Thursday, November 29, 2012

बदलती सरगम - नन्द भारद्वाज जी की कहानी


  घर और परिवार जैसी सुरक्षित संस्था में भी स्त्री का जीवन घुटकर रह जाता है ..  एक स्त्री का जीवन कहाँ सुरक्षित है .. ? रिश्तों के बीच अकेलेपन की कहानी - बदलती सरगम



          कहानी 

                बदलती सरगम
                 ·        नन्‍द भारद्वाज

           मन की जिस अनबन और आकुलता को लेकर आज आपके सामने आई हूं, संभव  है कि आपके लिए यह कोई नयी बात न हो और ऐसे नयेपन के पीछे भटकने की आपको फुरसत भी नहीं हो! फिर भी इतनी-सी बात जरूर कहना चाहती हूं कि मैं जिस घर-परिवार में पैदा होकर इनसानों की दुनिया में आई, उसमें जब मेरी कोई जरूरी भूमिका मानी ही न गई हो तो उसके आगत-अनागत पर मेरे असर की अकारथ चिन्ता क्यों की जा रही है? मैं इस घर-परिवार या जाति-बिरादरी के नियम-कायदों के साथ रहना-जीना सही मानती हूं या नहीं, जब मुझे इस चुनाव की छूट कभी मिली ही नहीं, तो कोई कैसे इस बात का उलाहना मेरे नाम रख सकता है कि मैं उनकी इस दशा-अवस्था को सुधारने-संवारने के लिए कुछ करती क्यों नहीं? उनकी अच्छी-बुरी अवस्था में मेरी भागीदारी तो वैसे भी नहीं के बराबर जानी जाती है। एक बात आप निश्चित जान लीजिये कि मुझे एक सहज  के इंसान रूप में जो कुछ करना जरूरी लगता है, वह तो मैं करती आई हूं और आगे भी करती रहूंगी, बिना किसी से कुछ उम्मीद रखे, लेकिन किसने मुझसे कब-क्या उम्मीद बांध ली और मैं उस पर खरी उतरी या नहीं उस बात का प्रमाण आप मुझसे ही क्यों चाहते हैं? दिखती बात है कि यदि मनुष्य के रूप में कोई आराम और खुशी के साथ  जीना चाहता है तो उसके लिए पुख्ता  इंतजाम तो उसे खुद ही करना होगा न - आराम और खुशी न कहीं मांगे मिलती है, न कोई आकर हाथ में सौंपता है और न किसी और का हक मार कर हासिल किया जा सकता है। 
    गाने-बजाने के जरिए अपनी रोजी कमाने वाले परिवार में औलाद, और वह भी लड़की, अपनी लड़कीपने की अवस्था में पहुंचने पर घर-परिवार और मां-बाप से आखिर क्या अपेक्षा रखती है? वे उसे इस अवस्था तक लाने में उससे जो कुछ चाहते-कराते रहे, उसको लेकर उनसे कुछ पूछने या उस पर ऐतराज उठाने की गुंजाइश ही कहां होती थी? अपने अधिकार और कर्तव्य के इस अंधे खेल में कौन कहां अपने अधिकार या कर्तव्य की मर्यादा लांघ जाता है, इसका कौन कितना  हिसाब रख सकता है? दीखती बात है कि ऊपर हाथ तो हमेशा मां-बाप का ही होता है, इसलिए निवारण करने का हक भी उन्हीं के पक्ष में जाता है। यह तो दिखती बात है कि मां-बाप ऐसे मौकों पर अमूमन अपनी सुविधा और सहूलियत पहले देखते हैं और वही व्यवहार उनकी आदत बन जाता है।
    उस घर में जन्म लेने के बाद हम पांच भाई-बहनों को, जिनमें चार तो हम बहने ही थीं, कब क्या करना है, यह बात न कभी किसी को बतानी समझानी पड़ी और न किसी ने इस बारे में कुछ पूछा। पिता अपनी जवानी के दिनों में अच्छे सारंगीवादक और गायक रहे थे, जिसकी वजह से कई बरसों तक ठाकुर परिवारों और रईसों के बुलावों पर उनके वैवाहिक-मांगलिक अवसरों पर वेे रजवाड़ी गीत गाने के लिए जाते रहे, लेकिल पिछले सालों में ऐसे बुलावे गिनती के ही रह गये थे, इसलिए उन्होंने अपनी सारंगी को उतार कर कमरे की लटान पर रख दिया था और पीने की आदत के कारण स्वर में भी वह सुरीलापन नहीं रह गया था। इन्हीं बरसों में आम घरों में विवाह-सगाई के मौकों पर मां के गीतों की मांग जरूर बढ़ती रही और बड़ी वाली दोनों बहनें यशोदा और गौरी अपना स्वर सम्हालते ही मां के साथ संगत में लग गईं थीं। तीसरे क्रम पर गर्भ में आए भाई गनपत ने बचपन से ही कुछ अलग रुझान रखा और इस पुश्तैनी पेशे में उसका मन कम ही रमा, लेकिन अपनी मन-मरजी के मुताबिक ढोल जरूर अच्छा बजा लेता था।
     मुझे तो लगता है कि एक के पीछे एक जिस तरह हम सभी बच्चे इस घर में आते रहे और अपना आपा सम्हालते रहे, इस बारे में हमारे मां-बाप को यह सोचने की फुरसत  कभी मिली ही नहीं कि हमारी जिन्दगी किस आकार में ढलनी चाहिये। यदि हुई होती तो वे इतना तो अवश्य ध्यान रखते कि हमें एक इंसान के रूप में जिन्दा रखने के लिए अपने पास कुछ गुंजाइशें और हौसला तो सहेज कर रखा ही होता। सभी के लिए रहने लायक घर, दोनों वक्त की पूगती रोटी, पहनने-ओढ़ने के लिए जरूरत भर के कपड़े और देने के लिए एक अच्छा-सा भविष्य, क्या कभी इन जरूरी बातों पर उन्होंने ठहर कर विचार किया होगा? मुझे तो नहीं लगता। मानो मां एक निरपेक्ष मानवीय मशीन थी और हम उस सांचे में स्वतः ढलते स्पंदित साज, जो आकार लेते ही अपने सुर-ताल में बजने लगते। मैं इस बिखरती-बदलती सरगम का चौथा स्वर-साज थी - वाधू! शायद लोगों के सुझाव पर मां-बाप ने मेरा यही नाम तय किया। जब तक मुझे इसका बोध होता, समूचे गांव और जान-पहचान के दायरे में मेरा यही नाम चलन में आ चुका था। आज सोचती हूं, यदि बाकी बहनों की तरह मैं भी छिपी-दबी जी लेती, तो न यों चर्चा में आती और न किसी को उम्मीद होती या शिकायत - नाम ही के अनुरूप अनजान वाधू (अतिरिक्त) ही रह जाती। यों मुझसे छोटी बहन बीना के बाद भी एक जिन्दगी के आने की उम्मीद और जगी थी, पर वह अधबीच में ही लुप्त हो गई और उसका जाने-अनजाने उलाहना भी बीना पर ही मंढ़ा गया कि वह आने वाले भाई को खा गई! बहाना यह कि उसने मां के गर्भवती हो जाने के बाद तक उसका दूध पीना छोड़ा ही नहीं, उसकी देह का सारा कस तो वही पी गई। भाई तो गया सो गया ही, पांच महीने बाद मां भी पीछे-पीछे सिधार गई। यों बीना का नाम भी मेरी ही तर्ज पर आयचुकी सुझाया गया था, लेकिन मां ही अड़ गई कि लड़कियों का नाम न बिगाड़ा जाए, जो नक्षत्र के हिसाब से आता है, वही रखा जाए और इस तरह उसे बीना नाम नसीब हो गया। हम छोटी बहनों में तो इस बात की चेतना कभी पैदा ही नहीं हुई कि मां का होना या न होना क्या मायने रखता है। हमारे लिए तो बड़ी बहन यशोदा ही मां समान थी। यदि गोद और कांधे का कोई मान-महत्व होता है तो उन दिनों वही हम छोटी बहनों और भाई का सबसे बड़ा सहारा थीं। वह जब तक शादी करके अगले घर नहीं पहुंच गई, हमेशा हमारी ढाल बनी रहीं।
     यशोदा ने बचपन से ही मां के साथ रहते हुए वे सारे काम अपने जिम्मे सम्हाल लिये थे, जो घर चलाने के लिए जरूरी थे। वह औरतों के बीच बैठकर ढोल पर अकेली अच्छा गा-बजा लेती थी। रतजगे और विवाह की सारी रस्में वह जानती थीं। हम बहनों को भी वह अपने साथ जोड़ लेती थीं। एक विवाह में हमको साथ गाते देखकर स्कूल के मास्टर गिरिजाशंकर न जाने क्यों यशोदा को यह सलाह दे गये कि उसे हम छोटी बहनों को पढ़ने के लिए स्कूल जरूर भेज देना चाहिए। वह खुद तो बाप, भाई और गौरी के साथ सारे समय घर में और गांव में अपनी वृत्ति के काम में लगी रहतीं, लेकिन हम छोटी बहनों को मास्टरजी के कहे अनुसार गांव की स्कूल में अवश्य भेजना शुरू कर दिया। शुरू में तो यह उसकी परेशानी ही रही होगी कि उसे सारा दिन घर में हम छोटी बहनों और इकलौते भाई की सार-संभाल करनी होती थी, ऐसे में मास्टरजी की इस सलाह में एक तरह से उसे राहत ही दिखी होगी कि स्कूल में बच्चे दो अक्षर सीख भी लेंगे और उसे भी घर संभालने में थोड़ा आराम रहेगा। मेरे साथ गनपत और बीना भी स्कूल तो अवश्य जाते लेकिन उनका पढ़ाई में मन कुछ कम ही लगता था।
     स्कूल मास्टर गिरिजाशंकर मेरे लिए तो समूची सृष्टि में एक ही आला दरजे के इंसान बनकर सामने आए। अपने नाम के अनुरूप ही नेक और संगीत के अच्छे जानकार। हारमोनियम बजाने में तो उनकी जोड़ का आस-पास कोई मिलना ही असंभव था। इस लिहाज से वे समूचे हलके में बहुत सधे हुए कलाकार के रूप में जाने जाते थे। गांव में किसी के यहां रात्रि-जागरण होता तो उन्हें बहुत आदर से बुलाया जाता था। जितना मधुर स्वर उतनी ही असरदार वाणी के पाठ की व्याख्या। अच्छे-अच्छे भागवतकारों को पीछे बिठाते थे, लेकिन वे पूजा-पाठी पंडित नहीं थे। वे तो सरकारी स्कूल में हिन्दी और संगीत के सर्वप्रिय अध्यापक थे। स्कूल में बच्चों को अक्षर-ज्ञान तो कराते ही थे, जिस बच्चे में रुझान दिखाई देता, उसे अलग छांटकर घंटों उससे संगीत का अभ्यास भी कराते। मुझे तो उन्होंने शुरू से ही अपनी देखरेख में रख लिया था। पहली बार जब उन्होंने मुझे अपने पास बुलाकर कोई गीत सुनाने को कहा तो मैं तो इतना घबरा गई कि एकबारगी तो जैसे मेरा स्वर ही बंद हो गया, लेकिन फिर उन्होंने धीरे-धीरे मेरा हौसला बढ़ाया और जाने उन्हें मेरे स्वर में ऐसा क्या मिल गया कि उन्होंने तो स्कूल में गाने वाले बच्चों में मुझे जैसे हमेशा के लिए अलग ही छांट लिया। स्कूल में जो भी आयोजन होता, और कोई बच्चा गाये या न गाये मेरा गाना तो तय ही होता था। वे घंटों मुझे अभ्यास में लगाये रखते, गाना ही जैसे मेरी पढ़ाई थी। मुझे भी सूखी पढ़ाई की बनिस्पत इसमें ज्यादा आनंद आता और पगली की तरह रागोलियां करती रहती। गीत तो हम बचपन से ही सांझ-सवेरे गाया ही करती थीं और विवाह-सगाइयों में बहन यशोदा को सहारा देती ही थीं, लेकिन गांव की अन्य लड़कियों की देखा-देखी थोड़े हाथ-पांव भी घुमाना सीख गई तो सगाई-ब्याह के बुलावों में घोल की अच्छी उवांरगी (न्यौछावरी की राशि) भी मिलने लग गई। स्कूल से पांचवें दर्जे तक आते-आते तो सारे गांव और आस-पास के हलके में यह हल्ला मच गया कि वाधूड़ी के जोड़ की गाने वाली और नाचने वाली लड़की सारे जिले में मिलनी मुश्किल है। पांचवां दर्जा पास करने से पहले मास्टरजी ने मुझ पर एक अहसान और किया - उन्होंने स्कूल रिकार्ड में मेरा नाम वाधू से बदलवा कर वसुधा करवा दिया, ‘वसुधा पंवार’, और इसी नये नाम से स्कूल में और बाहर कई अच्छे कार्यक्रम भी करवा दिये। आयोजनों में इनाम-इकरार भी मिलने लग गये। इससे निश्चय ही मेरे हौसले में अपूर्व बढ़ोत्तरी हुई।
    स्कूल और बाहरी जलसों में भले ही मेरे गाने की सराहना होती रही हो, घर में बापू की मानसिकता पर इसका ज्यादा अनुकूल असर नहीं पड़ा। अच्छी उवांरगी और नेग के लालच में उनकी पूरी कोशिश यही रहती कि मेरे स्कूल पहुंचने में भले ही विघ्न पड़ जाय, लेकिन गांव में और बाहर से ब्याह-सगाइयों में गाने-नाचने के लिए आने वाले बुलावों में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए, जिससे उनको होने वाली आमदनी में भी इजाफा हो। मुझे ऐसे बुलावों पर जाना कभी अच्छा नहीं लगता, जो मेरे स्कूल पहुंचने में बाधा बनते हों। कई बार तो ऐसे बुलावों पर बापू के हामी भर लेने के बाद भी जाना टाल देती, जिसका नतीजा यह होता कि बापू अगले दिन मेरे साथ बेतरह गाली-गलौच करते और कभी-कभी तो मुझे उनकी मार भी झेलनी पड़ती। उनका मानना था कि मैं ब्याह-सगाइयों के बुलावों में अपने गायन और नृत्य-कला में जितना निखार ला सकती हूं, उतना स्कूल में नहीं। स्कूल तो उनकी नजर में हम पेशेवर कलाकारों का एक तरह से वक्त ही बरबाद करता है और पढ़ाई के नाम पर फालतू की चीजें सिखाता है, जिनका हम लोगों के जीवन में कहीं-कोई उपयोग नहीं होता, जबकि मैं जानती थी कि आज मैं जो कुछ सीखी-समझी हूं, वह सारा इसी स्कूल की बदौलत ही सीख पाई हूं। मैंने कई बार अपने गुरूजी को भी अपनी परेशानी बताई, लेकिन वे मेरे घरेलू मामलों में ज्यादा दखल देने की स्थिति में नहीं थे। मेरी परेशानी को देखते हुए उन्होंने इतनी मदद जरूर कर दी कि पांचवें दर्जे की परीक्षा के दौरान ही उन्होंने मेरी ओर से एक आवेदन नवोदय विद्यालय में दाखिले के लिए अवश्य पहुंचवा दिया।
     यह उनकी सीख और स्नेह का ही सुफल रहा कि पांचवी पास करते ही मेरा नवोदय के लिए चयन हो गया, जहां गांव के चुनिन्दा जरूरतमंद बच्चों को सरकार की ओर से सारी सुविधाओं के साथ स्कूल के हॉस्टल में रखकर पढ़ाया जाता है, ऊपर से सरकार कुछ जरूरतमंद बच्चों को वजीफा भी देती है। मुझे नहीं मालूम कि मुझमें कोई प्रतिभा थी या नहीं, लेकिन मुझे ये सारी सुविधाएं मिल गई और मेरे लिए तो यह व्यवस्था एक तरह से वरदान ही साबित हुई, लेकिन मेरे बापू को यह कतई पसंद नहीं आई। वे तो अड़कर ही बैठ गये कि वे मुझे घर से बाहर कहीं नहीं जाने देंगे। गिरिजाशंकरजी ने उन्हें बहुत समझाया कि इससे लड़की का भविष्य सुधरेगा, लेकिन उनके तो दिमाग में बात बैठी ही नहीं। आखिर मुझे यशोदा का सहारा लेना पड़ा। शुरू में तो वह भी बापू की ही तरह थोड़ी अनमनी और उदासीन बनी रही। असल में बापू और यशोदा की सबसे बड़ी चिन्ता यही थी कि मेरे घर से दूर जाते ही जिन ब्याव-सगाइयों के बुलावांे में मेरे जाने से उन्हें अच्छी उवांरगी और उपहार मिल जाते थे, उस पर निश्चय ही फर्क पड़ सकता था, क्योंकि दूसरी किसी बहन के पास यह हुनर  नहीं था। पिछले दो-तीन सालों में मेरे नाच-गानों से ऐसे पारिवारिक आयोजनों में उन्हें अच्छी-खासी आमदनी होने लगी थी और अब मेरे दूर जाने की बात से उनके कलेजे में यह डर बैठ गया था कि उनकी कमाई में कमी हो सकती है। लेकिन बड़ी बहन होने के नाते यशोदा यह कभी नहीं चाहती थी कि हम छोटी बहनों के साथ कोई जोर-जबरदस्ती की जाय। जब मैंने उसे अपना पक्का इरादा बता दिया कि मेरे नवोदय जाने का यदि ज्यादा विरोध किया गया तो मैं सभी को छोड़कर कहीं निकल जाऊंगी और फिर भले ही देखते रहना, तो मेरी यह धमकी काम आ गई और उसने रात को बापू से बात कर उन्हें एक बार तो राजी कर ही लिया। दूसरे ही दिन वह खुद गनपत को साथ लेकर मुझे पावटा के नवोदय विद्यालय पहुंचा आई। 
     नवोदय में जब मैं आई तो मेरी उम्र शायद बारह-तेरह के बीच की रही होगी, लेकिन कद-काठी ठीक होने से मैं खासा बड़ी लगती थी। पहने-ओढे़ तो जैसे पूरी युवती ही। रंग-रूप में भी दिनो-दिन निखार आता जा रहा था। नवोदय के पहले बरस में जब दो-चार स्कूली आयोजनों में मुझे भी गाने का अवसर मिला तो अपने मीठे स्वर और बेहतर प्रस्तुति के कारण तुरंत ही मेरी गिनती अच्छा गाने वाले बच्चों में होने लगी और स्कूल के अध्यापकों की नजर भी मुझ पर टिक गई। संगीत की अध्यापक अनीताजी यों तो मुझे पहले कार्यक्रम से ही पसंद करने लगी थी, लेकिन एक बार जयपुर में गिरिजाशंकरजी से हुई मुलाकात के दौरान जब उन्हें यह जानकारी मिली कि लोक-गायन और नृत्य में मैं अच्छी तैयारी रखती हूं, तो उन्होंने जयपुर से वापस लौटते ही मुझे अपने संरक्षण में ले लिया। वे खुद भी कत्थक के जयपुर घराने की अच्छी नर्तक रह चुकी थीं। नृत्य के साथ शास्त्रीय संगीत का भी उन्हें अच्छा ज्ञान था, जबकि मेरा तो पारंपरिक लोक-गायन और लोक-नृत्य में ही थोड़ा-बहुत अभ्यास था। लोग कहते हैं, मेरी देह में गजब की लोच थी। साथी नृत्यांगना के साथ लूहर लेने में तो मैं स्टेज पर फिरकी की तरह घूमने लगती थी। इससे कई बार साथ देने वाली नृत्यांगना संतुलन बिगड़ जाने के डर से घबरा उठती थीं। आने वाले पांच-छः वर्षों में मैंने अनीताजी की संगत और निर्देशन में इस कला में जो कुछ सीखा उसमें लोगों को लोक-शैली और कत्थक का एक नया समन्वय देखने को मिला, जिसे चारों ओर अच्छी सराहना मिली।
    इन पांच-छः वर्षों में मुझे पढ़ने और अपनी कला प्रस्तुत करने के जो अवसर मिले, उनमें मैं ऐसी मगन रही कि कब मैंने हाई स्कूल और सीनियर सेकेण्डरी पास कर ली और कब एक नयी कलाकार के रूप में मैं चर्चित हो गई, उसकी ओर तो मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया। इन वर्षों में मेरी प्रस्तुतियों से स्कूल का नाम और रुतबा तो बढ़ा ही, प्रदेश और देश के बाहरी मंचों पर भी मेरी लोक-गायकी और नृत्य-कला को अच्छी इमदाद मिली। जिन दिनों मैं सीनियर सेकेण्डरी में पढ़ रही थी, उन्हीं दिनों ऑल इंडिया रेडियो से स्वर परीक्षा के लिए बुलावा आने पर मैं उसमें भी शामिल हुई और बाद में उसका परिणाम आने पर मुझे आश्चर्य हुआ कि मुझे सीधे बी-हाई ग्रेड में पास किया गया है। यह मेरे लिए एक नया अनुभव था और उसके कारण रेडियो, टी.वी., पर्यटन विभाग के आयोजनों और बाहर के कार्यक्रमों में मुझे लगातार बुलावे आने लगे। इसी स्वर-परीक्षा के कुछ अरसे बाद जब मुझे दिल्ली के कमानी ऑडिटोरियम में आकाशवाणी के सालाना उत्सव में अपना एकल-नृत्य प्रस्तुत करने के लिए बुलाया गया, तो मैंने इस अवसर के लिए बहुत मेहनत से तैयारी की, हालांकि मैं बहुत आशंकित भी थी, लेकिन अनीताजी की हौसला-अफजाई और उनके साथ से मैंने उस आयोजन में अपने लोक-नृत्य और भवाई के अलग-अलग रूपों में ऐसे करतब दिखाए कि लोगों की आंखें खुली की खुली रह गईं। दूसरे ही दिन दिल्ली के सारे राष्ट्रीय समाचार पत्रों में मेरी नृत्य मुद्राओं की ऐसी रंगीन तस्वीरें छपीं कि मैं तो जैसे रातों-रात सारे मुल्क में चर्चित हो गई। मैं अनीताजी की बहुत अहसानमंद हूं कि ऐसी तमाम जगहों पर वे मेरी संरक्षक की तरह हर जगह मेरे साथ खड़ी रहीं और मेरी हरेक प्रस्तुति को उन्होंने खुद अपनी देखरेख में तैयार करवाया और संवारा।
     शुरू में मैं यह नहीं जानती थी कि कामयाबी और अच्छी जिन्दगी में क्या फर्क है। अपने गुरूजी और अनीताजी से इतना जरूर जान गई थी, कि अपनी ओर उठने वाली निगाहों से अपने को कैसे बचाकर रखा जा सकता है। अनीताजी ने तो बल्कि ऐसी नजरों के बारीक फर्क को भी समझाया। उन्होंने यह भी समझाया कि मुझ जैसी लड़की को अपने पांवों पर खड़ा होने के लिए आगे पढ़ना भी बहुत जरूरी है और फिलहाल मुझे अपनी पढ़ाई और नृत्य-गायन के लिए नियमित अभ्यास के अलावा किसी ओर ध्यान नहीं भटकने देना चाहिये। मुझे उनकी बातों में बहुत अपनापन लगता था और अपने प्रति एक सच्ची चिन्ता भी। नवोदय से सीनियर सेकेण्डरी पास करने के बाद मेरे पास इतनी गुंजायश भी बन गई थी कि मैं जयपुर में कॉलेज की पढ़ाई के लिए स्वतंत्र रूप से यह निर्णय ले सकती थी। खुद अनीताजी ने मेरे साथ जयपुर आकर कॉलेज में दाखिला दिलवाया और लड़कियों के हॉस्टल में मेरे लिए रहने का पूरा बंदोबस्त करवा दिया।  जयपुर में उनका अपना घर भी था, जिसमें उनकी मां और बड़े भाई का परिवार रहता था। पढ़ाई के साथ एक पेशेवर कलाकार के रूप में मेरा जुड़ाव संस्कृति मंत्रालय, पर्यटन विभाग, संगीत नाटक अकादमी और रेडियो-टी.वी. से पहले ही हो चुका था, जिसकी वजह से उनके कार्यक्रमों में मेरी हिस्सेदारी लगातार बढ़ती जा रही थी। इन्ही आयोजनों की वजह से मेरी आर्थिक जरूरतें भी आराम से पूरी हो जाती थी। यों पं. गिरिजाशंकरजी, अनीताजी, संगीत नाटक अकादमी की अध्यक्षा सुधाजी और कई बड़े कलाकारों की सलाह और संरक्षण तो मेरा पुख्ता आधार था ही।
    कॉलेज के इन वर्षों में घर से मेरा संपर्क बहुत कम रह गया था। जयपुर आने के बाद दो-तीन बार बीना के बुलावे पर जब भी जाना पड़ा, उसे लगातार किसी न किसी परेशानी में ही पाया। यों नवोदय में दाखिले के दो बरस बाद यशोदा और गौरी के विवाह के अवसर पर तो गांव आना हुआ ही था, उससे अगले बरस गनपत की सगाई के मौके पर भी आना हुआ, लेकिन जितनी बार भी गांव आई, बापू की एक ही राग रहती कि पढ़ाई पूरी कर तुरन्त वापस गांव आ जाऊं। वे मेरा और बीना का भी जल्दी से जल्दी विवाह कर देना चाहते थे। मुझे एक तरह से उनसे चिढ़-सी होने लगी थी। अजीब पिता हैं, उन्हें इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि मैं एक अच्छे स्कूल में उन पर बिना कोई बोझ रखे अपनी पढ़ाई करने में लगी हुई हूं, या कि प्रदेश में एक नयी कलाकार के रूप में अपना नाम कमा रही हूं। एक शिकायत उन्हें यह भी थी कि इन वर्षों में मैंने कलाकार के रूप में जो कुछ कमाया है, वह उन्हें क्यों नहीं सौंप दिया। यह सही है कि बाहर के आयोजनों में मुझे कुछ आर्थिक लाभ जरूर होता था और वह सारी बचत मैं एक बैंक खाते में अपनी भावी जरूरतों के लिए संचित कर रही थी। मैं यह बात अच्छी तरह जानती थी कि आने वाले दिनों में कॉलेज और यूनिवर्सिटी की पढ़ाई के समय मुझे इस बचत की बहुत आवश्यकता रहेगी।
    बापू और भाई के अटपटे व्यवहार के कारण घर से मेरी दूरी लगातार बढ़ती जा रही थी। इन वर्षों में मेरा घर में आना-जाना काफी कम हो गया था। यशोदा और गौरी के विवाह के बाद तो घर की हालत और भी बिगड़ गई थी। मुझसे छोटी बहन बीना बापू और भाई को दो समय की रोटी तो बनाकर खिला देती, पर घर की बिगड़ती दशा पर उसका कोई वश नहीं था। यशोदा बड़ी होने के कारण भाई और बापू को जरूरत पड़ने पर उनके निकम्मेपन को लेकर कुछ खरी-खोटी सुना भी देती थी, लेकिन गनपत के एकाध बार के उद्दंड व्यवहार के कारण उसने भी अब मायके आना कम कर दिया है। बीना तो हम सब से थी ही छोटी, सो उसकी परवाह भला कौन करता।
    घर में शुरू से ही दो ओरे (छोटे कमरे), रसोई और एक बाहर की ओर खुलती तिबारी (बैठक) थी, जिसमें बापू और बाहर से आने वाले लोग बैठते थे। ओरों के आगे एक लंबा बरामदा था, जिसके एक कोने में टिमची पर घर के रजाई-गद्दे और ओढ़ने बिछाने की चद्दरें वगैरह रखे रहते थे, जो अब फटकर और भी बुरी अवस्था में पहुंच गये थे। जो कपड़ा फट जाता या उधड़ जाता तो कोई टांका लगाने वाला नहीं था। इन बरसों में घर की लिपाई -पुताई न होने के कारण दीवारों का पलस्तर उखड़ने लगा था, आंगन की हालत तो और भी खराब थी। बाहर वाले मुख्य दरवाजे का फाटक टूट गया था, लेकिन उसे ठीक करवाने की जैसे इच्छा ही नहीं रह गई थी।
    पिछली बार मैं गनपत की शादी में घर से बुलावा आने के समय गई थी। उन दिनों मेरी बी.ए. की परीक्षा सिर पर थी, इसलिए सिर्फ शादी के मुख्य आयोजन में शरीक होकर दो दिन बाद ही वापस जयपुर लौट आई थी। बड़ी बहनें और बाकी रिश्तेदार भी आए थे और मेरे पहनावे को देखकर सभी ऐसे घूर रहे थे, जैसे मैंं कोई अजूबा होऊं। दबे स्वर में कुछ लोगों ने मुझे अपने कब्जे में लेने के लिए बापू को ललचाने वाले प्रस्ताव भी दिये, ऐसे में जल्दी ही मेरा वहां से मन उचट गया और शादी की रस्म पूरी होने के दूसरे दिन ही मैं अपनी परीक्षा का बहाना लेकर वहां से लौट आई थी। लेकिन इन दो दिनों में भी घर की दुर्दशा मुझसे छिपी नहीं रह सकी।
    गनपत की शादी के डेढ़ बरस बाद इस बार सिर्फ बीना की चिन्ता को लेकर गांव आई हूं, सो भी बिना बुलाए। जबकि इसी डेढ़ बरस में बापू ने कई बार बुलावा भिजवाया था, एकबार तो स्वयं गनपत लेने भी आया, लेकिन मेरी घर आने की कोई इच्छा नहीं रह गई थी। मैंने उसे पढ़ाई की व्यस्तता का बहाना बनाकर वापस भेज दिया था। मैं जानती थी कि मुझे गांव क्यों बुलाया जा रहा है, जबकि मेरी बापू के प्रस्तावों और उस माहौल में कोई दिलचस्पी नहीं रह गई थी। लेकिन इन्हीं दिनों जब मुझे बीना के साथ हुए एक हादसे की उड़ती-सी जानकारी मिली, तो मुझे लगा कि उसकी मदद के लिए मुझे जरूर जाना चाहिए। मुझे दो बातें जानकर बेहद तकलीफ हुई - पहली तो यह कि बापू जरूरत से ज्यादा पीने लगे हैं और दूसरी उससे भी बड़ी चिन्ता की बात यह कि बीना का चाल-चलन गांव वालों के लिए चर्चा का विषय बनता जा रहा था। घर पहुंचकर जब मैंने उसे अकेले में अपने पास बिठाकर वास्तविकता जाननी चाही तो पहले तो वह इसी बात पर बिफर गई कि मैं भी गांव वालों की सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास करके उससे बात करने आई हूं और अगर उसके साथ कुछ बुरा हुआ है तो मैं उसकी क्या मदद कर सकती हूं? जब मैंने बहुत जोर देकर कहा कि मैं किसी के कुछ कहने से कोई धारणा नहीं बना रही हूं, मैं तो स्वयं उसी के मुंह से उसकी परेशानी समझना चाहती हूं, मदद क्या कर पाऊंगी, इसका फैसला तो सारी बात जानने के बाद ही किया जा सकेगा। मेरी हमदर्दी से आखिर उसका कठोर चेहरा थोड़ा नर्म पड़ा और कुछ ही क्षणों में उसकी आंखों से आंसू बह निकले। उसकी शिकायत थी कि घर में कोई उसकी परवाह नहीं करता, घर में अगर खाने-पीने का सामान निवड़ जाए तो उसी को भाग-दौड़ करके इंतजाम करना पड़ता है, बाप और भाई दोनों छककर दारू पीते हैं और कभी-कभी तो उस पर हाथ भी उठा देते हैं। ऐसी हालत में पड़ौस में हमारी चाची के पास जाकर रात बितानी पड़ती है।
    और फिर उसने ज्यादा कुरेदने पर वह वाकया भी बताया, जिसने उसकी सारी उम्मीदें हिलाकर रख दी हैं। उसने बताया कि पिछले दिनों एक परिचित सेठ के घर उनकेे लड़के की शादी के समय रतजगे की रस्म में गीत गाने के लिए वह भी चाची के साथ उनके घर गई थी। वहीं रात को गीत गाने दौरान ही किसी ने उसे चाय या शरबत में कुछ ऐसा पिला दिया कि उसे चक्कर आने लगे। जब उसकी तबियत बिगड़ने लगी तो सेठ के लड़के ने यह कहकर कि वह उसे घर पहुंचा देगा, उसे वहां से अपनी गाड़ी में बिठाकर निकल गया। रास्ते में कब उसे बेहोशी ने घेर लिया, उसे इसकी कुछ जानकारी नहीं रही। शायद दो-ढाई घंटे बाद जब उसे होश आया तो वह एक अनजान जगह पर किसी और लड़के के साथ सोई हुई थी। कमरे में लैंप की मद्धिम-सी रोशनी थी। उसने लड़के की ओर देखा तो वह बेशर्मी से हंस रहा था। उसके अस्त-व्यस्त कपड़ों और शरीर की दुर्दशा से स्पष्ट था कि उसके साथ जो अकाज होना था, वह हो चुका था। वह उसे परे धकेलकर पलंग से उठ खड़ी हुई और जगह को पहचानने की कोशिश की। ज्यों ही लड़के ने उससे बात करनी चाही, उसने पलटकर एक चांटा उसके गाल पर जड़ दिया और उसे गालियां देती हुई वहां से बाहर निकल आई। बाहर आते ही वह इलाके को पहचान गई थी, यह उसी सेठ का फार्म-हाउस था, जो गांव के पास ही एकान्त में पड़ता था। खुद सेठ का लड़का भी बाहर ही खड़ा था। बाहर निकलने पर सेठ के लड़के ने भी उसे राजी करने की पूरी कोशिश की, उसे हर तरह के प्रलोभन दिये गये, फिर यह भी कहा कि वह उसे उसके घर के पास छोड़ देगा लेकिन वह उसे हिकारत से देखती हुई बिना ज्यादा वक्त गंवाए, नंगे पांव पैदल ही आधी रात को अपने घर की ओर रवाना हो गई। जब घर पहुंची तो देखा कि बाप और भाई दोनांे नशे में बेहोश पड़े थे, ऐसे में वह किसके आगे फरियाद करती। सुबह जब देर से उसकी आंख खुली, तब तक उनका कहीं अता-पता नहीं था। दूसरे दिन किसी ने उनके आगे न जाने क्या बात बना कर बहका दिया कि वे दोनों उल्टे उसी पर लांछनों की बौछार लेकर आ चढ़े, उसके साथ वास्तव में क्या-कुछ घटित हुआ, यह जानने में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। कोई कह रहा था कि सेठ ने उन्हें प्रलोभन देकर पहले ही अपने वश में कर लिया था और तब से लगातार उल्टे उसी को बदनाम करने की कोशिशें की जा रही हैं। ऐसे में उसका गांव में जीना दूभर हो गया है।
    ‘‘अब तू ही बता, मैं किसके आगे पुकार करूं? और यहां कौन है मेरा धणी-धोरी? मैं तो लाठी और भींत के बीच में आ गई हूं, जीने के लिए जो जरूरी लगता है वह काम कर लेती हूँ , हालांकि ऐसे जीने में कोई सार है नहीं, पर तू विश्वास रख, मैं अपनी जांण में ऐसा कोई उल्टा काम नहीं करती, जिससे खुद मुझे ही शर्म आने लगे, लोगों को तो चौंकाऊ बातें करने का मौका मिलना चाहिए...! यों घर में मुझे कोई खाता नहीं, लेकिन इन बाप-भाई के नाम से तो मुझे चिढ़ ही हो गई है। ज्यादा भली चाची भी नहीं हैै... वह भी अपनी सारी बेगारें निकलवा कर ही पीछा छोड़ती है, लेकिन इन दोनों से तो वही ठीक है... कम-से-कम रात-विरात उसके पास डर तो नहीं है!’’
    ‘‘पर तेरी तो सगाई भी हो रखी थी न, फिर शादी का क्या हुआ? गनपत के साले से ही तो होनी थी?’’ उसकी इस हालत पर मुझे यही एक उपाय सूझ रहा था।
    ‘‘लड़का तो तैयार है, पर उसके बाप को रोकड़े चाहिएं। उनकी बेटी की शादी हो गई, सो अब वह गरज भी मिट गई। इन बाप-बेटों की हालत तू देख ही रही है! अगर किसी के ब्याह-सगाई में कुछ गा-बजाकर बचा लूं, तो ये मुझे पकड़ कर लूम जाते हैं। बीरे के पीछे जो भाभी आई है वह इनसे भी आगे निकलने को तैयार बैठी है, उसे तो मैं फूटी आंख नहीं सुहाती! ब्याह-सगाइयों में आजकल सब कैसटों से काम चलाते हैं, अब रीत-रस्म के गानों का समय नहीं रहा। अव्वल तो बुलावे आते ही कम हैं और महीने में दो-चार आते हैं तो अब मैंने भी उनकी परवाह करनी छोड़ दी है। कोई बुलाता है तो टाल ही जाती हूं, क्या फायदा है कहीं जाने का?’’ उसने हारे हुए स्वर में उत्तर दिया था।
     घर में पहली बार लगा कि बीना को वाकई मेरी मदद की सख्त जरूरत है। मैं इस घर के लिए और कुछ कर पाऊं या न कर पाऊं, बीना की मदद तो मुझे करनी ही होगी। मैंने उसी दिन अपने गुरू गिरिजाशंकरजी को उनके घर जाकर बीना की सारी परेशानी बताई, उन्होंने अगले दिन सुबह ही मेरे साथ रामगढ़ चलकर लड़के के बाप से बात करने  का आश्वासन दिया और मुझे वापस घर भेज दिया। रात को घर में बापू और भाई ने मुझसे कोई बात नहीं की। अगले दिन सुबह ही मैंे गुरूजी को साथ लेकर रामगढ़ चली गई। संयोग से बाप-बेटे घर में ही थे। लड़का भी गुरूजी का शिष्य रह चुका था। यों भी गिरिजाशंकरजी का इस हलके में सभी बहुत आदर-सम्मान करते थे। लड़का चूरू में एक बैंड-बाजे के समूह में ट्रम्पेट बजाने का काम कर रहा था, बीना को भी वह खूब पसंद करता था, बीना यों दीखने में थी भी खूबसूरत। मेरे पास पंद्रह-बीस हजार तक खर्च करने की गुंजाइश थी, जो मैंने गुरूजी को पहले ही बता दी थी। गुरूजी ने समधी जी से एक महीने बाद शादी की तारीख पक्की कर ली, क्योंकि मेरे पास बीना के लिए और कोई रास्ता नहीं बचा था। उनसे बात पक्की कर हम उसी शाम फतहपुर वापस आ गये।
    शाम को घर के कमरे में बैठकर बाप, भाई और भोजाई को जब मैंने यह खबर दी कि मैं बीना की शादी की तारीख पक्की कर आई हूं, तो बापू तो कुछ नहीं बोले, लेकिन भाई गनपत बुरी तरह से झुंझला गया। उसे यह अपना अपमान लग रहा था। बात सुनकर भोजाई भी मुंह बिचकाए उल्टी घूमकर बैठ गई थी। एतराज यही कि उनसे बगैर पूछे या बिना सलाह किये मैं तारीख पक्की करने वाली कौन होती हूं। उनका यह रवैया देखकर उन्हें यह याद दिलाना व्यर्थ था कि मैं भी उनकी सगी बहन हूं और बीना का भला-बुरा सोचने का मुझे भी उतना ही हक है जितना कि उनको। पर यह बात मेरे मुंह पर आने से पहले ही गनपत अपने आपे से बाहर आ गया। वह चिढ़ते हुए बोला, ‘‘तूने जब घर से कोई तालमेल रखना ही छोड़ दिया तो यह फैसला लेने का अधिकार तुझे किसने दिया कि तू बीना के मामले में कोई पंचायती करे?’’
     ‘‘क्यों भाई, मैंने ऐसा क्या गुनाह कर दिया, बीना की सगाई तो तुम्हीं लोगों की करी हुई थी न! फिर मैंने यदि समधी जी को शादी के लिए राजी कर लिया तो तुम्हें कहां कष्ट हो गया?’’ मैंने ठंडे स्वर में उत्तर दिया।
     ‘‘तूने तो यों ही बिरादरी में हमारा जीना हराम कर रखा है, हर कोई हमें भौंडता फिर रहा है कि तुम्हारी बहन तो सारी दुनियां में मंचांे पर नाचती-गाती फिर रही है, न कोई लाज-शर्म और न घर-परिवार की चिन्ता!’’ उसने गुस्से में आते हुए मुझ पर पहला आरोप ताना।
    मैंने उसका भी धैर्य से उत्तर दिया, ‘‘लोगों के कहने और घर-परिवार की चिन्ता को तो एकबारगी अलग रख, वह तो तू भी जानता है कि कौन-कितनी-क चिन्ता रखता है, मुझे तो यही समझा दे कि मंचों  पर गाना और नाचना तुम्हारे लिये लाज-शर्म की बात कब से हो गई। अपने बाप-दादा का तो यह खानदानी पेशा रहा है, जबकि मैंने तो बहुत इज्जत के साथ यह कला अपनाई है और इसके जरिये सभ्य समाज में अच्छी इज्जत और इमदाद भी पाई है, फिर तुम्हारे लिए यह लाज-शर्म की बात कैसे हो गई।’’
    ‘‘मैं तुझसे ज्यादा बहस नहीं करना चाहता... मुझे तो यही कहना है कि तू जब हमारी वाधू रही ही नहीं, तू तो वसुधा बन गई है... खुद इतनी मन-मरजी करने लगी है कि बाप और भाई को तो किसी गिनती में ही नहीं रखती तो फिर घर में पंचायती किस नाम की करना चाहती है.... तू अपना ही भला-बुरा देख न... बीना का ब्याह कब होना है, इससे तुझे क्या लेना-देना है... वह हम जानें और यह जाने...’’
    मैं गनपत के इतने सपाट और रूखे बोल सुनकर एकबारगी तो अचरज में अबोली रह गई.... मन में गुस्सा भी आ रहा था, लेकिन उससे भी अधिक चिन्ता इस बात की हो रही थी कि कहीं बनी हुई बात बिगड़ न जाए... मैं इसी दुविधा में बैठी कुछ जवाब सोच ही रही थी कि इतने में गुस्से से भरी हुई बीना फुंफकार उठी, ‘‘तो अब तू रह गया है मेरा भला-बुरा देखने वाला, ये मेरी मां-जाई बहन है और कुछ भला करने लायक है तो इसके करने से तो तेरी इज्जत उतर रही है.... जिन बहनों के तुझ जैसे भाई और वैसा ही पीछे बाप हो तो उन्हें तो जल्दी ही कोई गहरा कुआं या खाड देख लेनी चाहिए! आया बड़ा मेरा भला सोचने वाला... इन पिछले बरसों में देखी नहीं क्या तुम्हारी भलाई.... घर में दो टंक रोटी तो और बात है, इज्जत से दो घड़ी आंगन में खड़ी रह जाएं वही बहुत बड़ी बात है... तुम लोग मुझे कितना सहारा देने वाले हो, वह मैंने अच्छी तरह जान लिया है... मेरी जुबान मत खुलवाओ... मुंह छुपाने को गली नहीं मिलेगी...!’’ गुस्से और अवसाद में बीना की सांस धौंकनी की तरह बजने लगी थी और उसकी आंखों में आंसू छलछला आए थे, उसका गला अवरुद्ध हो रहा था। मैं कुछ बात संभालना चाह रही थी, उससे पहले ही गनपत उठा और गुस्से से पैर पटकता हुआ घर से बाहर निकल गया। बापू वैसे ही नशे में संज्ञाहीन-से बैठे थे और भोजाई भी उठकर कमरे के भीतर चली गई थी।
     यों बात को बीच ही में छोड़कर चले जाने के उपरान्त यह तो स्पष्ट था कि भाई से इस स्तर पर बात करने का अब कोई अर्थ नहीं रह गया था। बापूजी की हालत को देखते  हुए और कुछ सोचने की गुंजायश बची ही नहीं थी। ओरे की लटान पर खंख से भरी उनकी सारंगी में अब कोई तार-स्वर बाकी नहीं रह गया था, ब्याव-सगाइयों में कोने में रखे जिस ढोल पर मां और यशोदा के स्वर परवान चढ़ते थे, उसकी मंढ़ी हुई खाल अब जगह-जगह से फट गई थी और पास में मौन बैठी बीना के स्वर की थकान और उसका उफान घर के अंधेरे कोनों में अब भी गूंज रहा था.... मैं जानती थी कि इस बिखरी हुई सरगम का अब आमूल बदल जाना लाजिमी हो गया है, उसकी स्वर-ताल को उन्हीं खंडित साजो के माध्यम से साधना अब संभव नहीं रह गया था.... मैं यह भी जानती थी कि भाई की यह उफनती रीस उसकी अपनी कमजोरियों को ढकने का मिथ्या बहाना बनकर रह गई हैं - न वह तय की हुई तारीख में कोई विघ्न डाल सकता है और न होते हुए काम में कोई सहारा दे सकता है। मैं उससे कोई सहारा मांग भी नहीं रही.... मैंने पहले तो बीना को ही यह समझाने का यत्न किया कि वह धीरज रखे और यह समझ ले कि जिन लड़कियों के मां-बाप और भाइयों में अपनी जिम्मेदारी उठाने की ऊर्जा नहीं होती, उन पर ज्यादा निर्भरता या असन्तोष दिखाने से कुछ नहीं होता। उन्हें अपना आपा खुद संभाल लेना चाहिए और यदि कोई अनावश्यक दबाव पड़ता हो तो हिम्मत से उसका सामना करना चाहिए। यों बात-बात पर कुँए-खाड की बात सोचना तो एक तरह से अपनी ही कमजोरी उजागर करना है....!
     बस, इसी ऊहापोह और आकुलता में रात से मेरा कलेजा भीतर-ही-भीतर छटपटा रहा है कि आज घर और परिवार नाम की संस्था में कमजोरियां इतनी गहरी कैसे पैठ गईं? यह कितनी दुखद बात है कि वह आपस के रिश्तों की इतनी-सी मर्यादा को भी बचाकर नहीं रख पा रहा है ! अपने परिवार और समाज में ही यदि मनुष्य इतना अकेला और अनसुहाता हो जाए तो फिर हम किस तरह के भविष्य की उम्मीद रखते हैं.....!

***




-          नन्‍द भारद्वाज
71/247, मध्‍यम मार्ग,
मानसरोवर, जयपुर – 302020
nandbhardwaj@gmail.com

 राजस्थान के सीमावर्ती जिले बाड़मेर के माडपुरा गाँव में फागुन वदी अष्टमी, वि. संवत् २००५ (२० मार्च १९४९) को जन्म, लेकिन राजकीय दस्तावेज में १ अगस्त १९४८ दर्ज। हिन्दी और राजस्थानी में कवि, कथाकार, समीक्षक और संस्कृतिकर्मी के रूप में सुपरिचित। सन् १९६९ से कविता, कहानी, उपन्यास, आलोचना, संवाद और अनुवाद आदि विधाओं में निरन्तर लेखन और प्रकाशन। जन संचार माध्यमों विशेषत; पत्रकारिता, आकाशवाणी और दूरदर्शन में सम्पादन, लेखन, कार्यक्रम नियोजन, निर्माण और पर्यवेक्षण के क्षेत्र में पैंतीस वर्षों का कार्य अनुभव।

3 comments:

  1. बेहद संवेदनशील कहानी

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  2. समाज की विसंगतियों पर संवेदनशील कहानी। घर और परिवार, परिवार और समाज और इन सभी के बीच एक व्यक्ति सारा जीवन उहापोह में बिता देता है। अच्छी कहानी पढवाने के लिए फर्गुदिया का आभार .

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  3. ek samvedansheel kahani..nari ki vyatha ko behtar dhang se prastut kiya gaya hai.

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