कुछ माँ की मीठी यादें, कुछ सरहद पर तैनात अपनों प्रति दर्द का मार्मिक चित्रण करती उपासना सियांग की भाव प्रधान कविताएँ .
1- मेरा पहला प्रेम-पत्र
बरसों बाद किताबों में दबा
मुड़ा हुआ कागज़ का एक टुकड़ा मिला
खोल कर देखा तो याद आया
ये तो वो ख़त है
जो मैंने कभी लिखा था 'उसको'
हाँ .. ये मेरा ही लिखा हुआ था
प्यार भरा ख़त
मेरा पहला प्रेम-पत्र
जो मैंने उसे कभी दिया ही नहीं
उसमें वो सब लिखा था
जो मैं कभी उसे कह ना पाई
लिखा था ....
क्यूँ उसकी बातें
मुझे सुननी अच्छी लगती है
और उसकी बातों के जवाब में
क्यूँ जुबां कुछ कह नहीं पाती
लिखा था क्यूँ मुझे
उसकी आँखों में अपनी छवि
देखनी अच्छी लगती है
पर ....
नजर मिलने पर ना जाने क्यूँ
पलकें झुक जाती है
लिखा था क्यूँ
मैं उसके आने का पल-पल
इंतज़ार करती हूँ
और आ जाने पर क्यूँ
मेरे कदम ही नहीं उठते
रात को जाग कर लिखा ये प्रेम-पत्र
रात को ही ना जाने
कितनी बार पढ़ा
ना जाने कितने ख्वाब सजाये थे मैंने
ख़त पढ़कर वो क्या सोचेगा
या मेरे ख़त के जवाब में
क्या जवाब देगा ....!
सोचा था सूरज की पहली किरण
मेरा ये पत्र ले कर जाएगी
पर उस दिन सूरज की किरण
सुनहरी नहीं रक्त-रंजित थी
मेरे ख़त से पहले ही उसका ख़त
मेरे सामने था .......
लिखा था उसमे
उसने सरहद पर
मौत को गले लगा लिया .....!!
मेरा पहला प्रेम-पत्र
मेरी मुट्ठी में ही दबा रह गया
बन कर
मुड़ा हुआ एक कागज़ का टुकड़ा........!!!
2-माँ के हाथ का गुलाबी स्वेटर
पार्सल खोला तो
सामने माँ के हाथ
का बुना स्वेटर था
गुलाबी स्वेटर ,नर्म -
मुलायम सा ,बिलकुल
माँ के हाथों और दिल जैसा
पिछले दो सालों से बुन
रही थी इसे वो ,
ऊन के गोले को
जाने कितनी बार अपने गालों से
सहलाया होगा माँ ने ,कहीं
ये ऊन चुभने वाली तो नहीं ,
वो अभी भी मुझे छोटी सी
गुडिया ही समझती है ,वो
अब भी नहीं समझना चाहती
उम्र और समय ने मुझे भी बड़ा
बना दिया है ...............
स्वेटर हाथ में लिया तो बचपन में
चार बजे उठा कर पढ़ने बिठा कर ,
अपने हाथो में स्वेटर बुनती
और ..मेरे लिए आँखों में ख्वाब बुनती दिखी माँ .........
माँ ने ना जाने कितनी बार अपनी
कमजोर होती आँखों का चश्मा
उतार कर पोंछा होगा और फिर
से उनमे अपनी ममता भर कर
बुनने लगी होगी ............
एक -एक फंदे ,डिजाइन में प्यार
और ममता डाल कर बुने इस
स्वेटर में कितनी गर्माहट है
ये तो वही बता सकता है जिसने
माँ के हाथो से बुना स्वेटर पहना हो ......
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नर्तकी
विवाह का शानदार समारोह
चहुँ ओर रौशनी ,चमकीला
शोर -शराबा और नर्तकी का
भड़कीला नृत्य ...............
नर्तकी , निर्विकार रूप से
संगीत पर नृत्य करती
इधर -उधर , नज़र दौड़ाती ,
अश्लील -फब्तियों के तीरों को
सहन करती ,..............
आखिर थक -हार के जब आईने
के सामने आ खड़ी हुई और
चेहरे से एक -एक कर के रंग
उतारना शुरू किया
सामने माँ के हाथ
का बुना स्वेटर था
गुलाबी स्वेटर ,नर्म -
मुलायम सा ,बिलकुल
माँ के हाथों और दिल जैसा
पिछले दो सालों से बुन
रही थी इसे वो ,
ऊन के गोले को
जाने कितनी बार अपने गालों से
सहलाया होगा माँ ने ,कहीं
ये ऊन चुभने वाली तो नहीं ,
वो अभी भी मुझे छोटी सी
गुडिया ही समझती है ,वो
अब भी नहीं समझना चाहती
उम्र और समय ने मुझे भी बड़ा
बना दिया है ...............
स्वेटर हाथ में लिया तो बचपन में
चार बजे उठा कर पढ़ने बिठा कर ,
अपने हाथो में स्वेटर बुनती
और ..मेरे लिए आँखों में ख्वाब बुनती दिखी माँ .........
माँ ने ना जाने कितनी बार अपनी
कमजोर होती आँखों का चश्मा
उतार कर पोंछा होगा और फिर
से उनमे अपनी ममता भर कर
बुनने लगी होगी ............
एक -एक फंदे ,डिजाइन में प्यार
और ममता डाल कर बुने इस
स्वेटर में कितनी गर्माहट है
ये तो वही बता सकता है जिसने
माँ के हाथो से बुना स्वेटर पहना हो ......
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नर्तकी
विवाह का शानदार समारोह
चहुँ ओर रौशनी ,चमकीला
शोर -शराबा और नर्तकी का
भड़कीला नृत्य ...............
नर्तकी , निर्विकार रूप से
संगीत पर नृत्य करती
इधर -उधर , नज़र दौड़ाती ,
अश्लील -फब्तियों के तीरों को
सहन करती ,..............
आखिर थक -हार के जब आईने
के सामने आ खड़ी हुई और
चेहरे से एक -एक कर के रंग
उतारना शुरू किया
लेकिन ...उसके अंतस तक
एक काला रंग
औरतों का उसकी ओर
नफरत और कटाक्ष भरी नज़रों से
देखना याद आया
तो ...आंसूओं ने ही
सारा काज़ल धो डाला ..........!
सूनी आँखों से सोचती रही वह
अपनी मजबूरी को
और भारी क़दमों से
देखना याद आया
तो ...आंसूओं ने ही
सारा काज़ल धो डाला ..........!
सूनी आँखों से सोचती रही वह
अपनी मजबूरी को
और भारी क़दमों से
चल पड़ी
4-मज़बूरी
जो सर सरहद पर
न झुका था कभी
उस सर को
झुकते देखा है .......
जो सर सरहद पर
न झुका था कभी
उस सर को
झुकते देखा है .......
जिन हाथों को
दुश्मन के गले दबाते
देखा था कभी
उन हाथों को मज़बूरी में
जुड़ते देखा है .......
जो आँखे सरहद पर
अंगारे उगलती थी कभी
उन्ही आँखों को मज़बूरी के
आंसुओं से भरा देखा है .......
क्योंकि ..
क्योंकि ..
आज वो सरहद पर नहीं
अपनी बेटी के ससुराल
की देहरी पर खड़ा था ........
5-सरहद और नारी मन
की देहरी पर खड़ा था ........
5-सरहद और नारी मन
सरहद पर जब भी
युद्ध का बिगुल बजता है
मेरे हाथ प्रार्थना के लिए
जुड़ जाते हैं
दुआ के लिए भी उठ जाते हैं
सीने पर क्रोस भी बनाने
लग जाती हूँ ......
एक ही बात
सलामत रहे मेरा अपना
जो सरहद पर गया है ,
लौट आये वह फिर से
यही दुआ होती है मेरे मन में ....
मैं कौन हूँ उसकी ...!
कोई भी हो सकती हूँ
एक माँ
बहन ,पत्नी
या बेटी
'उसकी' जो सरहद पर गया है ......
इससे भी क्या फर्क पड़ता है
मैं कहाँ रहती हूँ
सरहद के इस पार हूँ या
उस पार ......
दर्द तो एक जैसा ही है मेरा
भावना भी एक जैसी ही है .......
हूँ तो एक औरत ही न ...!
उपासना सियांग
गृहिणीकवयित्री
निवास : जयपुर
प्रकाशित रचनाएँ: बोधि प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पुस्तक,
"स्त्री होकर सवाल करती है" और विभिन्न ब्लॉग पर,
कविताएँ,कहानियाँ प्रकाशित हो चुकीं हैं
उपासना जी की सभी रचनायें बेहद उम्दा और सोचने को मजबूर करती हैं।
ReplyDeletebahut shukriya vandna hi
Deletebahut shukriya vandna ji
Deleteशोभा जी तहे दिल से आभार ..
ReplyDeleteawesome.....................
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