन पुलिस वाली घटना ने आग में घी का काम किया।उसने उस दिन सोचा काश वह अपने बच्चों को सही वस्तुस्थिति बताती तो आज उसे बच्चों की भी बेरुखी ना देखनी पड़ती।
उस दिन के बाद से सुमित ने घर में कदम रखना बंद कर दिया।घर में एक बने  तरफ गेस्ट हाउस में ही रहने लगा। कभी रात गहराती और उसके मन में घुटन सी होती तो वह खिड़की के पास खड़ी  हो बाहर की और देखती तो उसे अक्सर एक साया सा गेस्ट हाउस के पास लहराता हुआ सा नज़र आता। वह करुणा  ही थी। सोनाली को सोच कर ही मतली सी आ जाती और होठ घृणा से सिकुड़ जाते।
जब उसके माता पिता को यह सब मालूम हुआ  तो फौरन चले आये।साथ चलने को कहा , सोनाली ने मना  कर दिया के वह ऐसे नहीं जाएगी अपना हक़ ले कर जाएगी।
उसके पिता अपनी बेटी की हालत देख कर टूट चुके थे।वह सहन नहीं कर पाए और सोनाली का हाथ पकड कर रो पड़े ...एक ऐसा इन्सान जिसके एक इशारे पर दुनिया चला करती थी वह आज इतना मजबूर था। पछता रहा था अपने गलत फैसले  पर ....
संभाले भी नहीं संभल रहे थे वे ...
बेटी का पिता होना भी क्या मजबूरी है ,एक अपराधी जैसा हो जाता है एक इन्सान । उन्होंने तो बेटी की खुशियाँ ही चाही थी।
सोनाली ने कैसे  ही कर के पिता को संभाला  और कहा कि उनकी बेटी कमजोर नहीं है ,बहुत हिम्मत है उसमे।
माँ ने  सोनाली से कहा वह दोनों उसके फैसले में उसके साथ है।वह चाहे तो उनके साथ चल सकती है।बच्चों को यहीं उनके पिता के पास ही छोड़  दे। अब बेटी पन्द्रह साल की हो चुकी है उसे जब  पिता के व्यभिचार का पता चलेगा तो क्या सुमित को शर्मिंदगी नहीं होगी।
लेकिन सोनाली ने कुछ समय माँगा। उसे अपने बच्चों की और से कुछ उम्मीदें अभी बाकी थी।
बच्चों पर तो करुणा ने जैसे काला जादू ही कर दिया था।वह उसकी और देखना भी पसंद नहीं  करते थे।आखिरकार उसने वह घर छोड़ ही दिया। मायके आ गयी।
उसको संभलने में बहुत दिन लगे। तलाक की कार्यवाही में ज्यादा समय नहीं लगा।  इस दौरान उसने कई बार बच्चों से सम्पर्क करने की भी कोशिश की पर वे उससे बात ही नहीं करना चाहते थे।आखिर वह हार गई बच्चों के आगे। उनको भूलना भी कहा आसन था।
उन दो सालों  में उसने बी . एड . कर ली थी।अब आगरा में सर्विस कर रही थी। दस साल के लगभग होगया उसे आगरा में।पहले -पहल तो माँ कुछ दिन आ कर रही थी।पिता की बिगडती हालत देख सोनाली ने माँ को वापस कानपुर भेज दिया।धीरे-धीरे यहाँ भी रम गयी वह।पर मन का अँधियारा इतना था के उसे कुछ भी अच्छा ना लगता था .............

अगली सुबह जब वह सो कर उठी तो सर भारी हो रखा था।फोन करके अपनी सहेली को छुट्टी की अर्जी दे देने  को कह दिया।और फिर से लेट गयी।
जब काम वाली आयी तो खड़ी हो कर घर का जायजा लिया तो लगा की घर थोडा  बिखरा हुआ है तो आज क्यूँ न इसे ही समेटा जाये।सारा दिन घर को संवारने में ही लग गया।कामवाली खाना बना गयी थी।खाना खाने को मन नहीं हुआ तो सोचा के कुछ अच्छा बना कर खाया जाये।
अब शाम हुई ,चल पड़ी पार्क की और। बच्चों  से बातें कर  मन कुछ हल्का सा हुआ सोनाली का।
रात को जब लेपटोप लेकर बैठी तो अलोक भी ऑन  लाइन था। दोनों के कुछ देर बात की ..., 
फिर रोज़ ही बात होने लगी। 
आलोक का सेन्स ऑफ़ ह्यूमर गजब का था ,बात कुछ ऐसी करता के वह हंस पड़ती।ऐसे ही एक दिन उसने सोनाली का फोन नंबर मांग लिया। एक बार तो वह झिझकी पर फिर उसे  बुरा नहीं  लगा नंबर देना।
एक दिन सोनाली ने अपनी सारी आपबीती भी उसे बता दी। सुमित ने बहुत अफ़सोस जताते हुए उससे सहानुभूति जताई और कहा के उसे यह सब एक बुरा सपना समझ कर भूल जाना चाहिए। एक नयी शुरुआत करनी चाहिए।
आलोक की बातें सोनाली को बहुत सुकून देती थी।

अब सोनाली भी मुस्कुराने लगी थी। अब उसे रात का अँधियारा ही नज़र नहीं आता था उसमे जड़े टिमटिमाते सितारे भी नजर आते, खिला चाँद भी नज़र आता। सच भी है हर इन्सान को साथी की जरूरत होती है। उसकी प्रकृति ही ऐसी है ,वह अकेला रह ही नहीं सकता।अकेलापन उसे मुरझा देता है। 
उसे  फूलो से बहुत प्यार था। अपने दो कमरे के मकान  में भी उसने बहुत सारे गमलों में  फूल खिला रखे थे।लेकिन जब मन ही मुरझाया हो तो कोई भी फूल मन को नहीं सुहाता।हां , वह सुबह उठते ही उनको संभालने जरुर जाती।रविवार को तो उनको पूरा समय देती थी।

उस दिन भी रविवार था।
उस दिन भी सुबह जब वह बालकनी खोल अपने गमलों में लगे फूलो को देखने गयी तो देख कर खिल पड़ी। सामने के गमले में लाल गुलाब के पौधे में एक कली  निकल आयी थी।सामने उगते सूरज की किरन और मुस्काती कलि को देख वह भी मुस्कुरा पड़ी।यह मुस्कान उसके दिल से निकली थी।शायद ये आलोक की संगत का असर था जो कि सोनाली की पीली रंगत को भी गुलाबी बनाता  जा रहा था।अब उसे सब कुछ अच्छा लगने लगा था।उदासी कही दूर चली गयी हो जैसे।
थोड़ी देर में आलोक का फोन भी आ गया। वह अक्सर रविवार को ही फोन किया करता था।
वह किसी बात पर उसे हंसा रहा था। अचानक वह बोल पड़ा ," सोनाली , आई लव यू ......, मैं तुमसे शादी करना चाहता हूँ ...!"
अचानक कही गयी बात पर वह जैसे चौंक पड़ी। पहले तो उसे कुछ नहीं सुझा और बोली , " तुम जानते हो मैं 45 साल की हूँ ,यह मेरी शादी की उम्र नहीं है ...!"
" कमाल है मैं भी 45 साल का हूँ ...और मेरी तो शादी की उम्र अभी आयी भी नहीं और तुम्हारी चली भी गयी ...?आलोक हंस  के बोला।
 " लेकिन आलोक , तुमसे मित्रता तक तो ठीक है लेकिन शादी की बात मत करो ..मेरे दो बच्चे भी है ...लोग क्या कहेंगे ? और तुम्हारे घर वाले , तुम्हारी माँ ने जो सपने सजाये हैं अपनी बहू के लिए ,वह एक तलाकशुदा - दो बच्चों की माँ के तो नहीं सजाये होंगे।इसलिए समझदारी की बात करो ऐसा बचपना शोभा नहीं देता तुम्हे और मुझे भी।" सोनाली कुछ परेशान  सी हो गयी थी।
" मैंने माँ के आगे शर्त रखी थी जो मेरे मन में बस जाएगी उसी से शादी करूँगा और तुमने मेरे मन में घर कर लिया है ... तुम बताओ क्या तुम मुझसे शादी करोगी ...!", आलोक ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा।
कुछ देर सोचने के बाद सोनाली ने हां कह दिया।
आलोक ने कहा वह और उसके माता पिता आगरा आना चाहते है।सोनाली से भी कहा के वह भी अपने परिवार वालों को वही बुला ले।
थोड़ी देर में उसने अपनी माँ से बात की तो माँ को क्या ऐतराज़ हो सकता था भला। उन्होंने भी आगरा आने की हामी भर दी। फोन बंद करते हुए सोनाली  की आँखे  भर आयी ...
आंसुओ को पोंछते हुए जब सामने देखा तो बालकनी में गमले में वह छोटी सी लाल गुलाब की कली  मुस्कुरा रही थी और एक कली  सोनाली के मन में भी मुस्कुरा रही जो उसके होठों पर खिल रही थी ....





उपासना सियाग 
गृहिणी
कवयित्री
निवास : जयपुर
 प्रकाशित रचनाएँ: बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक,
 "स्त्री होकर सवाल करती है" और विभिन्न ब्लॉग पर,
कविताएँ,कहानियाँ  प्रकाशित हो चुकीं हैं 

Tuesday, December 11, 2012

फर्गुदिया समूह द्वारा आयोजित काव्य-पाठ 'अनुगूँज' की रिपोर्ट


अंजू शर्मा
कवयित्री, लेखिका, ब्लॉगर
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ और लेख प्रकाशित होतें रहतें हैं
अभी हाल ही में बोधि प्रकाशन, जयपुर द्वारा प्रकाशित स्त्री-विषयक काव्य-संग्रह "औरत होकर भी सवाल करती है" में भी कवितायेँ प्रकाशित हुई हैं
वर्तमान में 'अकादमी ऑफ़ फाईन आर्ट्स एंड लिटरेचर' (सार्क लेखकों की एक संस्था) के कार्यक्रम 'डायलोग (हिंदी कविता)'
और संस्था 'लिखावट' के कार्यक्रम 'कैम्पस में कविता' और 'कविता-पाठ' से सक्रिय रूप से बतौर कवि, रिपोर्टर और आयोजक जुडाव रहा है.



8 दिसम्बर 2012, शनिवार को टेक्निया इंस्टिट्यूट ऑफ़ अप्लाईड साइंस, पीतमपूरा, दिल्ली में फर्गुदिया समूह द्वारा एक काव्य-पाठ का आयोजन किया गया। इसे 'अनुगूँज' का सुंदर नाम दिया गया। कार्यक्रम का सञ्चालन किया फर्गुदिया समूह की संचालिका सुश्री शोभा मिश्रा ने और सईद अयूब इस कार्यक्रम के संयोजक की भूमिका में थे। उल्लेखनीय है कि फर्गुदिया समूह जो मुख्यतः महिलाओं के एक ऑनलाइन समूह से प्रारंभ हुआ था, संचालिका शोभा जी के सतत प्रयासों से आगे बढ़कर आज समाजसेवा और साहित्य के क्षेत्र में निरंतर अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए प्रयासरत है! इससे पहले भी समय समय पर इस समूह द्वारा कई आयोजन किये जाते रहे हैं।

इस कार्यक्रम की अध्यक्षता की थी वरिष्ठ कवि असद जैदी जी ने और इसमें वरिष्ठ कवयित्री डॉ अनामिका, मुकेश मानस, वंदना ग्रोवर, अंजू शर्मा, सुनीता कविता और आनंद कुमार शुक्ल ने अपनी कविताओं का पाठ किया! शोभा मिश्रा ने सभी का परिचय कराया, फर्गुदिया समूह से जुड़े साथियों द्वारा सभी कवियों को पुष्पगुच्छ भेंट कर स्वागत किया गया! संचालिका शोभा मिश्रा ने फर्गुदिया के पिछले कार्यक्रमों और उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए कार्यक्रम का प्रारंभ किया! युवा कवि आनंद कुमार शुक्ल ने कुछ सुंदर कविताओं का पाठ कर युवा पीढ़ी की सशक्त उपस्थिति को दर्ज करवाया! डॉ सुनीता कविता ने अपनी स्त्री-विषयक कविताओं का पाठ किया जिनमें से एक बेहद मार्मिक कविता फर्गुदिया को समर्पित थी! एक अन्य कविता में उन्होंने स्त्री के विभिन्न रूपों को प्रस्तुत कर समाज के विभिन्न वर्ग और मानसिकता का सुंदर चित्रण किया!


मैंने यानि अंजू शर्मा ने अपनी कुछ नयी-पुरानी कवितायेँ साझा की! मैंने 'जूते' विषय पर दो लघु कवितायेँ, एक स्त्री-विषयक कविता और एक नयी कविता सुनाई! मेरे लिए वह यादगार क्षण था जब साथ बैठी अनामिका दी ने मंच पर दो बार मुझे बाँहों में भर कर प्रोत्साहित किया! वंदना ग्रोवर ने अपनी हिंदी और पंजाबी की कविताओं का पाठ किया! गहन संवेदनाओं में डूबी कवितायेँ दिल छू लेने वाली रही साथ ही पंजाबी कविता ने सभी के चेहरों पर मुस्कान ला दी और हाल ठहाकों से गूंज उठा। कवि मुकेश मानस ने अलग अलग विषयों पर कई कवितायेँ सुनाई! बेहद ख़ूबसूरती से सरल शब्दों के माध्यम से उन्होंने भावों का सुंदर ताना बाना रचा, उनकी अंतिम कविता जो मोबाइल फ़ोन पर आधारित थी बेहद पसंद आई।


कलम की धनी अनामिका जी ने अपनी कुछ ताज़ा कवितायेँ सुनाई! एक लम्बी कविता में उन्होंने फर्गुदिया को पिता के समक्ष एक नन्ही माँ के रूप में प्रस्तुत किया! एक अन्य कविता में उन्होंने कुछ मिथकीय प्रयोग करते हुए एक स्त्री की अभिव्यक्ति को साकार किया! कविताओं में ठेठ देसज शब्द, सुंदर बिम्ब और भावों की सघन बुनावट अनामिका जी की पहचान है, यहाँ भी वे ऐसी ही कविताओं के साथ सबका दिल जीतने में सफल रहीं! अध्यक्ष असद ज़ैदी जी ने भी अपनी दो कवितायेँ सभी से साझा की! यहाँ सुखद लग रहा है यह कहना कि अपनी एक कविता में उन्होंने एक ऐसी स्त्री के मार्मिक पक्ष को बखूबी रखा जो अपने जीवन-साथी को अरसा पहले खो चुकी है किन्तु आज भी वो उसके जीवन में यादों के माध्यम से विद्यमान है! यकीनन यह एक साथ जाने वाली कविता रही!


अपने अध्यक्षीय व्यक्तव्य में असद जी ने सुनाई गयी विभिन्न विषयों की कविताओं पर अपने विचार रखते हुए संतोष जताया कि आज स्त्रियाँ कविता के माध्यम से बखूबी अपनी बात रख रही है जबकि इससे पहले ये काम पुरुष कवियों के जिम्मे था! उन्होंने कहा कि वे इस कार्यक्रम में पढ़ी गयी कविताओं को सुनकर बेहद ख़ुशी का अनुभव कर रहे हैं, आज स्त्रियाँ न केवल स्त्री-विमर्श बल्कि उससे आगे बढ़कर देश, दुनिया से जुड़े लगभग हर विषय पर अपनी बात रख रही हैं! उन्होंने युवा पीढ़ी की रचनाशीलता पर भी आश्वस्ति जताई, साथ ही, फर्गुदिया और शोभा मिश्रा जी के प्रयासों की भी भूरी भूरी प्रशंसा की! लेखक, कवि तथा कार्यक्रम के संयोजक सईद अयूब जी ने धन्यवाद ज्ञापित करते हुए कार्यक्रम की सफलता पर प्रसन्नता जाहिर की!


संयोजक सईद अयूब और युवा साथी सुशील कृष्णेत की सक्रियता काबिले-तारीफ है जिन्होंने इस कार्यक्रम में अपना सक्रिय योगदान दिया! यकीनन शोभा जी के सहज और सुंदर सञ्चालन, आत्मीय वातावरण में खूबसूरत सार्थक कविताओं के पाठ और इस कार्यक्रम में वरिष्ठ कवयित्री सुमन केशरी जी की उल्लेखनीय उपस्थिति के साथ ही एक्टिविस्ट डॉ आशुतोष कुमार, रूपा सिंह, आनंद द्विवेदी, सीमान्त सोहल, राजीव तनेजा, संजू तनेजा, इंदु सिंह, वंदना गुप्ता, निशा कुलश्रेष्ठ, धीरज कुमार, आनंद द्विवेदी, बलजीत कुमार, शम्भू यादव, अखिलेश, राजलक्ष्मी त्रिपाठी, ज्योति त्रिपाठी, सबके आकर्षण का केंद्र नन्हा अरिहंत, ब्रिज प्रूथी, अकबर रिजवी, रविन्द्र के दास, सरिता दास, इरशाद नैय्यर, देवेश त्रिपाठी, फैजान मुकीम आदि की जीवंत उपस्थति ने इसे एक यादगार शाम में बदल दिया!

Thursday, December 06, 2012

सुश्री सुशीला पुरी की कवितायें __ अयोध्या




आज छह दिसंबर है.... इतिहास के लिए काले अध्याय की तरह... आज के दिन सिर्फ एक विवादित ढांचा ही नहीं ...  बहुत कुछ टूटा था  ... किसी की साँसें .. किसी उम्मीदें ... स्वयं सुशीला पुरी जी के शब्दों में ..

"आज छह दिसंबर है। यह एक ऐसी काली तारीख है, जिसने आजाद व धर्मनिरपेक्ष भारत को जो जख्म दिये, वो अभी तक हरे हैं। इस जख्म को यह हकीकत और भी कुरेदती है कि बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को गिराने वालों को अब तक सजा नहीं मिली है।
इसी घटना की बेचैनी में मैंने उसी साल ( या शायद एक साल बाद...ठीक से याद नहीं ) कुछ कवितायें लिखी थी ..."

    अयोध्या---- 1

    अयोध्या में मिलती है
    टिकुली और सेनुर
    टिकुली से झाँकती है
    सीता की मुस्कान
    सुहागिनें करतीं हैं
    परिक्रमाएँ

    अटल सुहाग के वास्ते
    मत्तगजेन्द्र के पास
    औरतें मांगती हैं
    मांग की लाली

    मुस्कराती हैं सीता
    मंद-मंद
    उनकी मुस्कान में
    छिपी है अयोध्या ।


    अयोध्या--- 2

    चौदह कोसी अयोध्या में
    आतें हैं तीर्थ-यात्री
    परिक्रमाएँ करते हैं
    नंगे-पाँव

    उनके पाँवों के साथ
    चलती है अयोध्या
    डोलते हैं राम
    आस्था के जंगल में
    छिलते हैं पाँवों के छाले
    रिसता है खून

    तीर्थ यात्री
    दुखों की गठरियाँ
    ढोते हैं सिर पर
    उफनती है सरयू
    कि धो दे उनके पाँव
    उमगती है हवा
    कि सुखा दे उनके घाव

    पर उनकी परिक्रमा
    कल भी अनवरत थी
    आज भी अनवरत है
    सदियों तक होगी यूँ ही

    चौदह कोसी खोज
    राम की ।


    अयोध्या--- 3

    गूंगी अयोध्या
    टूटते हैं मंदिर यहाँ
    टूटती हैं मस्जिद यहाँ
    टूट कर बिखर जाते हैं
    अजान के स्वर
    चूर-चूर हो जाती है
    घंटियों की स्वरलहरियाँ

    कोई नहीं बचाता यहाँ
    सरगमों के स्वर
    कोई नहीं पोछता
    सरयू के आँसू
    उसके लहरों की उदास कम्पन

    अक्सर भटकती है सरयू
    खोजते हुए
    सीता की कल-कल हँसी ।

  • अयोध्या--- 4

    अयोध्या में गर्म हवाएँ चलती हैं
    बिल्कुल गर्म
    जेठ की दुपहरी की तरह

    तपती है अयोध्या
    आस्था की आँधी मे
    उड़ गया है सब कुछ
    ज़िद की बुनियाद पर

    बनते हैं मंदिर यहाँ
    बनती है मस्जिद यहाँ
    कराहती है सरयू
    आकंठ प्यास मे डूबी

    उसकी गोद मे निढाल हैं
    लू खाए राम ।


    नाम --- सुशीला पुरी 
    जन्मतिथि --- 31 मई
    जन्मस्थान -- बलरामपुर, उत्तर -प्रदेश
    शिक्षा --- M. A. B.ed
    प्रकाशन ----- दैनिक जागरण, हिन्दुस्तान, कादंबिनी, हंस, कथाक्रम, वसुधा, वागर्थ, निष्कर्ष, अमर उजाला, उत्तर प्रदेश, पाटल और पलाश, दुनिया इन दिनों, गुंजन, संडे पोस्ट, लोकायत, प्रगतिशील वसुधा, पाखी, स्त्रीकाल, साक्षात्कार, लमही, रचना समय, जनसत्ता आदि पत्र -पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित एवं आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से रचनाओं का निरंतर प्रसारण और कुछ कविताओं का पंजाबी ,नेपाली , इंग्लिश में अनुवाद व एक कविता का नाट्य रूपांतरण । एक दैनिक पत्र व एक पत्रिका में नियमित स्तंभ -लेखन !
    सम्मान--- प्रथम रेवान्त 'मुक्तिबोध साहित्य सम्मान'
    संपर्क -------
    सुशीला पुरी
    सी -479/सी ,
    इन्दिरा नगर ,
    लखनऊ -- 226016
    मो 0-- 09451174529 E-mail------ puri.sushila@yahoo.in

अनीता कपूर जी की पांच कविताएँ


अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्र “यादें” की प्रमुख संपादिका , कवयित्री अनीता कपूर जी की कविताएँ स्त्री मन के भावों की   सहज अभिव्यक्ति है 








1.

नहीं चाहिए

अब
तुम्हारे झूठे आश्वासन
मेरे घर के आँगन में फूल नहीं खिला सकते
चाँद नहीं उगा सकते
मेरे घर की दीवार की ईंट भी नहीं बन सकते
अब
तुम्हारे वो सपने
मुझे सतरंगी इंद्रधनुष नहीं दिखा सकते
जिसका  शुरू मालूम है  कोई अंत
अब
तुम मुझे काँच के बुत की तरह
अपने अंदर सजाकर तोड़ नहीं सकते
मैंने तुम्हारे अंदर के अँधेरों को
सूँघ लिया है
टटोल लिया है
उस सच को भी
अपनी सार्थकता को
अपने निजत्व को भी
जान लिया है अपने अर्थों को भी
मुझे पता है अब तुम नहीं लौटोगे
मुझे इस रूप में नहीं सहोगे
तुम्हें तो आदत है
सदियों से चीर हरण करने की
अग्नि परीक्षा लेते रहने की
खूँटे से बँधी मेमनी अब मैं नहीं
बहुत दिखा दिया तुमने
और देख लिया मैंने
मेरे हिस्से के सूरज को
अपनी हथेलियों की ओट से
छुपाए रखा तुमने
मैं तुम्हारे अहं के लाक्षागृह में
खंडित इतिहास की कोई मूर्त्ति नहीं हूँ
नहीं चाहिए मुझे अपनी आँखों पर
तुम्हारा चश्मा
अब मैं अपना कोई छोर तुम्हें नहीं पकड़ाऊँगी
मैंने भी अब
सीख लिया है
शिव के धनुष को
तोड़ना


2
सीधी बात

आज मन में आया है
 बनाऊँ तुम्हें माध्यम
करूँ मैं सीधी बात तुमसे
उस साहचर्य की करूँ बात
रहा है मेरा तुम्हारा
सृष्टि के प्रस्फुटन के
प्रथम क्षण से
उस अंधकार की
उस गहरे जल की
उस एकाकीपन की
जहाँ  तुम्हारी साँसों की
ध्वनि को सुना है मैंने
तुमसे सीधी बात करने के लिए
मुझे कभी लय तो कभी स्वर बन
तुमको शब्दों से सहलाना पड़ा
तुमसे सीधी बात करने के लिए
वृन्दावन की गलियों में भी घूमना पड़ा
यौवन की हरियाली को छू
आज रेगिस्तान में हूँ
तुमसे सीधी बात करने के लिए
जड़ जगतजंगम संसार
सारे रंग देखे है मैंने
 कविता .........
तुम रही सदैव मेरे साथ
जैसे विशाल आकाश,
जैसे स्नेहिल धरा,
जैसे अथाह सागर,
तुमको महसूस किया मैंने नसों मेंरगों में
जैसे तुम हो गयी, मेरा ही प्रतिरूप
शब्दों के मांस वाली जुड़वा बहनें
स्वांतसुखाय जैसा तुम्हारा सम्पूर्ण प्यार...
इसील्ये
आज मन में अचानक उभर आया यह भाव-
कि बनाऊँ  तुम्हें माध्यम
अब करूँ मैं सीधी बात तुमसे

3
साँसों के हस्ताक्षर

हर एक पल पर अंकित कर दें
साँसों के हस्ताक्षर
परिवर्तन कहीं हमारे चिह्नों   पर
स्याही  फेर दे
साथ ही
जिंदगी के दस्तावेजों पर
अमिट लिपि में अंकित कर दे
अपने अंधेरे लम्हों के स्याह हस्ताक्षर
कल को कहीं हमारी आगामी पीढ़ी
भुला  दे हमारी चिन्मयता
चेतना लिपियाँ
प्रतिलिपियाँ....
भौतिक आकार मूर्तियां मिट जाने पर भी
जीवित रहे हमारे हस्ताक्षर
खोजने के लिए
जीवित रहें हमारे हस्ताक्षर
कहीं हमारा इतिहास
हम तक ही सीमित  रह जाये
इसीलिये आओ
प्रकृति के कण-कण में
सम्पूर्ण सृष्टि में
चैतन्य राग भर दें
अपनी छवि अंकित कर दें
दुनिया की भीड़ में खुद को
शामिल  करें।
भविष्य की याद हमें स्वार्थी बना कर
आज ही पाना चाहती है
अपना अधिकार
 हम गलत है हमारे सिद्धांत
फिर भी
स्वार्थी कहला कर नहीं लेना चाहते
अपना अधिकार
आओ
अंकित कर दें
हर पल पर
अपनी साँसों के हस्ताक्षर


4
अलाव

तुमसे अलग होकर
घर लौटने तक
मन के अलाव पर
आज फिर एक नयी कविता पकी है
अकेलेपन की आँच से

समझ नहीं पाती
तुमसे तुम्हारे लिए मिलूँ
या एक और
नयी कविता के लिए ?


5
खिड़कियाँ

लफ़्ज़ों के झाड़ उगे रहते थे
जब तुम थे मेरे साथ
हम दोनों थे हमारे पास
रिश्ते की ओढ़नी थी
लफ़्ज़ों के रंगीले सितारे
टँके ही रहते थे
नशीले आसमाँ  पर.....
फिर तुम चले गए

कई बरसों बाद
अचानक एक मुलाक़ात
हम ओढ़नी के फटे हुए
टुकड़ों की तरह मिले
मेरा टुकड़ा
तुम्हारे सड़े टुकड़े के साथ
पूरी  कर पाया वो अधूरी नज़्म
सिसकते टुकड़ों पर फेर लकीर
साँस लेने के लिए
खोल दी है मैंने
सभी खिड़कियाँ
____________


परिचय
 डॉ. अनिता कपूर
जन्म : भारत (रिवाड़ी)
शिक्षा : एम .ए.(हिंदी एवं अँग्रेजी )पी-एच.डी (अँग्रेजी ), सितार एवं पत्रकारिता में डिप्लोमा.
कार्यरत : अमेरिका से प्रकाशित हिन्दी समाचारपत्र “यादें” की प्रमुख संपादिका
 प्रकाशन: बिखरे मोती ,कादम्बरी, अछूते स्वर एवं ओस में भीगते सपने और साँसों   के हस्ताक्षर (काव्य-संग्रह), दर्पण के सवाल (हाइकु-संग्रह), अनेकों भारतीय एवं अमरीका की पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, कविता, कॉलम, साक्षात्कार एवं लेख प्रकाशित,प्रवासी भारतीयों के दुःख-दर्द और अहसासों पर एक पुस्तक शीघ्र प्रकाशीय. 
Address
Union City, CA 94587  USA

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